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कातियाइन बहनें

मुशर्रफ़ आलम ज़ौक़ी

कातियाइन बहनें

मुशर्रफ़ आलम ज़ौक़ी

MORE BYमुशर्रफ़ आलम ज़ौक़ी

     

    एक ज़रूरी नोट
    क़ारईन! कुछ कहानियाँ ऐसी होती हैं जिनका मुस्तक़बिल मुसन्निफ़ तय करता है लेकिन कुछ कहानियाँ ऐसी भी होती हैं जिनका मुस्तक़बिल कहानी के किरदार तय करते हैं। या’नी जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती जाती है, अपने मुस्तक़बिल के ताने-बाने बुनती जाती है और हक़ीक़त में मुसन्निफ़ अपने किरदारों को रास्ता दिखा कर ख़ुद पीछे हट जाता है।

    ऐसा इस कहानी के साथ भी हुआ है... और ऐसा इसलिए हुआ है कि इस कहानी का मौज़ू’ है... “औ’रत”

    कायनात में बिखरे तमाम असरार से ज़ियादा पुर-असरार, ख़ुदा की सबसे हसीन तख़्लीक़। या’नी अगर कोई ये कहता है कि वो औ’रत को जान गया है तो शायद उससे ज़ियादा “घामड़” और शेख़ी बघारने वाला, या इस सदी में उतना बड़ा झूटा कोई दूसरा नहीं हो सकता। औ’रतें जो कभी घरेलू या “पालतू” हुआ करती थीं। छोटी और कमज़ोर थीं। अपनी पुर-असरार फ़ितरत या मकड़ी के जाले में सिमटी, कोख में मर्द के नुतफ़े की परवरिश करतीं... सदियाँ गुज़र जाने के बा’द भी वो महज़ “बच्चा देने वाली एक गाय” बन कर रह गई थीं मगर शायद सदियों में मर्द के अंदर दहकने वाला ये नुतफ़ा शांत हुआ था। या औ’रत के लिए ये मर्द धीरे-धीरे बाँझ या सर्द या महज़ बच्चा पैदा करने वाली मशीन का एक पुर्ज़ा बन कर रह गया था... तो ये इस कहानी की तमहीद नहीं है कि औ’रत अपने इस एहसास से आज़ाद होना चाहती है... शायद इसीलिए इस कहानी का जनम हुआ... या इसलिए कि औ’रत जैसी पुर-असरार मख़लूक़ को अभी और “कुरेदने” या उस पर तहक़ीक़ करने की ज़रूरत है... हमने अभी भी इस मुहज़्ज़ब दुनिया में, उसे सिर्फ़ मुक़द्दस नामों या रिश्तों में जकड़ रखा है।

    तो क़ारईन! ये कोई परियों की कहानी नहीं है। यहाँ दो बहनें हैं... कातियाइन बहनें। मुम्किन है इन बहनों के नाम पर आपको “लोलीता”, “ऐना कैरेनीना” और “मादाम बोवारी” की याद आ जाए मगर नहीं ये दूसरी तरह की बहनें हैं। मर्दों की “हाकिमी” को ललकारने वाली... तो इस कहानी का जनम कुछ “ख़ास” हालात में हुआ है।

    एक वाक़िआ’
    गरचे ये कोई फ़िल्मी मंज़र नहीं था... लेकिन ये फ़िल्मी मंज़र जैसा ही था। मिस कातियाइन के हाथों से सब्ज़ी का थैला फिसला और दो बड़े-बड़े आलू लुढ़कते हुए भूपेंद्र परीहार के पाँव से टकराए। भूपेंद्र परीहार, उ’म्र एक कम बासठ साल, थोड़ा लहराए... थोड़ा रुके... आलुओं को उठाया और सब्ज़ी मंडी की एक दुकान पर खड़ी मिस कातियाइन पर जी जान से निछावर हो गए।

    “आप मिस कातियाइन हैं ना...? वो ‘अन्ना की डाली’ वाली दुकान के सामने वाले घर में...?”

    “हाँ।”, मिस कातियाइन इतना बोल कर ख़ामोश हो गईं। शायद उन्हें गुफ़्तगू का ये अंदाज़ पसंद नहीं आया। वो भी ऐसी जगह? सब्ज़ी मंडी में... कोई “मर्द” इस तरह किसी औ’रत से इस तरह बात करे, उन्हें अच्छा नहीं लगा...

    “मैं वहीं रहता हूँ... आपके घर के पास... थैला भारी है?”

    पता नहीं कहाँ से भूपेंद्र परीहार के लहजे में इतना अपनापन सिमट आया था।

    “नहीं कोई बात नहीं...”

    “दीजिए ना! मैं उठा लेता हूँ...”

    भूपेंद्र परीहार ने आराम से थैला उठाया और सब्ज़ी मंडी की धूल-भरी सड़कों पर दोनों चुप-चाप चलने लगे। हाँ भूपेंद्र परीहार कुछ लम्हे के लिए ये बिल्कुल ही भूल बैठे थे कि वो कोई नौजवान नहीं, बल्कि एक कम बासठ साल के घोड़े पर सवार हैं...

