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जन्नती जोड़ा

वाजिदा तबस्सुम

जन्नती जोड़ा

वाजिदा तबस्सुम

MORE BYवाजिदा तबस्सुम

    स्टोरीलाइन

    यह एक नवाब के घर में रहने वाले एक अंधे बूढ़े की कहानी है, जिससे नवाब की छोटी लड़की बहुत मोहब्बत करती है। वह उसके खाने-पीने का पूरा ख़्याल रखती है। जवान होने पर जब लड़की की शादी होती है अंधा बूढ़ा अपनी हैसियत के मुताबिक़ उसके लिए एक सूती जोड़ा तैयारी कराता है, जिसे लड़की की माँ ठुकरा देती है। मगर नवाब उस जोड़े को उठाकर अपनी आँखों से लगाता हुआ कहता है कि यह तो जन्नती जोड़ा है।

    आज एक साथ ख़ुशी और ग़म का दिन था। बीबी माँ की शादी का दिन!

    चांदी के झम झमाते थालों में एक क़तार से दस जिगर मगर करते तौलवाँ जोड़े रखे थे और ग्यारहवाँ था, जो सोने का था, उसमें सबसे क़ीमती जोड़ा सजा हुआ था, जिसकी मजमूई क़ीमत पच्चीस हज़ार से भी ऊपर थी।

    अंदर जहेज़ का सारा का सारा सामान सजा हुआ था। उसमें लस लस करते कपड़ों के जोड़े ही कोई सौ से ऊपर थे। ये ग्यारह जोड़े तो अलग से इसलिए सजाये गए थे कि उनमें सच्चे मोती और हीरे टंकवाए गए थे। ये बात बड़ी-पाशा के जिद्दत तराज़ दिमाग़ ने ही सोची थी। उन्होंने बड़े नवाब साहब को समझाया था, “मैं ऐसे बहूत नवाब लोगों देखी जो बस शादी होते के साथ-इच दुल्हन के जहेज़ की नख़दी और ज़ेवराँ उड़ाना शुरू कर देते। अपनी बच्ची को मैं इस वास्ते-इच आधा रुपये तो कपड़ों की शक्ल में दे देई। अल्लाह करो की उसका शौहर कभी उसके रुपये पैसे पो नज़र करो, पन वख़्त वख़्त की बात है, कभी अपना हौर उसके जहेज़ का सारा रुपया भी उन्नों उड़ा डाले तो कम से कम बुरे वख़त के साथ ये कपड़े लत्ती तो रहना। अब ये तो उन्नों करने से रहे की सन्दूख़ों में से कपड़े निकाल निकाल को ले जा रईं। कपड़ा लत्ता तो औरत ज़ात के हाथ को इच रहता। सो मैं ये तरकीब करी की सवा लाख के ख़रीब के हीरे मोती कपड़ों के जोड़ों में टंकवा दी। हौर एक जोड़ा खासतौर से शादी के दिन पहनने का है, वो ख़रीब ख़रीब पच्चीस हज़ार का या इससे भी बढ़कर होएंगा... क्यूँ मैं अच्छा करी ना जी?”

    इतनी लंबी चौड़ी बात के जवाब में नवाब साहब ने सिर्फ़ उन्हें मुस्कुरा कर देखने पर इक्तिफ़ा की।

    “आप कुछ बोले नईं?” बड़ी-पाशा उलझ गईं।

    “हम आपके कामों में कभी दख़ल दिए?” वो इसी तरह मुस्कुरा कर बोले।

    “तो फिर चलो ज़रा आप भी बच्ची के कपड़ों की बहार देख लियो।”

    दोनों मियाँ बीवी मेहमानों के हुजूम में से गुज़रते हुए जब जहेज़ वाले कमरे में पहुंचे तो आँखें चौंध्या गईं। ख़ुशी ख़ुशी बड़ी पाशा सोने के तश्त वाला जोड़ा सबसे पहले दिखाने के लिए बढ़ीं तो उनकी तेवरियों पर बल पड़ गए। सोने के झिलमिलाते तश्त में हीरों के टंके जोड़े के ठीक ऊपर एक सादा सुर्ख़ मदरे का चूड़ीदार पाजामा, मदरे का ही करता और सूती मलमल का सस्ते मूल का सुर्ख़ दुपट्टा बड़े एहतिमाम से तय किया हुआ रखा था।

    झूटे गोटे और सस्ती चिमकियों से टका हुआ! उन्होंने झल्लाकर इधर उधर देखा और ख़ून बरसाती निगाहों से और अपने पूरे वजूद का ज़ोर लगा कर चिल्ला कर कहा, “ये कौन उजाड़ मारा इन्ने सड़ी गत का जोड़ा सोने के तश्त में रक्खा सो?”

