ईरानी पुलाव
(ख़ास “हमारा अदब” के लिए)
आज रात अपनी थी क्योंकि जेब में पैसे नहीं थे। जब जेब में पैसे हों तो रात मुझे अपनी मा’लूम नहीं होती, उस वक़्त रात मरीन ड्राईव पर थिरकने वाली गाड़ियों की मा’लूम होती है। जगमगाते हुए क़ुमक़ुमों की मा’लूम होती है अमीबा सीडर होटल की छत पर नाचने वालों की मा’लूम होती है। लेकिन आज रात बिल्कुल अपनी थी। आज आस्मान के सारे तारे अपने थे। और बम्बई की सारी सड़कें अपनी थीं जब जेब में थोड़े से पैसे हों तो सारा शह्र अपने ऊपर मुसल्लत होता है, हर शय घूरती है, डाँटती है, अपने आप से दूर हटने पर मजबूर करती है। ऊनी पतलून से लेके ख़ुशनुमा वीडियो-ग्राम तक हर चीज़ कहती है मुझसे दूर हटो। लेकिन जब जेब में एक पाई न हो उस वक़्त सारा शह्र अपने लिए बना हुआ मा’लूम होता है। सड़क के पत्थर पर गली के हर मोड़ पर बिजली के हर खम्बे पर गोया लिखा होता है “ता’मीर किया गया बराए बशन एक फ़ाक़ा-मस्त मुसन्निफ़” । उस दिन न हवालात का डर होता है न गाड़ी की लपेट में आ जाने का, न होटल में खाने का। एक एेसी वसीअ बेफ़िक्री और बे-किनार फ़ाक़ा-मस्ती का नश्शा-आवर मूड होता है जो मीलों तक फैलता चला जाता है। उस रात मैं ख़ुद नहीं चलता हूँ, उस रात मुझे बम्बई की सड़कें उठाए-उठाए चलती हैं और गलियों के मोड़ और बाज़ारों के नुक्कड़ और बड़ी-बड़ी इमारतों के तारीक कोने मुझे ख़ुद दा’वत देते हैं। “इधर आओ हमें भी देखो, हम से मिलो, दोस्त तुम आठ साल से इस शह्र में रह रहे हो लेकिन फिर भी अजनबियों की तरह क्यों चल रहे हो, इधर आओ हम से हाथ मिलाओ”
आज रात अपनी थी, आज रात किसी का डर न था, डर उसे होता है जिस की जेब भारी होती है, उस ख़ाली जेबों वाले मुल्क में भरी जेब वाले लोगों को डर होना चाहिए लेकिन अपने पास क्या था जिसे कोई छीन सकता। सुना है हुकूमत ने एक क़ानून बना रखा है जिस की रू से रात के बारह बजे के बा’द सड़कों पर घूमना मना है, क्यों? क्या बात है? रात के बारह बजे के बा’द बम्बई में क्या होता है? जिसे वो मुझसे छिपाना चाहते हैं। मैं तो ज़रूर देखूँगा चाहे कुछ भी हो जाए आज रात तो मुझे किसी का डर नहीं न किसी वज़ीर का न किसी हवालात वाले का, साला कुछ भी हो जाए, आज तो मैं ज़रूर घूमूँगा और अपने दोस्तों से हाथ मिलाऊँगा।
यही सोच कर मैं चर्च गेट ई क्ले मिशन के सामने की सड़क से गुज़र कर यूनिवर्सिटी ग्राउण्ड में घुस गया। इरादा था कि मैदान से गुज़र कर दूसरी तरफ़ बड़े तार घर के सामने जा निकलूँगा और वहाँ से फ़्लोर फ़ाउन्टेन चला जाऊँगा मगर मैदान से गुज़रते हुए मैंने देखा कि एक कोने में चन्द लड़के दायरा बनाए बैठे हैं और ताली बजा बजाकर गा रहे है :-
“तेरा मेरा प्यार हो गया तेरा मेरा तेरा मेरा तेरा मेरा प्यार हो गया... आ, आ, आ”
दो तीन लड़के ताली बजा रहे थे, एक लड़का मुंह से बाँसुरी की सी आवाज़ निकालने कि कोशिश कर रहा था एक लड़का सिर हिलाते हुए एक लकड़ी के बक्स से तबले के बोल निकाल रहा था, सब ख़ुशी में झूम रहे थे और मोटी-पतली ऊँची-नीची आवाज़ों में गा रहे थे। मैंने क़रीब जा के पूछा “क्यों भाई! किस का किस से प्यार हो गया?”