    लेकिन घोड़े में अचानक जोश आ गया था।

    एक आलीशान मगर पुराने ज़माने का चंदन की लकड़ी का बना हुआ मेहराब-नुमा दरवाज़ा था। ये दरवाज़ा चुरचुराने की भयानक आवाज़ के साथ किसी हॉरर फ़िल्म की तरह खुलता था... इसके बा’द काफ़ी खुला हुआ सेहन था। ग़रज़ ये एक टूटा फूटा सा बे-रौनक़ घर था। यहाँ आप हमेशा हर मौसम में बड़ी मिस कातियाइन को देख सकते हैं... झुकी हुई नज़रें, हाथों में पकड़ी हुई तीलियाँ... एक तरफ़ पड़ा हुआ ऊन का “गुच्छा”। तीलियों में उलझे हुए हाथ... या’नी दुनिया से बे-ख़बर मिस कातियाइन स्वेटर बुन रही हैं। जाड़ा हो गर्मी या बरसात, मिस कातियाइन की बस इतनी सी दुनिया है... गहरी फ़िक्र, ऊन का गोला और तीलियाँ। लेकिन ये बातें ज़ियादा तवज्जोह-तलब नहीं हैं कि बड़ी मिस कातियाइन ये स्वेटर किसके लिए बुनती हैं। उन्हें पहनने वाला कौन है? या बस स्वेटर बुनना मिस कातियाइन का एक शग़्ल है... एक ही स्वेटर को बार-बार उधेड़ते रहना और बनते रहना...

    “अंदर आ जाईए...”

    छोटी मिस कातियाइन ने इशारा किया। भूपेंद्र परीहार थैला लिए सेहन में आ गए... हमेशा की तरह बड़ी मिस कातियाइन ने गर्दन घुमा कर छोटी मिस कातियाइन के साथ अंदर आते हुए अजनबी, को देखा... लेकिन आँखों में हैरानी का शाइबा तक न था। चेहरा पत्थर जैसा बे-हिस।

    “ये पड़ोसी हैं...”, छोटी मिस कातियाइन ने बड़ी के सामने थैले की तरफ़ इशारा करते हुए कहा..., “भारी था... इसलिए मदद करने चले आए।”

    भूपेंद्र परीहार को यक़ीन है कि छोटी कातियाइन की वज़ाहत पर बड़ी की आँखों में एक हल्की सी चमक ज़रूर लहराई होगी हालाँकि इस चमक को वो सिर्फ़ महसूस कर सकते थे। इसलिए कि दूसरे ही लम्हे स्वेटर बुनते पत्थर के मुजस्समे से आवाज़ आई थी..., “बैठिए ना...”

    ये कातियाइन बहनों के हाँ भूपेंद्र परीहार की पहली ऐन्ट्री (Entry) थी।

    कुछ भूपेंद्र परीहार के बारे में
    भूपेंद्र परीहार मर्द आदमी थे। मर्दों के बारे में उनकी अपनी राय थी... एक ख़ास तरह का फ़ैसीनेशन (Fascination) था इस लफ़्ज़ के बारे में... मसलन वो सोचते थे कि मर्द एक शानदार जिस्म रखता है। ख़ुशबू में डूबा हुआ जिस्म... एक सदाबहार, मस्त-मस्त, किसी तनावर दरख़्त की तरह शान से ईस्तादा... बे-पर्वा, बे-नियाज़ किसी को ख़ातिर में न लाने वाला, औ’रत या बीवी जैसी चीज़ उसी जिस्म को क़ैद में रखना चाहती है। ये जिस्म बे-लगाम घोड़े की तरह है... शाह-राहों को रौंदता... मंज़िलों को पीछे छोड़ता... समंदर की तरह बे-ख़ौफ़... लहरों की तरह चीख़ता-दहाड़ता... तूफ़ान की तरह गरजता। या शेर-ए-बब्बर की तरह बे-क़ाबू... सरकश और धरती को अपने ताक़तवर पंजों से रौंदने वाला। ये जिस्म किसी एक दर्रे में नहीं छुप सकता... किसी एक बैरक में क़ैद नहीं रह सकता... किसी एक क़ैद-ख़ाने में, किसी एक घर में या किसी एक औ’रत में...

    लेकिन होता किया है, वक़्त आने पर ये जिस्म एक औ’रत के हवाले कर दिया जाता है, और कहा जाता है बस... इसे तुम्हारे हवाले किया। बस यही है... अपने जिस्म की पतवार जैसे चाहो इस पर इस्ति’माल करो।

    मिसिज़ परीहार आ’म औ’रतों जैसी ही एक औ’रत थी... जिसके लिए ज़िंदगी का मतलब एक कुन्बे या शौहर और बच्चों से ज़ियादा कुछ नहीं होता। या शायद बच्चे के आने के बा’द शौहर की भी कुछ ज़ियादा हैसियत नहीं रहती। सुमन के आने के बा’द मिसिज़ परीहार की ज़िंदगी का यही एक मक़सद रह गया था। सुमन। सिर्फ़ सुमन। इसलिए शायद कभी-कभी शौहर के पतवार जैसे तने जिस्म की मांग को भी वो नज़र-अंदाज कर जाती...

    “नहीं... उसे इतना प्यार मत दो। भगवान के वास्ते!”, भूपेंद्र परीहार के होंटों पर तल्ख़ी थी।

    “क्यों?”

    “क्योंकि बच्चे होते ही ऐसे हैं। ला-परवाह और बे-वफ़ा!”

    “पागल हो गए हो!”

    “बच्चे तुम्हारी मुहब्बत की क़द्र नहीं करेंगे। वो एक दिन ताड़ जितने हो जाएँगे और हमें भूल जाएँगे!”

    और शायद यही हुआ था। सुमन बड़ा हुआ... लव मैरिज की और बीवी को लेकर कनाडा चला गया। मिसिज़ परीहार इस फ़र्ज़ से सुबुक-दोश हो कर अबदी नींद सो गई। अकेले रह गए भूपेंद्र परीहार। लेकिन वो इस ज़िंदगी को यादों का क़ब्रिस्तान नहीं बनाना चाहते थे। वो ब-क़ौल रसूल हम्ज़ा तौफ़... प्यार को ज़िंदा रखना चाहते थे जिसके बारे में उनका अ’क़ीदा था कि ज़िंदगी से प्यार चला गया तो हम भी नहीं बच सकते। वो खोना नहीं चाहते थे और सच कहा जाए तो अपने मर्द होने के भरम को क़ायम रखना चाहते थे... और शायद ख़ाली-पन के यही वो लम्हे थे जब कातियाइन बहनों से उनकी दोस्ती के दर वा हुए थे या ब-क़ौल रसूल हम्ज़ा तौफ़... इस बहाने वो अपने आपको ज़िंदा रख सकते थे।

