जन्म भूमि
स्टोरीलाइन
विभाजन के दिनों की एक घटना पर लिखी कहानी। हरबंसपुर के रेलवे स्टेशन पर रेलगाड़ी काफ़ी देर से रुकी हुई है। ट्रेन में भारत जाने वाली सवारी लदी हुई है। उन्हीं में एक स्कूल मास्टर है। उसके साथ उसकी बीमार पत्नी, एक बेटी, एक बेटा और एक दूध पीता बच्चा है। वो बच्चे प्यासे हैं, लेकिन वह चाहकर भी उन्हें पानी नहीं दिला सकता, क्योंकि पानी का एक गिलास चार रुपये का है। गाड़ी चलने का नाम नहीं लेती। उसके चलने के इंतिज़ार में सवारियाँ हलकान हो रही हैं। मास्टर की पत्नी की तबियत ख़राब होने लगती है तो वह उसके साथ स्टेशन पर उतर जाता है, जहाँ उसकी पत्नी का देहांत हो जाता है। अपनी पत्नी की लाश को स्टेशन पर छोड़कर मास्टर यह कहता हुआ चलती गाड़ी में सवार हो जाता है, वह अपनी जन्मभूमि को छोड़कर जाना नहीं चाहती।
गाड़ी हरबंस-पूरा के स्टेशन पर खड़ी थी। उसे यहाँ रुके हुए पचास घंटे से ऊपर हो चुके थे। पानी का भाव पाँच रुपये गिलास से यकदम पचास रुपये गिलास तक चढ़ गया था। पचास रुपये गिलास के हिसाब से पानी ख़रीदते हुए लोगों को निहायत लजाजत से बात करनी पड़ती थी। वो डरते थे कि कहीं भाव और न चढ़ जाए, कुछ लोग अपने दिल को ये तसल्ली दे रहे थे कि जो इधर हिंदुओं पर बीत रही है, वो इधर मुसलमानों पर भी बीत रही होगी। उन्हें भी पानी इससे सस्ते भाव पर नहीं मिल रहा होगा। उन्हें भी नानी याद आ रही होगी।
प्लेटफार्म पर खड़े-खड़े मिल्ट्री वाले भी तंग आ चुके थे। ये लोग मुसाफ़िरों को हिफ़ाज़त से नए देश में ले जाने के ज़िम्मेदार थे। लेकिन उनके लिए पानी कहाँ से लाते? उनका अपना राशन भी कम था। फिर भी बचे-खुचे बिस्कुट और मूंगफली के दाने डिब्बों में बाँट कर उन्होंने हम-दर्दी जताने में कोई कसर उठा नहीं रखी थी। उस पर मुसाफ़िरों में छीना-झपटी देखकर उन्हें हैरत होती और वो कुछ कहे सुने बग़ैर ही परे को घूम जाते।
जैसे मुसाफ़िरों के ज़हन में यमदूतों की कल्पना उभर रही हो। जैसे उनके जन्म-जन्म के पाप उनके सामने नाच रहे हों। जैसे जन्मभूमि से प्रेम करना ही उनका सबसे बड़ा दोश था। इसीलिए तो वो जन्मभूमि को छोड़कर भाग निकले थे। क़हक़हे और हँसी ठिठोली जन्मभूमि ने अपने पास रख लिए थे। औ'रतों के चेहरों पर जैसे किसी ने सियाह धब्बे डाल दिए हों, अभी तक उन्हें अपने सरों पर चमकती हुई छुरियाँ लटकती हुई महसूस होती थीं। लड़कियों के कानों में गोलियों की सनसनाहट गूँज उठती और वो काँप-काँप जातीं। उनके ज़हन में ब्याह के गीत बलवाइयों के ना’रों और मार-धाड़ के शोर में हमेशा के लिए दब गए थे। पायल की झंकार हमेशा के लिए घायल हो गई थी। उनके सीनों की शफ़क़ मटियाली होती चली गई। ज़िंदगी का राग मौत की गहराइयों में भटक कर रह गया, क़हक़हे सोग में डूब गए और हँसी-ठिठोली पर जैसे शमशान की राख उड़ने लगी। पाँच दिन के सफ़र में सबके चेहरों की रौनक़ ख़त्म हो गई थी।
ये सब क्यों हुआ? कैसे हुआ? इस पर ग़ौर करने की किसे फ़ुर्सत थी? और इस पर ग़ौर करना कुछ आसान भी तो न था। ये सब कैसे हुआ कि लोग अपनी ही जन्मभूमि में बेगाने हो गए? हर चेहरे पर ख़ौफ़-ओ-हिरास था। बहुतों को इत्मीनान ज़रूर था कि जान पर आ बनने के बा'द वो भाग निकलने में कामयाब हो गए थे। लेकिन एक ही धरती का अन्न खाने वाले लोग कैसे एक दूसरे के ख़ून से हाथ रंगने के लिए तैयार हो गए? ये सब क्यों हुआ? कैसे हुआ?
