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कलियाँ और काँटे

अख़्तर ओरेनवी

कलियाँ और काँटे

अख़्तर ओरेनवी

MORE BYअख़्तर ओरेनवी

    स्टोरीलाइन

    कहानी तपेदिक़ के मरीज़ों के लिए विशेष सेनिटोरियम और उसके कर्मचारियों के इर्द-गिर्द घूमती है। दिक़ के मरीज़ और उनकी तीमारदार नर्स, दोनों को यह बात अच्छी तरह मालूम है कि मरीज़ों की ज़िंदगी का सूरज किसी भी पल डूब सकता है। आशा-निराशा के इस कश्मकश के बावजूद दोनों एक दूसरे से यौन सम्बंध बनाते हैं और एक आम प्रेमी-प्रेमिका की तरह रूठने मनाने का सिलसिला भी जारी रहता है। सारी नर्सें किसी न किसी मरीज़ से भावनात्मक और यौन सम्बंध से जुड़े होते हैं और मरीज़ के स्वस्थ होने या मर जाने के बाद उनकी वफ़ादारियाँ भी बदलती रहती हैं लेकिन उनके दिल के किसी कोने में ये हसरत भी रहती है कि काश कोई मरीज़ उनको हमेशा के लिए अपना ले। इसीलिए जब अनवर विदा होने लगता है तो कैथरिन रोते हुए कहती है, अनवर बाबू, आपने हम नर्सों को औरत न समझा, बस एक गुड़िया... एक गुड़िया... एक गुड़िया।

    वो तादाद में नौ थीं। गोरी, साँवली, गवारा और नागवार, बा'ज़ उनमें दिलकश कही जा सकती थीं मगर ख़ूबसूरत कोई नहीं। सूरज उसी तरफ़ से तुलूअ होता था जिस तरफ़ से वो अपनी सफ़ेद सारियों में मलबूस तयूर सुबह के चहचहों के साथ बॉक्स और डोरेंडा की झाड़ियों की ओट से निकलती दिखाई देती थीं। हर सुबह उठ कर इधर आती थीं और एक टूटे हुए तारे की तरह मशरिक़ उफ़ुक़ की तरफ़ सफ़र कर जाती थीं। दर्जा-ए-अव्वल के क्वार्टर सेहत-गाह के आम वार्डों से क़रीबन तीन फ़र्लांग पूरब जानिब थे। उनमें से किसी एक की ड्यूटी उसी तरफ़ होती थी और ड्यूटियाँ बदलती रहती थीं हर पन्द्रहवें रोज़। आम वार्ड के भी दो दर्जे थे। दोम सोम।

    दर्जा अव्वल के क्वार्टर ख़ासे बँगले थे। उनकी अपनी शख़्सियत थी। वो अस्पताल नहीं घर मालूम होते थे। साठ रूपये माहवार उनका किराया था। दर्जा दोम के चालीस रूपये माहाना थे। एक मरीज़ को दो कोठरियाँ मिल जाती थीं। एक अपने लिए और एक तीमारदार के लिए। तीसरे दर्जे के मानी थे एक वसीअ सा लांबा-चौड़ा कमरा। एक कमरे में आठ पलंग होते थे और जब हयात के लअब-ओ-लहू की रफ़्तार में ज़्यादा तेज़ी हो जाती तो सिल-ओ-दिक़ के जरासीम के चंद और शिकार जाते थे और कमरे की आबादी बारह तेरह तक पहुँच जाती थी। दर्जा सोएम का किराया पच्चीस रूपये माहवार था। मौत और ज़िंदगी के दरमियान भी इंसानियत दर्जों में बटी हुई है। घर, अस्पताल और क़ब्रिस्तान हर जगह नंबर एक, नंबर दो तीन की तफ़रीक़ होती है। कालों का क़ब्रिस्तान, गोरों का क़ब्रिस्तान, शुरफ़ा के मदफ़न और ग़रीबों के गोरिस्तान हर शहर, हर क़स्बे और गाँव में पाए जाते हैं। सेहत-गाह उसी कुरह पर क़ाइम थी और उसी के भले बुरे क़ानून की पाबंद।

    हम उन दिनों दस थे। सेहत-गाह के इंतिहाई जुनूबी तरफ़ तीसरे दर्जे के वार्ड में। यहाँ से नर्सेज़ क्वार्टर सामने नज़र आता था। लोहे के पलँग पर पड़े हुए मरीज़ दरख़्तों और झाड़ियों के दरमियान नर्सों की इक़ामत-गाह को इस तरह देखते थे जैसे फ़ुट-पाथ पर चलती हुई मज़दूरनों के तरसे हुए बच्चे परिस्तानी दुकानों में शीशे की अलमारियों के अंदर खिलौने देखते हैं। वो नव नर्सें हमसे शनासा थीं। उनमें से हर एक की ड्यूटी हम लोगों के वार्ड में कभी कभी रह चुकी थी। इसके अलावा गाहे-गाहे की पार्टियों और पिकनिकों में हम लोगों का साथ रहता था। हम सब नर्सों को अच्छी तरह जानते थे और वो हमें। हमारी गुफ़्तगू का अक्सर हिस्सा उन्हीं से मुतअल्लिक़ होता था। उनकी तारीफ़, उनकी बुराइयाँ, उनके नाज़, उनकी साज़िशें, उनकी मुहब्बत नफ़रत।

    हम रूमान से थक कर ठेठ हक़ीक़त-तराज़ी पर उतर आए थे। हमारे गुरुस्ना-जज़्बात रूमानी बयानात के शरबत को बर्दाश्त करते-करते थक गए थे। हमें मसालिहा-दार चटपटी चीज़ों की ज़रूरत होती थी। हममें से अक्सर अफ़राद उस वार्ड में एक साल गुज़ार चुके थे। और चंद ऐसे भी थे जिनके तीन साल ख़त्म हो गए थे। उम्मीदी-ओ-ना-उम्मीदी के तीन साल, अरमानों और महरूमियों के तीन तवील साल। एक-दो नौ-वारिद थे। ये नौ-गिरफ़्तार सहमे-सहमे, संजीदा, अनमल, मुतरदद, बे-बस और मुल्तजी से नज़र आते थे। चंद हफ़्तों में ये भड़क उमूमन दूर हो जाती थी, और नए बहुत जल्द पुराने बन जाते थे। लेकिन एक-दो पुराने भी ऐसे थे जिनकी मुस्तक़िल मायूसी और घबराहट कभी दूर हुई। बहर-कैफ़ मौत और बीमारी के दरमियान भी वार्ड की मजमूई फ़िज़ा ख़ुश्गवार थी। इस्तिराहत के घंटों के अलावा वक़्तों में हम लोग खेलते थे, हँसते थे, जुमले-बाज़ियाँ होती थीं, क़हक़हे लगते थे, नर्सों से लगावट होती थी, अस्ली और नक़्ली आहें खींची जाती थीं, सरगोशियाँ होती थीं और राज़-दारियाँ भी।

    हम दसों का एक ख़ानदान था, एक मज़हब। हम एक-दूसरे के साथ ख़ुश होते थे और एक-दूसरे के साथ रंज। वार्ड में बूढ़े भी थे और जवान भी, पर सब एक रंग में रंगे हुए थे। कम से कम ऐसा नज़र आता था। हाँ इस्तिराहत के घंटों में हमारी इज्तिमाईयत टूट कर बिखर जाती थी और हम में से हर एक अपनी दुनिया बसाता था और वीरान करता रहता था। रात के आराम के अलावा दिन भर में तीन इस्तिराहत के वक़्फ़े होते थे बा-ज़ाब्ता तौर पर नर्सें घंटी बजा कर मरीज़ों को बार-ए-बिस्तर हो जाने पर मजबूर करती थीं। ये भी एक इलाज था। नींद और गुफ़्तगू मम्नूअ। ज़िंदा लाश की तरह पड़े रहिए। जहाँ तक मुम्किन हो कम से कम करवट लीजिए और कुछ मत सोचिए। फ़िक्र-ओ-तरद्दुद ऐसे मरीज़ के लिए मोहलिक है।

    सोचा मत कीजिए। अच्छे! हाँ...! नर्सें बड़े प्यार से कहतीं मगर भला कोई कैसे सोचे। हम अकेले पलंग पर पड़े-पड़े सोचते रहते थे। ज़िंदगी की सोच, मौत की सोच, सिल की सोच, दिक़ की सोच, आरज़ुओं की लाश, माज़ी का मातम, मुस्तक़बिल कार दिग और सबसे बढ़ कर रूह की वो मुहीब कपकपी जो माद्दे के सहारे से अलैहदगी के महज़ तसव्वुर से ही तारी हो जाती है। जिस्म! महसूस, ठोस, तपाँ, मुतहर्रिक, ख़ुद-निगर, ख़ूबसूरत और हक़ीक़ी जिस्म का अचानक सर्द और बे-हिस हो जाना! एहसास-ओ-इदराक छटपटाने लगते हैं। फ़र्द के वुजूद का ला-मालूम, तारीख़, बे-पायाँ, ला-मकाँ, बे-ज़माँ वुस्अतों में तहलील हो के फ़ना हो जाना, सोचने वाले दिमाग़, धड़कते हुए दिल, तैरते हुए ख़ून का तअत्तुल और ला-इल्मी का लर्ज़ा, ना-क़ाबिल-ए-तसव्वुर फैलाव। ये कायनात का सबसे अलम-नाक सानिहा है।

    हम सेहत-गाह की ख़ामोशियों में फिसलते हुए लम्हात को, सरकती, घटती, डूबती हुई ज़िंदगी के अंजाम को सोच कर लरज़ उठते थे। हम ख़्यालात के बोझ को फ़िज़ा में फेंक कर अपनी क़मीसों के बटन या पलंग की पट्टी को पकड़ लेते थे, ताकि मालूम और शनासा चीज़ों को हस्ती की टेक मिल जाए। हम गाह टमाटर के दाम और पेटीकोट के हाशिए को तख़य्युल से छू कर दर्द-ए-ज़िंदगी की अज़ियतों से पनाह लेते थे और कभी बे-ख़्वाब रातों की नींद का काजल घोल कर एहसास को अफ़्यून देने की कोशिश करते। मुरझाए हुए फूल की तरह पपोटे निढ़ाल होने लगते तो, ओह... रे... ऐ! बड़े साहब से कह दूँगी, ये तो सोने लगे हैं। की आवाज़ सुनाई देती और गाहे-गाहे गाल या पेशानी पर एक आशना सी चपत। ये निजात-दहिंदा आवाज़ सर से बोझ उतार देती थी। हमारी आँखें मुस्कुराती हुई खुल जातीं।

    मैं आप से मज़ाक़ कर रहा था मिस साहब! सोता कौन है? आईए आप भी सो जाइए। ये जवाब मिलता और फिर कई तस्कीन-देह रद्द-ए-अमल।

    वो रोज़ तुलूअ-ए-आफ़ताब के बाद किरणों की तरह वार्ड में आती दिखाई देती थीं। पहले निसाई आवाज़ों के घुँघरू बोलने लगते थे। हम चौकन्ना हो कर उस तरफ़ देखते, सेहत-गाह की वीरानियों में ये रोज़ाना का वाक़िआ भी काफ़ी अहमियत रखता था। सफ़ेद सारियाँ सब्ज़ झाड़ियों से निकलतीं, जैसे बेले के फूल कूंढ़ी के अख़्ज़रीं पर्दे से निकलते हैं बगुलों का पर क़रीब तर हो जाता और आवाज़ें ज़्यादा वाज़ेह। फुलझड़ी छूटती और दो फूल हम लोगों के वार्ड में गिरते। हम दसों मरीज़ उन्हें अपने दामन-ए-नज़ारा में ले लेते।

    जब किसी नर्स की ड्यूटी दर्जा अव्वल के क्वार्टर से वार्ड में बदलती तो उमूमन वही होता कि बजा या बे-जा तौर पर करदा-ओ-ना-करदा ग़लतियों पर हम लोगों की सरज़निश यूँ की जाती, मैं वार्ड में ही भली थी। कैसे अच्छे मरीज़ हैं वार्ड के। छी, इस वार्ड के मरीज़ तो जान खा जाते हैं।

    कैसे अच्छे हैं वार्ड वाले! अपने नौकरों से काम करा लेते हैं बेचारे और ये लोग तो जूते सीधे करवाते हैं, जैसे मैं इनकी लुगाई हूँ... और कभी ज़्यादा दिल-दोज़, घर में करते हों ये ठाठ! शान दिखलाने आए हैं! वार्ड में नवाब साहब अपना मुँह तक मैला नहीं करते।

    हम दसों मरीज़ मुख़्तलिफ़ ज़ावियों से दर्जा अव्वल के क्वार्टर को मुआनिदाना देखने लगते और क्वार्टर की सुर्ख़ ईंटें तंज़िया हँसी हँसती नज़र आतीं। मुअम्मर नवाब साहब की मोटर, उनका जवान लड़का मुंसिफ़ साहब, धन राज जी के भाई की तोंद और शहवती छोटी-छोटी आँखें, सूबे के सदर हस्पताल के सुपरिन्टेंडेंट साहब का गोरा-चिट्टा, चालाक-ओ-फ़ित्नाकार नूर-ए-नज़र, बीमार-ओ-तीमार-दार, ग़रज़ दर्जा अव्वल की सारी मख़्लूक़ सिल के कीड़ों की तरह महसूस होती जो हमारे फेफड़ों को छलनी कर रही है। हम उन सब को अपने अंदर से निकाल कर थूक देना चाहते थे। थूकदानी के कारबोलिक एसिड में फ़ना होने के लिए। उस रोज़ सीने के लगाव ज़्यादा ख़लिश पैदा करते और हम में से कई, नर्स सितम-गार के जिस्म का जुग़राफ़िया बयान कर के दिल की भड़ास और छुपे हुए जिन्सी अरमान निकालते थे।

    हमारे दिलों में चोर था और उनके दिलों में भी। हमारे अंदर कोई टेढ़ी सीधी रग ज़रूर थी जो नर्सों को ज़लील समझने पर उक्साती रहती थी और नर्सें भी हर वक़्त अपनी शख़्सियत और पिंदार के तहफ़्फ़ुज़ के लिए तैयार रहती थीं। उनके तजुर्बे रंग-रंग के थे। माज़ी के निहाँ-ख़ाने में सैकड़ों मरीज़, बीसियों डॉक्टर और कम्पाउंडर छुपे हुए थे। नर्सों के दिलों से हो कर एक तार गुज़रता था जो उन मरीज़ों और डॉक्टरों को गूँधे हुए हमें भी पिरोता चला जाता था।

