लाठी पूजा
स्टोरीलाइन
यह एक ऐसी बेवा की कहानी है जो ज़िंदगी की मुसीबतों से तन्हा जूझ रही होती है। उसका पति एक मशूहर लठैत था, जिसका एक रोज़ धोखे से किसी ने क़त्ल कर दिया था। उस क़त्ल का इल्ज़ाम उसके ही एक क़रीबी छेदा पर लगाया गया था। छेदा एक दिन उस बेवा से मिलने आया और उसने न सिर्फ़ उसके शौहर के क़ातिलों को पकड़ा साथ ही उस बेवा की सारी घरेलू ज़िम्मेदारी भी अपने सर ले ली।
हरिया लाठी पर टेक लगाए आम के बाग़ में खड़ी थी। चार बज चुके थे। मगर अब तक लू चल रही थी। धूप हरिया के कुंदनी रंग को तपाकर गुलाबी बना रही थी। जिस्म में शोले से लिपटते महसूस होते। खेतों में से एक स्याही माइल लहर सी उठती और बाग़ की तरफ़ दौड़ती दिखाई देती। हवा के इन झोंकों से बाग़ की झाड़ियों और सूखी लंबी घास में फंसे हुए, अटके हुए ख़ुश्क पत्ते खड़खड़ाते और दरख़्तों के हरे पत्ते फड़फड़ाते थे। शरीर हवा हरिया के आँचल को झूले के पेंग देती और सारी के निचले हिस्से को ग़ुबारा बनाती थी। मगर हरिया हर बात से बेख़बर लाठी पर ठुड्डी रखे फ़िज़ा पर नज़रें जमाए खड़ी थी।
बाग़ वाली गड़हिया में उसकी भैंसें पड़ी थीं। गड़हिया में पानी नाम ही को था। मई के महीने में यू.पी के सारे ताल तालाब सूख जाते हैं। यह गड़हिया ज़रा गहरी थी इसलिए उसके बीच में कीचड़ नुमा पानी घुटनों घुटनों ऊंचा अब भी बाक़ी था। उसी में हरिया की चारों भैंसें लेटी बैठी अपने को ठंडा कर रही थीं। गायें ज़रा ज़्यादा नाज़ुक-मिज़ाज और सफ़ाई पसंद होती हैं। उन्हें कीचड़ में लत-पत होना नहीं भाता। हरिया की गायें भी कुछ देर तो भैंसों को कुछ शक कुछ हक़ारत से देखती रहीं, फिर बाग़ में जाकर सूखी घास नोचने लगीं या दरख़्तों की आड़ में बैठ कर जुगाली करने लगीं।
बाग़ था क़लमी आमों का। अब के फ़सल अच्छी आई थी। गाँव का खटिक उसे पहले ही ख़रीद चुका था। वो अपनी छोटी सी मंडय्या में बैठा हरिया और उसके मवेशियों की हरकतों को बग़ौर देख रहा था। उसे डर था आम से लदी हुई शाख़ें कहीं हरिया को हाथ लपकाने पर माइल न कर दें। या कोई गाय गर्दन बढ़ाकर पत्तियाँ खाने और फल गिराने पर तैयार न हो जाएगी। लेकिन आँखें अपने फलों की निगहबानी करने के अलावा कुछ और भी देख रही थीं। वो थीं हवा से बार-बार खुलती हुई गोरी गोरी पिंडलियाँ और आँचल के पर्दे से निकल कर लहराने वाली काली काली नागिनें हरिया, खटिक के वजूद से बेख़बर लाठी पर ठुड्डी रखे खड़ी थी।
दाहिना हाथ तो लाठी को सीधा रखने में लगा था। बाएं हाथ से कभी वो आँचल बराबर करलेती, कभी सिर के उड़ते हुए बाल को और कभी सारी के फूलते हुए निचले हिस्से को पंचा देती थी। उसके जिस्म में एक लहर सी दौड़ती, वो फूल की टहनी की तरह हिलती, झुकती और सँभलती थी और उसकी उंगलियाँ भाव बताने वाले अंदाज़ से खुलती, मुड़ती और सिमटती थीं। मगर ये सब कुछ हो रहा था बेजाने बूझे। हरिया अपने ख़्यालात में ग़र्क़ बस खड़ी सोच रही थी। हाय कितनी बदल गई उसकी दुनिया, बेवा होते ही उलझन की ज़िंदगी में कभी उसे अपने मवेशी चराने के लिए ख़ुद निकलना पड़ा था। बीसियों आदमी ख़ुश ख़ुश ऐसे फ़राइज़ मुफ़्त अंजाम दे दिया करते थे। लच्छन अपनी लाठी के लिए दूर दूर मशहूर