काले कोस
स्टोरीलाइन
भारत विभाजन के बाद हिज्रत और फिर एक नई धरती पर क़दम रखने की ख़ुशी बयान की गई है। गामा एक बदमाश आदमी है जो अपने परिवार के साथ पाकिस्तान हिज्रत कर रहा है। दंगाइयों से बचने की ख़ातिर वो आम शाहराह से हट कर सफ़र करता है और उसकी रहनुमाई के लिए उसका बचपन का सिख दोस्त फलोर सिंह आगे आगे चलता है। पाकिस्तान की सरहद शुरू होने से कुछ पहले ही फलोरे गामा को छोड़ देता है और इशारे से बता देता है कि अमुक खेत से पाकिस्तान शुरू हो रहा है। गामा पाकिस्तान की मिट्टी को उठा कर उसका स्पर्श महसूस करता है और फिर पलट कर फलोर सिंह के पास इस अंदाज़ से मिलने आता है जैसे वो सरज़मीन-ए-पाकिस्तान से मिलने आया हो।
छोटा सा क़ाफ़िला, जो तीन ‘औरतों और एक मर्द पर मुश्तमिल था, दम लेने के लिए कुएँ के क़रीब डेरा डाले था। वो लोग मुसलमान थे... और वो दिन उस सर-ज़मीन को आज़ादी मिलने के दिन थे जिसे आजकल पाकिस्तान और हिन्दोस्तान कहते हैं।
मर्द, 32 या 33 बरस का गिरांडिएल शख़्स था। सर पर छोटी सी पगड़ी के दो-चार बल... गले में कुर्ता, उसके नीचे चौड़ी नीली धारी का तह-बंद... नाक नक़्शे में कोई ‘ऐब नहीं था। दाढ़ी उस्तरे की यूरिश से कई दिनों से बे-नियाज़ थी। मूँछें ख़ूब बड़ी-बड़ी, कबूतरों के परों की मानिंद, नीचे को गिरी हुईं। आँखें मुतजस्सिस और तेज़, जिनमें अब तक थकन के आसार हुवैदा थे। जिस्म के फैले हुए ढाँचे, लंबी-लंबी बाँहों और तवील टांगों के बावुजूद वो मोटा नहीं था। उसके बदन की परवरिश में डंड, बैठक और बादामों का हाथ नहीं बल्कि उसके जिस्म के रेशे-रेशे की परवरिश गेहूँ या मकई के आटे और साग भात पर हुई थी। उसका नाम ग़ुलाम मुहम्मद उर्फ़ गामाँ था। वो अच्छा आदमी नहीं था... उसमें एक ही अच्छी बात थी, वो ये कि उसे नेक होने का दा’वा नहीं था। ये चीज़ उसके चेहरे ही से ज़ाहिर थी।
तीन ‘औरतें... एक बूढ़ी, एक जवान और एक नौ-ख़ेज़, बिल-तर्तीब उसकी माँ, बीवी और बहन थीं। बूढ़ी पाँचों नमाज़ें पढ़-पढ़ कर सारे हिंदुओं ख़ुसूसन सिखों के नीस्त-ओ-नाबूद हो जाने की दु’आएँ माँगा करती थी सिवाए फिल्लौर सिंह के... फिल्लौर सिंह उर्फ़ फिलौरा उसके बेटे का दोस्त था। बीवी की ‘उम्र पच्चीस बरस के क़रीब थी। सीधे सादे ख़द-ओ-ख़ाल... शादी को आठ बरस गुज़र चुके थे लेकिन एक ब्लोंगा तक पैदा नहीं हुआ था। गामे के दोस्त पुर-मा’नी अंदाज़ से उसे कोहनियों से टहोके देकर पूछते, “कहो उस्ताद आख़िर माजरा क्या है?”
इस पर गामा अच्छा इंसान न होने के बावुजूद लम्हा भर के लिए आसमान की जानिब देखता और कहता, “जो अल्लाह की मर्ज़ी!”
“हाँ भई आड़े वक़्त में अल्लाह के सिवा और कौन काम आता है!”
