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जिस्म की पुकार

अख़्तर हुसैन रायपुरी

जिस्म की पुकार

अख़्तर हुसैन रायपुरी

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    असलम की आँख देर से खुल चुकी थी लेकिन वो दम साधे हुए बिस्तर पर पड़ा रहा। कमरे के अंदर भी उतना अंधेरा था जितना कि बाहर। क्यों कि दुनिया कुहासे के काफ़ुरी कफ़न में लिपटी हुई थी ताहम इक्का दुक्का कव्वे की चीख़ पुकार और बर्फ़ पर रेंगती हुई गाड़ियों की मसोसी हुई आवाज़ उसे जतला रही थी कि सवेरा हो गया।

    वो चुप पड़ा रहा। मबादा उसके आग़ोश में सोई हुई बेख़बर औरत जाग जाये। धुँदलके में वो उसके मर्मरीं जिस्म की नज़ाकतों को देर तक देखता रहा।

    ये जिस्म जो आज तक उसके लिए राज़ सरबसता रहा और हमेशा रहेगा। वो उसके क़रीब होते हुए भी बहुत दूर था और ये दूरी कभी उबूर हो सकेगी क्यों कि ये उनकी आख़िरी मुलाक़ात थी। शाम को वो इस शहर से रुख़्सत हो जाएगा। शायद हमेशा के लिए। ज़मान-ओ-मकान इन दोनों के दरमियान सात समुंदरों और जाने कितने सालों की दीवारें खड़ी कर देंगे और आहनी नक़ाब उतनी ही हौसला शिकन होगी जितनी इन दोनों के जवान जिस्मों की दूरी।

    असलम का दिमाग़ फिर उसी हैरत में और दिल उसी वस्वसे में मुब्तला हो गया जिनकी उधेड़ बुन में वो महीनों से गिरफ़्तार था। पहली ही मुलाक़ात में उसने अपनी रूह को उस औरत की रूह से हम आहंग पाया था। उसका आवारा तख़य्युल दोनों रूहों को रक़्सगाहों में सैर कुनां पाता था। दोनों के दिलों का एहसास एक था और दोनों के दिमाग़ एक दूसरे के हमदम लेकिन उनके अजसाम उन मछलियों की तरह थे जो एक हौज़ में तैरती हुई भी अलग अलग तड़पती रहती हैं और एक दूसरे से आश्ना नहीं होतीं।

    अक्सर दोनों जिस्म एक दूसरे को पुकारते थे, उनके दिल ज़ोर से धड़कते उनके सांस फूल जाते। रगों में इर्तिआश पैदा हो जाता। लहू रक़्स करता हाथ मचलते, हसरत से एक दूसरे को भींचते और नोचते लेकिन यक-ब-यक उनके खुले हुए आग़ोश बंद हो जाते। औरत के जिस्म से कोई राज़ ठंडे पानी की तरह टपकता और जिस्म की पुकार को सर्द कर देता।

    कितनी रातें उन्होंने इसी तरह बसर की थीं। इस कुलफ़त के बावजूद उन्हें एक दूसरे की क़ुर्बत अज़ीज़ थी। जब अपनी नाकाम काविशों के बाद असलम का जिस्म थक चुकता तो वो चुपचाप अपनी महबूबा के ख़्वाबीदा सीने के उतार चढ़ाव को महसूस करता और इस अजीब-ओ-ग़रीब मुहब्बत की नौइयत को समझने से अपने आपको क़ासिर पाता।

    ऐसा नहीं था कि औरत की नसली तहतुश-शुऊर को उसके अंजान जिस्म से झिजक हो। असलम की गर्दन पर वो बोसा अब तक दहक रहा था। जो पहली सोहबत शबाना में सब्त हुआ था और उसकी हर हर रग औरत के सीमीं बाज़ुओं के शिकंजे में कसी हुई थी। ऐसा भी नहीं कि औरत की ख़्वाहिश मुर्दा हो चुकी हो। वो एक तंदुरुस्त हैवान की तरह जवानी के रस में डूबी हुई थी।

