काली घटा
टैक्सी रवाना हुई तो बिमला ने सोचा, ये सीन बिल्कुल ऐसा है जैसा फ़िल्मों में होता है। सामने उसके अपने माधव के चेहरे का क्लोज़-अप है। इतने क़रीब कि वो उसके हल्के साँवले गालों पर ख़ूब अच्छी तरह घुटी हुई दाढ़ी की नीलाहट को देख सकती है। उसके रेशमी सफ़ेद क़मीज़ और रेशमी नीली टाई के नीचे कालर के गिर्द पसीने के निशान को देख सकती है। उसके घने, चमकीले सियाह बालों के गुफ्फों के नशेब-ओ-फ़राज़ का मुआ’इना कर सकती है, और अक्तूबर की गर्मी में माधव के बदन से फूटती हुई उस बू को भी सूँघ सकती है जो ब-यक-वक़्त ख़ुशबू है और बदबू भी और जिस में माधव के मर्दाना जिस्म के जवान पसीने के अ’लावा हेयर ड्रेसिंग सैलून में मुफ़्त लगाया हुआ लोशन भी शामिल है, और एक घटिया क़िस्म का फ़्रांसीसी तेज़ ख़ुशबू-दार सेंट भी है और माधव के इस फ़िल्मी क्लोज़-अप के पीछे टैक्सी की खिड़की में से बंबई की सड़कों पर और बाज़ारों का पस-मन्ज़र दौड़ता हुआ नज़र आ रहा है।
परेल की चालें - जिनमें से एक वो अपने माँ-बाप, भाई-बहनों के साथ एक खोली में रहती है, और उन चालों के पीछे धुआँ उगलती हुई ऊँची-ऊँची मिलों की चिमनियाँ और उनके पीछे नीले आस्मान पर दौड़ते हुए भूरे-भूरे बादल। सफ़ेद बगुलों की एक क़तार जो ग़ैर-मा’मूली ख़ामोशी से परवाज़ कर रही है और एक चाँदी की तरह चमकता हुआ मछली की शक्ल का हवाई जहाज़ जो फ़िज़ा में मुअ’ल्लक़ मा’लूम होता है। न जाने किस देस से आया है, और किस देस जाने वाला है।
उसकी नज़र आस्मान से ज़मीन पर आई तो देखा फ़ुट-पाथ पर बेकार टोकरी ढोने वाले और फ़क़ीर धूप में पड़े सो रहे हैं, और कचरे के ड्रम के पास एक मरियल, मैली-कुचैली बिल्ली कूड़े के ढेर में कुरेद रही है, मगर उसी वक़्त उसने देखा कि गुल-मोहर के पेड़ों में शोलों की तरह लाल-लाल फूल खिले हुए हैं और वही पेड़ जो चन्द दिन तक पहले तक सूखे, वीरान ठूँठ बने खड़े थे जिनकी सूखी टहनियों में एक हरी पत्ती तक नहीं थी आज अपने फूलों के बोझ से झुके जा रहे हैं। दफ़्अ’तन उसे महसूस हुआ कि दुनिया में और उसके अपने जीवन में बहार आ गई है।
बहार आ गई... क्योंकि माधव आ गया है। अब ज़िन्दगी की सब कुल्फ़तें और महरूमियाँ दूर हो जाएँगी, अब हर तरफ़ फूल खिलेंगे और उन पर भँवरे मँडलाएँगे। ख़ुश-रंग परिन्दे चह-चहाएँगे, और सारी फ़ज़ा मीठे और सुरीले नग़्मों से गूँज उठेगी।
माधव ने एक नज़र उसकी तरफ़ देखा और बिमला के तन-बदन में एक झुरझुरी सी कौंद गई। गो वो उससे दूर अपने कोने में दुबकी हुई बैठी थी और उनकी उँगलियों ने भी एक दूसरे को नहीं छुआ था। फिर भी ऐसा महसूस हुआ जैसे उसने दफ़्अ’तन एक बिजली के तार को छू लिया हो और उस बर्क़ी झटके से उसकी रग-रग में एक मीठा-मीठा दर्द दौड़ने लगा।
“बंबई में आए हुए इतने दिन हो गए तुम्हें फिर भी देहाती लड़कियों की तरह इतना शर्माती हो। सर को आँचल से ऐसे ढाँका हुआ है कि बिल्कुल घूँघट मा’लूम होता है।” माधव ने उसकी तरफ़ देखते हुए कहा।
बिमला ने सोचा, अब तुम्हें कैसे बताऊँ कि सर पर आँचल क्यों डाला हुआ है, अरे ज़ालिम मैं जो कुछ हूँ, जो कुछ मैंने किया है, जो कुछ मैं सोचती हूँ, वो तेरे और सिर्फ़ तेरे ख़याल से होता है, मगर नहीं... इसके बारे में कुछ कहना तो छिछोरा-पन होगा बे-शर्मी होगी, और ये सोच कर उसने आँचल को एक इंच और आगे सरका लिया और एक खिसियानी सी मगर मोहब्बत भरी मुस्कुराहट मुस्कुरा कर दूसरी तरफ़ खिड़की के बाहर देखने लगी।
अब उनकी टैक्सी लाल बाग़ से हो कर बाईकला के इलाक़े से गुज़र रही थी, एंग्लो इंडियन और क्रिस्चियन लड़कियाँ ऊँचे फ़्रॉक और ऊँची एड़ी की सैंडिल पहने बस स्टैंड के क्यू में खड़ी थीं। मकान के छज्जों से पारसी औ’रतें अपने घरों का कचरा फ़ुट-पाथ पर फेंक रही थीं। पैलेस सिनेमा पर “दिल दे के देखो” के बड़े-बड़े पोस्टर लगे हुए थे। जिसमें ख़ूब-रू शम्मी कपूर नई-नवेली आशा पारेख के साथ नाक से नाक मिला कर अंग्रेज़ी डाँस कर रहा था, और बिमला ने सोचा अगर ये ज़िन्दगी न होती एक फ़िल्म होती, अगर मैं सवा सौ रुपए माहवार पाने वाले ट्राम कंडक्टर बंसी लाल की बेटी बिमला न होती बल्कि एक फ़िल्म की हीरोइन होती, और माधव, माधव न होता शम्मी कपूर होता, राज कपूर होता, दिलीप कुमार, अशोक कुमार होता और किसी अच्छे डायलॉग राइटर ने मुझे ये सीन लिख कर दिया होता तो आज मैं कितने ख़ूबसूरत अल्फ़ाज़ में अपने दिल की कैफ़ियत उसे सुनाती और रास्ते भर सुनाती जाती और ये भी परवा न करती कि टैक्सी ड्राइवर हमारी बातें सुन रहा है, और कनखियों से अपने सामने लगे हुए शीशे में देखता जा रहा है कि पीछे वाली सीट पर ये नौ-जवान लड़का और लड़की कोई गड़बड़ घोटाला तो नहीं कर रहे हैं।
मगर ज़िन्दगी ज़िन्दगी है और फ़िल्म फ़िल्म है। वो बिमला है मधु बाला नहीं बन सकती, न माधव देवानंद बन सकता है, टैक्सी ड्राइवर भी असली टैक्सी ड्राइवर है, फ़िल्म कंपनी का ऐक्टर नहीं है कि हीरोइन को रोमांस करने के लिए आज़ाद छोड़ दे, और टैक्सी किसी स्टूडियो में बैक प्रोजेक्शन के पर्दे के सामने खड़ी नक़ली हरकत नहीं कर रही बल्कि सच-मुच है, जो हस्पताल से गुज़र कर भिंडी बाज़ार की तरफ़ जा रही है।
बोरी और फ़ोहर औ’रतें लम्बे-लम्बे कुर्ते पहने फ़ुट-पाथ पर लगी हुई दुकानों से फल तरकारी ख़रीद रही थीं। तीन बुर्क़ा-पोश लड़कियाँ नक़ाबें उल्टे अपने रंगीन आँचलों और पाउडर और लिपस्टिक लगे चेहरों की नुमाइश करती हुई ज़ोर-ज़ोर से बातें करती चली जा रही थीं। पेट्रोल-पंप के पास गटर के किनारे एक सफ़ेद दाढ़ी वाले बुज़ुर्ग बैठे इत्मीनान से पेशाब कर रहे थे। बिमला ने बे-इख़्तियार शर्मा कर मुँह फेरा तो माधव को अपनी तरफ़ देखते हुए पाया।
“बिमला, याद है ये रिकार्ड?”