    बड़ी बहन या’नी रमा कातियाइन का नज़रिया
    कातियाइन बहनों की ज़िंदगी में वीरानी की शायद एक लंबी तारीख़ रही थी... आस-पास के लोगों के लिए उस घर या बहनों के बारे में सब कुछ पुर-असरार था... या’नी जब ये बहनें घर में होतीं या वो वक़्त जब बे-हंगम आवाज़ के साथ खुलने वाले दरवाज़ों से ये बाहर निकलतीं तो गोया सरगोशियों का बाज़ार गर्म हो जाता। उनकी ज़िंदगी पर असरार का दबीज़ पर्दा पड़ा था... शायद इस मुकम्मल कायनात से भी ज़ियादा पुर-असरार थीं वो। बड़ी बहन के हाथ में एक गुल-बूटों वाली छतरी होती जिसका साथ उनके लिए हर मौसम में लाज़िमी था। जाड़ा हो, गर्मी हो या बरसात... गोया अंदर कोई ख़ौफ़ हो और फूलदार छतरी किसी बॉडीगार्ड की तरह उनकी निगरानी करती हो। चेहरा उस चट्टान की तरह सख़्त, समंदर की लहरें जिसका कुछ नहीं बिगाड़ पातीं। आज तक किसी ने भी रमा कातियाइन को हँसते हुए नहीं देखा था। आप अपने घर की बालाई मंज़िल से शाम ढलने तक जब भी जी चाहे उन्हें देख लीजिए... एक कुर्सी पर स्वेटर बनती हुई रमा कातियाइन आपको ज़रूर मिल जाएँगी... उ’म्र साठ के आस-पास। छोटी रीता कातियाइन बड़ी से दो तीन साल छोटी रही होंगी। इससे ज़ियादा नहीं। मगर रीता, रमा की तरह सख़्त नहीं थीं। किसी ज़माने में ख़ुश-मिज़ाज भी रही होंगी मगर वक़्त के साथ-साथ मिज़ाज में एक किस्म की संजीदगी आ गई थी।

    ये कहना मुश्किल है कि इससे पहले कातियाइन बहनों की पुर-असरार दुनिया में कोई आया था या नहीं। मगर भूपेंद्र परीहार की अचानक आमद घर में शुकूक-ओ-शुबहात की फ़स्ल लेकर आई थी और ये शक भूपेंद्र परीहार के जाते ही शुतुरमुर्ग की तरह रेत से अपना सर निकालने लगा था।

    बड़ी कातियाइन की आँखों में हैरानी के दौड़े थे और छोटी कातियाइन के होंटों पर एक शरारत भरी ख़ामोशी।

    “कब से जानती हो उसे?”

    “किसे...?”

    “वही, जिसे लेकर तुम घर आई थी।”

    “अच्छा वो। भूपेंद्र परीहार...”

    “नाम भी जानती हो। इसका मतलब पुरानी मुलाक़ात है... कब से जानती हो उसे?”

    “आज से पहले... नहीं।”

    “एक ही दिन में उसने सब्ज़ी का थैला भी थाम लिया और घर में आ टपका...”

    “नहीं। आपने समझा नहीं।”

    “क्या एक अजनबी शख़्स को तुम इस घर में ले आईं इतना काफ़ी नहीं...”

    छोटी मिस कातियाइन की आँखों में मायूसी थी।

    “नहीं, दर-अस्ल आप अभी भी नहीं समझें... थैला भारी था...”

    “सफ़ाई मत पेश करो। इससे पहले ऐसा हादिसा इस घर में कभी नहीं हुआ।”

    बड़ी मिस कातियाइन का लहजा फ़ैसला-कुन था।

    “अभी तुम सब्ज़ी काटो। रात का खाना बनाने की तैयारियाँ करते हैं, मगर याद रखो... रात में। रात में इस वाक़िए’ के बारे में दुबारा ग़ौर करेंगे।”

    दहशत भरी रह-गुज़ार से
    हम कह सकते हैं वो रात कातियाइन बहनों की नज़र में बहुत आ’म सी रात नहीं थी। बड़ी कातियाइन कमरे में टहल रही थीं... जैसे अंदर ही अंदर किसी ख़ास नतीजे पर पहुँचने की तैयारी कर रही हों या जैसे रात के वक़्त शौहर अपने कमरे में किचन से लौटने वाली अपनी नौ-ब्याहता दुल्हन का इंतिज़ार करता है... कि वो अब आएगी या बत्ती बुझाएगी या उसके क़दमों की आहट सुनाई देगी।

    लेकिन आप इस तरह बड़ी कातियाइन को टहलते देखकर ये नहीं कह सकते कि वो बुढ़ापे के गलियारों में इतनी दूर तक निकल आई हैं। नहीं, हैरत-अंगेज़ तौर पर उस वक़्त वो किसी नौजवान से कम नहीं लग रही थीं... यक़ीनन एक ऐसे नौजवान से जो अपनी बीवी की किसी बात से नाराज़ हुआ बैठा हो और उससे गुफ़्तगू शुरू’ करने की ज़हनी कश्मकश से गुज़र रहा हो। छोटी कातियाइन के अंदर दाख़िल होते ही बड़ी ने किसी लोमड़ी की तरह अपनी निगाहें उस पर मर्कूज़ कर दीं...।

    “आओ ट्रस्ट एक्सरसाइज़ (Trust Exercise) करते हैं।”

    “ट्रस्ट एक्सरसाइज़? लेकिन क्यों?”

    “जिरह मत करो। मर्दों की तरह मत बनो... क्योंकि तुमने अपना Trust खोया है...”

    “या तुमने?”