नए देश का तसव्वुर उन्हें इस गाड़ी में ले आया था। अब ये गाड़ी आगे क्यों नहीं बढ़ती? सुनने में तो यहाँ तक आया था कि इस स्टेशन पर कई बार बलवाइयों ने हमला करके तमाम मुसाफ़िरों के ख़ून से हाथ रंग लिए थे। लेकिन अब हालत क़ाबू में थी। अगरचे कुछ लोग पचास रुपये गिलास के हिसाब से पानी बेचने वालों को बदमाश बलवाइयों के शरीफ़ भाई मानने के लिए तैयार न थे। नए देश में ये सब मुसीबतें तो न होंगी। वहाँ सब एक दूसरे पर भरोसा कर सकेंगे। लेकिन जब प्यास के मारे होंट सूख जाते और गले में प्यास के मारे साँस अटकने लगता तो उनके जज़्बात में एक हैजान सा पैदा हो जाता।
खचा-खच भरे हुए डिब्बे पर आलुओं की बोरी का गुमान होता था। एक अधेड़ उ'म्र की औ'रत जो बहुत दिनों से बीमार थी एक कोने में दुबकी बैठी थी। उसके तीन बच्चे थे। एक लड़की सात साल की थी, एक पाँच साल की और तीसरा बच्चा अभी दूध पीता था। ये गोद का बच्चा ही उसे बुरी तरह परेशान कर रहा था। कभी-कभी तंग आकर वो उसको झिंझोड़ देती। उस औ'रत का ख़ाविंद बार-बार बच्चे को गोद में लेकर खड़ा हो जाता। लेकिन बच्चे की चीख़ें नहीं रुकती थीं। वो फिर अपनी जगह पर बैठ जाता। वो अपनी बीवी की आँखों में आँखें डाल कर ये कहना चाहता था कि ये तीसरा बच्चा पैदा ही न हुआ होता तो बेहतर था।
बच्चे को अपनी गोद में लेते हुए बीमार औ'रत के ख़ाविंद ने धीरे से कहा, “घबराओ मत। तुम ठीक हो जाओगी। बस अब थोड़ा सा फ़ासला और बाक़ी है।”
बीमार औ'रत ख़ामोश बैठी रही। शायद वो कहना चाहती थी कि अगर गाड़ी और रुकी रही तो बलवाई आ पहुंचेंगे और ये गिनती के मिल्ट्री वाले भला कैसे हमारी जान बचा सकेंगे। गोया ये सारे मुसाफ़िर लाशों का अंबार थे।
क़रीब से किसी ने पूछ लिया, “बहन जी को क्या तकलीफ़ है?”
बीमार औ'रत का ख़ाविंद बोला, “उस गाँव में कोई डाक्टर न था जहाँ मैं पढ़ाता था।”
“तो आप स्कूल मास्टर हैं?”
“ये कहिए कि स्कूल मास्टर था”, बीमार औ'रत के ख़ाविंद ने एक लंबी आह भरते हुए कहा।
“अब भगवान जाने नए देश में हम पर क्या बीतेगी।”
वो अपने दिमाग़ को समझाता रहा कि ज़रा गाड़ी चले तो सही। वो बहुत जल्द अपने राज में पहुँचने वाले हैं। वहाँ डाक्टरों की कमी न होगी। कहीं न कहीं उसे स्कूल मास्टर की जगह मिल ही जाएगी। उसकी आमदनी पहले से बढ़ जाएगी। वो अपनी बीवी से कहना चाहता था कि जन्मभूमि में जो-जो चीज़ आज तक हासिल नहीं हो सकी, अब नए देश में और जनता के राज में उसकी कुछ कमी न होगी।
बड़ी लड़की कान्ता ने बीमार माँ के क़रीब सरक कर कहा, “माँ गाड़ी कब चलेगी?”
छोटी लड़की शांता खिड़की के बाहर झाँक रही थी।
कान्ता और शांता का भैया ललित बाप की गोद में बराबर रोए चला जा रहा था।
स्कूल मास्टर को अपने स्कूल का ध्यान आ गया। जहाँ वो पिछले दस बरस से हेडमास्टर था। तक्षशिला के नज़दीक, उस गाँव को शुरू' शुरू' में ये मंज़ूर न था कि वहाँ ये स्कूल ठहर सके। उसने बड़े प्रेम से लोगों को समझाया था कि ये गाँव तक्षशिला से दूर नहीं... तक्षशिला, जिसका प्राचीन नाम “तक्षशिला है और जहाँ एशिया का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय था। जहाँ दूर-दूर के देशों से नौजवान ता'लीम पाने आया करते थे।
ये ख़याल आते ही दुबारा उसके ज़हन को झटका सा लगा। क्योंकि उस दौर के लोगों ने तो एक दूसरे के ख़ून से हाथ रंगने की कसमें खाईं और ज़ुल्म-ओ-सितम की ये वारदात ढोलों और शहनाइयों के संगीत के साथ साथ अ'मल में लाई गईं। पढ़े लिखे लोग भी बलवाइयों के संग-संगाती बनते चले गए। शायद उन्हें भूल कर भी ये ख़याल न आया कि अभी तो प्राचीन तक्षशिला की खुदाई के बा'द हाथ आने वाले संग-तराशी के बेश-क़ीमत नमूने भी अपना संदेश बराबर सुनाए जा रहे थे। ये कैसी जन्मभूमि थी? इस जन्मभूमि पर किसे फ़ख़्र हो सकता था। जहाँ क़त्ल-ए-आ’म के खेल खेलने के लिए ढोल और शहनाइयाँ बजाना ज़रूरी समझा गया?
