कोयले की किरकिरी
“नहीं अम्मी, आप छोटे चचा को मना’ कर दें, मैं उनकी किसी बेटी से शादी नहीं करूँगा।” आ’ज़म ने फ़ैसला-कुन अन्दाज़ में कहा।
“मगर तुम ऐसा टका सा जवाब क्यों दे रहे हो? बात को समझो बेटा। तुम्हारे अब्बू भी यही चाहते हैं।”
“जवाब देना लाज़मी तो नहीं।” आ’ज़म ने नज़रें झुका लीं।
बेगम अब्दुस्समद कुछ देर के लिए मानो सकते में आ गई हों। बस बेटे को एक टक देखती रहीं। उन्हें ऐतिबार नहीं हो रहा था कि ऐसा नेक, फ़रमाँ-बर्दार बेटा जिस पर घर में सभी नाज़ करते हैं, इस तरह घर के सब बड़ों की मर्ज़ी का लिहाज़ नहीं करेगा। “आख़िर ख़राबी क्या है इस रिश्ते में? घर की लड़की घर में रहेगी। तुम्हारे दादा की मिल्कियत पर किसी ग़ैर का हक़ बने इससे तो अच्छा है ना कि तुम...”
माँ का कलाम तो क़ता’ न कर सका, बस आ’ज़म ने नज़रें झुका लीं।
वो चाहता था अम्मी ख़ामोश हो जाएँ और वो छोटे चचा के मज़ीद तज़्किरे से महफ़ूज़ हो जाए। उसे अपने दाँतों में वैसे ही कोयले की किरिकरी महसूस हो रही थी जैसे छोटे चचा, या उनकी दूसरी बीवी या उनकी तीनों बेटियों के ज़िक्र पर होती थी।
बेगम अ’ब्दुस्समद ने बात को दूसरा मोड़ दे कर दोबारा सिलसिला-ए-कलाम का आग़ाज़ करना चाहा। “तुम सोच समझ कर जवाब दो बेटा। कुछ वक़्त दरकार हो तो हमें कोई एतराज़ नहीं। मैं तुम्हारा जवाब अभी किसी को बता नहीं रही हूँ। वो लोग अगले हफ़्ते आ रहे हैं।”
“अगले हफ़्ते आ रहे हैं” आ’ज़म ने चौंक कर जवाब दिया।
“न ईद, न बक़रीद, न घर में कोई तक़रीब। भला वो लोग बिन मौक़ा गाँव क्यों आ रहे हैं? मना’ कर दीजिए। वैसे भी बरसात के मौसम में यहाँ गाँव के कीचड़-पानी में उनकी बीवी और बेटियों को तक्लीफ़ होगी।”
“बच्चों जैसी बातें न करो। हम कैसे मना’ कर सकते हैं। ये घर उनका भी उतना ही है जितना हमारा।” माँ ने सरज़निश की।
‘‘हाँ मिल्कियत के हक़-दार तो हैं। मगर अक़्द-ए-सानी के बा’द उन्होंने इस घर के ग़म-ओ-ख़ुशी से वास्ता ही कब रखा है’’ उसने माँ को सवालिया निगाह से देखा।
“अब पुरानी बातें न खोल के बैठो। इतनी दूर बंगाल में है आसनसोल। आना-जाना आसान तो नहीं।”
“इतना भी मुश्किल नहीं कि दादी के इन्तिक़ाल के तीन रोज़ बा’द आए, वो भी अकेले।” अब आ’ज़म के लहजे में तन्ज़ था।
“मगर ये जुर्म ऐसा संगीन तो नहीं कि तुम इस बुनियाद पर इतना बड़ा फ़ैसला नफ़ी में कर दो।”
ये तो नज़रिए की बात है अम्मी। शादी दो अफ़्राद का नहीं दो ख़ानदानों का बंधन होती है। मेरी नज़र में मिल्कियत, तिजारत और मुलािज़मत के उमूर से बरतर ख़ानगी सुकून है।” ये कह आ’ज़म उठ गया।
स्कूल का वक़्त हो गया था। गाँव के जिस प्राइमरी स्कूल में वो मास्टर था वहाँ उसकी बड़ी इ’ज़्ज़त थी। दो सालों की सरकारी मुलािज़मत में उसने ग़ैर-मा’मूली मेहनत और लगन से ग़रीब बच्चों का मुस्तक़बिल सँवारने के अक़्दाम किए थे। बाक़ी वक़्त अब्बा के साथ खेतों और बाग़ों की देख-रेख में लगाता। अब घर वाले जल्द उसकी दुल्हन लाना चाहते थे। उसने सआ’दत-मन्दी से कह भी दिया था कि वो घर वालों की मर्ज़ी से शादी करेगा।