वो लोग गाना बन्द करके एक लम्हे के लिए मुझे देखने में मस्रूफ़ हो गए। पता नहीं मैं लोगों को देखने में कैसा लगता हूँ लेकिन इतना मुझे मा’लूम है कि एक लम्हा देखने के बा’द लोग बहुत जल्द मुझसे घुल मिल जाते हैं, मुझसे मानूस हो जाते हैं कि ज़िन्दगी भर के राज़ और अपनी मुख़्तसर सी काएनात की सारी तस्वीरें और अपने दिल के सारे दुख और दर्द मुझसे कहने लग जाते हैं, मेरे चेहरे पे कोई बड़ाई नहीं है, कोई ख़ास अचम्भे की बात नहीं है, कोई रौब और दबदबा नहीं है, मेरे लिबास में भी कोई शौकत नहीं है, वो तनतना नहीं है जो काली अचकन और सुर्ख़ गुलाब के फूल में होता है या शार्क स्किन के सूट में होता है। बस पाँव में मा’मूली सी चप्पल है उसके ऊपर लट्ठे का पाजामा है और उसके ऊपर लट्ठे की क़मीज़ है जो अक्सर पीठ पर मैली रहती है। क्योंकि एक तो मुझे अपने झोंपड़े में ज़मीन पर सोने की आदत है। दूसरे मुझ में ये भी बुरी आदत है कि जहाँ मैं बैठता हूँ अक्सर दीवार के सहारे पीठ लगा के बैठता हूँ, ये अलग बात है कि मेरी ज़िन्दगी में मैली दीवारें ज़ियादा आती हैं और उजली दीवारें बहुत कम।
क़मीज़ कम्बख़्त कंधों से बहुत जल्द फट जाती है और वहाँ आपको अक्सर टाँके लगे दिखाई देंगे। बड़ी मेहनत और सफ़ाई से मैं वो टाँके लगाता हूँ मगर फिर भी टाँके दिखाई देते हैं क्योंकि टाँके फटे हुए कपड़े के दो किनारों को जोड़ने का नाम है। फटे पुराने कपड़े को बार-बार जोड़ने की कोशिश क्यों की जाती है, क्यों हर आदमी काली अचकन पर सुर्ख़ गुलाब का फूल नहीं टाँक सकता। उस टाँके और इस टाँके में इस क़दर फ़र्क़ क्यों है? ये सच है कि दो इन्सान एक जैसे नहीं होते, एक शक्ल-ओ-सूरत के नहीं होते। बम्बई में शब-ओ-रोज़ मुख़्तलिफ़ चेहरे देखता हूँ, लाखों मुख़्तलिफ़ चेहरे, लेकिन ये क्या बात है कि उन सब के कन्धों पर वही टाँके लगे हुए हैं, लाखों टाँके। फटी हुई ज़िन्दगियों के किनारे मिलाने की नाकाम कोशिश करते हुए।
एक नक़्क़ाद ने मेरे अफ़्साने पढ़ कर मुझसे कहा था कि मुझे उन में किसी इन्सान का चेहरा नज़र नहीं आता। यही मुझ में मुसीबत है कि मैं अपने किरदारों के चेहरे बयान नहीं कर पाता, उनके कन्धों के टाँके देखता हूँ, टाँके जो मुझे इन्सान का अन्दरूनी चेहरा दिखाते हैं, उसकी दिन रात की कश्मकश और उसकी शब-ओ-रोज़ की मेहनत का सुराग़ बताते हैं। जिस के बग़ैर ज़िन्दगी की कोई नाविल और समाज का कोई अफ़्साना