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किवाड़ की ओट से

अख़्तर ओरेनवी

किवाड़ की ओट से

अख़्तर ओरेनवी

MORE BYअख़्तर ओरेनवी

    स्टोरीलाइन

    यह ठठेरों के परिवार में ब्याह कर आई एक ऐसी औरत की कहानी है जिसने सारी उम्र किवाड़ की ओट में बैठकर घर से फ़रार अपने पति का इंतज़ार करने में बिता दी। वह जब ब्याह कर आई थी तो कुछ दिनों बाद ही उसका पति उसे छोड़कर कलकत्ता चला गया था, क्योंकि वह दूसरे ठठेरों की तरह नहीं बनना चाहता था। शुरू-शुरू में तो वह उसे कभी-कभी पत्र लिख देता था। फिर धीरे-धीरे पत्राचार का यह सिलसिला बंद हो गया। इस बीच उसकी पत्नी को एक बेटी भी हुई, तब भी पति वापस नहीं आया। सालों उसकी कोई ख़बर न मिली। पत्नी ने बेटी की शादी कर दी। बेटी की भी बेटी हो गई और अब जबकि उसकी शादी की तैयारियाँ हो रही हैं, पति का आसाम से पत्र आता है जिसमें लिखा है कि वह वापस आ रहा है। वह निर्धारित तिथि भी रोज़ की तरह गुज़र गई और पति नहीं आया।

    चलती हुई सड़क की जुनूबी जानिब एक छोटी सी दुकान से मुल्हिक़ फ़ुट-पाथ पर मरम्मत तलब साईकिलों के पहियों और सलाख़ों के मुतवाज़ी दायरे, ख़ुतूत और मकड़ी के जालों की सी कमानियाँ रह-रवों की निगाहों को उलझा लेतीं थीं। दुकान के अंदर छत से लटकी हुई कोई साईकिल होती। उसी पर एक पिस्ता क़द चंदला दुकानदार अपना अमले जर्राही करता रहता था। काठ के तख़्तों और हलक़ों से बनी हुई एक शिकस्ता-ओ-गुरेज़ां सी शए, जिसे हुस्न-ए-तख़य्युल की परवाज़ के किसी अचानक दौरे के वक़्त ही अलमारी कहा जा सकता था, कबूतरों के डरबे की तरह दीवार से लगी शायद अज़ल से वहीं खड़ी थी। उस डरबा नुमा चीज़ के अंदर कट के ख़ाली डिब्बे, रबड़ के टुकड़े, टिन के छोटे कनस्तर, लोहे के ज़ंगआलूद औज़ार, पुराने पुर्ज़े, टूटे हुए पंप, टायर और ट्यूब, अपने ज़वाल-ओ-इन्हितात की मुख़्तलिफ़ मंज़िलों में और सूती चिथड़े दाग़ धब्बों, मैल कुचैल से अटे हुए, पड़े रहते थे। ये सब चीज़ें यूं रखी रहती थीं जैसे मदारी की झोली में जंतर मंतर की गड-मड हो। फ़र्श पर कील कांटे बिखरे हुए और अ’र्श पर झोल झक्कड़ के ताने-बाने, गोशे में सनादीद-ए-अ’जम के वक़्त की लोहे की बनी हुई एक इबरत-ख़ेज़ कुर्सी और दीवारों पर गुडइयर, डनलप, मचलीन के इश्तिहारी प्लेट आवेज़ां।

    चंदला दुकानदार हर वक़्त अपने काम में मुनहमिक नज़र आता। वो ग्राहकों से बड़ी नर्मी से बातें किया करता था। उसकी आवाज़ में नुमायां के आहट के साथ मुर्दा सी ख़ाकसारी थी।

    साईकिल की दुकान के हमसाए में बहुत सी ठठेरों की दुकानें थीं। हर वक़्त कारीगरों के हाथ ऊपर उठते और नीचे गिरते रहते थे। ठाय ठाय होती ही रहती। नंगे बदन सब मशीनों के लीवर की तरह अपने हाथ ऊपर उठाते और हथौड़े को चोट दिए जाते, दिए जाते, मुसलसल, यकसाँ, धोतियां जांघों तक उठाए, पीठ और पोखड़े निह्वड़ाए, गर्दन और आँखें झुकाए, ठठेरे ख़ुदा की जानदार और हस्सास मख़लूक़ नहीं मा’लूम होते थे, बल्कि किसी बड़े माहिर साईंस इंजीनियर के बनाए हुए, रोबट, दिखाई देते थे।