मगर उसे क्या ख़बर थी कि घरवालों की मर्ज़ी उसके दाँतों में ज़िन्दगी भर के लिए कोयले की किरिकरी भर देगी। उसकी ये बात कोई समझ नहीं सकता था, इसलिए वो किसी से ज़िक्र नहीं करता था। दाँतों में कोयले की किरिकरी से छोटे चचा और उनके ख़ानदान का भला क्या तअ’ल्लुक़।
कोई सात-आठ का सिन रहा होगा आ’ज़म का जब आख़िरी बार छोटी चची के भाई आ कर उन्हें ले गए थे।
उसकी छोटी चची या’नी छोटे चचा की पहली बीवी। जिनकी गोद में खेल कर आज़म बड़ा हुआ था। जिनकी अपनी कोई औलाद न थी। जो आज़म और उसके भाई-बहनों को ही अब अपना सब कुछ मानती थीं। दादी उन्हें छोटी दुल्हन कहतीं मगर अम्मी नाम से पुकारतीं। कभी-कभी जब जब अम्मी उन्हें किसी काम से पुकारतीं तो इस तरह हाकिमाना अन्दाज़ में “ताहिरा” की सदा बुलन्द करतीं कि सुनने वाले को लगता किसी नौकर को पुकार रही हैं। आ’ज़म को बुरा लगता। मगर अम्मी से क्या कह सकता था। जब से दादी ने फ़ालिज के ज़ेर-ए-असर बिस्तर पकड़ा था अम्मी ही तो घर की मालकिन थीं। अब्बा खेती-बाड़ी की आमदनी अम्मी के हाथ में रखते। छोटे चचा मुलािज़मत तलाश करने की नाकाम कोशिश से मायूस हो गए थे। खेती-बाड़ी के काम में भी दिलचस्पी नहीं लेते थे। लिहाज़ा गुज़ारे के लिए अब्बा के ही मोहताज रहते।
गर्मियों में ज़नान-ख़ाना के आँगन में चारपाइयाँ निकल जातीं। अम्मी, दादी और तमाम बच्चों के पलंग हवा-दार चबूतरे पर लगते। सब ख़वातीन शाम से हाथ का पंखा लिए वहीं बैठ जातीं। चाय, पान, लँगड़ा आम के अन-गिनत दौर चलते। छोटी चची ला-ला के देतीं। दालान, आँगन, बावर्ची-ख़ाना एक किए रहतीं।
कोई कहता कि आप भी बैठिए तो हौले से कह देतीं, “न हम पान खाते न आम। चाय चूल्हे के पास ही पी ली थी। अब रोटी बनाने जा रहे हैं।”
एक दो काम में मदद करने वाली बहुएँ आतीं मगर बिल-आख़िर हर काम का ज़िम्मा छोटी चची का था। ख़ादिमा भी वही, ख़ानसामाँ भी वही, धोबिन भी वही। न कभी ख़ाली बैठे देखा न कभी सैर-सपाटे को जाते देखा। खाना पका चुकीं तो कल के लिए चावल फटकने बैठ जातीं। अभी नाश्ते में वक़्त है तो ज़रा की ज़रा में आँगन में गिरीं नीम की सूखी पत्तियाँ झाड़ दीं। कभी रात धूल-भरी आँधी आती तो एक दम से सुब्ह को कच्चे आम के टकोरों की बोरी बाग़ से आ जाती। छोटी चची जिन्हें यूँ ही दम लेने की फ़ुर्सत नहीं होती, आम की मीठी चटनी और अचार बनाने में लग जातीं।
सबकी तरह उन्हें कभी खुले आँगन में सोते नहीं देखा। रात कहाँ दुबक के गुज़ार देतीं पता ही नहीं चलता। या यूँ कहिए किसी को परवाह ही क्या कि एक हक़ीर जान छोटी चची कहाँ सोईं, कहाँ लेटीं। खाना खा कर सोईं या नहीं।