था। ज़िला में कोई बड़ी फ़ौजदारी नहीं हुई थी जिसमें लच्छन शरीक न हुआ हो। वो दो मर्तबा इस सिलसिले में पक्के घर भी हो आया था। बड़े बड़े ठाकुर उससे दबते थे और उससे मदद मांगते थे। वो जिसकी तरफ़ होजाता उसकी जीत यक़ीनी थी। खेतों पर क़ब्ज़ा करने, उनमें पानी चढ़ाने और दरख़्तों के कटवाने में हमेशा गाँव में दो पार्टीयां हो जातीं। जिसको लच्छन की पुश्तपनाही हासिल होती वो सारी ज़बरदस्तियाँ कर लेता। कोई उससे न बोलता।
हरिया ने उस ताक़त और रोब का मज़ा चार बरस उठाया था। ख़ुद अपने घर में भी किसी चीज़ की कमी न थी। दस बीघा खेत जोत में थे। हलवाही, पुरवाई, निकाई कटाई, सारे काम मुफ़्त में अंजाम पा जाते। गेहूँ, अरहर, चना, मटर, ईख सब ही कुछ उसके खेतों में होता और इतना होता कि बेचा जाता। ज़मींदारी के ज़माने में इतनी किसी की हिम्मत न थी कि उससे कोई लगान वसूल कर लेता। अब जब से वो इन खेतों का भूमिदर बन गया था। सरकारी लगान तो देना ही पड़ता था। फिर भी वो था ही कितना, पैदावार के मुक़ाबले में बहुत ही कम गल्ला।
दस गायें और चार भैंसें थीं। उनका दूध, दही, घी बेच कर दो ढाई सौ माहवार आजाते। खाने वाले और ख़र्च करने वाले सिर्फ़ मियां-बीवी। दो नफ़र उसपर तरकारी मुफ़्त आती थी। अपने और आस-पास के गाँव वाले कोरी हर फ़सल की चीज़ नज़र दे जाना फ़र्ज़ समझते थे। उनको डर था अगर “भोग” चढ़ाने में ज़रा भी देर हुई तो पूरा खेत चरा दिया जाएगा या उखाड़ दिया जाएगा।
यही वजह थी कि सुहाग के चार बरस में हरिया सोने में पीली बन गई। वो तो मोतीयों में सफ़ेद भी बन जाती, मगर देहातन थी, वो भी अनपढ़ और मोतीयों की क़दर तो जौहरी ही जानता है या बादशाह।
बहरहाल इन दिनों हरिया ख़ुश थी, मगन थी, हर वक़्त गुनगुनाती रहती थी। बस उसे फ़िक्र थी तो दो बातों की। एक तो ये कि अब तक उसकी गोद न भरी थी। इसके लिए वो कभी कभी यात्रा की सोचती थी। मगर लच्छन हमेशा हँसकर टाल देता काहै की जल्दी है। ये भी हो रहेगा। हरिया अलबत्ता सूरज निकलते वक़्त आसमान की तरफ़ देखकर ठंडी सांस भरती और उसके होंट काँपने लगते। गोया वो मियां की आँख बचाकर भगवान से कहती होती कि मुझे मेरा चाँद भी दे।
दूसरा सच जो हरिया को घुन की तरह खाए जा रहा था वो ये था कि लच्छन किसी तरह पराए फटे में पाँव डालने की आदत छोड़ दे। वो चाहती वो हो और उसका शौहर, मीठी मीठी बातें हों और प्रेम की छेड़ छाड़, वहाँ की हालत ये कि लच्छन दिन दिन भर और अक्सर पूरी पूरी रातें अपनी जत्थ बन्दी में फंसा रहता। ज़िला भर का ख़ुदाई फ़ौजदार बना फिरता। ज़्यादा दिन नहीं हुए। अभी छः महीने उधर की बात है कि गुशाईंपुर के मशहूर “लठैत” छेदा के ख़िलाफ़ लच्छन ने धावा बोल दिया था। छेदा अपने गाँव के एक कोरी के खेत पर क़ब्ज़ा करना चाहता था। वो रोता धोता फ़रियाद लिए पहुंचा लच्छन के पास। फिर क्या था। हरिया ने लाख रोका और समझाया। दूसरे गाँव की बात है, तुम काहै को बीच में पड़ते हो। मगर लच्छन को तो ज़ोर-आज़माई का एक मौक़ा मिल गया था। वो पाँच चार चेलों को लेकर गुशाईंपुर पहुँच गया। लाठी चली और खूब चली। मगर खेत पर हल चला कोरी ही का। छेदा ज़ख्मी हो कर अस्पताल दाख़िल हो गया। इस फ़तह ने लच्छन की सरदारी पर गोया मुहर लगादी। उसकी लाठी की “धाक” सारे ज़िला पर बैठ गई। इस ख़ुशी में तै हुआ “लाठी पूजा की जाये।”