    तीसरे दर्जे में ख़ल्वत का सुकून और मवाक़ेअ थे। लेकिन इज्तिमाअ का तनव्वोअ, हमदर्दी और रौनक़ थी। वार्ड के अलावा अपर सी वार्ड और लोवर सी वार्ड के दरमियान भी रक़ाबतें थीं मगर ये दूसरी रक़ाबत वल्वला-अंगेज़ और अमल-परवर थी। ये अपर और लोवर महज़ ज़मीन के नशेब-ओ-फ़राज़ का फ़र्क़ था। पहाड़ी इलाक़ों में ज़मीन का ऊँच-नीच बहुत ही नज़र-नवाज़ होता है। दोनों सी वार्ड तीसरे दर्जे के वार्ड थे। दोनों का एतिबार और इम्कानात बराबर थे लेकिन हमारे वार्ड का एका सारी सेहत-गाह में मशहूर था। हमारी लाग और लगाव बस समझिए मुत्तहिदा ही थे।

    वार्ड के इंतिहाई दाहिनी तरफ़ अठारह साल के एक गोरे नाज़ुक से लड़के का बेड था। उसके दोनों फेफड़ों में पी दी जाती थी। ये सेहत-गाह का मोजिज़ा था और मिसाली नमूने की हैसियत रखता था। डॉक्टर मद्रासी ने उसे हैरत-अंगेज़ तौर पर सिल के पंजों से छीना था। उसे बहुत ज़्यादा आराम करने की हिदायत थी फिर भी वो वार्ड की दिलचस्पियों में काफ़ी हिस्सा लेता था। वो नर्सों का खिलौना था। नन्हा गोपाल पन्द्रहवें साल में सेनीटोरियम आया था। उसके एक जानिब एक मारवाड़ी था बहुत ही मोटा ताज़ा, तीन मन उसका वज़न था। पर ये ग़रीब साढ़े तीन साल सेहत-गाह में रह कर बग़ैर शिफ़ायाब हुए तमन्नाएही चला गया। उसके दोनों फेफड़ों में बड़े-बड़े ग़ार थे। उसके बेड पर एक मारवाड़ी ही आया। ये इतना दुबला था कि हम लोग उसे मगनी राम का भूत कहते थे।

    तीसरी हस्ती एक सियाह रंग के मरीज़ की थी जो हयातीन के जुनून में सिर्फ़ एक सेर टमाटर दिन भर में खा जाया करता था। वो कम-सुख़न मगर ज़िंदा दिल था। ये हज़रत मर-मर के बचे थे शायद उनकी सूरत देख कर मलक-उल-मौत भाग खड़ा हुआ था। चौथा मैं ख़ुद था। सेहत-गाह में अपनी शादी के सूट पहन-पहन कर हसरतें निकालने वाला मेरा दूसरा हमसाया नक़ी था। एक तरफ़ भाई हाज़िक़ की सियाह-फ़ामी और दूसरी जानिब नक़ी का काफ़ूरी रंग, हम तीनों मिल कर उस इश्तिहार की तस्वीर बन जाते थे जिसके नीचे लिखा रहता है अब काला कोई नहीं रहेगा। नक़ी हसीन था और बेहद जवान मालूम होता था। शोख़, चूँचाल, बे-बाक और हँस-मुख। उसकी आमद से लोवर सी वार्ड का पल्ला गिराँ हो गया था। पहले अपर सी वार्ड में घोष नर्सों का मरकज़-ए-सिक़्ल था। मगर अब ड्यूटी ख़त्म होते ही सारी नर्सें अपने क्वार्टर जाते हुए लोवर सी में चली आती थीं। घड़ी दो घड़ी के लिए खाने की मेज़ के गिर्द बड़ी दिल-नवाज़ फ़िज़ा पैदा हो जाती थी।

    चहल साला वकील साहब के चुस्त फ़िक़रे नर्सों को बहुत भाते थे। वार्ड में दो वकील साहिबान थे। एक दाढ़ी रखते और नक़लें करते थे, दूसरे पेशानी पर चंदन का टीका लगाते और नर्सों से फ़ुहश मज़ाक़ करते थे। जुनियर वकील साहब की पेशानी पर अबीर की सुर्ख़ बिंदी नर्सों के लिए सरमाया-ए-तफ़रीह थी। उन दोनों बुज़ुर्गों की टेक्निक एक सी थी। ये पहले बेवक़ूफ़ बन कर और जुमले सह कर अपना हक़ जमा लेते थे और फिर मासूमाना अंदाज़ में मज़ाक़ का जवाब देते थे। उन दोनों का निशाना बे-ख़ता था। मगर एक की फ़ितरत में ईमाई तंज़ ज़्यादा था और दूसरे में वाक़ईयत नुमायाँ।

    नक़ी के बाएँ पहलू में एक नौजवान मिस्र जी थे। गोरा रंग जिस पर सुर्ख़ी की छूट थी। मिस्र जी बहुत जज़्बाती और रक़ीक़-उल-क़ल्ब थे। जिस्मानी तौर पर जो भी रहे हों मगर ज़ेहनी तौर पर बिल्कुल कुँवारे थे, अछूत कन्या की तरह और मिस्र जी को एक फेफड़े में पी दी जाती थी। मिस्र जी कुहना मरीज़ थे। पी का कोर्स ख़त्म हो चुका था। उनके मरीज़ फेफड़े को फ़्रैंक नर्व की जराहत के ज़रिए मुअत्तल कर दिया गया था। मैं और मिस्र जी मेडिकल कॉलेज के तालिब-इल्म रह चुके थे। तख़्ते की तरह चित लेटे यीसु मसीह से लौ लगाए रहते थे। कोई जुंबिश नहीं, किसी क़िस्म के आसार-ए-हयात नहीं। वो जब ज़रूरतन चलने फिरने पर मजबूर हो जाते थे तो यूँ चलते थे कि ज़ेर-ए-क़िदमत हज़ार जान अस्त। उसूलन वो अपने सिल-ज़दा फेफड़ों को कम से कम हरकत और ज़्यादा से ज़्यादा आराम देना चाहते थे। उनके नज़दीक गुफ़्तगू भी ज़ियान-ए-हयात थी। हर वक़्त, हर रोज़, हर साल यूँही ज़िंदगी गुज़ारते थे जैसे ससुराल में नई दुल्हन। सेहत-गाह में उन्हें ढ़ाई साल हो चुके थे।

    दसवीं हस्ती एक बंगाली मुसलमान लड़के की थी। सोलह सत्रह साल उसकी उम्र होगी। मोटा, गोल-मटोल सा, गर्दन न-दारद। ये लड़का ग़ुलाम रब्बानी भी प्रभु बाबू का मुरीद था। कम-सुख़न, कम-आमेज़ मगर बिसयार ख़ोर-ओ-बिसयार ख़्वाब। उसे हम लोग मुर्ग़ कहते थे और प्रभु बाबू को पतरस वली। मुर्ग़वुज़ू के अलावा ग़ुस्ल भी करता था।

    ये दसों मुख़्तलिफ़ तबाएअ के लोग थे। एक अनोखी हमदर्दी के ज़रिए एक दूसरे से वाबस्ता-ओ-पैवस्ता से थे। नर्सों से मज़ाक़ के वक़्त पतरस वली भी एक-दो मुस्कुराहटें ज़रूर अर्ज़ां कर दिया करते थे। वैसे भी वो हमारे रूमानों से काफ़ी दिलचस्पी लिया करते थे कैथरिन और ईशरी की आवाज़ सुनते ही मुर्ग़ भी बाँग देने लगता था। ये दो नर्सें जान सेनीटोरियम थीं। ईशरी बीस साल की संदली रंग-ओ-दराज़ क़द, छोटी मगर मुस्कुराती हुई आँखों वाली लड़की थी। वो चलती थी जैसे अस्प-ताज़ी क़दम चलता है। वो उसकी गर्दन और सीने का कौन होता है हरीफ़-ए-मय मर्द अफ़्गन-ए-इश्क़ क़िस्म का ख़म। ईशरी मिलन-सार, दिल-नवाज़ और मुजस्सम सुपुर्दगी थी। वो नसीम-ए-ख़ुश-ख़िराम की मिसाल आज़ाद-ओ-हमागीर थी। ईशरी कैथरिन को कुट्टू बुआ कहती थी।

    कैथरिन पच्चीस साला भरपूर जवान औरत थी। साँवला रंग जराहात जफ़ा पर नमक-रेज़, उसके फैले और गुदाज़ कूल्हे, उसकी गोल कमर, उसकी मिसाली हिन्दी चाल, मस्त हाथी की तरह वो यूँ उफ़ुक़ नज़र में दाख़िल होती जैसे समुंद्री सफ़र के बाद जहाज़ हिचकोले खाता हुआ साहिल की तरफ़ आता दिखाई देता है। उसके भारी कूल्हों के महवर पर बालाई जिस्म झूम सा जाता था, जैसे फलदार शाख़ मोटे तने पर लचक सी जाए, पर उसके कूल्हे पेश-ओ-पस डगमगा के मतानत से आगे बढ़ते जाते थे। वो दाहिने हाथ से हल्का सा इशारा करके सारी के पल्लू में तनाव पैदा करती और छोड़ देती थी। आँचल की लिपटन में उसके सीने उभर आते थे और पल्लू लहराने लगता था। कैथरिन उमूमन मतीन सी रहती थी मगर अचानक तौर पर वो शोख़-ओ-सह्रकार बन जाती थी और फिर संजीदा। बिजली का चँचल-पन और उमंडते हुए काले, मौज-दर-मौज बादल की गंभीरता, ये दोनों एक दूसरे को नुमायाँ करके क़ातिल तर बनाती थीं। उसकी फ़ितरत में बह्र-उल-काहिल की गहराई थी।

    इन दो के अलावा सात और थीं। एक जोड़ा था मार्था और फ़ेबी। मार्था मर्दाना-वार लांबी चपटी सी औरत थी। हँसोड़ और बे-झिजक। फ़ेबी उसके ज़ेर-ए-हुकूमत थी। नर्स क्वार्टर के एक ही कमरे में दोनों रहती थीं। वहाँ दो पलंग के कमरे थे। फ़ेबी तू फ़लाँ मरीज़ से घुल-मिल कर क्यों मिली? फ़लाँ ने तुझसे छेड़ क्यों की? इस जोड़े के निस्फ़ बेहतर हिस्से पर हर वक़्त पहरा था। मार्था हाँ मिस्र जी से ख़ुश थी। शर्मीली अछूत कन्या से मिस्र जी।

    एक जोड़ा दो चचा-ज़ाद बहनों का था सलोमी और फ़्लोरेंस। दोनों गोरी-गोरी, गुदाज़-गुदाज़, माइल ब-फ़रबही औरतें थीं मगर लड़कियाँ कहे जाने पर मुसिर। सलोमी अख़्लाक़न या ज़रूरतन लड़की कही और समझी जा सकती थी लेकिन फ़्लोरेंस तो बहुत ही बुलंद अख़्लाक़ी और अशद्द ज़रूरत के बावजूद औरत से लड़की नहीं बन सकती थी। मेगी और दुलारी काली-काली चपटी नाकों वाली नर्सें थीं। ख़ुश-अख़्लाक़, करम-फ़रमा, हर-दिल-अज़ीज़, ईसार-पसंद मेगी अधेड़ उम्र की थी और दुलारी जवान। उसके छोटा नागपुरी सीनों की संगीनी, नाक के चपटे-पन का इस हद तक कफ़्फ़ारा ज़रूर अदा कर देती थी कि उसकी पेशानी के महाज़ से नज़र यूँ फिसल कर सदर में ठोस सहारे के बल पर थम जाती थीं।

    नवीं थी डोली। वो सरापा डोली थी। छोटा सा खिलौना। शरीर आँखें मटकाने और चें-चें करने वाली गुड़िया। गहरा साँवला रंग, बूटा सा क़द, पाजी आँखें, खिलंडरी बे-बाक, लड़ पड़ने वाली और लड़ कर हँस देने वाली। ये सबसे कम उम्र थी। अठारह उन्नीस साल की होगी। कभी तो ये बद-सूरत दिखती थी और कभी गवारा हद तक भोली।

    सेहत-गाह एक वीराने में थी। सबसे नज़दीक का गाँव डेढ़ मील पर था, और सबसे नज़दीक का शहर अठारह मील पर। सेहत-गाह की बस अपनी एक छोटी सी दुनिया थी अलग-थलग। दो डॉक्टर, एक कम्पाउंडर, एक ड्रेसर, एक एक्सरे बाबू, दो क्लर्क, नौ नर्सें, एक मैटर्न और एक सिस्टर, आठ वार्ड बॉय, चंद मेहतरानियाँ और पचास के लगभग सिल-ओ-दिक़ के मरीज़ मअ अपने बावर्चियों और चंद तीमारदारों के। वार्डों के चारों तरफ़ बाग़, जंगल और सुर्ख़-सुर्ख़ मोरम के बड़े-बड़े टीले थे। कुछ दूर पर छोटी-छोटी मगर पुर-शोर पहाड़ी नदियाँ थीं। जाड़ों और गर्मियों में ये नदियाँ मरीज़ों के आँसुओं की तरह ख़ुश्क हो जाती थीं।

    एक रोज़ मैं और नक़ी एक्सरे के लिए नर्स डोली के साथ जा रहे थे। डोली सुबह से ग़मग़ीन और चिड़चिड़ी थी। बड़े साहब ने उसे डाँटा था। रास्ते में उसने दूर से बड़े साहब को देखा। कहने लगी, बड़ा बनता है, एक्सरे करने के बहाने डार्क-रूम में ख़ुद जो चाहे कर गुज़रे और दूसरों से जलता है। डॉली ने ग़ुस्से की बद-ख़्याली में ये जुमले अदा किए। हम लोगों की मौजूदगी के एहसास ने उसे चौंका दिया। पर्दा-दारी के बग़ैर रूमान रहता है कशिश। वो कह चली, नर्सें अगर देसी होतीं तो जाने क्या हो जाता। ख़ुदा बाप हम लोगों को बचा लेता है।

    बात ये थी कि बड़े साहब के जज़्बा-ए-इजारेदारी के बावजूद नर्सों की इन्फ़िरादियत हमेशा सर्कशी पर तुली रहती थी। महीने में एक रोज़ नर्सों को डे-ऑफ़ मिलता था। वो तन्हा या दो-तीन की टोली बना कर शहर चली जाती थीं मगर अज्नबी शहर में दिल की प्यास का बुझना, ब्लाउज़ या पेटीकोट की लेस ख़रीदना तो है नहीं। नर्सें उमूमन वहाँ से दिल का बोझ उठाए हुए वापस आतीं बल्कि सिनेमा देखने के बाद आरज़ुओं की ख़ाकिस्तर के अंदर चिंगारियाँ और सुलग उठतीं। क्वार्टर में दो नर्सों की टोलियाँ थीं। ये टोलियाँ ज़्यादा-तर ज़िंदगी की ठेठ हक़ीक़तों और मुतालिबों पर जानिब दाराना तब्सिरा किया करती थीं। फ़ाश सदाक़तों को आँखों में डाल कर देखती थी। जब सब मिल बैठतीं तो फिर मरीज़ों, डॉक्टरों और डे-ऑफ़ की बातें, ताना-ओ-तंज़, छेड़-छाड़ और कभी झूमर के गीत,