    सारे नौकर-चाकर, ख़वासें, मुग़्लानी बुआ दम-ब-ख़ुद सांस रोक कोने की तरफ़ देखने लगे, जहाँ अपनी बे-नूर आँखें लिए रम्ज़ो बाबा खड़े काँप रहे थे।

    किसी ने ये हरकत की होती तो बड़ी-पाशा गरज कर पूछतीं... “तमे अंधे थे क्या? दिखा नईं कि सोने का थाल है, हौर जोड़े सम्धियाने में जाने को हैं?” मगर वहाँ तो वाक़ई साबिक़ा एक अंधे से ही था। फिर भी वो अपने ग़ुस्से को दबा सकीं और फट पड़ीं, “तुम्हारी ये हिम्मत कैसे हुई गे बुढ्ढे मियाँ? तुम दो टके के आदमी मालूम नईं क्या कि ये किसका जहेज़ है?”

    रम्ज़ो बाबा बे-नूर आँखों से ख़ला में देखते हुए बोले, “जी मालूम है पाशा मेरी बच्ची की शादी है, हौर उसी का जहेज़ है।”

    “तुम्हारी बच्ची? शर्म आना ना तुमको! ये फटे कपड़े, चीथड़े, गुदड़ियाँ लटका को हमारी शहज़ादी जैसी बच्ची को अपनी बच्ची बोलते...”

    लेकिन रम्ज़ो बाबा तो सिर्फ़ ये सोच रहे थे कि शहज़ादी पाशा अगर मेरी बच्ची नहीं तो फिर किस-किस की बच्ची है? क्या पैदा करने वाले बाप को ही ये हक़ है कि वो बाप कहलाए? वो अगर बाप नहीं थे और शहज़ादी पाशा उनकी बच्ची नहीं थी तो फिर ये दुनिया कौन सी मोहब्बत के सहारे क़ायम थी।

    ऊंची साड़ी डेयुढ़ी के बाहर से फाटक पर पहरा देता हुआ अरब चाऊश बहुत देर से ये तमाशा देख रहा था कि गली के बहुत से छोकरे एक नेक सूरत नाबीना शख़्स को हुशका रहे थे, मानो वो कोई जानवर हों। कोई उनके तह बंद का कोना पकड़ कर खींचता, कोई दाढ़ी हिला कर दौड़ भाग जाता, कोई मज़बूत क़िस्म का छोकरा उन्हें चक फेरी देती और फिर सब मिलकर क़हक़हे लगाना शुरू कर देते।

    चाऊश पहले-पहल तो ख़ुद भी मुस्कुराता रहा और मज़े लेता रहा, लेकिन एक-बार जब धक्का खा कर बड़े मियाँ ज़मीन पर गिर पड़े तो उसने ज़ोर से अपना डंडा लहराया और चिल्ला चिल्ला कर बोला, “क्यूँ गे हराम ज़ादो, तुम्हारे मावाँ ने इस वास्ते-इच जन कर छोड़ दियाँ क्या कि ग़रीब बन्दे को सताते रहो।”

    उसके डंडा लहराते ही सारे छोकरे रफू चक्कर हो गए। चाऊश फिर भी बड़बड़ाता रहा, “अब से इधर दिखे तो हराम ज़ादो सब का बाप बन कर बता दियोंगा।” फिर वो आगे बढ़कर मियाँ का हाथ पकड़ कर उन्हें उठाते हुए बोले, “फ़ातक बंद है मियां जी, तबन्नी खुली है। ज़रा सर नीचो कर के अंदर दाख़िल होना पड़ेगा।”

    उन्हें सहारा देकर खिड़की से अंदर दाख़िल कर के वो दोनों हाथ झटके हुए बोला, “मगर आप इधर ये हराम के पोट्टों में कैसे फंस गए मियाँ जी?”

    “क्या बोलूँ बेटा... मस्जिद से ज़रा चाय पीने बाहर निकला था कि छोकरों ने घेर लिए और भगाते भगाते मालूम नईं किधर का किधर ले को गए। अब मैं वापस कैसा तो भी जाऊँगा।” और उनकी आँखें में, जो बे-नूर थीं, पानी चमक उठा।

    चाऊश ने अपने गले में कुछ अटकता महसूस किया। रुकते रुकते पूछा, “आपका कोई तो हुइंगा, जो ढूंढ को को ले जाएंगा।”

    “नईं मियाँ... मेरा बस अल्लाह है।”

    चाऊश कुछ देर के लिए सन्न सा हो गया, फिर ख़ुश हो कर बोला, “इधर ड्योढ़ी में मस्जिद भी तो हई... आप सारे नौकरियाँ हैं नईं, उनके बच्चों को नमाज़ रोज़ा सिखलाते बैठना...”