वो भी क्या रात थी, अमावस की रात, चांदनी छिटकी हुई। ख़ासी ठंडक मगर एक हज़ार “लठैत” लाठी पूजा में शिरकत के लिए इकट्ठा हुए थे। घर के सामने वाले मैदान में बीसियों कढ़ाए चढ़े हुए थे। हलवाई पूरियां “छान” रहे थे। हलवा मिठाई बनारहे थे। ख़्याल था जिसका जितना जी चाहे खाए। जितनी समाई हो पेट में भरे किसी चीज़ की कमी न हो।
वो जिनके गलों में कंठे थे और दूसरों के हाथ का पकाया न खाते थे उन्होंने अपने अपने अलग चूल्हे बना रखे थे, कोई हंडिया चढ़ाए खिचड़ी उबाल रहा था, कोई उपलों के भोभल में “भवरी” लगा रहा था।
जब सब खाना तैयार हो गया तो पुरोहित जी बुलाए गए एक बड़े से गुड़ बनाने वाले कढ़ाए के गिर्द ज़मीन लीपी गई। उसपर उकड़ूं बैठ कर उन्होंने कुछ अश्लोक और मंत्र पढ़े फिर दस मन दूध में लच्छन की लाठी को नहलाया। कढ़ाए में ये इकट्ठा किया हुआ दूध “प्रशाद” की तरह हर एक को कुल्हड़ों में बाँटा गया। फिर खाने में हाथ लगा। मनचलों ने एक दूसरे को ललकार ललकार कर ढाई ढाई सेर की पूरियां खा डालीं और चार चार सेर पाँच पाँच सेर दूध पी डाला। फिर रात भर बिरहे का मुक़ाबला रहा।
कितना ख़ुश था लच्छन उस रात। सपेद अद्धी का कुर्ता जिस्म में। गुलाबी रंगी हुई धोती टांगों में अशर्फ़ियों का माला गले में। मोटा सा फूलों का गजरा सीने पर। जिधर जिधर जाता हर एक गुरु, गुरु, सरदार, सरदार, कह कर हाथों-हाथ लेता और बिरहा गाने वाला कोई न कोई टुकड़ा उसकी तारीफ़ में भी ज़रूर बढ़ा देता।
हरिया दूध, दही, शक्कर, आटा, घी, तरकारी, नमक, मसालिहा बाँटते बाँटते थक गई थी, चूर हो गई थी, मगर उसे महसूस होता था। जैसे वो आज बेटे की बरात ले जाने के पहले खाना दे रही है। जैसे भी हो सारे खाने वाले ख़ुश रहें। हर शख़्स को उसकी पसंद की चीज़ मिल जाए और हर एक डट डट कर खाए, इसलिए इस थकन में भी बड़ा आनंद था। अजीब तरह की ख़ुशी और मस्ती।
चाँदनी रात में जगह जगह चूल्हों की रोशनी ऐसी नज़र आई जैसे सफ़ेद जॉर्जट के दुपट्टे पर ज़री के फूल बना दिए गए हैं। रात जब भीग गई छोटे चूल्हे गुल हो गए और हल्का कोहरा सारे में छा गया तो बड़े बड़े अलाव जला दिए गए, उनके लम्बे भड़कते शोले ऐसे लगते जैसे धुएं की चादर के पीछे अनार छूट रहे हैं। गोया घर में बरात उत्तरी है और आतिशबाज़ी भी साथ लाई है।
कई दिन इस ख़ुशी का ख़ुमार रहा। हरिया का जोड़ जोड़ दुखता था मगर तारीफ़ करने वालों और मुबारकबाद देने वालों का तांता बंधा रहा। ख़ुद लच्छन भी कई रातें इस इत्मीनान से सोया कि हरिया को सुबह उसे गुदगुदा उठाना और नाशता करने के लिए जगाना पड़ा और वो अंगड़ाइयाँ लेकर मुस्कुराकर इस तरह बीवी को देखता जैसे हरिया सचमुच सपनों की परी बन गई थी। मसर्रत की लहर इसी तरह उठती रही, उठती रही और तह में बैठने न पाई थी कि अचानक लाठी पूजा के सातवें दिन लच्छन मार डाला गया।