उसकी बहन ‘आशाँ हुसैन और नाज़ुक-अंदाम थी। इस ए’तिबार से वो गामे से बहुत मुख़्तलिफ़ थी... उसकी बाबत गामे ने उड़ती हुई ख़बर सुनी थी कि वो गाँव के एक छोकरे अल्लाह दत्ते को मीठी नज़रों से देखती है और अल्लाह दत्ता भी उसके फ़िराक़ में सर्द आहें भरता है... गामा ने तहय्या कर लिया था कि जब कभी वो उन्हें इकट्ठा देख पाएगा तो गंडासे से उनके सर उड़ा देगा, लेकिन बावुजूद कोशिश के गामे को इस अफ़्वाह की सदाक़त का सबूत नहीं मिल सका।
चार नाख़ुश इंसानों का ये ख़ानुमाँ-बर्बाद क़ाफ़िला पियादा-पा पाकिस्तान को जा रहा था। उनकी कहानी दूसरे लाखों मुसलमानों की कहानी थी जो मशरिक़ी पंजाब से मग़रिबी पंजाब को जाने के लिए मजबूर किए गए थे। गामाँ... लुटेरा भी था और क़ातिल भी। बदमाश भी था और डाकू भी... लेकिन इन सब बुराइयों के बावुजूद वो किसान था... हल चलाना और बीज बोना उसका आबाई पेशा था।
मुल्क की तक़्सीम के बा’द दफ़’अतन सारी ख़ुदाई उनकी दुश्मन हो गई। घर की चारदीवारी तक उन्हें भींच कर मार डालने की धमकियाँ देने लगी। वो धरती जो पहले बजाए माँ की थी, अब गर्म हो कर इस क़दर तप गई थी कि उस पर उसके बच्चों का चलना-फिरना ना-मुम्किन हो गया था। वो ज़मीन जो पहले उनका पसीना जज़्ब कर के सोना उगलती थी, अब उनका ख़ून पी कर भी मुतमइन नहीं होती थी, चुनाँचे एक रोज़ गामे ने घर आकर कहा, “अब हमें जाना ही होगा।”
सामान? इस पर वो तल्ख़ हँसी हँसा और उसने तीनों ‘औरतों को बकरियों के मानिंद घर से बाहर हाँक दिया। इसके बा’द ख़ूनी नज़्ज़ारे, आग, दहशत, भूक और प्यास... मुसलसल... फिल्लौर सिंह, गामे का दोस्त था। बुरे कामों में दोनों साथी रहे थे। मिलकर उन्होंने अच्छा काम कभी नहीं किया था। फिल्लौर सिंह ने मश्वरा दिया कि उनका किसी बड़े क़ाफ़िले के हमराह जाना ख़तरे से ख़ाली नहीं। चुनाँचे गामे ने सब कुछ फिलौरे पर छोड़ दिया और वो रातों-रात चोरी छिपे एक गाँव से दूसरे गाँव तक पहुँचा देता। दिन के वक़्त वो लोग आराम करते और रात होते ही फिर सफ़र शुरू’ कर देते।
एक रात फिलौरे के आने में कुछ देर हो गई तो मालिक-मकान जो डरपोक था, उनसे कहने लगा, भई आज रात हमले का सख़्त ख़तरा है। उनका वहाँ से चले जाना ही बेहतर है। वर्ना वो ख़ुद भी जान से हाथ धोएँगे और उसे भी फँसा देंगे। गाँव से बाहर भी जान का ख़तरा कम नहीं था लेकिन मजबूरी के ‘आलम में गामाँ अल्लाह का नाम लेकर, तीनों ‘औरतों समेत वहाँ से चल खड़ा हुआ। हर-चंद गामाँ मज़बूत इंसान था, उसे अपने ज़ोर-ए-बाज़ू पर भरोसा भी था लेकिन मुसल्लह हुजूम का मुक़ाबला करना उसकी क़ुव्वत से बाहर था और फिर ‘औरतों का साथ। उन्होंने अपना सफ़र जारी रखा। दिन के वक़्त खेतों, झाड़ियों या किसी अंधे कुएँ में छिप जाते और रात भीग जाने पर चल खड़े होते। उन्हें फिल्लौर सिंह से जुदा हुए दो रातें गुज़र चुकी थीं और तीसरी गुज़र रही थी।
