कश्ती
स्टोरीलाइन
"अह्दनामा-ए-अतीक़ के प्रसिद्ध क़िस्से नूह को आधार बना कर लिखी गई इस कहानी में इंसान की मन-मानियों के परिणाम को प्रस्तुत किया गया है। ख़ुदा के बताए हुए सिद्धांतों को नकारने का नतीजा तबाही के रूप में देखना पड़ा, क़िस्सा नूह और हिंदू देव-माला के संयोजन से कहानी की फ़िज़ा बनाई गई है।"
बाहर मींह बरस रहा था। अंदर हब्स बहुत था, हब्स से परेशान हो कर किसी ने सर बाहर निकाला फिर फ़ौरन ही अंदर कर लिया।
“बारिश कुछ कम हुई?”
“बिल्कुल कम नहीं हुई, उसी शोर के साथ हुए चली जा रही है, ये बारिश है या क़यामत है?”
“अंदर के हब्स से तो बहर-हाल बेहतर सूरत है।”
“कोई बेहतर सूरत नहीं, अंदर हब्स बाहर बारिश, आदमी आख़िर कहाँ जाए?”
“सब कुछ तो डूब गया, अब आख़िर बारिश क्यों हुए चली जा रही है।”
“हम जो बाक़ी रह गए हैं।”
“हाँ बस हम ही रह गए हैं, मगर हम हैं कितने, उँगलियों पर गिन लो, बाक़ी तो चरिंद-परिंद हैं।”
“हाँ बाक़ी तो चरिंद-परिंद हैं, शायद इसलिए भी हब्स बहुत हो गया है। जानवरों के दरमियान साँस लेना कितना मुश्किल होता है, पता नहीं कब तक हम इस तौर जानवरों के दरमियान बसर करते रहेंगे।”
“हाँ पता नहीं कब तक, बारिश तो रुकने का नाम ही नहीं ले रही, कितने दिन गुज़र गए कि इसी एक रफ़्तार से हुए चली जा रही है।”
“शुरू’ किस दिन हुई थी?”
“किस दिन, हाँ कम-अज़-कम हिसाब तो करना चाहिए कि किस दिन शुरू’ हुई थी और अब कितने दिन हो गए, सबने अपने अपने तौर पर याद किया पर किसी को याद न आया कि वो कौन सा दिन था और कौन सी तारीख़ थी जब बरसना शुरू’ हुआ था।”
“इसका मतलब ये है कि हमें अब कुछ अंदाज़ा नहीं कि कितने दिन से सफ़र में हैं।”
“कितने दिन से हम सफ़र में हैं।”
सब सोच में पड़ गए, कितने दिन से कितने बरस से कितनी सदियों से।
बारिश और सफ़र में यही होता है, लगातार बरसे तो लगता है बरसों से बरस रहा है और बरस बरस बरसेगा, सफ़र के बीच कोई पड़ाव न आए तो यूँ महसूस होता है कि जनम- जनम से सफ़र में हैं।”
“बहर-हाल जिस दिन बारिश शुरू’ हुई है उसी दिन हम घरों से निकले थे, सो अगर हम में से किसी को ये याद हो कि हमने किस रोज़ अपने घरों को छोड़ा था तो...”
“घरों को?”
“घरों को छोड़ने के बा’द ये पहला मौक़ा’’ था कि घरों का नाम किसी के लब पे आया था। तो हमारे घर भी थे, ये सोच के वो हैरान हुए और छोड़े हुए घर दफ़अ’तन उनके तसव्वुर में यूँ उभरे जैसे अभी-अभी वो उन्हें छोड़कर निकले हैं।”
“काश वो भी मेरे साथ सवार हो जाती, जाने अब किन पानियों में घिरी होगी।”
“वो कौन थी?”