    आगे-आगे मैं चली और पीछे-पीछे सैयाँ

    सरोता काहे भूल आए प्यारे नंदोइया

    और ग़ज़लें।

    इश्क़ अता कर दे वो कैफ़ का पैमाना

    सैयाँ तो ख़ैर दूर की बात थी मगर कैफ़ के पैमाने की तलाश जारी रहती। हर नर्स की कई-कई दास्तानें थीं मगर उनसे उनकी तबियत कभी सेर हुई। जवानी, औरत, बीवी और माँ हमेशा उनमें जागती रहती थीं और जाने कितने जाने और अंजाने रूप बदल कर उनके जज़्बों पर छा जाती थीं। सतह के नीचे ना-आसूदगी और बेज़ारी पोशीदा रहती थी। इरादी और ग़ैर-इरादी क़ुव्वतों ने उन्हें ज़िंदगी की उस मंज़िल में ला डाला था जहाँ लिताफ़त मिटी थी रूपोश हो गई थी। कुछ अजीब बात मालूम होगी मगर ऐसा भी होता था कि किसी नर्स ने मरीज़ के बलग़म में सिल के कीड़ों के पाए जाने के बावजूद उसके लिए अपने लब-ओ-रुख़सार अर्ज़ां कर दिए और ये मसलूल-ए-सिल के कीड़ों को मुकम्मल तौर पर अपने दिल-ओ-दिमाग़ में हज़म कर जाते थे।

    मुसबत मरीज़ घुमना साँप से ज़्यादा ख़तरनाक समझे जाते हैं मगर ये देवियाँ बस घोल कर पी जाती थीं। कौन जाने मोहब्बत के अमृत में मिला कर या आतिश ब-दामाँ हवस की आग में बुझा कर। मरीज़ तो जरासीम को तमन्नाए हयात की रौ में बहा देते थे। वो इतनी बार टी-बी, टी-बी का विर्द करते थे कि टी-बी बे-हक़ीक़त हो जाती थी। जैसे मुल्ला की तस्बीह पर घूमते-घूमते ख़ुदा बे-हक़ीक़त हो जाता है। एक बार भाई हाज़िक़ ने स्प्यूटम फ़्लास्क में सख़्त खाँसी के बाद बलग़म फेंकते हुए मिस्र जी से मुस्कुराते हुए कहा था, भाई! तुम बीबी और फ़ीबी (फ़ेबी) दोनों से लुत्फ़ उठाते हो, मैं सिर्फ़ टी-बी से लुत्फ़ अंदोज़ होता हूँ। मैंने कहा था मैगी भी तो हम क़ाफ़िया है। अपनी ग़ज़ल के लिए आप उसे इस्तेमाल कीजिए। भाई हाज़िक़ हँसने लगे और उन्हें ज़ोर से तकलीफ़-देह खाँसी गई।

    हम लोग क्रिस्मस, ईद और होली सब त्योहार मनाया करते थे और यूँ और मरीज़ों के अलावा ज़ी फ़राश मरीज़ भी अपने दुख-दर्द को भुला कर ग़म ग़लत कर लिया करते थे। नक़ी को सेहत-गाह में आए हुए सातवाँ महीना था और मुझे पाँचवाँ कि क्रिस्मस गया। इस अरसे के अंदर मैं और नक़ी बहुत क़रीब हो चुके थे। औरतों के वार्ड वालियाँ हमें सारस का जोड़ाकहती थीं। ज़नाना वार्ड हम लोगों के वार्ड के पहलू में था। मासूम से मिस्र जी गाहे-गाहे वहाँ ब्रिज या कैरम खेलने के लिए बुला लिए जाते थे। मिसेज़ शंकर और मिसेज़ इकराम ने एक दो दफ़ा सारस के जोड़े को बुलवा भी भेजा मगर हम लोगों ने ताब-ए-मुक़ाबला पाकर बुलावे को टाल दिया मगर जब हम लोग ड्रामा खेलते थे तो फिर ज़ेवर और कपड़े माँगने की तक़रीब से जिंस लतीफ़ से मुलाक़ातें हो ही जातीं थीं, क्रिस्मस के मौक़े पर भी हम लोगों ने ड्रामा खेला। नर्सों ने भी शिरकत की मगर ये क्रिस्मस के जज़्बात में तूफ़ान बरपा करता हुआ आया।

    नक़ी लोवर सी वार्ड में सबसे ख़ूबसूरत और ज़िंदा दिल नौजवान था। उसकी शोख़ हसीन आँखें चश्मा शीरीं की तरह थीं। सिन्फ़-ए-नाज़ुक के लिए दिल की प्यास बुझाने का निहायत ही शादाब ज़रीया। हर नर्स ने उसकी लांबी और घनी पलकों के नख़्लिस्तान में पनाह लेनी चाही मगर ईशरी की जुर्अतों के सामने बक़ीया सब अक़बी ज़मीन की आराइश बन कर रह गईं, हाँ नन्ही डोली इस तरह वा-बस्ता रही जैसे हिंदुस्तान के साथ लंका। डोली गिलहरी थी। हर दरख़्त पर चढ़ कर फल कुतरने वाली मगर चोरी-चोरी ये ले और वो भाग।

    ईशरी बेहद जज़्बाती थी। उसके जज़्बात की रौ में माज़ी, हाल और मुस्तक़्बिल सब बह जाते थे। उस पर मोहब्बत के दौरे पड़ते थे। दो तीन माह से ज़्यादा वह शिद्दत के साथ किसी को नहीं चाहती थी मगर नक़ी ने उसे राम कर लिया था। मोहब्बत के दौरे के वक़्त भी वो किसी के जज़्बाती मुतालिबे को रद्द नहीं कर सकती थी। वार्ड के मुंसिफ़ साहब उसपर मरने लगे थे। ईशरी ने उनका दिल भी नहीं तोड़ा और दिल दही के लिए वो इंतिहाई बख़्शिशों से काम भी ले लिया करती थी।

    मुझसे किसी का कुढ़ना देखा नहीं जाता नक़ी और एक तुम हो। ईशरी ने मेरे सामने एक बार झव्वे के साये में कहा था। वो अपने सारे क़िस्से हम लोगों से कह देती थी। उसका कोई राज़ था। कैथरिन ईशरी की ज़िद थी। वो मुजस्सम राज़ रहने की कोशिश करती थी। उसकी फ़ुतूहात पस-ए-परदा हुआ करती थीं। अपने को वो निहायत पारसा साबित करना चाहती थी मगर नक़ाब-ओ-हिजाब का इतना गोशा वो चुटकियों से इरादतन ज़रूर उठा देती थी कि उसकी महबूबियत और गिराँ-माएगी अरमान अंगेज़ तौर पर ज़ाहिर हो जाएँ। कैथरिन ने भी नक़ी को अपना शिकार बनाना चाहा मगर नक़ी उसकी आहिस्ता ख़िरामी और राज़-दाराना अंदाज़ की फ़ित्रतन ताब ला ही नहीं सकता था। वो मोहब्बत में जरी था। बे-बाक ईशरी की ज़ात में उसको वो टाइप मिल गया जो जज़्बात के खेल में हर रुकावट को गुनाह समझता है।

    ये सब कुछ हो चुका था जब में सेनीटोरियम आया। एक महीने के अंदर ही मैं और नक़ी घुल मिल गए थे। ईशरी मेरे सामने भी नक़ी से बेतकल्लुफ़ बातें करती थी मगर कैथरिन ने जब एक रोज़ मेरा बिस्तर दुरुस्त करते हुए चुपचाप ओढ़ने वाली चादर के अंदर मेरे हाथों में गुलाब का फूल दे कर आहिस्ते से कहा, डार्लिंग और मैंने इस सानिहा का तज़्किरा नक़ी से कर दिया तो कैथरिन ने मुझसे शिकवे किए, आप तो बड़े ना समझ हैं, देखिए नक़ी मुझे भाभी कहने लगा है। मैं ये बातें पसंद नहीं करती। मेरी भी तो इज़्ज़त है। वो तो आप से... कैथरिन ने अपनी संजीदा शीरीं लोच-दार आवाज़ में शिकायत की और बात को मुकम्मल करते-करते दानिस्ता रुक कर हँसने लगी।

    क्रिसमस की तैयारियाँ ख़ूब हुईं। हम मरीज़ों ने रंग बिरंग के काग़ज़ों के ज़ंजीरे और झंडियाँ बनाईं। सारी सेहत-गाह की आराइश की गई। चौबीस दिसंबर को हर जगह ख़ुशी थम-थम कर उबलने के लिए बेचैन हो रही थी। नर्सें नौ-ख़ेज़ हिरनियों की तरह कुलेलें करती फिरती थीं। उसी रोज़ बड़े साहब ने भी रक़ाबत और फ़र्ज़ की ज़ंजीरें ढीली कर दी थीं। शाम को नर्सें वार्ड में झुरमुट बना कर सिर्फ़ ये पयाम देने आईं कि वो लोग क्रिसमस का नग़्मा-ए-शब गाती हुई सुबह काज़िब के वक़्त ही वार्ड में आएंगी। सब लोग उनकी पज़ीराई के लिए तैयार रहें। वो सबकी सब वर्दी बर-तरफ़ किए हसीन-ओ-आरज़ू-ख़ेज़ साड़ियों में लिपटी, जज़्बात के बोझ से लड़खड़ाती फ़िज़ा में रक़्स मस्ताना करती हुई मालूम हो रही थीं।

    ईशरी तूफ़ान सैलाब थी। कैथरिन ने अपनी फ़ितरत का नक़ाब उलट दिया था। वो भी क्रिसमस ईव पर बे-महाबा थी और कौन उस शाम को मुतहर्रिक सुपुर्दगी था। लोअर सी वार्ड में कहर बाई लहर दौड़ गई। मुअम्मर वकील साहब (जिन्हें हम लोग पीर-ए-मुग़ाँ कहते थे) से लेकर ग़ुलाम रब्बानी तक लोग तलातुम महसूसात में डाँवाडोल हो रहे थे। हमारे हाथ उठे थे लेकिन हमारे जज़्बात-ए-आग़ोश वा किए हुए थे। उफ़! सी वार्ड के मुम्किनात और मवाक़ेअ कितने महदूद थे। हमारे दिल में अपनी जेबें अड़ाए वार्ड की ख़ल्वतें, इन्फ़िरादी शान में आसूदा खटक रही थी।

    नर्सें बड़े साहब के यहाँ 'क्रिसमस ट्री' बनाने जा रही हैं, जागते रहना। हाँ! एक लोच-दार आवाज़ फ़िज़ा में लहरा कर दिलों में उतर गई।

    ओह... रे... ऐ! नहीं कैसे जागेंगे बुआ तुम भी तो जान के बनती हो। भला आज रात नींद ही कब आएगी उन्हें। ज़रा मिस्र जी को तो देखो... एक रहज़न तम्कीन होश ने दुखती हुई रग छू ली। फिर जलवा-ए-बर्क़ फ़ना क़िस्म का क़हक़हा तरन्नुम-बार हुआ, और फ़ेबी को छेड़ती हुई सब नर्सें यूँ चली गईं जैसे आतिश-बाज़ी छूट के रह गई हो।

    वो रात क़यामत-ख़ेज़ थी। नर्सों के चले जाने के बाद हम सब लोग यक-ब-यक महज़ूँ हो गए। बीस दिसंबर को ग्यारहवाँ मरीज़ हम लोगों के वार्ड में दाख़िल हुआ। बाईस को वो बहुत ही दर्द-ओ-कर्ब के आलम में जाँ-ब-हक़ हो गया उसका फेफड़ा फट गया था। हम दसों की नज़र यूँ ख़ाली बेड पर जाकर हम आग़ोश हुईं। ख़ामोश मातम की हालत में पर बीती आप बीती बनी जा रही थी। कुछ देर तक हम सब हमदर्दाना अंदाज़ में चुप-चुप से रहे। हम इस अंदोह बला से पनाह चाह रहे थे और इंतिक़ामन हम सारे जहाँ की ख़ुशियों को छीन कर अपने दिल में जमा कर लेने की तमन्ना कर रहे थे। पीर-ए-मुग़ाँ मग़रिब की नमाज़ पढ़ने चले गए। वहाँ से उन्होंने कुछ सुकून मुस्तआर लिया और सलाम फेरते ही आख़िर-ए-शब की उम्मीदों के तज़किरे छेड़ दिए। हम सब लोग टूट कर उन तसव्वुरात से लुत्फ़ लेने लगे। नंबर ग्यारह के जिस्म को फिर से जिला कर हमने ज़र्रात फ़िज़ा में बिखेर दिए और उसकी रूह ख़्यालात की इंतिहाई गहराइयों में दफ़न कर दी। उस शाम को हमने इस्तिराहत के घंटे में भी बुलंद आवाज़ में गुफ़्तगू की। बे हँसी की हँसी हँसे और नर्सों का इतने पहलू और ज़ावियों से तज्ज़िया किया कि उनके जिस्म तहलील होकर हम में समा गए और हम उनमें।

    निस्फ़-शब ही से नर्स क्वार्टर बेदार हो गया था। गीतों और हंसियों की आवाज़ें हमारी मुज़्तरब नींदों को और बैकल कर रही थीं। अभी रात ही थी कि क्रिसमस का हसीन नग़्मा-ए-शब अचानक तौर पर लोवर सी वार्ड के बहुत क़रीब सामेआ-नवाज़ हुआ। हम ग़ुनूदग़ी और नींद के दरमियान से आँखें मलते हुए उठ बैठे। हम में से अक्सर ने जल्द-जल्द अपने उलझे हुए बाल दुरुस्त कर लिए। नर्सें हारमोनियम पर क्रिसमस केयर दिल गाती, चुहलें करती लड़खड़ाती चली रही थीं। वो गईं चैत की सिंकती हुई हवाओं की तरह, शबाब की उमंगों की मिसाल कुछ देर के लिए। नग़्मे रुक गए। ख़ंदा-ए-बे-बाक थम गए और फ़िज़ा सुक्र-ओ-मस्ती से लब्रेज़ हो कर छलकने लगी। वल्वला ब-दामाँ ख़ामोशी का तरन्नुम, ज़िंदा सुकूत की अबदी लय, आग़ोश-ए-वजूद में थर्थरा रही थी। इसके क़ब्ल कि कोई बढ़ कर बिजली का बटन दबाए बहुत सी हसरतें पूरी हो गईं, बहुत सी आरज़ूएँ जवान हुईं, कई अरमान पैदा हुए और अनगिनत ना-कर्दा गुनाह हसरत की दाद लेने के लिए दर्दनाक मज़्हका का सामान बन गए।

