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झुकी झुकी आँखें

मुमताज़ मुफ़्ती

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मुमताज़ मुफ़्ती

MORE BYमुमताज़ मुफ़्ती

    स्टोरीलाइन

    कहानी एक ऐसी लड़की की दास्तान बयान करती है जो मोहब्बत तो सलीम से करती है मगर शादी उसकी नज़र से हो जाती है। शादी के बाद भी वह सलीम के ख़्यालों में खोई रहती है। उधर नज़र उसे दीवानगी की हद तक चाहता है। एक रोज़ उसे पता चलता है कि सलीम आया हुआ है। वह उसके पास जाना चाहती है। मगर नज़र, जो उसके लिए अपनी पसंद की नीली साड़ी खरीदने के लिए इतना काम करता है कि बीमार पड़ जाता है। वह उसे देखती है और सलीम के पास जाने से इंकार कर देती है।

    अज़्रा उन औरतों में से है जिनसे विसाल में भी तकमील-ए-हुसूल की आरज़ू में बेसाख़्ता आह निकल जाती है। जो दिलख़राश हक़ाइक़ से दूर किसी रंगीन दुनिया में रहती हैं। यूं तो हर औरत की दुनिया हक़ाइक़ से बेनियाज़ है मगर अज़्रा में ये ख़सुसियात नुमायां है।

    अज़्रा को बार-बार देख कर भी नहीं कह सकता कि वो किस लिहाज़ से हसीन है। किताबी चेहरा, हस्सास नाक, मिस्कीन से होंट, हैरान मोटी मोटी आँखें और गुदाज़ जिस्म। उसकी हैरान ख़्वाबीदा आँखें जो उसकी क़ुव्वत तकल्लुम का बेश्तर हिस्सा सल्ब कर चुकी हैं, जाने कौन सी दुनिया में रहती हैं। बहर सूरत वो इस मुख़्तसर मकान में जहां वो उसका ख़ाविंद और सास रहते हैं, रहती हुई महसूस नहीं होती। उसकी कमर का वो हल्का ख़म जिसकी वजह से उसकी गर्दन ज़रा बाएं तरफ़ मुड़ी रहती है, बहुत भला मालूम होता है। बल्कि किसी वक़्त मुझे शुब्हा होता है कि यही ख़म उसकी जाज़्बियत का राज़ है। जब कभी अज़्रा कुछ बुन रही हो या पढ़ रही हो और झुकी झुकी आँखों से बातें करे तो तुम्हारे दिल में एक लतीफ़ एहसास पैदा होगा कि बे-शक ज़िंदगी बसर करने के क़बिल है और मिल बैठने में ज़रूर राहत है। लेकिन अगर वो आँखें उठ कर तुम्हारी तरफ़ नज़र भर कर देख ले तो मैं नहीं कह सकता कि तुम क्या महसूस करोगे। उस वक़्त तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि अज़्रा मुझसे कोसों दूर है। यक़ीन नहीं पड़ता कि वो ज़िंदगी की हक़ीक़त है या महज़ ख़्वाब। उस वक़्त चिराग़ मद्धम पड़ जाते हैं और दुनिया घूम जाती है।

    कोई दस बारह महीने हुए होंगे जब वो यहीं स्कूल में दसवीं जमात में पढ़ा करती थी। मगर उन दिनों उसके अंदाज़ में ये बात थी। हैरानियाँ तो उसकी निगाह में झपटने ही से थीं। शायद इसलिए कि बचपन से ही वो सौतेली माँ के पास रहती थी मगर शादी के बाद उसकी निगाहें और भी हैरान हो गईं और अब वो तरन्नुम से भीग चुकी हैं। उसकी गर्दन का झुकाव कुछ और झुक गया है और उसकी पलकें किसी ख़्वाबों की बस्ती को ढाँपे रखती हैं।

    उन दिनों जब स्कूल से लौटा करती तो उसके अंदाज़ में बेगाना रवी पैदा करने की कोशिश अयाँ होती मगर कभी-कभार कोई दबी हुई मसर्रत छलक पड़ती, चलते चलते ठुमक जाती या आँख में हल्का सा तबस्सुम लहरा जाता, जिससे साफ़ ज़ाहिर होता कि उसे ज़िंदगी से दिलचस्पियाँ महसूस हो रही हैं। वो अपने अंदाज़ में ऐसी बेगाना रवी पैदा करने की कोशिश करती थी जो वालदैन के नुक़्ता-ए-नज़र से हर शरीफ़ बच्ची में होनी चाहिए। ख़ुदा जाने वालदैन अपने बच्चों में बेदारी देखने के मुतहम्मिल क्यों नहीं हो सकते। उनकी ख़्वाहिश होती है कि उनके बच्चे तभी कलियों की तरह सोए सोए ही रहें और यूंही सोए सोए ही मुरझा जाएं। इसलिए वो उनमें बेदारी पैदा करने का क़तई फ़ैसला कर लेते हैं और जो पैदा हो जाती है उसे देखने का। अज़्रा के वालिद मोअख्ख़िर-उज़-ज़िक्र क़िस्म के आदमी थे। घर में खाने पीने के लिए काफ़ी था और जमा करना उनकी सरिश्त में था। बीवियों के मुआमले में वो अपने आपको बहुत बदनसीब समझते थे। उन्हें गिला था कि उनकी बीवियों की शादी के फ़ौरन बाद ही आम हो जाने की क़बीह आदत है। उनकी ख़ाहिश थी कि ऐसी बीवी मिले जो गूना-गूं हो और उनका ईमान था कि वो कभी कभी उसे ज़रूर ढूंढ निकालेंगे। इसलिए वो उसकी तलाश में सरगर्दां रहते थे। उनके ख़याल में बीवी का यूं आम हो जाना उसकी बद मज़ाक़ी की दलील है और वो अपने ख़याल को अक्सर ज़ाहिर किया करते थे।

    इंजिनियर साहिब की बीवी को देखिए... उसकी आँखों में बीसियों निगाहें हैं। एक से एक नई। कभी वो उदासी में तो कभी सुर्ख़ी में डूबी रहती हैं। कभी हम तुम्हें जानते ही नहीं और कभी अब कहिए मिज़ाज कैसे हैं... की सी निगाहें और फिर उनका तो रंग भी अदलता बदलता है। कभी गुलाबी-गुलाबी, गहरी गहरी, गुदरी-गुदरी, मैली-मैली ये जो पड़ोस में मिसिज़ मलिक है देखने के अंदाज़ से देखने में उसे किस क़दर मलिका है, उसके भरे हुए जिस्म में किस क़दर ख़म-ओ-पेच मुज़्तरिब रहते हैं। एक वो अज़्रा की माँ थी कि बैठ जाती तो घंटों उठना मुहाल हो जाता। बस दिन-भर आलू ही छीलती रहती थी और फिर वो ज़मुर्रद थी कि एक मर्तबा साड़ी के लिए बिगड़ बैठी तो हफ़्तों सूज कर बैठ रही और कुछ कह दिया तो एक अर्सा तक चेहरे की ज़र्दी के सिवा घर में कुछ नज़र आया।

