मैगी
अवाख़िर अप्रैल की चमकदार दोपहर थी।
अमीन थोड़ी देर के लिए दफ़्तर से उठ आया था। खाने का वक़्त होने के बाइस बाज़ार में चहल पहल कम थी, सड़क पर लोग नहीं थे। शोर था। जितने होटल और रेस्तोराँ थे सब के रेडियो सेट मुख़्तलिफ़ स्टेशनों के प्रोग्राम सुना रहे थे। फिर धूप की हर लहज़ा बढ़ती तमाज़त। वो बाज़ार के इस सिरे से उस सिरे तक बग़ैर किसी मक़सद के, चलता रहा।
यूँही बेकार... एक होटल में घुस गया। खाने पर लोग इस तरह टूटे पड़े थे गोया दुनिया में इस से अहम काम कोई नहीं। मगर वो वेटर को अपने पीछे चिल्लाता छोड़ कर फ़ौरन बाहर आगया।
पनवाड़ी की दुकान के बड़े आईने में उसने अपनी सूरत को ग़ौर से देखा... पटसन जैसी पीली चमकदार मूँछें और आँखों की छदरी पलकें चेहरे पर बेज़ारी... अमीन मुड़ने को ही था कि पनवाड़ी ने आवाज़ दी,
साहिब! गिलौरी।
अच्छा-ख़ासा, लगा हुआ गाहक मुड़ा जाता था, अमीन रुक गया।
चलो, दे दो।
वो हस्ब-ए-मामूल मुस्कुरा नहीं रहा था। उसने मुँह खोल दिया जैसे कोई कड़वी कसैली दवा खाने पर मजबूर हो। बूढ़े पनवाड़ी ने मुस्कुराते हुए हाथ रोक लिया।
देखिए साब! यूं नहीं, मुस्कुरा के खाइए।
यगानगत और लहजे के अल्हड़पन को सुनकर अमीन हंसी न रोक सका।
हाँ... यूं।
पनवाड़ी ने नफ़ासत से गिलौरी अमीन के मुँह में रख दी और उसकी भूरी आँखों में झाँका।
क्या बात है साहिब! जी तो अच्छा है।
पनवाड़ी के रवैय्ये में हमदर्दी थी। अमीन को उदास देखकर उसका दिल हौल गया था।
मैं बिल्कुल ठीक हूँ बड़े मियां, शुक्रिया... तुम मुझे हमेशा बड़े फ़नकार नज़र आते हो न मालूम क्यों!
अमीन ने इधर की बात उधर जोड़ी। वो मौज़ू बदलना चाहता था।
तुम हमेशा ज़्यादा पैसे लेते हो। पान के दाम लेते हो या फ़न के? अमीन बड़े मियां को पैसे देते हुए पूछ रहा था। उसे पनवाड़ी के पान खिलाने की ये अदा हमेशा अजीब लगी और अच्छी भी, इस अदा की असल कहाँ है? वो हमेशा सोचता।
अरे वाह बाबू! फ़न की क़ीमत कौन दे सकता है? ये असली माल होता है। इसके भाव इस ज़माने में नहीं लगते।
बड़े मियां साफ़ी से हाथ साफ़ करते हुए इतरा रहे थे। अमीन ने जेब से सिगरेट निकाली। सुलगते हुए रस्से के सिरे से सुलगाई और चल दिया।
रोलदद पनवाड़ी शहर का सबसे अजीब पान-सिगरेट वाला था। वो पान के पत्ते के साथ अपना मख़सूस मशरिक़ी फ़लसफ़ा बघारता। पुराने गाहक के साथ खुल कर बातें करता। नई रोशनी के बाबू लोग दिललगी के लिए उसके पास रुकना और बातें सुनना पसंद करते थे। वो पान में ताज़ा मक्खन की उंगली लगा कर गिलौरी बनाता था और उसकी गुफ़्तगु मक्खन से कहीं ज़्यादा नर्म और तरावत बख़्श होती... मियां! मक्खन ख़ुश्की दूर करता है। मगर आहिस्ता-आहिस्ता सब कुछ रुख़्सत हो जाएगा। सारे लोग हर शय में मिलावट करने लगे हैं... और फिर पान... खाने वाले कितने रह गए हैं।
रोलदद को बदलते हुए हालात से गिला था। अमीन ने एक रोज़ उसे समझाया भी था कि ये तजुर्बाती दौर है। मिलावट और इम्तिज़ाज के नतीजे के तौर पर जो कुछ हमें हासिल होता है उस से हमारी तख़लीक़ की जिसको तस्कीन मिलती है और हम इल्म और जदीदियत से हमकनार हो कर अपनी ज़ात से क़तई मुतमइन हों न हों हमें गो न तसल्ली ज़रूर हो जाती है कि हमने कुछ तो किया जो इससे पहले नहीं था और रोलदद भी तो पान में मक्खन लगाता है। ये और इस क़िस्म की माक़ूल वजूहात सुनकर रोलदद लाजवाब हो गया था और अमीन की क़द्र करे लगा था। अब वो अक्सर फ़ारिग़ वक़्त में तबादला ख़यालात करते।