तारीख़ की घंटी बजने पर उसने बारहा स्कूल के तालिब-ए-इ'ल्मों को ये जताया था कि यही वो उनकी जन्मभूमि है जहाँ कभी कनिष्क का राज था, जहाँ अहिंसा का मंत्र फूँका गया था। जहाँ भिक्षुओं ने त्याग, शांति और निरवान के उपदेश दिए और बार-बार गौतम बुद्ध के बताए हुए रास्ते की तरफ़ इशारा किया। आज उसी धरती पर घर जलाए जा रहे थे और शायद ढलती बर्फ़ों के शीतल जल से भरपूर दरियाओं के साथ-साथ गर्म-गर्म इंसानी लहू का दरिया बहाने का मंसूबा पूरा किया जा रहा था। डिब्बे में बैठे हुए लोगों के कंधे झिंझोड़ झिंझोड़ कर वो कहना चाहता था कि गौतम बुद्ध को दुनिया में बार-बार आने की ज़रूरत नहीं। अब गौतमबुद्ध कभी जन्म नहीं लेगा। क्योंकि उसकी अहिंसा हमेशा-हमेशा के लिए ख़त्म हो गई। अब लोग निरवान नहीं चाहते। अब तो उन्हें दूसरों की आबरू उतारने में मज़ा आता है, अब तो मादर-ज़ाद बरहना औ'रतों और लड़कियों के जुलूस निकालने की बात किसी के टाले नहीं टल सकती। आज जन्मभूमि को ग्रहण लग गया। आज जन्मभूमि के भाग फूट गए।
आज जन्मभूमि अपनी संतान की लाशों से अटी पड़ी है और अब ये इंसानी गोश्त और ख़ून की संधाड़ कभी ख़त्म नहीं होगी।
इस दौरान में नन्हा ललित रो-रो कर सो गया था। कान्ता और शांता बराबर सहमी-सहमी निगाहों से कभी माँ की तरफ़ और कभी खिड़की के बाहर देखने लगती थीं। एक दो बार उनकी निगाह ललित की तरफ़ भी उठ गई। वो चाहती थीं कि अभी थोड़ी देर और उनका बाप ललित को लिए खड़ा रहे। क्योंकि उसकी जगह पर उन्हें आराम से टाँगें फैलाने का मौक़ा' मिल गया था।
शांता ने कान्ता के बाल नोच डाले और कान्ता रोने लगी। पास से माँ ने शांता के चपत दे मारी और इस पर शांता भी रोने लगी। उधर ललित भी जाग उठा और वो भी तल्ख़ और बे-सिरे अंदाज़ में रोने चीख़ने लगा।
स्कूल मास्टर के ख़यालात का सिलसिला टूट गया। प्राचीन तक्षशिला के विश्वविद्यालय और भिक्षुओं के उपदेश से हट कर वो ये कहने पर आमादा हो गया कि कौन कहता है इस देश में कभी गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था। वो कान्ता और शांता से कहना चाहता था कि रोने से तो कुछ फ़ाएदा नहीं। नन्हा ललित तो बे-समझ है और इसलिए बार-बार रोने लगता है, तुम तो समझदार हो। तुम्हें तो बिल्कुल नहीं रोना चाहिए। क्योंकि अगर तुम इस तरह रोती रहोगी तो बताओ तुम्हारे चेहरे कँवल के फूलों की तरह कैसे खिल सकते हैं?
पास से किसी की आवाज़ आई, “ये सब फ़िरंगी की चाल थी। जिन बस्तियों ने बड़े-बड़े हमलावरों के हमले बर्दाश्त किए और अन-गिनत सदियों से अपनी जगह पर क़ाएम रहें, आज वो भी लुट गईं।”
“ऐसे ऐसे क़त्ल-ए आम तो उन हमला आवरों ने भी न किए होंगे। हमारे स्कूलों में झूटी, मन-घड़ंत तारीख़ पढ़ाई जाती रही है।”, एक और मुसाफ़िर ने शह दी।
स्कूल मास्टर ने चौंक कर उस मुसाफ़िर की तरफ़ देखा। वो कहना चाहता था कि तुम सच कहते हो। मुझे मा'लूम न था। वर्ना मैं कभी इस झूटी, मन-घड़ंत तारीख़ की तसदीक़ न करता। वो ये भी कहना चाहता था कि इसमें उसका कोई ख़ास क़सूर नहीं क्योंकि नाम-निहाद तहज़ीब के चेहरे से ख़ूबसूरत ख़ौल साँप की केंचुली की तरह अभी-अभी तो उतरा है और अभी अभी तो मा'लूम हुआ है कि इंसान ने कुछ भी तरक़्क़ी नहीं की। बल्कि ये कहना होगा कि उसने तरक़्क़ी की बजाए तनज़्ज़ुली की तरफ़ क़दम बढ़ाया है।
“जिन्होंने बलवाइयों और क़ातिलों का साथ दिया और इंसानियत की रिवायात की ख़िलाफ़-वरज़ी की”, स्कूल मास्टर ने जुरअत दिखाते हुए कहा।
“जिन्होंने नंगी औ'रतों और लड़कियों के जुलूस निकाले, जिन्होंने अपनी इन माओं-बहनों की आबरू पर हाथ डाला, जिन्होंने माओं की दूध-भरी छातियाँ काट डालीं और जिन्होंने बच्चों की लाशों को नेज़ों पर उछाल कर क़हक़हे लगाए। उनके ज़मीर हमेशा ना-पाक रहेंगे और फिर ये सब कुछ यहाँ भी हुआ... जन्मभूमि में भी और नए देश में भी।”
इसके जवाब में सामने वाला मुसाफ़िर ख़ामोश बैठा रहा। उसकी ख़ामोशी ही उसका जवाब था। शायद वो कहना चाहता था कि इन बातों से भी क्या फ़ाएदा, उसने सिर्फ़ इतना कहा, “ये कैसी आज़ादी मिली है?”