उनकी टैक्सी चौराहे पर माशा-अल्लाह होटल के बराबर खड़ी थी, क्योंकि ट्रैफ़िक कांस्टेबल ने हाथ दिखा कर रास्ता रोका हुआ था। होटल में रेडियो चालू था और रेडियो पर एक बहुत पुराना रिकार्ड बज रहा था।
“काली घटा छाई हो राजा काली घटा छाई...”
“बिमला याद है ना रिकार्ड?” माधव ने फिर अपना सवाल दोहराया और जवाब देने से पहले एक लम्हे के वक़्फ़े में बिमला के दिमाग़ में न जाने कितनी यादें उभर आईं और उसका ज़ेह्न वक़्त और मकान दोनों के फ़ास्लों को फलाँगता हुआ दूर-दूर हो कर उसी लम्हे में आया। “उसे कभी भूल सकती हूँ क्या?”
और उसी दम सिपाही ने अपना सिग्नल तब्दील किया और एक झटके के साथ टैक्सी आगे रवाना हो गई। बिमला का ज़ेह्न माज़ी की तरफ़ चल पड़ा।
जाड़ों के दिन थे। वो नहा कर आँगन में बैठी अपने लम्बे बालों में कंघी कर रही थी कि दरवाज़े पर किसी ने कुंडी खट-खटाई, उसके छोटे भाई-बहन स्कूल गए हुए थे, बिमला ने ख़ुद उसी साल स्कूल जाना छोड़ दिया था, क्योंकि उसकी माँ का ख़याल था कि चौदह बरस के बा’द लड़कियों का स्कूल जाना उनके लिए ख़तरनाक साबित हो सकता है और इसलिए उसने बिमला से कहा था कि प्राईवेट इम्तिहान की तय्यारी करे। बाप तो जब भी बंबई में काम करते थे। साल में सिर्फ़ दस पन्द्रह दिन को कभी आते थे। माँ उस वक़्त पड़ोसन के हाँ गई हुई थी। बिमला ने सोचा न जाने कौन आया है इस समय।
“कौन है?”
उसने किसी क़दर चिड़ कर कहा क्योंकि कंघी बालों में उलझ गई थी, और ज़ोर लगाने से कितने ही बाल टूट कर निकल आए थे।
“मैं हूँ माधव... किराया देने आया हूँ।”
बिमला के बाप बंसी लाल ने उ’म्र भर की जम्अ’ जोड़ से ये एक छोटा सा मकान बनाया था जिसमें वो लोग रहते थे। बंसी लाल ख़ुद बंबई में ट्रामवे कंपनी में काम करता था। वहाँ जगह न मिलने से घर वालों को झाँसी ही में छोड़ा हुआ था। हर महीने पचास रुपए बीवी को भेजता मगर इस महंगाई के ज़माने में चार बच्चों के साथ इतने में गुज़ारा कैसे होता। सो बिमला की माँ ने घर के दो कमरे पाँच-पाँच रुपए माहवार में किराए पर उठा दिए थे। एक में म्यूंसिपलटी का एक बूढ़ा चपरासी रहता था और दूसरे में एक कॉलेज का स्टूडेंट। वो इम्तिहान पास कर के गया तो उसने अपना कमरा अपने एक दोस्त को दे दिया था जो किसी गाँव का रहने वाला था। और झाँसी में नया-नया ही आया था।
मगर बिमला को नहीं मा’लूम था कि उसका नाम माधव है, सो बे-इख़्तियार उसके मुँह से निकला, “आ जाओ अन्दर... देखूँ मिट्टी के माधव हो, या...”
उसने देखा कि सत्रह-अठारह बरस का एक गँवारा सा छोकरा सामने खड़ा है। पाँव में गँवारा चमरोधे जूते, मोटे खद्दर की धोती, आधी आस्तीनों की बंडी, गले में कंठा, और घुटे हुए सर पर चोटी।
दफ़्अ’तन एक जवान लड़की को इस तरह सामने देख कर वो घबरा सा गया और आँखें झुका कर बोला, “देवजी आपने कुछ कहा?”
और बिमला जो अपनी अल्हड़ ज़बान-दराज़ी के लिए मोहल्ले भर में मश्हूर थी, बोली, “मैं कह रही थी कि देखूँ क्या तुम सच-मुच मिट्टी के माधव हो मगर तुम तो निकले ताँबे के।”
बे-इख़्तियार माधव का हाथ अपने घुटे हुए सर पर गया और घबराहट में चोटी में गिरह बाँधते हुए बोला, “मेरा नाम माधव राम है, आपका नया किराये-दार हूँ। किराया आपको दे दूँ?”
“वहाँ रख दो, खाट पे, पान की पिटारी में।”
नोट को पिटारी में रख के जाते-जाते उसने एक बार फिर चन्चल लड़की की तरफ़ देखा तो देखता ही रह गया।
“क्या घूर रहे हो? क्या पहले कभी किसी लड़की को कंघी करते नहीं देखा?”
“देखा है देवी-जी लेकिन आज तक कभी इतने लम्बे बाल नहीं देखे।”
बिमला के बाल सच-मुच बहुत ही लम्बे और घने, चमकीले और मुलाइम थे। पड़ोसनें अक्सर पूछतीं, “बिमला की माँ, अपनी बेटी के सर में कौन सा तेल डालो हो। हमें भी बताओ।”
और बिमला की माँ कहती, “अरी बहन वही कड़वा तेल जो तुम डालो हो, पर निगोड़े बढ़ते ही जावें हैं और घने भी तो कितने हैं। मैं तो कंघी-चोटी करती-करती तंग आ गई हूँ। मैंने बिमला से कह दिया है, बेटी अब तू बड़ी हो गई है, अपने बालों मैं ख़ुद कंघी किया कर।”
बिमला को ख़ुद अपने लम्बे बालों पर बड़ा घमंड था, स्कूल में वो दूसरी लड़कियों के बालों की लम्बाई से उनका मुक़ाबला करती रहती। सबके सामने फ़ुट रोल ले कर अपनी चोटी को नापती और अपनी सहेलियों से हँस कर कहती, “अरे निगोड़ियों ये बाल मेरे क़द से भी लम्बे हो गए तो क्या करूँगी। फिर तुम में से एक को मेरी चोटी सँभालने के लिए मेरे पीछे-पीछे घूमना होगा जैसे किसी मलिका या महारानी का शाही लिबास सँभालने के लिए दासियाँ चलती हैं।”
मगर उस वक़्त उस गँवार छोकरे को चिढ़ाने के लिए उसने कहा, “मैं तो निगोड़े बालों से तंग आ गई हूँ। जी में आता है एक दिन क़ैंची ले कर खच से काट दूँ।”
जैसे ये ख़तरनाक अमल उसी वक़्त सचमुच होने वाला है, माधव ने घबरा कर कहा, “हाएँ, हाएँ, ऐसा न करना देवी-जी।”
अच्छा जाओ मुआ’फ़ किया, नहीं करूँगी, पर एक शर्त पर, ख़बर-दार जो मुझे कभी देवी-जी कहा। ऐसा लगता है जैसे मैं सफ़ेद बालों वाली बुढ़िया हूँ या मन्दिर में रखी हुई काली की मूर्ती। मेरा नाम है बिमला।”
अगले महीने जब माधव किराया देने आया तो माँ घर में मौजूद थी, बिमला से उसकी कोई बात नहीं हुई। मगर बिमला ने देखा कि माधव के घुटे हुए सर पर बाल उग आए हैं और चोटी छोटी हो गई है।
उससे अगले महीने जब वो आया तो माँ मन्दिर गई हुई थी। और छोटे बहन-भाई छत पर खेल रहे थे। बिमला ने देखा कि माधव के सर से चोटी ग़ाइब हो गई है और नए आए हुए बालों में अंग्रेज़ी ढंग की हजामत कराई गई है। धोती के बजाए पाएजामा और ऊँचे कॉलर का खद्दर का कुर्ता, पाँव में नए चप्पल।
“अरे माधव तुम्हारी चोटी क्या हुई?”
