कोहरज़दा शाम
जब मेरा पहला रिश्ता आया तो मैं तेरह बरस की थी। वो लड़का जिससे मेरा रिश्ता आया तीस के लग भग था और इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट का धंदा करता था। उधर का माल इधर और इधर का उधर। कोठियाँ थीं, कारें थीं, इज़्ज़त थी, शौहरत थी। बहुत से लोग दिन रात उसे सलाम करते थे और बहुत से लोगों को वो सलाम करता था।
अड़ोस पड़ोस की औरतें मेरी क़िस्मत पर रश्क करने लगीं और अपनी बच्चियों को मेरे जैसे नसीबे की दुआ देने लगीं। मेरी माँ ने मेरे बाप से कहा, लछमी ख़ुद चल कर हमारे घर आई है। उसे मोड़ना नहीं चाहिए। हमारी बच्ची सारी ज़िंदगी राज रजेगी। मगर मेरे बाप को मेरी माँ की मंतिक़ पसंद नहीं आई। वो ख़ुद कारोबारी आदमी था। माल की क़ीमत वो ख़ूब पहचानता था। माँ घर में बैठने वाली अनपढ़ औरत। उसे भला क्या पता ज़माना कौन सी चाल चल रहा है। चुनांचे मेरे बाप ने साफ़ मेरी माँ की बात रद्द कर दी। वो कहने लगा, भली औरत! मेरी बच्ची अभी ज़रा सी तो है। अभी तो उसके खाने-खेलने के दिन हैं। ज़िम्मेदारी उठाने को तो उम्र पड़ी है।
एक्सपोर्टर ने बड़ा ज़ोर लगाया उसके घरवालों ने बहुत चक्कर काटे। मगर मेरा बाप किसी सूरत नहीं माना और मैं इत्मिनान से मुहल्ले के लड़कों और लड़कियों के साथ, पिट्ठू गर्म खेलती रही। सोलह बरस की उम्र को पहुंचते पहुंचते मेरे लिए आने वाले रिश्तों की एक लाईन लग चुकी थी। मगर मेरा बाप जगह जगह से इस लाईन को तोड़ता रहा। हर आने वाले को इनकार के डंडे से भगाता रहा। कभी कहता, मेरी बेटी अभी बच्ची है। कभी कहता, लड़की अभी पढ़ रही है।
जब मैंने दसवीं का इम्तिहान दिया तो मैं उम्र की अठारवीं सीढ़ी पर क़दम जमा चुकी थी और मेरे दिल में रंग-बिरंगी फुलझड़ियाँ छूटती थीं और मेरी आँखों में हर दम शमइं रोशन रहती थीं। तब मेरी माँ ने फिर मेरे बाप से कहा, ए मियां! कुछ अक़ल की बात करो। लड़की जवान हो गई है। बस अब हाथ पीले करने की सोचो और कितना पढ़ाओगे। क्या नौकरी करानी है?
मेरे बाप ने मेरी माँ का तम्सख़र उड़ाया और बोला, भली लोके! अक़ल के नाख़ुन ले। हमारी बेटी लाखों में एक है, जो देखता है दौड़ा चला आता है। फिर सोने पर सुहागा करोड़ों की जायदाद की तन्हा वारिस। तुम देखोगी लोग सर के बल चल कर आएँगे। अभी कौन सी उम्र गुज़र गई जो तुम घबराती हो। लिख पढ़ लेगी तो काम आएगा। मुक़द्दर की किसी को क्या ख़बर। हमारी एक ही तो औलाद है। इसको इतनी तालीम दिलाना चाहता हूँ कि दस बेटों की हसरत पूरी हो जाये।
और अपने बाप के तरक़्क़ी पसंद नज़रियात से मुत्तफ़िक़ हो कर मैंने कॉलेज में दाख़िला ले लिया। अब मैं पिट्ठू गर्म की जगह बैडमिंटन खेलने लगी। बास्कट बाल में मैं हर जगह और हर मैच में फ़र्स्ट आती रही। हाकी मैचों में मेरी कारकर्दगी सबसे नुमायां रहती और बहुत जल्द में अपनी टीम की कप्तान बनादी गई। नतीजा ये हुआ कि मेरे रिश्ते आने की रफ़्तार और बढ़ गई और रिश्तों की तादाद के साथ मेरे बाप का दिल भी बढ़ गया। उसका हौसला और बुलंद हो गया। उसने कहा, मेरी बेटी लाखों में ही नहीं करोड़ों में एक है। मैं इसको अभी और पढ़ाऊंगा। हुस्न-ए-सूरत के साथ हुस्न तालीम से भी इसको सजाऊँगा। इल्म के ज़ेवर से मैं लाद दूंगा। इतना कि देखने वाले हैरान रह जाऐंगे। फिर देखना मेरी बेटी को कैसा बर मिलता है।