कितना तकलीफ़देह था वो दिन भी चार बजे सुबह को जब कि ख़ासा अंधेरा था। किसी ने कुंडी खट खटाई, लच्छन बाहर गया दोनों में आहिस्ता-आहिस्ता बातें हुईं और लच्छन झपटा हुआ अंदर आया और लाठी उठाकर निकल गया। हरिया लच्छन के इस तरह अचानक चले जाने की आदी थी। ये कोई नई बात न थी। आए दिन ऐसा हुआ करता था। मगर आज हरिया का दिल न जाने क्यों आप ही आप घबराने लगा, वो पलंग पर लेटी न रह सकी। वो उठ बैठी और उसने बाहर जाकर मवेशियों को नाँद पर लगा दिया, फिर लौटा लेकर “जंगल” चली गई। पलट कर उसने अपने पक्के कुवें से गगरे पे गगरा भरकर ख़ूब नहाया और सारी बदल कर दूध दूहने लगी। मगर ये अजीब बात हुई कि जब बड़ी बाल्टी दूध से भर चली तो दूध की लुटिया उसके हाथ से छूट कर ज़मीन की तरफ़ चली और उसके सँभालने में जो हरिया झपटी तो दूध से भरी बाल्टी ठोकर लग कर उलट गई और दस सेर से ज़्यादा दूध ज़मीन पर बह गया।
इस बदशगुनी पर हरिया को यक़ीन आगया कि आज का दिन ख़ैरियत से गुज़रना मुश्किल है। वो भद्द से ज़मीन पर बैठ गई और अजीब तरह की बेबसी महसूस करके रोने लगी।
अब पौ फट चुकी थी, कव्वे काएं काएं करके दरख़्तों से घरों की तरफ़ जा रहे थे। चिड़ियां चहक रही थीं, दूर किसी और का बछड़ा माँ के लिए “बाएं बाएं” कर रहा था। अहीर टोली में चहल पहल शुरू हो गई थी। मवेशी खोले-बाँधे जा रहे थे और दूध दूहा जा रहा था। अहीरिनें कहतरियों में दूध और झव्वों में सूखे उपले गाँव में ले जाकर बेचने के लिए रख रही थीं। मगर हरिया सर पकड़े ज़मीन पर ही बैठी रही। उस में से एक अहीरिन ने अपने घर से उसे इस हालत में देखा, लपकी हुई आई, उससे पूछा, “अरे तूं काहै चुप चाप बैठन हो?” दफ़्अतन उसकी नज़र गिरे हुए दूध पर पड़ी। वो चीख़ पड़ी, “अरे दइया, ई का भवा? अब उठावन का दूध कैसे दी हो?”
जब हरिया कुछ न बोली तो वो ख़ुद ही हर एक के हाँ से जाकर थोड़ा थोड़ा सा दूध मांग लाई और हरिया को साथ लेकर गाँव में जहाँ जहाँ दूध मुक़र्रर था सब ग्राहकों को पहुंचा आई।
हरिया बहुत कम ख़ुद दूध लेकर कहीं जाती थी। ये काम भी लच्छन के ख़ौफ़ या ख़ातिर से दूसरे ही कर दिया करते थे। मगर आज सुबह ही से कोई न आया। उसे ख़ुद ही जाना पड़ा। फिर घर पलटी तो बड़ी तन्हाई महसूस हुई। चरवाहा मवेशियों को मैदान ले जा चुका था। घर में कोई काम न था। उसने बड़ी मुश्किल से अपने लिए दो रोटियाँ ठोकीं और उन्हें मलकर दूध में डाल कर ख़ा लिया। मगर पाव भर दूध ऐसा दूभर हो गया कि आधा झूटा बाहर जाकर डाल आई।
वो बार-बार घर से निकल कर इधर उधर देखती, फिर मायूस हो कर घर के अंदर चली जाती। वहाँ से अपने को पलंग पर गिरा देती, करवटें बदलती, उठकर पानी पीती। फिर जलती धूप में दौड़ती हुई बाहर आती। देर तक इधर उधर देखती रहती। फिर मायूस वापस जाती। दो बजे दिन तक वो यही आहर जाहर लगाए रही। फिर वो बाहर वाले छप्पर ही में जम कर बैठ गई। उसे न सर्दी लगती न गर्मी। उसे प्यास थी न भूक फिर भी होंट पपड़ाए हुए थे। हलक़ सूखा हुआ था और ज़बान में कांटे पड़े थे।
शाम के क़रीब चरवाहा दौड़ा हुआ आया। उसने सुनानी सुनाई लछमन को दुश्मनों ने धोके से मार डाला और उसकी लाश को गडांसे से टुकड़े करके दरिया में मुख़्तलिफ़ जगहों पर इस तरह डाल दिया कि कोई पता नहीं चल सकता।