रात भीग चुकी थी लेकिन उन्होंने अभी सफ़र जारी नहीं किया था। चाँदनी-रात थी लेकिन आसमान पर हल्का सा ग़ुबार छाया हुआ था इसलिए चाँदनी बहुत उदास दिखाई दे रही थी। इस वक़्त वो एक ऐसे कुएँ के पास बैठे थे जो एक मुद्दत से वीरान पड़ा था। कुएँ की मेंढ़ गिर चुकी थी। दो कच्ची दीवारें इस अम्र की गवाह थीं कि कभी यहाँ भी रहट की रूँ-रूँ सुनाई देती होगी। शायद अलग़ोज़ों की तानें भी उड़ती होंगी और चंचल कुँवारियों के नुक़रई क़हक़हे भी फ़िज़ा में गूँजते हों... ये मुक़ाम सत्ह-ए-ज़मीन से क़द्रे बुलंद था। गामाँ सर उठा कर दूर-दूर तक निगाह दौड़ा रहा था। वो अंदाज़न मग़रिब की जानिब बढ़ रहे थे, लेकिन उन्हें इसका कोई ‘इल्म नहीं था कि इस वक़्त वो कहाँ हैं और पाकिस्तान की हुदूद से कितनी दूर हैं। वो क़रीब-क़रीब निढाल हो चुके थे। काश फिलौरे का साथ न छूटता तो शायद अब तक वो मंज़िल-ए-मक़्सूद तक पहुँच गए होते।
बूढ़ी माँ के ढीले-ढाले चेहरे में झाँकती हुई बे-रौनक़ आँखों से हैरत और दर-माँदगी का इज़हार होता था। अपनी तवील ज़िंदगी में उसने इस क़िस्म के वाक़ि’आत देखे ना सुने थे... बीवी भूक, मुसलसल परेशानी और ‘इज़्ज़त-ओ-आबरू के ख़ौफ़ से बिल्कुल निढाल हो चुकी थी। उसका सर ढलक कर दीवार से टिक गया था... ‘आशाँ, वो निस्बतन ताज़ा-दम थी। एक तो ख़ैर ‘उम्र का तक़ाज़ा था और फिर शायद उसे ख़तरे की अहमियत और नौ’इयत का पूरा-पूरा एहसास भी नहीं था। उसके बोझल बालों ने झुक कर उसके चेहरे के बहुत बड़े हिस्से को ढाँप रखा था। अलबत्ता उसके नाज़ुक लब, तरशी हुई हसीन नाक और घनी भँवें साफ़ दिखाई दे रही थीं... फीकी चाँदनी ने उसकी सूरत को ख़्वाब-नाक बना दिया था।
बैठे-बैठे गामा सोचने लगा। मुम्किन है, ‘आशाँ और अल्लाह दत्ते वाली बात दुरुस्त हो... अब इस क़िस्म के ख़याल से वो नाख़ुश नहीं हुआ... नन्ही-मुन्ही भोली-भाली फ़ाख़्ता सी बहन कभी-कभार उचटती हुई नज़रों से भाई की जानिब देख लेती और फिर आँखें झपका लेती... वो बचपन ही से भाई से सख़्त डरती थी ताहम वो अक्खड़ भाई की सलामती के प्यारे-प्यारे सोज़ भरे गीत गाया करती। दफ़’अतन हवा चलने लगी। पीपल की पत्तियों ने तालियाँ बजा-बजा कर गामे को चौंका दिया। वो उठकर खड़ा हो गया और बोझल आवाज़ में बोला, “अब हमें चलना चाहिए।”
‘औरतें कुछ त’अम्मुल के बा’द घुटनों पर हाथ रखकर उठ खड़ी हुईं। उनमें से किसी को भी पता नहीं था कि उन्हें किधर जाना है। सब लोग बोझल क़दमों से एक सिम्त को चल दिए। आहिस्ता-आहिस्ता चलते हुए वो कुएँ से कुछ दूर ही गए होंगे कि गामे के क़दम रुक गए। ‘औरतें भी रुक गईं। ज़मीन ना-हमवार थी। दूर-दूर तक आबादी का कोई निशान नहीं मिलता था और फिर आबादी से उन्हें क्या सरोकार? उनके जिस्म थक कर चूर हो चुके थे। बदन का जोड़-जोड़ दुख रहा था। मारे भूक के उन्हें यूँ महसूस होता था जैसे कलेजा किसी भारी पत्थर के नीचे दब गया हो।
गामाँ खोई-खोई नज़रों से चारों तरफ़ देखने लगा। क़रीब ही ईंटों का भट्टा था, वो भी सुनसान पड़ा था। मा’लूम होता था मुद्दत से उसे यूँही छोड़ दिया गया है... हद्द-ए-निगाह तक कोई सूरत नज़र नहीं आती थी। उनके हक़ में ये बात अच्छी थी, लेकिन तकलीफ़-देह बात ये थी कि मंज़िल-ए-मक़्सूद का कुछ पता नहीं था। अभी ग़ालिबन उन्हें अनगिनत कोसों का फ़ासला तय करना पड़ेगा। अनगिनत कोस। उसके ज़हन में उलझन सी पैदा होने लगी। उसने घूम कर ‘औरतों की जानिब देखा। उन्हें देखकर उसे बड़ा रहम आया। ये मा’सूम, बे-गुनाह, सादा-लौह सूरतें! फिर उसने खेत की मेंढ़ पर बैठते हुए कहा, “आओ थोड़ी देर आराम कर लें।”