    आज इन्फ़िआल ख़ुद जुरअत-ए-रिंदाना पर तुला हुआ था। बाहर सतह मुर्तफ़अ पर चलने वाली तेज़ हवाएँ सर्द, बूढ़े, ख़ामोश, गहरे नीले आसमान के साये में अल्हड़ दोशीज़ाओं की तरह लग़्ज़ीदा थीं। पूरब के दरवाज़े खुले हुए थे। मैंने तारों की चंद आवारा शुआओं की मद्धम रौशनी में माइल इन्हितात फ़्लोरेंस को अपने बहुत क़रीब पाया और जब किसी ने भक से रौशनी जला दी तो मैंने देखा कि डोली और नक़ी के दरमियान एक सेकेंड में थोड़ी सी दूरी पैदा हुई। इसके अलावा भी कई क़ुमाश बने और बिखरे। नग़्मे फिर बुलंद हुए। हारमोनियम ईशरी बजा रही थी और सलोमी ने फ़ादर क्रिसमस का स्वाँग भरा था। सुर्ख़ पैजामा, सुर्ख़ अबा, नीली ऊँची ख़ुर्तूमी टोपी और सफ़ेद लांबी दाढ़ी। हम सब लोग उसे देख कर बे-तहाशा क़हक़हे लगाने लगे। पीर-ए-मुग़ाँ ने बढ़ कर फ़ादर क्रिसमस से मुआनिक़ा किया। इसपर एक गूँजता हुआ क़हक़हा लगा।

    दालान के खुले हुए हिस्से में एक हलक़ा डाल दिया गया। रक़्स और नग़मे शुरू हुए। नर्सें अपना बेहतरीन लिबास ज़ेब-तन किए हुए मोर की तरह नाच रही थीं। बारी-बारी और गाह झूमर डाल कर गा रही थीं। उनकी बेपनाह सुपुर्दगी हम लोगों को मदहोश कर रही थी। गाते-गाते उनके हश्र-ख़ेज़ इशारे, नाचते-नाचते उनके शानों पर ज़रा आसूदगी हासिल कर लेना, मौत और हयात की सरहदें मिला रहा था। पीर मुग़ाँ ने ईशरी के गले से बंधा हुआ हारमोनियम उतार कर अपने गले में डाल लिया। मैंने और नक़ी ने हारमोनियम को सहारा दिया। हमें उस घड़ी भी मजरूह फेफड़ों पर वज़न पड़ जाने की मज़र्रत भूली थी। मुअम्मर वकील साहब ने झूम-झूम कर ख़ूब वल्वला-ख़ेज़ गत बजाई और रात की परियाँ मुजस्सम ग़ज़ल-उल-ग़ज़लात बनी हुई ख़ुदाए मोहब्बत के जलवों के ख़ैर-मक़दम में अर्ज़-ए-नग़्मा और गुज़ारिश रक़्स पेश करती रहीं।

    क्रिसमस के बाद हिजाब उठ गए थे। सुबह की शर्मीली सुर्ख़ी बड़े दिन के बाद रोज़ रौशन की तनवीर बन गई। हम मरीज़ों के जज़्बात की जड़ें सेहत-गाह की ज़मीन में ज़्यादा पैवस्त हो गईं। ऐसा महसूस होता था कि बूढ़े क्रिसमस ने सेनीटोरियम की बालाई सतह खुरच कर मोजिज़ाना तौर पर एक नई दुनिया बना दी है, जिसमें अस्पताल की तल्ख़ हक़ीक़तों के साथ घरेलू फ़िज़ा की लताफ़त और हमदर्दी भी है। हम लोगों ने पीर मुग़ाँ की शादी तफ़रीहन फ़ादर क्रिसमस से कर दी जो सुबह होते ही चोला बदल कर मदर क्रिसमसथी। पीर मुग़ां उसे मेरी घर मेंके उसूल से मेरी वार्ड में कहने लगे। ईशरी बा-ज़ाब्ता तौर पर मेरी साली बन गई और कैथरिन नक़ी की भाभी थी। इस नौ की और भी कई रिश्तेदारियाँ क़ाइम हो गई थीं। हम लोग इन रिश्तेदारियों को यूँ इस्तेमाल करते थे जैसे लँगड़े बैसाखियाँ इस्तेमाल करते हैं हमारे ये ज़ेहनी सहारे फ़रेब की बिना पर क़ाइम थे। मगर ज़िंदगी में कभी ऐसा भी होता है कि फ़रेब हक़ीक़त से ज़्यादा हक़ीक़ी बन जाता है। हम लोग कश्ती-ए-शिकस्ता पर सिंदबाद जहाज़ी यार इब्न सन क्रूसो की तरह सेहत-गाह के सहराई जज़ीरे में बैठे संसार से अलग-थलग, इंतिज़ार की दबी हुई आग सीनों में लिए बुरी-भली अपनी एक छोटी से दुनिया बना रहे थे। इंसानियत के दिल में कितनी ला इंतिहा हसरत-ए-तामीर भरी हुई है।

    यूँ तो पहले भी नर्सें हम लोगों के लिए डे ऑफ़ में शहर से फल और मेवे ले आती थीं मगर क्रिसमस के तोहफ़ों की रंगीनी-ओ-दिल-आवेज़ी से एक नए दौर की इब्तिदा हुई। पहले फल और मेवों ने रूमानी लिताफ़तों की शक्ल इख़्तियार की। जज़्बे की हिद्दत ने उन्हें हरीरी रूमालों और इत्र सेंट में तब्दील कर दिया। हक़ीक़त की एक सय्याल सूरत रूमान है जैसे बर्फ़ से पानी और पानी से भाप बन जाती है मगर कुछ दिनों के बाद रूमाल और सेंट तनासुख़ के चक्कर में पड़ कर बेसनी रोटी और पुडिंग बन गए। इस्तिमरार-ए-हयात के लिए रोज़मर्रा की वाक़इयत का वसीला लाज़िमी है।

    गोपाल बहुत ख़ुश था अक्सर कहता, नक़ी भाई! वार्ड में बहुत जी लगता है। ऐसा लगता है कि मेरी बीमारी अच्छी हो गई... तब भाई अनवर हम फिर जा कर स्कूल में नाम लिखवा सकेंगे ना? उसकी आँखों में ज़िंदगी की आरज़ुएँ झलकने लगतीं। वो ज़रा निढ़ाल हो कर कह चलता, मगर पुडिंग और बेसनी रोटी और किट्टु बुआ के गीत, तबियत बहुत घबराएगी यहाँ से जाके, है ना? फिर हम सिल के मरीज़ों से कौन घुल मिल करेगा। साँप से कौन खेलेगा? ईशरी भाबी और कुट्टु बुआ का प्रेम कहाँ मिलेगा? नादान और पुर-अरमान गोपाल पर रिक़्क़त सी तारी हो गई।

    लोअर सी वार्ड में तअल्लुक़ात में इज्तिमाईयत का रंग चोखा था। प्रभू बाबू अपनी सूफ़ियत और गोपाल अपने कोमल अरमानों के बावजूद दूसरे वार्डों से, हम सब लोगों से ज़्यादा रक़ाबत करते थे। वो सिल-ओ-दिक़ के हलाहल में निसाई लताफ़तों का अमृत उंडेल कर सम्मीत को गवारा बनाने के लिए बेचैन थे। प्रभू बाबू को अपने बड़े से कुंबे की ज़िम्मेदारियाँ याद आती थीं। यीसू मसीह की मोहब्बत, ब्रिज और कैरम के खेल, नर्सों का लोच, जो भी ज़ख़्म पर मरहम का फाहा रख दे, जिससे भी ग़म ग़लत हो जाए। एक रोज़ गोपाल बरहम-बरहम सा टहल कर वापस आया। अब उसे चंद फ़र्लांग चलने-फिरने की इजाज़त मिल गई थी और सैर के बाद उसकी हरारत का दर्जा बढ़ता था। उन दिनों वो बहुत मसरूर था। उसे उम्मीद थी कि रफ़्ता-रफ़्ता उसे भाई हाज़िक़ की तरह एक मील सैर की इजाज़त मिल जाएगी।

    गोपाल को बेज़ार और बरहम देख कर मुझे और नक़ी को सख़्त तअज्जुब हुआ। हम लोग भी दो मील की सैर के बाद पलँग पर लेट कर थर्मामीटर लगा रहे थे। उसके बाद फ़ौरन शाम की इस्तिराहत का घंटा शुरू हो गया। डोली की ड्यूटी थी, उस बक-बक करने वाली लड़की ने हम लोगों को बातें करने नहीं दीं। गोपाल का नाज़ुक सा चेहरा तमतमा रहा था। वो कुछ कहने के लिए बेचैन था और हम लोग सुनने के लिए मगर क़हर मरीज़ बर जान मरीज़, एक घंटा हम लोगों ने अजब उलझन में गुज़ारा। टन-टन टन! घंटी बजी और गोपाल झट उठ कर मेरे और नक़ी के पलंग के दरमियान खड़ा हुआ। हम भी उठ बैठे।

    किट्टु बुआ ऑब्ज़र्वेशन वार्ड में महिंद्र बाबू से... गोपाल रुक गया। उसका चेहरा और सुर्ख़ हो गया, महिंद्र बाबू ने किट्टु के गाल में... अब के उसने बुआ नहीं कहा,अनवर भाई कैथरिन से मत बोलिए। गोपाल बहुत ख़फ़ा था। उसकी आँखें पुर-नम हो गईं। एक घंटे के बाद ड्यूटी से फ़राग़त हो गई तो कैथरिन हम लोगों के वार्ड में आई। कुछ शरमाई हुई ख़फ़ीफ़ वो सीधे मेरे पास आई।

    अनवर बाबू! मुझे टाई बांधने नहीं आती। ड्रामे में मेरा मर्दाना पार्ट है। मैं आप से ही तो टाई का नॉट बँधवाऊँगी। ये कह कर वो मुस्कुराई, लचकी और दुज़दीदा निगाहों से उसने गोपाल को भाँपा। कैथरिन ने भी कार ख़ैर करते वक़्त ग़ालिबन गोपाल को देख लिया था। ये जुमले आज़माईशी थे। जिनके अंदर एहसास लग़्ज़िश ने मुश्तबहा पज़ीराई को उम्मीद अफ़्ज़ा बनाने के लिए नवाज़िश और शीरीनी की आमेज़िश कर दी थी। मैंने कोई जवाब दिया। उसने कुछ और छेड़ा तो मैं एक किताब उठाए पढ़ने लगा। कैथरिन चली गई। उसके अंदर निसाई पिंदार काफ़ी था और फिर राज़ को वो शर्मिंदा-ए-उर्यानी करना कब गवारा कर सकती। हम लोगों में बातचीत बंद हो गई। एक रोज़ हल्की-हल्की बारिश हो रही थी। ईशरी दूसरे वार्ड जाते हुए मेरे पास आई और चुपचाप से सिर्फ़ ये कह गई, कुट्टु बुआ का आज डे ऑफ़ है। वो शहर नहीं गईं अपने कमरे में चादर से मुँह लपेटे रो रही हैं।

    इन दिनों ईशरी भी वार्ड के मुसन्निफ़ साहब से ख़ूब पेंगें बढ़ा रही थी। मैंने और नक़ी ने ये मश्वरा किया कि कैथरिन और ईशरी, इन दोनों लात और मनात को कशीदगी का मज़ा चखाया जाए। अपने फ़ैसले से हमने अहल-ए-वार्ड को भी मुत्तला कर दिया। प्रभु बाबू और पीर मुग़ाँ ने साद किया। तै ये हुआ कि मैं सिर्फ़ कैथरिन से मरासिम तर्क कर दूँ और नक़ी सिर्फ़ ईशरी से। दूसरे मरीज़ हस्ब साबिक़ मेल-जोल जारी रखें वरना नर्सें वार्ड ही से गुरेज़ कर जाएँगी। ये चुप-चुप एक हफ़्ते तक जारी रही। एक रोज़ शाम की सैर से पहले स्टोर रूम से नक़ी महजूब से हँसी हँसता हुआ निकला और मुझे अलैहदा ले जा कर कहने लगा, सैलाब को मज़बूत दीवार रोक सकती है मगर सैलाब भी कहीं रुक पाता है, चलो कशीदगी हो चुकी। ईशरी की शख़्सियत की तूफ़ान वशी नक़ी की शोला मिज़ाजी को पँखा झल गई। मैंने उसे बहुत बुरा भला कहा। वो एक क़हक़हा लगाते हुए बस इतना बोला, मन्सब भी क्या याद करेगा। मैंने जवाब दिया, मगर तुम ईशरी को अपना तो सके।

    तो क्या तुमने चुप रह कर कैथरिन को अपना लिया? वो तुनक कर बोला और फिर कामयाबी की हँसी हँसने लगा। मैंने वाक़ईयत का ठोसपन और जज़्बात-परवरी की ना-मुरादी का ज़हर महसूस किया। बात ये है कि गोपाल की रिपोर्ट मेरे एहसास की बालाई सतह से काफ़ी नीचे उतर गई थी। क्रिसमस ने हम लोगों की तवक़्क़ोआत को बहुत आगे बढ़ा दिया था और तवक़्क़ोआत का क़ियाम ख़लिश ना-मुरादी में बिस भर देता है। फ़र्क़ ये था कि नक़ी हक़ीक़त पसंद था और मैं ज़रा मिसाली बुलंदियों पर उड़ कर ग़ैर-मामूली लज़्ज़त हासिल करने का आदी।

    दो-तीन रोज़ के बाद मैं और नक़ी रात के खाने से फ़ारिग़ हो कर वार्ड के सेहन के एक गोशे में यूक्लिपटस के दरख़्त के नीचे बैठे हुए थे। चाँदनी रात थी मगर अब्र के सफ़ेद-सफ़ेद टुकड़े चाँद को प्यार करते हुए नीले आसमान में तैर जाते थे। बाद शुमाल यूँ चल रही थी जैसे आसूदगी के बाद ख़्यालात माज़ी की रंगीन-ओ-आबाद वुस्अतों में लुत्फ़-ए-परवाज़ हासिल करते हैं। हम लोग ज़रा संजीदा हालात में एक दूसरे के मुस्तक़बिल के मुतअल्लिक़ हमदर्दाना सोच बिचार कर रहे थे। कैफ़ बार माहौल में कभी तबियत बड़ी संजीदा और गुदाज़ हो जाती है। अचानक ख़ुशगवार हंसी का नग़्मा हवा के फ़र्श पर रक़्स कर गया। पागलों को देखो। कैथरिन की लोचदार आवाज़ ऐन अक़ब से आई। पागलों से भी बड़े पागल, बिल्कुल बावले। अच्छा ये सारस का जोड़ा क्या कर रहा है चाँद से प्रेम हो रहा है? ये ईशरी की शोख़ बोली ठोली थी। मैंने कहा, आओ ईशरी तुमसे प्रेम करें!