आज अमीन का दिल काम में न लगा और पनवाड़ी से दो बातें करने को भी न चाहा। वो उदास था, बस उसके हवास पर छोटे-बड़े गुलाबी हाथ छाए हुए थे जो यकायक छूटे जाते थे, इंदिराज के रजिस्टर के सफ़्हों पर चांदी का नाज़ुक लॉकेट तड़पता रहा और काम अधूरा छोड़कर चला आया... उस का ज़ह्न बुरी तरह गड-मड हो रहा था वो जा रही थी।
मैगी जा रही थी... हमेशा हमेशा के लिए महीने की आख़िरी तारीखें... जेब में कोई पैसा न था... और वो था और कई महीनों का साथ दफ़अतन छूट रहा था।
मैग! मैग! मुहब्बत करना गुनाह तो नहीं। किसी भी शरीयत में किसी क़ानून में। फिर तुम क्यों जा रही हो?... अचानक... यूं... इस तरह ... अमीन पान चबाता, सोचता रहा था... फिर वो वापस हुआ और बैंक से सौ रुपये ऐडवान्स लेकर सोना बाज़ार की तरफ़ चला गया।
उसे मैगी को कोई न कोई तोहफ़ा तो देना था... इससे पहले दिये गए तमाम तोहफ़ों से बढ़िया।
सितंबर की किसी तारीख़ को बड़े बाज़ार में गुज़रते हुए उससे मैगी की मुलाक़ात हुई थी... ऐसे ही अचानक जैसे वो अब जा रही थी... अपना बोरिया बिस्तर कमर पर लादे छोटे से क़द की अजनबी लड़की... सुर्मा बेचने वाले को समझाने की नाकाम कोशिश कर रही थी... अकेली।
सुर्मे वाला, मेमसाहब, मेमसाहब की रट लगाए जाता था। अमीन अपनी टेबल का काम भुगता कर ज़रा टांगें सीधी करने की ग़रज़ से बाज़ार में चला आया। शाम को नौजवान क्लर्क तबक़े की तरह थकी हुई आँखों को सेंकते। वो अक्सर बड़े बाज़ार में इस सिरे से उस सिरे तक घूमा करता। लेकिन इस वक़्त दोपहर थी। मैगी को अनपढ़ दुकानदार के साथ उलझते देखकर अमीन की रग-ए- हमियत भड़की। उसे अंग्रेज़ी आती थी। अगरचे वो बी.ए. तक कमगो और शर्मीला तालिब इल्म रहा था। बहर कैफ़ वो कोशिश तो कर सकता था। अमीन इधर उधर नज़र दौड़ा कर झेंपता हुआ आगे बढ़ा। मैगी धात की बनी हुई छोटी छोटी चमकदार सुर्मेदानियां हाथों में पकड़े खड़ी थी और सुर्मे वाले को समझाने की कोशिश कर रही थी कि सलाईयाँ तुम रख लो और निचले हिस्से मुझे दो। मैं गुलदान बनाऊँगी। इतनी लंबी बात मैगी को कहनी आती थी न सुर्मे वाले के पल्ले पड़ती थी। हाँ, वो आठ गुना दाम लेने की फ़िक्र में था और कह रहा था,
मेमसाहब, माल बहुत गुड, बहुत अच्छा... आपको विलायत में न मिलेगा। परदेसी गाहक चीज़ों को उलट-पलट कर देखने में मसरूफ़ था कि अमीन ने अपनी ख़िदमात पेश कीं और सौदा सस्ते दामों तय हो गया। मैगी ने तशक्कुर आमेज़ अंदाज़ से अमीन को देखा। वो मुस्कुराया और सर की जुंबिश से अपने कारनामे की दाद वसूल की... अजनबीयत की दीवार से पहली ईंट खिसक गई।
मैगी ने उसे बताया कि वो सय्याह है और इस बड़े शहर में नौवारिद तो अमीन उसको उसकी क़ियामगाह तक पहुंचाने पर भी आमादा हो गया। मैगी से थैला और खाने का डिब्बा पकड़ कर वो उसके साथ बातें करता हुआ फ़ख़्र महसूस कर रहा था... उसे ख़याल गुज़रा कि अंग्रेज़ी बोलने से कतराना उसका Complex था। जो मैगी से गुफ़्तगु के दौरान कम से कम होता जा रहा है।