“कॉलेज में लड़के हँसते थे देव... मेरा मत्लब है बिमला।” और फिर झेंप मिटाने के लिए जल्दी से बोला, “तुम्हारे बाल तो और भी लम्बे हो गए होंगे।”
“हाँ कम्बख़्त बढ़ते ही रहते हैं। साढ़े तीन फ़ुट हो गए हैं।”
और अब हर महीने का ये मा’मूल हो गया कि जब कभी उनको अलग बात करने का मौक़ा मिलता तो माधव बालों की लम्बाई के बारे में यही सवाल करता और बिमला भी जवाब देने के लिए फ़ुटों और इंचों का पूरा हिसाब तय्यार रखती। और इस तरह वक़्त गुज़रता गया, बिमला के बाल बढ़ते गए और माधव अब क़मीज़-पतलून में मिट्टी के माधव के बजाए मिस्टर माधव राम दिखाई देने लगा।
एक दिन माँ ने बिमला से कहा, “अरी भूषण के इम्तिहान में अब दो ही महीने रह गए हैं। मैं तो तुझे कभी पढ़ते देखती नहीं, पास कैसे होगी और पास नहीं होगी तो तेरा ब्याह कैसे होगा? प्राइमरी पास लड़कियों को तो आज कल पटवारी भी नहीं जुड़ता।”
और बिमला ने कहा, “माँ, पढ़ूँ कैसे... कोई पढ़ाने वाला भी तो होना चाहिए। स्कूल तुम जाने नहीं देतीं। अपने आप से पढ़ती हूँ, तो किताब मेरी समझ में नहीं आती।”
इतने में दरवाज़े पर कुंडी खटखटाने की आवाज़ आई।
“कौन है?” बिमला की माँ ने अपनी गरज-दार आवाज़ में पुकारा।
“माँ जी, मैं हूँ, माधव। किराया लाया हूँ।”
आम तौर से बिमला की माँ किराये-दारों से बड़ी सख़्ती से पेश आती थी। एक दिन की भी देर हो जाए तो ख़ूब डाँट पिलाती थी। आज माधव डरता-डरता आया था। क्योंकि इस बार उसे किराया देने में पूरे सात दिन की देर हो गई थी। सो जब उसे अन्दर आने को कहा गया तो उसने माँ जी को निहायत अदब से नमस्ते करके गिड़गिड़ाते हुए कहा, “क्षमा करना माँ जी... इस महीने इतनी देर...”
लेकिन बिमला की माँ ने बड़ी मुलाइमत से कहा, “कोई बात नहीं बेटा। देर-सवेर तो हो ही जाती है।” और पाँच का नोट पिटारी में रखते हुए बोली, “क्यों रे माधव तू कौन से दर्जे में पढ़े है?”
“मैं एफ़ ए़ में हूँ माँ जी।”
“अच्छा, भला क्या-क्या पढ़े है तू कॉलेज में?”
माधव की समझ में नहीं आया कि माँ जी को आज दफ़्अ’तन उसकी ता’लीम में इतनी दिलचस्पी कैसे हो गई है।
“जी... अंग्रेज़ी पढ़ता हूँ, इकॉनमिक्स, इतिहास...”
“और हिन्दी? हिन्दी नहीं पढ़ता?”
“वो भी पढ़ता हूँ। पर उसमें मुझे ज़ियादा मेहनत नहीं करनी पड़ती, मैं कॉलेज में आने से पहले ही प्रभाकर का इम्तिहान पास कर चुका हूँ।”
“प्रभाकर पास कर चुका है तब तो बेटा तू बहुत हिन्दी पढ़ा हुआ है, भूषण जैसे छोटे इम्तिहान के वास्ते तो तू स्कूल में मास्टर भी हो सकता है।”
“जी हाँ मगर मैं आगे पढ़ना चाहता हूँ, अभी नौकरी नहीं करना चाहता।”
“नौकरी की बात नहीं बेटा, मैं कुछ और ही सोच रही थी।”
और सो ये हुआ कि अगले दिन से माधव ने बिमला को हिन्दी पढ़ाना शुरू’ कर दिया। पहले तो जब वो पढ़ाने आता, बिमला की माँ सारे वक़्त वहीं बैठी रहती लेकिन उसको देख कर ये इत्मीनान हो गया कि माधव उसकी बेटी की तरफ़ नज़र-बाज़ी नहीं करता, जल्दी-जल्दी सबक़ पढ़ा कर चला जाता है। बिमला भी माधव में कोई ख़ास दिलचस्पी न लेती और कभी ज़िक्र भी करती तो इस अन्दाज़ में कि, “माँ... और वो तुम्हारा मिट्टी का माधव आज अब तक नहीं आया।”
और माँ को कहना पड़ता, “बेटी मास्टर का नाम अदब से लिया कर। गुरु का स्थान बहुत ऊँचा होता है।”
वक़्त गुज़रता गया। बिमला के क़द के साथ उसके बाल भी और बढ़ते गए और उसका चन्चल मिज़ाज धीमा और शान्त होता गया। माधव ने अब क़मीज़ के कालर पर टाई लगाई और बालों में टेढ़ी माँग निकालनी शुरू’ कर दी। बिमला इम्तिहान में बैठी और डेढ़ महीने बा’द ख़त मिला कि वो तीसरे दर्जे में पास हो गई। माँ ने ख़ुश हो कर बाँटने के लिए मिठाई मँगाई और बिमला से कहा, “बेटी सबसे पहले माधव को मिठाई खिला कर आ। इम्तिहान में तू उस बेचारे की मेहनत की वज्ह ही से पास हुई है।”
बिमला आज तक माधव के कमरे में नहीं गई थी, हाथ में मिठाई का दोना लिए सर पर पल्लू डाले दरवाज़े पर जा कर धीरे से खट-खटाया। अन्दर से आवाज़ आई, “कौन है?”
अन्दर गई तो देखा माधव पलंग पर पड़ा सिगरेट पी रहा है, बिमला को देखते ही हड़बड़ा कर उठ बैठा और सिगरेट खिड़की में से फेंक दी जैसे छोटा सा बच्चा बीड़ी पीते हुए पकड़ा गया हो।
“तुम सिगरेट पीते हो?” बिमला को ये देख कर इतना त’अज्जुब हुआ कि वो इम्तिहान की ख़बर बताना और मिठाई देना भी भूल गई।
“हमेशा नहीं... कभी-कभी, मगर तुम यहाँ कैसे? माँ जी क्या कहेंगी?”