    वाह! मैं क्यों आऊँ? वो... रे... ऐ! देखो ना, किट्टु बुआ तुम्हें मनाने आई हैं। मैं ख़ामोश रहा। कैथरिन मेरे पास घास पर बैठ गई।

    देखो आज बड़े साहब ने मेरे बाज़ू में कोलो कैल्सियम का इंजेक्शन दिया है। छी कितना फूल गया है बहुत बे-दर्द है अनवर बाबू... उसने मुतरह्हम नज़रों से मुझे देख कर कहा। मैं बेगाना सा बना रहा। वो कह चली, अरे हम नर्सों की ज़िंदगी क्या, ग़ैरों के लिए सब कुछ करो मगर कभी कोई अपना हो। और हमारा अपना कौन बैठा हुआ है? नन्ही तू यतीम है ना और मैं... मेरा एक बूढ़ा बाप और एक सौतेला भाई है। हो भी जाए टी बी, मर जाएंगे तो कौन दो आँसू बहाने वाला आएगा बड़े साहब कहते थे कि कैथरिन के लंग्स बहुत कमज़ोर हैं... इसीलिए तो ये निगोड़ी सुईयाँ चुभोते हैं। चल नन्ही क्वार्टर! फ़ौरन सेंक दे इसे... वो ईशेरी से मुख़ातिब हो कर उठने लगी। नक़ी ने बढ़ कर कैथरिन का बाज़ू अयादतन मस किया। उसने नाज़ से हाथ खींचते हुए कहा, जिस डाली पर मैं घायल परिंदे की तरह घोंसला बनाने आई थी वो डाली अकड़ी हुई है तो फिर दूसरी शाख़ क्यों मेरी पूछ करे।

    अब बेगानगी जुर्म थी। तीर हदफ़ पर लगा। पुर्सिश ने सुकूत की मुहर तोड़ दी। उस रोज़ हम लोग कुछ देर तक अपनी और नर्सों की ज़िंदगियों के मुतअल्लिक़ बातें करते रहे। मैंने गोपाल वाली इत्तिला से गुरेज़ ही करना चाहा लेकिन चलते-चलते कैथरिन ने ईशरी से कहा, सुनती है नन्ही? मैं महिंद्र के हलक़ में मंडल्स पेंट लगा रही थी, जाने उसने क्या किया अनवर बाबू से कह दिया। बड़ा ख़राब है। मैं तो उसी वक़्त डरी थी। ये मरीज़ भी अजीब होते हैं। नर्सों की इज़्ज़त उनके नज़दीक कौड़ी की भी नहीं। बात का बतंगर बनाना ख़ूब जानें।

    ईशरी ने हँसते हुए कहा, इतना जलते हैं तो फिर शादी क्यों नहीं कर लेते। दोनों हँसती हुई चल दीं। बाद-ए-शुमाल उनके जाने के बाद ज़रा देर तक उनकी हँसी की लहरें हम तक पहुँचाती रही। उस वाक़िआ के तीसरे रोज़ पीर मुग़ाँ सेहत-गाह से चल दिए। वो सेहत-याब हो चुके थे। एक साल के बाद बड़े साहब ने उन्हें प्रैक्टिस की इजाज़त भी दे दी थी। रुख़्सत के वक़्त नर्स सलोमी ने मज़ाक़िया तौर पर रोने की नक़ल की। पीरमुग़ांभी हँसते हुए अपने वार्ड में से रुख़्सत हुए मगर जब वो हम लोगों से रुख़्सत होने लगे तो उनकी आँखों से आँसू छलक रहे थे। कितने दर्द-आगीं और कितने तफ़रीही दिन हम लोगों ने साथ गुज़ारे थे। बड़े वकील साहब बड़े ज़िंदा-दिल शख़्स थे और ग़म-ग़ुसार, हफ़्तों वार्ड सूना सा रहा।

    हम लोगों ने छोटे वकील साहब को पीर मुग़ाँ मुंतख़ब किया और सेहत-गाह अपने ज़ख़्म-ओ-मरहम के साथ उसी तरह चलता रहा। एक महीने के बाद प्रभू बाबू को भी जाने का परवाना मिल गया। वो एहतियातन अभी सेनीटोरियम से जाना नहीं चाहते थे मगर मरीज़ों की कसरत हो रही थी और जगह महदूद। उनको जाना ही पड़ा। हाय उस गिरफ़्तार का आज़ाद होना जिसके बाज़ू टूटे हुए हों। प्रभु बाबू साढ़े तीन साल के बाद घर जाते हुए झिजक महसूस कर रहे थे। जाने फिर वहाँ फेफड़े कैसे रहें। वो रुख़्सत के रोज़ बहुत देर तक बाइबल पढ़ते रहे और रोते रहे। सैर की उन्हें इजाज़त तो थी लेकिन स्टेशन जाते हुए उनके पाँव डगमगाने लगे। सेहत-गाह में सिर्फ़ एक ही रिक्शा था। वो सिर्फ़ ज़ी फ़राश मरीज़ों को वार्ड से एक्स रे रूम ले जाया करता था। प्रभु बाबू की परु शिकस्तगी देख कर नर्स को रिक्शा मँगवाना पड़ा। उनको सेहत-गाह से अच्छे हो कर जाने की मसर्रत थी मगर इस मसर्रत के आँसू के साथ अनजान मुस्तक़बिल का ख़ौफ़ भी उन्हें रुला रहा था। एक दफ़ा मजरूह होकर गिरफ़्तार होने के बाद वो फ़िज़ा में परवाज़ करने से डरते थे।

    हम लोग स्टेशन तक उन्हें पहुँचाने गए और सहारा दे कर गाड़ी पर चढ़ाया। हम सब लोगों पर रिक़्क़त तारी थी। वापस आकर हम लोगों ने देखा कि नर्स दुलारी रह-रह कर रोए देती है। वो प्रभु बाबू को बाप की तरह चाहती थी।

    हम लोगों के वार्ड के सभी पुराने मरीज़ अच्छे हो गए थे। मगर सेनीटोरियम का अच्छा होना बहुत ही लचकदार हालत है। कभी ग़म दिल को खाता है और कभी दिल ग़म को। पहले सिल के कीड़े हमारे फेफड़ों को खा रहे थे और अब हमारे फेफड़े उन कीड़ों को खा रहे थे। महाज़ का रुख़ कब पलट जाए ये काबूस हम लोगों के ख़्यालात पर सवार था। हम लोगों ने उस ख़लिश से निजात पाने के लिए तवातुर के साथ तमसील-ओ-अदाकारी का सिलसिला जारी किया। नर्सों ने इस खेल में भी हमारी बहुत मदद की। कैथरिन और ईशरी ने उन दिनों में हम लोगों पर अल्ताफ़-ओ-करम की बारिश कर दी और उन दोनों की सीरत का एक ख़ास पहलू उजागर होकर हमारे सामने आया। उसकी इब्तिदा तो उस चाँदनी रात ही को हो गई थी। मैंने कैथरिन से ज़िंदगी के संजीदा मसअलों के मुतअल्लिक़ गुफ़्तगू की तरह डाली। वो अपने माज़ी से बेज़ार मुस्तक़बिल की तरफ़ संभल-संभल कर क़दम उठाना चाहती थी।

    अनवर बाबू तेरह साल के सिन से मैं मिशन स्कूल में पढ़ने लगी। वहाँ की लड़कियाँ नर्स बनने को बहुत अच्छा समझती थीं। वो आज़ादी को पसंद करती थीं। मैं नादान थी। मैं नादान थी। मैंने चमक दमक की तरफ़ रुख़ किया। बहुत बुरा हुआ अनवर बाबू। कैथरिन ने एक बार कहा।

    आप होतीं तो ये मरीज़ अच्छे कैसे होते? मैं बोला।

    तो क्या हमारी अपनी ज़िंदगी कोई नहीं? दूसरों के लिए अच्छी बनो, पर दूसरे हमें अच्छा समझें अनवर बाबू! हम सिर्फ़ नर्सें तो नहीं औरत भी तो हैं और ये मर्द! बस जिस्म के भूके हैं। सब कुछ उनके सामने पेश कर दो, सब कुछ और अदना सी इज़्ज़त भी दें। कैथरिन बेज़ारी से कह उठी।

    सब तो ऐसे नहीं होते।

    कौन! सब मर्द एक जैसे होते हैं, सब औरतें एक जैसी मगर हमारी मिठास हमारी ज़िंदगियों को तल्ख़ कर देती है और मिठास के लालची मर्द शहद की मक्खी की तरह डंक मारते हैं और उड़ जाते हैं। अनवर बाबू जब तक सेहत है काम करती हूँ और उसके बाद क्या होगा? शादी कर लूँगी। कर लूँ? कैथरिन हँसने लगी।

    ज़रूर कर लीजिए!

    करा दो ना? उसे करा दीजिए कहना था। उसने मुझे हमेशा आप कहा और मैंने उसे आप ही से मुख़ातिब किया। इस करा दो ना की बे-तकल्लुफ़ी में 'यूँ होता तो क्या होता' की हसरत पोशीदा थी।

    हम सिल के मरीज़ आपकी क्या मदद कर सकते हैं? मैंने ये ठस सा जवाब दिया।

    तुम नर्सों को नहीं समझे अनवर बाबू। अब के भी सितम था। कैथरिन बड़ी अमीक़ नज़रों से मुझे देखने लगी। ज़िंदगी और तक़दीर की गुथ्थियाँ पुर-पेच-ओ-ख़ारदार रास्तों की तरह सामने गईं। कैथरिन इस नौअ की दर्द-आशना बात-चीत की प्यासी थी। लेकिन ईशरी इन संजीदा बातों की ताब भी नहीं ला सकती थी। जब इस तरह की बातें छिड़ जातीं तो ईशरी उकता जाती। ऐन उसी वक़्त वो हमारा मुँह चिड़ा देती या पहलू में चुटकी भर लेती। वो सिर्फ़ गर्म-जोशी की क़ाइल थी। हाल उसके लिए सब कुछ था। अपनी शाद कामियों और महरूमियों के साथ नक़ी ने एक बारा ईशरी से कहा, तुम शादी क्यों नहीं कर लेतीं। ईशरी ने जवाब दिया, कितने मर्दों से शादी करूँ? सबही तो शिकंजे में जकड़ कर अपनी मनमानी मुरादें जी भर कर पूरी करनी चाहते हैं।

    नर्स सलोमी को तजस्सुस और इधर की बात उधर करने की बहुत आदत थी। उसने एक रोज़ कैथरिन के सारे पोस्त-कंदा हालात मुझे सुनाए और हाल के लगाव से भी आगाह किया। कैथरिन ने आज तक किसी को कुछ तोहफ़ा दिया था, वो सिर्फ़ लेने की आदी थी। महिंद्र, घोष, वो हड्डियों की टी बी वाला ज़ी-फ़राश मरीज़ परेश चंद्रा सभों को बारी-बारी उसने अपना परवाना बनाया था। क्लर्क, कंपाउंडर, एक्सरे बाबू ये सभी उसके घायल रह चुके थे। पर वह राज़दारी की क़ाइल थी और दाद-ओ-सेतद के बाद ऐसा कट कर जुदा होती थी कि किसी को भनक तक लगे। महिंद्र से अब तक कुछ सिलसिला था। वो एक साहिब-ए-सरवत का लड़का था ना। मुझे हैरत हुई कि कैथरिन ने अपना उसूल बदल कैसे डाला। उसने मुझे बहुत से तोहफ़े दिए थे और कभी किसी चीज़ का मुतालिबा नहीं किया और ईशरी का तो ये आलम था कि नक़ी पर अपना सारा मुशाहरा सर्फ़ कर सकती थी। उसने मुख़्तलिफ़ औक़ात में ऊनी स्वेटर, चाय का तश्त, गर्म पाएताबे, मफ़लर वग़ैरा तोहफ़े नक़ी को दिए थे। एक बार वो नक़ी का सूट बनवाने पर मुसिर थी मगर नक़ी ने इंकार कर दिया। ईशरी कई दिनों तक रूठी रही। उसने शिकायतन कहा, आख़िर नर्स मेगी सेन गुप्ता को अपना निस्फ़ मुशाहरा कैसे दे देती है?

    हम लोग हैरत-ज़दा रह गए। अड़तीस साला मेगी और सेन गुप्ता! सेन गुप्ता बीस साल का एक गोरा चिट्टा बंगाली लड़का था। बहुत ही ग़रीब। वो मरीज़ दोस्तों की मदद से और जाने कैसे सेनीटोरियम का ख़र्च चला रहा था। ये नया इन्किशाफ़ था कि मेगी उसकी मदद करती है। मेगी की उलफ़त में माँ और बीवी की मोहब्बत का इम्तिज़ाज था। वो सेन गुप्ता की मुरब्बी बनने में अपने मादराना जज़्बात की तस्कीन चाहती थी नीज़ हयात की मंज़िलें तै करते हुए वो किसी मर्द को इतना क़रीब कर लेना चाहती थी कि उसे अपना सहारा, अपना जज़्बाती टेक समझ सके। ईशरी ने बताया कि जब नर्सें उसे सेन गुप्ता के बारे में छेड़ती हैं तो वो ख़ुश होती है। शायद उसकी निसाइयत तज़किरा-ए-इलतिफ़ात ही से वज्द करने लगती है मगर उसकी जिन्सियत में उजलत का कोई पहलू था। उसने सेन गुप्ता की हिमाक़तों को हमेशा यूँ रद्द किया, जैसे माँ बीमार बच्चे को खाने से रोकती है मगर ईशरी और मेगी में आकाश और पाताल का फ़र्क़ था। ईशरी मर्दों से इस तरह बर्ताव करती थी जैसे वो ज़िंदा सारियाँ और बोलते हुए ब्लाउज़ हैं। आज इसको सीने से लगा लिया कल उसको अपने गिर्द लपेट लिया। उसे सब सारियाँ अज़ीज़ थीं। नक़ी उसकी सबसे प्यारी सारी की तरह था। मेगी घरेलू चक्की की तरह अटल और एक महवर के गिर्द घूमने वाली थी।

    महीना दो महीना पर सेनीटोरियम का डॉक्टर नर्सों का एक्सरे स्क्रीन भी कर लिया करता था। नर्स डोली ने मुझे राज़दाराना तौर पर बताया था कि मेगी और नर्स सुशीला के फेफड़ों में दाग़ पाए गए। ये नई नर्स सुशीला, सलोमी की जगह पर बुलाई गई थी क्योंकि सलोमी नौकरी से इस्तीफ़ा देकर एक मोटर ड्राइवर से शादी करने दिल्ली जा रही थी। नई नर्स दूसरी सेहत-गाहों में भी काम कर चुकी थी और बीमार पड़ कर अर्से से घर पर थी लेकिन मुसलसल घर पर इने गिने लोग ही रह सकते हैं। ऊँचे ख़ानदान के लोग, बड़े लोग। ख़िलक़त तो बाइबल की बददुआ की शिकार रहती है। तेरे लिए इस ज़मीन पर लानतें हैं, अपनी ज़िंदगी के सारे दिन तुझे ग़म-ओ-अंदोह के साथ ग़िज़ा मिलेगी। तपते चेहरे के पसीने में शराबोर हो कर तू रोटियाँ खाएगा।

