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ख़ामोशी के हिसार

अहमद यूसुफ़

ख़ामोशी के हिसार

अहमद यूसुफ़

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    ग़नी ने लिखा था, अता का ख़त आया है, वो इस माह के आख़िर तक अपनी बीवी-बच्चों के साथ आजाएगा। आज 10 तारीख़ है, मैं समझता हूँ कि 25, 26 तक बेटा-बहू और बच्चे आजाएंगे... घर में बहार आजाएगी।

    सज्जाद ने ग़नी के ख़त की इन सतरों को बार-बार पढ़ा और हर बार उसे एक नया लुत्फ़ आया। पता नहीं क्यों उसे ये महसूस हुआ कि ये ख़बर ग़नी के बेटे अता ने नहीं भेजी है, बल्कि उसके बेटे मुख़्तार ने उसे भेजी है।

    लेकिन जब उसे याद आया कि मुख़्तार और उसके बच्चों को गए तो अभी दो महीने भी नहीं हुए हैं और अभी तो उसे पूरे दस महीने और उनका इंतिज़ार करना होगा, तो उस पर एक बे-कैफ़ी सी तारी हो गई... कैसी महरूमी है।

    एक बेटा है, वो सऊदी में है, एक बेटी है वो अपने शौहर के साथ पूना में है... बेटा साल भर बाद आता है, तो बेटी क्यों साल भर बाद आए? कितनी बार कहा कि साल में दो बार तो आया करो। लेकिन वो हमेशा अपनी परेशानियों का क़िस्सा छेड़ देती है, बच्चों का स्कूल, उनके इम्तिहानात, मियां की मस्रूफ़ियतें, उनका टूर, मौसम की सख़्तियां... और आती जब ही है, जब मुख़्तार आता है। बस महीने डेढ़ महीने के लिए... अब इस मुख़्तसर सी मुद्दत में किस से बात की जाये, किस की बात सुनी जाये, किस के बच्चों को प्यार किया जाये और किस के बच्चों को गोद में खिलाया जाये।

    फिर आने के चार दिनों बाद ही उन्हें अपनी अपनी ससुराल याद जाती है... छः घंटे की राह बेटे की ससुराल है और दो घंटे की राह बेटी की ससुराल की...

    मुसीबत तो ये है कि अब इस दुनिया में कोई किसी से गिले शिकवे भी नहीं कर सकता। अगर मुख़्तार से कहा जाये कि बेटा साल भर बाद तो महीने-डेढ़ महीने के लिए आते हो, उसमें भी हफ़्ते दस दिन के लिए ससुराल चले जाते हो तो कहता है... पापा सोचिए, आबिदा के घरवालों का भी तो हक़ है हम लोगों पर। इस पर मैं कहता हूँ, वो तो सही है बेटा लेकिन अब तुम ही सोचो... लेकिन वाक़िया ये है कि इससे आगे मुझसे कुछ कहा भी नहीं जाता। बहू का भी ख़याल करना पड़ता है।

    अंदलीब भी हफ़्ते दस दिन के लिए ससुराल जाने को तैयार हो जाती है। उससे तो यूं भी कुछ कहा नहीं जा सकता कि दामाद बुरा मान जाएंगे... लेकिन आँखों ही आँखों में हम लोग उससे कुछ दरख़्वास्त ज़रूर करते हैं... दोनों ही अजीब तूफ़ानी अंदाज़ से आते हैं और तूफ़ानी अंदाज़ से चले जाते हैं... दामाद ज़्यादातर अपने घर में रहते हैं, इसीलिए अंदलीब कुछ दिनों अपनी ससुराल में रह कर एक बच्चे के साथ मेरे यहां चली आती है... उधर बहू भी ज़्यादा वक़्त अपने मैके में रहना चाहती है... बस एक कशाकश सी रहती है।

    अंदलीब से जब भी ये कहा कि बेटी तुम मुख़्तार के साथ क्यों आती हो, अगर उसके आने के छः माह बाद आओ, तो हमारे घर, साल में दो बार ईद मनाई जाये, तो उसने हमेशा मुझे ये कह कर लाजवाब कर दिया, वाह पापा, फिर भय्या से मुलाक़ात कैसे होगी?