मुकम्मल नहीं हो सकता। इसलिए इस बात की मुझे ख़ुशी है कि मेरा चेहरा देख कर कोई मुझे क्लर्क समझता है कोई कबाड़िया कोई कँघी बेचने वाला या बाल काटने वाला। आज तक मुझे किसी ने वज़ीर या जेब काटने वाला नहीं समझा। इस बात की मुझे बड़ी ख़ुशी है कि मैं उन लाखों करोड़ों छोटे आदमियों में से एक हूँ जो बहुत जल्द एक दूसरे से किसी रस्मी तआ’रुफ़ के बग़ैर मानूस हो जाते हैं।
यहाँ भी एक इम्तेहानी लम्हे की झिझक के बा’द वो लोग मेरी तरफ़ देख के मुस्कुराने लगे, एक लड़के ने मुझसे कहा “आओ भाई तुम भी यहाँ बैठ जाओ और अगर गाना चाहते हो तो गाओ।” इतना कह के उस दुबले पतले लड़के ने सर के बाल झटक के पीछे कर लिए और अपना लकड़ी के बक्स का तबला बजाने लगा। हम सब लोग मिल कर फिर गाने लगे :-
“तेरा मेरा मेरा तेरा तेरा मेरा प्यार हो गया”
यकायक उस दुबले-पतले लड़के ने तबला बजाना बन्द कर दिया, और अपने एक साथी को जो अपनी गर्दन दोनों टाँगों के अन्दर छिपाए हुए उकड़ूँ बैठा था, ठोकर मार कर कहने लगा “अबे मधुबाला तूँ क्यों नहीं गाता?”
मधुबाला ने अपना चेहरा टाँगों में से बड़ी दिक़्क़त से निकाला, उसका चेहरा मधुबाला एक्ट्रेस कि तरह हसीन नहीं था। ठुड्डी से लेकर दाएँ कन्धे से दाएँ हाथ की कुहनी तक आग से जलने का एक बहुत बड़ा निशान यहाँ से वहाँ तक चला गया था। उसके चेहरे पर कर्ब के आसार नुमायाँ थे, उसकी छोटी-छोटी आँखों में जो उसके गोल चेहरे पर दो काली-काली दर्ज़ें मा’लूम होती थीं इन्तेहाई परेशानी झलक रही थी, उसने अपने होंठ सुकोड़ के तबले वाले से कहा “साले! मुझे रहने दे मेरे पेट में दर्द हो रहा है।”
“क्यों दर्द होता है साले! तूने आज फिर ईरानी पुलाव खाया होगा।”
मधुबाला ने बड़े दुख से सर हिलाते हुए कहा “हाँ वही खाया था।”
“क्यों खाया था साले?”
“क्या करता आज सिर्फ़ तीन जूते बनाए थे”
एक और लड़के ने जो उ’म्र में उन सब से बड़ा मा’लूम होता था जिस की ठुड्डी पर थोड़ी-थोड़ी दाढ़ी आ चली थी और कनपटियों के बाल रूख़सार की तरफ़ बढ़ रहे थे, अपनी नाक खुजाते हुए कहा :-
“अरे मधुबाला उठ मैदान में दौड़ लगा, चल मैं तेरे साथ दौड़ता हूँ, दो चक्कर लगाने से पेट का दर्द ठीक हो जाएगा, उठ!”
“नहीं साले! रहने दे”
“नहीं बे साले उठ! नहीं तो एक झापड़ दूँगा।”
मधुबाला ने हाथ जोड़ के कहा “कक्कु रहने दे मैं हाथ जोड़ के कहता हूँ ये पेट का दर्द ठीक है”
“उठ बे! क्यों हमारी संगत ख़राब करता है?”