    “ड्योढ़ी के मालिक कुछ बोलेंगे तो नईं, और फिर...”

    अभी रम्ज़ो बाबा की बात उनके मुंह में ही थी कि एक नन्ही सी आवाज़ ने उनके कानों में जलतरंग सा बजा दिया,

    “बाबा... चलो सब लोगाँ खाना खाने चल रईं, तुम भी चलो।”

    चाऊश ने धीरे से बूढ़े को सुनाया, ये ड्योढ़ी के नवाब साहब की साहबज़ादी है ना? बहूत नौकरियां हैं ना। सब का खाना एक-इच लगता... चलो मियाँ जी।”

    “नईं चाऊश, तुम हटो... बाबा की उंगली पकड़ कर मैं ले जाऊँगी।”

    “हो बाबा, तुमको बिल्कुल नईं दिखता...? मासूम सी जान बेहद प्यारे लहजे में पूछ रही थी।”

    “नईं माँ, कुछ भी नईं दिखता। हौर अच्छा-इच है कि कुछ नईं दिखता। देखने के वास्ते दुनिया में अच्छी चीज़ है इच क्या?”

    “मैं जो हूँ बाबा।” वो ख़ुशी ख़ुशी बोली, “मैं बहुत अच्छी हूँ बाबा। मेरे गोरे गोरे गालाँ हैं। बटन के वैसे चमकदार आँखां हैं। हौर बाबा ख़ूब घने सुनहरे बालाँ भी हैं। सब लोगाँ बोलते, मैं गुड़िया वैसी दिखती। तुम मेरे को देखना नईं चाहिएँगे क्या बाबा?”

    रम्ज़ो बाबा चलते चलते ठिठक गए। उनके वीरान दिल में उथल पुथल सी हुई वो ख़ुद पर क़ाबू पा कर बोले, “अगे वाह! मैं कैसा इत्ती अच्छी बच्ची को नईं देखना चाहूँगा!”

    “हो बाबा। मैं सच्ची बहोत अच्छी बच्ची हूँ। दादी हुज़ूर बोलते, शहज़ादी माँ को देखे तो आँखों की जोत बढ़ जाती है। तुम मेरे को ग़ौर से देखना बाबा, तुम्हारे आँखां से सौब दिखने लग जाएंगा।”

    रम्ज़ो बाबा ने टटोल टटोल कर उसका नन्हा सा चेहरा अपने हाथों में थामा, उसके मुलाएम मुलाएम और ख़ुशी से गरमाए हुए गालों पर पसीने की हल्की सी नमी महसूस की और बहुत मोहब्बत से उसकी पेशानी पर बोसा देकर कहा, “मैं भी कित्ता नादान था बीबी माँ, जो सोचता था कि दुनिया में देखने के लाएख़ है ही क्या... ये दुनिया तो बहुत भी बहोत ख़ूबसूरत लगती होएंगी, क्यूँ कि इस में तो तू रहती है।”

    सात साल की नन्ही मुन्नी सी जान ने एक मजबूर और दुनिया से टूटे हुए शख़्स में जीने की हर ख़ुशी भर दी। बीबी माँ ने ही अपने बाबा जान की सिफ़ारिश पहुंचाई... “बाबा जान आप बाताँ तो नईं करेंगे ना? एक बात बोलतियूँ बोलूँ?”

    नवाब साहब ने हंसकर उसे देखा... “बीबी माँ, हम कभी आप को बाताँ करे? बोलो, क्या बोलते आप?”

    “बाबा जान। वो उन्नों बुड्ढे सर के जो बाबा हैं ना... उनको अंखियाँ नईं बाबा-जान... कुछ भी नईं दिखता उनको... मैं भी नईं दिखती। उनको यही-इच इन्ने पास रहने देते आप?”

    “हम कभी आपकी बात को नाँ बोले बीबी माँ?”

    और नवाब साहब सचमुच थे भी ऐसे ही... किसी के किसी काम में दख़ल देते, किसी पर अपनी राय ठूँसते। अलबत्ता बड़ी-पाशा ने ख़ूब हंगामा खड़ा किया। जब पता चला तो ख़ूब चिड़ कर आईं।

    “हो मैं सुनी की आपकी हौर मुसीबत पाल लिये।”

    “जाने देव बेगम... अल्लाह राज़िख़ है।”

    “वो तो है... मैं नईं बोली क्या, मगर उजाड़ क्या मुसीबत है... एक अंधे को रखना बोले तो आफ़त। कभी बावली में गिर-उर गया तो?”