मेरी माँ सती सावित्री, अनपढ़ औरत। ख़ावंद को सर का ताज मानने वाली। वो दुनिया के छलबल क्या जाने। मेरे बाप की हौसला अफ़्ज़ा बात सुनकर वो मुतमइन हो गई और घर में रिश्ता लेकर आने वालों को साफ़ साफ़ जवाब देने लगी। मेरे सामने बहुत बुलंद आदर्श था। मुझे ज़िंदगी में बहुत कुछ करना था। मुझे तालीम हासिल कर के औरत का मुक़ाम ऊंचा करना था। उसके हुक़ूक़ का तहफ़्फ़ुज़ भी मुझी को करना था। मेरे कंधों पर ज़िम्मेदारी का बड़ा बोझ था। डिग्रियों के पुलंदे लेकर बाप की आरज़ू पूरी करना थी। उसका मान बढ़ाना था। उसके ख़ानदान का नाम रोशन करना था ताकि वो अपना सर बलंद कर के चल सके। ग़रज़ मेरे कंधो पर ज़िम्मेदारियों का बहुत बोझ था। मैं अपने माँ-बाप की इकलौती औलाद थी और इकलौती होने के नाते मुझसे उनकी जुमला तवक़्क़ुआत का वाबस्ता होना फ़ित्री और लाज़िमी अमर था। मुझे ख़ुद भी अपने बाप की तमन्ना का शदीद एहसास था और मैं उनकी तमाम तर ख़्वाहिशात के पूरा करने का अपने दिल में गोया अह्द कर चुकी थी। मेरे बाप के पास दौलत की कसरत थी और मेरे पास हुस्न की फ़रावानी थी, ज़ह्न था। कॉलेज में पहुंच कर मुझे अपनी अहमियत का एहसास मज़ीद बढ़ा। मेरी क्लास की लड़कियों के इलावा भी दूसरी लड़कियां मुझसे दोस्ती करने की ख़्वाहां नज़र आतीं। उस्ताद ख़ुसूसीयत से तवज्जो सर्फ़ करतीं और कॉलेज से बाहर निकलती तो कॉलेज के गेट पर लड़कियों के मुंतज़िर खड़े लड़कों की तवज्जो का मर्कज़ सबसे ज़्यादा मैं ही बनती। इस माहौल ने मेरे अंदर ग़रूर का बीज बो दिया। बदअख़लाक़ तो मैं न बन सकी मगर लड़कों के मुआमले में हमेशा बेनयाज़ बनी रही। हालाँकि अंदरसे मेरा जी चाहता, कोई मेरी तारीफ़ करे, मुझसे मुहब्बत जताए, मुझ पर मर मिटने की क़समें खाए। मुझे दुनिया की मुनफ़रिद और हसीन लड़की बतलाए। मुझे अपने ख़्वाबों की शहज़ादी कहे। इन्सान की फ़ित्रत भी अजीब है। अपने बारे में सब कुछ जानते हुए भी दूसरों से अपने मुताल्लिक़ सुनना चाहता है। तारीफ़ का सिर्फ़ एक जुमला, मुहब्बत का मुबहम सा कोई फ़िक़रा। सताइश का एक नन्हा सा लफ़्ज़। औरत का ख़मीर ही शायद ऐसी मिट्टी से उठाया गया है। ताहम इस सब के बावजूद मैं ख़ुद को लिए दिए रहती। सँभाल के रखती। फिर भी अपने हमसाए में रहने वाला वो झुकी झुकी सी शोख़ आँखों वाला लड़का मेरे हवास पर छाता जा रहा था। कॉलेज आते-जाते वो अक्सर अपने गेट पर खड़ा मुझे मिलता। जैसे मेरी गाड़ी को अख़ीर तक तकता रहता है। उसकी बेताब व पुरशौक़ निगाहें मुझे अपनी पीठ में गड़ी महसूस होतीं मगर कभी एक-बार भी मैंने पीछे मुड़ कर न देखा मुझे अपनी अना बहुत अज़ीज़ थी और बुलंद आदर्श मेरे सामने था। मैंने बी.ए का इम्तिहान दे लिया तो उसके घर से रिश्ता आया। ख़ुशी से लम्हा भर को मैं बेक़ाबू हो गई। मगर मेरा बुलंद आदर्श? मैंने अपनी ख़ुशी को अपने आदर्श पर क़ुर्बान कर दिया और मेरी माँ ने रिश्ते से इनकार!