कान्ता और शांता के आँसू थम गए थे। ललित भी चंद लम्हों के लिए ख़ामोश हो गया। स्कूल मास्टर की निगाहें अपनी बीमार बीवी की तरफ़ उठ गईं जो खिड़की के बाहर देख रही थी। शायद वो पूछना चाहती थी कि जन्मभूमि छोड़ने पर हम क्यों मजबूर हुए या क्या ये गाड़ी यहाँ इसीलिए रुक गई कि हमें फिर से अपने गाँव को लौट चलने का ख़याल आ जाए।
स्कूल मास्टर के होंट बुरी तरह सूख रहे थे। उसका गला बुरी तरह ख़ुश्क हो चुका था। उसे ये महसूस हो रहा था कि कोई उसकी आत्मा में काँटे चुभो रहा है। एक हाथ सामने वाले मुसाफ़िर के कंधे पर रखते हुए वो बोला, “सरदार जी बताओ तो सही कि कल का इंसान उस अनन्न को भला कैसे अपना भोजन बनाएगा जिसका जन्म इस धरती की कोख से होगा। जिसे अन-गिनत मासूम बे-गुनाहों की लाशों की खाद प्राप्त हुई?”
सरदार-जी का चेहरा तमतमा उठा जैसे वो ऐसे अ'जीब सवाल के लिए तैयार न हों। किसी क़दर सँभल कर उन्होंने भी सवाल कर डाला,
“आप बताओ इसमें धरती का क्या दोश है?”
“हाँ हाँ... इसमें धरती का क्या दोश है?”, स्कूल मास्टर कह उठा, “धरती को तो खाद चाहिए। फिर वो कहीं से भी क्यों न मिले।”
सरदार जी प्लेटफार्म की तरफ़ देखने लगे, बोले, “ये गाड़ी भी अ'जीब ढीट है चलती ही नहीं। बलवाई जाने कब आ जाएँ।”
स्कूल मास्टर के ज़हन में अन-गिनत लाशों का मंज़र घूम गया जिनके बीचों-बीच बच्चे रेंग रहे हों। वो इन बच्चों के मुस्तक़बिल पर ग़ौर करने लगा। ये भी कैसी नई पौद है, वो पूछना चाहता था। ये नई पौद भी कैसी साबित होगी? उसे उन अन-गिनत दोशीज़ाओं का ध्यान आया जिनकी इ'स्मत लूट ली गई थी। मर्द की दहशत के सिवा अब इन लड़कियों के तसव्वुर में और क्या उभर सकता है? उनके लिए यक़ीनन ये आज़ादी बर्बादी बन कर ही तो आई।
वो यक़ीनन इस आज़ादी के नाम पर थूकने से कभी न कतराएँगी। उसे उन लड़कियों का ध्यान आया जो अब माएँ बनने वाली थीं। ये कैसी माएँ बनेंगी? वो पूछना चाहता था ये नफ़रत के बीज भला क्या फल लाएँगे? उसने सोचा इस सवाल का जवाब किसी के पास न होगा। वो डिब्बे में एक एक शख़्स का कंधा झिंझोड़कर कहना चाहता था कि मेरे इस सवाल का जवाब दो। वर्ना अगर ये गाड़ी पचास पचपन घंटों तक रुकने के बा'द आगे चलने के लिए तैयार भी हो गई तो मैं ज़ंजीर खींच कर इसे रोक लूँगा।
“क्या ये गाड़ी अब आगे नहीं जाएगी, हे भगवान?”, बीमार औ'रत ने अपने चेहरे से मक्खियाँ उड़ाते हुए पूछा।
स्कूल मास्टर ने कहा, “निराश होने की क्या ज़रूरत है? गाड़ी आख़िर चलेगी ही।”
स्कूल मास्टर खिड़की से सर निकाल कर बाहर की जानिब देखने लगा। एक दो मर्तबा उसका हाथ जेबों की तरफ़ बढ़ा, अंदर गया और फिर बाहर आ गया। इतना महंगा पानी ख़रीदने की उसे हिम्मत न हुई। जाने क्या सोच कर उसने कहा, “गाड़ी अभी चल पड़े तो नए देश की सरहद में घुसते उसे देर नहीं लगेगी। फिर पानी की कुछ कमी न होगी। ये कष्ट के लम्हे बहुत जल्द बीत जाएँगे।”
कंधे पर पड़ी हुई फटी पुरानी चादर को वो बार-बार सँभालता। उसे वो अपनी जन्मभूमि से बचा कर लाया था। बलवाइयों के अचानक हमला करने की वज्ह से वो कुछ भी तो न निकाल सका था। बड़ी मुश्किल से वो अपनी बीमार बीवी और बच्चों को लेकर भाग निकला था। अब इस चादर पर उँगलियाँ घुमाते हुए उसे गाँव की ज़िंदगी याद आने लगी। एक-एक वाक़िआ' गोया एक-एक तार था और इन्ही तारों की मदद से वक़्त के जुलाहे ने ज़िंदगी की चादर बुन डाली थी। इस चादर पर उँगलियाँ घुमाते हुए उसे उस मिट्टी की ख़ुशबू महसूस होने लगी जिसे वो बरसों से सूँघता आया था। जैसे किसी ने उसे जन्मभूमि की कोख से ज़बरदस्ती उखेड़ कर इतनी दूर फेंक दिया हो।
जाने अब गाड़ी कब चलेगी? अब ये जन्मभूमि नहीं रह गई। देश का बटवारा हो गया, अच्छा चाहे बुरा। जो होना था हो गया। अब देश के बटवारे को झुटलाना आसान नहीं। लेकिन क्या ज़िंदगी का बटवारा भी हो गया? तहज़ीब-ओ-तमद्दुन का बटवारा भी हो गया?