    फिर ये क्या चीज़ थी। उसने कितनी बार एमीलिया से पूछा था कि उनकी ज़िंदगी का वो तीसरा और ना मालूम उन्सुर क्या था। ये सवाल मुँह से निकलते ही एमीलिया का हँसता हुआ चेहरा उदास हो जाता, और वो बात टाल जाती और कभी झूट-मूट अफ़लातूनी दलाइल से ये साबित करने की कोशिश करती कि असलम की मुहब्बत अभी ख़ाम है क्यों कि उसका मदार शहवत पर है।

    असलम दिल में बहुत जुज़बुज़ होता। हवा की बेटियों से वो इतना वाक़िफ़ तो था। क्या उसने यूरोप की गलियों में अपनी जवानी को दोनों हाथों से नहीं लुटाया था? क्या वो ये नहीं जानता था कि तोपों और तय्यारों की घन-गरज में अगर कोई आवाज़ सुनाई देती है तो वो जवान जिस्मों का बेआवाज़ कोरस है। उसकी अपनी रूह को कितनी औरतों की मुस्कुराहटों और आँसूओं ने दाग़दार किया था और अब वो ऐसी छलनी हो चुकी थी कि उसमें बड़े बड़े संग-रेज़े भी नहीं रुक सकते थे।

    कितनी बार एमीलिया के इस लाएनहल रवैय्ये ने असलम को बेज़ार किया और वो उसे झिड़क कर ग़ुस्से की हालत में किसी रक़्सगाह या शराब-ख़ाने में जा बैठा। औरतों के झूटे प्यार और शराब के झूटे नशे से उसने अपनी बेक़रारी और बेज़ारी को सुकून देना चाहा लेकिन जब कभी रात बीते वो अपने कमरे में दाख़िल हुआ उसने एमीलिया को अपने बिस्तर पर लेटा हुआ पाया। उसकी आँखों में मलामत का शाइबा भी नहीं होता बल्कि एक ऐसी ख़ामोश इल्तिजा होती कि असलम शर्म से अर्क़ अर्क़ हो जाता और अपनी नफ़्स परस्ती पर उसे ग़ुस्सा आने लगता।

    असलम की हैरानी की इंतिहार रही थी उसने बाज़ार की इन कसाफ़तों को महज़ इसलिए छुआ था कि उस औरत से इंतिक़ाम ले। जैसे कोई ज़िद्दी बच्चा अपनी माँ को दिक़ करने के लिए गंदी नाली में लौटने लगे लेकिन एमीलिया पर इस बेराह रवी का कोई असर हुआ था और उसकी... पुर इसरार चितवन में कोई फ़र्क़ आता था।

    आज सुब्ह के धुँदलके में लेटे लेटे असलम ये सब सोचता रहा और उसके ख़ुदग़र्ज़ जिस्म ने फिर पूछा कि इस मुहब्बत का हासिल क्या था।

    हौले हौले अंधेरा छिन्ता जाता था। बादल और कुहासे की ग़लाफ़ी तहों को चीर कर सूरज की मद्धम रौशनी फ़िज़ा में तैरने लगी थी। असलम चुपके से उठा और लबादा ओढ़ कर खिड़की के पास खड़ा हुआ।

    यूरोप में आज उसका आख़िरी दिन था। बफ़र्ज़-ए-मुहाल वो दुबारा इस सरज़मीन को वापस भी आया तो वो ख़ुद भी बदल जाएगा और ये यूरोप भी रहेगा। ये ऊंचे ऊंचे मकान और उनमें गुनगुनाती हुई रंग-रलियाँ... उनका निशान तक बाक़ी रहेगा। असलम का दिल भर आया और अपनी रिवायती सर्द मेहरी के बावजूद वो रो पड़ा। उसने इस यूरोप से नफ़रत करने की कोशिश की थी। इसकी दौलत परस्ती और हैवानियत को वो दिन में कई बार कोसा करता था। वहां की औरतों ने असलम को लुत्फ़ पहुंचाया था लेकिन उसकी इज़्ज़त हासिल कर सकी थीं। यूरोप के क़याम में हर-रोज़ उसकी रूह को ज़लज़ले के से झटके लगे थे और वो जानता था कि इस रंगारंग सतह के नीचे लावे का दरिया बह रहा है जो जाने किस आन उबल पड़े। यूरोप के इंतिशार-ओ-इज़तिरार, हैजान-ओ-हंगामा की वजह समझने से वो क़ासिर था और उसके इस सवाल का जवाब कोई दे सका था कि ये भागम भाग, ये धक्कम धक्का किस लिए? तेज़ दौड़ने से आदमी अपनी बेचैनी को भूल सकता है लेकिन उसे यूं सुकून तो नहीं मिल सकता।