कक्कु ने हाथ पकड़ के मधुबाला को उठा लिया और वो दोनों यूनिवर्सिटी ग्राउण्ड में चक्कर लगाने लगे।
पहले तो मैं थोड़ी देर तक उन दौड़ते हुए लड़कों को देखता रहा। फिर जब मेरे क़रीब बैठे हुए लड़के ने अपना सर खुजा के कहा “साली क्या मुसीबत है, ईरानी पुलाव खाओ तो मुसीबत है न खाओ तो मुसीबत है।”
मैंने कहा “पुलाव तो बड़ी मज़ेदार शय है उसे खाने से पेट में दर्द कैसे पैदा हो सकता है?”
मेरी बात सुन कर वो सब हँसे, एक लड़के ने जिसका नाम बा’द में मुझे कुलदीप कौर मा’लूम हुआ और जो उस वक़्त एक फटी चड्डी और एक फटी निक्कर पहने बैठा था मुझसे हँस के कहा मा’लूम होता है तुम ने कभी ईरानी पुलाव नहीं खाया है। मैंने कहा पुलाव तो कई तरह का खाया है और शायद ईरानी पुलाव खाया हो मगर तुम न जाने किस पुलाव की बात करते हो।
कुलदीप कौर ने अपनी चड्डी के बटन खोलते हुए मुझे बताया कि ईरानी पुलाव लोगों की ख़ास इस्तलाह है। उसे ये लोग रोज़-रोज़ नहीं खाते। लेकिन जिस दिन जो लड़का जूते बहुत कम पॉलिश करता है या जिस दिन उसके पास बहुत कम पैसे होते हैं उस दिन उसे ईरानी पुलाव खाना ही पड़ता है और ये पुलाओ सामने कि ईरानी रेस्तराँ में रात बारह बजे के बा’द मिलता है जब सब ग्राहक खाना खा के चले जाते हैं। दिन भर में जो लोग डबल रोटी के टुकड़े अपनी प्लेटों में छोड़ जाते हैं। डबल रोटी के टुकड़े, गोश्त और चिचोड़ी हुई हड्डियाँ, चावल के दाने, ऑमलेट के रेज़े, आलूओं के क़त्ले, ये सारा झूठा खाना एक जगह जमा कर लिया जाता है और उसका एक मलग़ूबा तैयार कर लिया जाता है और ये मलग़ूबा दो आना पलेट के हिसाब से बिकता है। पीछे किचेन के दरवाज़े पर उसे ईरानी पुलाव कहते हैं। उसे आम तौर पर इस इलाक़े के ग़रीब लोग भी नहीं खाते। फिर भी हर रोज़ दो-तीन सौ प्लेटें बिक ही जाती हैं। ख़रीदारों में ज़ियादा तर जूते पॉलिश करने वाले आते हैं। फर्निचर उठाने वाले, ग्राहकों के लिए टैक्सी लाने वाले या आस-पास कि बिल्डिंगों के बे-कार नौकर या ज़ेर-ए-ता’मीर बिल्डिंगों में काम करने वाले मज़दूर भी होते हैं।
मैं कुलदीप कौर से पूछा तुम्हारा नाम कुलदीप कौर क्यों है?