“वो जो ज़ीने से उतरते हुए सीढ़ियों के बीच मुझसे टकराई थी और वो सारा मंज़र उसकी आँखों में फिर गया, वो हिरनी जैसी आँखों वाली कि अपने लबादे के अंदर दो पके फल लिए फिरती थी और जब उन सीढ़ियों से उतरते हुए उसने उसे थामा, तो लगा कि दो गर्म धड़कते पोटे वाली कबूतरियाँ उसकी मुट्ठियों में आ गई हैं, दूसरे ही लम्हे वो उसकी गिरफ़्त से बाहर थी और वहशी हिरनी की मिसाल क़ुलाँचें भरती भागी चली जा रही थी। पर बा’द इसके वहशत उस हिरनी की कम होती चली गई हत्ता कि भरी दोपहर में टीले के पीछे खजूर तले वो उसके गर्म बोझ से ढैती चली गई।”
ज़ीने, ड्योढ़ियाँ, आँगन, टेढ़ी-टेढ़ी राहें, टीले, फलों से लदे, परिंदों से भरे ऊँचे पेड़, एक दम से उन्हें कितना कुछ याद आ गया था।
“उन घरों को क्या याद करना जो ढह गए और बह गए।”
हाँ ये तो उन्हें अभी तक ख़याल आया ही नहीं था कि जो पानी पहाड़ों की चोटियों से गुज़र रहा है उसने उनके घरों को कहाँ छोड़ा होगा।
“मगर हम उन घरों को कैसे भूल जाएँ कि हमने उन घरों में बैठ कर उतरने वाली दुल्हनों के लिए गीत गाए और गुज़रने वालों के लिए गिर्या किया।”
तब सब आँखें डबडबाईं, फिर उन सबने मिलकर अपने घरों को याद किया और वो रोए।
“अ’ज़ीज़ो, उन घरों की बर्बादी मुक़द्दर हो चुकी थी।”
“वो कैसे?”
तब गुलगामिश दो-ज़ानू हो बैठा और यूँ गोया हुआ कि हम-सफ़र-ओ-दीदा इ’बरत-निगाह रखते हो तो मुझे देखो कि मैं किन-किन पुर-शोर समंदरों से गुज़र कर इस इक़लीम में पहुँचा जहाँ अत्नापश्तम इस्तिराहत करता था, मैंने फ़रियाद की कि ऐ अत्नापश्तम मैंने सुना था कि हरकत में बरकत है और सफ़र वसीला-ए-ज़फ़र है, पर मुझ दरमांदा-ए-राह ने हरकत को बे-बरकत पाया और सफ़र को ला-हासिल जाना, जब कि तू हयात-ए-जाविदानी के मज़े लूटता है और इस बहिश्त-ए-बुनियाद-ए-इक़लीम में आराम करता है, ये सुख़न सुन अत्नापश्तम ने तअम्मुल किया। फिर यूँ लब-कुशा हुआ कि ऐ तीरा-बख़्त! मैं देखता हूँ कि रंज-ए-सफ़र ने तुझे हलकान कर दिया और अलम ने तेरे अंदर घर कर लिया है, सो तू घड़ी-भर को दम ले, फिर मोअद्दिब हो बैठ और गोश-ए-होश से सुन कि क्यूँ-कर मैंने हरकत में बरकत देखी और सफ़र को वसीला-ए-ज़फ़र जाना, और इस राह हयात-ए-जावेदाँ पाई। मैंने अपना घर ढाया फिर कश्ती बनाई।
इस पर मैं हैरान हुआ और यूँ बोला कि ऐ बुज़ुर्ग ये मैं क्या सुनता हूँ। कहीं कोई अपने हाथों से भी अपना घर ढाता है, अत्नापश्तम ये सुनकर अफ़्सुर्दा हुआ, फिर बोला कि मेरे ख़ुदावंद की मर्ज़ी यही थी, वो मेरे ख़्वाब में आया और ख़बर दी कि अनीलैल ग़ुस्से में है कि ज़मीन पे शोर बहुत हो गया है, कि ये शोर उसे सोने नहीं देता, सो ऐ अत्नापश्तम तेरी आ’फ़ियत इसमें है कि अपना घर ढा दे और कश्ती ता’मीर कर, तो ऐ गुलगामिश घर अपना मैंने ख़ुदावंद की मर्ज़ी से ढाया और कश्ती बनाई।