मंज़िल तक पहुंचते वो एक दूसरे को इस हद तक जान चुके थे जितना दो बातूनी हमसफ़र अजनबी तवील सफ़र के बाद जान जाते हैं और किसी ऐसी अंजानी ज़रूरत को ज़ह्न में रखकर पत्ते भी बदल लेते हैं।
मैगी, शौक़िया सयाहत करने वाली पार्टी की रुक्न थी। अमीन को ये मालूम करके बहुत मसर्रत हुई। रास्ते में एक-आध बार अमीन ताँगा वग़ैरा लेने के लिए रुका। मगर मैगी ने ये कह कर रोक दिया कि वो जगहें देखने आई है रौंदने नहीं।
और अमीन के लिए यही ग़नीमत था कि वो एक गोरी नस्ल की अजनबी लड़की के साथ शाना ब शाना चलते हुए बोले जाता था... और कम-माइगी का एहसास क़तअन न था।
अमीन दो-चार रोज़ के बाद मैगी से मुलाक़ात करने गया। वो ख़ंदापेशानी से मिली। शाम के वक़्त सड़क पर टहलते हुए मैगी ने उसकी ग़लतफ़हमी दूर कर दी कि वो अंग्रेज़ हरगिज़ नहीं बल्कि वेल्श है और वेल्श अपने आपको अंग्रेज़ कहलवाने में दुख महसूस करते हैं और वो अंग्रेज़ों से ऐसे ही नफ़रत करते हैं जैसे कोई मह्कूम क़ौम अपने हाकिम से... वो ज़ख़्म जो अंग्रेज़ों ने सैंकड़ों साल पहले वेल्श क़ौम की आज़ादी सल्ब करके उनकी क़ौम के दिल पर लगाया था आज भी हरा है।
मैगी को अगर कोई अंग्रेज़ कहता तो वो नाक सिकोड़कर अपनी पोज़ीशन वाज़िह करने की कोशिश करती।
पाकिस्तान में दुरूद के बाद अमीन पहला शख़्स था जिस पर वो पूरा एतिमाद कर सकी...। ये भूरी आँखों और सुनहरी बालों वाला नौजवान दिल से उदास और थका हुआ सा है और ये अपने मुल्क के एक तबक़ा का नुमाइंदा है। चंद मुलाक़ातों के बाद मैगी इस नतीजा पर पहुंची थी... अब वो एक दूसरे के लिए बिल्कुल अजनबी न थे।
अमीन की मईयत में मैगी शहर और उसके गिर्द-ओ-नवाह के क़ाबिल-ए-ज़िक्र मुक़ामात देखकर बहुत ख़ुश हुई थी ख़ासतौर पर जदीद शहर की शान बान देखते हुए चीख़ चीख़ कर अपने आपको समझा रही थी कि पाकिस्तान दुनिया का अमीर तरीन मुल्क है। जे़वरात और ज़र्क़-बर्क़ लिबास में लिपटी हुई... यहां की हर औरत रानी है... वो जिसका ज़िक्र कहानियों में सुना था और तख़य्युल ने इसकी तज्सीम की थी अब वो उसे छू कर देख सकती थी, बातें कर सकती थी।
मैगी अजीब फ़ित्रत की सय्याह थी। तस्वीरें लेती न नोट...। बस घूमे जाती और ख़ुश होती रहती। सयाहत के बारे में उसका अपना ज़ाती नज़रिया था कि वो वाक़ियात और मुक़ामात जो निहायत हसीन और असर अंगेज़ होते हैं ज़ह्न से कभी मह्व नहीं होते... फिर वो अपनी ख़ुशी के लिए दुनिया देखने निकली है। किताब देखने के लिए नहीं।
ये बात अपनी जगह एक हक़ीक़त है कि मैगी ज़्यादा तालीम याफ़्ता न थी... सादा सा, सच्चा दिल... आम इन्सानों के से तौर अत्वार। बस वो इन्सान थी।
इस सैलानी लड़की से मिलकर ख़ुद अमीन को यूं लगता जैसे उसने सारी दुनिया देख ली है... इन्सान सब जगह एक से होते हैं... फ़र्क़ हैवानों में होता होगा... मैगी का भी यही ख़याल था।
रफ़्ता-रफ़्ता अमीन के लाशऊर में मुबहम सा ख़्याल जागज़ीं हो रहा था कि इस लड़की ने देस देस, बस्ती-बस्ती जो ख़ाक छानी है तो उससे मिलने के लिए तो नहीं! मैगी रोशन