    “मुम्किन है। इसलिए आओ आँखें बंद करें और शुरू’ हो जाएँ...”

    और इसी के साथ दोनों आमने-सामने खड़ी हो गईं। बड़ी कातियाइन की पुतलियाँ धीरे-धीरे बंद होने लगीं... छोटी कातियाइन कुछ सोच कर मुस्कुराईं और पथरीली ज़मीन पर वो भी बड़ी कातियाइन के आमने-सामने खड़ी हो गईं। ट्रस्ट एक्सरसाइज़ में एक दूसरे पर आँखें मूंद कर गिरना होता है। सामने वाले को अपने साथी को थामना होता है। ऐसा कई बार करना होता है। सामने वाले ने अगर थाम लिया तो मतलब साफ़ है। अभी यक़ीन में कमी नहीं आई या अभी यक़ीन बहाल है। ये अ’मल पथरीली ज़मीन पर इसलिए करते हैं ताकि गिरने या चोट लगने से पैदा होने वाला एहसास इस यक़ीन को फिर से बहाल कर सके... दर-अस्ल मग़रिबी ममालिक से हम लगातार कुछ न कुछ बतौर तोहफ़ा लेते रहे हैं और “ट्रस्ट” करने का ये नायाब तरीक़ा अभी कुछ दिनों पहले ही वहाँ से इम्पोर्ट हो कर आया है...

    तो कातियाइन बहनों ने आँखें बंद कर लें। मुम्किन है आपके लिए ये सारा मंज़र बे-लुत्फ़, उकता देने वाला और वाहियात हो... मगर शायद कातियाइन बहनों को यक़ीन की डोर से बाँधने के लिए ये खेल काफ़ी मअ’नी रखता था और जैसा कि हमें भी यक़ीन था आँखें बंद करने, एक दूसरे पर गिरने के अ’मल में छोटी सर के बल गिरी थी। शायद ये एक उ’म्र पार करने की हद के सबब था। या जो भी हो, मगर तय था कि बड़ी उसे थाम नहीं पाई और छोटी कातियाइन के होंटों से, लड़खड़ाते, गिरते हुए एक ज़ोर की चीख़ निकल गई थी...

    “आह जैसा कि मुझे यक़ीन था।”, बड़ी कातियाइन का लहजा बर्फ़ सा सर्द था।

    “वो आदमी... तुमने सच-मुच अपना ट्रस्ट खो दिया है। चलो... बहुत दिनों के बा’द ही सही ज़रा माज़ी की राख कुरेदते हैं।”, बड़ी कातियाइन ने छोटी के कंधे पर हाथ रखा...

    “तुम्हें कुछ याद आ रहा है?”

    “हाँ।”

    “तुम्हें याद रखना भी चाहिए।”, बड़ी की आवाज़ में लर्ज़िश थी..., “उस आदमी के बावुजूद, जो मर्द था या बाप था... या जंगली सांड। यही कमरा था ना... और वहाँ दरवाज़े पर...”

    छोटी कातियाइन को याद था। बाप दरवाज़े पर शराब पी कर शाम के वक़्त आकर, माँ का नाम लेकर ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाता था...

    “सब याद है।”

    “बाप क्यों याद है इसलिए कि उसमें बे-रहमी थी। वो एक ख़ौफ़-नाक इंसान था। बल्कि हैवान... तुम्हें याद है, माँ रोया करती थी। कभी-कभी ख़ूब ज़ोरों से... और सारी रात चिल्लाया करती थी... और बाप नशे में धुत सोया रहता था...”

    “हाँ, मगर वो सब भयानक यादें हैं और रौंगटे खड़ी करने वाली... मेरी माँ एक सहमी हुई गाय थी। नहीं, वो एक मा’सूम मेमना थी... और बचपन से बाप थोड़ा-थोड़ा कर के इस मेमने को ज़ब्ह करता रहा था।”

    “तुम्हें याद है? उस वक़्त या उन दिनों तुम गिरती थी तो..., रोती थी तो... या किसी परेशान कर देने वाले डर से सहम जाती थी तो..., ये मैं होती थी, मैं... मैं बड़ी थी और मैं उन्हीं दिनों तुम्हें चाहने भी लगी थी... नहीं, तुम्हें याद होना चाहिए, जब यकायक डर कर सहम कर तुम मुझसे चिपक जाया करती थी तो... या मेरी गोद में अपना सर रख देती थी तो... यहाँ टाँगों के दरमियान से... किसी एक मर्कज़ से दरिया फूट पड़े तो... कैसा लगता होगा? अंदर सनसनाहट का एक तूफ़ान सा आ जाता था। शायद ऐसा इसलिए भी था कि दुनिया में और भी लोग हो सकते हैं, हमें पता नहीं था... हम सिर्फ़ एक दूसरे को जानते थे या फिर माँ को... जिसे उस ज़माने में मा’सूम मेमना कह कर हम उदास हो जाया करते थे या फिर अपने बाप को, जिसकी परछाईं तक से हमें डर लगता था... हम किसी मर्द को सही तौर से पहचान नहीं पाते थे, जैसे औ’रत होने के नाम पर हमारे सामने सिर्फ़ मज़लूम माँ का तसव्वुर रह गया था।