“माँ जी ही ने भेजा है ये मिठाई देने के लिए। मैं इम्तिहान में पास हो गई हूँ।”
“और मैं?” वो कुछ कहना चाहता था, मगर रुक गया और बात बदल कर बोला, “ये तो बड़ी ख़ुशी की बात है बिमला, लाओ मिठाई खिलाओ।”
“ये लो।” बिमला ने दोना बढ़ाया।
“यूँ नहीं, अपने हाथ से खिलाओ।”
बिमला ने इधर-उधर देखा, वो लम्हा और उसकी तमाम तफ़्सीलात बिमला की याद में हमेशा के लिए मुन्जमिद हो गईं। दरवाज़े पर पर्दा पड़ा हुआ था, खिड़की के बाहर नीम के पेड़ पर कबूतरों की एक जोड़ी बैठी गुटर-गुटर-गूँ कर रही थी। पड़ोस में कहीं ग्रामोफ़ोन पर कोई घिसा हुआ रिकार्ड बज रहा था, और किताबों से लदी हुई मेज़ के गिर्द एक चमकीले नीले परों वाली शहद की मक्खी भिन-भिना रही थी।
हाथ में पेड़ा लिए हुए वो आहिस्ता-आहिस्ता माधव की तरफ़ बढ़ी। क़रीब... और क़रीब... और क़रीब, यहाँ तक कि वो उसके गर्म-गर्म सांसँ का लम्स अपने गालों पर महसूस करने लगी। उसने पेड़ा माधव के मुँह की तरफ़ बढ़ाया और कहा, “मुँह खोलो।”
माधव ने मुँह खोला और आँखें बन्द कर लीं। बिमला ने पेड़ा मुँह में रखा तो माधव ने उसकी उँगली काट ली, बिमला को दाँत काटने से कोई तक्लीफ़ नहीं महसूस हुई मगर उसे माधव के होंट जलते हुए लगे और उसने जल्दी से उँगली खींच ली। जैसे आग में झुलस गई हो।
और फिर न जाने ये कैसे हुआ कि वो आँखें बन्द कर के माधव की आग़ोश में गिर गई और उसे मा’लूम हुआ कि दहकते हुए होंटों पर दहकते हुए होंट रख दिए जाएँ तो उस लम्हे में इन्सान ज़िन्दगी की तमाम अज़ीयतों और ज़िन्दगी की तमाम राहतों से आश्ना हो जाता है। दुनिया घूमते-घूमते रुक गई, मेज़ पर रखी हुई टाइम-पीस की टिक-टिक, जो वक़्त की आवाज़ थी, न जाने किस सन्नाटे में गुम हो गई। सिर्फ़ नीम के पेड़ पर कबूतर गुटर-गूँ गुटर-गूँ करते रहे, शहद की मक्खी की भिन-भिनाहट एक लाहूती मौसीक़ी में तब्दील हो गई और पड़ोस के ग्रामोफ़ोन की सूई जो, ‘काली घटा छाई हो राजा काली घटा छाई’ का फ़िल्मी रिकार्ड बैठी हुई आवाज़ में सुना रही थी एक मुक़ाम पर पहुँच कर अटक गई और अब सिर्फ़ दो बोलों का ला-मुतनाही सिलसिला सुनाई देता रहा। काली-घटा, काली-घटा, काली-घटा, काली-घटा, काली-घटा, काली-घटा।”
और फिर एक झटके के साथ ग्रामोफ़ोन बन्द हो गया। कबूतरों की जोड़ी फुर्र कर के हवा में उड़ गई और दोपहर के सन्नाटे में टाइम-पीस की टिक-टिक दफ़्अ’तन ऐसी सुनाई दी जैसे वक़्त दिमाग़ पर हथौड़े मार-मार कर अपनी अहमियत को मनवा रहा हो।
बिमला तड़प कर माधव की आग़ोश से निकल गई और उसके बाल जो देर से नहाने के बा’द उसने जल्दी-जल्दी जूड़े में बाँध लिए थे अब खुल कर उसके शानों पर लहरा गए, उसने घबरा कर घड़ी की तरफ़ देखा। कमरे में आए हुए उसे तीन मिनट भी न हुए थे। मगर इतने से अर्से में दुनिया ही बदल गई थी।
“काली-घटा।” माधव ने खिसियानी सी मुस्कुराहट के साथ कहा।
“क्या? वो रिकार्ड।” बिमला ने जल्दी से पूछा।
“नहीं, रिकार्ड नहीं... ये तुम्हारे बाल, ये भी तो काली घटा से कम नहीं।”
और बिमला ने शर्मा कर अपने बालों को आँचल में छिपा लिया और बोली, “चलो-चलो मज़ाक़ छोड़ो और मिठाई खाओ।”
“बिमला तुम तो पास हो गईं, मगर मैं... फ़ेल हो गया।”
“तुम फ़ेल हो गए! क्यों? कैसे? तुम तो हर वक़्त किताब पढ़ते रहते थे।”
“पढ़ता तो था बिमला, पर मेरा मन इन किताबों में नहीं लगता था कुछ और ही सोचता रहता था।”
“क्या सोचते थे?”
“सच बता दूँ? तुम्हारे और अपने बारे में सोचता था।”
बिमला शर्मा कर ख़ामोश हो गई, माधव बोलता रहा, “बिमला अगर मुझे तुम्हारी तरफ़ से ज़रा भी आशा हो तो मैं बहुत जी लगा कर पढ़ूँगा। अगले बरस ज़रूर पास होउँगा। हम घर के बहुत ग़रीब हैं मगर मैं बी. ए. कर लूँगा तो मुझे ज़रूर अच्छी सी नौकरी मिल जाएगी। फिर तो शायद माँ जी को इन्कार नहीं होगा? क्यों ठीक है ना?”
बिमला ने साड़ी का पल्लू ठीक करते हुए कहा, “मैं क्या जानूँ, जब वक़्त आएगा तो माँ जी से पूछना।” मगर जिस अन्दाज़ में उसने ये कहा, और जिस अन्दाज़ से उसने माधव की तरफ़ देखा, उसमें इक़रार ही इक़रार था और फिर वो वहाँ से चली आई।
घर आई तो माँ ने कहा, “अरी कहाँ रह गई थी... इतनी देर कर दी।”
मगर इससे पहले कि बिमला कोई बहाना बना सके। माँ ने एक ख़त उसके सामने रख दिया, “ज़रा ये तो पढ़, तेरे बाबा की चिट्ठी आई है बंबई से, मेरा तो डाकिए को देख कर ही दिल धकड़-पकड़ करने लगता है। हाँ तो क्या लिखा है?”