कुलदीप कौर ने अपनी बंडी बिल्कुल उतार दी थी और अब वो बड़े मज़े से घास पर लेटा हुआ अपना स्याह पेट सहला रहा था वो मेरा सवाल सुन के वहीं घास पर लोट-पोट हो गया। फिर हँस चुकने के बा’द अपने एक और साथी से कहने लगा ज़रा मेरा बक्सा लाना।
साथी ने कुलदीप कौर का बक्सा ला के दे दिया। कुलदीप कौर ने बक्सा खोला उसमें पॉलिश का सामान था। पॉलिश कि डिब्बियों पर कुलदीप कौर की तस्वीर बनी हुई थी। फिर उसने अपने साथी से कहा तू भी अपना बक्सा खोल। उसने भी अपना बक्सा खोला। उसके बक्स में जितनी भी छोटी बड़ी डिब्बियाँ थीं उन पर नरगिस की तस्वीर थी जो रिसालों और अख़बारों से काट कर लगाई गई थीं। कुलदीप कौर ने कहा ये साला नरगिस का पॉलिश मारता है, वो निम्मी का, वो सुरैय्या का। हम में से जितना पॉलिश वाला है किसी न किसी फ़िल्म एक्ट्रेस की तस्वीर काटकर अपने डिब्बों पर लगाता है और उसका पॉलिश करता है, क्यों?
साला ग्राहक इन बातों से बहुत ख़ुश होता है। हम उससे बोलता है साहब कौन पॉलिश लगाऊँ नरगिस की सुरैय्या कि मधुबाला? फिर जो ग्राहक जिस फ़िल्म एक्ट्रेस को पसन्द करता है उसका पॉलिश माँगता है। तो हम उसको उस लड़के के हवाले कर देता है जो नरगिस का पॉलिश या निम्मी का या किसी दूसरी फ़िल्म एक्ट्रेस का पॉलिश मारता है। हम आठ लड़के हैं। इधर सामने चर्च गेट पर सी बस स्टैण्ड के पीछे बैठते हैं जो जिस के पास जिस एक्ट्रेस का पॉलिश है वही उसका नाम है। इससे हमारा धन्धा बहुत अच्छा चलता है और काम करने में भी मज़ा आता है।
मैंने कहा तुम इधर बस स्टैण्ड के पीछे फ़ुटपाथ पर ईरानी रेस्तराँ के सामने बैठते हो तो पुलिस वाला कुछ नहीं कहता? कुलदीप कौर औंधे मुंह लेटा था अब सीधा हो गया। उसने अपने हाथ के अँगूठे को एक उँगली में दबा के यकायक एक झटके से यूँ नचाया जैसे वो फ़िज़ा में इकन्नी उछाल रहा हो। बोला वो साला क्या कहेगा उसे पैसा देता है और यहाँ इस मैदान में जो सोता है उसका भी पैसा देता है।
पैसा? इतना कह के कुलदीप कौर ने फिर अँगूठे से एक ख़्याली इकन्नी हवा में घुमाई और फ़िज़ा में देखने लगा और फिर दोनों हाथ खोल के उसने उस इकन्नी को दबोच लिया। फिर उसने अपनी दोनों हथेलियों को खोल के देखा मगर वो दोनों हथेलियाँ ख़ाली थीं। कुलदीप कौर बड़ी मज़ेदार तल्ख़ी से मुस्कुराया उसने कुछ कहा नहीं चुप-चाप औंधा लेट गया।
नरगिस ने मुझसे कहा तुम उधर दादर में पॉलिश करते हो ना? मैंने तुम को यज़दान होटल के सामने शायद देखा था। मैंने कहा हाँ मुझ को एक तरह का पॉलिश करने वाला ही समझो।
एक तरह से कैसा? कुलदीप कौर उठ के बैठ गया। उसने मेरी तरफ़ घूर के कहा साला सीधे-सीधे बात करो ना? तुम क्या करता है?