    चंदला साईकिल वाला कठ-पुतली नज़र आता और उसकी दुकान के अग़ल बग़ल क़द-ए-आदम गड्डे ठाय ठाय, खट खट किए जाते। पूरी फ़िज़ा पर बे-जान सी कैफ़ियत तारी थी। हरकत मेकानिकी और सुकून बेरूह

    मगर जब चंदले के बे-बर्ग-ओ-गयाह, सपाट और उदास सर से ग़ैर मुतमइन नज़रें फिसल कर दुकानदार के ऐ’न मुत्तसिल अलकतरे की रंगी हुई स्याह किवाड़ की ओट में जा पड़तीं तो वहां दो जानदार, रोशन और गोया हस्तियाँ दिखाई देतीं। जैसे रेगिस्तान में पानी का चशमा। उकताई हुई तबीय’त को सुकून सा होता और मुस्तफ्सिराना दिलचस्पी। इस सारे माहौल की बे-रंगी बे-कैफ़ी को वही चमकती हुई हस्तियाँ दूर कर सकती थीं। कोयले की कान के अंदर जैसे चमेली के फूल खिल जाएं, या लोहे के कारख़ाने की घड़घड़ाहट को ख़ामोश कर के कोई बाँसुरी बजाने लगे। बस इसी तरह रूह अफ़्ज़ा और जज़्बात ख़ेज़ एहसास उनके मुशाहिदे से होता था। वो दो आँखें कितनी अफ़्साना-ख़्वाँ थीं: कितनी पुरकशिश! आतिशीं शीशे की तरह रूह और दिल की नूर-ओ-हरारत की शुआ’ओं की मुर्तकिज़ करके वो दूसरे दिलों को भी बर्मा देती थी। इतनी ज़िंदा आँखें, इतनी अमीक़-ओ-तकल्लुम रेज़ निगाहें उस यकसां तौर पर लुढ़कती हुई बड़ी सी गेंद, या’नी दुनिया की सतह पर शाज़-ओ-नादिर ही नज़र आती हैं।

    किवाड़ के पट सदा नीम-वा रहते और अंदर से सफ़ेद मलगजी सारी के कुछ हिस्से दिखाई देते। पट के पीछे कोठरी तारीक मालूम होती और उस तारीकी से दो सितारे सुबह तुलूअ’ होते और शाम शाम तक वहीं दमकते रहते। मुस्तक़िल मज़ाहिरे फ़ित्रत की मानिंद ये भी दाइमी मज़हरे हयात थे। सालों साल किवाड़ की ओट से ये चमकते रहे थे। दो नसलों ने दीदा-ए-अंजुम को इसी बुर्ज में खुला देखा था। रोशन दीदे लाज़वाल टकटकी के साथ गुज़रगाह को निस्फ़ सदी से तकते रहे थे और अब तक अबु-अल-होल मिस्र की तरह तकते जाते थे। राहगीर इन ज़िंदा आँखों की किरनों की क़ुव्वत महसूस करते और गुज़र जाते मगर वो आँखें निगरां ही रहतीं।

    वो आँखें एक बूढ़ी औरत की आँखें थीं, जिसके चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गई थीं। मगर जिसकी हया गुलाब की एक ताज़ा पंखुड़ी की तरह बे-शिकन थी। उसका घूँघट कभी छुटा और किवाड़ के पट हमेशा नीम-वा ही रहे। बूढ़ी औरत पस-ए-पर्दा झाँकती रहती थी। जवानी अब दूर की गूंज भी रही थी। शबाब क्या, रमक़े हयात भी मिटती जाती थी। मगर उसने अपनी आँखों की पुतलियों में अपनी पामाल हसरतों को गिरह बांध कर रखा था। इंतिज़ार एक अबदी इंतिज़ार में आँखें सरशार रहतीं, और उन आँखों के सोते एक ऐसे दिल से मिलते थे जो वफ़ा, सब्र,तमन्ना और दर्द-ओ-ग़म की एक कायनात था।

    वो सोलह साल की थी तो उसकी शादी हुई। उसका शौहर भी एक ठठेरा था। मगर वो इस काम से आज़ुर्दा ही रहा। बीस साल का हँसमुख चोंचाल नौजवान यूं बुत बन कर काम करते चले जाने से घबराता था, शायद उसकी रगों में आम ठठेरों की तरह पिघला हुआ सीसा नहीं था, बल्कि छलकता हुआ पारा।