    दरिया के एक किनारे पर अगर हम खड़े हैं तो दूसरे किनारे पर अंदलीब और उससे कुछ फ़ासले पर मुख़्तार खड़ा है। फिर एक वक़्त ऐसा आता है कि सब उसी किनारे पर मिलते हैं, जल्दी जुदा होने के लिए। इसके बाद हम होते हैं और महरूमी और तन्हाई का ख़त्म होने वाला कर्ब...

    फ़ातिमा को देखो तो साल भर बच्चों के आने की तैयारियां करती रहती है, जब मटर का सीज़न ख़त्म होने को आता है तो ख़ुदा जाने कितनी मटर छील कर उनके दाने पॉलीथीन में भर कर रख देती है, फिर इस तरह दस पंद्रह किलो हरे चने भी थैलों में भर कर डीप फ़्रीज़र में डाल देती है कि अगर अंदलीब को मटर का पुलाव पसंद है तो मुख़्तार को हरे चने की क़ाबुली।

    लेकिन होता ये है कि जब अंदलीब और मुख़्तार आते हैं तो दोनों एक ही बात अपनी माँ से कहते हैं, अम्मी क्यों हम लोगों के लिए इतनी परेशानियाँ मोल लेती हैं? इस पर मुख़तार कहता है, नाश्ते में तो अम्मी मुझे मैदे की ख़ूब फूली फूली कचौरियां, आलू की ख़ूब सुर्ख़ सुर्ख़ भुजिया और करछुल में तला हुआ अण्डा पसंद है... उधर अंदलीब कहती है, अम्मी दिन के खाने में बासमती चावल हो, अरहर की दाल, हरी मिर्च का दोप्याज़ा और लेमूँ की निमकी... मेरी तो जान जाती है इस खाने पर।

    तब फ़ातिमा बिगड़ कर कहती है, ठीक है तो इस बार सर्दियों में तुम लोगों के लिए मटर और हरे चने नहीं रखूँगी। इस पर दोनों माँ से लिपट जाते हैं, नहीं अम्मी ऐसा ग़ज़ब कीजिएगा।

    सज्जाद सोचता, काश ये सारे मनाज़िर आँखों की दुनिया में मुस्तक़िल सुकूनत इख़्तियार कर लेते, लेकिन ये कहाँ होता है, तब वो धीरे से अपनी आँखों को ख़ुश्क कर लेता है।

    बच्चे जाते हैं तो कुछ छोटी मोटी तक़रीबात भी उनके आने से हो जाती हैं। अंदलीब ने लिखा था, छोटे का अक़ीक़ा में अपने घर से करूँगी, मैंने उनसे भी कह रखा है, बस भय्या आजाएंगे तो वहीं कर ये प्रोग्राम बनाऊँगी।

    मुख़्तार ने लिखा था, पापा साजिद का मकतब आप ही को करना है। इक़रा बिस्म...

    चलिए दो तक़रीबात तो हो गईं। अगर ये सब भी हुआ तो मीलाद उन्नबी की तक़रीब तो हो ही जाती है।

    सच ये है कि रौशनी ही रौशनी को खींच लाती है।

    बच्चे आते हैं तो घर भर देते हैं, कपड़े लत्ते, छोटी छोटी मशीनें। मसाला पीसने की मशीन, जूसर, वी सी पी और वीडियो कैसेट...

    तीन चार साल पहले मुख़्तार डीप फ़्रीज़र ले आया। कहा भी मैंने कि बेटा क्या होगा इन चीज़ों का, ख़ासी डयूटी देकर लाते हो। इस पर मुख़्तार ने ज़रा दुरुश्त लहजे में कहा, पापा ये सब कहा कीजिए। आप लोगों की दुआओं से अल्लाह का फ़ज़ल है।

    ज़ाहिर है डाक्टर है, लंबी तनख़्वाह पाता होगा, लेकिन ये सब तो फ़ुज़ूल का ख़र्च है। अंदलीब भी जब आती है तो दुनिया भर की चीज़ें पूना और बंबई के बाज़ार से ख़रीद कर ले आती है।

    क्या बच्चे हैं... आते आते घर को भर देते हैं और जाते-जाते दिलों को ख़ाली कर देते हैं। क्या ख़ाक उड़ती है उनके जाने के बाद...