उसने मुझे साला कहा मैं बहुत ख़ुश हुआ। कोई और मुझे साला कहता तो मैं उसे एक झापड़ देता मगर जब उस लड़के ने मुझे साला कहा तो मैं बहुत ख़ुश हुआ। क्योंकि यहाँ साला गाली का लफ़्ज़ नहीं था, बिरादरी का लफ़्ज़ था, उन लोगों ने मुझे अपनी बिरादरी में शामिल कर लिया था। इसलिए मैंने कहा भाई एक तरह से मैं भी पॉलिश करने वाला हूँ और कभी-कभी चेहरे और कभी-कभी पुराने मैले चमड़ों को ख़ुरच कर देखता हूँ कि अन्दर क्या है? नरगिस और निम्मी एक दम उठे। तू साला फिर गड़बड़ घोटाला करता है। साफ़-साफ़ क्यों नहीं बोलता क्या काम करता है? मैंने कहा मेरा नाम बिश्न है कहानियाँ लिखता हूँ, अख़बारों में बिकता हूँ।
ओह! तू बाबू है। निम्मी बोला। निम्मी एक छोटा सा लड़का था। यहाँ दायरे में जितने लड़के बैठे हुए थे उन सब से छोटा मगर उसकी आँखों में ज़हानत की तेज़ चमक थी। और चूँकि अख़बार भी बेचता था इसलिए उसे मुझ में बड़ी दिलचस्पी पैदा हो गई। उसने मेरे क़रीब आकर मुझसे कहा कौन से अख़बार में लिखते हो- फिरी प्रेस, सेन्टल, टाल्ज, बाम्बे क्रॉनिकल? मैं अब सब अख़बारों को जानता हूँ।
दायरा सिकुड़ के मेरे क़रीब आ गया। मैंने कहा “शाहराह” में लिखता हूँ।
“शाहरह? कौन सा न्यूज़ पेपर है?”
“दिल्ली से निकलता है”
“दिल्ली के छापेख़ाने से? ओह!” निम्मी की आँखें उसके चेहरे पर फैल गईं।
“और अदब-ए-लतीफ़ में भी लिखता हूँ” मैंने रौब डालने के लिए कहा।
कुलदीप कौर हँसने लगा क्या कहा बदबे ख़लतीफ़ में लिखता है। साले ये तो किसी इंग्लिश फ़िल्म एक्ट्रेस का नाम भी हो सकता है। बदबे ख़लतीफ़ हा हा हा।
अबे निम्मी तू अपना नाम बदल के बदबे ख़लतीफ़ रख ले बड़ा अच्छा कामुक मा’लूम होगा। हा हा हा।
जब सब लड़के अच्छी तरह हँस चुके तो मैंने बड़ी संजीदगी से कहा बदबे ख़लतीफ़ नहीं अदब-ए-लतीफ़ लाहौर से निकलता है, अच्छा पेपर है। नरगिस ने उधर से सिर हिला के कहा हाँ साले होगा अदब-ए-लतीफ़ ही होगा हम को क्या हम उसको बेच कर उधर पैसा थोड़ा ही कमाते हैं।
कुलदीप कौर मेरी तरफ़ देख के फिर हँसने लगा। मैं भी उनके साथ हँसने लगा कि और कोई चारा भी न था। कुलदीप कौर हँसते-हँसते एकदम संजीदा हो गया। मेरी तरफ़ देख के बोला और इस क़िस्से कहानी से तुम को क्या मिल जाता है?
बस तक़रीबन उतना ही जितना तुम्हें मिलता है। अक्सर कुछ भी नहीं मिलता। जब लफ्ज़ों पर पॉलिश कर चुकता हूँ तो अख़बार वाले शुक्रिया कह के मुफ़्त ले जाते है और अपने अख़बार या रिसाले को चमका देते हैं।
“तू ख़ाली मग़ज़मारी क्यों करता है। हमारी तरह पॉलिश क्यों नहीं करता” सच कहता हूँ तू भी आ जा, अपनी बिरादरी में बस तेरी ही कसर है और तेरा नाम भी बदबे ख़लतीफ़ ही रख देंगे। ला हाथ...”
कुलदीप कौर ने कहा “पर चार आने रोज़ पुलिस वाले को देने पड़ेंगे”
“और अगर किसी रोज़ चार आने न हुए तो?”
“तो हम को मा’लूम नहीं। किसी से माँग कर, चोरी करके, डाका डाल कर सन्तरी को चार आने देने ही पड़ेंगे और महीने में दो दिन हवालात में रहना पड़ेगा।”
“अरे वाह दो दिन हवालात में क्यों?”