    “हाँ ये सच है।”, छोटी कातियाइन की आवाज़ बोझल थी।

    “तो तुम्हें याद होना चाहिए।” बड़ी कातियाइन ने अपनी बात जारी रखी..., “वो दिन... शायद वो दिन हमारी ज़िंदगी के चंद ख़ूबसूरत दिनों में एक था... गली में एक सांड पागल हो गया था... याद है, वो अपनी बड़ी-बड़ी सींगें उठाए, कभी इधर कभी उधर दौड़ रहा था। कुछ देर तक हम भी इस तमाशे का हिस्सा बने रहे। मगर अब बाप के आने का वक़्त हो चला था। बाहर दुकानदार, राहगीर सब तालियाँ बजा रहे थे। हम कमरे में आ गए... हम एक दूसरे को बराबर देखे जा रहे थे... जैसे, अब मेमने के लरज़ने की आवाज़ आएगी। अचानक आँखों के सामने बाप की शबीह उभरी। उसका चेहरा सांड जैसा था... उसकी सींगें निकली हुई थीं... और वो उन सींगों से दीवाना-वार मेमने को ज़ख़्मी कर रहा था... तुम मेरी तरफ़ देख रही थीं और मैं उन लहरों की हलचल गिन रही थी जो तुम्हारे इस तरह देखने से मेरे बदन में उठने लगी थीं... याद है... मैंने कहा था... मुझे छुओ... मुझे बुख़ार लग रहा है... तुम धीरे से मेरी तरफ़ बढ़ी थीं और तभी बाहर ज़ोरदार गरज के साथ दरवाज़े पर कुछ गिरने की आवाज़ आई थी... ज़बरदस्त शोर हुआ था। तुम काँपती हुई मेरे बदन में समा गई थी और मैं... जैसे किसी एक मर्कज़ से दरिया फूट पड़े तो... मैं तुम्हें लेकर काँप रही थीं... अंदर सनसनाहट हो रही थी... तभी मेमने की बे-ख़ौफ़, पुर-सुकून और ठहरी हुई आवाज़ सुनाई दी...”

    “दरवाज़ा खोलो सांड ने तुम्हारे बाप को पटख़ दिया है... शायद वो मर गया है...”

    दरवाज़ा खोल कर मैंने पहली बार माँ को देखा। वो हसीन लग रही थी... माँ के चेहरे पर ख़ौफ़ का शाइबा तक नहीं था। बाहर दरवाज़े पर एक हुजूम इकट्ठा था... और वहीं... गली में खुलने वाले दरवाज़े के पास बाप का बे-जान जिस्म औंधा पड़ा था... शर्ट ख़ून से तर थी। उसने शराब पी रखी थी हमेशा की तरह... राहगीरों के शह देने पर वो सांड से भिड़ गया। लोग माँ को सब्र की तलक़ीन कर रहे थे...

    “किसे मा’लूम था कि ऐसा हो जाएगा!”

    याद है, माँ ख़ामोशी से सब कुछ सुनती रही... पर यकायक सब के सामने ज़ोर-ज़ोर से हँस दी थी... लोगों की आँखें हैरानी से फटी पड़ी थीं। मुम्किन है ये समझा गया हो कि शौहर के सदमे को न सह पाने की वज्ह से... लेकिन माँ की कैफ़ियत तो सिर्फ़ हमें मा’लूम थी...”

    “हाँ... इसके बा’द माँ जब तक ज़िंदा रही... वो बैठी-बैठी हँस पड़ती थी...

    और मरते वक़्त भी उसके होंटों पर ये हँसी मौजूद थी। गोया माँ ने कभी तसव्वुर भी नहीं किया होगा, कि बाप जैसा आदमी एक दिन मर सकता है। बड़ी कातियाइन के लहजे में संजीदगी थी... मगर आख़िर ये सब मैं तुम्हें क्यों याद दिला रही हूँ? क्यों? तो सुनो रीता कातियाइन”, बड़ी कातियाइन के अल्फ़ाज़ बर्फ़ हो रहे थे..., “सुनो और ग़ौर से सुनो। इसलिए कि औ’रत अपने आप में मुकम्मल होती है। एक मुकम्मल समाज। मर्द कभी मुकम्मल नहीं होता। जो मर्द ऐसा समझते हैं वो ग़लत-फ़हमी का शिकार हैं... मर्द को औ’रत की ज़रूरत पड़ सकती है लेकिन औ’रत को मर्द की नहीं... इसलिए, अभी से कुछ रोज़ पहले जो आदमी तुम्हारी ज़िंदगी में आया है...”

    छोटी कातियाइन ने बात बीच में ही काट दी..., “आपकी ग़लत-फ़हमी है”, उसने दूसरे ही पल नज़र झुका ली। “मेरी ज़िंदगी में कोई मर्द नहीं आया है। मैंने कहा ना... वो महज़ एक हादिसा...”

    “ठीक है... लेकिन तुमने हादसों के दरवाज़े खोल दिए हैं। याद रखना। वो आदमी... क्या नाम बताया तुमने... हाँ भूपेंद्र परीहार। वो दुबारा भी आ सकता है... और इसके लिए तुम्हारा जवाब क्या होगा। क्या बताना पड़ेगा मुझे।”

    “नहीं”, छोटी कातियाइन मुस्कुराई, “औ’रत अपने आप में मुकम्मल है। एक मुकम्मल समाज।”

    “और अब मैं ये दिखाना चाहती हूँ कि इस मुकम्मल समाज के पास कैसी-कैसी फ़ैनतासी मौजूद है... ठहरो, हाँ। हो सके तो वार्डरोब से अपनी खुली-खुली नाइटी निकाल लो। स्लीवलैस। (Sleeveless) तुम इस उ’म्र में भी आह। इस उ’म्र में भी...”, बड़ी कातियाइन की आँखें जल रही थीं।

    “सुना तुमने। मैं बस अभी आई।”

    कातियाइन बहनों की फ़ैनतासी
    रात धीरे-धीरे ख़ामोशी के साथ अपना सफ़र तय कर रही थी। मगर यहाँ... अन्ना की डाली वाली दुकान के सामने वाले घर में रात एक नए “ऐडवेंचर” से आँखें चार कर रही थी... शायद बहुत मुम्किन है हमारे हिंदुस्तानी मुआ’शरे में सोचा जाए, इस उ’म्र में तो आग बहुत पहले की किसी मंज़िल में बुझ चुकी होती है... और कैसी आग? कैसी राख...? मस्ती के सातवें आसमान पर पहुँचाने वाले नए नशे ब्राउन शूगर और हैरोइन भी वो हैजान न पैदा कर पाएँ जो इस ख़स्ता और सीलन-ज़दा कमरे में पैदा हो रहा था...