    अज़्रा की माँ के बाद उन्होंने ज़ोहरा से शादी की थी मगर वो भी चंद सालों के बाद लुकम-ए-अजल हो गई। ख़ैर इस बात से उनकी ज़िंदगी में कोई ख़ास फ़र्क़ पैदा हुआ। चूँकि शादी के चंद माह बाद ही उन्हें ये मालूम हो चुका था कि ज़ोहरा में वो बात नहीं। अब घर में उनकी बूढ़ी मुलाज़िमा हशमत और अज़्रा के सिवा और कोई था। ख़ुद तो वो आम तौर पर बाहर बैठक में बैठे रहते या कभी अंदर आते तो अज़्रा को कोई नसीहत करने के लिए कहते,

    अज़्रा दुपट्टा सँभाल लो। बेटियों को यूं नंगे-सर बैठना ज़ेब नहीं देता।

    हशमत वो खिड़की क्यों खुली है? बंद करो उसे। देखो तो अज़्रा बैठी है और गली में लोग आते-जाते हैं।

    अज़्रा तुम ये मिसिज़ मलिक वलिक के हाँ जाया करो, लड़कियां अपने घर बैठी अच्छी लगती हैं।

    इन नसीहतों के बावजूद उन्होंने कभी आँख भर कर उसकी तरफ़ देखा था। बेटी जवान हो जाये तो जाने क्यों उसे देखना मुश्किल हो जाता है। उन्हें कभी अज़्रा की शादी का ख़याल भी आया था। ही उन्होंने उसे कभी बेटी कह कर बुलाया था। क्यों कि गो वो चालीस बरस के थे लेकिन अभी जवान ही मालूम होते थे। उनके दोस्त और अहबाब उन्हें ज़ीनत-ए-महफ़िल समझते थे। बाहर दीवानख़ाने में जमघटा रहता था और क़हक़हों से दर-ओ-दीवार गूँजते।

    एक रोज़ सुब्ह-सवेरे जब अज़्रा स्कूल जाने की तैयारी कर रही थी और अपना महबूब नीला सूट पहने बाल बना रही थी तो मामूल के ख़िलाफ़ उसके वालिद अंदर कर ख़शमगीं अंदाज़ में कहने लगे,

    अज़्रा आज से तुम स्कूल जाया करो। बस ज़्यादा पढ़ने की ज़रूरत नहीं।

    मगर अब्बा जान। अज़्रा ने अपने आपको झिंझोड़ कर पूछा। उसका चेहरा हैरानी और ख़ौफ़ से बदनुमा हो रहा था।

    मगर वगर कुछ नहीं। उन्होंने बात काट कर कहा, इम्तिहान देने की ज़रूरत नहीं।

    एक साअत के लिए अज़्रा की आँखें उठीं। शोले की तरह चमकीं मगर वालिद जा चुके थे। हशमत ने उन आँखों को देखा और ऐसे महसूस किया जैसे कायनात का ज़र्रा ज़र्रा थर-थर काँप रहा था, फिर वो झुक गयीं। दो मोटे मोटे आँसू रुख़्सारों से ढलक कर लिबास में जज़्ब हो गए। फिर वो निगाहें हैरान होती गईं। अपने माहौल से सिमट कर अपने आप में जज़्ब होती गयीं। उस दिन से अज़्रा को ठुमकते हुए किसी ने देखा और उसे बेगाना रवी पैदा करने की शायद ज़रूरत ही रही। शाम को वो कोठे पर चली जाती और घंटों खेतों की तरफ़ निगाहें जमाए हुए खोई हुई सी रहती। हत्ता कि पंद्रह दिनों के अंदर अंदर उसके वालिद ने नज़र से निकाह पढ़वा कर उसे रुख़्सत कर दिया। ग़ालिबन इसलिए कि अज़्रा की बेदारी का ज़माना इस क़दर मुख़्तसर था कि आया वो चला गया। वो इस क़दर गहरा असर छोड़ गया, जिस तरह किसी वीरान वादी में किसी आवारा ताइर की लरज़ती हुई तान। चंद एक साअत के लिए उन ख़ामोश मुहीब चटानों में उभर उभर कर ख़ामोशियों के मस्कन को और भी ख़ामोश और भयानक तर छोड़ जाती है।

    इस झटपट पर ख़ल्क़-ए-ख़ुदा के माथे पर शिकन पैदा होने ही थे। चेमिगोइयां हुईं, दबी-दबी आवाज़ें उठीं, मगर आवाज़ कसने की नौबत पहुंची। एक तो मुहल्ले वालियों को अज़्रा से कोई गिला था और अज़्रा कोई इस क़दर हसीन या शोख़ या तरहदार नहीं समझी जाती थी कि मुहल्ला वालियाँ उससे कीना दोज़ी करतीं। दूसरे उन्हें अज़्रा के वालिद से भी कोई रंजिश थी कि उन्हें नशतर करतीं, बल्कि वो तो उनकी नुक्ता-रस निगाहों से वाक़िफ़ होने के इलावा उनकी निगाहों की क़द्रदान थीं। चंद एक मसलन इंजिनियर की बीवी और मिसिज़ मलिक जिन्हें आवाज़ कसने में मलिका था। उनका तो ये गिला था कि ढोल छमछम। ताक झांक, तू तू, मैं मैं। ये भी क्या शादी हुई। कई एक को तो मुद्दत से अज़्रा की शादी की तक़रीब सईद का इंतिज़ार था कि शादी हो और मेहमान बन कर जाएं। हिना मलीदा हाथ हों। झिलमिलाती हुई साड़ियां हों। काजल, झुमके, बिंदियाँ चमकें। प्लेटों से चूड़ियां बजें, पान बनाये जाएं और इस अफ़रातफ़री में अचानक कोई निकले तो घूँघट निकालना तो क्या दुपट्टा सँभालना भी मुश्किल हो जाये। कोई गुस्ताख़ लट झटक कर मुँह पर गिरे और नाक में दम कर दे या पतली पतली गोरी गोरी उंगलियां दुपट्टे को सँभालने की नाकाम जुस्तुजू में उर्यां रह जायें। बारीक तहों से नज़रें छनछन कर पड़ें। सफ़ेद सफ़ेद बाहें घूँघट से निकल कर कुछ दें , कुछ लें। यानी ऐसी शादी हो कि नाम रह जाये बल्कि चर्चा हो।

    आख़िर ख़ल्क़-ए-ख़ुदा ख़ल्क़-ए-ख़ुदा ही है और बात बात है जो निकल ही जाती है। किसी ने कहा, किसी से आँख लड़ गई होगी। कोई कहने लगी, लो अब हंस हंसकर बातें करने लगी थी। कोई कहने लगी, सुना है उसके अब्बा ने ख़त पकड़ लिया। कोई बोली, उल्लू बीबी वो तो उसके अब्बा ने अपनी आँख से देख लिया। दफ़्तर से रहे थे। बाग़ में वो उसे पहलू में लिये बैठा था। तौबा कैसा ज़माना आया है। ग़रज़-कि कई बातें निकलीं बल्कि कौन सी बातें थीं जो रह गईं। मगर दबी दबी हुई और फिर बात आई गई हो गई।

    उस बेचारी का यही क़ुसूर था कि स्कूल जाते हुए ताँगे में यूं आँखें झुकाए हुए बैठी रहती कि मर्मरीं बुत का शुब्हा होता अगर किसी शोख़-चश्म के दिल में उस बुत को देखकर एक मुसव्विर पैदा हो जाये और उसे इस बात में मह्व कर दे तो अज़्रा का इसमें क्या क़ुसूर, हाँ स्कूल की वीरान सड़क पर हवा खाने को किसका जी नहीं चाहता।