“ये हम नहीं जानते सन्तरी को हम चार आने रोज़ देते हैं हर एक पॉलिश वाला देता है फिर भी सन्तरी हम को दो दफ़्अ’ हफ़्ते में पकड़ के ले जाता है। एेसा क़ायदा है वो बोलता है हम क्या करें।”
मैंने कहा “अच्छा दो दिन हवालात में भी रह लेंगे।”
और कुलदीप कौर ने कहा और तुम को एक बार कोर्ट में भी जाना पड़ेगा। तुम्हारा चालान होगा कमेटी के आदमी के तरफ़ से तुम को कोर्ट में जुर्माना भी होगा दो रूपए या तीन रूपए वो भी तुम को देना पड़ेगा”
“वो क्यों जब चार आने रोज़ सन्तरी को देता हूँ फिर ऐसा क्यों होगा?”
“अरे यार सन्तरी को भी तो अपनी कार-गुज़ारी दिखानी पड़ती है कि नहीं तू समझता नहीं है साले बदबे ख़लतीफ़...” मैंने आँख मार के कुलदीप कौर से कहा “साले मैं सब समझता हूँ।”
हम दोनों हँसने लगे। इतने में मधुबाला और कक्कु दोनों मैदान के तीन चार चक्कर लगा के पसीने में डूबे हुए वापस आ गए। मैंने मधुबाला से पूछा “तुम्हारा पेट का दर्द ग़ायब हो गया?”
मधुबाला ने कहा “दर्द तो ग़ायब हो गया मगर भूख बड़े ज़ोर की लगी है।”
कुलदीप कौर ने कहा “भूख तो मुझे भी लगी है।”
नरगिस ने कहा “और मुझे भी।”
निम्मी ने सिर हिला के कहा “तो क्या फिर ईरानी पुलाओ खाया जाएगा, फिर पेट में दर्द होगा, फिर मैदान के चक्कर?”
और “फिर भूख?” कुलदीप ने बड़ी तल्ख़ी से कहा।
निम्मी ने कहा “मैं दो पैसे दे सकता हूँ।”
मैंने कहा “एक आना मेरी तरफ़ से।” सब मिला के चार आने हुए। निम्मी को ईरानी पुलाओ लाने के लिए भेजा गया कि सबसे छोटा वही था और फिर ईरानी रेस्तराँ का बावर्ची उसे पसन्द भी करता था। मुम्किन है निम्मी को देख कर चार आने में दो प्लेटों के बजाय चार प्लेटें या कम-अज़-कम तीन प्लेटों का माल मिल जाए।
जब निम्मी चला गया तो मैंने पूछा “क्या तुम लोग रोज़ इसी मैदान में सोते है?” “मधुबाला के सिवाय सब लोग यहीं सोते हैं” कक्कु ने कहा “मधुबाला अपने घर जाता है मगर आज नहीं गया।”
मैंने मधुबाला से पूछा “तुम्हारा घर है?”
“हाँ साईन में एक झोंपड़ा है माँ वहाँ रहती है”
“और बाप?”