अपनी बीमार बीवी के क़रीब झुक कर वो उसे दिलासा देने लगा, “इतनी चिंता नहीं किया करते। नए देश में पहुँचने भर की देर है। एक अच्छे से डाक्टर से तुम्हारा इ'लाज कराएँगे। मैं फिर किसी स्कूल में पढ़ाने लगूँगा। तुम्हारे लिए फिर से सोने के आवेज़े बनवा दूँगा।”
कोई और वक़्त होता तो वो अपनी बीवी से उलझ जाता कि भागते वक़्त इतना भी न हुआ कि कम्बख़्त अपने आवेज़े ही उठा लाती। बल्कि वो उस कजलौटी तक के लिए झगड़ा खड़ा कर देता जिसे वो आईने के सामने छोड़ आई थी। कजलौटी जिसकी मदद से वो इस उधेड़ उ'म्र में भी कभी-कभी अपनी आँखों में बीते सपनों की याद ताज़ा कर लेती थी।
कान्ता ने झुक कर शांता की आँखों में कुछ देखने का ख़याल किया जैसे वो पूछना चाहती हो कि बताऊँ पगली हम कहाँ जा रहे हैं।
“मेरा झुनझुना!”, शांता ने पूछा।
“मेरी गुड़िया!”, कान्ता कह उठी।
“यहाँ न झुनझुना है न गुड़िया।”
स्कूल मास्टर ने आँसू भरी आँखों से अपनी बच्चियों की तरफ़ देखते हुए कहा, “तुम फ़िक्र न करो, मेरी बेटियो, झुनझुने बहुतेरे, गुड़िया बहुतेरी, नए देश में हर चीज़ मिलेगी।”
लेकिन रह-रह कर उसका ज़हन पीछे की तरफ़ मुड़ने लगता। ये कैसी कशिश है...? ये जन्मभूमि की कशिश है जैसे वो ख़ुद ही जवाब देने का जतन करता। जन्मभूमि पीछे रह गई। अब नया देश नज़दीक है। गाड़ी चलने की देर है। उसने झुँझला कर इधर-उधर देखा। जैसे वो डिब्बे में बैठे हुए एक-एक शख़्स से पूछना चाहता हो कि बताओ गाड़ी कब चलेगी।
जन्मभूमि हमेशा के लिए छूट रही है। उसने अपने कंधे पर पड़ी हुई चादर को बाएँ हाथ की उँगलियों से सहलाते हुए कहना चाहा। जैसे इस चादर के भी कान हों और वो सब सुन सकती हो। खिड़की से सर निकाल कर उसने पीछे की तरफ़ देखा और उसे यूँ महसूस हुआ जैसे जन्मभूमि अपनी बाँहें फैला कर उसे बुला रही हो। जैसे वो कह रही हो कि मुझे क्या मा'लूम था कि तुम मुझे यूँ छोड़कर चले जाओगे। मेरा आशीरबाद तो तुम्हारे लिए हमेशा था और हमेशा रहेगा।
चादर पर दाएँ हाथ की उँगलियाँ फेरते हुए स्कूल मास्टर को जन्मभूमि की धरती का ध्यान आ गया जो सदियों से रूई की काश्त के लिए मशहूर थी। उसके तसव्वुर में कपास के दूर तक फैले हुए दूधिया खेत उभरे। ये सब उसी कपास का जादू ही तो था कि जन्मभूमि रूई के अन-गिनत ढेरों पर फ़ख़्र कर सकती थी। जन्मभूमि में इस रूई से कैसे कैसे बारीक तार निकाले जाते थे, घर-घर चरखे चलते थे। सजीली चर्ख़ा कातने वालियों की रंगीली महफ़िलें, वो बढ़-बढ़ कर सूत कातने के मुक़ाबले। वो सूत की अंटियां तैयार करने वाले ख़ूबसूरत हाथ। वो जुलाहे जो रिवायती तौर पर बे-वक़ूफ़ तसव्वुर किए जाते थे। लेकिन जिनकी उँगलियों को महीन से महीन कपड़ा बनने का फ़न आता था। जैसे जन्मभूमि पुकार-पुकार कर कह रही हो... तुम क़द के लंबे हो और जिस्म के गठे हुए। तुम्हारे हाथ पाँड मज़बूत हैं। तुम्हारा सीना कुशादा है। तुम्हारे जबड़े इतने सख़्त हैं कि पत्थर तक चबा जाएँ। ये सब मेरी ब-दौलत ही तो है। देखो तुम मुझे छोड़कर मत जाओ... स्कूल मास्टर ने झट खिड़की के बाहर देखना बंद कर दिया और उसकी आँखें अपनी बीमार बीवी के चेहरे पर जम गईं।
वो कहना चाहता था कि मुझे वो दिन अभी तक याद हैं ललित की माँ जब तुम्हारी आँखें काजल के बग़ैर भी बड़ी-बड़ी और काली काली नज़र आया करती थीं। मुझे याद हैं वो दिन जब तुम्हारे जिस्म में हिरनी की सी मस्ती थी। उन दिनों तुम्हारे चेहरे पर चाँद की चाँदनी थी और सितारों की चमक। मुस्कुराहट, हँसी, क़हक़हा... तुम्हारे चेहरे पर ख़ुशी के तीनों रंग थिरक उठते थे। तुम पर जन्मभूमि कितनी मेहरबान थी। तुम्हारे सर पर काले घुंघरियाले बाल थे। उन सावन के काले बादलों को अपने शानों पर सँभाले तुम किस तरह लचक-लचक कर चला करती थीं गाँव के खेतों में।