    पूरी तफ़्सीलात से मुझे वाकफ़ियत नहीं, हाँ सलीम का ऊंचा-लंबा क़द और फ़राख़ शाने और उसका अंदाज़ बेनियाज़ी... इस अमर का शाहिद है कि उसे ताँक-झाँक से कोई दिलचस्पी नहीं, वो ख़ुद-साख़्ता मुसीबत मोल लेने का आदी है, ग़रज़-कि वो उन नौजवानों में से नहीं जो किसी के तसव्वुर में औंधे पड़े रहने, आहें भरने और शेअर पढ़ने की दिलचस्प कैफ़ियत में मुब्तला रहने के मुश्ताक़ हैं। चंद दिन तो सुबह छः बजे वो रोज़ उस सड़क पर अपने साईकल पर सवार घूमता रहा, फिर एक रोज़ जब छुट्टी के वक़्त अज़्रा स्कूल के फाटक के क़रीब खड़ी अपने ताँगे की राह देख रही थी तो सलीम ने कर उसका बाज़ू पकड़ कर घसीट कर एक तरफ़ ले गया और उसे शानों से पकड़ कर पूछने लगा, तुम कौन हो? तुम्हारा नाम क्या है? तुम बोलती क्यों नहीं...? अच्छा। उसने ज़रा से झिंझोड़ कर कहा, तुम चाहे कोई भी हो तुम मेरी हो और तुम्हें अब मुझसे कोई भी नहीं छीन सकता। और पेशतर इसके कि अज़्रा समझती कि ये क्या हो रहा है या उसे क्या करना चाहिए, सलीम जा चुका था। फिर उसे याद नहीं कि उस रोज़ ताँगे वाले ने देर से आने के लिए क्या उज़्र पेश किया था या किस रास्ते से वो आए थे या रास्ते में फाटक पर कितनी देर इंतिज़ार करना पड़ा था या रुकना पड़ा भी था या नहीं, उस रोज़ उसकी आँखें तबस्सुम से आश्ना हुई थीं और उसकी चाल ने ठुमकना सीखा था।

    उसे उस वाक़े की हक़ीक़त पर एतबार आया था। मगर उसके बिलौरीं शानों पर दो-तीन नीले-नीले दाग़ दिलचस्प गिरफ्त के शाहिद थे और उसके शानों पर लज़ीज़ सा दर्द हो रहा था।

    उस रोज़ अपने तोते सूली से कह रही थी, सूली चाहे तुम कोई भी हो, तुम मेरे हो। तुम्हें मुझसे कोई भी नहीं छीन सकता कोई भी नहीं। वो निहायत संजीदगी से कह रही थी। फिर उस मस्नूई संजीदगी ने शायद उसे गुदगुदाया, वो हंस पड़ी, क्यों सूली है ना।

    उसके बाद उनकी दो-चार सरसरी मुलाक़ातें हुई होंगी और दो-चार ख़ुतूत आए गए होंगे और बस। सलीम हमेशा उसके लिए चंद एक धुँदले धुँदले नुक़ूश, चंद एक दिल की पुरकैफ़ धड़कनें और हाथों और शानों और कमर पर चंद एक लतीफ़ दबाव और सीने की चंद मुब्हम थरथराहटों के सिवा और कुछ रहा था। जिस क़दर ये नुक़ूश मद्धम थे, उसके दिल में उनके मुताल्लिक़ हिस्सियात उसी क़दर गहरी थीं।

    गाड़ी में अज़्रा अपनी सास के हमराह दरमियाने दर्जे के डिब्बे में बैठी थी। वो जा रही थी मगर उसे यक़ीन नहीं आता था कि वो नज़र के साथ जा रही है। उसका दिल कह रहा था, ये कैसे हो सकता है? वो समझती थी कि ख़्वाब देख रही थी जैसे क़ुदरत उसे छेड़ने के लिए मज़ाक़ कर रही हो कि वो अभी जाग पड़ेगी और सब कुछ ठीक हो जाएगा। ख़्वाब नहीं तो और हो ही क्या सकता था। ऐसी बात कैसे मुम्किन हो सकती थी।

    बाहर खेतों में गर्मी से झुलसा हुआ फीका सब्ज़ा लहरा रहा था और सब्ज़ होने के बावजूद आँखों में चुभता था। उन खेतों के वसीअ फैलाव में यहां वहां बिजली के बहुत देव नुमा खम्बे गर्द से अटे हुए किसानों में यूं मालूम होते थे जैसे ठिगनों में कोई गोलिवर खड़ा हो, सूरज चमक चमक कर थक चुका था और उसकी किरनें ज़र्द पड़ गई थीं। दूर कहीं कहीं उफ़ुक़ पर कोई मैला सा टीला उन झुलसे हुए मैदानों के तसलसुल में धुँदले ख़्वाब की तरह आता और गुज़र जाता। अज़्रा अपनी ख़्वाबों की दुनिया में खोई हुई थी। उसे ऐसे मालूम होता जैसे उस टीले पर सलीम उसे बुला रहा था जैसे दूर सड़क पर जो लारी जा रही थी, उसमें सलीम बैठा है। फिर उसके शाने पर कोई नामालूम गिरफ़्त महसूस करती और वो सुनती तुम मेरी हो। अब तुम्हें मुझसे कोई भी छीन नहीं सकता और वो ठिठुक कर बेदार हो जाती और देखती कि नज़र की माँ और सूली उसकी तरफ़ टिकटिकी बांध कर देख रहे हैं मगर दोनों की निगाहों में एक दुनिया-ए-इख़्तिलाफ़ थी। माँ की आँखों में तजस्सुस और तश्वीश को उसकी मुस्कुराहटें छुपा सकती थीं। उसके बरअक्स सूली की आँखें पुरनम मालूम होती थीं। ग़ालिबन वो दोनों अज़्रा के दिल की कैफ़ियत से वाक़िफ़ थे मगर दोनों की निगाहों में कोई भी मुनासिबत थी। वो सोच रही थी, सूली बेज़बान हो कर भी समझता है। उस वक़्त ग़ालिबन पहली मर्तबा उसके दिल में सूली को आज़ाद करने की ख़्वाहिश हुई। जाने कितनी बहारें उसने उस पिंजरे में गुज़ारी हैं। क्या उसके दिल में भी उड़ने की आरज़ू बाक़ी है? क्या उसके दिल में भी किसी ज़माने की याद उठती है? फिर उसने सुना कि माँ कुछ कह रही थी। गाड़ी स्टेशन पर खड़ी थी माँ पूछ रही थी, अज़्रा बेटी! नज़र पूछता है कुछ पियोगी? अज़्रा ने कनखियों से देखा। खिड़की में कोई खड़ा था उसे कनखियों से भी उधर देखने की हिम्मत पड़ती थी। फिर उसने ऐसे महसूस किया जैसे किसी ने उसके शानों से पकड़ कर उसका मुँह दूसरी तरफ़ फेर दिया हो।