किसी ने खाते तो देखा न था आज तक। दुनिया की बेश-बहा ने’मतों में निस्फ़ अशिया से उन्हें परहेज़ था। फल, मिठाई, पूड़ी, पराठे, क़ोरमे, पुलाव सब पर कह देतीं, “हम नहीं खाते।” अक्सर ये भी कहतीं कि, “खाने का क्या है, हम चटनी रोटी खा के गुज़ारा कर सकते हैं। बस अल्लाह इ’ज़्ज़त से रखे।”
सच ही तो कहती थीं। कभी अपने प्लेट में बचे-खुचे दाल-भात पर थोड़ा आलू-गोश्त का शोरबा भी डाल लेती होंगी। अपनी हाजत का बयान कभी किसी से नहीं किया कि इ’ज़्ज़त घटे।
आ’ज़म की पलकें नींद से बोझल रहतीं तब तक छोटी चची बर्तन धो-धो कर चमका-चमका कर रख रही होतीं। कभी नींद खुलती तो देखता दादी के सर-पैर दबा रही हैं। न जाने रात का कौन सा पहर होता। वो फिर सो जाता।
सुब्ह पौ फटने से पहले आँगन के नल के पास से कोयले की किरिकरी घिसने की सी आवाज़ आती। ये नाज़ुक सी किरकिरे सिर्फ़ वही सुन पाता जिसकी चारपाई नल के क़रीब होती। बाक़ी सब नसीम-ए-सहरी की मीठी नींद के मज़े लेते। छोटी चची कोयले से दाँत माँजती थीं। चूल्हे की ठंडी राख में से एक छोटा टुकड़ा लिए नल पर आतीं और धीरे-धीरे उसे मुँह में रख कर दाँतों से पीसतीं। फिर कोइले के चूरे को उँगलियों से दाँतों पर ऐसे घिसतीं जैसे डाबर लाल दन्त मन्जन घिसते हैं और कहते हैं दाँत मोतियों जैसे सफ़ेद हो जाते हैं। आ’ज़म की समाअतों से ये किरकिर एक अ’जीब नक़ाहत लिए टकराती। उसके बदन में झुर-झुरी होती। वो आँखें बन्द कर लेता और तब तक बदन सिकोड़ कर चादर से ख़ुद को ढाँके रहता जब तक मुँह में पानी की कुल्ली कर के छोटी चची कोयला थूक नहीं देतीं। एक, दो, तीन बार काला पानी थूकतीं, फिर मट-मैला, फिर वुज़ू बना कर दुपट्टे की कोर से मुँह साफ़ करती नल पर से उठ जातीं। अब्बा और चचा फ़ज्र की नमाज़ को मस्जिद जाने से क़ब्ल चाय पी कर जाते थे। लौट के आते ही नाश्ते की पुकार पड़ती। दादी भी नमाज़ की चौकी पर ही उबला अण्डा और चाय लेने की आदी थीं। अब अम्मी तो इतने बच्चों की ज़िम्मेदारी के साथ ये सब कर नहीं सकती थीं।
न जाने कितनी और कैसी-कैसी मुश्किल ख़िदमात अन्जाम दे कर छोटी चची इस जुर्म की सज़ा रोज़ काटती थीं कि उनके औलाद नहीं थी।
जब आ’ज़म घर में किसी को ब्रश पर सफ़ेद पेस्ट लगा कर दाँत साफ़ करते देखता तो उसे अपने दाँतों में कोयले की किरिकरी महसूस होती। मगर वो कभी किसी से पूछ नहीं सकता था कि जब सब नए ज़माने के तरीक़ों पर बाज़ार से ब्रश और पेस्ट लाते हैं तो ये कोयलों से दाँत माँजने का मुक़द्दर एक छोटी चची ही का क्यों है?
उस वक़्त उसका तिफ़लाना ज़ेह्न ये समझने से क़ासिर था कि जो ख़ुद्दार ख़ातून दिन रात सबकी ख़िदमत में इसलिए खटती थी कि अल्लाह ने उसे औलाद नहीं दी, वो अपनी छोटी बड़ी किसी ज़रूरत के लिए शौहर से तो कह सकती थी। मगर नाकारा शौहर से मायूस हो कर सास या जिठानी के आगे हाथ कैसे फैला सकती थी?