“माँ, बाबा ने लिखा है कि मुझे रहने को अच्छा कमरा मिल गया है। कोई जगह है परेल वहाँ। सो वो कहते हैं, तुम लोग घर को किराये पर चढ़ा कर यहाँ आ जाओ।”
सो बिमला और उसकी माँ और उसके भाई-बहन सब बंबई चले आए और अपने झाँसी वाले तीन कमरों एक बरामदे और एक छोटे से आँगन वाले मकान के बजाए परेल की एक चाल की एक खोली में रहने लगे। ये खोली इतनी छोटी थी कि रात को बंसी लाल और दोनों लड़कों को बाहर बालकनी ही में सोना पड़ता था। मगर उसके लिए भी चार सौ रुपए पगड़ी के देने पड़े थे और बीस रुपए माहवार किराया। तब ही तो हज़ारों बेचारे हर रात को फ़ुट-पाथ पर सो कर ही ज़िन्दगी गुज़ार देते थे, बिमला ने एक दिन अपने बाप से पूछा, “बाबा इन लोगों को उस पथरीले फ़ुट-पाथ पर कैसे नींद आई होगी।”
और उसने एक ठंडी साँस ले कर कहा, “बेटी नींद कहीं भी आ सकती है।”
बिमला ने झिझकते हुए पूछा, “बाबा कभी तुम भी फ़ुट-पाथ पर सोए हो।”
और उसका जवाब सुन कर वो हैरत में रह गई। “एक-दो दिन नहीं बिमला, महीनों, ग्यारह बरस पहले जब मैं बंबई आया था, तो ट्राम कंपनी में नौकरी मिलने से पहले बेकारी के दिन फ़ुट-पाथ पर ही सो कर गुज़ारे हैं।”
खोली छोटी थी मगर बंबई शह्र बहुत बड़ा था और जल्द ही बंबई की रंगीन गहमा-गहमी में बिमला खोली की ज़िन्दगी की मुश्किलात को भूल गई, बालकनी ही में खड़े-खड़े वो घंटों सैर करती रहती। काली, नीली, लाल, पीली, सफ़ेद... हर रंग और हर साइज़ की मोटरें हर वक़्त दौड़ती रहतीं। दो-मंज़िला बसें और दो-मंज़िला ट्रामें मस्त हाथियों की तरह झूमती हुई गुज़रतीं और लोगों का ताँता तो कभी टूटता ही नहीं था। रात के बारह बजे भी जब क़रीब के मिल में शिफ़्ट बदलता तो सड़क पर मेला लग जाता। सामने मुख़्तलिफ़ फ़िल्मों के बड़े-बड़े रंगीन पोस्टर लगे हुए, जिन पर फ़िल्म स्टारों की बड़ी-बड़ी ख़ूबसूरत तस्वीरें होतीं। हर रोज़ उनमें से कोई न कोई पोस्टर ग़ाइब हो जाता और उसकी जगह किसी नए फ़िल्म का पोस्टर आ जाता और फिर बंसी लाल महीने में दो बार अपने घरवालों के साथ उन्ही में से कोई फ़िल्म देखने जाता। और पाँच आने का टिकट ले कर बिमला एक महल जैसे आलीशान सिनेमा-हॉल में बैठ कर फ़िल्म देखती और हुस्न-ओ-इ’श्क़, नाच और गाने की रुपहली दुनिया में खो जाती मगर फिर कोई हीरो किसी हीरोइन से कहता, “तुम मुझे भूल जाओ कमला, हमारे लिए यही बेहतर है।”
तो बिमला सोचती भुलाना कैसे मुम्किन है। कोई कैसे किसी को भुला सकता है। क्या मैं माधव को भुला सकती हूँ? और माधव की याद उसके दिल में चुटकियाँ लेने लगती और उसके होंट दो जलते हुए होंटों के ख़याल से दहकने लगते।
उनको बंबई आए एक महीना ही गुज़रा था कि झाँसी से एक रजिस्ट्री लिफ़ाफ़ा आया जिस में पाँच रुपए का नोट था और साथ में एक ख़त, ख़त माँ जी के नाम था, मगर पढ़ कर सुनाया बिमला ने, और दो सतरें पढ़ कर ही वो समझ गई कि मज़्मून दर-अस्ल उसी के लिए है।
लिखा था, “माँ जी नमस्ते जब से आप लोग गए हैं, घर में सब किराए-दार आप सब को बहुत याद करते हैं। पड़ोस में मुंशी करामत अ’ली भी कल यही कह रहे थे कि बंसी लाल का परिवार जब से गया है अपनी गली में रौनक़ ही नहीं रही और हाँ वकील साहिब जिन को आप ने मकान किराए पर दिया है। कह रहे थे कि उन्होंने आपके कहने के मुताबिक़ सफ़ेदी करवा ली है। उसके साढ़े पाँच रुपए पहले महीने के किराए में काट लेंगे और हाँ ये भी कह रहे थे कि घर की सफ़ाई हो रही थी तो सामने वाले कमरे की अलमारी में एक काली कंघी मिली है वो उन्होंने मुझे रखने को दे दी है। ये शायद बिमला ही की होगी क्योंकि जो बाल उसमें उलझे हुए थे वो बड़े लम्बे-लम्बे थे। सो वो अगर कहें तो डाक से भेज दूँ नहीं तो जब आप लोग इधर आएँगे तो ले लीजिएगा। बाक़ी सब ख़ैिरयत है, श्री बंसी लाल जी को नमस्ते और हाँ इस लिफ़ाफ़े में पाँच रुपए का नोट भेज रहा हूँ। इस महीने का किराया। कृपा कर के इसकी रसीद ज़रूर भिजवा दें, क्योंकि आजकल डाक का निज़ाम कुछ ठीक नहीं।”
ख़त पढ़ कर बिमला के गालों पर एक तमतमाती हुई लाली दौड़ गई। कितना ढीट है ये माधव, कंघी की कहानी कैसी गढ़ी है... हालाँकि ये कंघी आते हुए ख़ुद बिमला ने उसे निशानी के तौर पर दी थी और माधव ने इस्रार किया था। मुझे कंघी के साथ उसमें उलझे हुए तुम्हारे सर के बाल भी चाहिए। कितना मक्कार है ये माधव, रुपए मनी आर्डर करने के बजाए रजिस्ट्री से भेज कर उनकी रसीद के बहाने जवाब मँगवाने का इन्तिज़ाम भी कर लिया। सो ऐसा ही हुआ। बंसी लाल काम पर जाने लगा तो बीवी ने चिल्ला कर कहा, “अजी ओ, एक पोस्ट-कार्ड लेते आना, माधव को जवाब लिखना है और रुपए जो बिचारे ने भेजे हैं, उनकी रसीद भी भेजनी है, बड़ा ही अच्छा छोकरा है, किराए के साथ ख़त भी भेजा है, नहीं तो आजकल आँख ओझल पहाड़ ओझल। कौन किसी को पूछता है”
बिमला ने सोचा कार्ड पर मैं भी दो-चार शब्द अपनी तरफ़ से लिख दूँगी मगर जब उसकी माँ लिखवाने बैठी तो इतना कुछ बोला कि दोनों तरफ़ से कार्ड भर गया, और आख़िर में वो अपनी तरफ़ से सिर्फ़ इतना लिख पाई, “बिमला तुम्हें याद करती है।”
हफ़्ते के दिन बंसी लाल ने कहा आज सिनेमा नहीं अपालो बन्दर की सैर को चलेंगे, ट्राम में बैठ कर म्यूज़ियम उतरे। पहले तो अजाइब-घर देखा। बिमला को ऐसे लगा जैसे उसकी स्कूल की सारी किताबें ज़िन्दा हो गई हैं। ऐसी सुन्दर मूर्तियाँ तो झाँसी के किसी मन्दिर में भी नहीं। ये बड़ी-बड़ी तस्वीरें और भुस भरे हुए जानवर। शेर, चीते, जंगली भैंसे शीशों के पीछे नक़ली जंगल में खड़े बिल्कुल असली लगते थे। फिर अजाइब-घर से निकल कर वो समुन्दर के किनारे गए जहाँ बड़े-बड़े जहाज़ जिन्नाती खच्चरों की तरह दौड़ते फिर रहे थे। गेटवे आफ़ इंडिया के साए में बच्चे खेल रहे थे। पास ही चाट बिक रही थी। सबने दो-दो आने की चाट खाई। फिर बच्चे दौड़ने भागने लगे, बंसी लाल ने कहा, “मैं तो थक गया।”
और बिमला की माँ बोली, “बिमला तू इन शैतानों का ख़याल रखियो। कहीं पानी में न जा गिरें।”
बच्चे पहले तो गेटवे ऑफ़ इंडिया में खेलते रहे, फिर वो ताजमहल होटल की तरफ़ दौड़े कि शीशों में से होटल की रौनक देखेंगे और बिमला उनके पीछे दौड़ी कि कहीं सड़क पार करते हुए किसी मोटर के नीचे न आ जाएँ, एक शीशे में से झाँका तो अन्दर होटल में अमीर लोग बैठे चाय पी रहे थे। बैंड बज रहा था और एक मेम कुछ गा रही थी लेकिन उसकी आवाज़ शीशे की दीवारों में क़ैद थी और उनको ऐसा लगा जैसे वो सिर्फ़ होंट हिला रही है और हाथों के इशारे कर रही है। अगले शीशे में झाँका तो देखा कि लम्बी गद्दे-दार कुर्सियों पर सफ़ेद कफ़न ओढ़े मुर्दे पड़े हैं और सफ़ेद कोट पहने हुए लोग लम्बे-लम्बे धार-दार चाक़ू लिए उन मुर्दों के गले काट रहे हैं। छोटा मोहन डर के मारे बहन को चिपक गया, “दीदी ये क़साई हैं क्या?”