    बाप चाहता था कि सदियों की ख़ानदानी रिवायत के जुमूद के वारिस बेटे को भी मेख़ की तरह दुकान में ठोंक दे, तकले नाचते रहें, चर्ख़ी चलती रहे। लोहे की छीनि यां धातों को कतरती जाएं, हथौड़ों की ठाय ठाय जारी रहे और भाती फुंकारती जाये। मगर बेटा राँगा, सीसा, जस्ता, ताँबा, पीतल बनने से इनकार करता था। वो अनोखा था, निराला, बिल्कुल अनगढ़। ख़ानदानी साँचे पर ढलने वाला, नंग-ए-ख़ानदान, छोटा सा बाग़ी, लड़कपन में तोमारे बाँधे दिखा की मशीन का पुर्ज़ा बना। मगर उन्फुवान-ए-शबाब से ही सींग फूटते, ज़ोर-आवर बिछड़े की तरह रस्सी तोड़ कर भागने लगा। लाख खूंटे से बांधिये। मगर उसे तो कुलेल भाती थी। मौक़ा’ मिला और तरारे भरने लगा। वो आज़ादी का रसिया ब्याह के रस्ते में बाँधा तो गया पर जकड़ा जा सका। शादी को अभी साल भी लगा था कि वो अपने शहर की तंग दामानी छोड़कर कलकत्ता भाग गया।

    नौजवान बीवी ने पहले तो समझा कि तरंग है, मन की मौज का जवाज़ ख़त्म होते ही वो वापस जाएगा। अभी तो वो एक दूसरे को समझते भी थे। जिस्म की ममलकत के इन्किशाफ़ की कशिश कम भी हो जाएगी मगर दिल की इक़्लीम के राज़ हमेशा नित-नई दिलचस्पियाँ पेश करते रहेंगे। उस की मुहब्बत के भेद तो अनगिनत थे। उसके दिल का सागर तो अथाह था। अभी तो वो प्रेम के बेशुमार अनमोल मोती अपने स्वामी के क़दमों में रोल सकती थी। मगर परदेस सिधारने वाला वापस आया। कलकत्ते से ख़ुतूत आते रहे और रुपये भी, पर वह ख़ुद कभी ना आया।

    एक मो’जिज़ा रूनुमा होने वाला था। उस मो’जिज़े की करामत पर औरत को ए’तबार था, कामयाबी के तसव्वुर में वो गुम थी। उसे यक़ीन-ए-कामिल था कि उसने मर्द की रूह को प्रेम के जादू के ज़ोर से अपने अंदर मुक़य्यद कर लिया है और अब वह जल्द बहुत जल्द, चंद महीनों के अंदर कशां कशां चला आएगा। उसके अंदर जादू जाग रहा था, बालीदा तर हुआ जाता था और इसी पैमाने से उसका ए’तिमाद--- वो हामिला थी। उसके जिस्म के ज़र्रे ज़र्रे में एक अज़ीमुश्शान इन्क़िलाब ज़हूर पज़ीर हो रहा था। उसकी रग-रग में हयात की मौजें मचल रही थीं। औरत ने अपने जज़्ब-ओ-कशिश, अपनी मुहब्बत, अपनी उम्मीद, अपने शबाब-ओ-ज़िंदगी के ए’तिमाद का सरमाया उसी मो’जिज़े की परवरिश में सर्फ कर दिया। वो अपनी हयात से एक हयात-ए-नौ की तख़्लीक़ कर रही थी।

    उसे एक लड़की पैदा हुई औरत का दिल धक से रह गया। एक शुब्हा, एक जिगर ख़राश शक, उसे तुहमात ने घेरा। शायद उस का जादू पूरा नहीं उतरा। मर्द आग का पुतला तैयार नहीं हुआ। अब जोग के वो जागे औरत आस और निरास के दरमियान घुलती रही। कलकत्ते इत्तिला भेजी गई। मगर मो’जिज़ा बे-असर निकला। उसका दिल चूर चूर हो गया। बंगाल का जादू जीत गया, वो हार गई।

    इसी तरह कई साल बीत गए। एक रोज़ ख़बर आई कि भगोड़ा वापस रहा है। मगर औरत के लिए वो भगोड़ा नहीं रूठा हुआ देवता था। अब वो रहा था। मन मंदिर के सब दीये जला लिए गए और उसकी दहलीज़ पर दो रोशन चिराग़ पपोटों की ओट से राह तकने और मुहब्बत की शुआ’ओं के बुलावे भेजने लगे। वो इन्क़िलाबी घड़ी थी। जब परदेसी के आने की ख़बर आई। औरत अपनी बेटी को लेकर, अलकतरे से रंगी हुई स्याह किवाड़ की पटों को नीम-वा कर के बैठ गई। चशमबराह, पुर-उम्मीद, बेताब, वो दिन-भर उसी तरह बैठी रही और बहुत रात गए तक सड़क की तारीकियों को अपनी निगाहों से परे हटाती और उलट-पलट करती रही। आख़िर राहगीर को भी रात ने निगल लिया। टमटमें खड़खड़ाई हुई आतीं और दिल में रुके रुके इंतिज़ार के हिचकोले पैदा कर देतीं और फिर? पहियों की आख़िरी गर्दिश स्याही में घुल जाती। उसकी मुंतज़िर आँखों का काजल आँसूओं से धुला जाता था और सर के सिंदूर की लकीर ज़ख़्म के कटाव से ज़्यादा दर्दख़ेज़ थी। उसका सारा साज अकारत हुआ जाता था। रात-भर वो सिसकियाँ लेती रही, पर कोई नहीं आया। सुबह तड़के ठठेरों की हथौड़ों की ठाय ठाय सुनाई देने लगी। तब उसे एहसास हुआ कि रात बीत चुकी है।