अभी तो हमारी बच्ची ने सिर्फ़ बी.ए किया है। अभी एम.ए करेगी फिर डाक्टरेट और फिर...!
और इस फिर के आगे एक लंबी लाईन थी।
देखो भई! हम अभी जाने कौन कौन से उलूम पढ़वाएंगे। क्या-क्या कुछ करवाने के इरादे हैं। तुम इंतिज़ार कर सकते हो तो कर लो वर्ना हमें रिश्तों की भला क्या कमी पड़ी है। दौलतमंद बाप की इकलौती, ख़ूबसूरत, तालीम याफ़्ता लड़की को भी कहीं रिश्तों की थोड़ हुई है? मेरे घर रिश्ते आते रहे और मेरी माँ मेरे बाप की हिदायत के बमूजिब आने वालों को टका सा जवाब देती रही। अभी बहुत वक़्त पड़ा है। कौन सी उम्र निकल गई। हो जाएगा सब, पहले तालीम तो मुकम्मल करले। और मैंने अपने हमसाए के लड़के को ज़ह्न से झटक कर बेफ़िक्री के साथ यूनीवर्सिटी में दाख़िला ले लिया। वक़्त अपनी मद्धम, ग़ैर महसूस रफ़्तार के साथ आगे बढ़ता रहा। फिर एक दिन इस झुकी झुकी शोख़ आँखों वाले लड़के के गेट पर दुल्हन की फूलों से सजी गाड़ी आके रुकी और मैंने बड़े फ़ख़्र के साथ मुस्कुरा कर अपनी माँ से कहा, लोगों को अपनी ज़िंदगी का मक़सद ही मालूम नहीं। पैदा हुए, बड़े हुए और शादी कर के निचिंत हो बैठे कि जैसे हर मरहला सर कर लिया। मक़्सद-ए-हयात हासिल हो गया। कभी किसी ने सोचा कि शादी के इलावा भी कुछ कर सकता है। उसे कुछ और करना चाहिए? मेरी माँ ने मेरे आला-ओ-अर्फ़ा नज़रियात के साथ इत्तिफ़ाक़ किया और मेरी ज़बानदानी की तारीफ़ की। माँ की हिमायत से मेरा हौसला बढ़ा ज़रूर मगर मुझे लगा जैसे कोई चीज़ मेरे दल के क़रीब टूट सी गई है। कुछ गड़-बड़ हुई ज़रूर थी। दिल शिकस्तगी का एक अजीब सा एहसास, मायूसी की सर्द लहर, कहीं मैं मलफ़ूफ़ बेकैफ़ सी ज़िंदगी, यूनीवर्सिटी की रंगीन फ़िज़ा अचानक धुंद से अट गई थी। शफ़्फ़ाफ़ नीले आसमान पर अब्र छा गया था। तब मैंने ख़ुद से सवाल किया, क्या ये मैं हूँ? इतनी बुज़दिल? ऐसी अहमक़ाना सोच रखने वाली? मेरे सामने कितने बुलंद आदर्श हैं। मुझ पर कितनी ज़िम्मेदारियाँ हैं। मुझे अपने बाप की ख़्वाहिशात पर बहर-तौर पूरा उतरना है। मुझे दुनिया को बताना है कि शादी कर के और बज़ाहिर घर बसा कर बैठ जाने के इलावा भी कुछ करना होता है। औरत महज़ घरदारी की ही नहीं और भी बहुत सी ज़िम्मेदारियाँ निभा सकती है। वो सिर्फ़ अफ़्ज़ाइश-ए-नस्ल का पुर्ज़ा नहीं, दुनिया को अपने आगे झुका सकती है। मर्दों से कहीं बढ़कर इल्म सीख सकती है।
यूनीवर्सिटी में पढ़ते हुए कई मुक़ामात पर लड़खड़ा कर में गिरने लगी मगर मेरे बुलंद इरादों ने मुझे सहारा दिया और मैं सँभल कर फिर आगे चल खड़ी हुई। एम.ए की डिग्री लेने तक मेरे उम्मीदवारों में कमी आती गई और इस सूरत-ए-हाल से मेरे दाना बाप को एक गो न इत्मिनान हुआ और उसने मुझे मज़ीद तालीम के लिए मुल्क से बाहर भेज दिया। मैं ख़ुश थी। अपनी हमजोलियों में मैं सबसे ऊंची सीढ़ी पर खड़ी थी। मेरी चचेरी ख़लेरी क़िस्म की बहनें अपनी गोदियों में कई कई बच्चे लटकाए फिर रही थीं और मुझ पर रश्क कर रही थीं। मेरे सामने एक दरख़्शां मुस्तक़बिल था। आला नस्ब उल-ऐन था।