दिमाग़ क़ौम की बेटी है तो क्या? मुहब्बत की कहानी कहीं पुरानी नहीं।
मैगी के प्यार का नशा अमीन को हौले हौले चढ़ा था। ऐसे ही जैसे बेजान रस्सी पर कोई सरसब्ज़ बेल चढ़ती चली जाये और रस्सी का वजूद बर्ग-ओ-गुल के नीचे दब जाये।
इस नशे का अंदाज़ा अमीन को उस वक़्त हुआ जब मैगी ने मौसम बदलते ही यकबारगी ऐलान कर दिया कि वो जा रही है। उसकी अगली मंज़िल ताज महल है, श्रीनगर है... वो इंडिया जाएगी... अमीन की मुहब्बत का ताज महल टूट कर ढेर हो गया।
ताज महल महज़ एक मज़ार है जिसमें माज़ी की एक ख़ूबसूरत कहानी दफ़न है। क्या दिल मुहब्बत का मज़ार नहीं बन सकता। क्या इसमें हसीन लम्हे की लाश सँभाले रखने की गुंजाइश नहीं... मैगी के फ़ैसले के कई दिन बाद वो इतना ही सोच सका। क्या हुआ जो वो यूं छोड़कर चली जाएगी और ये भी दुख की बात नहीं कि देस की किसी लड़की ने उसे दर ख़ूर एतना नहीं समझा... अमीन शक्ल-ओ-सूरत और आमदनी के लिहाज़ से मामूली था। अमीन के लिए ये बात बड़ी हैरानकुन थी कि वो एक परदेसी औरत को दिल दे बैठा... काले कोसों से आने वाला रंग रंगीला पंछी... मैगी... जिसकी आँखों में ख़ुलूस देखकर वो दीवानावार चीख़ उठा था।
मैं तुम्हारे लिए कोई तशबीह नहीं तराश सकता। तुम इतनी ज़िंदा हो कि किसी बेजान चीज़ का नाम लेना तुम्हारी तौहीन होगा... हाँ मैं ये कहूं कि समुंदर तुम्हारी आँखों की मिसाल है और फूल...
कभी कभी अमीन झुँझला जाता। रिवायत से बग़ावत करके वो मुतमइन भी न था। वो सारी इक़दार जो मशरिक़ी इश्क़ का ख़ासा थीं... मालियामेट हुई जाती थीं।
परदेसी पिया संग नैन जोड़ाई के अमतन मैं पछताई।
ऐसे गाने और दोहे याद कर के अमीन का दिल छूटने लगता। भला वो संजीदा क्यों हो गया। कहीं इस मुल्क से बाहर गया होता और कोई मेम पकड़ लाता तो कोई बात भी थी। अब यहां घर बिठाए कोई दिल उड़ा के ले भागे! वो अपने आपको कोसता।
तौहीन है सरासर तौहीन। उसने मशरिक़ी मर्द के पल्ले कुछ नहीं छोड़ा। अमीन ने मैगी की तरफ़ दोस्ती का हाथ बढ़ाया था। मैगी ने उसे ऐसे ही थाम लिया जैसे एक मुल्क दूसरे मुल्क को थाम ले, पर अब अमीन की निगाहें बदल गई थीं... उनका बान मैगी के मज़बूत दिल पर भी लगा।
बहुत घूम चुकने के बाद वो शाही क़िला के सरसब्ज़ लॉन में सुस्ता रहे थे। ठंडी घास पर औंधा लेटे लेटे अमीन की नज़रें मैगी के थके हुए छोटे से गुलाबी चेहरे पर कुछ यूं पड़ीं जैसे उसे पहली बार देख रहा हो।
पतले रंगीन होंट के ऊपर पसीने की शब्नमी बूँदें... अमीन का जी चाहा उस चमक को अपनी उंगली की पोर में उचक ले और इस पंखुड़ी को छेड़े जो शबनम में नहा कर हसीनतर हो गई है।
मैगी, अमीन की मौजूदगी से बेख़बर दूर धुले हुए नीले आसमान पर उड़ती हुई चीलों को तके जाती थी। दरबार ख़ास की मेहराबों में जंगली कबूतरों के जोड़े गुटरगूं करते पर फड़फड़ा रहे थे। उनके पर स्याही माइल नीले थे। आसमान का रंग नीला था। मैगी की आँखें नीली थीं... आग़ाज़ सरमा की भूरी नीली शाम क़िले के खन्डरात की ओट में उतराई थी... उदासी, तन्हाई, फ़ासिला, नीलगूं गहरा... शोला, शोला, समुंदर और आसमान... अमीन सोच रहा था।
या फिर ये एक असल का पर्तो है कि हर अथाह में झलकता है।
मैग...