    अब ये उस का मा’मूल हो गया कि हर सुबह वो किवाड़ की ओट से राह तकती रहती, एक अरमान-ओ-उम्मीद से लबरेज़, शायद उसमें उसकी ज़िंदगी सिकुड़ कर बैठ गई थी, बनी संवरी, घूँघट निकाले, वो सड़क को, फ़िज़ा को, भीड़ को, गाड़ियों को नज़र से कुरेदती रहती। हज़ारों, लाखों बार दिन-भर सीधी सड़क पर उसके काले लर्ज़ां लर्ज़ां दीदों का पहिया चल जाता। लेकिन उसकी आँखों की सवारी में बैठ कर उसका अपना मुसाफ़िर घर के दरवाज़े पर ना आया। अनगिनत बेदर्द दिनों और बेशुमार

    बुझे हुए कोयलों जैसी स्याह रातें मिल मिलकर वबाले जान सालों के गला घोंटने वाले लच्छे बना गईं औरत इंतिज़ार के लंबे, और बे छोर धागों से उम्मीद-ओ-यास, मुहब्बत-ओ-नफ़रत पुरसोज़ इज़्तिराब और ग़म-ए-जावेदाँ के नए नए क़ुमाश बुनती रही। सूरज की सुनहरी गर्म किरनों, नर्म ख़िराम और सनकती हुई हवाओं, ज़ेर-ए-लब गुनगुनाती हुई चांदनियों, उमड़ती सरसब्ज़ बरसातों, दिल-आवेज़ जाड़ों और पागल गर्मियों ने उसकी बच्ची को जवान और उसे अधेड़ कर दिया। वो चौंतीस साल की हो गई और उसकी बेटी सत्रह साल की। दुनिया बदल गई लेकिन उसका मा’मूल बदला। अलकतरे से रंगी हुई किवाड़ की ओट से वो घूँघट निकाले मुंतज़िर ही रही।

    औरत का सुसर धातों को गलाता, ठोकता ठाकता, रेतता, मर गया। उसने शौहर को ख़त लिखवाया कि उसका बाप गुज़र चुका और उसकी बेटी ब्याह के क़ाबिल हो गई है। पर ये ख़त मंज़िल-ए-मक़्सूद तक कभी पहुंचा। एक साल के बाद अचानक आसाम के चाय के बाग़ात से शौहर का ख़त आया कि कलकत्ता में उसका कारोबार तबाह हो गया था। इसी वजह से वो आसाम चला आया। उसने लिखा था कि उसे बेटी की ज़िम्मेदारी का ख़्याल है। उसकी शादी के लिए वो काफ़ी रुपये जमा’ कर ले तो आए औरत के दिल में उम्मीद की एक नई फुलझड़ी छुटी, मगर कुछ अ’र्से में वो भी राख बन गई। वो आख़िरी ख़त साबित हुआ। फिर कोई इत्तिला आई और वो ख़ुद ही आया।

    बूढ़े ठठेरे ने इतना पस्-अंदाज़ छोड़ा था कि उसकी पोती की शादी हो गई। मगर दामाद को सास ने घर में बसा लिया। और उसे ठठेरा होने भी दिया। बल्कि साईकिलों की मरम्मत की दुकान खुलवा दी। उसे इस पेशे से नफ़रत और ख़ौफ़ हो गया था।