    “बेगम इन्नों हाफ़िज़ जी हैं... ख़्वाह-मख़्वाह अंधा बोल के बेइज़्ज़ती कर के गुनाह काय को मोल लेते आप?” नवाब साहब ने नर्मी से कहा।

    “मैं क्या बेइज़्ज़ती करी जी? बस इत्ता-इच बोली की बावली में गिर गिरा कर मर मरा गया? अब इसको रक्खे, सो उसके ऊपर हौर एक नौकर रखो। हौर बढ़ाओ ख़र्चे।”

    नवाब साहब उसी तरह नर्मी से बोले, “बेगम, हर इन्सान अपना नसीब, अपना रिज़्ख़ ले कर आया है, आप क्यूँ ऐसा सोचते?”

    “मगर मैं बोल दी, अब रहियो सो रहियो, पन आप तनख़्वाह वग़ैरा नक्को बाँधो। अव्वल-इच कित्ते नौकराँ चप मुफ़्त की रोटियाँ तोड़िए?”

    नवाब साहब ने बड़ी तकलीफ़ से उन्हें देखा... “बेगम, आप अब बोले यानी बाद में, इस वास्ते हम कुछ नईं कर सकते। अगर पहले से बोलते तो हम ग़ौर करते। हम तो उन्नों तनख़्वाह भी दो रुपये माहाना बांध चुके।”

    “दो रुपये?” बड़ी-पाशा पेशानी पर हाथ मार कर बोलीं, आपको कुछ भी अख़ल नईं है, खाना कपड़ा जब डेवढ़ी से मिलेंगा तो दो रुपये काय के वास्ते?”

    “बेगम जीती ज़िंदगी को सो ज़रूरतियाँ लगे दे रहते। कुछ भी करेगा बेचारा।”

    लेकिन बड़ी बेगम के जी को ये बात लग गई कि दो रुपये ख़्वाह-मख़्वाह बांध दिए गए। चुनांचे उन्होंने बड़े मियाँ के खाने चाय में कटौती करा दी। जब नौकरों का खाना लगता तो बड़ी पाशा ख़ासतौर से बरताव वाले ख़ादिम और ख़ादिमा से कर कहतीं, “आज सुबह उन्ने बडगा नाश्ता कर को बैठा है, अब दोपहर का खाना नक्को उसको।”

    उन्नो मियां और भाग भरी एक दूसरे का मुंह देखते, वो हट जातीं तो कहते: “इत्ते बड़े नवाब के बेगम हैं उन्नों। काय को तो भी ग़रीबों के खाने पीने को टोकते।”

    “दई-इच में भी सोचतियों... ऐसा तो कित्ता रुपया ख़ैर ख़ैरात में निकल जाता। अल्लाह मालूम बेचारे मियाँ जी से काय का बैर बांध को बैठे हैं बड़ी-पाशा।”

    बीबी माँ को पता चलता कि आज रम्ज़ो बाबा का दोपहर का खाना नाग़ा कर दिया गया तो वो फ़ौरन अपने कुरते के दामन में दो तीन चपातियाँ और भुने गोश्त का या मुर्ग़ी का सालन छुपा कर ड्योढ़ी में पहुँच जातीं... “बाबा, देखो आपके वास्ते में क्या लाई? बाबा आपको दांताँ तो हैं ना? इक-दम को तली मुर्ग़ी थी। पर बाबा मैं रोटी-इच लाई, खाना (चावल) के साथ लाई? कुर्ते में लाती तो कुर्ता ख़राब हो जाता। अमनी जान देख लेती और बाताँ करते। इस वास्ते ख़ाली काग़ज़ में लपेट को, रोटी मुर्ग़ी-इच ले को गई।”

    रम्ज़ो बाबा का दिल सीने में थरथराने लगता। आँसुओं को पीते हुए वो अटक अटक कर निवाले निगलते। उधर बीबी माँ मुस्तक़िल अपना रिकार्ड बजाए जाती।

    “बाबा, आपको आंखियाँ नईं हैं ना? कुछ भी नईं दिखता होएंगा? ये भी नईं दिखता होएंगा कि इत्ती बड़ी ड्योढ़ी में कित्ते सारे नौकराँ हैं और कित्ता सारा खाना पकता? तो बाबा फिर अमनी जान आपको खाना देने को काय को चिड़ते? क्या मालूम मेरे को, मगर मेरे बाबा-जान बिल्कुल नईं चिड़ते। अमनी जान तनख़्वाह बटी, सो अब के भी बाबा-जान से ख़ूब लड़ लिए की आपको काय को तनख़्वाह होना। मगर आपको सौ ज़रूरताँ हईं? होवेंगे। नईं तो बाबा-जान काय को ऐसा बोलते... बाबा, आपको कभी भी कोई भी चीज़ का काम पड़े तो मेरे को चुपके से बोलना। पैसे होना तो वो भी बोलना। मैं अमनी जान की तिजोरी में से चुरा को...”