हरिया को उम्र में पहली और आख़िरी बार ग़श आया। वो दस दिन बुख़ार और सरसाम में पड़ी रही। जब वो अपने हवास में आई तो दो एक दिन लोगों ने उससे ये दुख भरी कहानी छुपाई, फिर आहिस्ता-आहिस्ता बताया कि गाँव के चौकीदार की रपट पर सिपाही भी आए थे और ख़ुद दारोगा जी भी। बड़ी पूछगछ रही। गुशाईंपुर तक दौड़ गई, दरिया में जाल भी पड़े, मगर लच्छन के जिस्म का कोई टुकड़ा न मिला और क़ानून की रू से जब तक लाश न मिले किसी को क़ातिल नहीं ठहराया जा सकता। हर शख़्स को ये यक़ीन था कि ये काम छेदा का है, मगर कोई सबूत नहीं मिलता था। ग़रज़ पुलिस मामूली कोशिश करके बैठ रही। न उसे लच्छन के मारे जाने का कोई गम था और न उसके क़ातिल के सुराग़ लगाने की कोई ख़ास फ़िक्र थी। उसके नज़दीक तो ख़स कम जहाँ पाक वाला मुआमला था।
मगर हरिया का तो राज लुट गया, दूध बिकना बंद हो गया, तरकारियों का आना बंद हो गया। हर काम में हाथ बटाने वालों का तांता लगना बंद हो गया। न अब उसके पास कोई चरवाहा था न हरवाहा। न चेलों का जत्था, न ख़ुशामदियों का गिरोह। वो लोग जो हमेशा उसकी तरफ़ नज़र उठाकर देखते डरते थे, अब उसे देखकर आँख मारते थे, जिनकी उसके सामने घिग्घी बंधती थी, वो अब फ़िक़रे कसते थे। जिस लाठी ने उसके गिर्द लोहे की दीवार खींच रखी थी, वो टूट गई थी। अब तो हर एक उसकी तरफ़ हाथ बढ़ाता था। वो एक टूटी हुई शाख़ का पका फल थी, हर एक उसे तोड़ कर खालेने का अपने को हक़दार समझता था।
हरिया इन बदली हुई नज़रों को पहचानती थी। वो दिल ही दिल में कुढ़ती थी मगर कर ही क्या सकती थी। कोई अपना न था जिससे उन बेगानों की शिकायत करती। गाँव में कोई भी हमदर्दी करने और सिर पर हाथ रखने के लिए तैयार न था। सबको लच्छन से कभी न कभी, कोई न कोई आज़ार ज़रूर पहुंचा था। जिनके साथ उसने एहसान किए थे वो भी उन्हें भूल गए थे। बल्कि उल्टे गड़े मुर्दे उखाड़े गए और सूखे ज़ख्म कुरेद कुरेद कर फिर से हरे करलिए गए। हरिया एक पाजी, बदमाश डाकू की बीवी थी। उसे बेसहारे बेजान गिरा हुआ देखकर हर एक उसे दो लातें मार देना फ़र्ज़ समझता था। बीमारी ही में घर का बहुत सा असासा साफ़ कर दिया गया था। अब रात ही रात उसका तैयार खेत काट लिया गया। उसके मवेशी हर बहाने मवेशी ख़ाने पहुंचा दिए गए। हद ये हो गई कि उसके सबसे अच्छे बैलों की वो जोड़ी जो साल भर पहले लच्छन ने पाँच सौ को ख़रीदी थी एक रात खूंटे से खुल कर ग़ायब हो गई और कुछ पता न चला कि ज़मीन में समा गई या आसमान में उड़गई।
यही वजह थी कि हरिया अब ख़ुद मवेशी चराती थी और रात में उन्हें के क़रीब खटिया डाल कर सोती थी। यही बातें थीं जो वो इस वक़्त लूं में खड़ी सोच रही थी और वो बार-बार दिल में इन तमाम तकलीफों का बाइस छेदा को ठहराती और उससे नफ़रत की आग को हवा दे देकर बढ़ाती थी। उसका बस चलता तो वो छेदा की बोटी बोटी दाँतों से नोचती और चील कव्वों को खिलाती।
वो यही सोच रही थी कि खटिक ने ज़ोर ज़ोर से अलापना शुरू किया:
इसी बाइस तो कत्ले आसिकां से मना करते थे
अकेली फिर रही हो यूसुफ़े बे कारवां हो कर
(इसी बाइस तो क़त्ले आशिक़ां से मना करते थे
अकेले फिर रहे हो यूसुफ़ बे कारवां हो कर
हरिया शे’र के मअनी तो न समझ सकी मगर इसमें छुपे हुए तान को समझ कर तिलमिला उठी। वो लाठी उठाकर झपटती हुई मंडइया तक आई और लाठी तान कर बोली, “चुप खटिक के जने लच्छन मर गइल पर उहका लाठी ना मरल।” खटिक डर कर झोंपड़ी के कोने में दुबक गया। वहीं से काँपती आवाज़ में बोला, “अरे हम कीछहू क़हत हईं भौजी।”