    बेटी की शादी के बाद उसके मा’मूल में कोई फ़र्क़ ना आया। उसका चंदला दामाद ज़ख़्मी साईकिलों पर अपना अमले जर्राही करता रहता और वो ख़ुद अलकतरे से रंगी हुई स्याह किवाड़ की ओट से सड़क को तकती रहती, पैहम। सिर्फ इतनी तबदीली ज़रूर हुई कि अब वो काजल और सिंदूर नहीं लगाती, साज नहीं करती थी, मगर किवाड़ कभी पूरी खुली और घूँघट कभी ना छुटा। वो इस फ़िज़ा की एक मुस्तक़िल, ग़ैर मुबद्दल जुज़ हो कर रह गई थी। ज़माना बदलता जाता लेकिन वो अटल थी। उसकी जागती हुई आँखें अ’मीक़ इज़्तिराब के साथ रात-रात तक तारीकियों के पर्दे चाक करती और अपने आने वाले मुसाफ़िर को ढूंढती रहतीं। कोई मौसम हो, कोई रुत बदले मगर राहगीर किवाड़ की ओट से दो शदीद तौर पर ज़िंदा आँखों को निगरां ज़रूर देखते। वो आँखें सड़क की पीठ के हर नशेब-ओ-फ़राज़ से बड़ी यगानगत के साथ वाक़िफ़ हो गई थीं। उसकी रीढ़ की हड्डियां और पसलियाँ दिन-भर उनके सामने कड़कती रहती थीं। वो उसके हर मुहरे से हम-आग़ोश हो हो कर थक चुकी थीं मगर पसपा ना हुई थीं। सामने की नाली से ख़स-ओ-ख़ाशाक बह बह कर सालों साल गुज़रते रहे और इसी तरह आदमियों का बेमा’नी हुजूम सड़क पर रवाँ-दवाँ रहा। सड़क के काले भूरे, चितले कुत्ते, उनकी टेढ़ी टेढ़ी दुम, मुहल्ले के लोग बाग, उनका नाक नक़्शा, उनकी बोली ठोली, उनकी लड़ाईयां, उनकी सुलह, उनका फ़ुक़्र-ओ-फ़ाक़ा, उनकी ख़ुश हालियाँ, शादी ब्याह, पैदाइश और मौत, ये सब उस घूँघट की दुनिया में यकसाँ दाख़िल होते और फिर ज़िंदगी की ये सारी तहरीकात औरत के हस्सास दिल में जज़्ब हो कर उसकी मुंतज़िर आँखों में सुलग उठतीं। अलकतरे से रंगी हुई किवाड़ों के सामने छोटे-छोटे मकानात तोड़ दिए गए। और उनके अ’क़ब के गोभी के खेतों में फूटबाल का मैदान और कॉलेज की अज़ीमुश्शान इमारतें उग आईं। शहरियों की सूरतों, उनका सज-धज, उनकी बोल-चाल बदल गई। “हिंदू मुस्लिम भाई भाई!” “भारत आज़ाद!” और “इन्क़िलाब ज़िंदाबाद!” और लाल पीली हरी झंडियों के साथ आसमानों को सर पर उठा लेने वाले जलूस मुंतज़िर औरत की राह में बिछी हुई आँखों और तिश्ना कानों में ख़राश पैदा कर के तारीख़ के मक़बरे में दफ़न हो गए। सड़क की खाल उधड़ गई मगर उफ़्तादा हॉलों की तरह उसे रौंदा जाता ही रहा। टमटमों और बग्घियों की जगह मोटरें और लारियां आगईं। वो फ़र्राटे भर्ती, धूल उड़ाती, हवा के झक्कड़ की मानिंद दनदनाने लगीं। मगर जिस मुसाफ़िर की राह साल-हा-साल से देखी जा रही थी वो इस बाद पा सवारी पर भी ना आया। सड़क की केचुली बदल गई, अलकतरे की स्याह तह बिछा कर रोड़ों और बालुओं को कूट दिया गया, ताकि वो फ़ुतादगी का बार आसानी से उठा सके। बिजली के तार और क़ुमक़ुमों से शहर की पेशानी दमक उठी। मगर किवाड़ की ओट में वही दो अज़ली चिराग़ जलते रहे। पुराने रफ़ीक़ रोड़ों और शनासा कंकरियों के मिट जाने से मुंतज़िर औरत का दिल दुख गया। वो तो दर-ओ-दीवार के अदना से दाग़ धब्बे को भी मिटने देना चाहती थी। वो वक़्त की रौ को उस घड़ी तक साकित कर देना चाहती थी जब कोई रूठा हुआ परदेसी वापस जाये लेकिन बेदर्द ज़माना तेज़ी से उसके जिस्म को और जिस्म के माहौल को बदल रहा था। वो अब बूढ़ी होती जा रही थी। काश बूढ़ापा एक लाँबी डग बढ़ा कर ही अचानक जाता मगर वो तो रेंगता हुआ आया था, जन्नत के साँप की तरह, औरत को हर-आन शिकस्त खाती हुई जवानी का तल्ख़ एहसास होता रहा था। जब वो आएगा, तो उसके सामने क्या तोहफ़ा पेश करेगी। बेटी की शादी के बाद वो अलमअंगेज़ तौर पर तन्हा हो गई थी। ज़माना उसे सलीब पर चढ़ाने वाला था। और अपनी सलीब वो ख़ुद से सर पर उठाए हुए थी, अकेली, बेसहारा, एक हारती हुई आस के साथ, मजबूर। सब कुछ बदल रहा था। लेकिन उसका दिल और उसकी निगाहें वैसी ही थीं, जैसी उसका शौहर उन्हें छोड़ गया था। सिर्फ दीया की लौ कभी-कभी ज़्यादा तेज़ हो जाती थी। ज़लज़ले आए, शहर काँप-काँप उठा, इ’मारतें मालिया-मेट हो कर फिर बनीं, जंगें छिडीं, बग़ावतें हुईं, शिकस्ता-दिल बागियों ने, ब्रिगेड, बना बना कर सड़क दिल छलनी कर दिया। बिजली के तार तोड़-मरोड़ कर सड़क पर बिखेर दिए गए। दो आँखें किवाड़ की ओट से इस माजरे को देखकर ख़ुश हुईं, क्यों इन सारी जदीद चीज़ों से उन्हें नफ़रत थी। ये बेगाना थीं न। उनकी अपनी पुरानी चीज़ों को फ़ना कर के उन नई चीज़ों ने सर उठाया था। मगर जब उसे रास्ता रुक जाने का एहसास हुआ और जब रेल के बंद होने की ख़बर मिली तो किवाड़ की ओट में बैठी हुई औरत काँप काँप गई। फिर वो कैसे आएगा, जिसके इंतिज़ार में एक उम्र गुज़र रही है। औरत को माइल तख़रीब बागियों से बेपनाह नफ़रत हुई। जैसे वो उसका कलेजा काट रहे हों। फिर टिड्डी की तरह फ़ौजी लारियां आगईं और टॉमियों ने सड़क पर फ़ौजी ब्रिगेड लगाए। गोलियां चलीं और भगदड़ मची। किवाड़ की ओट में दिल फिर लरज़ा। कहीं परदेस से आने वाला गोली का शिकार हो जाये, कहीं करनटे उसे रोक लें। उन दिनों ठठेरों की सब दुकानें बंद रहतीं मगर अलकतरे से रंगी हुई किवाड़ के पट ज़रूर खुलते। और उसकी ओट में आँखों का दीया घूँघट तले जलता ही रहता। उन आँखों में बागियों और गोरों दोनों से नफ़रत की आग सुलग रही थी।