    फिर इस ज़िंदगी का कौन सा पहलू उसे अज़ीज़ था जिसकी याद में वो रो रहा था। जिस तरह किसी प्यारे की क़ब्र से जुदा होते हुए कोई बे-इख़्तियार रो पड़े।

    क्या वो इसलिए रो रहा था कि यूरोप में उसे अपनी गु़लामी के एहसास ने नहीं सताया और किसी ने उसकी ख़ुद्दारी को झटका नहीं लगाया और या वो इसलिए रो रहा था कि वापस जा कर फ़रास पस्ती और जहालत की दुनिया में रहना है, जहालत और पस्ती और औहाम के दलदल में जहां जितना हाथ पांव मॉरो, उतना ही पीछे धँसते जाओ। असलम ने दिल ही दिल में कहा, मालूम नहीं, उनमें से कौन सी बात सच्ची है और कौन सी झूट। लेकिन मैं शायद उस औरत की जुदाई से हिरासाँ हो रहा हूँ जिसने मुझे ख़ुशी और ग़म की इंतिहा से आश्ना किया और अचानक ये ख़्याल बिजली की तरह असलम के दिल में कौंद गया कि अब तक किसी औरत ने उसे गहरा ज़ख़्म नहीं दिया था। उदासी और बेक़रारी हाँ, तरद्दुद और परेशानी वो भी सही। मगर ग़म, गहरा ग़म जो बर्फ़ के तूदे की तरह दिमाग़-ओ-दिल पर मुसल्लत हो जाता है और एक उम्र तक बूँद बूँद टपक टपक कर इन्सान के जोश-ए-अमल को सर्द करता रहता है, वो ग़म मुझे इस सोई हुई औरत ने दिया है और अब मैं उससे नजात हासिल नहीं कर सकता।

    इस मुसलसल कर्ब से नजात हासिल करने की उम्मीद मौहूम लेकर असलम अपने देस लौट रहा था। महीनों वो इसी रूह फ़र्सा कशमकश में उलझा रहा था। कोह आतिश-फ़िशाँ पर लरज़ते हुए यूरोप में उस औरत की ख़ाली आग़ोश और या अपना देस जहां जिस्मानी और रुहानी गु़लामी के सिवा अगर कुछ था तो उन क़दीमी बंधनों से लड़ने का जज़्बा।

    बाहर बीमार सी धूप फैलने लगी। पलंग पर हल्की सी सरसराहाट सुनाई दी और किसी की उदास आवाज़ ने कहा प्यारे! यहां आओ। असलम कर पलंग पर बैठ गया और उसने अपने रोएँ रोएँ पर एमीलिया की निगाहों का बोसा महसूस किया।

    फिर वो उठी और जल्दी से लबादे का तस्मा लपेटते हुए बोली, तुम भी तैयार हो जाओ। गाड़ी तो चार बजे जाती है ना? तुम्हारे साथ आख़िरी बार ज़रा सैर हो जाये।

    दोनों ने चुप चाप मुँह धोया। कपड़े बदले और हाथ में हाथ दिये हुए सड़क पर निकल आए।

    आओ बाग़ की तरफ़ चलें... नहीं, बाग़ में इन दिनों सूखे पेड़ों के सिवा क्या होगा... ख़ैर यूंही टहलें। किसी जगह जाना क्या ज़रूर है।