    “इस वक़्त में तमाम कायनात की स्वामी हूँ... समझा तुमने?”, बड़ी कातियाइन के हाथों से गर्म-गर्म भाप उठ रही थी, जैसे जाड़े के दिनों में सुब्ह-सुब्ह मुँह खोलने से उठती है... उसके हाथ में एक स्टील की कटोरी थी... कटोरी में पिघला हुआ असली घी पड़ा था। छोटी का चेहरा क़द-ए-आदम आईने की जानिब था... उसने स्लीवलैस सियाह नाइटी पहन रखी थी... शायद नहीं। नाइटी ने अचानक उसकी उ’म्र पहन ली थी... इस छोटे से कपड़े में वो एक दम से छुई-मुई लग रही थी। बुढ़ापे और झुर्रियों से मीलों पीछे। जहाँ सिर्फ़ हँसता गाता ढोल बजाता हुस्न होता है। हुस्न का साज़ छेड़ने वाले जज़्बात होते हैं... और जज़्बात के पीछे छिपी मजरूह “हवस-नाकी” होती है...

    ''हाँ अब ठीक है। लेट जाओ और कपड़े उतार दो...”, बड़ी कातियाइन की आवाज़ से ऐसा लग रहा था जैसे उसने ढेर सारी “मारीजुवाना” पी ली हो... और वो पूरी तरह नशे में आ गई हो...

    छोटी कातियाइन लेट गई... अँधेरे में जलती ट्यूब लाईट में उसका जिस्म चमका... बड़ी ने स्टील की कटोरी थाम ली। उसका सख़्त झुर्रियों भरा हाथ “घी” के अंदर गया... जैसे कभी मैदे की छोटी-छोटी “लोईयाँ” बनती हैं और उन्हें ढेर सारे घी में डुबोया जाता है... गोरे चिट्टे बदन पर बड़ी कातियाइन घी इस तरह मिलने लगीं गोया छोटी का बदन अचानक मैदे की “लोईयों” में तब्दील हो गया हो... झप... झप...

    “आह, तुम अब भी वैसी हो...”, बड़ी के हाथ में हरकत हुई।

    “बिल्कुल वैसी... सुनो रीता कातियाइन... देखो... ख़ुद को देखो... ग़ौर से। आह... अपनी उ’म्र को देखो... नहीं, उ’म्र को मत देखो... मगर सुनो... ग़ौर से सुनो...  मर्द इस तंदूर को कब का ठंडा कर चुका होता है... एक लाश घर की तरह... मगर यहाँ तुम अपने आपको देखो... तुम लाश घर नहीं हो... बर्फ़ घर भी नहीं हो... तुम तंदूर हो।”

    बड़ी कातियाइन अपने ग़ैर-मफ़तूह होने के ख़याल से ज़ोर से हँसी...

    “उसे बता देना... क्या नाम बताया तुमने। भूपेंद्र परीहार... उसे बता देना, औ’रत अपने आप में मुकम्मल होती है... उसे मर्द की ज़रूरत नहीं...”

    फिर वो उस पर झुक गई। रात ख़ामोशी से अपना सफ़र तय कर रही थी।

    इ’श्क़ की डगर
    इतनी उ’म्र गुज़र जाने के बा’द भी भूपेंद्र परीहार ज़िंदगी के इसी फ़लसफ़े पर क़ायम थे कि एक उ’म्र गुज़र जाने के बा’द भी एक उ’म्र बची रह जाती है... और जो उ’म्र बाक़ी बच जाती है उसे उसी तरह गुज़ारने या जीने का हक़ हासिल होना चाहिए। मिसिज़ परीहार के गुज़र जाने और सुमन के कनाडा भाग जाने के बा’द अचानक उन पर बुढ़ापा तारी होने लगा था... हालाँकि उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि जिस्म बूढ़ा भी हो सकता है... वो तो ब-क़ौल रसूल हम्ज़ा तौफ़, “जिस्म तो बस इ’श्क़ के लिए है और इ’श्क़ को ज़िंदा रखना ही इंसान का अव्वलीन फ़र्ज़ है...”

    शायद बुढ़ापे की ये शुरू’आत उन्हें काफ़ी आगे ले गई होती, वो तो अच्छा हुआ जो अचानक छोटी कातियाइन उनसे आ टकराईं... मुद्दतों बा’द अंदर कहीं कोई चिंगारी सी लपकी थी... बुढ़ापे की तन्हाई में चेहरे और बालों को सँवारते हुए वो जैसे बरसों पुराने चेहरे वाले भूपेंद्र परीहार को वापिस लाने की कोशिश कर रहे थे... कितनी ही बार क़दम “अन्ना की डाली” वाली दुकान के सामने वाले घर की तरफ़ उठे। हर बार दरवाज़ा खुलता था और बंद हो जाता था।

    “कातियाइन बहनों की दुनिया...”

    लगता, बाहर की दुनिया में उनके बारे में जितनी कहानियाँ हैं... शायद वो सब की सब सच हैं... यहाँ तो किसी परियों की कहानी से भी ज़ियादा उलझा हुआ मुआ’मला था, लेकिन उन्होंने हार न मानने का फ़ैसला किया था और शायद इसीलिए उस दिन उन्हें कामयाबी मिल गई थी।

    वो एक दस्तक के बा’द दरवाज़ा खुला तो सामने छोटी कातियाइन खड़ी थीं।

    “क्या बात है? बड़ी कातियाइन सो रही हैं। जो बोलना है जल्दी बोलो।”

    “अंदर आ जाऊँ?”