    सब कुछ गुज़र गया। तबदीलियां, ज़लज़ले, बग़ावतें और उनके साथ निस्फ़ सदी मगर कोई तूफ़ान मुंतज़िर आँखों का चिराग़ गुल कर सका। औरत के चंदले दामाद के बहुत से लड़के लड़कियां हुईं।

    लेकिन आ’म बूढ़ी औरतों की तरह नाती नतनियों से उसे वो दिलचस्पी हुई जो उ’मूमन होती है। लड़के फड़के आते। उन्हें भी वो किवाड़ की ओट में बिठा लेती। मगर थोड़ी देर के बाद वो उकता कर भाग जाते औरत अपनी अधेड़ बेटी से ता’ने सुनती। चंदला दामाद नकिया-नकिया कर बिगड़ता रहता पर सब बे-असर।

    फिर एक वाक़ेआ’ हुआ। जब वो पैंसठ साल की हुई तो उसकी नतनी की शादी हुई। नतन दामाद के बारे में उसे ख़बर मिली वो कलकत्ते में कमाता है। कलकत्ते के नाम से एक फ़ौरी ख़ौफ़ उसके दिल में पैदा हुआ मगर जब नतन दामाद का पहला ख़त आया तो उसकी आँखें नई रोशनी से दमक उठीं। उस की नतनी कोठरी में छुप कर ख़त पढ़ रही थी। वो दबे-पाँव वहां पहुंची और चुप-चाप पलंग के नीचे नव उ’रूस के नज़दीक बैठ गई। लड़की हाथ में ख़त उठाए पढ़ने में मुनहमिक थी और कभी-कभी वो जुमले ज़ोर से अदा कर देती। दुल्हन के नौजवान वफ़ा-शिआर दिल का चोंचाल ख़ून-ए-मोहब्बत और आरज़ुओं की आँच से लौ देने लगता और बूढ़ी औरत की मुतमन्नी-ओ-निगरां आँखें दिल की वीरानी की आग से ताबिंदा थीं। वो समझ रही थी कि ख़त उसके गुम-शुदा शौहर का है और वो उसे अपनी नतनी से पढ़वा कर सुन रही है। वो खिसकती हुई ख़त पढ़ने वाले के क़रीब-तर होती जाती थी। जब उसके हाथ दुल्हन के पांव से मस कर गए तो दुल्हन चौंक उठी और शर्म से अर्क़ अर्क़ हो गई।