    और हर गाम पर उन्हें अपना माज़ी याद आया। वो ख़ामोश थे लेकिन उन्हें सारी पिछली बातें याद रही थीं। इस जगह बारिश से बचने के लिए पेड़ के नीचे खड़े हो गए थे। असलम ने सिगरेट सुलगाने के लिए जेब से माचिस निकाली, वो हाथ से छूट कर कीचड़ में गिर गई और असलम बे जला सिगरेट होंटों में दबाए इधर उधर देखने लगा। हमसाया लड़की ने अपने बैग से माचिस निकाल कर कहा,ये लीजिए, ये उनकी मुलाक़ात की इब्तिदा थी।

    और लो, उस नुक्कड़ पर वो फूल वाली अब भी खड़ी है। उसकी आँखों में वही शरारत है। कई महीने गुज़र गए, दोनों उसके पास से गुज़र रहे थे। मालन ने सफ़ेद फूलों का गुच्छा उनकी तरफ़ बढ़ा कर कहा था, मुहब्बत के फूल दोनों हंस पड़े। असलम ने वो गुच्छा लिया और एमीलिया के बालों में ठूंस दिया, इस पर वो शर्मा कर बोली, जानते हो आज के दिन ये फूल आशिक़ अपनी महबूबा को देते हैं।

    तो फिर मज़ाइक़ा क्या है?

    लेकिन हम तो इस मंज़िल से गुज़र चुके हैं। हम दोस्त हैं।

    उनके मर्ग़ूब कैफे के सामने वही जाना-पहचाना मुलाज़िम पीटर अपनी सफ़ेद मूछों को ताव देता खड़ा है। उन दोनों को देखते ही उसका चेहरा खिल जाता है। सलाम कर के वो बे पूछे उनके लिए मेज़ ठीक करने लगता है और अंदर जा कर पुकारता है, मोसे यनदो के लिए चाय। रोज़ यही होता है और रोज़ की तरह दोनों हंस पड़ते हैं।

    चाय पीते वक़्त भी दोनों कुछ नहीं कहते। या तो जो कुछ उन्हें कहना था वो साल भर की मुद्दत में कह सुन चुके और या जो कुछ कहना है उसके बयान का सलीक़ा उन्हें नहीं आता।

    कैसी अजीब बात है कि आज के बाद उन पर जो बादल साया करेंगे उनके रंग मुख़्तलिफ़ होंगे। उन्हें जोहवा पंखा झलेगी उसकी लहक भी अलग होगी और इस वक़्त असलम अपने को इस ख़याल से बाज़ रख सका कि वो दोनों एक क़ालिब कभी नहीं हुए और वो ये दावा नहीं कर सकता कि जिस वाहिद औरत ने उसे ग़म-ए-मोहब्बत दिया उसे वो जानता है।

    वो ये चाहती है कि असलम हमेशा यहीं रहे। बल्कि उसके इसरार ही ने असलम को अपने वतन की तरफ़ मुंतक़िल किया है। वो असलम के साथ जाना चाहती है। वो कहती है कि दरख़्त की तरह इन्सान भी एक ख़ास मिट्टी का आदी होता है और अगर उसकी जड़ खोद दी जाये तो वो मुरझा जाता है।

    ये ख़ामोशी उन्हें खाए जाती है। ख़ामोशी के दौरान में जिस्म की पुकार सुनाई देती है जो एक धीमी सरगोशी से शुरू हो कर अपनी लय को बढ़ाती हुई एक दर्दनाक चीख़ में मुबद्दल हो जाती है। उसे भूलने के लिए वो इधर उधर की बातें करने लगते हैं लेकिन गुफ़्तगू के मौज़ू कितने बेमानी और महदूद हैं। मौसम की उदासी, राह चलतों की बेमक़्सद चलत फिरत और चाय की बदमज़गी के इलावा वो और कोई मौज़ू छेड़ते हुए डरते हैं और हैरत का मुक़ाम है कि वो जिस शय से डरते हैं वो उनका अपना जिस्म है।

    और वक़्त है कि गुज़रता चला जाता है। या वक़्त नहीं बल्कि हम ख़ुद गुज़रते जाते हैं। गोया हम पतंगों की तरह वक़्त की जलती हुई लौ पे गिरते हैं और फ़ना हो जाते हैं।