बिमला ने ग़ौर से देखा तो मा’लूम हुआ कि ये सफ़ेद कोटों वाले बार्वर हैं जो साहब लोगों की दाढ़ियाँ मूँड रहे हैं। अगले शीशे में बे-जान मेमें रेशमी फ़्रॉक पहने खड़ी थीं। उससे आगे के शीशे के पीछे मेमों के कटे हुए सर सजे हुए थे, किसी के सिर पर सुनहरी बाल, किसी के काले, किसी के भूरे, किसी के घुँगराले, किसी के बिल्कुल मर्दों की तरह कटे हुए, किसी की लम्बी चोटियाँ और उनके क़रीब ही बालों की नक़ली चोटियाँ लटकी हुई थीं। बिमला ने सोचा इन नक़ली चोटियों का क्या होता होगा और दिल ही दिल में उनकी लम्बाई का अपने बालों की लम्बाई से मुक़ाबला किया और ये सोच कर मुस्कुरा दी कि भला मेरे बालों की लम्बाई का कौन मुक़ाबला कर सकता है।
अन्दर से एक काली मेम निकल कर बाहर जा रही थी, बिमला ने हिम्मत कर के उससे पूछा, “मेम साहब ये बाल यहाँ बिकते हैं क्या?”
मेम बोली, “हाँ हाँ, इधर इन का सेल होता है।”
“मगर मेम साहब ये आते कहाँ से हैं? क्या मुर्दों के बाल काट लेते हैं?”
“नो नो...” मेम हँस कर बोली, “ज़िन्दा लोगों का बाल इधर आता है।”
और फिर जैसे ही उसकी नज़र बिमला की नागिन की तरह लहराती हुई लम्बी चोटी पर पड़ी, उसकी आँखें खुली की खुली रह गईं। “छोकरी तुम्हारा ये बाल असली है या नक़ली?”
“बिल्कुल असली है मेम साहब।”
“वेरी गुड, इन बालों का हम तुमको बहुत दाम दे सकता है, टू रुपीज़ एेन इंच, तुम को कोई सौ रुपए मिल सकता है।”
“जी क्या कहा मेम साहब? तुम चाहती हो मैं अपने बाल कटवा दूँ। नहीं जी मुझे क्षमा करो।”
और फिर बच्चों को घसीटते हुए “चलो-चलो यहाँ से भाग चलें, कहीं ये मेम साहब बालों के बा’द मेरा सर भी न काटने लगें।”
सो वक़्त गुज़रता गया। हर महीने माधव का ख़त आता रहा और माँ की तरफ़ से बिमला जवाब लिखती रही मगर एक महीने माधव का ख़त जो आया वो रजिस्ट्री नहीं था। सादे लिफ़ाफ़े में था और जब वो खोला गया तो उसमें पाँच का नोट भी नहीं था। लिखा था, “माँ जी मुझे बड़ी शर्मिंदगी है कि इस बार वक़्त पर आपको किराया नहीं भेज पाया। इम्तिहान क़रीब आ गया है। उसके लिए एक किताब ख़रीदनी थी। किराए के रुपयों से वो ख़रीद ली। पन्द्रह दिन में इम्तिहान की फ़ीस भरनी है। लगभग सौ रुपए चाहिए मगर मेरे पिताजी की हालत ख़राब है। इस बरस फ़स्ल ख़राब हुई है। जानवरों की बीमारी में दो बैल भी मर गए। इसलिए उन्होंने साफ़ लिख दिया है ‘मैं तो कोई इन्तिज़ाम नहीं कर सकता।’ इस वज्ह से मैं बहुत परेशान हूँ, सब रिश्तेदारों, दोस्तों को मदद के लिए लिख रहा हूँ। देखिए किसी ने वक़्त पर रुपए भेज दिए तो ठीक है। वर्ना एक साल और बेकार हो जाएगा। एक साल तो पहले ही फ़ेल हो कर खो चुका हूँ। ईश्वर से प्रार्थना कीजिए कि कोई बन्द-ओ-बस्त हो जाए। श्री बंसी लाल जी को नमस्ते बिमला से कहिएगा अगर मुझे ये घर छोड़ना पड़ा तो उसकी कंघी डाक से भेज दूँगा।”
बिमला ने सोचा सौ रुपए कहाँ से लाऊँ, ये तो बहुत बड़ी रक़म होती है। बाबा महीने भर आठ घंटे रोज़ ट्राम चलाते हैं। तब सब कुछ कट-कटा कर सौ रुपए मिलते हैं। उसके पास तो कोई सोने का ज़ेवर भी नहीं कि वो ही बीच डाले, चाँदी के दो-तीन गहने हैं। एक हँसली एक छागल, हाथों की चार चूड़ियाँ, न जाने चाँदी का क्या भाव है? उसने सोचा।
अगले दिन माँ की नज़र बचा कर उसने गहनों को अपनी साड़ी के पल्लू में बाँधा और क़रीब के एक सुनार के हाँ पहुँची। उसने आँक कर सब गहनों की अठारह रुपए क़ीमत लगाई मगर साथ में ये भी कहा कि बेचने वाले को नाम-पता भी रजिस्टर में लिखवाना पड़ेगा, बिमला डरी कि माँ-बाप को मा’लूम हो गया तो पिटाई हो जाएगी। जल्दी से बोली, मैं अपना नाम नहीं लिखवाना चाहती। सुनार ने उसे ऐसी नज़र से देखा जैसे वो ये गहने चुरा कर लाई हो।
“अच्छा ऐसा है तब तो मैं पन्द्रह रुपए से ज़ियादा नहीं दे सकता।”
मगर पन्द्रह रुपए से सौ रुपए का काम कैसे चलेगा, ये सोच कर वो चली आई। कई दिन तक वो उसी सोच में रही कि माधव को सौ रुपए भेजूँ तो कैसे भेजूँ लेकिन कोई तरकीब समझ में न आई, रात की नींद भी उड़ गई, सुब्ह होते आँख भी लगती तो ख़्वाब देखती कि ज़मीन से ले कर आस्मान तक ऊँची एक सीढ़ी है और उसके नीचे माधव खड़ा कह रहा है, “बिमला ये तरक़्क़ी का ज़ीना है पर सौ रुपए फ़ीस दिए बिना इस पर चढ़ने की इजाज़त नहीं मिल सकती।” कभी देखती समुन्दर में तूफ़ानी लहरें उठ रही हैं और उन लहरों में माधव ग़ोते खा रहा है। बिमला उसे देख कर समुन्दर में कूद पड़ती है और ग़ोते खाने लगती है उस वक़्त माधव चिल्ला कर कहता है, “बिमला जल्दी से सौ रुपए का नोट सागर देवता की भेंट कर नहीं तो हम दोनों आज डूब जाएँगे।” और कभी सपने में उसे महसूस होता कि दो जलते हुए होंट उसके होंटों में पैवस्त हुए जा रहे हैं और वो अज़ीयत भरी मसर्रत के अंधेरे में डूबती जा रही है कि दफ़्अ’तन कोई शैतानी हाथ माधव को उसकी आग़ोश से घसीट कर दूर एक चट्टान पर पटख़ देता है। और एक डरावनी आवाज़ सपने में भी उसका दिल दहला देती है, “पहले सौ रुपए लाओ सौ रुपए।”
चीख़ मार कर उसकी आँख खुली तो दिन चढ़ चुका था और उसकी माँ कह रही थी, “अरी क्या हुआ? सपने में डर गई थी क्या?”
उस दिन बिमला ने माँ से कहा, “बाबा को बहुत मेहनत करना पड़ती है माँ, फिर भी हमारा ख़र्चा पूरा नहीं होता, मैं भी कहीं नौकरी कर लूँ तो कैसा हो?”