वो सब एक लफ़्ज़ तक कहे बग़ैर बैठ गईं। उन्होंने इतना भी तो नहीं कहा कि अभी तो हम दो फ़र्लांग भी नहीं चलीं, आराम की क्या ज़रूरत।
खेतों के सिलसिले फैलते हुए उफ़ुक़ में गुम हो रहे थे, जहाँ आसमान तपती हुई ज़मीन के लब चूमता हुआ दिखाई देता था। उसने हर जानिब बार-बार नज़र दौड़ाई और फिर ज़ेर-ए-लब बड़बड़ाया, “ना मा’लूम पाकिस्तान कहाँ है।”
बूढ़ी माँ ने आसमान की जानिब नज़र उठा कर कहा, “अल्लाह हमें मिल्लत की सर-ज़मीन तक जल्द पहुँचा दे।”
वो ‘इफ़्फ़त-मआब ‘औरतें अपनी आबरू के लिए फ़िक्रमंद हो रही थीं। वो चाहती थीं कि एक मर्तबा वो आबरू-मंदी के साथ पाकिस्तान की सर-ज़मीन तक पहुँच जाएँ। ख़्वाह वहाँ पहुँचते ही उनको मौत आ जाए। उन्हें अपनी जानें ऐसी प्यारी नहीं थीं।
गामे ने तारों से नज़र हटा कर दोनों हाथों में खेत की भुरभुरी मिट्टी को उठाया और उसे बड़े इन्हिमाक से देखने लगा। उसने उसे दबा कर उसके लम्स को महसूस किया। उसने हवा को सूँघा। तवील-ओ-‘अरीज़ जाल के मानिंद फैली हुई खेतों की मेंढों पर निगाह दौड़ाई जो एक दूसरी को काटती-छाँटती उफ़ुक़ तक फैल गई थीं... लेकिन गामे की निगाहें पाकिस्तान की ज़मीन, पाकिस्तान की मिट्टी, पाकिस्तान के खेतों और पाकिस्तान की झाड़ियों की मुतलाशी थीं। फ़िज़ा मग़्मूम थी लेकिन वहाँ इस क़दर सुकून और अम्न था कि एक मर्तबा तो उन ‘औरतों को भी यक़ीन सा होने लगा कि काली कमली वाला ज़रूर उन्हें बा-‘इज़्ज़त-ए-तमाम मंज़िल-ए-मक़्सूद तक... म’अन एक झटके के साथ गामाँ चौकन्ना हो गया। उसने मज़बूत मछलियों वाला बाज़ू हिफ़ाज़त के अंदाज़ से ‘औरतों के आगे फैला दिया। दूसरा हाथ चश्म-ए-ज़दन में छुरी तक पहुँच गया। उसके ताक़तवर बाज़ुओं के पट्ठे फड़फड़ाने लगे। उसकी मुतजस्सिस आँखें भट्टे की जानिब एक नुक़्ते पर जम गईं।
आख़िर है क्या...? लेकिन ये सवाल ‘औरतों के लबों तक नहीं आ सका। अब गामा ‘अज़ीमुल-जुस्सा असील मुर्ग़ के मानिंद बाज़ू फैलाए, क़दम ज़मीन में गाड़-गाड़ कर आगे बढ़ते हुए धीरे से बोला, “उस भट्टे के पीछे ज़रूर आदमी छिपे बैठे हैं।”
उन्हें भी एक शख़्स की झलक दिखाई दी। ‘औरतों ने सोचा कि अब इस मुसीबत से छुटकारा पाने की कोई सबील नहीं हो सकती। चंद लम्हों बा’द टूटी फूटी ईंटों और मिट्टी के टीलों के पीछे से एक आदमी नुमूदार हुआ... वो सिख था। वो तन-ए-तन्हा आगे बढ़ने लगा। वो भी गामे के मानिंद लंबा-तड़ंगा शख़्स था। हरकात-ओ-सकनात से वो भी शरीफ़ इंसान दिखाई नहीं देता था... उसके पीछे... उसके पीछे और कोई नहीं था। शायद उसके साथी भट्टे के पीछे छिपे बैठे थे। वो क़दम-बा-क़दम आगे बढ़ रहा था।
गामाँ रुक गया। धुँदली रोशनी में वो साया क़रीब से क़रीब-तर आता गया। यहाँ तक कि गामे के आसाब का तनाव नुक़्ता-ए-‘उरूज तक पहुँच कर दफ़’अतन सिफ़र पर आ गया। ग़ालिबन... नहीं यक़ीनन... नौ-वारिद फिलौरा था और फिर निस्बतन बुलंद ना’रों से उन्होंने एक दूसरे का इस्तिक़बाल किया। आते ही फिलौरे ने पहले ‘औरतों का जायज़ा लिया। सबको सही सलामत पा कर बोला, “शुक्र है शुक्र है!”