    एमीलिया का बेजान जिस्म बदस्तूर हरकत करता रहा लेकिन हर-आन बीते हुए दिन उसे आवाज़ देते रहे। दूसरे सुबह को आईना के सामने बैठे-बैठे वो इंतिज़ार करती रही कि किसी के जाने-पहचाने हाथ उसकी आँखों को बंदकर लेंगे। चाय पीते वक़्त वो इस शिकायत की मुंतज़िर रही कि चाय बहुत हल्की है और रेडियो की मौसीक़ी उसे जाने वाले की तंज़िया तन्क़ीद के बग़ैर बिल्कुल बे रस मालूम हुई। आसमान का निखरा हुआ नीलापन उसे खाए जा रहा था। कौन उसे अब किस दूर देस के नीले आकाश लंबे चौड़े मैदानों और घने घने जंगलों के अफ़साने सुनाएगा?

    उसे बंद बंद में, रग-ओ-पै में एक क़िस्म की कीमीयाई तब्दीली का एहसास हुआ। उसका ज़हन जो यूं रसा था अब सोचने से इनकार करने लगा। पपोटे आप ही आप आँखों पर ढलने लगे। हाथ पांव यूं निढाल हो गए गोया किसी बहुत बड़ी मुहिम से वापस आए हैं। गोया वो साल भर से बहुत बड़ा बोझ उठाए चल रही हो और ये नीचे उतरने की बजाय पाश पाश हो कर उसकी हस्ती में महलूल हो गया है।और अब उसकी हस्ती ख़ुद उसके लिए बार हो गई हो।

    एमीलिया सोचने लगी कि कैसी अजीब बात है, ये कैसी मुहब्बत थी जो घुन की तरह हम दोनों की शख़्सियतों को चाटने लगी। उन दोनों की बाहमी कशिश का मक़नातीस मुम्किन है वही नवाए सख़्ता हो जो इन जिस्मों से निकल कर कभी ग़ज़ल और कभी नौहा गाती है। लेकिन शुरू में तो वो ये समझे हुए थे कि उनकी मुहब्बत का मर्कज़ दर्द-ए-इंसानी है जो ख़ुदी के बंधनों को तोड़ कर सारी मज़लूम इन्सानियत का अहाता किए हुए है।

    एमीलिया के कानों में असलम की पुरजोश तक़रीरें गूंज उठीं। उसकी आतिशीं तहरीरों के ख़याल से उसका बुझा हुआ दिल दहक उठा। उसे याद आया कि अव्वल अव्वल किसी बेकार या भिकारी को देखकर असलम की आँखों से कैसी चिनगारियां निकला करती थीं। खाते खाते उनके तसव्वुर से निवाला उसके गले में अटका करता था। स्पेन हो या चीन, हिन्दोस्तान हो या जावा, उसका दर्दमंद दिल सब के दुख को यकसाँ समझता था। एमीलिया को वो दिन याद आया जब स्पेनी जमहूरियों के जुलूस में वो झंडा लिए चल रहा था और पुलिस उसे पकड़ कर हवालात ले गई थी। रोते-रोते एमीलिया का बुरा हाल हो गया था। लेकिन असलम ने उसे डाँट कर कहा कि तुम्हारे आँसू मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं। नसल-ओ-क़ौम या रंग-ओ-मज़हब के औहाम उसे छू कर भी गए थे और वो उनकी नौइयत को समझने से अछूते बच्चों की तरह क़ासिर था।