ज़माना बदल रहा था। सब के लिए ब्रश और टूथ-पेस्ट बाज़ार से आता था। अब तो दादा के लिए नीम की मिस्वाक भी ख़रीद कर लानी होती थी। एक चूल्हों की ठंडी राख के कोयले ही बे-दाम मिला करते थे सो वो छोटी चची की क़िस्मत की सियाह दास्तान लिख रहे थे और उस सियाही से अगर कोई ऐसा ना-बलद था जैसे समुन्दर से मीठा पानी तो वो थे उनके मजाज़ी ख़ुदा। उसके छोटे चचा।
हाँ मा’सूम आ’ज़म जानता था ये दाँतों में कोयलों की किरिकरी कैसी होती है।
छोटी चची गोश्त के पारचों के सीख़-कबाब बे-हद लज़ीज़ बनाती थीं। बड़ी-बड़ी लोहे की सीख़ों में भुने मसाले में लिपटे पारचे सीनी पर रख लेतीं। पक्के चबूतरे पर कुछ ज़मीन साफ़ कर लेतीं और ज़मीन पर दो ईंटें जम्अ’ देतीं। कुछ चूल्हे से ठंडा किया हुआ कोयला उन ईंटों के बीच सजा देतीं। पुराने काग़ज़ की बत्ती सुलगा कर कोयलों को दहका कर सुर्ख़ अंगारा बना लेतीं। ज़मीन पर उकड़ूँ बैठ कर हाथ का पंखा झल-झल के राख उड़ाती जातीं और कोयलों में दम भरती जातीं। दोनों जानिब ईंटों पर सीख़ के सिरे रखे होते और दर्मियान में गर्म कोयलों की मद्धम आँच गोश्त के पारचों को सेंक देती। अख़बार के टुकड़ों से पकड़ कर गर्म सीख़ घुमाती जातीं और चारों तरफ़ कबाब सिंकते जाते। जब सिंके हुए कबाबों की ख़ुशबू घर की फ़ज़ा को मद-मस्त कर देती तो बच्चे दौड़े हुए उनके पास आ कर बैठ जाते। कच्चा पपीता लगे गलावट के पारचे कभी कोयले पर टपक जाते। बच्चों के मुँह में पानी आ जाता। छोटी चची उठा कर वापस सीख़ पर लगाने को गर्म अंगारों में यूँ ही हाथ डाल देतीं।
उनके हाथ से ये टुकड़े लेने के लिए सब पुकार पड़ते, “चची ज़रा तो चखाइए।”
“अब हमें दीजिए।”
“अभी तो भाई जान को दिया था। अब हमारी बारी है।”
ऐसी गुहारों का ग़ल-ग़ला मच जाता। कभी आ’ज़म को एक टुकड़ा टपके कबाब का मिल जाता तो ख़ुशी से मुँह में डाल लेता। जल्दी में गर्म कबाब से मुँह ही जल जाता। फूँक मारते हुए ज़बान को गोल करके खाता तो आँखों में आँसू आ जाते। कभी साथ कोई जला हुआ कोयले का टुकड़ा भी कबाब में चिपक कर मुँह में आ जाता तो निकालना मुश्किल होता। रेशमी कबाब के ज़ायक़े में ये कोयले की किरिकरी उसे बहुत बुरी मा’लूम होती। फिर वो जा के पानी से कुल्ली करता मगर कुछ देर दाँतों में फँसी रहती। कोयला हो, न हो, किरिकरी का एहसास देर तक रहता।
उस दिन उसे नहीं मा’लूम था कि वो छोटी चची को आख़िरी दफ़्अ’ सलाम कर रहा है जब उनके भाई आ कर उन्हें ले गए थे। चेहरा यूँ ही तर था जैसा कोयलों से दाँत माँजने के बा’द मुँह पर पानी के छींटे डाल कर हो जाता था। बुर्क़े का पर्दा आँसुओं पर कोयलों की सियाह चादर किए था, मगर आँखों में दहकते अंगारों की सुर्ख़ी किसी से पोशीदा न थी। घर की चौखट से आख़िरी दफ़्अ’ बाहर क़दम निकालते हुए शायद एक हल्की सी सिसकी भी ली होगी मगर फिर पलट कर नहीं देखा।