तब उन्होंने सोचा और याद किया कि हुआ क्या था, हुआ यूँ कि ज़मीन आदमियों से भर गई, आदमियों से नीज़ ज़ुल्म से, ख़ुदावंद ने तो बस आदमी को पैदा किया था, पर उसने आगे बेटियाँ पैदा कर डालीं और ख़ुदावंद के बेटों ने इन बेटियों को ख़ूबसूरत पाया और अपनी जोरूएँ बना लिया और इन बेटियों ने जोरूएँ बन कर मज़ीद बेटियाँ जनीं कि मज़ीद ख़ुदा के बेटे उनपे रीझे और उन्हें जोरूएँ बनाकर अपने घरों में लौटे, बस इस तौर ज़मीन आदमियों से भरती चली गई। आदमियों से नीज़ ज़ुल्म से और ऐसा हुआ कि ख़ुदावंद पछताया और दिल-गीर हुआ और फिर यूँ बोला कि मैंने आदम-जा़द को भर पाया। सो मैं अब इंसान को, जिसे मैंने ख़ल्क़ किया था ना-बूद करूँगा कि ज़मीन बहुत बिगड़ गई है और ज़ुल्म से भर गई है।
फिर उन्हीं बिगड़े हुओं के बीच एक नेक बंदा था कि ख़ुदावंद के साथ चलता था और ख़ुदावंद ने उससे कहा कि ऐ लमक के बेटे मैं तुझे बचाऊँगा, सो तू ऐसा कर कि एक कश्ती बना और देख जब तूफ़ान उठे तो हर ज़ी-रूह के एक जोड़े को अपने साथ ले और कश्ती में बैठ जा और उस बंदे ने वैसा ही किया जैसा उसके ख़ुदावंद ने उससे कहा था। पर वो बंदा भी जोरू वाला था और उस जोरू ने बेटे जने जिन्होंने बड़े हो कर ख़ूबसूरत बेटियों को अपनी जोरू बनाया और वो जोरू शौहर को कश्ती बनाते देखती तो ठट्ठा करती। और बेटियों को जम्अ’’ करके कहती कि तुम्हारे बाप ने ये क्या खड़ाग फैला रखा है कि दिन-भर और रात-भर लकड़ियाँ काट-काट के कुछ बनाता रहता है।
ये ता’ने सुन-सुन लमक के बेटे नूह ने आख़िर ज़बान खोली और कहा ऐ मेरी ज़िंदगी की शरीक, डर उस दिन से कि तेरा गर्म तंदूर ठंडा हो जाए और तू आकर मुझे तूफ़ान की ख़बर सुनाए और भोर भए मनु जी ये देख भौचक रह गए कि मछली बड़ी हो गई है और बासन छोटा रह गया है। कल ही तो अश्नान करते समय उनके चुल्लू में आ गई थी कि उस समय छंगुलिया उँगली के समान थी। वो उसे फेंकने लगे थे कि उसने दुहाई दी कि प्रभु शांति मैं तुम्हारे शरण लेने आई हूँ कि मैं छोटी मछली हूँ और नदी अंदर बड़ी मछलियों के बीच नहीं रह सकती कि बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। उन्होंने उसे अपने शरण में ले लिया और एक कूँडे में जल भर के उसे उसमें डाल दिया, पर अब वो देख रहे थे कि कूंडा छोटा रह गया है और मछली बड़ी हो गई है।
मनु जी ने मछली को कूंडे से निकाल के घड़े में डाल दिया और पानी उसमें भर दिया, पर अगले दिन भोर भए जब मनु जी पूजा के लिए उठे, तो देखा कि घड़ा छोटा रह गया है और मछली बड़ी हो गई है कि दम उसकी घड़े में नहीं समाती, मछली ने दुहाई दी कि प्रभु कृपा करो, घड़े में मेरा दम घुट रहा है। मनु जी की कुटिया के बाहर एक जलकुंड था, उन्होंने मछली को घड़े से निकाल के जलकुंड में डाल दिया और निचिंत हो गए, फिर अगले दिन उन्हें चिंता लग गई, जलकुंड मछली से छोटा रह गया था, मछली बड़ी हो गई थी कि पूँच उसकी जलकुंड से बाहर निकली हुई थी। मछली ने फिर दुहाई दी के प्रभु तुमने मुझे अपने शरण में लिया है पर मुझे तुम्हारे शरण में चैन नहीं मिला, मनु जी ने ये सुनके मछली को जलकुंड से निकाला और नगर से बाहर तलय्या में खिसका दिया, कहा कि ले अब तलय्या में तैर और चैन कर।