धर-धर धाँ-धाँ... जैसे मटकी में गिरते वक़्त ताज़ा दूहा जाने वाला दूध बोल उठे। स्कूल मास्टर को यूँ महसूस हुआ कि अभी बहुत कुछ बाक़ी है। जैसे वो घूमते हुए भँवर में चमकती हुई किरण के दिल को भाँप कर आज ख़ुशी से ये कह सकता हो कि बीते सपने ज़हन के कला-भवन में हमेशा थिरकते रहेंगे। जैसे वो ताक़ में पड़ी हुई सुराही से कह सकता हो... ओ सुराही तेरी गर्दन तो आज भी ख़मीदा है। भला मुझे वो दिन कैसे भूल सकते हैं जब तुम नई-नई इस घर में आई थी।
वो चाहता था कि गाड़ी जल्द से जल्द नए देश में दाख़िल हो जाए। फिर उसकी सब तकलीफ़ें रफ़ा हो जाएँगी। बीवी का इ'लाज भी हो सकेगा। जन्मभूमि पीछे रह जाने के तसव्वुर से उसे एक लम्हे के लिए कुछ उलझन सी ज़रूर महसूस हुई। लेकिन उसने झट अपने मन को समझा लिया।
वो ये कोशिश करेगा कि नए देश में जन्मभूमि का तसव्वुर क़ाएम कर सके। आख़िर एक गाँव को तो जन्मभूमि नहीं कह सकते। जन्मभूमि तो बहुत विशाल है... बहुत महान है... उसकी महिमा तो देवता भी पूरी तरह नहीं गा सकते, जिधर से गाड़ी यहाँ तक आन पहुँची थी और जिधर गाड़ी को जाना था, दोनों तरफ़ एक सी ज़मीन दूर तक चली गई थी। उसे ख़याल आया कि ज़मीन तो सब जगह एक सी है। जन्मभूमि और नए देश की ज़मीन में बहुत ज़ियादा फ़र्क़ तो नहीं हो सकता।
वो चाहता था कि जन्मभूमि का सही तसव्वुर क़ाएम करे। पौ फटने से पहले का मंज़र…, दूर तक फैला हुआ उफ़ुक़... किनारे किनारे पहाड़ियों की झालर... आसमान पर बगुलों की डार खुली क़ैंची की तरह परवाज़ करते हुए। पूरब की तरफ़ ऊषा का उजाला... धरती पर छाई हुई एक मदमाती मुस्कुराहट... उजाले में केसर की झलक... धरती ऐसी जैसे किसी दोशीज़ा की गर्दन के नीचे ऊँची घाटियों के बीचों बीच ताज़ा सपेद मक्खन दूर तक फैला हुआ हो...
वो चिल्ला कर कहना चाहता था कि जन्मभूमि का ये मंज़र नए देश में ज़रूर आएगा। वो अपने कंधे पर पड़ी हुई चादर को दाएँ हाथ की उँगलियों से सहलाने लगा। जैसे वो इस चादर की ज़बानी अपने ख़यालात की तसदीक़ कराना चाहता हो। लहकती डालियाँ, महकती कलियाँ, धनक के रंग, कहकशाँ की दूधिया सुंदरता, कुँवारियों के क़हक़हे। दुल्हनों की लाज... जन्मभूमि का रूप, उन्ही की ब-दौलत क़ाएम था। अपने इसी ख़मीर पर, अपनी इसी तासीर पर जन्मभूमि मुस्कुराती आई है और मुस्कुराती रहेगी।
वो कहना चाहता था कि नए देश में भी जन्मभूमि का ये रूप किसी से कम थोड़ी होगा। वहाँ भी गेहूँ के खेत दूर तक सोना बिखेरते हुए नज़र आएँगे। जन्मभूमि का ये मंज़र नए देश में उसके साथ-साथ जाएगा। उसे यक़ीन था। उसके बाएँ हाथ की उँगलियाँ बराबर कंधे पर पड़ी हुई फटी पुरानी और मैली चादर से खेलती रहीं। जैसे ले देकर यही चादर जन्मभूमि की अलामत हो।
“फ़िरंगी ने देश का नक़्शा बदल डाला”, सरदार जी कह रहे थे।
पास से कोई बोला, “ये उसकी पुरानी चाल थी।”
एक बुढ़िया कह उठी, “फ़िरंगी बहुत दिनों से इस देश में बस गया था। मैं न कहती थी कि हम बुरा कर रहे हैं जो फ़िरंगी को उसके बंगलों से निकालने की सोच रहे हैं? मैं न कहती थी फ़िरंगी का सराप लगेगा।”
पास से दूसरी बढ़िया बोली, “ये सब फ़िरंगी का सराप ही तो है बहन जी!”