    सलोमी चली गई। अब वो फिर नौ की नौ थीं। सुशीला को भाई हाज़िक़ से दिलचस्पी हो चली थी। दोनों हम-रंग थे मगर भाई हाज़िक़ उससे पनाह माँगते थे। ताहम हम लोगों की शह पर सुशीला को ऐसे-ऐसे मुग़ालते हुए कि क्या कहिए। सुशीला के इज़हार-ए-ख़ुलूस का अंदाज़ निराला था। वो अपने महबूब को पीटने की आदी थी। भाई हाज़िक़ टेम्परेचर चार्ट पर टप्पा करते थे। चपत खाते थे। कभी सुशीला की चुटकियों की मसलन से बिलबिला उठते और हम लोगों के नाम पर सब्र करते थे। वो तो ख़ैरियत थी कि मरीज़ थे वरना वो शहीद नाज़ हो ही चुके थे। ये हुस्न ज़ंगार तर्क सितमगार से बहुत आगे बढ़ा हुआ था। भाई हाज़िक़ रद्द-ए-बला की दुआएँ पढ़ा करते थे मगर ये भूत उनकी सर पर सवार ही रहा। आख़िर वो ख़ुद ही सेनीटोरियम से चल दिए। लोवर सी वार्ड से सिर्फ़ वही शख़्स थे जो मुस्कुराते हुए रुख़्सत हुए। शायद उनकी निगाहें हमेशा अपनी डाकख़ाने की क्लर्की पर जमी रही थीं और जो थोड़ा बहुत वार्ड से उन्हें लगाव था वो सुशीला की बे पनाह दिल नवाज़ियों ने हिरन कर दिया था।

    भाई हाज़िक़ के बाद ग़ुलाम रब्बानी भी चला गया और मिस्र जी भी मगर मिस्र जी यूँ गए जैसे कोई सफ़र पर जाता है। वो लोगों से रुख़सत भी हुए, नर्सों से मिल-मिल कर रोए भी मगर उनके अंदाज़ में एक ऐसी बात थी जिससे ज़ाहिर होता था कि फ़ुर्क़त के दिन ज़्यादा नहीं। सेनीटोरियम का डॉक्टर निस्बतन अच्छे मरीज़ों को लोवर सी वार्ड में जगह देता था। कुछ तो ये वजह थी और कुछ यहाँ की ख़ुश बाशाना रिवायात का असर कि ज़ी-फ़राश मरीज़ एक-दो माह में चलते फिरते, हँसते खेलते आदमी बन जाते थे। ज़िंदगी से दिलचस्पी ज़ामिन-ए-हयात है। इरादा-ए-ज़ीस्त बक़ा का सबसे ज़बरदस्त सामान है। बद दिल, उकताए हुए फ़िक्रमंद मरीज़ अपनी क़ब्र खोदते हैं। अपर सी वार्ड के पंडित गणेश और फ़सीह की हालत कुछ ऐसी ख़राब थी लेकिन उनमें हयात की उमंग बाक़ी थी। उनका इरादा-ए-बक़ा फ़िक्र-मंदियों की आग़ोश में सोया हुआ था और इस हसीन कुर्राह के नैरंग हयात उनके नेकियों को उकसाते थे और बदियों को। उनके लिए सवाब में लज़्ज़त थी और गुनाह में कैफ़। जब ख़ुदा और शैतान दोनों मर जाएं तो फिर मौत और अदम भी एक वहमी ला शए हो जाता है। ज़िंदगी का परतौ तक कहाँ!

    वार्ड में जो नए मरीज़ भी आए सिवाए एक के, सब सेहत की तरफ़ क़दम उठा रहे थे मगर अभी वो हम लोगों से बहुत घुले मिले थे। हम लोग सिर्फ़ पाँच पुराने मरीज़ रह गए थे। नक़ी, मैं, छोटे वकील साहब, गोपाल और मारवाड़ी। हम लोगों में अब इज़्तिराबी कैफ़ियत की झलक दिखाई देती थी। सेहत की क़ुर्बत ने ज़िंदगी की तववक़्क़ोआत और मुतालिबों को बढ़ा कर अपनी महरूमियों और ना-मुरादियों के एहसास को तल्ख़ बना दिया था। आपस में तो नहीं मगर दूसरे वार्डों से हम लोगों की रक़ाबत बहुत बढ़ गई थी और नर्सों से हमलोग बेजा तौर पर उलझ पड़ते थे। आज मार्था से लड़ाई हुई कल फ़ीबी को डाँट बताई गई। आख़िर में उन नर्सों की बारी आती जो हम लोगों से ज़्यादा क़रीब हो गई थीं या जिन्हें क़रीब होने का मुग़ालता था। उन नर्सों की आपस में बड़ी रक़ाबतें थीं वरना नौबत यहाँ तक पहुँच जाती कि पूरी सेहत-गाह में हम लोगों का एक हमदर्द भी रह जाता। हाँ ईशरी को किसी से रक़ाबत थी लेकिन वो कभी इतनी संजीदा हो ही नहीं सकती थी कि अपनी या दूसरी नर्सों की तज़हीक के बारे में सोचना गवारा भी करे। बस वो इतना कहती, चुप करो। फिर चल देती और सब कुछ भूल जाती।

    सेनीटोरियम में भी शहंशाह मुअज़्ज़म की जुबली मनाई गई। मिट्टी, पानी, आग, हवा, अर्बा अनासिर पर बादशाह की हुकूमत है। वार्डों के दरमियान तज़ईन-ओ-आराइश का मुक़ाबला हुआ। लोअर सी वार्ड अव्वल आया। हम लोगों की ख़ुशी को मत पूछिए। जब ख़ुश होने की बड़ी-बड़ी बातें हों तो फिर कुछ तो ख़ुश होने को चाहिए। कभी इंसान ग़म मना कर भी ग़म ग़लत करता है और ये तो ख़ुशी ही थी। नर्सों ने भी ख़ुशियाँ मनाईं और नर्स डोली तो उस रोज़ खिली जाती थी। जाने क्यों चंद हफ़्तों से डोली बेहद हंसोड़ और चूंचाल हो गई थी। जुबली के क़ब्ल वो एक महीना की रुख़्सत पर घर गई। वहाँ से आई तो उसका अजब हाल था। हंसी -हंसी में वो ना गुफ़्तनी बातों का तज़किरा कर डालती थी। अब के उसने अपने घर की क्रिस्चन कॉलोनी के क़रीब मवेशियों का इख़्तिलात देखा था। वो इस बात तक का तज़्किरा करती और हंस पड़ती थी।

    ऐन जुबली के रोज़ दस बजे दिन को करन के फेफड़ों से शिद्दत के साथ ख़ून आने लगा। वो हमारे वार्ड के पहलू के वार्ड का मरीज़ था। बहुत बुलंद पेशानी, लांबे-लांबे बाल और वहशत-नाक छोटी आँखें और बेज़ार-ओ-बाग़ी जज़्बात से तिलमिलाया हुआ चेहरा, लांबा क़द, दोहरा बदन मगर बीमारी से ढीला। वक़फ़े-वक़फ़े से उसे दिन भर ख़ून आता। रहा शाम को सारे सेनीटोरियम में चराग़ाँ किया गया। पार्टी हुई, रेडियो बजा, खेल कूद हुआ, नर्सों ने गाने गाए। ग़रज़ बड़ी तफ़रीह रही और ये हुआ कि करन की अचानक अलालत के सबब डोली की नाइट ड्यूटी हो गई। हम लोग शहंशाह मुअज़्ज़म से वफ़ादारी का सबूत दे कर और अपनी जी बहला कर वार्ड वापस आए तो पहलू के वार्ड से इत्तिला मिली कि करन अब तक ख़ून थूक रहा है। हम सब लोग अफ़्सुर्दा हो गए मगर डोली उधर से हँसती हुई आई और छेड़ छाड़ करने लगी। आज वो मज़ाक़ पर तुली हुई थी। हम लोगों ने भी करन को भूल जाने के ख़्याल से उसकी हसरतों की ख़ूब दाद दी और वैसे भी हम लोग इन जाँ फ़िशार ख़ून फ़िशानियों के आदी भी हो गए थे।

    अभी अंधेरा ही था कि मसहरी के पर्दे के अंदर अपना बालाई जिस्म दाख़िल करके किसी ने मुझे जगाया। मैं चौंक उठा। डोली ने मेरे मुँह पर हाथ रख दिया। मैं कच्ची नींद की ग़ुनूदग़ी में डूबा हुआ था। डोली की साँस तेज़ और गर्म थी। वो बे-क़रार सी मालूम हुई। उसने मेरे लब शरारत से अपनी चुटकियों में मसल दिए। मेरी नींद ग़ायब हो गई। मुझे अजीब से घबराहट होने लगी। मैंने यक बयक महसूस किया कि करन के सर की बला मेरे सर पर सवार हो रही है मगर डोली उस रात को जज़्बात की एक सियाह आँधी थी। रूह तारीकी थी। उस आँधी में कौन जाने मेरा क्या हश्र होता मगर हुआ ये कि बग़ल के बेड पर शायद वकील साहब जाग पड़े और उन्होंने कुछ समझ कर मुसलसल करवटें लेनी शुरू कीं। लोहे का स्प्रिंगदार बेड रद्द-ए-बला के लिए तिलिस्म का बोल साबित हुआ।

    सुबह के आठ बजते-बजते सेनीटोरियम में ये ख़बर मशहूर हो गई कि भोर को वार्ड के चौबे जी ने डोली का सारा ज़हर दूर कर दिया। ब्रह्मण थे ना, बिस पी कर भी आनंद ही हुए। कितनी हरीस दिलचस्पी से हम सब लोगों ने उस करामत का तज़्किरा सुना। बात ये है कि नागिन की दुम पकड़ कर उसे फ़िज़ा में चर्ख़ देने की गुदगुदी तो सबको होती है मगर डसे जाने का ख़ौफ़ और जाने कितने क़िस्म के ख़्याली बिच्छू तसव्वुर में रेंग-रेंग कर सहमा देते हैं।

    हम सब लोगों ने अपनी नीयतों पर पर्दा डालने के लिए चौबे जी और डोली दोनों पर लानतें भेजीं। इस वाक़िआ के बाद से हमारे वार्ड के अक्सर मरीज़ डोली से लड़ पड़ने लगे। उनके दिलों का भूत उन्हें इंतिक़ाम के लिए उकसाता था। आख़िर एक दिन मेरी डोली से सख़्त लड़ाई हो गई। उसने एक नए मरीज़ ख़ान साहब को बस इतना कहा था, कहाँ चला जाता है ख़ान? मैं हलक़ में पेंट लगाने के लिए कब से खड़ी हूँ। ख़ान बिगड़ गया था। मैंने ख़ान की पासदारी की। बात बढ़ गई और बढ़ी तो इतनी कि मैंने डोली को क्या नहीं कह डाला। मैं ग़ुस्से से काँप रहा था और वो लड़ते-लड़ते सिसकियाँ लेकर रोने लगी। एक दूसरे के ख़िलाफ़ रिपोर्टें हुईं और ये हुआ कि सिलसिला कलाम क़तई बंद। ईशरी और कैथरिन ने बात को सुलझाना चाहा लेकिन गिरह खुली।

    मुझे ग्यारह माह सेनीटोरियम में हो गए थे और नक़ी को एक साल से कुछ ज़्यादा। हम दोनों उकता गए मगर गर्मियाँ दरपेश थीं और इस मौसम में सेनीटोरियम से जाना मुनासिब था। करन के ख़ून थूकने से हम लोग और घबरा गए थे। वो चलता फिरता मरीज़ कि अचानक उस पर मर्ज़ ने हमला का इआदा किया। करन अजीब तरह हमारी ज़िंदगी में दाख़िल हो गया था। जुबली के बाद एक हफ़्ते तक उसे ख़ून आता रहा। एक माह हुआ था कि वो सेनीटोरियम में आया था। दो हफ़्ते ज़ी-फ़राश रहने के बाद उसे सैर की इजाज़त मिल गई थी। वो कुछ पागलों की तरह दिखाई देता था। अक्सर चुप रहता और गाहे मामूली सी बात पर हँसने लगता। वो अपने लिबास की तरफ़ से बेपरवाह था। वो कभी-कभी ऐसी बातों से चिढ़ जाता जो पुर्सिश-ए-दोस्ताना के तहत आतीं।

    उसका कोई मामूँ बर्मा से रूपये भेजता था लेकिन उसने अपने मामूँ को ख़त लिखने से मना कर दिया था। उसका और कोई दुनिया में था भी या नहीं, एक राज़ था। वो अपने मामूँ को गाली देता था। कहता, उसने मुझे मरने क्यों दिया। ना-हक़ मेरा इलाज कराके मुझमें ज़िंदगी का लालच पैदा कर दिया और अब मुसलसल ख़ौफ़, जीने की मुसीबत, गिरने का डर, सिल के मरीज़ का इलाज, सेनीटोरियम से जा कर हम लोग क्या करेंगे? आराम और ग़िज़ा, हुँह! आराम! इस्तिराहत के घंटे! उसूल! प्रोग्राम! अंडे! दूध! मक्खन! चूज़े! फल! हो और मकान और कुछ फ़िक्र नहीं गधे के बच्चे डॉक्टर! जैसे बीमारी के पहले हमारे पेट भर ही तो रहे थे। सब नौजवानों को सिल के कीड़े का इंजेक्शन दे कर मार डालना समाज और हुकूमत का फ़र्ज़ है कि बीमारियों का इलाज कराना।

    उसकी आँखें शोला बार होने लगतीं और वो पागलों की तरह बकने लगता, जब मैं ख़ून थूक रहा था तो उसे रोका क्यों गया? मैं दो घंटे में मर चुका होता और अब कैसे मरूँ? ख़ुदा और शैतान ने मिल कर इंसान का जिगर छलनी कर दिया ये अहमक़ इंसान ख़ुदा और इंसान के दरमियान बट गया है और ज़िंदगी ख़ुदा के पास है और शैतान के पास। ये है टाटा के पास, फ़ोर्ड के पास, बिरला के पास, जो ख़ुदा और शैतान दोनों से ताक़तवर और जयद ख़तरनाक हैं। मगर नौअ-ए-इंसान इस क़ाबिल है कि उसके हर फ़र्द को हलाक कर दिया जाए।

    करन कलकत्ता यूनिवर्सिटी का एम था। वो ज़िंदगी के माज़ी पर ईमान रखता मुस्तक़बिल पर। उसमें अदमियत की रूह हुलूल कर गई थी लेकिन कभी-कभी ग़ैर-मामूली तौर पर वो बड़ी मोहब्बत से गुफ़्तगू करता बच्चों की तरह, और बातें करते-करते उसपर रिक़्क़त सी तारी हो जाती। वो हयात की आग़ोश के किसी खोए हुए सर चश्मे को ढ़ूँढ़ता था। अब के जो करन को ख़ून आना शुरू हुआ तो हम लोग इसकी बीमार पुरसी को गए। ऐसी हालात में बोलने की सख़्त मुमानिअत होती है मगर हम लोगों को देख कर वो ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगा और पलंग पर उठ कर बैठ गया। ये उसूलन ज़हर था। कहने लगा, अब के आसानी से मर सकूँगा।