    “अरे रे रे! तौबा तौबा बीबी माँ!” रम्ज़ो मियाँ अचानक उसकी बात काट कर बोले उठते... “चोरी चकारी की बातें नक्को करो आप, आपको मैं सिखाया नईं की अल्लाह मियाँ चोरी से बहोत चिड़ते। और बीबी माँ, मैं आपको कल अरबी का सबख़ पढ़ाए बाद नसीहताँ करा था नईं कि अपने हुज़ूर फ़रमाए की माँ-बाप का हुक्म मानना। उनके ख़िलाफ़ कोई बात मत करना।”

    बीबी माँ बात काट कर कह उठती, “हौर आप-इच ये भी सिखाय कि हुज़ूर बोले कि भूकों को खाना खिलाना... फिर आप भूके रहे तो मैं क्या खाना मत ख़िलाऊँ?”

    वो सिटपिटा जाते, “वो तो ठीक है बीबी माँ? पर अगर आपकी अमनी जान के दिल में नईं था तो आप छुपा चुरा को खाना नईं लाना था।”

    “मैं छुपा को तो लाई, चुरा को कब लाई? मैं तो अपने हिस्से में से लाई। अपना हिस्सा मैं खाऊं की किसी को ख़िलाऊँ। फिर वो ख़फ़ा हो कर कहती, अच्छा आप मेरे को चोट्टी बोले ना? मैं अब से आपके पास नईं आऊँगी।”

    लेकिन थोड़ी ही देर बाद वो चहकती हुई जाती और अपनी मासूम बक बक शुरू कर देती। बीच बीच में चाऊश को गवाह भी बनाती जाती।

    “क्यूँ चाऊश, बाबा ख़ुद मेरे को सबख़ पढ़ाते कि ग़रीबों की मदद करना चाहिए? अपने हुज़ूर को भी ऐसा ही सिखाय न?”

    “जी हौ, बीबी माँ।” चाऊश मुस्कुरा कर गवाही देता, “आप सच्ची बोलते।”

    “अच्छा चाऊश, तुम बाबा को अबकी तनख़्वाह पर लुंगी कुर्ता ला देना। बहोत फट गया ना।”

    रम्ज़ो बाबा अपनी जगह सिटपिटा जाते। चाऊश अलग पैंतरे बदलने लगता। चाऊश की बड़ी सारी फ़ैमिली थी। पाँच रुपये महीना तनख़्वाह थी, जो डयोढ़ी के सारे नौकरों से बढ़कर थी, मगर फिर भी कमबख़्त पूरी पड़ती। बाबा चार आठ आने, ख़ुद रखकर पूरी तनख़्वाह चाऊश के हवाले कर देते।

    “जी हौ बीबी माँ, अब के महीने ज़रूर ला दियौंगा। वो रुकते रुकते कहता मगर वो महीना कभी नहीं आता।”

    बीबी माँ इस भेद से ला इल्म अपनी ख़िदमात पेश किए जाती... “हौ बाबा, मैं बाबा-जान को बोल के कि उनका एक आध कुर्ता पाजामा ला कर दियूँ... कित्ते फट गए तुम्हारे कपड़े...”

    “नईं बीबी माँ, चुप आपको दिखते कि फटे वे हैं। अच्छे ख़ासे तो हैं। देखो तो भला चाऊश मियाँ की बीबी ने ये पैवंद लगा को बिल्कुल नवा कर दिए हैं ये कुर्ता।”

    “मगर बाबा, तुम्हारा कुर्ता सफ़ेद था, ये पैवंद तो गुलाबी रंग का है।”

    चाऊश अपनी जगह चरमरा जाता। बाबा बात टालने को कहते, “अरे बीबी माँ, तो मैं इच बोला था कि गुलाबी पैवंद लगाता... फूल के वैसा गुलाबी गुलाबी अच्छा लगता ना?” “अच्छा बाबा, मेरे को अब ईद पर दादी माँ ईदी देंगे तो मैं तुम्हारे वास्ते गुलाबी फूलाँ का कुर्ता पाजामा बनाऊँगी... आँ।”

    रम्ज़ो बाबा और चाऊश दोनों हंस पड़े। बाबा कहते, “नईं माँ... बुड्ढों को गुलाबी फूलाँ कैसे लगेंगे? सब लोगाँ हँसेंगे.. अप इत्ता ख़याल रखते, बस वे-इच बहोत है।”

    “नईं बाबा।” वो अपनी ही हांके जाती, “गुलाबी फूलाँ बहुत अच्छे लगते... तुम देखना... अचानक वो ठिठक जाती, अरे बाबा, तुमको तो दिखता नईं ना? बाबा हकीम साहब सारे डयोढ़ी के लोगाँ का ईलाज करते... मैं बाबा-जान से बोलूँगी कि तुम्हारे आँखाँ का इलाज करवाने को... फिर बाबा तुम देखना गुलाबी फूलाँ कित्ते अच्छे... मैं कितनी अच्छी दिखती।”