    उसने सुना जैसे मीलों दूर कोई कह रहा हो, नहीं अम्मां, तुम कहो तो, देखो किस क़दर गर्मी है। उस भद्दी आवाज़ में किस क़दर उदासी थी। हाँ अगर सलीम उससे पूछता अगर वो सलीम के घर जा रही होती। मगर सलीम, सलीम जाने कहाँ होगा, उसे हालात का पता भी था या नहीं। शायद अपनी बे-चारी अज़्रा को भूल ही चुका हो, शायद उन रंगीन बातों से सिर्फ़ मज़ाक़ मक़सूद हो या वक़्त कटी। मगर उसके दिल की गहराईयों में कोई कह रहा था, नहीं, नहीं, ये इल्ज़ाम है। सलीम ऐसा नहीं। फिर दो उदासी भरी मुतबस्सिम आँखें उसके सामने मुअल्लक़ हो जातीं। नहीं, वो आँखें मज़ाक़ नहीं कर सकतीं। हक़ीक़त से लबरेज़ हैं। उसके दिल में यक़ीन सा हो जाता, वो आएगा। वो ज़रूर आएगा। वो दुनिया का कोना कोना छान मारेगा। शायद वो इसी गाड़ी में मौजूद हो। कहीं वो बीमार हो। वो एक झुरझुरी सी महसूस करती। नहीं, वो बीमार नहीं। बस नहीं अज़्रा अपना सर खिड़की की चौखट पर टेक देती और उसे ऐसे महसूस होता कि वो चौखट नहीं, सलीम के शाने हैं। वो सिमट कर उन शानों पर झुक जाती। चाहे कुछ भी हो, अब मुझको तुमसे कोई भी नहीं छीन सकता... कोई भी नहीं।

    सास ने उसे कमरे में एक फ़राख़ पलंग पर बिठा दिया। कमरे में धुँदली रौशनी थी। तमाम मकान सुनसान महसूस होता था। दो-चार औरतें अज़्रा को देखने आईं मगर चंद मिनट ठहरीं और चली गईं। उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे किसी वीरान खंडर में भूत चल फिर रहे हों। उस रात लैम्प रौशन नहीं मालूम होते थे और अंधेरा ही अंधेरा था, उसकी झुकी झुकी आँखों के सामने सलीम खड़ा था, वो महसूस कर रही थी जैसे सलीम के इंतिज़ार में बैठी हो।

    दूर हवा दरख़्तों में टहनियों से लिपट लिपट कर रो रही थी, सामने खिड़की के शीशे से एक उदास काला दरख़्त नज़र रहा था। खिड़की के बाहर अंधेरा झूम-झूम कर मंडला रहा था, लैम्प के शोले में सलीम खड़ा था। उसके चेहरे पर परेशानी की झुर्रियाँ थीं।

    अज़्रा की आँख खुल गई उसने इज़्तिराब से चारों तरफ़ देखा, वो नहीं जानती थी कि वो कहाँ है। सलीम की आवाज़ अभी तक उसके कानों में गूंज रही थी। कैसा बेदार हसीन ख़्वाब था। उसने करवट बदल ली और आँखें बंद कर लीं। वो इस ख़्वाब से बेदार होना नहीं चाहती थी। मगर बंद होने के अलावा उसकी आँख में नींद का निशान भी था। यकलख़्त बाहर सड़क पर किसी ताँगे वाले की पहाड़ी की तान उसके कान में पड़ी। ताँगे के पहियों की गड़-गड़ाहट अज़्रा के लिए पहाड़ी की तान से कहीं ज़्यादा दिलकश थी। उसके सामने स्कूल वाली सड़क लहरा गई। जब वो आज़ाद थी। जब वो ताँगे पर आया जाया करती थी। जब पहली मर्तबा उसने सलीम की हैरान और मख़मूर आँख देखी थी। सलीम की पहली टिकटिकी।

    उसके बंद बंद में दर्द हो रहा था। सूली की चीख़ सुनकर वो उठ बैठी। बेचारा सूली भी उस चार-दीवारी में क़ैद महसूस कर रहा था। कमरे की दूसरी तरफ़ कपड़े की कुर्सी में नज़र सोया हुआ था। जैसे वो अज़्रा की तरफ़ देखता हुआ सो गया हो। चेहरे पर एक तबस्सुम सा था। जैसे कोई ख़्वाब में उसे गुदगुदा रहा हो। बाहर फ़िज़ा में धीमी रुपहली रौशनी फैल रही थी।

    साथ वाले कमरे से खड़खड़ाहट सी सुनाई दी। अज़्रा सिमट कर चारपाई के कोने पर बैठी। अज़्रा... नज़र। नज़र की माँ बुला रही थी। नज़र लपक कर उठ बैठा। उसके चेहरे पर इज़्तिराब छा गया। उसने आँखें मलीं और चारों तरफ़ देखा। उसकी निगाहें अज़्रा पर रुकीं। फिर उसके मुँह पर मुस्कुराहट फैल गई। जैसे कोई किसी लतीफ़ ख़्वाब को हक़ीक़त के लिबास में देखकर खिल जाये।

    आया अम्मां! कहता हुआ वो कमरे से बाहर चला गया।

    अगले रोज़ दिन-भर औरतें आती जाती रहीं। हर किसी को अज़्रा को देखने का शौक़ था। अधेड़ उम्र की औरतें जिनके लिए जवानी के चंद दिन धुँदले नुक़ूश और बेगाना से एहसास थे। अज़्रा को इस अंदाज़ से देखतीं जैसे कोई अपनी गुज़री हुई दिलचस्पियों को ख़्वाब में देखकर मुस्कुरा देता है। मगर कोई दबी दबी हुई आह उस मुस्कुराहट को उदास बना देती। वो शौक़ से आतीं मगर खोए हुए अंदाज़ से लौटतीं। जिस तरह कोई अपनी गुज़िश्ता ज़िंदगी के किसी रंगीन वाक़ये को याद कर के अपनी खोई हुई जवानियों पर कसक सी महसूस करता है और अपने गिर्द एक उदासी और मिटी हुई दुनिया पाता है। दो एक जवानी से सरशार लड़कियां भी आईं। लचकती हुई, ठुमकती हुई, मुस्कुराती हुई। हम जानते हैं कैसी मुस्कुराहटें। बस ये ज़ाहिरदारी रहने दो। अभी तो इस नगरी की दहलीज़ पर बैठी हो। कैसी निगाहें उछालती हुई। बनती सँवरती, टहलती हुई मगर अज़्रा अपनी नगरी में गुम-सुम थी। लेकिन जब कोई नौवारिद उसका मुँह देखने के लिए उसका घूँघट उठाती तो वो चौंक पड़ती। फिर उसे याद आता कि वो कहाँ है और कौन है और उसका चेहरा शर्म से तमतमा उठता। वहां सिर्फ़ सूली ही ऐसा मुतनफ़्फ़िस था जो उसके दिल की कैफ़ियत से वाक़िफ़ था।

    सूली अपने पिंजरे में यूं मुज़्तरिब था जैसे उसे अज़ सर-ए-नौ क़ैद किया गया हो। वो चारों तरफ़ देख देखकर पर फ़ड़फ़ड़ाता और उन दीवारों की अजनबियत महसूस कर के बार-बार चीख़ता।

    शाम के वक़्त नज़र ने सूली का पिंजरा अज़्रा के पलंग के क़रीब रख दिया। सूली ने अज़्रा को देखकर चीख़ना बंद कर दिया, अपनी गर्दन मोड़ कर अपने बाज़ुओं पर रख दी और अज़्रा की तरफ़ टकटकी बांध कर बैठ गया। अज़्रा ने सूली की तरफ़ देखा। उसकी आँख में चमक गई। सिर्फ़ सूली ही उसका राज़दार था, जिससे वो सलीम की बातें कर सकती थी।