    वो देर तक बकता रहा। सुबह को नर्स दुलारी और कैथरिन की उस रोज़ ड्यूटी थी। दुलारी दौड़ी हुई आई कि उसे लिटाए। हम लोगों ने भी बहुतेरा समझाया मगर वो चीख़ता रहा। उसे दो दफ़ा ख़ून की उबकाई भी आई। करन नर्सों से बहुत चिड़ता था मगर उस रोज़ जब कैथरिन ने उसे आख़िर अपने ख़ास अंदाज़ से कहा, करन बाबू! तो वो फ़ौरन लेट गया और कैथरिन को हसरत से देखने लगा। ख़ुदा जाने इन दो लफ़्ज़ों में नर्स ने कितनी मिठास, शिकायत, तादीब और ख़ुलूस घोल दिया था कि करन राम हो गया।

    इस्तिराहत के घंटों के अलावा मैं और नक़ी उसकी तीमार-दारी करते थे। उसे बर्फ़ के टुकड़े देना, फल का अर्क़ पिलवाना और चुपचाप उसके पास बैठे रहना। जिरयान-ए-ख़ून के दौरे के वक़्त वो बादा-ए-लाहु हो जाता और उस पर बोहरानी हालत सी तारी हो जाती। वो उठ जाता और पलंग छोड़ कर दौड़ने की कोशिश करने लगता। ये अजीब बात थी कि वो या तो मेरी बात एक हद तक सुनता या कैथरिन की मान लेता। कैथरिन ने मुझसे दोपहर को आकर कहा, अनवर बाबू! मैं हर वक़्त तो नहीं रहूँगी। पागल है बिल्कुल, आपका ख़्याल कुछ करता है, रेस्ट पीरिएड के बाद करन को देख लिया कीजिएगा। मुझे उसी वक़्त करन से बिजली के कौंदे की तरह की रक़ाबत महसूस हुई। मैंने कैथरिन के लहजे और तेवर में कुछ महसूस किया। बहरहाल मैं वही करता रहा जो कैथरिन ने कहा था। पता नहीं ये कैथरिन का पास था या करन का ख़्याल। कैथरिन करन के लिए ग़ैर-मामूली तवज्जो का अमली इज़हार कर रही थी।

    तीसरे रोज़ करन पर बीमारी का शदीद हमला हुआ। बड़े डॉक्टर ने बीवी हॉर्स सीरम कैल्सियम एटसेन मौरफ़िया और कोंगोर्ड के इंजेक्शन दिए मगर ख़ून थमा। रात को हालत नाज़ुक हो गई। मैं और नक़ी करन के पास थे। उसने यक-ब-यक जेली खाने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की। उसे सिवाए रक़ीक़ ग़िज़ा के और किसी चीज़ की इजाज़त थी मगर ऐसी रिक़्क़त और लजाजत से उसने जेली माँगी कि हम लोग उसे मुँह-माँगी चीज़ देने पर तैयार हो गए। वार्ड में जेली मिली। उसी दरमियान में फिर उसके मुँह से ख़ून आया। मेरे दिल में ये ख़्वाहिश सफ़ेद काग़ज़ पर सियाह रोशनाई की तरह फैल गई कि करन का ख़ून थमे और वो ख़त्म हो जाए। फिर यक बयक जैसे किसी ने उस रोशनाई को जाज़िब से उठा लिया हो। अब भी एक काला सा धब्बा मौजूद था। मैंने उस दाग़ को अपनी इंसानियत की निगाह से छुपाने के लिए फ़ौरन अपने पैसों से करन के लिए स्टोर से जेली मंगवाई और अपने हाथों से उसे खिलाया। वो बे-पायाँ मम्नूनीयत की नज़र से मुझे देख कर बस इतना कह कर लेट गया और आँखें बंद कर लीं, तुम ख़ुदा से बेहतर हो।

    एक हफ़्ते के बाद करन अच्छा हो गया। सभों को हैरत हुई और कैथरिन को हैरत के साथ नाक़ाबिल-ए-बयान नौईयत की मसर्रत भी। वो अपने को करन का फ़रिश्ता हिफ़ाज़त महसूस करने लगी थी। मुझे करन से पोशीदा नफ़रत होने लगी। मैं कैथरिन पर फ़िक़रे कसने लगा। वो क़समें खाती और सिर्फ़ कहती, वो पागल है बेचारा करन। उस बेचारा से मुझे चिढ़ थी मगर हालात ने मुझपर ये साबित कर दिया कि वो करन को यूँ चाहती है जैसे कोई नादान मगर शरीर बच्चे को प्यार करे। फिर भी मेरे दिल में अजीब सी खोट थी। करन अच्छा हो कर कैथरिन से, मुझसे और डॉक्टर से शदीद नफ़रत करने लगा, पर जेली को याद करके अब भी वो मेरा मुख़्लिसाना शुक्रिया अदा करता था। कहता था, वो मेरी जान बचाने की कोशिश थी तुम्हारी ख़ालिस मोहब्बत थी। हैवानी, बे अक़्ल, आज़ाद, मुहीब मगर प्यारी और अंधी मोहब्बत। पर मैं तुम्हें उस मोहब्बत के तुफ़ैल में भी माफ़ नहीं कर सकता। तुम और कैथरिन। इस नफ़रत के बावजूद कैथरिन करन को चाहती रही। वो उसके लिए कुढ़ती रही। कहती, ऐसे पागल मरीज़ कहीं अच्छे हुए हैं।

    मैं समझ सका और कैथरिन को अपनी असलियत मालूम थी कि वो करन की मजनूनाना बे-बसी की वजह से उसकी तरफ़ खिंची थी, या उसकी बे-पनाह पुर शोर ज़ेहनी क़ुव्वत के सबब। वो अब भी मेरे पास आकर ज़िंदगी, मुस्तक़बिल, मोहब्बत, मुलाज़िमत की परेशानियाँ और अपनी ख़्याली शादी के मुतअल्लिक़ गुफ़्तगू करती थी। उसे मेरी और करन दोनों की जज़्बाती एहतियाज थी पर वह इसका तज्ज़िया कर पाई और मैं नफ़रत के कीचड़ में कीड़े की तरह तिलमिलाता रहा।

    गर्मियों में सिल के मरीज़ों की और कसरत होने लगी। बहुत सी दरख़ास्तें सीट की कमी की बिना पर वापस कर दी गईं लेकिन कुछ ऐसी क़ुव्वतें भी हैं जिनकी दरख़ास्तें रद्द नहीं की जा सकतीं। यहाँ डॉक्टर की शश-ओ-पंज का मस्अला नहीं बल्कि ख़ालिस असर-ओ-रसूख़ और ज़र का मसला था। ऐसे तब्क़े के चंद लोगों को जगह की ज़रूरत थी जिसके अफ़राद दूसरे तबक़ात के सर आँखों पर बिठाए जाते हैं। वार्ड में जगह थी और वहाँ किसे हटाया जाता? वहाँ वालों की रगों में भी तो ख़ून था। तो तै ये हुआ कि फ़ौरी तौर पर सी वार्ड में जगह ख़ाली की जाए और फिर मौक़ा मिलने पर उन बेश क़ीमत हस्तियों को वार्ड में मुंतक़िल कर दिया जाए। गोपाल, नक़ी और जूनियर वकील साहब को बयक क़लम डिस्चार्ज कर दिया गया। मैंने कुछ ऐसी घबराहट महसूस की, बस इरादा हुआ कि सुपरिन्टेंडेंट से कहूँ कि मेरा नाम भी काट दे मगर जून के महीने में सेनीटोरियम छोड़ने के ख़ौफ़ से लरज़ गया और ख़ुद हिफ़ाज़ती की हिस मेरे दूसरे एहसासात पर ग़ालिब गई।

    गोपाल इज़्तिराब में डॉक्टर के जाने के बाद टहलने लगा। वो पहले बहुत ख़ुश हुआ। फिर उसपर हैरानी और तज़ब्ज़ुब तारी हुआ। आख़िरकार वो रोने लगा। वो मेरे पास आया और मुझसे लिपट गया, अनवर भाई! तुम भी चलो ना, घर जाएँ हम अनवर भाई? वहाँ पी कौन देगा? जाड़े में जाते यहाँ से। साढ़े तीन बरस इसी वार्ड में रहे। ढाई साल तो इस बेड पर हो गए। गोपाल ने अपने ख़ास गोशे की तरफ़ इशारा किया। उसकी आँखें उमड़ आईं।

    फिर हम सब लोग, नक़ी भाई, आप, पीर मुग़ाँ, मिस्र जी, भाई हाज़िक़, प्रभु बाबू, अनवर भाई, हम पांचों आदमी, चलिए शहर के किनारे किराए का मकान लेकर रहें। उसने इस प्रोग्राम की दिक़्क़त को महसूस किया और मजबूरी के एहसास से फूट-फूट कर रोने लगा। मैं, नक़ी और वकील साहब सब बेचैन थे। मेरी और नक़ी की रिफ़ाक़त सेनीटोरियम में मिसाल के तौर पर मशहूर थी। मेरा दिल भी भर आया। हम सब लोग मिले जुले, वाज़ेह और मुबहम जज़्बात के नौअ-दर-नौअ असरात के तसादुम के बोझ के नीचे दबे हुए आँसू बहा रहे थे जैसे किसी भारी चट्टान के नीचे से पानी का सोता रिस रहा हो।

    नर्सों ने भी इस ख़बर को बेचैनी से सुना। ईशरी तो इस अचानक हादसे से बद-हवास हो गई। ये तीनों मरीज़ दूसरे रोज़ जा रहे थे। हम लोग दिन भर बातें करते रहे। दुख, दर्द, उम्मीद-ओ-ना-उम्मीदी, ख़ुशी और मौत, रिफ़ाक़त और ग़म-गुसारी, बीमारी और सेहत की बातें। हम लोगों में वादे वईद हुए कि एक दूसरे को ख़त लिखेंगे। लोअर सी वार्ड के ख़ानदान का बक़ीया हिस्सा भी बिखर रहा था। मरीज़ सेहत पा कर जा रहे थे मगर इस नाक़ाबिल-ए-बयान मसर्रत के साथ शिकस्त रिफ़ाक़त का अजीब ग़म भी था। सेनीटोरियम की रिफ़ाक़त भी मैदान-ए-जंग की रिफ़ाक़त से कम नहीं। कैसे-कैसे क़ातिल लम्हात का हम लोगों ने मिल-जुल कर मुक़ाबला किया था! कितनी ना उम्मीदियों को हमने शिकस्त दी थी, कितने अरमान, कितनी हसरतों को हम सबने साथ पाला था! मसर्रत और फ़रेब की घड़ियाँ, बे-आसरा शामें, तारीक सुबहें, दिलदारियाँ, ग़म गुसारियाँ, हमदर्दीयाँ सब याद रही थीं। मौत से हम लोगों ने लड़ाई जीती थी। वक़्ती ही सही, फ़तह के एहसास से बालीदगी हासिल होती है। काश इस सियाह भयानक इफ़रीयत के आइन्दा हमलों के वक़्त भी हम सब लोग एक साथ रहते। आह ज़माना हर दाने को अलैहिदा-अलैहिदा करके अपनी चक्की में पीस लेता है।

    ड्यूटी से फ़ारिग़ हो कर ईशरी नक़ी से मिलने आई। सभी नर्सें आईं। ईशरी सबके चले जाने के बाद भी देर तक ठहरी रही। वार्ड के सेहन में हम लोग साथ बैठे। वो नक़ी के हाथ को अपने हाथों में लिए रोती जाती और बातें करती जाती थी, जैसे नक़ी के हाथ कबूतर का एक जोड़ा हों जिसे किसी बच्चे के हाथ से छीन लिए जाने की धमकी दी जा रही हो। वो हाथों को इस तरह दबाए हुए थी कि उन्हें कभी छोड़ेगी। उसने रुख़्सत होते वक़्त निहायत बेबाक ख़ुलूस के साथ कहा, अगर मुझे ख़्याल होता कि तुम जून ही में चले जा रहे हो तो मैं दुआ करती कि अभी बीमार ही रहो। मैं तुम्हें बीमार देख सकती हूँ मगर तुमसे बिछड़ने की ताब नहीं ला सकती।

    वो तीनों चले गए। मारवाड़ी और मैं रह गया। नौ मरीज़ और थे फिर भी हम लोग सख़्त तन्हाई महसूस कर रहे थे। मेरा जी तो बिल्कुल नहीं लग रहा था। बेज़ार, उकताया हुआ और कुछ ख़ाइफ़। तन्हाई में बीमारी का बोझ महसूस हो रहा था और उसका ख़ौफ़ दामनगीर। कैथरिन ने मेरी बड़ी दिल-देही की लेकिन जाने क्यों उन दिनों उसे देख कर ये महसूस करता था कि मैं दुनिया में यक्का-ओ-तन्हा हूँ। मुझे ये शदीद एहसास हो रहा था कि हर फ़र्द की ज़िंदगी एक अलैहदा काल कोठरी है जिसके अंदर कोई दूसरा नहीं सकता। दूर से वक़्ती तौर पर उसके अंदर झाँक कर देखा जा सकता है। दो क़ैदियों का मिल जाना मुहाल है। आनी-जानी दिलचस्पी मुम्किन है मगर और ज़्यादा दर्दनाक। हम एक दूसरे की रूह में झाँक कर देखते। उससे नफ़रत या मोहब्बत करते गुज़र जाते हैं। हमारी रूहें मिल नहीं सकतीं। एक हो जाना फ़रेब है सरासर फ़रेब। मुझे ऐसा मालूम हो रहा था कि कैथरिन ने दो दिन के लिए मेरी बातिनी ज़िंदगी में झाँका और अब किसी दूसरी रूह की खिड़कियों के पट खोल रही है। सच है कोई जँगले से लगा हुआ कोठरी के अंदर कब तक झाँकता रहे। विसाल दाख़िली ना-मुम्किन है और ख़ारिजी इत्तिसाल फ़रेब-ए-एहसास है, अलम-नाक तंज़ है और मज़्हका-ख़ेज़ भी।

    एक रोज़ मैंने कैथरिन को साफ़ कह दिया धोका देने से क्या फ़ायदा। आप करन को चाहती हैं चाहिए। वो बिगड़ गई, चाहती तो हूँ मगर... और आप कितने तंग-नज़र, संग-दिल, बद-ज़न और ना एतबार हैं। मुझे आग ही तो लग गई। ऐसा मालूम हुआ कि मेरा मुक़ाबला करने से किया जा रहा है और मुझे मरदूद क़रार दे दिया गया है। अगर ये जुमले कभी और मुझे कहे जाते तो मैं सिर्फ़ हंस देता मगर इसमें मुक़ाबले का इशारा पाया जाता था। ये सम मेरी ख़ुदी का दम घोंट रहा था। मैं तिलमिला गया। कैथरिन नर्स रूम में चली गई। मैंने अपना बक्स खोल कर उसकी दी हुई बची खुची चीज़ें निकालीं और उन्हें वापस करने ड्यूटी रूम में गया। मैंने उन्हें कैथरिन के हाथ में देना चाहा, पर उसने लिया नहीं और तुनक कर भुनभुनाती हुई दूसरी जानिब चली गई। मैंने सब चीज़ें उसके सामने पटक दीं और लौट आया। कैथरिन बिफर गई और मैंने वापस होते हुए ये जुमले सुने, मुझे ये बातें बिल्कुल पसंद नहीं। किसपर नाज़ करते हैं। मग़रूर आदमी! मैं किसी की ब्याहता नहीं हूँ। बड़े आए कहीं के...!