स्कूल मास्टर को पहली बुढ़िया पर बुरी तरह ग़ुस्सा आया। उस बढ़िया की आवाज़ में जन्मभूमि के तोहमात बोल उठे हैं, उसने सोचा। दूसरी बढ़िया पहली बढ़िया से भी कहीं ज़ियादा मूर्ख थी जो बिना सोचे हाँ में हाँ मिलाए जा रही थी।
परे कोने में एक लड़की चीथडों में लिपटी हुई बैठी थी। जैसे उसकी सहमी-सहमी निगाहें इस डिब्बे के हर मुसाफ़िर से पूछना चाहती हों... कि क्या ये मेरे घाव आख़िरी घाव हैं? उसके बाएँ तरफ़ उसकी माँ बैठी थी जो शायद फ़िरंगी से कहना चाहती थी कि मेरी गु़लामी वापिस दे दो। गु़लामी में मेरी लड़की की आबरू तो महफ़ूज़ थी।
डिब्बे में बैठे हुए लोगों की आँखों में डर का ये हाल था कि वो लम्हा-ब-लम्हा बड़ी तेज़ी से बूढ़े हो रहे थे।
सरदार-जी बोले, “इतनी लूट तो बाहर से आने वाले हमलावरों ने भी न की होगी।”
पास से किसी ने कहा, “इतना सोना लूट लिया गया कि सौ-सौ पीढ़ियों तक ख़त्म नहीं होगा।”
“लूट का सोना ज़ियादा दिन नहीं ठैरता।”, एक और मुसाफ़िर कह उठा।
सरदार-जी का चेहरा तमतमा उठा।
बोले, “पुलिस के सिपाही भी तो सोना लूटने वालों के साथ रहते थे। लेकिन लूट का सोना पुलिस के सिपाहियों के पास भी कै दिन ठैरेगा? आज भी दुनिया मस्त गुरू नानक देवजी की आग्या पर चले तो शांति हो सकती है।”
स्कूल मास्टर इस गुफ़्तगू में शामिल न हुआ। अगरचे वो कहना चाहता था कि कम से कम मैंने तो किसी का सोना नहीं लूटा और न आइंदा किसी का सोना लूटने का इरादा रखता हूँ।
छप्पन, सत्तावन, अट्ठावन... इतने घंटों से गाड़ी हरबंस-पूरा के स्टेशन पर रुकी खड़ी थी। अब तो प्लेटफार्म पर खड़े खड़े मिल्ट्री वालों के तने हुए जिस्म भी ढीले पड़ गए थे। किसी में इतनी हिम्मत न थी कि डिब्बे से बाहर निकल कर देखे कि आख़िर गाड़ी रुकने की क्या वज्ह है। हर शख़्स का दम घुटा जा रहा था और हर शख़्स चाहता था कि और नहीं तो इस डिब्बे से निकल कर किसी दूसरे डिब्बे में कोई अच्छी सी जगह ढूँढ ले। लेकिन ये डर भी तो था कि कहीं ये न हो कि न इधर के रहें न उधर के और गाड़ी चल पड़े।
बढ़िया बोली, “फ़िरंगी का सराप ख़त्म होने पर ही गाड़ी चलेगी।”
दूसरी बढ़िया कह उठी, “सच है बहन जी!”
स्कूल मास्टर ने उड़ने वाले परिंदे के अंदाज़ में बाज़ू हवा में उछालते हुए कहा, “फ़िरंगी को दोश देते रहने से तो न जन्मभूमि का भला होगा न नए देश का।”
बुढ़िया ने रूखी हँसी हँसते हुए कहा, “फ़िरंगी चाहे तो गाड़ी अभी चल पड़े।”
कान्ता ने खिड़की से झाँक कर किसी को पानी पीते देख लिया था। वो भी पानी के लिए मचलने लगी। उसकी बीमार माँ ने कराहती हुई आवाज़ में कहा, “पानी का तो अकाल पड़ रहा है, बिटिया!”
शांता भी पानी की रट लगाने लगी। सरदार-जी ने जेब में हाथ डाल कर कुछ नोट निकाले। पाँच-पाँच रुपये के पाँच नोट स्कूल मास्टर की तरफ़ बढ़ाते हुए कहा, “इससे आधा गिलास पानी हासिल कर लिया जाए!”
स्कूल मास्टर ने झिजकते हाथों से नोट क़बूल किए। आधे गिलास पानी के तसव्वुर से उसकी आँखें चमक उठीं। ख़ाली गिलास उठाकर वो पानी की तलाश में नीचे प्लेटफार्म पर उतर गया। अब हिंदू पानी और मुस्लिम पानी का इमतियाज़ उठ गया था। बड़ी मुश्किल से एक शख़्स के पास नज़र आया। बावन रुपये गिलास के हिसाब से पच्चीस रुपये का आधे गिलास से कुछ कम ही आना चाहिए था। लेकिन पानी बेचने वाले ने पेशगी रुपये वसूल कर लिए और बड़ी मुश्किल से एक तिहाई गिलास पानी दिया।
डिब्बे में पहुँच कर सरदार-जी के गिलास में थोड़ा पानी उंडेलते वक़्त सरदार जी से जल्दी में कोई एक घूँट पानी फ़र्श पर गिर गया। इस पर उसे बड़ी नदामत का एहसास हुआ। झट से पानी का गिलास कान्ता के मुँह की तरफ़ बढ़ाते हुए उसने कहा, “पी लो, बिटिया!”