पहले तो उसकी माँ को ये ख़याल ही बुरा लगा। “पागल हुई है री, ऐसे बद-नज़र शह्र में छोकरियों का काम पर जाना मुझे तो बिल्कुल नहीं पसन्द, क्रिस्चियन छोकरियों की बात और है।” मगर कुछ सोच कर ये भी कहा, “ख़ैर तेरे बाबा आएँगे तो उनसे कहूँगी, तू जाने और वो जानें।”
बिमला का ख़याल था बाबा कभी इजाज़त नहीं देंगे मगर बंसी लाल ने बीवी की बात सुन कर कहा, “ठीक तो कहती है बिमला, इस तनख़्वाह पर तो मैं इन बच्चों को बंबई में नहीं पढ़ा सकता, बिमला की छोटी-मोटी नौकरी लग जाए तो बड़ा सहारा हो जाएगा।”
और फिर बिमला से, “बड़े वक़्त पर याद आया, अरी तूने हिन्दी का भूषण पास किया है ना? बस फिर काम बन जाएगा। अपने पड़ोसी हैं ना रतन लाल जी, वो कह रहे थे कि उनकी मिल में जो सोशल वर्कर है वो मज़दूरों के लिए हिन्दी क्लासें खोलना चाहती हैं उन्हें ज़रूर हिन्दी टीचरों की ज़रूरत होगी।”
बाहर बोर्ड पर लिखा था, “मिस सीता देवी राम चंद सोशल वर्क्ज़” मगर बिमला अन्दर जो पहुँची तो देखा सफ़ेद कुर्ता पाजामा पहने एक दुबला सा गोरा सा लड़का बैठा है। “जी क्षमा कीजिए, मैं सीता देवी जी से...” और ये कहते हुए वो उल्टे पैरों लौटना चाहती थी कि उस ‘लड़के’ ने इशारे से उसे रोका और मुस्कुरा कर कहा, “मैं ही सीता देवी हूँ, कहो क्या काम है?”
तब बिमला ने देखा कि ‘लड़का’ दर-अस्ल उससे उ’म्र में कुछ बड़ी लड़की है, जिसके बाल लड़कों की तरह छोटे-छोटे कटे हुए हैं और जो खद्दर का कुरता और लड़कों जैसा ढीले पाइंचों का खद्दर का पाजामा पहने हुए है, और न जाने क्यों बिमला को यूँ महसूस हुआ जैसे इस सीता देवी के लड़कों जैसे बाल उससे कुछ कह रहे हैं मगर वो क्या कह रहे हैं, ये वो उस वक़्त न समझ सकी।
उसके भूषण के सर्टीफ़िकेट पढ़ कर ही सीता देवी ने बिमला को हिन्दी टीचर की नौकरी देना मन्ज़ूर कर ली।
“काम सिर्फ़ चार घंटे रोज़ और तनख़्वाह सिर्फ़ पचास रुपए माहवार। हफ़्ते में एक दिन छुट्टी, साल में एक महीने छुट्टी।”
“और पेशगी? क्या दो महीने की तनख़्वाह पेशगी मिल सकेगी?”
सीता देवी ने जवाब में कहा, “बिमला तुम बैठ जाओ और फिर बात करो। तुम बंबई में बिल्कुल नई और सीधी मा’लूम होती हो। जानती हो कितनी मुश्किल से और कितने दबाव डाल कर मैंने मिल मालिकों को हिन्दी क्लासें चलाने पर राज़ी किया है। अगर कहीं उनको मा’लूम हुआ कि हिन्दी टीचर दो महीने की तनख़्वाह एडवांस माँग रही है तो सेठों को दिल का दौरा पड़ जाएगा।”
और फिर कुर्सी आगे सरका कर धीमे लहजे में जैसे एक सहेली दूसरी सहेली से बात करती है, “मगर तुम्हें ये एडवांस क्यों चाहिए? घर में कोई बीमार है तो मैं इ’लाज का इन्तिज़ाम कर सकती हूँ।”
“नहीं-नहीं बहन जी घर में कोई बीमार नहीं है।”
“तो तुम्हारा ब्याह है क्या? ऐसी सूरत में तुम्हारे पिता को एडवांस दिलवाया जा सकता है, ट्राम कंपनी के सोशल वर्कर के ज़रिये।”
“नहीं-नहीं बहन जी बाबा को तो इस बात का पता भी चल गया तो बुरा होगा। अच्छा अब मैं जाती हूँ। कल से काम पर आ जाऊँगी।”
मिल से लौटते वक़्त वो ट्राम में ऊपर जाकर बैठ गई। हालाँकि उसका घर वहाँ से दूर नहीं था, मगर उस वक़्त वो कहीं अलग बैठ कर इस मस्अले पर सोचना चाहती थी, कंडक्टर ने पूछा, “कहाँ का टिकट काटूँ।”
उसने कह दिया जहाँ तक ये ट्राम जाएगी।” और फिर अपने ख़यालात में खो गई।
दफ़्अ’तन उसे ऐसा महसूस हुआ कि ट्राम ख़ाली है और नीचे कोई ट्राम की आहनी दीवारों को धड़-धड़ पीट रहा है, “ए देवी जी, म्यूज़ियम आ गया, उतरना है या वापस जाना है?”
वो नीचे उतर आई और बे-ख़याली में अपालो बन्दर की तरफ़ चलने लगी, दो मोटरों के नीचे आते-आते बची, जल्दी से फ़ुट-पाथ पर हो ली। उसके बा’द उसे होश आया तो वो शीशे की दीवार के सामने खड़ी उसमें सजे हुए मेमों के सरों को देख रही थी। किसी के सर पर सुनहरी बाल किसी के सर पर काले, किसी पर भूरे, किसी के घुंघराले, किसी के बिल्कुल मर्दों की तरह कटे हुए।
और यकायक उसकी समझ में आ गया कि सीता देवी के लड़कों जैसे बाल उससे क्या कह रहे थे।
टैक्सी कराफ़ोर्ड मार्केट से आगे निकल चुकी थी।
बिमला ने पूछा, “तुमने इम्तिहान पास कर लिया और हमें मिठाई भेजना तो क्या, ख़बर भी न भेजी। माता जी को तो बहुत चिन्ता थी कि न जाने माधव का क्या हुआ। हमारा घर जब से छोड़ा एक चिट्ठी भी न भेजी?”
“बिमला क्या बताऊँ... मैं कुछ ऐसे ही कामों में फँसा हुआ था। छः महीने दिल्ली में रहा, वहाँ से कानपुर गया, फिर कलकत्ते मगर अब मैं बंबई आ गया हूँ, हमेशा के लिए।”
“बी. ए. हो, नौकरी तो अच्छी मिली होगी?”
“नौकरी तो अच्छी है मगर मैं ने बी. ए. नहीं किया, इम्तिहान नहीं दे सका।”
“इम्तिहान नहीं दिया! तो वो फ़ीस...”
“फ़ीस का भी अ’जीब क़िस्सा हुआ बिमला! याद है मैंने तुम्हारी माता जी को इस बारे में ख़त लिखा था? इसी तरह और भी दस बारह रिश्तेदारों और दोस्तों को ख़त लिखे थे। उनमें से तीन तो बंबई में थे मगर किसी ने फूटी कौड़ी तक नहीं भेजी और फ़ीस भरने की आख़िरी तारीख़ गुज़र गई। अगले दिन मैं तुम्हारा घर छोड़ कर वापस गाँव जाने की सोच रहा था कि डाकिए ने एक तार का मनी आर्डर कर दिया, सौ रुपए का, मगर उस पर भेजने वाले का न नाम था न पता और आज तक ये न मा’लूम हो सका कि ये मेह्रबानी किस की थी, मगर उन सौ रूपयों से मेरी क़िस्मत बदल गई।”
“तो क्या किया उन रूपयों का तुमने?”
“मैंने इम्तिहान की फ़ीस देकर ब़ी ए़ की एक बेकार डिग्री लेने के बजाए साठ रुपए का एक बढ़िया सूट सिलवाया और बाक़ी रुपए ले कर दिल्ली पहुँच गया। वहाँ एक दोस्त ने इस काम में लगवा दिया सो तुम देख सकती हो कि मैं कितना कामयाब हूँ।” और ये कह कर उसने अपनी रेशमी टाई की गिरह को ठीक किया।
“क्या है तुम्हारा काम?”