गामे ने मुस्कुरा कर कहा, “हम सब सलामत हैं।”
“लेकिन तुम लोग तन्हा क्यों चले आए थे। मेरा इंतिज़ार क्यों नहीं किया तुमने?
गामे ने सारा क़िस्सा कह सुनाया। इस पर फिलौरे ने ग़ुल मचा कर कहा, “ये तो तुम्हें घर से निकालने वाले की इंतिहाई हिमाक़त थी और तुम्हारी भी बेवक़ूफ़ी थी। उफ़्फ़ुह! वहाँ पहुँच कर मैं बहुत परेशान था। ये दुरुस्त था कि कुछ ख़तरा पैदा हो चला था, लेकिन तुम्हें बा-आसानी छुपाया जा सकता था। उस दिन से तुम्हारी तलाश में मारा-मारा फिर रहा हूँ। यही फ़िक्र थी कि कहीं फ़सादियों के हत्थे न चढ़ जाएँ।”
माँ बोली, “बेटा अल्लाह के फ़ज़्ल से हमारा बाल तक बीका नहीं हुआ, लेकिन हमारे ये दिन तो बहुत ही मुसीबत में कटे हैं। हमें तो ये उम्मीद भी नहीं रही थी कि तुम हमें दुबारा मिलोगे...”
“वाह जी वाह।”, फिलौरे ने और शोर मचा कर कहा, “भला तुम्हारे दिल में इस क़िस्म के ख़यालात पैदा ही क्यों हुए। देखो न तुम्हारे पैरों के निशानात देखकर यहाँ तक आन पहुँचा हूँ।”
फ़िज़ा में दोनों ग़ैर-शरीफ़ मर्दों की आवाज़ें गूँजने लगीं। उदास चाँदनी-रात में चहल पहल नज़र आने लगी। डूबते को तिनके का सहारा। ‘औरतों ने बड़े इत्मीनान का साँस लिया, जैसे अब उनकी मदद पर पूरी फ़ौज पहुँच गई हो... फिलौरा जो उस बढ़िया के हाथों में पल कर जवान हुआ, बातें किए जा रहा था। इधर-उधर की बातें हो चुकीं तो गामे ने कहा, “यार हम तो अटकल-पच्चू चले आए हैं। न जाने कहाँ से कहाँ निकल आए हैं। कुछ पता नहीं चलता...”, ये कह कर वो ख़ुद ही रुक गया और आँखें सुकेड़ कर दूर-दूर तक निगाहें दौड़ाने लगा कि शायद कहीं पाकिस्तान की सर-ज़मीन दिखाई दे।
इस पर फिलौरे ने गामे को एक बाज़ू में समेटने की कोशिश करते हुए कहा, “वे गामेयाँ! अब तो तुम पाकिस्तान पहुँच चुके हो। तुम क्या समझे बैठे थे... कि वहाँ पहुँचने के लिए दरिया पहाड़ फाँदने पड़ेंगे?” गामाँ हक्का-बक्का रह गया। हकला कर बोला, “सच...? कहाँ है पाकिस्तान?”