    बाबा उसके प्यार के समुंदर में डूब कर कहते, “मेरी गुड़िया, वो तो मैं अंधा हो कर भी देखता हूँ कि तू कित्ती अच्छी है।”

    धीरे धीरे, वो छुपा छुपा कर खाना लाने वाली, बाबा की बीनाई वापस जाने की दुआएँ करने वाली अपनी ईदी से बाबा के लिए कपड़े सिलवाने की चाह करने वाली बड़ी होती गई। उसका उर्दू का पहला क़ायदा ख़त्म हुआ, फिर पहला पारा शुरू हुआ। फिर उर्दू की पहली किताब ख़त्म हुई, फिर दूसरा सीपारा, फिर तीसरा... बाबा उसे दिल लगा कर मज़हब की तालीम देते रहे... फिर उसका क़ुरआन शरीफ़ ख़त्म हुआ, उर्दू की क़ाबिलियत आई... फ़ारसी वाली उस्तानी माँ ने उसे फ़ारसी सिखाई। इंग्लिश पढ़ाने वाली ने उसे इंग्लिश में ताक़ क्या... वक़्त का पंछी ऊंची ऊंची उड़ानें भरता रहा, मगर इस चहकती मैना ने जिस डाल पर बसेरा किया था वो छूटा... वो अब भी इसी तरह बाबा के पास आती, उनके खाने का एहतिमाम करती। ये ज़रूर था कि शुऊर आते आते वो ज़बान की क़दर-ओ-क़ीमत से वाक़िफ़ होती गई और हर-दम पड़पड़ करती रहने वाली मैना अब धीमे धीमे लहजे में कम ही बातें करती, लेकिन रम्ज़ो बाबा के लिए उसके दिल में प्यार की जड़ें गहरी से गहरी होती गईं।

    बाबुल के आँगन में चहकने वाली चिड़िया कब तक आज़ाद रहती? होते होते बाबा के कानों में भी ये बात पड़ ही गई कि बीबी माँ की शादी होने वाली है। कैसी ख़ुशी की ख़बर थी। लेकिन बाबा का दिल जैसे डूब कर रह गया... “ड्योढ़ी में अब मेरे वास्ते क्या तो भी रह जाएंगा मौला!” वो दिल मसोस मसोस कर रह जाते। बीबी माँ अपने घर की हो रही थी। ये भी ना-मुमकिन था कि वो दुआ करते कि ये समाअत टल जाए। एक एक दिन तो बीबी माँ को ये ड्योढ़ी, ये आँगन, ये मैका छोड़ना ही था। अच्छा है जहाँ रहे मेरी बच्ची ख़ुश रहे। लेकिन अपनी बच्ची को मुझे कुछ कुछ तो देना ही चाहिए।

    अपने मीठे सुभाव और नर्म सुलूक और शीरीं ज़बान की वजह से बाबा ने सारे नौकरों में एक मुक़ाम बना लिया था। दाई माँ से उनके सलाह मश्वरे ख़ूब चलते थे।

    “दाई माँ, सोना तो बहोत महंगा है। मैं बीबी माँ को क्या तो भी देयूँ? ऐसा सोचा हूँ कि एक-आध कपड़ों का जोड़ा देयूँ।”

    “जी हौ मियाँ जी... ज़रूर देव आप, आप का दिया हुआ टुकड़ा भी बरकत भरा हुएँगा। आख़िर को आप इत्ता अल्लाह का कलाम याद करे वे हैं।”

    “तो दाई माँ कमख़ाब का जोड़ा देयूँ?”

    दाई माँ ने तरस भरी निगाहों से उन्हें देखा। टाल कर बोलीं, “आई कमख़ाब काय को? अपना दौरा देव कोई।” वो जानती थीं कि इतना महंगा कपड़ा उनके बस का नहीं...

    “अत्लस का कैसा रहेंगा?”

    “नक्को मियाँ जी, अत्लस के बहोत सारे जोड़े सिल रए।”

    “फिर जामादार का?”

    “जामादार चुभता बोलते बीबी माँ।” वो टाले जातीं।

    “अब मैं ग़रीब औरत क्या मश्वरा देयूँ। आप तो ख़ुद लाएख़ आदमी हैं।”

    “अपना लाल मदरे नईं तो सोसी का जोड़ा और मलमल का दुपट्टा।”

    “जी हौ, ये बहोत अच्छा रहेंगा।”

    “होर मेरे को तो दाई माँ कुछ दिखता नौवीं, बहोत पहले जब आँखां थे तब दिखता था। घर के औरताँ चमकी सितारे गोटा टांकते थे... इससे कपड़ों पर रौनख़ और चमक जाती थी।”

    “जी हौ मियाँ जी।”

    “मगर टाँकेगा कौन?”