जब साल भर में छोटे चचा की नौकरी आसनसोल में कोयले की दुकान में लगी तो वो भी बहुत ख़ुश हुआ कि शायद अब छोटी चची वापस आ जाएँगी। घर में फिर बहुत से लज़ीज़ खाने पका करेंगे और दादी की ख़िदमत का बोल-बाला होगा। शायद फिर गलावट के सीख़-कबाब बना करेंगे, जिनकी महक से घर भर जाया करेगा और अपने-अपने हिस्से से बढ़ कर टपके कबाब मा-अध-जले कोयलों के खाने को मिलेंगे।
मगर जब चचा नौकरी पर अपने हमराह एक नई चची ले के गए तो आज़म के दाँतों में कोयले की किरिकरी बस गई। ये नई चची थीं तो उसी गाँव की मगर उनके वालिद आसनसोल में कोयले की कानों में बाबू-गीरी पर मुलाज़िम थे। इसलिए गाँव की ज़िन्दगी जिसमें सब्र-ओ-तहम्मुल का बड़ा किर्दार होता है, उससे ना-वाक़िफ़ ही थीं। वहीं ख़ुसर ने छोटे चचा की भी नौकरी लगवा दी थी। सो घर-जमाई तो नहीं हाँ अपने घर से परदेसी बन कर छोटे चचा वहीं आसनसोल, बंगाल की कानों में बनी रिहाइशी कॉलोनियों में रहने लगे। औलाद की चाह जिसके लिए छोटी चची को दो बोल कहे बग़ैर छोड़ दिया था वो भी अल्लाह ने पूरी की। यके-बाद तीन बेटियों से नवाज़ा।
छोटे चचा और उनका बढ़ता हुआ ख़ानदान कभी छटे-छमाहे बंगाल से आया करता था। नई चची तो ज़ियादा-तर अपने मायके में ही रहतीं। उनकी बेटियाँ भी माँ के साथ ही मेहमान बन कर आतीं और चली जातीं। दादी कभी दबे अल्फ़ाज़ में रोकतीं या एतराज़ करतीं तो छोटे चचा ज़ियादा तवज्जोह नहीं देते। यूँ तो दादी या अम्मी कभी आह भर कर छोटी चची को याद कर लेतीं। मगर क्या मजाल कि जिन दिनों आसनसोल से मेहमान आए हुए हों उन दिनों किसी के मुँह से निकल जाए, ‘ताहिरा’ या ‘छोटी दुल्हन’ दोनों में फ़र्क़ इतना था कि दादी ने नई चची को कभी छोटी दुल्हन नहीं पुकारा। उनके लिए नया लक़ब तज्वीज़ हुआ, ‘नई दुल्हन’।
बच्चों को भी जैसे बग़ैर समझाए समझा दिया गया था कि ये छोटी चची नहीं नई चची हैं। ये रोज़ ब्रश और पेस्ट से मुँह धोती हैं और उनका साबुन, तेल, कंघा वग़ैरा कोई हाथ लगा ले तो आस्मान सर पर उठा लेती हैं। न तो ये सीख़ के कबाब बनाती हैं न चूल्हों पर रोटियाँ।
जब से छोटी चची गईं आ’ज़म ने कोयलों पर सिंके कबाब नहीं खाए थे। मगर जब-जब इन नई चची, उनकी बेटियों या छोटे चचा का ज़िक्र होता, आ’ज़म के दाँतों में कोयलों की किरिकरी ज़रूर महसूस होती।
वो अपने कमरे में स्कूल के बच्चों की इम्तिहान की कापियाँ जाँच रहा था। छोटे चचा को आए हुए तीन दिन गुज़र चुके थे मगर घर में किसी ने अब तक आ’ज़म और उनकी बेटी के रिश्ते की बात नहीं छेड़ी थी। हल्की सी दस्तक के साथ छोटे चचा बग़ैर इजाज़त लिए कमरे में आ गए। आ’ज़म ता’ज़ीमन खड़ा हो गया और उन के लिए कुर्सी ख़ाली कर दी। छोटे चचा हाथ के इशारे से उसे बैठने के लिए कहते हुए ख़ुद सामने पलंग पर बैठ गए और बग़ैर किसी तम्हीद के बात शुरू’ कर दी।
बोले, “आ’ज़म, हम लोग इस दफ़्अ’ आसनसोल से ये इरादा करके आए थे कि तुम्हें अपनी बड़ी बेटी के साथ रिश्ता-ए-इज़्दिवाज में मुंसलिक करके मैं एक फ़रीज़े से सुबुक-दोश हो जाऊँगा। ख़ैर से भय्या और भाभी ने रज़ामन्दी का इज़्हार भी कर दिया था। फिर तुम्हारे इस इन्कार की वज्ह जान सकता हूँ?”