वो बोली, “हाँ, तो हमहूँ कह देत हईं कि हमका अइसन वइसन मत जनिहो, हम सर तोड़ के रख देइब।” इतने में एक गाय जो हरिया को कान उठाए आँख फाड़े देख रही थी न जाने क्या समझी कि यकायक भड़क कर भागी। हरिया ने दूर तक उसका पीछा किया और उसे हँका कर गल्ले में लाई। फिर भैंसों को गड़हिया से निकाल कर सारे मवेशियों को बड़बड़ाती हुई हँकाती घर ले गई। इत्तिफ़ाक़ से उसी वक़्त गुशाईंपुर का एक आदमी दिखाई दिया। हरिया ने उसे रोक कर कहा, “छेदा से कह दीहो कि छुप-छुप कर वार करना मर्दन का काम नाहीं और न बिधवा को सताना बहादुरी बाटे। उहका लड़े का जी चाहत है तो इहाँ पंचन के सामने आकर हमसे लाठी चलाले।”
छेदा उसी रात को आया और तन्हा आया। हरिया अपने छप्पर में ग़ाफ़िल सो रही थी। उसने पलंग से दूर खड़े हो कर कंकरियां फेंक फेंक कर उसे जगाया। वो घबराकर उठी। छेदा वहीं से बोला, “जरा लालटेन जलाओ भौजी, तो हम तुह से बात करें।”
हरिया ने लालटेन जलाकर देखा तो एक साँवले रंग का मियाना क़द जवान है, सर पर पगड़ी, नंगे बदन, धोती, काछे की तरह कसी हुई, हाथ में एक स्याह तेल लगी हुई लाठी, चेहरे पर शरारत आमेज़ मुस्कुराहट और चमकती हुई आँखें।
हरिया ने पूछा, “कौन हो जी तुम?”
उसने कहा, “छेदा।”
नाम सुनते ही हरिया के जिस्म में बिजली सी दौड़ गई। वो छलांग मारकर पलंग से फांदी और उसने एक मोटी सी गाली देकर छेदा पर पूरा वार किया। छेदा उछल कर अपने को बचा गया और हँसकर बोला, “वाह रे भौजी वाह, पाहुन एहू तरह कहीं उतारल जात है।”
हरिया ने फिर लाठी तानी। वो हाथ उठाकर रोक कर बोला, “अरे जरी बात तो सुन ले, हम का तोहसे लड़े का होत तो हम तुह का ठार होए देइत?”
हरिया हाँफती हुई बोली, “तो जल्दी कह, का कहे के है?”
छेदा बोला, “भौजी, हम पर झूट इलजाम है। हम लच्छन का ना मरलें। एही का गुट वाला मिल के घात कईलेन, ऊहे तोर खेत काटत हेन, तोर गोरू बछरू चुरावत्त हन।”
हरिया के पाँव तले से ज़मीन निकल गई। छेदा के लब-ओ-लहजा में इतनी सच्चाई थी, इतनी निडरी थी, इतना भरोसा था कि हरिया उसकी बेगुनाही पर यक़ीन किए बग़ैर न रह सकी। मुद्दतों से जो नफ़रत का क़िला खड़ा था वो छेदा की बातों से धम से गिर पड़ा। उसने अपनी टांगों में कमज़ोरी महसूस की और वो वहीं ज़मीन पर बैठ गई। वो सोचने लगी, छेदा को झूट बोलने की क्या ज़रूरत थी। सबने लच्छन का क़ातिल कह कर उसका क्या बिगाड़ लिया था कि अगर वो उस वक़्त इक़रार कर लेता तो हरिया उसका कुछ करलेती। फिर अगर वो वाक़ई हरिया को सताना चाहता तो वो सोती हुई औरत को हर तरह परेशान करसकता था। उस पर लाठीयां बरसाकर मार डालता, उसका घुला घोंट देता। उसके मवेशी खोल ले जाता। उसके वार को ख़ाली देने की जगह लाठी का जवाब लाठी से देता।
छेदा ने कहा, “अरे भौजी बदमासन की सरदारी बड़ा जान जोखम काम है। जहाँ जत्था मजबूत भईल और सबे सरदार बने का चाहत हन। अपने गाँव का नरपत का देखो, आजकल कईसन साँड़ बना फिरत हन।”
हरिया ने पूछा, “तो ऊहे मरलस हौ?”
छेदा ने कहा, “ई हम का जानीं। मल हम ना मरलीन।”
हरिया ने बड़ी बेबसी से कहा, “तो हम का करीं?”