“मेरा काम यही है कि...” मगर इतने में टैक्सी एक छः मंज़िला इमारत के नीचे जा कर खड़ी हो गई सो माधव ने कहा, “अभी मा’लूम हो जाएगा तुम्हें।”
बिमला पहली बार लिफ़्ट में चढ़ कर चौथी मन्ज़िल तक पहुँची, माधव उसे ले कर बड़ी बे-तकल्लुफ़ी से एक दफ़्तर में दाख़िल हुआ और टाइपिस्ट लड़कियों के बीच में से “हैलो, हैलो” कहता हुआ एक कमरे में गया, जो इतना ठंडा था कि अन्दर घुसते ही बिमला को छींकें आने लगीं।
“लगता है एयर कंडीशनिंग की आदत नहीं है तुम्हें। अच्छा तुम बैठो मैं अभी आता हूँ, ये कह कर वो बाहर गया और बिमला ने सहमी हुई निगाहों से इधर-उधर देखा। ज़मीन पर गहरा नीला क़ालीन इतना नर्म और दबीज़ कि पाँव धँसे जाते थे। एक मेज़ काग़ज़ों और तस्वीरों से लदी हुई, तस्वीरें सब ख़ूबसूरत औ’रतों की, एक तरफ़ तीन टाँगों पर लदा हुआ बड़ा सा सिनेमा का कैमरा। दो-तीन और कमरे। तीन बड़े-बड़े बल्बों के लैम्प जिनकी रौशनी चुन्धियाने वाली थी और एक छोटी तिपाई पर लाल-लाल तेल की बोतलें जिनके लेबलों पर खुले बालों वाली एक लड़की की तस्वीर थी और तेल का नाम लिखा था...
“काली घटा हेयर ऑयल”
सामने एक ब्लैक बोर्ड और उस पर हिन्दी हुरूफ़ में लिखा था, “मेरे बाल इतने लम्बे सिर्फ़ इसलिए हैं कि मैं हमेशा काली घटा हेयर ऑयल इस्ते’माल करती हूँ।”
वो उन सब अन-मेल और बे-जोड़ चीज़ों का आपस का तअ’ल्लुक़ समझ नहीं पाई थी कि इतने में दरवाज़ा खुला और एक गंजा सा मोटा सा आदमी मोटे-मोटे शीशों की ऐ’नक पहने दाख़िल हुआ। और अंग्रेज़ी में बोला, “ओ हैलो, सो यू आर किरन्ज़ गर्लफ्रेंड? (So you are kiran's girl friend?)”
“जी मैं माधव के साथ आई हूँ।”
“माधव? कौन माधव! वो तुम्हारा मत्लब है अपना किरण कुमार, वेरी स्मार्ट ब्वॉय।”
और उसी वक़्त माधव दाख़िल हुआ, हाथ में एक कंघा लिए हुए।
“माधव ये क्या, तुम ने अपना नाम बदल लिया है क्या?”
“हाँ बिमला, माधव जैसे भोले नाम से इस दुनिया में कोई तरक़्क़ी नहीं कर सकता, हाँ तो देखो तुम अपने बालों में कंघी कर रही हो। तुम्हारा मुँह दूसरी तरफ़ है। कैमरा सिर्फ़ तुम्हारे बालों पर है, धीरे-धीरे कैमरा पीछे जाता है अब हम तुम्हारे बालों की हैरत-अंगेज़ लम्बाई दिखाते हैं, अब तुम आहिस्ता-आहिस्ता कैमरे की तरफ़ मुड़ती हो, मुस्कुराती हो और कहती हो, “मेरे बाल इतने लम्बे सिर्फ़ इसलिए हैं कि मैं हमेशा काली घटा हेयर ऑइल इस्ते’माल करती हूँ।”
“मगर माधव मेरे बाल तो...”
इसमें शर्माने की कोई बात नहीं। ये तो बिज़नेस है, धंदा है, काम है। क्यों शर्मा जी ठीक कहता हूँ? हाँ तो बिमला, चंद मिनट पोज़ करने के पूरे सौ रुपए तुम्हें मिलेंगे। ये फ़िल्म प्रोड्यूस करने के हज़ार रुपए मुझे मिलेंगे और इस फ़िल्म को बनाने के ठेके में पाँच हज़ार का मुनाफ़ा’ होगा शर्मा जी को। हाँ तो शर्मा जी अब आप हिन्दुस्तान के ही नहीं, एशिया के ही नहीं, दुनिया के सबसे लम्बे बाल देखेंगे।”
और ये कह कर उसने ड्रामाई अन्दाज़ में बिमला के सर से पल्लू खींच लिया और बिमला ने शर्म के मारे अपना मुँह छुपा लिया।
माधव चिल्लाया, “बिमला! तुमने ये क्या किया?”
और शर्मा ने कहा, “किरण, ये सब क्या है, हमसे मज़ाक़ करते हो।”
“हिन्दुस्तान के ही नहीं, एशिया के ही नहीं, दुनिया के सबसे लम्बे बाल? साढ़े पाँच इंच लम्बे। इसी प्रोग्राम के तुम हज़ार रुपए माँग रहे थे?”
“मगर मिस्टर शर्मा...”
“गेट आउट और अब मुझे अपनी सूरत कभी न दिखाना और न किसी दूसरी ऐडवर्टाइज़िंग कंपनी में घुसने की कोशिश करना मैं तुम्हारी इस हरकत की रिपोर्ट अपनी एसोसिएशन को भेजने वाला हूँ।”
टैक्सी के बजाए अब वो ट्राम में लौट रहे थे।
बिमला ने पूछा, “अब मैं तुम्हें माधव कहूँ या मिस्टर किरण कुमार?”
“मिस्टर किरण कुमार मर गया, माधव ही कहो।”
“मुझे मुआ’फ़ करना माधव, मैंने बाल कटवा कर तुम्हारा इतना नुक़्सान करवा दिया।”
“वो तो हुआ मगर बिमला मेरी समझ में नहीं आता कि तुमने ऐसा किया क्यों?”
“कंघी करने में बहुत वक़्त जाता था, अब मैं रोज़ काम पर जाती हूँ ना, मिल में मज़दूरों को हिन्दी पढ़ाने, वही हिन्दी जो तुमने मुझे पढ़ाई थी।”
“तो क्या मुझे ऐसा काम नहीं मिल सकता? छोटी सी नौकरी भी मिल जाए तो मैं तुम्हारे पिता जी से बात करूँ।”
“क्यों नहीं, हमारे यहाँ ही काम कर सकते हो। अब वो मिल में बा-क़ायदा स्कूल बनाना चाहते हैं। तुम तो प्रभाकर हो, डेढ़ सौ रुपए मिल जाएँगे, सारे दिन पढ़ाने के।”
“और तुम?”
“मैं चार घंटे पढ़ाऊँगी।”
“और बाक़ी वक़्त?”
“बाक़ी वक़्त तुम्हारे घर की देख-भाल करूँगी।”
“मेरा घर?”
“नहीं मेरा घर।”
और उन दोनों ने चलती ट्राम में एक दूसरे की आँखों में आँखें डाल के देखा और न जाने कितनी देर देखते ही रहे, और उस वक़्त बिमला को मा’लूम हुआ कि निगाहों का तवील बोसा भी होंटों के प्यार से कम तकलीफ़-देह और कम लज़्ज़त-बख़्श नहीं होता।
“चलो-चलो टर्मिनस आ गया ट्राम ख़ाली करो।” कंडक्टर की आवाज़ ने वो तिलिस्म ख़त्म कर दिया, घबरा कर दोनों उठे, जैसे चोर पकड़े गए हों। कंडक्टर खड़ा उनकी तरफ़ देख कर मुस्कुरा रहा था... “बाबा!” बिमला चिल्लाई, “ये हैं...” मगर अब वो माधव का नाम न ले सकी।
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