    फिर तो हर बार यही होने लगा। बूढ़ी औरत किवाड़ की ओट से डाकिया का इंतिज़ार करती रहती। कलकत्ता से आने वाले वो प्यारे लफ़ाफ़! डाकिया भी कितनी रूमानी हस्ती है। उसके क़दमों से कितनी बेताब निगाहें लिपटी रहती हैं, और उसकी आहट से कितने दिल धक से कर उठते हैं।

    नौजवान दुल्हन क़ासिद ख़ुश-ख़िराम, का इंतिज़ार करती और कभी कभी बेचैनी में वो अलकतरे की रंगी हुई स्याह किवाड़ की ओट में खड़ी हो जाती। मगर बूढ़ी औरत का इंतिज़ार बादा-ए-रसा की तरह था, सुकर मुकम्मल अ’ता करने वाला। और नौजवान लड़की उस हिरन की तरह थी जिसके नाफ़ा में अभी-अभी मुश्क पैदा हुआ हो। लड़की बेताब ज़्यादा थी, निकहत नौजवानी के मानिंद। बूढ़ी औरत बह्र-उल-काहिल की मिसाल अथाह थी। उसे सिर्फ इंतिज़ार था। मुजर्रिद-ओ-मुतलक़-ओ-अबदी। नव उ’रूस अपनी ख़ुदबीं-ओ-ख़ुद-आरा जवानी की तरह निगरां होने के नतीजे में पयाम-ए-यार का इंतिज़ार खींचती थी। पूरब देस कलकत्ता से आने वाला महबूब लफ़ाफ़ कभी-कभार ही लड़की के हाथ में पड़ता। ये जिंस-ए-गिराँ माया बूढ़ी नानी के हाथ लगती। लामतनाही सब्र के साथ किवाड़ की ओट से लगा हुआ और कौन बैठ सकता था। वो ख़त लेकर राज़ दाराना मगर निशात रेज़ अंदाज़ में अपनी नतनी की कोठरी में जाती और उसके हाथ ख़त देकर उम्मीदवार बैठ जाती। नानी का दबे-पाँव तेज़ी से दुल्हन की कोठरी की तरफ़ जाना इस बात की अ’लामत होती कि बंगाल का जादू जाग गया है। लड़की अगर अपनी कोठरी में होती तो नानी को उस तरफ़ जाते देखकर फ़ौरन बेताबाना उस जानिब दौड़ पड़ती। पहले तो उसे नानी से नफ़रत सी हुई, रक़ाबत-ओ-हिजाब की परवर्दा नफ़रत, मगर रफ़्ता-रफ़्ता मुसालहत हो गई। इमदाद-ए-बाहमी की शक्ल पैदा हो गई थी। नानी बे चूक लड़की के हाथ में ख़त ला कर देती और लड़की सिवाए चंद जवान फ़िक़्रों के सभी कुछ सुना देती थी। बूढ़ी औरत ख़ुश होती। उसे रुहानी इत्मिनान हासिल होता। वो यूं समझती कि ख़त उसी के नाम का है। इन्सान की नफ़सी गहराइयों में ज़मान-ओ-मकान डूब कर तहलील हो जाते हैं, निस्फ़ सदी बूढ़ी औरत के दिमाग़ी भोलेपन में फ़ना हो गई। कलकत्ता से आने वाला हर ख़त उसके अपने बिसरे हुए परदेसी का ख़त था। वो तो अपनी नवासी से गोया सिर्फ़ पढ़वा कर सुनती थी। बूढ़ी औरत ख़त सुनकर एक मदहोश मसर्रत में खो जाती। कई दिनों तक उस पर यह आ’लम तारी रहता और हर-रोज़ वो किवाड़ की ओट में बैठी अबदी इंतिज़ार में मह्व रहती।

    एक ख़त आया। इत्तिला’ थी कि दुल्हन का दुल्हा रहा है। उ’रूस का चेहरा गुलनार हो गया। बूढ़ी औरत पर संजीदगी के बादल मंडलाने लगे। फिर उसे हिस्टीरिया सा होने लगा। वो अपनी नवासी से दिन में कई कई बार ख़त पढ़वा कर सुनती, रह-रह कर तारीख़ और वक़्त के बारे में पूछती और भूल जाती। और फिर किवाड़ की ओट में जा बैठती। कभी उसका चेहरा एक मुर्दा चेहरे की तरह पुर-असरार बन जाता, साकित मगर अ’लामाती, गहरा और तारीक और कभी तास्सुरात-ओ-जज़बात उसके चेहरे की सतह पर आकर अपने ताने-बाने बुनने लगते। वो गाह बेहद शादाँ नज़र आती और गाहे इंतिहाई रंजीदा।