वो बोला, “तुम तनिको चिंता जिन करो। आनंद से बैठो। हम सब इंतजाम करदईब।” और वो चला गया।
दूसरे ही दिन गाँव में ये ख़बर फैल गई कि आस-पास के गाँव में छेदा के आदमी घूम घूम कर कह गए हैं कि हरिया के खेत या मवेशियों को अगर किसी ने आँख उठाकर भी देखा तो उसे छेदा से समझना पड़ेगा। हरिया को ये ख़बर सुनकर ज़रा सुकून तो हुआ, मगर उसे सबसे ज़्यादा फ़िक्र थी अब के खेतों के जोतने की। बैल चोरी जा चुके थे। हल कैसे चढ़ेगा। क्या अब के सब खेत परती ही पड़े रहेंगे? ये नहीं था कि हरिया के पास नए बैल ख़रीदने के लिए दाम न थे। वो अच्छी से अच्छी जोड़ी ख़रीद सकती थी। मगर वो घर अकेला छोड़कर कहीं मेले ठेले जा भी तो नहीं सकती थी। दिन दहाड़े लोग घर में घुस कर “जमा जत्था” निकाल ले जाते। कोई मर्द ऐसा न था जिसको कई सौ रुपये बैलों के ख़रीदने के लिए दे दिए जाएं। बेवा के रुपये मार लेना कौन सी बड़ी बात है। हरिया को उस ज़माने में ये बड़ी सख़्ती से महसूस हुआ कि बग़ैर अपने मर्द के एक तन्हा औरत के लिए ज़िंदगी बड़ी दुशवार है। इसी लिए उसे बार-बार छेदा का ख़्याल आता, सोचती उसी के हाँ कहला दो। वही इंतज़ाम कर देगा। मगर औरत ज़ात थी। कहलाते शर्म भी आती थी। न जाने दिल में क्या समझे और बात पहुंचाने वाला क्या-क्या मअनी पहनावे।
वो इसी हैसबैस में थी कि जून की पंद्रह आगई। मोनसून चला। अब्र आसमान पर छा गए। बादल मेंढों की तरह आपस में टकड़ाए। पानी टूट टूट कर बरसा और सारे में जल-थल हो गया। जिनके पास धनकर थे इन्होंने तो मेंडें ऊंची करकर के अपने खेतों में पानी रोका, जिनके खेत ज़रा बुलंदी पर थे और वो दूसरे अनाज बोना चाहते थे, उन्होंने मेंडें काट काट कर पानी निकाल दिया। हरिया घर ही में बैठी रही, अपने खेतों के क़रीब भी न गई।
चौथे दिन जब पानी रुका और धूप निकली तो हर तरफ़ चहल पहल थी। खेतों पर हल चढ़ गए। महीनों के ख़ुश्क खेत शादाब-ओ-सेराब हो कर मुस्कुरा रहे थे। मालूम होता था खेत नहीं, माओं की छातियाँ हैं कि अपने बच्चों के लिए दूध से भरी पड़ी हैं। उनकी भूक-प्यास बुझाने के लिए, उनको शिकम सेर करने के लिए, उनको ग़िज़ा और ताक़त देने के लिए। हरिया भी अंदर न बैठ सकी, वो कई बार अपने खेतों की हालत जाकर देख आई। वो गोद फैलाए उसे बुला रहे थे। आओ, आओ हमें खोदो, काटो, रौंदो, हमारा सीना फाड़ो, हम तुम्हें ख़ुशी ख़ुशी इजाज़त देते हैं। मगर हरिया आँखों में आँसू भर कर मुँह फेर लेती और लम्बे लम्बे क़दम रखकर घर भाग आती थी और अपनी तन्हाई और बेबसी महसूस करके सिसक सिसक कर रोती थी। शाम को जब हर किसान ख़ुश ख़ुश घर पल्टा तो हरिया ने मवेशियों को चारे पर भी न लगाया, वो अंदर घुस गई। उसने कुंडी बंद करली और वो मुँह लपेट कर खाट पर गिर पड़ी। दिमाग़ी कोफ्त और थकन ने उसे खूब ग़ाफ़िल सुलाया। वो सोई और घोड़े बेच कर सोई। दिन चढ़े वो उस वक़्त उठी जब किसी ने कुंडी खट खटा कर उसे ज़ोर ज़ोर से पुकारा।
वो बाहर आई तो उसने देखा एक अजनबी खड़ा है। उसने तीखेपन से पूछा, “तूं कौन हौ और का चाहत हौ?”