मनु जी मछली को तलय्या में छोड़ के घर ऐसे आए जैसे सर से बड़ा बोझ उतार के आए हों, उस रात वो चैन से सोए, पर जब तड़के में उनकी आँख खुली तो आँखें खुली की खुली रह गईं, मछली की पूँच तलय्या से निकल लंबी होते-होते उनके आँगन में आन फैली थी। वो झटपट उठ तलय्या पे गए, क्या देखा कि तलय्या छोटी रह गई, मछली बड़ी हो गई है, इतनी बड़ी कि तलय्या के अंदर तो बस उसका मुँह था। बाक़ी धड़ और पूँच सब बाहर। मछली बोली कि है प्रभु तुम्हारे शरण में मैं तैरने और साँस लेने को तरसती हूँ। मनु जी ने मछली को तलय्या से निकाला, कमर पे लादा, और चले गंगा नदी की ओर, वहाँ जाके उन्होंने उसे नदी में छोड़ा और कहा कि हे रे मछलिया, मैंने तुझे गंगा मैया की गोद में दिया, मैया की गोद में चाहे सिमट चाहे फैल, पर वो अभी ये कहते थे कि मछली फैलने लगी, इतनी फैली कि गंगा मैया की गोद छोटी रह गई, मछली बड़ी हो गई।
मनु जी ये देख हक्का-बक्का रह गए, बोले कि अरी तू निराली मछली है कि फैलती ही जा रही है, जीने का नियम ये है कि जितनी चादर देखे उतने पाँव फैलाए, पर तेरे लच्छन ये हैं कि जितना जल देखती है उससे ज़ियादा फैल जाती है। अच्छा अब तेरा उपाय यही है कि मैं तुझे सागर के भेंट कर दूँ, ये कह के उन्होंने मछली को गंगा की गोद से लिया और कंधे पे लाद चले सागर की ओर।
सागर की ओर जाते हुए मनु जी को ध्यान की लहर बहा के बीते समय में लेकर गई जब विष्णु जी बौने के रूप में प्रकट हुए थे, उन्होंने उस दुष्ट राजा से तीन डग धरती मांगी थी, उस मूर्ख ने सोचा कि बौने के तीन डगों में कितनी धरती जाती है, माँग मान लो। ये सोच उसने माँग मान ली, पर विष्णु जी एक दम से बौने से देव बन गए। उन्होंने तीन डग ऐसे भरे कि धरती और आकाश दोनों तीन डगों में समेट लिए, इस ध्यान ने मनु जी को चौंका दिया, एक संदेह के साथ उन्होंने मछली को देखा पर तुरंत ध्यान की एक और लहर आई, जी में कहा कि उस समय तो धरती राक्षसों के चंगुल में थी, सो विष्णु महाराज ने उन्हें इस प्रकार जुल दिया और धरती को उनके चंगुल से निकाला। आज के दुष्ट ऐसे कौन से बड़े राक्षस हैं कि विष्णु महाराज ऐसा स्वाँग भरेंगे, उन्हें वो चाहें तो अभी च्यूँटियों के समान मसल डालें।
बस यही सोचते सोचते मनु जी सागर किनारे पहुँच गए, मछली को सागर में धकेला और कहा कि अब तो मेरा पिंड छोड़, इस विशाल सागर में जितना मन चाहे उतना फैल जा, वो ये कहते थे कि मछली फैलने लगी, फैलते-फैलते पूरे सागर पर छा गई। मनु जी ने एक भय के साथ ये कुछ देखा, फिर श्रद्धा से उनका सर झुक गया, दोनों हाथ जोड़ के आँखें मूँद के खड़े हो गए और लगे कहने, प्रभु शांति। आवाज़ आई कि है मनु धरती अधर्मियों के हाथों अशांत है पर तुझे शांति मिलेगी, सो तू नाव बना। जब सागर उमड़े और धरती डूबे तो पंछियों, पशुओं में से एक-एक जोड़ा संग ले और नाव में बैठ जा।
मनु जी ये सुन बोले कि हे प्रभु जब सागर उमड़ेगा तो मेरे हाथों की बनाई हुई बोदी नैया डूबेगी या तैरेगी, आवाज़ आई कि है मनु तू उसे मेरी मूँछ के बाल से बाँध दीजियो, बोले कि बाँधूँगा काहे से, मेरे पास कोई रस्सी नहीं है, तुरंत एक साँप रस्सी समान लहरों में लहराया, हे मनु ये रही रस्सी, इससे नैया बाँध लीजियो।