छः...मुख़्तसर से छः बरसों बाद जब मैं बाहर से लौटी तो मेरे पास बहुत सी डिग्रियां थीं। मेरे नाम के साथ डाक्टर का लाहिक़ा लग चुका था। मिलने वालों के दिल मेरे एहतिराम में झुकते थे। मेरे कज़न लड़के-लड़कियां मुझसे बात करते झिजकते थे। मेरे माँ-बाप के सर फ़ख़्र-ओ-इंबिसात से उठे हुए थे। मगर बुढ़ापा उन पर हावी हो चुका था। मेरी माँ को गठिया के मर्ज़ ने आ घेरा था और मेरा बाप कई बीमारियों का शिकार हो चुका था और मेरे चेहरे पर हल्की झुर्रियों का जाल सा बिछ गया था और मेरी मांग में सफ़ेद चांदी के तार झिलमिलाने लगे थे और मेरे आसाब थक चुके थे और मेरी ज़िम्मेदारियों में मज़ीद इज़ाफ़ा हो गया था। मैं अपने बाप की वाहिद औलाद थी और मुझे उसके फैले हुए कारोबार को सँभालना था और अपनी आला तरीन डिग्रियों को इस्तिमाल में लाने के लिए किसी सरकारी महकमे में अच्छी सी नौकरी हासिल करना थी। मेरी ज़िम्मेदारियों का दायरा गोया मज़ीद वसीअ हो गया था। बहुत दौड़-धूप के बाद मुझे नौकरी ऑफ़र हुई। वो एक प्राईवेट कॉलेज में लेक्चरारशिप थी। इससे बड़ा ओह्दा हासिल करना मेरे लिए मुम्किन न था कि मैं नातजुर्बेकार थी। सरकारी मुलाज़मत के लिए मेरी उम्र ज़्यादा हो चुकी थी और मेरे वालदैन सफ़र आख़िरत बाँधे हुए तैयार बैठे थे और चाहते थे कि मेरे हाथ पीले कर दें मगर शादी के लिए मेरी उम्र निकल चुकी थी और मेरी उम्र के सब लड़के अपने बच्चों की जवानी के ख़्वाब देख रहे थे। वो झुकी झुकी आँखों वाला लड़का एक मतीन मर्द बन चुका था। अब मेरे गुज़रते समय उसकी निगाहें बेचैनी से मेरे तआक़ुब में नहीं उठती थीं। मैं उसकी एक नज़र ग़लत-अंदाज़ की भी मुस्तहिक़ नहीं रही थी। वो अपनी बीवी और नौजवान बच्चों के साथ बेनियाज़ी से मेरे पास से गुज़रता था। मेरे माँ-बाप मेरी तन्हाई के दुख से बोझल थे और मेरे मेयार व स्टेटस का रिश्ता मफ़क़ूद था। उन्होंने मुझे अपनी पसंद से अपना घर बसा लेने को कहा मगर शायद वो नहीं जानते कि इसके लिए भी अब वक़्त निकल चुका है। वक़्त का बहता धारा जाने कितने पुल क्रास कर चुका है। कितने पुलों के नीचे से गुज़र गया है।
मैंने अपनी आला तालीम की डिग्रियों की फाईल को शैल्फ़ में बंदकर दिया है और अपने बाप का गिरता हुआ कारोबार सँभाल लिया है कि मुझे घर में बैठ कर घर सँभालने का कोई शऊर नहीं। मैं तो एक ऐसा फूल हूँ जो शाख़ पे लगे लगे ही बन खिले मुरझा गया हो और उसके जी में किसी के कोट के कालर में टंकने की हसरत ही रह गई हो। मैं ख़ुद से फिर सवाल करती हूँ और पूछती हूँ।
मैं क्या हूँ? कौन हूँ? मेरे आदर्श पूरे हुए या नहीं? और क्या मैं उन आदर्शों के सहारे जी सकूँगी?
मगर मैं जानती हूँ कि जैसे भी होगा मुझे बेहतर तौर पर उसकी पासदारी करना होगी। इस कोहरज़दा शाम को मुझे तन्हा ही काटना है, बिल्कुल तन्हा...
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