    नज़र अज़्रा के पास बैठा। उसकी आँखों में मुहब्बत की झलक थी। तुमने कल से कुछ नहीं खाया, अज़्रा कुछ तो खाओ, अम्मां ने तुम्हारी इतनी मिन्नतें की हैं। उसने धीमी मिन्नत भरी आवाज़ में कहा। ये तुम्हारा अपना घर है अज़्रा तुम इसकी मालिका हो। उसका हलक़ जज़्बात की भीड़ से रुक रहा था। उसने अपने भद्दे से हाथों में अज़्रा का हाथ पकड़ लिया। अज़्रा तुम चुप क्यों हो? इससे ज़्यादा वो कुछ कह सका। उसकी ज़बान कहने वाली ज़बान थी मगर उसका हाथ ख़ामोश और मद्धम ज़बान से अपना मफ़हूम अदा कर रहा था। उस वक़्त वो भद्दा गर्म हाथ क़ुव्वत-ए-गोयाई से ज़्यादा मुतकल्लिम था। अज़्रा ने वो पैग़ाम कानों से नहीं बल्कि जिस्म के बंद बंद मंत सुना और उसकी तमाम क़ुव्वत शल हो गई। वो अपना हाथ छुड़ाना चाहती थी मगर वो अपने जिस्म पर क़ादिर थी। कोई नामालूम ताक़त उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उसके जिस्म को थपक थपककर सुला रही थी। सिर्फ़ दिमाग़ का कोई नहीफ़ हिस्सा जिस्म की उस ग़द्दारी और अपनी बेबसी पर-पेच-ओ-ख़म खा रहा था। जिस तरह डरावना ख़्वाब देखकर कोई चीख़ चिल्ला कर भाग उठना चाहता है, मगर जाग नहीं सकता। उसी तरह अज़्रा बुत बनी बैठी थी। उसमें अपना हाथ छुड़ाने की क़ुदरत थी। उसने एक मख़मूर धुँदलके में नज़र का हाथ देखा। सलीम का हाथ भी उसी तरह बड़ा और गर्म था। हाँ सलीम का हाथ मुतहर्रिक था। बला का शोख़... उसके दिल में ख़्वाह-मख़्वाह आरज़ू पैदा हो गई कि वो भद्दा हाथ मुतहर्रिक हो जाये। उसकी अपनी तमाम क़ुव्वत शोख़ी ज़िंदगी उस घड़ी के लिए उस बड़े भद्दे हाथ और उन मज़बूत बाँहों में मुंतक़िल हो जाये। उसका जिस्म इस भद्दे हाथ के लिए मुंतज़िर था। बेताब था और वो अपनी इस ख़्वाहिश पर शर्म महसूस कर रही थी और परेशान थी। मगर वो एहसास-ए-शर्म और परेशानी किसी नक़्क़ार ख़ाने में तूती था।

    उसने आँखें बंद कर लीं। सलीम का हाथ उसके जिस्म से मस हो रहा था। उसकी बंद आँखों के सामने सलीम खड़ा हुआ। तुम हो सलीम...! मुझे तुमसे कोई जुदा नहीं कर सकता। उसके शाने झुक गए। सर झुक गया और सलीम के शानों पर टिक गया। सलीम की दो मज़बूत बाँहें उसके गिर्द पड़ीं। वो सलीम के पास थी।

    नज़र किसी दफ़्तर में क्लर्क था। उस के वालिद नज़र के लिए एक मामूली सा मकान और चंद वाजिब-उल-अदा रकमें छोड़ कर मरे थे। वो अज़्रा के वालिद के बहुत गहरे दोस्त थे। नज़र ने कुछ अरसा पहले कहीं इत्तिफ़ाक़न अज़्रा को देख लिया था और अज़्रा की नीची निगाहों और उस की लटकी हुई लट ने उसे कई दिन परेशान रखा था मगर वो जानता था कि अज़्रा को अपने ख़्वाबों में जगह देना अपना शीराज़ा-ए-हस्ती परेशान करना है। मरहूम दोस्त के क़ल्लाश बेटे को कौन ख़ातिर में लाता है। जब उसने अपनी माँ से सुना कि अज़्रा के वालिद रज़ामंद हैं बल्कि जल्द निकाह करने पर रज़ामंद हैं तो उसे यक़ीन आता था। अब भी वो कभी कभी समझता कि वो ख़्वाब देख रहा है और वो अभी जाग उठेगा और उसे एहसास होगा कि एक ग़रीब क्लर्क को ऐसी मदहोशकुन ख़्वाबें इन लामुतनाही फ़ाइलों के सामने किस क़दर महंगी पड़ती हैं। मगर शायद ये भी फ़ित्रत की सितम ज़रीफ़ी थी कि अज़्रा अब सरीहन उसकी थी। नज़र के लिए अज़्रा की आमद मसर्रत की ऐसी लहर थी जो हर ग़ैर मुतवक़्क़े ख़ुशी में हम-रिकाब होती है। उसकी ख़्वाहिशात में जो सिर्फ़ ज़रूरियात-ए-ज़िंदगी तक महदूद थीं, साड़ियां झिलमिलाने लगीं। फूल महक उठे और तिलाई चूड़ियों की झनकार नग़माज़न हो गईं। अज़्रा के लिए हसीन नाज़ुक चेक हो, अज़्रा के लिए क़द-ए-आदम आईना हो, अज़्रा के लिए शरबती रेशम हो। अज़्रा के लिए... अज़्रा उसकी ख़्वाहिशात में भंवर बन कर आई थी।

    उसने एक छोटा सा पुराना टाइपराइटर ख़रीद लिया ताकि फ़ुर्सत के वक़्त टाइप कर के अपनी आमदनी बढ़ाए। ये सब कुछ उसके दिल की गहराइयों में हुआ और किसी को मालूम हुआ कि इन गहराइयों में क्या हो रहा है और उसकी ख़ामोशी हसरत भरी तशवीश है।

    अज़्रा को पहली मर्तबा साड़ी में देखकर नज़र की आँख में एक मख़मूर चमक गई। बूढ़ी माँ ने झुकी हुई आँखों से बेटे के तबस्सुम को महसूस किया। उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे ग़ुस्लख़ाने में या किसी और जगह कोई ज़रूरी काम बुला रहा हो। उसकी आँखों ने चारों तरफ़ देखा। फिर वो नज़र की जुराबों में आन ठहरीं, बेटा ये जुराबें मुझे दे दो। उसने कहा, देखो कैसी मैली हो रही हैं। लाओ इन्हें धो दूं।

    नज़र ने चौंक कर अपनी निगाहों को अज़्रा की नीली साड़ी से छुड़ाते हुए कहा, नहीं अम्मां ये तो अच्छी भली हैं। परसों ही तो पहनी थीं। , नहीं बेटा। नहीं! माँ ने इसरार से कहा, क्या हर्ज है? जुराबें लेकर माँ चली गई। कुछ दूर तक नज़र उसको जाते हुए देखता रहा। फिर अज़्रा की तरफ़ मुड़ कर उसने मुस्कुराते हुए कहा, अज़्रा ये नीली साड़ी तुम्हें बहुत ज़ेब देती है मेरी तरफ़ देखो अज़्रा!