तब ज़ौजा हज़रत नूह की हज़रत के पास पहुँची, इस हाल से कि उसके हाथ आटे में सने हुए थे और होश उड़े हुए थे, बा’द तशवीश बोली कि ऐ मिरे वाली हमारा गर्म तंदूर ठंडा हो गया और पानी उसकी तह में से उबल रहा है, हज़रत ने तअम्मुल किया, फिर यूँ बोले कि देख रब्ब-ए-ज़ुल-जलाल का दिन आन पहुँचा है, तू यूँ कर कि अपने जनों को इक्ट्ठा कर और कश्ती में सवार होजा, इस पर वो जोरू ये बोली कि मैं तंदूर पर तश्त ढके देती हूँ, फिर पानी नहीं उबलेगा, ये कह के वो दौड़ी हुई अंदर गई, तश्त उल्टा कर के तंदूर पर ढका और ऊपर उसके बड़ा सा पत्थर रख दिया, ये कह कर वो बाहर आई और अपने वाली से बोली कि देख मेरी तरकीब काम आई, पानी उबलना बंद हो गया है।
वो ये कहती थी कि पानी अंगनाई से निकल के बाहर उमड़ने लगा, तश्त और पत्थर उसके बीच तैर रहे थे और उसी साअ’त बराबर के घर वाले की ज़ौजा हवास-बाख़्ता आई और चिल्लाई कि मेरे घर के तंदूर से फ़व्वारा छूट रहा है कि अंगनाई मेरी जल-थल हो गई। फिर मुख़्तलिफ़ घरों से बीबियाँ निकलीं इस हाल से कि होश उनके उड़े हुए थे, हर एक के लब पे ख़बर ये थी कि तंदूर उनके घर का गर्म से ठंडा हुआ और पानी उससे उबलने लगा और सैलाब बाहर से उमड़े तो उसे रोका जा सकता है मगर जब घर के अंदर से फूट पड़े तो क्यों कर उसपे बंद बाँधा जाए।
सो यूँ हुआ कि दम के दम में उस बस्ती के सब तंदूर ठंडे हो गए और वो ऐसा वक़्त था जब अभी-अभी घर वालियों ने अपने तंदूर गर्म किए थे, हर तंदूर में अँगारे दहक रहे थे और रोटियाँ पक कर गर्म निकल रही थीं कि दफ़अ’तन एक तंदूर ठंडा हुआ, फिर दूसरा तंदूर ठंडा हुआ, फिर किसी तीसरे तंदूर में आग बुझी और नमी पैदा हुई, फिर हल्का-हल्का पानी रिसने लगा, फिर जैसे तह फट गई हो, एक दम से पानी उबलने लगा, पानी तन्दूरों से उबला, अंगनाइयों में उमड़ा और शाहराहों में फैला और फिर बारिश शुरू’ हो गई। ऐसे जैसे आसमानों के सब दरीचे खुल गए हों।
तब हज़रत नूह ने कहा कि बेशक ख़ुदावंद के क़हर का दिन आन पहुँचा है, और तब हज़रत नूह ने कश्ती निकाली, सब जानवरों के जोड़ों को उसमें बिठाया और ज़ौजा से कहा कि ऐ मिरी ज़ौजा देख क़हर की साअ’त आन पहुँची, तंदूर पर ढका हुआ तेरा तश्त पत्ते की मिसाल पानी में बह गया और आँगन तेरा पानी से भर गया, अब यूँ कर कि अपने जनों को इकट्ठा कर और कश्ती में सवार होजा। तिस पर वो ज़ौजा ये बोली कि ऐ मिरे वाली इस घर में मैंने तेरे संग पाँच सौ से ऊपर बरस खींचे, दिन गुज़ारे, रातें बसर कीं, याद कर कि हम दोनों ने मिलकर इस घर में कितने दुख देखे और कितने सुख पाए, कितनी बार-आवर हुई, दूधों नहाई, पोतों, पड़पोतों की बहारें देखीं, सोच कि मैं क्यूँ-कर इस घर को छोड़ दूँ।
तब नूह ने फ़रमाया कि ऐ मिरी रफ़ीक़ा, ख़ाना-ए-हस्ती बे-बुनियाद है और घर बनाया बीच उन लोगों के जिनके ज़ुल्म से ज़मीन भर गई और टेढ़ी हो गई, सो ढैना इस घर का मुक़द्दर ठहरा, सो इससे पहले कि दीवारें इसकी बैठ जाएँ और छत इसकी आन पड़े, तू यहाँ से निकल और कश्ती में बैठ कि आज ज़मीन-ओ-आसमान के बीच वही एक पनाह-गाह है। पर ज़ौजा उन हज़रत की ढीट होके ये बोली कि अगर मेरा घर मुझे पनाह नहीं दे सकता तो फिर मुझे कहाँ पनाह मिलेगी। तब हज़रत अपने बेटों से मुख़ातिब हुए और कहा कि ऐ मिरे बेटो, तुम्हारी माँ ने तो ज़मीन पकड़ी है और हलाक होने वालों में शामिल हो गई है, तुम बाप की सुनो और जल्द कश्ती में बैठ जाओ, मबादा तुम ना-फ़रमानों में शुमार किए जाओ और हलाकत के घेरे में आ जाओ।