उधर से शांता ने हाथ बढ़ाए। स्कूल मास्टर ने कान्ता के मुँह से गिलास हटाकर उसे शांता के क़रीब कर दिया। फिर बहुत जल्द काँपते हाथों से ये गिलास उसने अपनी बीमार बीवी के होंटों की तरफ़ बढ़ाया जिसने आँखों ही आँखों में अपने ख़ाविंद से कहा कि पहले आप भी अपने होंट गीले कर लेते लेकिन ख़ाविंद इसके लिए तैयार न था।
कान्ता और शांता ने मिलकर ज़ोर से गिलास पर हाथ मारे। बीमार माँ के कमज़ोर हाथों से छूट कर गिलास नीचे फ़र्श पर गिर पड़ा। स्कूल मास्टर ने झट लपक कर गिलास उठा लिया। बड़ी मुश्किल से उसमें एक घूँट पानी बच रहा था। ये एक घूँट पानी उसने झट अपने हलक़ में उंडेल लिया।
सरदार-जी कह रहे थे, “इतना कुछ होने पर भी इंसान ज़िंदा है और ज़िंदा रहेगा।”
स्कूल मास्टर कह उठा, “इंसानियत जन्मभूमि का सबसे बड़ा बरदान है, जैसे एक पौदे को एक जगह से उठाकर दूसरी जगह लगाया जाता है। ऐसे ही हम नए देश में जन्मभूमि का पौदा लगाएँगे। हमें उसकी देख-भाल करनी पड़ेगी और इस पौदे को नई ज़मीन में जड़ पकड़ते कुछ वक़्त ज़रूर लगेगा।”
ये कहना कठिन होगा कि बीमार औ'रत के हलक़ में कितने घूँट पानी गुज़रा होगा। लेकिन इतना तो ज़ाहिर था कि पीने के बा'द उसकी हालत और भी डाँवाँ-डोल हो गई। अब उसमें इतनी ताक़त न थी कि वो बैठी रह सके।
सरदार जी ने न जाने क्या सोच कर कहा, “दरिया भले ही सूख जाएँ लेकिन दिलों के दरिया तो हमेशा बहते रहे हैं और हमेशा बहते रहेंगे। दिल-दरिया समंदर डूँघे। दिलों के दरिया तो समंदर से भी गहरे हैं।”
स्कूल मास्टर कह उठा, “कभी ये दिलों के दरिया जन्मभूमि में बहते थे। अब ये दिलों के दरिया नए देश में बहा करेंगे।”
बीमार औ'रत बुख़ार से तड़पने लगी। सरदार जी बोले, “ये अच्छा होगा कि उन्हें थोड़ी देर के लिए नीचे प्लेटफार्म पर लिटा दिया जाए। बाहर की खुली हवा उनके लिए अच्छी रहेगी।”
स्कूल मास्टर ने एहसान-मंद निगाहों से सरदार जी की तरफ़ देखा। उसने ललित को, जो उस वक़्त सो रहा था कान्ता और शांता की जगह पर आराम से सुला दिया और फिर सरदार जी की मदद से अपनी बीमार बीवी को डिब्बे से नीचे उतार कर प्लेटफार्म पर लिटा दिया। सरदार जी फिर अपनी जगह पर जा बैठे।
बीमार बीवी के चेहरे पर रूमाल से पंखा झलते हुए स्कूल मास्टर उसे दिलासा देने लगा।
“तुम अच्छी हो जाओगी। हम बहुत जल्द नए देश में पहुँचने वाले हैं। वहाँ मैं अच्छे अच्छे डाक्टरों से तुम्हारा इ'लाज कराऊँगा।”
बीमार औ'रत के चेहरे पर दबी दबी सी मुस्कुराहट उभरी। लेकिन उसकी ज़बान से एक भी लफ़्ज़ न निकला। जैसे उसकी खुली-खुली आँखें कह रही हों, “मैं जन्मभूमि को नहीं छोड़ सकती। मैं नए देश में नहीं जाना चाहती। मैं इसी धरती की कोख से निकली और इसी में समा जाना चाहती हूँ।”
उसका साँस ज़ोर-ज़ोर से चलने लगा। उसकी आँखें पथराने लगीं। स्कूल मास्टर घबरा कर बोला, “ये तुम्हें क्या हुआ जा रहा है? गाड़ी अब और नहीं रुकेगी। नया देश नज़दीक ही तो है। अब जन्मभूमि का ख़याल छोड़ दो। हम आगे जाएँगे।”
खिड़की से कान्ता और शांता फटी-फटी आँखों से देख रही थीं। उनकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। सरदार-जी ने खिड़की से सर बाहर निकाल कर पूछा, “अब बहन जी का क्या हाल है?”
स्कूल मास्टर ने रुँधी हुई आवाज़ से कहा, “अब ये जन्मभूमि ही में रहेगी।”
सरदार-जी बोले, “कहो तो थोड़ा पानी ख़रीद लें।”
बीमार औ'रत ने बुझते हुए दिए की तरह सँभाला लिया और उसके प्राण पखेरू निकल गए।
लाश के क़रीब झुक कर स्कूल मास्टर ने बड़े ग़ौर से देखा और कहा, “अब वो पानी नहीं पिएगी।”
उधर इंजन ने सीटी दी और गाड़ी आहिस्ता-आहिस्ता प्लेटफार्म के साथ-साथ रेंगने लगी। उसने एक-बार बीवी की लाश की तरफ़ देखा। फिर उसकी निगाहें गाड़ी की तरफ़ उठ गईं। खिड़की से कान्ता और शांता उसकी तरफ़ देख रही थीं। लाश के साथ रह जाए या लपक कर डिब्बे में जा बैठे? ये सवाल बिजली की तरह उसके दिल-ओ-दिमाग़ को चीरता चला गया।
उसने अपने कंधे से झट वो फटी पुरानी, मैली चादर उतारी जिसे वो जन्मभूमि से बचाकर लाया था और जिसके धागे-धागे में अभी तक जन्मभूमि साँस ले रही थी। उस चादर को उसने अपने सामने पड़ी हुई लाश पर डाल दिया और झट से गाड़ी की तरफ़ लपक पड़ा। कान्ता की आवाज़ एक लम्हे के लिए फ़िज़ा में लहराई…, “माता जी!”
गाड़ी तेज़ हो गई थी। कान्ता की आवाज़ हवा में उछल कर रह गई थी। उसने शांता को गोद में उठा लिया और पलट कर लाश की तरफ़ न देखा।
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