    छोटी कातियाइन ने कुछ सोचने के बा’द कहा..., “आ सकते हो। वैसे भी बड़ी को उठने में दो एक घंटे तो लगेंगे ही।”

    वो अंदर आ गए। चंदन की लकड़ी के बने मेहराब-नुमा दरवाज़े से गुज़रते हुए... ये वही जगह थी जहाँ आप हर मौसम में बड़ी कातियाइन को देख सकते हैं... हाथ में तीलियाँ थामे, सर झुकाए स्वेटर बुनती हुई... वो एक आराम कुर्सी पर बैठ गया। ये सब कुछ ऐसा था जैसा कॉलेज के दिनों में लड़के-लड़कियों के साथ होता है। या प्यार की पहली बारिश की पहली बूँद पड़ते ही ये सब उनकी अदाओं में शामिल हो जाते हैं।

    छोटी कातियाइन कुछ देर तक उसे घूरती रही।

    भूपेंद्र परीहार ने नज़रें झुका लीं।

    ज़रा देर बा’द छोटी कातियाइन के लब हिले..., “तुम्हारी... तुम्हारी बीवी...?”

    “नहीं है। गुज़र गई।”

    “ओह...”

    “नहीं, इसमें अफ़सोस करने जैसी कोई बात नहीं है। वो अपनी उ’म्र से ज़ियादा जी चुकी थी...”

    “उ’म्र से ज़ियादा...?”, छोटी कातियाइन ने हैरानी ज़ाहिर की।

    “हाँ, मरने से दस बरस पहले तक मुझे एहसास ही नहीं था कि वो है... या’नी घर में है।”

    “ऐसा क्यों था?”, छोटी कातियाइन की हिरनी जैसी आँखों में चमक जागी।

    “पता नहीं... पर मुझमें जैसे एक नए और जवान भूपेंद्र परीहार की वापसी हो रही थी... तुम... या’नी आप समझ सकती हैं... इस उ’म्र में... या’नी मुझे देखकर”, वो कहते-कहते लड़खड़ाए थे।

    छोटी कातियाइन खिलखिला कर हँस पड़ीं... “वही... ग़लत-फ़हमी की रिवायत... मर्द समझता है वो साठ के बा’द फिर से बच्चा बन गया है... और औ’रत तो अपनी उ’म्र से ज़ियादा बूढ़ी हो गई है... है ना, ऐसा ही कुछ...”, वो फिर ज़ोर से हँसी।

    “पता नहीं।”, भूपेंद्र परीहार के खोखले लफ़्ज़ों में हलचल हुई, “मगर मेरा ख़याल है कि मर्द... या’नी...”

    “मर्द। मर्द के नाम पर इतनी रऊ’नत क्यों भर जाती है मर्द में... बार-बार इस लफ़्ज़ को दोहराते हुए, अपनी किसी कमज़ोरी पर पर्दा तो नहीं डालते...”, छोटी कातियाइन ने अल्फ़ाज़ जैसे ज़हर में डुबो रखे थे।

    “ख़ैर जो भी कहना है जल्दी कहो। बड़ी कातियाइन तुम्हारे इस तरह आने को पसंद नहीं करतीं।”

    “क्यों?”, भूपेंद्र परीहार अचानक ठहर से गए। उनकी आँखें चमक रही थीं...

    “तुम्हारी अपनी ज़िंदगी है, उनकी अपनी...”

    “नहीं, हमारी ज़िंदगियाँ एक हैं।”

    भूपेंद्र परीहार ज़ोर से लड़खड़ाए..., “क्या...?”

    “हाँ, हम लेस्बियन (Lesbian) हैं... लेस्बियन।”, वो बड़े इत्मीनान से नाख़ुन चबाते हुए बोली।

    “लेस्बियन...।”, भूपेंद्र परीहार उछल पड़े... जैसे बिच्छू ने डंक मार दिया हो।

    “हाँ, मैं लेस्बियन हूँ... लेकिन तुम तो ऐसे डर रहे हो जैसे मैं कोई कौड़ी हूँ, या मुझे एड्स हो गया है।”

    “लेकिन तुम...”, उनकी आँखें अब भी फटी-फटी थीं।

    “क्यों आते हो मेरे पास, अच्छी तरह जानती हूँ।”, छोटी कातियाइन के लहजे में शदीद नफ़रत थी... “अपने बाप को भी जानती थी। तुम्हें भी... तुम्हारे इस पूरे मर्दाना समाज को... हैरान मत हो। बस वही ग़लत-फ़हमी पर मबनी रिवायतें... मर्द होने की ख़ुश-ख़याली... ये एहसास ही अचानक तुम्हें एक बेवक़ूफ़ राक्षस में तब्दील कर देता है। तुम समझते हो सब तुम्हारी ताक़त के मातहत हैं। तो ये तुम्हारी ना-समझी है... सुनो भूपेंद्र परीहार... तुम्हारी बीवी नहीं है, ये बात ज़हन की गाँठ खोल कर निकाल क्यों नहीं देते कि तुम्हारी बीवी, दस बरस पहले ही खोई नहीं थी... बल्कि मर चुकी थी... और तुमने मारा था उसे...”

    “मैंने?”, भूपेंद्र परीहार एक दम से चौंके।

    “हाँ तुमने। हाँ, इसलिए कि दस बरस पहले ही उसके अंदर के लावे को बुझा चुके थे तुम... और इसीलिए वो तुम्हारे लिए नहीं थी... या मर गई थी... और इस बुढ़ापे में भी तुम्हारे अंदर एक गर्म, दहकता हुआ जिस्म है... सुनो परीहार... तुमने अपनी तहज़ीब और रिवायत के वो मोती चुने हैं जहाँ सिर्फ़ “एक बीवी बस, या लोग क्या कहेंगे” की बंदिशें होती हैं... तुम लाख माडर्न बनने की कोशिश करो मगर तुम हो वही... एक बुज़दिल मर्द... अगर इतनी ही आग तुम्हारे अंदर है तो तुम अपना जिस्म किसी मर्द से क्यों नहीं बाँटते...? जहाँ तुम्हें बंद कमरे में दाख़िल होने के लिए तुमको बहुत से सवालों का जवाब नहीं देना होगा?”