ये सुनकर सब बेटे कश्ती में सवार हुए सिवाए बड़े बेटे कनआ’न के कि उसने माँ की राह को अपनाया और बाप से कहा कि ऐ मिरे बाप मैं क्यूँ-कर इस घर को जिसमें मिरी नाल गड़ी है छोड़कर और क्यूँ-कर इस मिट्टी से जिसने मुझे रस और जस दिया है मुँह मोड़ कर उस कश्ती में सवार हो जाऊँ जिसमें तूने हर रंग का जानवर जम्अ’’ कर लिया है। हज़रत ने बेटे की बात सुनकर कहा कि ऐ मिरे बेटे देख ये क़हर का दिन है, सो इंसान हैवान सब एक कश्ती में सवार हैं कि तूफ़ान बे-अमान है और ज़िंदगी की ज़मानत इस कश्ती के सिवा कहीं नहीं है। बेटा बोला कि ऐ मिरे बाप तन्हाई की मौत हुजूम के साथ ज़िंदा रहने से बेहतर है और घर के अंदर पानी में ग़र्क़ हो जाना अच्छा है, ब-निस्बत इसके कि आदमी अजनबी पानियों में जानवरों के दरमियान बसर करे।
तब हज़रत नूह अपनी बीबी से और अपने बेटे से मायूस हुए कि उन्होंने ज़मीन पकड़ी और ना-फ़रमानों में शुमार हुए और तब कश्ती रवाँ हुई, और हज़रत ने कि सलाम हो उन पर हमारा, मुड़ के ब-सद यास उस घर की जानिब देखा जिसे वो छः सौ बरस तक रच-बस कर छोड़ रहे थे और उन्होंने देखा कि उनके बाप का बनाया हुआ बड़े फाटक वाला वो घर कि कल तक शाद-आबाद था, अब उमड़ती मौजों के बीच ख़ाली ढंडार पड़ा था। और उनकी ज़ौजा ने और उनके बेटे ने बरसते आसमान तले छत पे पनाह ली हुई थी, फिर यूँ हुआ कि वो घर आँखों से ओझल होता चला गया और पानी का ज़ोर बढ़ता चला गया। मींह ऐसे बरसा जैसे आसमान के सब दरवाज़े और दरीचे चौपट खुल गए हों। मींह बरसा, रात बरसा, दिन दिन बरसा, लगातार बरसा कि दिन और रात का सुब्ह और शाम का, दिन और दिन का फ़र्क़ मिटता चला गया और ज़मीन नज़रों से यूँ ओझल हुई जैसे कभी थी ही नहीं।
फिर यूँ हुआ कि कव्वे को कश्ती के अंदर बैठे-बैठे बे-कली हुई, उसने पर फड़फड़ाए और काँय-काँय करता बाहर उड़ गया, मगर चक्कर काटने के बा’द फिर वापिस आ गया, और उसकी वापसी ऐ’लान थी कि अब कहीं ख़ुश्की नहीं है कि पंजे टिकाए जा सकें। फिर चूहों के जोड़े को बेकली हुई, उन्होंने पूरी कश्ती का चक्कर काटा कि कहीं कोई बिल मिले और वो उसमें सटक जाएँ पर उन्होंने कश्ती में कोई बिल न पाया, मगर बिल तो होना चाहिए कि वो इसमें सटक सकें। ये सोच उन्होंने कश्ती के पेंदे को कुतरना शुरू’ कर दिया, कश्ती के जानवरों ने देखा और हिरासाँ हुए ये सोच कर कि मबादा कश्ती में छेद हो जाए और उसमें पानी भर जाए और वो ग़र्क़ हो जाएँ।
तब उन्होंने फ़रियाद की हज़रत नूह से और अफ़सोस किया हज़रत नूह ने कि वाए ख़राबी मेरी कि मैंने कश्ती में सवार किया चूहों को, जिनका शेवा ही ये है कि कुतरो और सूराख़ करो। हज़रत ने उन्हें इस फे़’ल से बाज़ रहने की हिदायत की मगर वो बाज़ न आए, तब हज़रत ने तंग आकर शेर के मुँह पर हाथ फेरा कि हाथ फेरते ही निकली उसके नथुनों से एक बिल्ली कि झपटी चूहों पर और चट कर गई उन्हें दम के दम में।