चचा की इस बे-बाकियत से आ’ज़म की भी हिम्मत-अफ़्ज़ाई हुई और उसने सीधी बात की राह ली, “मैं इस मौज़ू’ पर गुफ़्तुगू से घर के माहौल में तल्ख़ी नहीं पैदा करना चाहता। बिल-ख़ुसूस तब, जब इससे मेरे फ़ैसले में तर्मीम की कोई गुन्जाइश नहीं।”
छोटे चचा दंग रह गए। सुझाई नहीं देता था कि गुफ़्तुगू के किस सिरे से सिलसिला जारी किया जाए। आख़िरी कोशिश की उम्मीद लिए हुए बोले, “आ’ज़म, बेटे एक बार मेरा भतीजा बन कर नहीं बेटा बन कर सोचो। तुमसे अपना एक दुख बाँटता हूँ जो अब तक किसी से नहीं बाँटा। भय्या से भी नहीं। मैं गुज़िश्ता चार माह से आसनसोल में बग़ैर मुलािज़मत के रह रहा हूँ। सारी जम्अ’ पूँजी ख़र्च हुई जा रही है। मैं जिस कोयले की कान में था उसका सारा कोयला ख़त्म हो चुका है। मालिक उस कान को छोड़ कर फ़रार हो चुका है। साल-हा-साल जब मनों कोयला निकला करता था तो ऐसे माल-ओ-दौलत के दरिया बहते जैसे ये कोयला कभी ख़त्म नहीं होगा। मगर हर माद्दी वसाइल की एक हद होती है और इन्सान के बे-जा इस्ते’माल से एक दिन ख़त्म हो जाता है। कुछ दिनों बा’द हमसे कंपनी का क्वार्टर भी ख़ाली करवा लिया जाएगा। लम्बा चौड़ा जहेज़ तय्यार करना और आ’लीशान शादी की तक़रीब का एहतिमाम करना अब मेरी इस्तिताअ’त से बाहर है। तुम अपने घर के बच्चे हो अगर राज़ी हो जाओ तो मैं कम-अज़-कम एक बेटी को इ’ज़्ज़त से पार-घाट लगा सकता हूँ। बाक़ी अल्लाह मालिक है। अपनी चची का ख़रांच मिज़ाज तो जानते हो। मैं कुछ लोगों का मक़रूज़ भी हूँ। तुमसे बड़ी उम्मीद है बेटा।”
ख़ामोशी से चचा की बात सुनते हुए आ’ज़म के चेहरे पर रंग आए भी और चले भी गए। काॅपी और क़लम बन्द करते हुए बोला, “ये घर आपका है और जैसे मेरे वािलदैन यहाँ रहते हैं वैसे ही आप भी रहिए। आज से आपके क़र्ज़ भी मेरे और आपके ख़र्च भी मेरे। मगर आपने मुझे बेटा कहा है तो फिर बेटा ही रहने दीजिए। दामाद बनने का बोझ नहीं उठा पाउँगा। आपकी तीनों बेटियों की शादियाँ अपनी सगी बहनों की तरह करूँगा।”
हाथ आस्मान की तरफ़ उठाते हुए चचा ने मुतहय्यर हो कर आ’ज़म को देखा और तक़रीबन घिघियाते हुए पूछा, “ओ हो, मगर तुम इतना सब कुछ कर सकते हो तो फिर इस रिश्ते से इन्कार क्यों?”
आ’ज़म ने उनके चेहरे से नज़रें हटा लीं और दिल की किसी गहरी तह से एक पुरानी दबी हुई आवाज़ से बोलता हुआ कमरे से बाहर निकल गया कि, “आप न समझे थे न समझेंगे, दुनिया की सारी कोयलों की कानों से कोयला ख़त्म हो सकता है, मगर मेरे दाँतों में कोयलों की न जाने कैसी किरिकरी है जो कोशिश करने पर भी ख़त्म नहीं होती।’’
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