    आख़िर वो दिन गया। दुल्हा कलकत्ता से तीन बजे शब की गाड़ी से आने वाला था। बूढ़ी औरत हस्ब-ए-मा’मूल अलस्सबाह कारोबार शुरू होने से बहुत पहले बलाकश इंतिज़ार हो गई। उसकी आँखों में नई उम्मीद चमक रही थी, उसका इंतिज़ार एक ताज़ा कसमसाहट लिए हुए लर्ज़ां था। निगाहों में अलबेले भाव और रस थरथरा रहे थे। इस दिन उसने खाना भी नहीं खाया। बस वो किवाड़ की ओट में लोहे की मेख़ की तरह जुड़ी रही। दोपहर गुज़ारी और फिर रात अपनी अंजान गहराइयों के साथ तारी हो गई। लेकिन बूढ़ी औरत वहां से उठाने पर भी नहीं उठी। किवाड़ का एक पट उस के मुंतज़िर दीदों की तरह बे-ख़्वाब ही रहा। रात भीग गई, सब लोग सो रहे और वो रात की तारीकी में घुल कर उसकी ख़ामोश अबदियत का जुज़्व बन गई। जब सन्नाटा छा गया तो वो अचानक उठी और अपनी नतनी के कमरे में दबे-पाँव दाख़िल हुई। नौजवान औरत अपने ही बार से थकी हुई जवानी की नींद में डूबी हुई थी। बूढ़ी औरत ने सिंगार बक्स से सिंदूर की शीशी निकाली और आईने की मदद से अपनी मांग में सिंदूर अच्छी तरह से भर लिया। फिर वो उजलत तमाम वापस लौटी और किवाड़ की ओट से लग कर बैठ गई। अब वो ज़्यादा मुतमइन थी। सड़क पर सिर्फ जाड़े की हवा चल रही थी। बूढ़ी औरत के जज़्बात मौसमे सरमा की ख़ुश्क मगर बर्छी की अनी की तरह तेज़ हवा की मानिंद थे। फिर भी वो सुकून जिसकी गोद में लामतनाही दर्द हो, अपनी तमाम संजीदगियों के साथ उस पर तारी था।

    उसका नतिन दामाद आया, ठीक वक़्त पर आया। लेकिन जाड़े की रात ज़्यादा बीतने की वजह से वो सड़क वाले दरवाज़े पर आया। वहां से ज़नाना दरवाज़ा दूर पड़ता था। उसने ख़्याल किया कि इतनी रात गए उस तरफ़ दरवाज़ा खोलने कौन आएगा। पहलू की गली की तरफ़ जो दरवाज़ा था वो आँगन में खुलता था और वहां से आवाज़ का अंदर पहुंचना आसान था। चार बजे भोर को नौजवान दुल्हन ने आँगन वाला दरवाज़ा खोला, और आने वाला अंदर दाख़िल हो गया। नौजवान औरत आधी रात से बेदार और नींद के दरमियान लज़्ज़त-ए-इंतिज़ार हासिल कर रही थी। वो दोनों अपने कमरे में चले गए जहां बूढ़ी औरत के काँपते हुए हाथों से इब्तिदाए शब में गिरे हुए सिंदूर अब तक बिखरे हुए थे।

    बूढ़ी औरत किवाड़ की ओट में बैठी हुई, इंतिज़ार करती, इंतिज़ार करती, इंतिज़ार करती रही। लेकिन किसी ने आवाज़ नहीं दी, कोई नहीं आया। सिर्फ सर्द हवाएं खुले हुए पट के अंदर सनसनाती हुई दाख़िल होती रहीं और नज़र-ओ-दिल के इ’लावा बूढ़ी औरत की हड्डियां भी ख़लिश इंतिज़ार ख़ुशी से बर्दाश्त करती रहीं।

    रात बीत गई। सुबह हुई। सड़क जाग उठी। दुल्हा दुल्हन जाग उठे, मगर बूढ़ी औरत किवाड़ की ओट से लगी बैठी रही। सभों ने देखा। मुंतज़िर आँखों की चमक और बढ़ गई थी। निगाहें लाज़वाल हो गई थीं और उसका इंतिज़ार अथाह, अटल, अमिट था।

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