    “आई मियां जी, इत्ते पोट्टियाँ हैं, चप कद कड़े लगा लेते, घूमतियाँ फिरतियाँ, उसकी आप फ़िकर करो। बस मेरे को पैसे दे देव... मैं सौब कर लेयूँगी।”

    “कपड़े... दुपट्टा... गोटा... चिमकी सब मुल्ला को कम है कम दस रुपये ज़रूर-इच होवेंगे मियाँ जी।”

    वो बैठे बैठे धँस से गए। ग़रीब चाऊश को दे दिला कर, कभी-कभार की चार आठ आने को होते ही क्या थे। इन चार आठ आनों में कभी वो बीबी माँ को बेसन के मर्कल, बेर, जाम ख़रीद कर खिला देते थे। कभी सुस्ती आती तो ख़ुद चाऊश के हाथ से एक आधा प्याली चाय इस्लामी होटल से मंगा कर पी लेते थे। उस वक़्त तो जेब में दमड़ी भी थी। बड़ी मुश्किल से बोले, “शादी कब है मगर दाई माँ?”

    “बस तीन हफ़्ते ही तो रह गए माँ।” दाई माँ ठंडी सांस भर कर बोलीं, “फिर तो मेरी मैना... मेरी चहकती बुलबुल मेरे आँगन को सूना कर देगी।”

    वो आँखों में भर आने वाले आँसू पोंछने लगीं। रम्ज़ो बाबा का अपना दिल भी नमकीन पानी में डूबने लगा।

    ये अलग दास्तान थी कि रम्ज़ो बाबा ने किस तरह दस रुपये की रक़म जोड़ी... अपनी चाय पानी छोड़ दी, पेट काटा। पास पड़ोस के साहब हैसियत बच्चों को चाऊश से बुलवा बुलवा कर दर्स दिए, रातों को नींदें हराम कीं, किसी को दिन में पढ़ाया, किसी को रात में।

    चाऊश को अपनी तनख़्वाह देनी बंद की, उससे उधार सुधार का सवाल किया। बस एक ही धुन थी कि किसी तरह दस रुपये जमा हो जाएँ। फिर ये डर भी था कि ड्योढ़ी के मालिकों को पता चल जाए कि बाबा आस पड़ोस के बच्चों को बुला बुला कर पढ़ाता और पैसे वसूल करता है। रात को पढ़ाते, दिन-भर जमाहियों पर जमाहियाँ लेते। चाऊश कहता भी... “मियां जी, इत्ती सुस्ती रही है तो एक कोप चाय ला देयूँ?”

    वो हंसकर बोलते, “अगे नईं मियाँ, सुस्ती काय की? अभी तो सारे नौकरों को चाय बटी थी।”

    और जब दस रुपये की ख़तीर रक़म दाई माँ के हाथों में पहुंची तो बुढ़ापा टूट कर बाबा पर बरस चुका था। सफ़ेद झाग ऐसे बाल साफे में झाँकते हुए। कमज़ोरी से हिलता डोलता, जिस्म उसके साथ हिलती काँपती डाढ़ी। हाथों में राशा... दाई माँ ने रुपये उनके हाथों से लिए तो हैरत से उन्हें देखकर बोलीं, “आई माँ जी, आपका जी अच्छा नईं क्या? इत्ते कमज़ोर काय लग रए?” वो टूटी हुई आवाज़ से बोले, “मेरी बीबी माँ चली जाएगी बोल के, सोच सोच के ये हाल हो गया।”

    “ये तो सब ही के दिल की आवाज़ थी...” दाई माँ भी सिसक कर रह गई।

    सलीम शाही, बिना आवाज़ की जूतियाँ पहने, आते-जाते बड़े नवाब साहब देखते कि ड्योढ़ी में इधर दरज़नें बैठी लुच लुच गोटे, साँचे, सलमा सितारे, बानकड़ियाँ, किरनें टांक रही हैं। अत्लस, शामो, जामेदार, बनारसी और किमख़ाब के थानों के थान खुले हैं। सोनार मुसलसल जे़वरात बनाने में जुटे हुए हैं... जौहरी सच्चे हीरे और मोतियों के पिटारे खोले बैठे हैं, और इधर ग़ुलाम गर्दिश में एक जोड़ा सिल रहा है। सस्ते मोल की चिमकियों से उसे सँवारा जा रहा है... झूटी लचे से मलमल की सजाट बढ़ाई जा रही है और दो काँपते हाथ उस जोड़े को उठा कर बार-बार अपनी बे-नूर आँखों तक ले जाते हैं। एक बूढ़ी, लरज़ती आवाज़ बार-बार पास बैठी लड़कियों से पूछती है, “छोकरियो, मेरी बीबी माँ इस जोड़े में शहज़ादी लगेगी ना?” और लड़कियां आँखों ही आँखों में दुख से बोझल नज़रों का तबादला कर के उन्हें जैसे दिलासा देती हैं, “जी हौ मियाँ जी, इत्ता अच्छा जोड़ा तो बीबी पाशा के जहेज़ में एक भी नई होएंगा।”