मधुबाला ने कहा “बाप का मुझे पता नहीं, होगा साला सामने वाली बिल्डिंग का कोई सेठ”
यकायक वो सब चुप हो गए जैसे किसी ने उनके चेहरे पर चुप मार दी हो। लड़के जो बे-आसरा थे बे-घर थे बे-नाम थे, जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी की कर्बनाकी को फ़िल्म एक्ट्रेसों के ख़ूबसूरत नामों में छिपाने कि नाकाम कोशिश की थी, जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी में कभी न आने वाली मोहब्बत को फ़िल्मी गानों से भरने की कोशिश की थी “तेरा मेरा प्यार हो गया”।
किधर है तेरा प्यार? एे मेरे बाप, एे मेरी माँ, एे मेरे भाई, तू कौन है, तू कौन है? किसलिए तू मुझे इस दुनिया में लाया और इन सख़्त बे-रहम टैक्स-ज़दा फ़ुटपाथों पर धक्के खाने के लिए छोड़ दिया एक लम्हे के लिए तू उन लड़कों के फ़क़ फ़रयादी चेहरे किसी ना-मा’लूम डर से ख़ौफ़ज़दा हो गए जैसे वो इधर-उधर अपने आस-पास हाथ टटोल कर किसी का आसरा तलाश कर रहे हों। यकायक वो लोग एक दूसरे के क़रीब हो गए और बड़ी इ’मारत पर फ़ुटपाथ और हर चलने वाले क़दम ने उन्हें ठुकरा दिया हो और उन्हें मजबूर कर दिया हो कि वो रात की तारीकी में एक दूसरे का हाथ पकड़ लें। मुझे वो उस वक़्त ऐसे ही ख़ौफ़ज़दा और मा’सूम मा’लूम होते थे जैसे भोले-भाले बच्चे किसी ना-मा’लूम बे-किनार जंगल में खो जाएँ। इसलिए बम्बई कभी-कभी मुझे शह्र नहीं मा’लूम होता बल्कि एक जंगल मा’लूम होता है जिस में सड़कों की बे-नाम दो दरख़्तों की भूल-भुलैया में अपना रास्ता टटोलती मा’लूम होती है और जब रास्ता नहीं मिलता तो आँखें बन्द करके एक दरख़्त के नीचे एक दायरे में सिमट जाती है। फिर मैं सोचता हूँ एेसा नहीं बम्बई एक जंगल नहीं बम्बई तो एक शह्र है, लोग कहते है इसकी एक म्युनिसपल कॉर्पोरेशन है, इसकी एक हुकूमत है, एक निज़ाम है, इसकी गलियाँ हैं, राहे हैं, बाज़ार हैं, दुकानें हैं, रास्ते में घर हैं और ये सब एक दूसरे से ऐसे जुड़े हुए हैं जैसे एक महज़ब और मुतमद्दुन शह्र में चीज़ें एक दूसरे से मुंसलिक मा’लूम होती हैं। ये सब मैं जानता हूँ, मैं भी उसकी गलियों और बाज़ारों को देखता हूँ, उसके रास्ते और घरों को पहचानता हूँ, उनकी इज़्ज़त और एहतराम करता हूँ।
लेकिन इस इज़्ज़त और एहतराम और इस मोहब्बत के बावजूद मैं ये क्यों देखता हूँ कि इस अज़ीम शह्र में कितनी ही गलियाँ ऐसी हैं जिन से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं है। कितने ही रास्ते ऐसे हैं जो किसी मंज़िल को नहीं जाते। कितने ही बच्चे ऐसे हैं जिनके लिए कोई घर नहीं।
यकायक इस ख़ामोशी को निम्मी ने तोड़ दिया वो भागता हुआ हमारे सामने आ गया, उसके हाथ में ईरानी पुलाव कि तीन पलेटें थीं और उन में से सोंधा-सोंधा धुँआ उठ रहा था। जब उसने प्लेटें लाके सामने घास पर रख दीं तो हम ने महसूस किया कि निम्मी की आँखों में आँसू हैं।
“क्या हुआ?” कुलदीप ने गरज कर पूछा।
नम्मी ने ग़ज़ब-नाक लहजे में कहा “बावर्ची ने यहाँ बड़े ज़ोर से काट खाया।” निम्मी ने अपना दायाँ रूख़्सार हमारी तरफ़ कर दिया। हम सब ने देखा कि उसके दाएँ रुख़्सार पर बहुत बड़ा निशान था।
कुलदीप कौर ने बावर्ची को गाली देते हुए कहा “हरामज़ादा” मगर उसके बा’द सब ईरानी पुलाव पर टूट पड़े
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