तब कश्ती के सब जानवरों ने शादमानी की और बिल्ली पर आफ़रीन भेजी कि उसने उन्हें आने वाली तबाही से बचा लिया, फिर यूँ हुआ कि उसी साअ’त कबूतरी ने पर फड़फड़ाए और कश्ती से बाहर निकल उड़ गई और देखा उन्होंने कि मींह थम गया है और कबूतरी ज़ैतून की पत्ती चोंच में दबाए वापिस आ रही है और वो शादमान हुए ये सोच कर कि पानी उतरने लगा है और ख़ुश्की नमूद करने लगी है, मगर फिर उन्होंने ये देखा कि जूँही वो ज़ैतून की पत्ती समेत कश्ती में उतरी तूँही बिल्ली उस पर झपटी और उसे चट कर गई। ये क्या हुआ उन्होंने देखा और दम-ब-ख़ुद रह गए, साथ में ज़ैतून की पत्ती भी। अ’जीब बात है।
“अब हम बीच पानियों में हैं और कोई ये बताने वाला नहीं कि ख़ुश्की कहाँ है।”
मींह बे-शक थम गया था, बादल की गरज कितनी देर से सुनाई नहीं दी थी मगर पानी की धारा सी-शोर से गरज रही थी और ऊँचे पहाड़ों की चोटियों से गुज़र रही थी, किसी-किसी ने सर निकाल कर बाहर देखा, फिर फ़ौरन ही अंदर कर लिया।
“बहुत पानी है।”
अंदर हब्स बहुत था और बिल्ली बैठी थी, बाहर पानी गरज रहा था और ज़मीन-ओ-आसमान मिले नज़र आ रहे थे, ज़मीन-ओ-आसमान और ज़मीं-ओ-ज़मान, लगता था कि एक ज़माना हो गया उन्हें घरों से निकले हुए और एक ज़माना हो गया इन्हीं पुर-शोर पानियों के बीच डोलते हुए।
“क्या हम कभी वापिस नहीं जा सकेंगे?”
“कहाँ?”
“अपने घरों को।”
अपने घरों को? एक-बार फिर उन्हें हैरानी ने आ लिया, घर... एक-बार फिर घरों की याद ने उन्हें ऐसे आ लिया जैसे कोई बड़ा झक्कड़ पेड़ों को आ ले और उन्हें हिला दे।
“अज़ीज़ो, कौन से घर, बाहर झाँक के देखो, कोई बस्ती कोई दीवार-दर कहीं दिखाई पड़ते हैं, क्या तुमने गुलगामिश से नहीं सुना कि अत्नापश्तम ने घर ढाकर कश्ती बनाई थी।”
“अत्नापश्तम ने अच्छा नहीं किया।”
“हाँ मगर अत्नापश्तम के ख़ुदावंद की तसल्ली हो गई कि अब ज़मीन पर पानी के शोर के सिवा कोई शोर नहीं है कि उसकी नींद में ख़लल डाले।
मारकंडे ने बाहर झाँक के देखा, चारों और घोर अँधेरा, अँधेरा और सन्नाटा और जल की गरजती धारा, परम आत्मा नींद में थी और अनंतनाग के फन फैले हुए थे, उसने सर अंदर कर लिया, नारायण,-नारायण, गहराव के ऊपर अँधेरा था और ख़ुदावंद की रूह पानियों पर जुंबिश करती थी, पानी जिसका कोई और छोर नहीं था, पानी की गरजती धार में अज़ल और अबद के डांडे मिल जाते हैं और ज़मीन और ज़माँ घुल-मिल जाते हैं। उन्हें कुछ याद नहीं था, कब से घरों से निकले हुए हैं और कब से पुर-शोर पानियों में बह रहे हैं तिनकों की तरह, और कव्वा फिर बे-कल हुआ, पर फड़फड़ाए, कव्वा उड़ गया और लौट के नहीं आया। उन्होंने बाहर झाँक के देखा, मींह बे-शक थम गया था मगर पानी उसी तरह उमड़ा हुआ था और गरज रहा था, कव्वे का दूर-दूर पता नहीं था।
“कव्वा सियाना जानवर है, वो लौट के नहीं आएगा।”
“ख़ैर ये तो पता चल ही गया कि कहीं न कहीं ख़ुश्की है, सो हमारी कश्ती भी किसी न किसी किनारे जा ही लगेगी, सो ऐ हमारे रब हमें बरकत की जगह उतारियो और तहक़ीक़ तू सबसे बेहतर उतारने वाला है।”
“हम-सफ़रो, बरकत की जगह कहाँ है, हम गहरे पानियों के बीच में हैं और कोई ये बताने वाला नहीं कि ख़ुश्की कहाँ है और बरकत की जगह कौन सी है, हाँ अगर नूह हमारे बीच में होता तो...”