    उस वक़्त तक एमीलिया मर्द की मुहब्बत तो दूर रही उसकी शख़्सियत से भी नावाक़िफ़ थी। पहली मर्तबा उसने एक ऐसे मर्द को देखा जिसमें आसमान की सी वुसअत थी और जब वो उसके साये तले आकर खड़ी हुई तो वो उसी तरह मुतहय्यर हो गई जैसे क़ह्र आलूद शुमाल का इन्सान गर्म ममालिक की धूप में। मगर बहुत जल्द उसकी निस्वानी जिबल्लत ने बतला दिया कि ये मर्द औरत के प्यार का प्यासा है। उस प्यास ने उसे बहुत से कुवें झंकवाए हैं और उस प्यास को भूलने के लिए उसने ख़यालात और तसव्वुरात का एक तिलिस्म खड़ा कर लिया है। इन्सानी हमदर्दी का नक़ाब पहन कर ये प्यास दुज़दीदा निगाहों से इधर उधर किसी को ढूंढ रही है। एमीलिया को देखते ही असलम ने अपनी मशाल फेंक दी, नक़ाब उतार दी और उसके जिस्म को अपनी गिरफ़्त में लेना चाहा।

    ये तग-ओ-दौ आहिस्ता-आहिस्ता शुरू हुई और फिर उसकी शिद्दत बढ़ गई। एमीलिया का दिमाग़ जो अभी अभी जागा था मब्हूत हो गया लेकिन उनने जिस्म को बेबस होने दिया। एमीलिया ये कभी भूली कि इस मर्द के जज़्बात उसके पास अमानत हैं और जब कभी उसके अपने जिस्म ने जवाब देने की कोशिश की, एमीलिया ने उसकी आवाज़ को सख़्ती से कुचल दिया।

    उस मर्द में वो जो बगूलों की सी दीवानगी थी, एमीलिया को उसी से मुहब्बत थी और वो किसी क़ीमत पर इस दीवानगी के सौदे के लिए तैयार थी।

    अब चलते-फिरते, सोते-जागते एमीलिया सोचा करती है कि उसकी ये मुज़ाहमत सही थी या ग़लत। दोनों की ज़िंदगी तिश्ना रह गई। दोनों शायद बाक़ी उम्र माज़ी का ग़मआगीं बार उठाए ज़िंदा रहेंगे।

    लेकिन अगर ऐसा होता अगर वो अपने आशिक़ के जिस्म की पुकार को सुन लेती तो क्या होता। नाशपाती के नाज़ुक फूलों को हथेली पर मसलते हुए एमीलिया ने कहा कि दो ही बातें हो सकती थीं। दूसरी औरतों की तरह वो शायद मुझसे भी जल्द दब जाता और या लोहे की तरह मेरे जिस्म के मक़नातीस से चिपक कर रह जाता। दोनों सूरतों में उसके ख़याल-ओ-अमल की आग बुझ जाती और हम दोनों एक दूसरे को इसका ज़िम्मेदार क़रार देते और फिर हमारी मुहब्बत हाल-ओ-मुस्तक़बिल में ज़िंदा रहती बल्कि माज़ी में मदफ़ून होती।

    और अब... एमीलिया ने हज़ारवें मर्तबा अपने आपसे पूछा कि अब क्या होगा, इसलिए आज क्या करता होगा। मुम्किन है कि वो अपनी रूह के रेगिस्तान में किसी ग़म कर्दा राह की तरह भटक रहा हो और या वो दरअस्ल कल्लू किसान और नत्थू मज़दूर (असलम ने कुछ ऐसे ही मज़हकाख़ेज़ नाम गिनाए थे) को नई दुनिया का पैग़ाम सुना रहा हो।

    और मैं...? एमीलिया ने अपने आपसे पूछा कि मैं क्या हूँ। हिंदसे के बग़ैर सिफ़र की क़दर किया है। मर्द बग़ैर औरत... जिस्म बग़ैर जिस्म। रूह बग़ैर रूह।

    उसके दिल पर उदासी और गिरानी सी रहती है। उसका दिल बार-बार मचलता है कि काश! वक़्त इस मुद्दत को हर्फ़-ए-ग़लत की तरह मिटा दे और फिर बाज़गश्त करके वहीं पहुंच जाये जहां रिमझिम बरखा में पेड़ तले उसने असलम की सिगरेट सुलगाई थी। अगर ऐसा हुआ तो वह असलम के जमे हुए क़दमों को डगमगाने देगी उसके ईमान पर ग़ुबार आने देगी।

    मगर वक़्त है कि गुज़रता जाता है... या वक़्त नहीं बल्कि हम ख़ुद गुज़रते जाते हैं...

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