    फ़ातिमा तो उनकी रवानगी से हफ़्ते भर पहले ही से रोना शुरू कर देती है। अंदलीब समझाती है, अम्मी क्या करें, उनकी सर्विस है ना, आप तो जानती ही हैं बंदगी बेचारगी। ख़ुर्शीद मियां भी समझाते हैं, अम्मी हम लोग इधर आने को परेशान हैं। अगर गए तो कोशिश करेंगे के इसी शहर में पोस्टिंग हो जाये। मुख़्तार भी अपनी अम्मी को चुप कराने की सई करता है। अम्मी इतनी समझदार हो कर भी दिल को छोटा करती हैं। और ये कह कर चुपके से किसी बच्चे को फ़ातिमा की गोद में बैठा देता है। बेटा, दादी को प्यार करलो...

    मुख़्तार बहुत पैसे भेजता है। लेकिन सज्जाद सोचता, पैसों से दुख का मुदावा तो नहीं होता। किसी ख़त में बीमारी आज़ारी के मुतअल्लिक़ लिखा, या मुख़्तार से फ़ोन पर कुछ बताया, तो फिर दूसरे ही दिन उसका दोस्त डाक्टर राम प्रकाश जाता है। आते ही पूछता है, पापा-अम्मी आप लोग कैसे हैं, कल ही रात मुख़्तार का फ़ोन आया था... देख-भाल कर, दवाएं दे कर चला जाता है। फिर मुख़्तार का ख़त आता है, तो फिर दुनिया भर की हिदायतें होती हैं उसमें और तब अगले महीने के ड्राफ़्ट में दो ढाई हज़ार फ़ाज़िल जाते हैं। अब उसे कौन समझाए कि ये वो दुख नहीं है जो पैसे से कम हो जाए।

    ये लोग चले जाते हैं, तो फिर घर में कौन रह जाता है? एक मैं एक फ़ातिमा, एक तेरह-चौदह साल का ज़िला वैशाली का रहने वाला लड़का क़ासिम, जो बाज़ार का काम करता है और जो टीवी के ड्रामों का बड़ा शौक़ीन है। बाहर से आए हुए ड्रामों के कैसेट वी.सी.पी पर देखा करता है और कोई काम हो तो धीमे सुरों में नई से नई फिल्मों के गाने गाता रहता है। वो जब साल में एक-बार लंबी छुट्टी ले कर अपने घर जाता है तो बड़ा बुरा लगता है कि उसके रहने से घर में आदमी की आवाज़ तो सुनाई देती है। एक बावर्चन भी है जो दिन चढ़े आती है और सरेशाम घर चली जाती है। कभी-कभार दो-चार दिनों के लिए भाई-बहनों के बच्चे या कोई रिश्तेदार जाता है तो लगता है कोई बोलने चालने वाला आया, वर्ना यहां तो बात करने को तरसती है ज़बां मेरी।

    क़िस्सा ये है कि हर आश्ना के पास मसाइब का दश्त है, इसलिए क्या कोई कहीं आए जाये... वैसे अगर कभी कोई गया, तो उसी के साथ बैठ कर घड़ी दो-घड़ी हंस बोल लिये, थोड़ी देर के लिए दिल बहल गया।

    रही फ़ातिमा तो वो इतनी चिड़चिड़ी हो गई है कि ज़रा कुछ बात करो तो काटने को दौड़ती है... मुख़्तार डाक्टर हो कर दो साल रहा और फिर एक इंटरव्यू दे कर सऊदी चला गया... इसमें मेरा क्या क़ुसूर? दामाद एम.बी.ए. कर के बंबई की किसी बड़ी फ़र्म में मुलाज़िम हो गया, फिर वहां से पूना चला गया, तो इसमें मेरी कौन सी ग़लती है...? लेकिन नहीं, आप हमेशा मुँह सिए बैठे रहते हैं... अरे भाई तो मैं क्या करता। मुख़्तार अपनी मर्ज़ी का मालिक है और दामाद पर किसी को क्या इख़्तियार?