“नूह...? नूह यहाँ नहीं है।”
“नहीं।”
सबने ख़ौफ़ भरी नज़रों से एक दूसरे को देखा। आँखों ही आँखों में एक दूसरे से पूछ रहे थे नूह कहाँ है? तब हातिमताई ने ज़बान खोली और कलाम लब पे लाया कि, “ऐ हम-सफ़रान-ए-अ’ज़ीज़ ऐ अ’ज़ीज़ान-ए-बा-तमीज़ सब्र का दामन हाथ से मत छोड़ो, देखते रहो कि पर्दा-ए-ग़ैब से क्या नुमूदार होता है। मुझे देखो कि मैंने भरी नद्दियों के बीच ऐसी कश्तियों में सफ़र किया है जिनका खेेवय्या नहीं था। कान धर कर सुनो कि कोह-ए-निदा की मुहिम में मुझपे क्या बीती। हैरान सरगर्दां चला जाता था कि एक पहाड़ बुलंद अ’ज़ीमुश्शान नज़र आया, उसी की तरफ़ मुतवज्जेह हुआ। तीन दिन के बा’द उसके नीचे जा पहुँचा, और जिस पत्थर को उठा कर देखा उसके तले लहू बहता पाया। फ़िक्र करता था कि कोई यहाँ नहीं है जिससे इसका अहवाल पूछूँ। फिर क्या देखता हूँ कि एक दरिया बड़े ज़ोर-ओ-शोर से बह रहा है और उसका और छोर भी नहीं मिलता। निहायत मुतफ़क्किर हुआ।
दिल में कहा कि या इलाही अब इससे क्योंकर पार उतरूँ। इतने में एक नाव पर नज़र पड़ी कि इधर ही चली आती है। जाना मैंने कि कोई मल्लाह लिए आता है। जब किनारे आ लगी तो उस पर किसी को न देखा।
मुतअ’ज्जिब हुआ।
फिर शुक्र-ए-ख़ुदा का बजा ला कर सवार हो लिया। क्या देखता हूँ कि एक दस्तर-ख़्वान में कुछ लिपटा धरा है। भूका तो था ही, फ़ौरन हाथ बढ़ा कर खोला तो दो गर्म-गर्म नान और कबाब। हैरान हुआ कि या इलाही ये गर्म नान किस तंदूर से आए हैं। ध्यान आया कि शायद मल्लाह ने अपने वास्ते रखा हो। पराए का हक़ खाना ख़ूब नहीं। इतने में एक मछली ने दरिया से सर निकाल कर कहा कि ऐ हातिम ये रोटियाँ और कबाब तेरा ही रिज़्क़ है। शौक़ से खा। कुछ अंदेशा जी में न ला। ये कह कर ग़ोता मार गई। मैं हैरान कि कश्ती कौन लाया, कबाब रोटी कौन धर गया, मछली कौन थी?”
“मछली?”, सब चौंक पड़े।
मछली तो उनके ध्यान से उतर ही गई थी।
“मछली कौन थी? हाँ पहले तो प्रजापति भौचक रह गए थे, पर फिर उसी की मूँछ के बाल से उन्होंने नाव को बाँधा।”
सबने बाहर झाँक के देखा, बाहर चारों और घोर अँधेरा और अंधियारा और गरजते जल की धारा, मानो भव-सागर उमड़ा था पर मछली का कहीं अता-पता नहीं था।
“मछली तो कहीं दिखाई नहीं दे रही है।”
“मित्रो उसे ढूँढो, उसी के बाल से तो हम बँधे हुए हैं।”
सबने बाहर दूर-दूर तक देखा, बस लहराती रस्सी दिखाई पड़ी, मछली कहीं नहीं थी।
“मित्रो रस्सी तो है कि साँप समान नाव के चारों ओर लहरा रही है पर मछली नहीं है।”
“ये तो बहुत चिंता की बात है।”
सो चिंता ने उन्हें घेरा और संदेह ने आन पकड़ा, दूर-दूर की बात ध्यान में आई पर गुत्थी न खुली, नाव डोल रही थी और चारों और जल धारा गरज रही थी।
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