उसने कहा, “आपन खेत पर चलो, छेदा बुलावत हन।”
वो लपकी हुई साथ हो ली। थोड़ी ही दूर पर उसके वो खेत थे जिनमें गेहूँ बोया जाता था। देखा तो उनमें तीन हल एक साथ चल रहे हैं और ये सब हैं गुशाईंपुर के। ख़्याल आया अरे ये मेरे खेतों पर क़ब्ज़ा करने की तरकीब तो नहीं। लेकिन क़ब्ल इसके कि वो कुछ कह सके कंधे पर हल रखे और नागौरी बैलों की जोड़ी हँकाता हुआ सामने से छेदा आता दिखाई दिया।
वो हरिया के क़रीब आकर बोला, “भौजी, जाके देख लेओ, तोहार सब खेत जुत गइल।” और हरिया उधर मुड़ गई जिधर दूसरे खेत थे। सब जुते हुए मिले। फूल की तरह हँसते हुए। हर एक की सतह पर लहरिया बन गई थी और उनकी ताज़ी मिट्टी से भीनी भीनी ख़ुश्बू आरही थी। हरिया को महसूस हुआ जैसे वो किसी नई दुल्हन से मिलने आई है जो ज़बान से तो कुछ नहीं बोलती मगर जिसके दिल में बार-बार गुदगुदी होती है और चेहरे पर मुस्कुराहट खेलने लगती है।
पलटते में गाँव का एक किसान मिला। उसने देखते ही हरिया को मुबारकबाद भी दी और तान भी की। वो बोला,
“लेओ, भौजी हररे लगे न फिटकिरी और रंग चौखा आए, तुम टांग पसारे सोवत रहो और छेदा तहार सब काम करदिहिस, कईसो बदमास हो, हरिया के आगे सबकी नानी मरत है।”
हरिया ने उसे घूर कर देखा और आगे बढ़ गई। पहले खेतों से भी हल निकल कर जा चुके थे। हरिया उनमें घूम घूम कर उनकी हालत देखती रही, कंकर पत्थर उनमें से चुन कर बाहर फेंकती रही और बड़े बड़े मिट्टी के ढेलों को तोड़ कर उन्हें चूर करती रही। मगर दिल में न जाने कैसे कैसे ख़्यालात आते रहे। छेदा बड़ा अच्छा है, छेदा ने उसके कहे बग़ैर उसके खेत जुतवा दिए। छेदा अपनी बात पर अड़ने वाला मर्द है, छेदा, छेदा, छेदा बस उसी की सूरत, उसी की बातें, उसी का ध्यान और गुशाईंपुर वाले सब चले गए। हरिया ने किसी को कुछ खिलाया पिलाया भी नहीं। कोई ख़ातिर भी न की। किसी से हँसकर बोली तक नहीं और छेदा... उसकी साँसें सीने में अटकने सी लगीं, उसका चेहरा कभी सुर्ख़ होजाता, कभी ज़र्द, उस के जिस्म में हल्की सी कपकपी पैदा होजाती। वो घबराती रही, उलझती रही, छेदा के एहसान का बदला कैसे उतारे, यही सोचती रही। वो पसीने में भीग गई और गर्दन झुकाए सोचती घर पलटी। देखा तो उस के जानवर पास वाले बाग़ में चर रहे हैं, उसके बैलों की सूनी नाँदों पर दो ख़ूबसूरत बड़े बड़े बैल बंधे हैं। बाल्टियों में कहतरियों में दूध भरा रखा है और उसके छप्पर में उसके खाट पर छेदा पड़ा बेख़बर सो रहा है।
हरिया जल्दी से रसोई घर में घुस गई। उसने चूल्हा जलाया और आटे में ख़ूब घी मिलाकर कई मोटी मोटी ख़स्ता और भुरभुरी टिकियां सेंकीं। उसने ये टिकियां फूल की एक थाली में रखीं, उसमें गुड़ की भेली रखी और बहुत सा सोंधा सोंधा कच्चा घी और एक बड़ा सा गिलास भर कर दूध। एक हाथ में ये थाली और दूसरे में पानी से भरा लोटा लिये हुए छेदा के पलंग के पास आई। उसने घुटने से उसके खाट की पट्टी हिलाई और वो बोली,
“कब तक सोई हो। उठो मुँह हाथ धो के कुछ खा लेओ।” और उसके लहजे में वही नरमी, वही गर्मी, वही शीरीनी थी जो हिंदुस्तानी औरत की आवाज़ में अपने पति ही के लिए हो सकती है।
छेदा ने आँख खोली, अंगड़ाई ली, थाली हरिया के हाथ से लेकर बाण के खाट पर रख दी, बोला, “आओ हम अपनी लाठी पूजा तो करलें।” वो दूध से भरा गिलास लेकर बैलों की तरफ़ चला। हरिया भी पीछे पीछे होली। नाँद पर पहुँच कर छेदा ने हरिया से इशारा किया और दोनों ने गिलास का दूध चुल्लूओं में भर भर कर बैलों को पिला दिया।
छेदा ने मुस्कराकर हरिया को देखा और बड़ी ख़ुदएतिमादी से पूछा, “अब?”
उसने घूँघट निकाल कर कनखियों से देखकर कहा, “आओ चलो, तोहरो पाँव दूध से धोदें।” और उसकी आवाज़ में एक पुजारी का ख़ुलूस था।
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