    तन्हाई का दुख मैं भी झेल रहा हूँ, तन्हाई का दुख वो झील रही है, लेकिन उसका तो अजीब हाल है।

    ख़त नहीं आता है तो इसमें मेरी काहिली का दख़ल होता है, पोस्ट ऑफ़िस जा कर दर्याफ़्त नहीं करते हैं, हालाँ कि हर दूसरे तीसरे दिन मैं पोस्ट ऑफ़िस का चक्कर लगा आता हूँ।

    मज़े की बात ये है कि मुख़्तार और अंदलीब का फ़ोन बराबर आता है। वो दोनों हम लोगों को तरह तरह से समझाते रहते हैं, माँ से कहते हैं कि अगर आप परेशान होंगी तो बाबा भी परेशान होंगे और मुझ से कहते हैं कि अगर आप परेशान होंगे तो अम्मी भी परेशान होंगी।

    बच्चों की तस्वीरें आती रहती हैं। उन्हें देखकर फ़ातिमा का तो अजब हाल हो जाता है, चूमना-चाटना, बलाएं लेना। कई दिन तक ये सिलसिला चलता रहता है, फिर तस्वीरें अलमारी में हिफ़ाज़त से बंद कर के रख दी जाती हैं। कई बार कहा कि एलबम में लगा लो, लेकिन फ़ातिमा को तो अब मेरी कोई बात पसंद ही नहीं आती।

    पैसे की अल्लाह के फ़ज़ल से कभी कोई कमी नहीं हुई। सात साढे़ सात हज़ार मुख़्तार के यहां से जाते हैं, साढ़े तीन हज़ार के क़रीब मेरी पेंशन होती है, अपना घर है। बस दो-चार आदमियों के खाने पीने का जो भी ख़र्च हो।

    इलाज-मुआलिजे का ये हाल है कि जहां हम लोगों की बीमारी की ख़बर मुख़्तार को मिली, उसने डाक्टर राम प्रकाश को फ़ोन कर दिया और दूसरे दिन ही वो देखने पहुंच गया। अलबत्ता कुछ दिन पहले जब फ़ातिमा को गुर्दे की तकलीफ़ हुई थी तो मैंने ख़ुद डाक्टर राम प्रकाश को फ़ोन कर के बुलाया था। डाक्टर आया तो उसने देख-भाल के बाद कुछ दवा लिख दी और कुछ टेस्ट बताए, फिर दूसरे दिन एक स्पैशलिस्ट को लेकर पहुंच गया। दोनों ने गुर्दे में पथरी होने का शुब्हा ज़ाहिर किया। लेकिन दोनों का ख़याल था कि कुछ दिन ऑप्रेशन को टाला जा सकता है, शायद दवाओं से ही फ़ायदा हो जाये।

    दूसरे दिन फ़ातिमा को आराम मिला तो मैंने देखा कि वो करवंदे की जेली तैयार कर रही है, शाम तक जेली तैयार हो गई तो मुझे एक तश्तरी मिली। उसके बाद दो-ढाई किलो जेली उसने शीशों में बंद कर के रख दी। करवंदे की जेली मुख़्तार और अंदलीब दोनों को पसंद है... और बच्चे तो हर मीठी चीज़ पर जान देते हैं।

    मुख़्तार और अंदलीब मुश्किल से डेढ़ महीने रहते हैं, लेकिन फ़ातिमा की तैयारियां देखने वाली होती हैं, क्या नहीं बनता है उनके लिए, चटनी, अचार, मुरब्बे, हलवा, सास और जाने क्या-क्या... फ़्रीज़र में अन्वा-ओ-इक़्साम की खाने की चीज़ें रखी रहती हैं।

    कोई दो माह बाद आज फिर ग़नी का ख़त आया है।

    अता पिछले हफ़्ते बच्चों को लेकर चले गए... फिर वही ज़िंदगी हमारी है।

    ख़त लेकर मैं फ़ातिमा के कमरे में आया तो देखा वो कैलेंडर के सामने खड़ी कुछ हिसाब-किताब कर रही है। मुझे देख कर कहने लगी:

    मुख़्तार को आने में अभी आठ महीने सात दिन और हैं।

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