    नज़र ने अपने हाथ से अज़्रा का मुँह अपनी तरफ़ फेर दिया, अज़्रा ने आँखें झुका लीं। हाँ उसके दिल का कोई हिस्सा कह रहा था उनको भी नीली पोशाक बहुत पसंद थी। उस रोज़ पार्क में किस शौक़ से देखते रहे थे, किस क़दर प्यार भरी निगाहें थीं। किस क़दर प्यारी आवाज़ थी अज़्रा तुम्हें नीला लिबास किस क़दर ज़ेब देता है और किस प्यार और मिन्नत से उन्होंने मुझसे वाअदा लिया था। अज़्रा वा’दा करो कि तुम हमेशा नीला लिबास पहना करोगी मेरे लिए। मेरी ख़ुशी के लिए और वा’दा लेकर किस क़दर ख़ुशी का इज़हार किया था। किस दीवानगी से झूमे थे।

    उसने अपने हाथ पर दबाव महसूस किया। सूली की चीख़ ने उसे बेदार कर दिया। उसने अपना हाथ आहिस्ता से छुड़ा लिया और उठकर सूली के पिंजरे के क़रीब जा बैठी। वो सूली से बातें करना चाहती थी। पूछना चाहती थी, तुम मेरे होना सूली? वो महसूस कर रही थी कि सिर्फ़ सूली ही ऐसी हस्ती है जिससे बात करने के लिए बोलने की ज़रूरत नहीं।

    उन्हें नीला रंग पसंद था सूली? वो मुझे नीली कहा करते थे, तुम जानते हो ना! इसमें उनके हाथों की बू है। उनके प्यार की सिलवटें हैं। उन फूलों का रस है जो वो मेरे लिए तोड़ कर लाया करते थे। क्यों सूली तुम जानते होना...? मगर तुम नहीं जानते। तुमने उन्हें कभी नहीं देखा। तुम सिर्फ़ समझते हो और सूली उनके निचले हाथ, बड़े बड़े प्यारे प्यारे बे-तकल्लुफ़ हाथ और छेड़ देने वाली शोख़ बाँहें... उसके कंधों के गुज़िशता दबाव ताज़ा हो रहे थे। वो उठ बैठी और अंदर जा कर चारपाई पर लेट गई। उसकी नीम-वा आँखों ने इस मुख़्तसर कमरे को अपने दामन से झटक दिया।

    यूँ ही दिन गुज़र गए। रातें गुज़र गईं। महीने गुज़र गए।

    यूं तो रहने को अज़्रा इस मकान में रहती थी मगर उसकी नीम-वा आँखों को दो-चार दीवारी क़ैद कर सकी। या शायद इस चारदीवारी की वजह से ही वो आँखें दूरबीन हो गईं। वो अपने दिल की दुनिया उन नीची निगाहों की झुकी हुई मिज़्गाँ पर उठाए फिरती और शायद झुकी हुई होने की वजह से ही उन निगाहों ने नज़र की दुनिया बदल डाली।

    गो नज़र उन खोई खोई निगाहों को देखकर जीता था। कभी कभी इन निगाहों की वुसअतों को महसूस कर के उसे डर महसूस होता था मगर शायद वो हल्का डर उन निगाहों को नज़र के लिए और भी जाज़िब बना रहा था। अज़्रा जब कभी अपनी दिल की दुनिया से चौंक पड़ती और देखती कि नज़र उसकी तरफ़ टिकटिकी बांध कर देख रहा है तो वो आँखों को झुका लेती। वो एक तबस्सुम नज़र के लिए पयाम-ए-हयात बन जाता। वो इस हया से लबरेज़ तबस्सुम के लिए अपनी ज़िंदगी, अपना आप... सभी कुछ देने के लिए तैयार था। फिर उसकी नज़र नीली साड़ी पर पड़ जाती और वो महसूस करता कि वो दिन-ब-दिन पहनने के नाक़ाबिल हो रही है। उसमें वो चमक रही थी। वो सोचता, देखो कितनी जगहों से फट रही है। बोसीदा हो चुकी है। चमक नहीं, फिर भी अज़्रा उसे मेरे लिए पहने फिरती है। इसलिए कि मैं उसे नीली साड़ी में देख कर ख़ुश होता हूँ। सिर्फ़ मेरी ख़ुशी के लिए। हालाँकि उसके पास सुर्ख़ साड़ी भी तो है। बल्कि सुर्ख़ साड़ी तो और भी क़ीमती है। कितनी प्यारी है वो औरत जिसको ख़ाविंद की ख़ुशी ज़ेबाइश से भी ज़्यादा अज़ीज़ होती है... हिन्दुस्तानी औरतें... देवियाँ होती हैं।

    मगर ये साड़ी तो बस अब पहनने के क़ाबिल नहीं। गोविंदा राम कह रहा था। ऐसी साड़ी चालीस रुपये की मिलेगी। चालीस रुपये। साड़ी भी किस क़दर महंगी पड़ती हैं। उसके मुँह से बेसाख़्ता आह निकल जाती और फिर वो कमर झुका कर अपने टाइपराइटर के सामने जा बैठता। उसके सुबह-ओ-शाम चालीस रुपये की आरज़ू में बसर हो रहे थे। वो सोचता था, जब चालीस रुपये लेकर वो साड़ी लाएगा। अज़्रा देखेगी। ख़ुशी भरी, ताज्जुब भरी, मुहब्बत भरी निगाह। इस लम्हा की निगाह हासिल करने के लिए वो उम्र-भर मेहनत करने के लिए तैयार था।

    अज़्रा उसके पास बैठी रहती। मगर उसने कभी आँख उठा कर भी नज़र को देखा था बल्कि वो नज़र के वुजूद या मौजूदगी के एहसास से क़तई बेगाना थी। वो उसके चेहरे की बनावट से भी अच्छी तरह वाक़िफ़ थी। सिर्फ़ उसकी पेशानी और दाँत देखती। बाक़ी ख़द्द-ओ-ख़ाल को अपनी निगाहों में अटकने देती। शायद इसलिए कि नज़र की पेशानी और दाँतों में कुछ सलीम की सी झलक थी। वो दोनों अक्सर एक दूसरे के पास बैठे रहते मगर पास बैठने के बावजूद वो एक दूसरे से कोसों दूर थे। दिन-भर वो सूली से बातें करती रहती और फिर सलीम के पास पहुंचने के लिए उसे सिर्फ़ आँखें झुकाने की ज़रूरत थी।

    एक रोज़ दोपहर के वक़्त अज़्रा अम्मां के पास बैठी कुछ बुन रही थी। कोई अजनबी औरत कर उनसे इधर उधर की बातें करती रही। फिर माँ जब नमाज़ पढ़ने के लिए गई तो उस औरत ने अज़्रा का हाथ पकड़ कर उसमें लिपटा हुआ काग़ज़ का गोला रख दिया और उसकी मुट्ठी बंद कर दी। उसने दबी हुई आवाज़ से कहा, ये उन्होंने दिया है। वो यहां आए हुए हैं।

    पहले तो अज़्रा हैरानी से उसके मुँह की तरफ़ देखती रही, फिर उसने अपनी मुट्ठी खोल कर देखा। उसके हाथ में एक मुड़ा तुड़ा लिफ़ाफ़ा था। उसने लिफ़ाफ़े को ग़ौर से देखा। उसकी समझ में आता था कि कौन आए हुए थे और वो बुढ़िया कौन थी। उसकी तबीयत में तशवीश और डर पैदा हो गया मगर वो औरत जा चुकी थी।