    नाज़ुक धागा टूट चुका था। मैं अपनी तन्हाइयों में और ज़ियादा तन्हा हो गया था। कोई सहारा नहीं कोई तस्कीन नहीं। करन के बाद अब मेरी बारी थी। जून के एक-दो दिन बाक़ी थे कि सोते-सोते चार बजे सुबह को मेरे मुँह से ख़ून गया। मैं बिस्तर पर लेटा हुआ ख़ौफ़ के मारे पसीने-पसीने हो गया। ऐसा महसूस हुआ कि ये दुनिया, ये कुर्रह, सारे सामान-ए-हयात को ले मेरे सामने गोली की तरह छन्न से कायनात की अनजान वुसअतों में दूर निकल गया और मैं ख़ला, तारीक-ओ-सर्द ख़ला में मुअल्लक़ डूब जाने के लिए अकेला रह गया। मौत की काली-काली मौजें मुझे ढाँपे जा रही हैं और मैं फ़ना के ग़ार में ग़र्क़ हो रहा हूँ। आस और निरास के दरमियान ज़िंदगी के अंकबूती ताने बाने को एक साल, मुकम्मल एक साल तक बुना था।

    तूफ़ान के बाद फिर से तिनके इकट्ठा करके आँसुओं और मुस्कुराहटों के बंधन से बाँधा था और अब एक नई आँधी आशियाना-ए-हयात को नोच-नोच कर बरबाद कर रही थी। मैंने कितनी बातों को भुलाया था, कितनी यादों को थपक-थपक कर सुला दिया था, कितने अरमानों को बहला कर ख़ामोश कर दिया था और फिर ज़िंदगी की ख़ुश्क शाख़ पर नाज़ुक-नाज़ुक, नन्ही-नन्ही कोंपलें फूट रही थीं, कलियाँ भी फूल बनने का संदेसा दे रही थीं और आरज़ुओं की नई बसंत बहार ताज़ा का पैग़ाम ला रही थी, मुस्तक़बिल फिर फ़रेब-ए-तमन्ना दे रहा था और ये अचानक मौत के तरकश का एक तीर लगा। हर तरफ़ ख़िज़ाँ थी, वीरानियाँ थीं और बे-बस सुकूत!

    ज़िंदगी की नैरंगी ना-उम्मीदियों में भी उम्मीद के बुत तराश लेती है। ये कैफ़ियत गुज़र जाने के बाद मुझे ये ख़्याल आया शायद कैथरिन यूँ वापस जाए। शायद ये रिवायती ख़ून टूटी हुई रगों को जोड़ दे। मुझे मसर्रत हुई। मैंने ज़हर से अमृत बना लिया। इंसान में भी कितनी उलूहियत है। वो हर आन अपने को पुजवाना चाहता है और उसके लिए अपना और दूसरों का ख़ून भी बहा सकता है। ख़ुदा तो सिर्फ़ दूसरों का ख़ून बहाता है, अपना ख़ून बहा कर लज़्ज़त आज़ार हासिल करने का उसे तजुर्बा कहाँ, ये अनोखा एहसास उसके बस से बाहर है।

    मुझे भी बार बिस्तर कर दिया गया। वही बातें हुईं जो करन के साथ हो चुकी थीं। डॉक्टर ने मुझे तस्कीन दी कि, फेफड़े की हालत बहुत अच्छी है। सिल के मरीज़ों के साथ ऐसे वाक़िआत होते ही हैं। जरासीम ख़ुफ़्ता हालत में रहते हैं और कभी-कभी सोये-सोये भी फेफड़े की रगों को चाटते रहते हैं, किसी रग की दीवार फट जाती और ख़ून आने लगता है। तुम्हारे पुराने ज़ख़्म में फ़ाइब्रोस हो चुका है, नए रेशे निकल आए हैं और मर्ज़ क़ब्ज़े के अंदर गया है। ये गुज़र जाने वाला दौर है घबराओ मत! नर्सों ने भी अयादत की, जी बहलाया और तशफ़्फ़ी दी मगर मैं अजीब हालत में था।

    गुज़श्ता साल जो मेरे मुँह से एक माह तक ख़ून आता रहा था तो मैंने अपने जज़्बाती सहारे के लिए रूहानी मा बाद उल तबीआती आलम की तरफ़ रुख़ किया था। अब के मेरा दिल बंजर था, बिल्कुल बंजर मगर बंजर ज़मीन को सबसे ज़्यादा पानी की ज़रूरत होती है। मुझे ये ठंडक औरत के जिस्म में नज़र आती। हैरत अंगेज़ तौर पर मुझे हवासी इशरत की तलब हुई मगर महरूमी ने दिल में जहन्नुम सा भड़का दिया। मौत से क़ुर्बत हो तो ख़ुदा याद आता है लेकिन शायद मादा के बिछड़ जाने के एहसास ने मुझमें मादा जिस्म और दुनिया की शदीद हरीसाना मोहब्बत पैदा कर दी। जो चीज़ें छुट जाने वाली हों उनसे कितना बेताब इश्क़ होता है। पाईदार अश्या तो अक्सर उकताहट पैदा करती हैं। फ़ना के सबब बक़ा से मोहब्बत होती है और ग़ैर फ़ानी हस्ती कभी इतनी मुस्तहकम, वज़्नी और अज़ीम-ओ-जलील मालूम होने लगती है कि उसके वज़न और बाक़ी-ओ-हाज़िर-ओ-नाज़िर होने के तसव्वुर से रूह पिसी जाती है। ख़ुदा इतनी बड़ी हक़ीक़त है कि दिल उसको भूल कर अपने को हल्का करना चाहता है। दुनिया का आनी जानी होना ही कशिश का बाइस है। इस माद्दी दुनिया की सबसे हसीन तरकीब माद्दा औरत है। माद्दा का नुक़्ता-ए-कमाल जिस्म के हुस्न-ए-तामीर का उरूज-ए-जमील। इसलिए माद्दी सहारे में सबसे बड़ा सहारा औरत है।

    मैं बिस्तर पर लेटा-लेटा फ़ना का ख़्याल करके जब लरज़ने लगता तो दिल में एक हूक उठती थी और हयात का ज़र्रा-ज़र्रा जिंस-ए-लतीफ़ को ढूँढ़ता था। मुझे उठने की इजाज़त थी मगर जज़्बा-ए-दिल ऐसी हरकतों पर उकसाता था जो सामान-ए-बक़ा हैं। मुझे अपनी रूमानी मिसाल-पसंदी से नफ़रत होने लगती। मैं सोचता कि निरा गाओंवी हूँ। बदन की रूमानियत मुजस्सम और हक़ीक़त मिसाली को छोड़ कर जज़्ब-ओ-कशिश की लिताफ़तों में उलझे रहना बेबसी, बे अमली और ना मुरादी की दलील है। मुझे नक़ी और उसकी क़ुव्वत-ए-इक़दाम-ओ-अमल याद आती और मैं इंतिहाई महरूमी-ओ-ना-कार-कर्दगी के ग़म में ग़ल्ताँ हो जाता। ये फ़ितरत का कितना अलमनाक तंज़ था कि इस बुझी हुई ख़ाकिस्तरी हालत में मुझे अमल के चिराग़ जलाने की शदीद तमन्ना हो रही थी। मैं नर्सों को सिर्फ़ देखना नहीं चाहता था बल्कि उन्हें छूना, सुनना, देखना, सूँघना और चखना चाहता था।

    औरत ही एक ऐसा इत्र मजमूआ है जो हमारे सारे हवास को बयक वक़्त शाद काम करता है। जिस घड़ी मेरे मुँह से ख़ून आता, मैं मजबूरी महरूमी के एहसास में ग़र्क़ हो कर अपने ही जिस्म को इंतिहाई प्यार मोहब्बत से छूके रोने लगता। मुझे अपना हाथ, अपनी उंगलियाँ बहुत अज़ीज़ मालूम होतीं। मैंने इनसे इतनी शदीद मोहब्बत का एहसास कभी नहीं किया था। इतनी बार मैंने कभी इनको इतने इन्हिमाक से देखा भी था। मैंने जो उम्मीद क़ाइम की थी कि कैथरिन इस हाल में तो ज़रूर मुझसे मन ही जाएगी, टूट गई। कैथरिन बस ड्यूटी के तौर पर वार्ड में आती और चली जाती। उसने मेरा हाल तक दरयाफ़त किया। मुसीबत तन्हा नहीं आती ग़म की घटाएँ मौज दर मौज होती हैं। कैथरिन कितनी ख़ुद-दार-ओ-ख़ुद बीं थी।

    मगर इसके ख़िलाफ़ डोली, जिसे मैंने क्या नहीं कह डाला था, जिससे मेरी कोई तवक़्क़ो वा-बस्ता नहीं थी, वो ड्यूटी होने के बावजूद मेरी अलालत की ख़बर सुनते ही भागी हुई आई और मुज़्तरब मुस्कुराहट के साथ मेरी ख़ैरियत दरयाफ़्त की। मैं चुपचाप रहा। ख़फ़गी से नहीं शर्मिंदगी से। उस वक़्त वो चार्ट देख कर चली गई। फिर वो बराबर आती रही। मुझे वार्ड की बेगानगी से वहशत होती थी। लिहाज़ा मुझे मुआईने के कमरे में रख दिया गया था। एक-दो पहर को डोली मिज़ाज पुर्सी के लिए आई। मैं इंतिहाई निदामत में गड़ गया और हैजान-ए-जज़्बात ने मुझे रो पड़ने पर मजबूर कर दिया। मैंने डोली का हाथ पकड़ कर रिक़्क़त माफ़ी माँगी। वो भी फूट-फूट कर रोने लगी और सिर्फ़ इतना कहा, अनवर साहब आप नहीं जानते।

    मैंने आँसूओं में माज़ी के काँटों की चुभन महसूस की और ज़िंदगी के कमयाब हुस्न की चंद नूरानी कलियाँ खिलती हुई दिखाई दीं। अनोखे तौर पर मैंने ये महसूस किया कि औरत ही मर्द की अबदीयत का ज़रीया है। फ़ानी इंसान औरत ही की मदद और रुबूबियत से चंद क़तरों को ना-पैदा किनार-ए-समुंदर बना देता है। मैंने देखा कि इंसानियत का ठाठें मारता हुआ समुंदर औरत की आग़ोश से निकल कर अज़ल और अबद को घेरे हुए है।

    आख़िर कार मैं अच्छा हो गया। चंद माह और सेनीटोरियम में रह कर मुझे घर वापस आने की इजाज़त मिल गई। मैं बहुत उकता भी गया था। उधर कैथरिन ने मुझसे रूठ कर अपनी ज़िंदगी ही बदल ली थी। वो सबसे तअल्लुक़ तोड़ चुकी थी। अगर वो मुझसे बातें नहीं करती थी तो और लोगों से भी गुरेजाँ ही रहती थी। शायद वो अपनी ज़िंदगी के तजुर्बात तल्ख़-ओ-शीरीं के बाद शिकस्त-फ़रेब की तल्ख़ीयाँ बर्दाश्त कर रही थी। अब वो सिर्फ़ खेलना नहीं, ज़िंदगी बसर करना चाहती थी।

    दरख़्त का उखड़ना कुछ आसान नहीं होता। दर्द ज़िंदगी में सबसे बड़ा दुख इंतिक़ाल है। जड़ें वस्ल ज़मीन से महरूम किए जाते वक़्त कराहने लगती हैं। मेरी हयात का दरख़्त भी सेहत-गाह में डेढ़ साल तक नसब रहा था और अब अलैहदगी के वक़्त आसाब के सोते दर्द-नाक हो रहे थे। मैं रुख़्सत से पहले से नर्सों से मिलने उनकी इक़ामत-गाह को गया। सब बैठी हुई बातें कर रही थीं। सभों ने बड़े उन्स और ख़ुलूस से मेरी पज़ीराई की और बाज़ ने ख़ुशी का इज़हार किया कि अब मैं अच्छा हो कर अपने घर जा रहा था मगर कैथरिन वहाँ भी ख़ामोश रही। रुख़सत की सुबह को ईशरी ने मुझ से कहा, कुट्टू बुआ रात भर रोती रही हैं और डोली भी। आपको सभी लोग चाहते हैं।

    मैंने कहा, जो मेरी ख़तरनाक हालत में भी बेगाना रहा हो, वो ब्लाउज़ के पेरिस बटन टूट जाने पर तो रो सकता है मगर मेरे लिए उसके आँसू की एक बूँद नहीं हो सकती। हाँ डॉली से मैं बेहद शर्मिंदा हूँ। ईशरी मुझसे बातें कर रही थी कि कैथरिन आई और उसने ईशरी को ड्यूटी रूम में बुला लिया। ज़रा देर में वो मुस्कुराती हुई लौट आई और हँस कर कहने लगी, जाइए मिल लीजिए! बुआ बुलाती हैं! जाने क्यों मैं इरादे के ख़िलाफ़ अंदर चला गया, और ईशरी वार्ड में मरीज़ों का टेम्परेचर लेने चली गई।

    ख़ुद-दार-ओ-ख़ुद-बीं कैथरिन कुर्सी पर बैठी हुई थी। उसने मुझे देखा। मैं उसके क़रीब चला गया। उसने मेरा हाथ ज़ोर से जज़्बाती अंदाज़ में पकड़ लिया और उसी हाल में मेज़ पर टेक लगा कर आहिस्ता-आहिस्ता सिसकियाँ भरने लगी। उसे अपने आँसू दिखलाने में भी आर थी। अचानक उसने सर उठा कर कहा, अनवर बाबू! आप ने हम नर्सों को औरत समझा। बस एक गुड़िया... एक गुड़िया... एक गुड़िया...

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    Rekhta Gujarati Utsav I Vadodara - 5th Jan 25 I Mumbai - 11th Jan 25 I Bhavnagar - 19th Jan 25

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