    “लेकिन ख़ुद को...”, भूपेंद्र परीहार का जिस्म थरथराया।

    “भूल कर रहे तो तुम। ख़ुद को अभी देखा कहाँ है। उसे तो तुमने Gay या Homosexuality और कई दूसरे ग़लत नामों में बांध रखा है... मैं कहती हूँ मैं लेस्बियन हूँ, तब भी तुम्हारा समाज अचानक हम पर बे-रहम हो जाता है... लेस्बियन या’नी किसी ना-जायज़ नज़रिए की औलाद... लेकिन ऐसा नहीं है। हमने आपस में सुख, अम्न, शान-ओ-शौकत और सरशारी की इंतिहा ढूँढ ली है। अब तुम चाहो तो जा सकते हो...”

    आख़िरी जुमला इस क़दर ठहर-ठहर कर बोला गया था कि भूपेंद्र परीहार की आँखों के आगे अँधेरा छा गया। अँधेरा धीरे-धीरे छट रहा था... छोटी कातियाइन के लफ़्ज़ चीख़ रहे थे और इस छटते हुए अँधेरे में वो कई परछाईयों को सिमटते हुए देख रहे थे... माँ, बाबूजी, बीवी, सुमन... परछाईयाँ एक दम से हट गई थीं... गे (Gay), लेस्बियन और कितने ही ग़ैर-फ़ितरी रिश्ते... अब एक सहमा सा उजाला था... और इस उजाले में वो साफ़ देख रहे थे कि वो अपनी उ’म्र से ज़ियादा जी चुके हैं। ज़िंदगी, मौत, सुख... कहना चाहिए एक पल को छोटी कातियाइन के अल्फ़ाज़ के तीर से घबरा कर वो काफ़ी दूर निकल आए थे... और अब... भूपेंद्र परीहार के होंटों पर एक तीखी सी मुस्कुराहट थी...

    “सुनो रमा कातियाइन...”, वो उसकी तरफ़ देखे बग़ैर बोले... टटोल-टटोल कर अपने लफ़्ज़ों को यकजा करते हुए बोले, “सुनो। हम में से कोई भी कभी भी मर सकता है... समझ रही हो ना... कभी भी मर सकता है... क्योंकि हम अपनी उ’म्र से ज़ियादा जी चुके हैं... इसलिए...”

    पता नहीं वो और क्या-क्या कह रहे थे लेकिन छोटी कातियाइन... उन्हें कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था। वो सिर्फ़ एक टक भूपेंद्र परीहार का चेहरा तके जा रही थीं। हाँ, इस अ’मल के दौरान, उनके अंदर तेज़ सनसनाहट हो रही थी। जो उस सनसनाहट से मुख़्तलिफ़ थी जैसी सांड वाले हादिसे के दिन बड़ी कातियाइन की बाँहों में सिमट कर उसने महसूस की थी... पता नहीं ये क्या था, उसे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था... या। वो समझना नहीं चाह रही थीं।

    आख़िरी मुकालमा छोटी कातियाइन का
    वो उसी नाइटी में थीं। स्लीवलैस सियाह नाइटी में। आईने के सामने... लेकिन आईना शांत था। आईने में कहीं कोई आग, कोई भड़कीलापन, कोई लगाव, कोई कशिश नहीं रह गई थी। धीरे-धीरे रीता कातियाइन ने नाइटी के तमाम हुक खोल डाले। ज़रा फ़ासले पर बड़ी कातियाइन खड़ी थीं, और उन्हें घूरे जा रही थीं। लेकिन उनके इस तरह देखने में कोई बुजु़र्गी, कोई हुक्म या कोई ख़फ़गी शामिल नहीं थी।

    अचानक छोटी कातियाइन के मुँह से एक तेज़ चीख़ निकली। नाइटी के तमाम हुक उन्होंने खोल डाले थे। आईने में एक सहमा, बे-ढंगा जिस्म मुर्दा पड़ा था। वो बौखलाहट में चीख़ती हुई बड़ी कातियाइन की तरफ़ झपटीं।

    “आग कहाँ है? मेरे जिस्म की आग क्या हुई?”

    बड़ी कातियाइन ऐसे चुप थी, जैसे उसने कुछ सुना ही नहीं हो।

    “सुनो, मेरे अंदर... तुमने तो कहा था...”, छोटी कातियाइन की नज़रें जैसे मुद्दतों बा’द बड़ी कातियाइन की आँखों में समाई जा रही थीं...। “याद है...? सुनो, तुमने ही कहा था, आह तुम अब भी वैसी हो... बिल्कुल वैसी रीता कातियाइन... सुनो, मर्द इस तंदूर को कब का ठंडा कर चुका होता है...” वो फिर चीख़ी... “आग कहाँ है, मेरे अंदर की आग कहाँ है...?”

    बड़ी कातियाइन का चेहरा हर पल तेज़ी से बदल रहा था।

    “तुम... तुम सुन रही हो। मैं... मैं क्या पूछ रही हूँ...?”

    काफ़ी देर बा’द बड़ी कातियाइन के बदन में हरकत हुई... उसने छोटी की जलती आँखों की ताब न ला कर नज़रें झुका लीं।

    “आग तो मेरे पास भी नहीं है।”

    बड़ी कातियाइन के अल्फ़ाज़ सर्द हो चुके थे। फिर वो ठहरी नहीं, तेज़ी से कमरे से बाहर निकल गईं।

    आईने में अभी भी छोटी कातियाइन का सहमा, बे-ढंगा जिस्म पड़ा था... और शायद मुर्दा भी।

     

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