    ग़ालिबन वो अपने ख़याली सलीम से इस क़दर मानूस हो चुकी थी और अपनी दुनिया-ए-तसव्वुर में इस क़दर खो चुकी थी कि उसे किसी जीते जागते सलीम का इंतिज़ार रहा था। ख़याल तक भी रहा था। शायद अगर सलीम बज़ात-ए-ख़ुद उस वक़्त उसके सामने मौजूद होता तो उसे बेगाना महसूस होता। बहरसूरत उसकी समझ में आया कि लिफ़ाफ़ा किस का था। उसके दिल में लिफ़ाफ़े को खोलने की हिम्मत पड़ी थी और वो सख़्त परेशानी महसूस कर रही थी। उसने उस काग़ज़ के गोले को फिर से अपनी मुट्ठी में दबा लिया। उठ बैठी। अंदर चली गई। फिर बावर्चीख़ाने में गई। सेहन में आई। उसे मालूम था कि वो कहाँ जा रही है या किस लिए यहां वहां घूम रही है। जिस तरह तूफ़ान आने से पहले किसी वीरान साहिल पर किसी नामालूम आने वाले को डर महसूस करते हुए परिंदे काली उदास चट्टानों पर दीवानावार मंडलाते हैं।

    वो चाहती थी कि मुट्ठी में उस काग़ज़ के गोले को भींच भींच कर नापैद कर दे और अपनी दुनिया को महफ़ूज़ कर ले। कमरा घूम रहा था। उसने अपने आपको अपने ट्रंक के ऊपर बैठे हुए पाया। ट्रंक खुला था। वो लिपटा हुआ लिफ़ाफ़ा उसकी गोद में था। उसने खोए अंदाज़ में उसे फाड़ कर खोला। उसकी आँखों तले अलफ़ाज़ नाच रहे थे। दिल धड़क रहा था। निगाहें तेज़ी से लफ़्ज़ों पर से फिसल रही थीं जैसे वो मज़मून के सह्र से बचना चाहती हो। उसने सिर्फ़ यही समझा कि वो आए हुए हैं और उसको साथ ले जाने पर मुसिर हैं। उसके अंदाज़ से ऐसा मालूम हो रहा था जैसे वो ज़बान-ए-हाल से कह रही हो। बस मुझे उसी का डर था और यही हो कर रहा। वो भागी फिर रही थी मगर ख़त का मज़मून उसका पीछा कर रहा था और बूँद बूँद उसके दिल की गहराइयों में टपक रहा था। इस पर ग़लबा पा रहा था। आख़िर वो पलंग पर लेट गई और एक एक सतर उसके सामने नाच गई। जाना... चले जाना... उस का दिल काँप उठा... दिमाग़ में ख़ला सा फैल गया। माहौल में कोई मफ़हूम रहा... उस वक़्त कायनात उसके लिए एक बेमानी फैलाव थी।

    रात को वो चीख़ मार कर उठ बैठी। उस रात सलीम की बजाय कई और ख़ौफ़नाक शक्लें उस के ख़्वाबों में घुस आई थीं। भद्दे भद्दे हाथों और सफ़ेद सफ़ेद दाँतों वाली डरावनी शक्लें। नज़र कुर्सी पर बैठा हुआ था। उसने दोनों हाथों से अज़्रा को थाम लिया। क्या है अज़्रा? उसका चेहरा फ़िक्र और ख़ौफ़ से भयानक हो रहा था। आज तुम्हें क्या हो गया है? तुम बीमार तो नहीं? अज़्रा को महसूस हो रहा था जैसे मीलों दूर कोई कुछ कह रहा हो। उसने चारों तरफ़ देखा। उसकी याददाश्त साफ़ हो रही थी। हाँ वो औरत... दोपहर... वो ख़त... उनका ख़त... सलीम का... वो यहां आए हुए हैं। वो मुझे ले जाना चाहते हैं। उसने झुरझुरी सी ली। नज़र किसी से ख़ुदा जाने क्या-क्या कह रहा था। अज़्रा ने आँखें बंद कर लीं और उसका सर किसी के शानों पर जा टिका। आज पहले दिन अज़्रा का सर सलीम के शानों पर था। जाने तकिए पर था या पत्थर पर... मगर नज़र के शानों पर अज़्रा का सर था और अज़्रा के बालों के धीमी धीमी ख़ुशबू नज़र को फ़िक्रमंद और परेशान कर रही थी।

    अज़्रा का दिल कई एक ख़्वाहिशात में झूल रहा था। छोटी छोटी ख़्वाहिशात एक दूसरे से झगड़ रही थीं। एक हिस्सा सूली की शक्ल में कह रहा था। तुम उनकी हो अज़्रा... और अब उनसे तुमको कोई भी नहीं छीन सकता। फ़राख़ पेशानी और सफ़ेद सफ़ेद दाँत कह रहे थे। अज़्रा तुम बीमार तो नहीं... तुम्हें क्या हो गया है अज़्रा... दो भद्दे हाथ कह रहे थे। तुम आँखें झुका लो। अज़्रा तुम्हारी दुनिया तो पास है। सामने सलीम खड़ा था। वो क़हक़हा मारकर हंस रहा था। डरावनी हंसी, प्यारी हंसी...

    शाम को वो सूली से कह रही थी। सूली तुम अकेले रह सकोगे? अगर मैं चली जाऊं तो मुझे याद करोगे? मुझे बुरा तो नहीं कहोगे सूली? क्या मैं उनके साथ चली जाऊं। वो आज रात को दो बजे शीशम के दरख़्त के नीचे आएँगे। वो दरख़्त जो मेरे कमरे की खिड़की के बाहर दिखाई देता है। क्यों सूली मैं उनके साथ चली जाऊं? दुनिया क्या कहेगी? अब्बा जान क्या कहेंगे? सूली... तुम तो जानते हो... तुम तो समझते हो ना?

    शाम को उसने नीली साड़ी लपेट कर एक पार्सल बना लिया और उसे मेज़ पर रख दिया। उसका दिल हल्का दर्द महसूस कर रहा था। फिर वो जल्द ही अपने कमरे में जा लेटी। उस रोज़ वो सोचना नहीं चाहती थी। वो सोचने से डर रही थी। उसने एक पुराना रिसाला उठा लिया। पढ़ने की कोशिश की मगर अलफ़ाज़ उसकी आँखों तले नाच रहे थे। सफ़हात कभी सफ़ेद हो जाते और कभी अलफ़ाज़ एक दूसरे से टकरा कर घूम जाते। उसने बाहर पांव की चाप सुनी। उस रोज़ उसकी क़ुव्वत-ए-सामे’ बहुत तेज़ हो रही थी। उसने नज़र की माँ के कमरे में जाते हुए सुना। उसके पांव की आहट बता रही थी कि नज़र की तबीयत ठीक नहीं। अज़्रा खिड़की के सामने बैठी थी। खिड़की बाहर सड़क पर खुलती थी। उसकी नज़र बार-बार खिड़की से बाहर दरख़्त पर जा जमती। उस वक़्त खिड़की बंद थी मगर शीशे में से साफ़ नज़र रहा था। बाहर सड़क पर कभी कभी कोई राहगीर गुज़रता तो उसके पांव की चाप साफ़ सुनाई देती। शीशम का दरख़्त मतानत से खड़ा था। अज़्रा यूं महसूस कर रही थी जैसे वो दरख़्त उसके राज़ से वाक़िफ़ हो। सेहन वाली खिड़की में सूली का पिंजरा था। सूली दो रोज़ से ख़ामोश बैठा था। उसने बातें करनी छोड़ दी थीं। ऐसा मालूम हो रहा था जैसे सूली दुनिया से बेज़ार रह चुका हो। फिर अज़्रा की निगाह मेज़ पर पड़ी। नीली साड़ी वाले पार्सल को देखकर अज़्रा लपक उठी। उसने पार्सल उठाया। वो सोच रही थी कि उसे कहाँ रखा जाये। दरवाज़े के क़रीब जा कर उसने सुना, माँ-बेटा बातें कर रहे थे।

    तुमने तो अपना आप तबाह कर लिया। सुबह शाम काम, दिन रात काम, हर वक़्त की टक-टक... एक साड़ी के लिए अपना आप हलाल कर रखा है।

    नहीं अम्मां! ये कहो। नज़र बार-बार खांस रहा था। जब से वो आई है। हमने उसको दिया ही क्या है। मगर अम्मां वो ऐसी अच्छी है कि कभी गिला तक नहीं किया। मैं उसे दे ही क्या सकता हूँ। तनख़्वाह में बमुश्किल गुज़ारा होता है।

    मगर बेटा उसके पास और भी तो साड़ियां हैं। वो क्यों नहीं पहन लेती। फिर वो नीली साड़ी के लिए इस क़दर बे-ताब है। मैं तो नहीं समझती... हमारे ज़माने में...