    “ख़ुदा उसका सुहाग बनाए रक्खे... मुझ अंधे का कित्ता ख़याल रखती थी... दुनिया बार-बार जन्म लेगी, ऐसी चांद सूरज के वैसी बे-मिसाल बच्ची पैदा होएंगी... मेरी बीबी माँ... मेरी बच्ची...”

    “तुम्हारी बच्ची...?” बड़ी-पाशा चिल्लाईं, “शर्म आना तुमको... ये फटे कपड़े चीथड़े, गुदड़ियाँ लटका ले को हमारी शहज़ादी जैसी बच्ची को अपनी बच्ची बोलते।”

    और उन्होंने पूरी ताक़त से वो जोड़ा उठा कर जो फेंका तो वो सीधा रम्ज़ो बाबा के पैरों में जा पड़ा।

    रम्ज़ो बाबा के आँखें नहीं थीं, कान तो थे, और उनके कानों ने मद्धम सी, चलने की चाप सुनी... फिर उनके कानों में हल्की सी ज़ब्त भरी सिसकी सी उभरी कोई क़रीब आया, फिर उनके कानों ने यूँ सुना जैसे किसी ने उन कपड़ों का बोसा लिया हो। फिर उनके कानों ने बाक़ायदा सुना... और यक़ीनन ये आवाज़ एक दर्दमंद दिल की ही हो सकती थी।

    “बेगम...” उन्होंने महसूस किया कि कोई उनके पैरों में झुका हो और उसने वो कपड़े उठा लिए हों।

    “बेगम... आपने ये कपड़े फेंक दिए! ये कपड़े बेगम! जो इस दुनिया में तैयार हुए होते तो सिर्फ़ जन्नत से ही उतारे जा सकते थे और जिन्हें लेकर फ़रिश्ते भी डरते डरते इस दुनिया में ख़दम रखते... आपको उन कपड़ों की ख़दर-ओ-ख़ीमत मालूम है बेगम साहिबा... इनके एक एक टाँके में मोहब्बत गूंधी गई है... कितने रातों की जाग और कितने भूके लम्हों का क़ुर्बान में घुला हुआ है... बेगम ये जोड़ा ख़ून-ए-दिल की लाली से सुर्ख़ है... इस के झूटे गोटे और सस्ती चिमकियों पर मत जाइए। इसमें जो चमक है वो आपके सारे हीरे और मोतियों में मिलकर भी नहीं हो सकती...”

    सारे मेहमान, बराती, सम्धियाने वाले हैरत से खड़े सुन रहे थे। वो ऐसी नर्म आवाज़ में, जो हज़ार हुक्मों पर भारी थी, धीमे से बोले, “बीबी माँ की अख़द ख़्वानी के वख़त उसको यही-इच जोड़ा पहनाया जाएंगा।”

    “मगर आप इत्ता तो सोचो, सारा हैदराबाद...”

    नवाब साहब ने बेगम साहिबा की बात काट दी, “हम आपका मतलब समझते हैं और आप ये भी जानते हैं कि हम किसी को किसी काम से मना करते ना किसी के काम में दख़ल देते... मगर हम आपको कहे देते हैं कि बीबी माँ की शादी इसी जोड़े से होती और ख़ाएदे के मुताबिख़ शादी का जोड़ा जो दूसरे दिन ख़ैरात कर दिया जाता है... ये जोड़ा ख़ैरात में नहीं दिया जाएंगा। ये जोड़ा नसल-दर-नसल संभाल संभाल कर रक्खा जाएंगा कि लोगों को याद रहे कि मोहब्बत इस तरह की जाती है और मोहब्बत के यादगाराँ इस तरह संभाल कर महफ़ूज़ किए जाते हैं।”

    उन्होंने अपने आँसू पोंछ कर रम्ज़ो बाबा के हिलते कांपते वजूद को सँभाला जिनके होंट थरथरा रहे थे।

    ज़िंदगी में आज पहली बार जी चाह रहा है कि ख़ुदाया मेरे भी आँखां होते और मैं उस मेहरबान चेहरे को देख सकता... रम्ज़ो बाबा के टूटे दिल से दुआ निकली और वह नवाब साहब से लिपट कर चीख़ चीख़ कर रोने लगे।

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