ये कह कर वो फिर आँखें सुकेड़ कर उफ़ुक़ की जानिब देखने लगा। ‘औरतों के लबों पर भी मुस्कुराहट की लहरें दौड़ने लगीं। फिलौरे ने हाथ का इशारा करते हुए कहा, “वो रहे पाकिस्तान के खेत।”
सब लोग फिलौरे के साथ-साथ तेज़ तेज़-क़दम उठा कर चलने लगे। ब-मुश्किल एक फ़र्लांग दूर पहुँच कर फिलौरा रुक गया। फिर हाथ से इशारा कर के बोला, “लो अब यहाँ से पाकिस्तान के खेत शुरू’ हो जाते हैं। तुम सीधे चले जाओ। कहीं पुलिस या फ़ौज की चौकी तक पहुँच जाओगे या किसी गाँव में जा पहुँचोगे... अब तुम्हें कोई ख़तरा नहीं...”
‘औरतों ने जंगली चकोरियों की तरह अपनी रफ़्तार तेज़ कर दी। गामाँ दो खेत तो तीर की सी तेज़ी के साथ पार कर गया और फिर रुका। तीनों ‘औरतें लपकी हुई उसके पीछे चली आ रही थीं। तेज़ चलने के बा’इस वो हाँपने लगी थीं। गामे की बाछों में से हँसी फूटी पड़ती थी। घूम कर कहने लगा, “अम्माँ हम पाकिस्तान पहुँच गए हैं।”
मा’सूम ‘औरतों ने रुक कर नज़रें इधर-उधर दौड़ाईं और दिल ही दिल में ख़ुदा का शुक्र अदा किया।
गामे ने क़द्रे तवक़्क़ुफ़ के बा’द झुक कर दोनों हाथों में खेत की भुरभुरी मिट्टी भर ली और उसे अपने चेहरे के क़रीब ले आया। चंद लम्हों तक उसे ग़ौर से देखता रहा। दबा कर उसके लम्स को महसूस किया, हवा को सूँघा, फिर सर घुमा कर तवील-ओ-‘अरीज़ जाल की मानिंद फैली हुई खेतों की मेंढों पर निगाह दौड़ाई जो एक दूसरे को काटती-छाँटती उफ़ुक़ तक चली गई थीं...
उसके चेहरे पर गहरी संजीदगी के आसार पैदा होने लगे। फिर उसे एहसास हुआ कि फिलौरा उसके साथ नहीं है... फिलौरा दो खेत परे धुँदली चाँदनी में अड़ियल टट्टू की तरह ज़मीन पर पाँव जमाए खड़ा था। चंद लम्हों तक वो सब चुप-चाप उसकी जानिब देखते रहे। बुलंद-ओ-बाला फिल्लौर सिंह की ढीली पगड़ी के शिमले हवा में लहरा रहे थे और उसकी तवील लाठी की बिरंजी शाम उसके दाहिने कान की लौ चूम रही थी। ‘उम्र-रसीदा माँ ने फिलौरे की तरफ़ देखा और फिर पस-ए-मंज़र में छिटके हुए सितारों पर नज़र दौड़ा कर दिल में कहने लगी, मैं पांचों वक़्त-ए-नमाज़ के बा’द अल्लाह से इस शख़्स के हक़ में दु’आ माँगा करूँगी। सादा-लौह ‘औरत ये भूल गई कि क्या उस शख़्स के हक़ में दु’आ माँगने पर शान-ए-करीमी सबके गुनाह मु’आफ़ कर देगी।
अलविदा’ कहने के लिए गामाँ धीरे-धीरे क़दम उठाता हुआ अपने दोस्त की जानिब बढ़ा... उसके पाँव मन-मन के हो रहे थे... वो जानता था कि फिलौरा दो खेत परे क्यों रुक गया है। जब दोनों क़रीब-क़रीब खड़े हुए तो क़द-ओ-क़ामत और डील-डौल में दोनों बराबर थे। फिलौरे के पुर-ख़ुशूनत चेहरे पर भद्दी सी मुस्कुराहट पैदा हुई... जैसे वो कह रहा हो, “गामे! तुम सर-ज़मीन-ए-पाकिस्तान से मुझे मिलने के लिए वापिस आए हो।”
गामाँ ने अपने बुलंद-क़द को और भी बुलंद किया और एक मर्तबा फिर अपने सामने खड़े हुए कड़यल किसान से आँखें मिलाईं। उसकी घनी मूँछें मुतहर्रिक हुईं। उसने फिलौरे का चौड़ा-चकला हाथ अपने हाथ में ले लिया और फिर... जैसे इस्बात में सर हिलाते उसने भरपूर मर्दाना आवाज़ में जवाब दिया,
“आहो फिलौरिया!”
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