    अम्मां तुम भूलती हो। उसने तो मुझे नहीं कहा... मगर ये तो मामूली बुख़ार है। तुम फ़िक्र करो।

    नज़र आया और आते ही लेट गया। उसे तेज़ बुख़ार था। अज़्रा खिड़की के सामने चुप-चाप बैठी हुई थी। उसकी ख़ामोशी किसी गहरी दिली कश्मकश की चुगली खा रही थी। उसके भिंचे हुए होंट किसी छुपे हुए हंगामे का हाल कह रहे थे। तुम सो जाओ अज़्रा! नज़र ने धीमी आवाज़ में कहा, तुम क्यों मेरे लिए बे-आराम हो। मेरी फ़िक्र करो। मैं बिल्कुल ठीक हूँ। वो बुख़ार की शिद्दत में कुछ कह रहा था जो उसने कभी कह सका था। इसलिए हाथ में अज़्रा का हाथ पकड़ लिया। तुम होतीं अज़्रा तो मेरी ज़िंदगी में ये बात होती। तुम मेरी ज़िंदगी हो... मैं कितना ख़ुशनसीब हूँ। तुम्हें देखकर मुझे कोई दुख नहीं रहता। उसने इज़तिराब से दो एक करवटें बदलीं। फिर वो अज़्रा के पांव के क़रीब हो गया। इस क़ुर्ब पर वो ख़ुशी महसूस कर रहा था जैसे कोई बच्चा बड़े प्यार से खिलौने से खेलता है। अज़्रा बुत बनी बैठी थी। शायद वो उसकी बातें नहीं सुन रही थी। या सुनने की कोशिश कर रही थी। फिर यकलख़्त उसने अपने पांव पर दो गर्म होंटों को मस करते हुए महसूस किया। वो चौंक उठी, काँप उठी। उसकी निगाहें झुक कर नज़र पर जम गईं। आज पहली मर्तबा उसने नज़र को निगाह भर कर देखा था और पहली मर्तबा उसे एहसास हुआ कि वो नज़र के पास है।

    रात बुख़ार से बेचैन वो बार-बार बड़बड़ा उठता, चालीस रुपये। नीली चालीस रुपये। वो अक्सर अज़्रा अज़्रा चीख़ कर उठ बैठता। तुम मेरे पास होना अज़्रा...? हाँ... तुम मेरे पास हो। फिर वो आराम से लेट जाता। तुम आराम करो अज़्रा। तुम अब सो जाओ... तुम बीमार हो जाओगी। मेरी फ़िक्र करो। मैं अब अच्छा हूँ। उस वक़्त अज़्रा की आँखें खिड़की से हट जातीं और वो किसी उलझाव में पड़ जाती। उसका सर घूम रहा था। उसका हलक़ ख़ुश्क था। वो सोच बिचार के ना-क़ाबिल था। बाहर चांद की चांदनी में शीशम का दरख़्त अपनी शाख़ें फैलाए खड़ा था और कोई धुँदली सी शक्ल उसके नीचे खड़ी नज़र रही थी। अज़्रा बड़बड़ा रही थी, वो आए हैं। हाँ...! अज़्रा का जी चाहता था कि सलीम से जा मिले। कोई उसका दामन पकड़ लेता, अज़्रा उठ बैठी, उसे पता था कि वो क्या कर रही है। या क्या करना चाहती है। बाहर हवा ज़ोर से चल रही थी और दरख़्तों की टहनियां लिपट लिपट कर रो रही थीं। अज़्रा ने काँपते हुए हाथों से अपनी नीली साड़ी उठा ली। नज़र बड़बड़ा रहा था। नीली चालीस रुपये। अज़्रा डर गई। उसका सर अँगारे की तरह गर्म महसूस हो रहा था। सूली ने चीख़ मारी... दर्दनाक चीख़। अज़्रा ने उसे देखा। ग़रीब अपने पिंजरे में यूं फड़फड़ा रहा था जैसे वो अज़्रा से कुछ कहने के लिए मुज़्तरिब हो। मेज़ पर पैंसिल पड़ी थी। दफ़्फ़अतन अज़्रा ने वो पैंसिल पकड़ ली। वो पार्सल पर लिख रही थी। मैं नहीं सकती। उसने पैंसिल अपने आपसे छीन कर फेंक दी। इस डर के मारे कि वो लिखा हुआ काट दे। उसने खिड़की खोली और बाहर देखे बग़ैर वो पार्सल सड़क पर फेंक कर झट दरवाज़ा बंद कर लिया जैसे वो खिड़की के खुले रहने से डर रही हो। वो धुँदली सी शक्ल आगे बढ़ी। अज़्रा पीछे हट गई। उसने अपनी आँखें भींच कर बंद कर लीं और अपने कानों में उंगलियां दे दीं। उसके कानों में एक शोर-ए-महशर सुनाई दे रहा था। कुछ देर के बाद उसने देखा, कोई पार्सल हाथ में पकड़े जा रहा था। वो चीख़ कर उसे बुला लेना चाहती थी। उसने अपने दिल में शिकस्त की आवाज़ सुनी और धम से कुर्सी पर गिर गई। ये मैंने क्या कर दिया। ये मैंने क्या कर दिया। उसके दिल से दीवानावार आवाज़ें रही थीं। उसकी आँख से आँसू गिर रहे थे। बे-इख़्तियार उसके मुँह से चीख़ हिचकी की शक्ल में निकल गई।

    नज़र उठ बैठा... क्यों अज़्रा... क्यों... मैं... तुम रोती हो? क्यों रो रही हो? अज़्रा मैं यहां हूँ। मैं तुम्हें छोड़ कर नहीं जाऊँगा। मैं तुम्हारा हूँ। अज़्रा तुम फ़िक्र करो। सो जाओ। नज़र ने अज़्रा का सर अपने शानों पर रख लिया। अज़्रा की हिचकियाँ रुकती थीं। मैंने क्या कर दिया। मैंने क्या कर दिया।

    सलीम तुम जाओ। सलीम... सलीम। उसने अपना सर झुका लिया। आँखें बंद कर लीं। सलीम सामने खड़ा था। फिर उसका सर सलीम के शानों पर झुक गया। सलीम मुझे तुमसे कोई जुदा नहीं कर सकता...

    फिर उसने सुना जैसे मीलों दूर कोई कह रहा था, अज़्रा मेरी वफ़ा की देवी।

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