अमीन ने सुकूत के समुंदर में कंकरी फेंकी। अंगूठे की पोर को मैगी के होंटों पर नर्मी से फेरा और चुप रहा।
मैगी ने दुनिया देखी थी इस ठहराव की तह में मुतलातिम लहरों को जानती थी, जवाबन धीरे से मुस्कुराई और अपना छोटा सा हाथ अमीन की तरफ़ बढ़ाया।
मैग! मैं तुमसे मुहब्बत करने लगा हूँ। मैग!
शुरू शुरू में वो मैगी को उसके पूरे नाम मारग्रेट पारसियन कह कर पुकारता था, दोस्ती हुई तो मैगी कहने लगा और अब मैग मैग कहे जाता था। सच्ची मुहब्बत के इज़हार के अलफ़ाज़ कभी इस्तिमालशुदा नहीं होते। नए लफ़्ज़ों से कहानी नई बन जाती है जिसकी थीम कभी नई नहीं होती।
उस शाम वो देर तक बाज़ारों में फिरते रहे। मैगी ने बहुत सी चीज़ें ख़रीदें जो ख़ालिस मशरिक़ी थीं वो अमीन को बताती रही कि जब वो घर वापस जाएगी तो उनकी माँ इन सब चीज़ों को दीवारों और कार्निस पर सजायेगी और तमाम क़स्बा नुमाइश देखने आएगा। वो हमेशा मुल्क मुल्क के तहाइफ़ लेकर घर लौटती है अलबत्ता वो जर्मनी से कुछ न ला सकी थी। ये जर्मनी में इक़तिसादी और सियासी बोहरान के दिन थे... और टर्की में कस्टम डयूटी पर खड़े नौजवान ऑफीसर ने उसे आँख मारी थी और गुज़रते हुए कंधे पर चुटकी काट कर गया था और यरूशलम में उसे और इसके साथियों को जासूसी के शुबहा में धर लिया गया था,और वो रात-भर सर्दी में ठिठुरा किए थे क्योंकि उनके बिस्तर तलाशी की ग़रज़ से छीन लिए गए थे... ये और इस क़िस्म के बहुत से वाक़ियात सुना कर वो अमीन को ख़्वाब में झिंझोड़ती रही।
मैगी की इक़ामत गाह तक पहुंचते पहुंचते पूर्णमाशी का चांद उफ़ुक़ से कई सीढ़ियाँ ऊंचा चढ़ आया था।
चौदहवीं का चांद हो।
अमीन ने बेख़याली में ट्यून गुनगुनाई।
रुख़्सत होने से पहले मैगी ने इसरार करके पूरा गाना सुना। वो अमीन के ख़ुलूस का तजज़िया न कर पाई थी। मशरिक़ी मर्द के इज़हार-ए-मोहब्बत की धीमी-धीमी सोख़्ता-जाँ आँच जो राख नहीं करती, लगाती है... उसने उस आँच में अपने आपको पिघलता हुआ महसूस किया।
रात को अपने बिस्तर पर लेटी हुई वो अपने हाँ के मर्दों का मुक़ाबला अमीन से करते हुए इस नतीजे पर पहुंची कि यहां आग़ोश मुहब्बत यूं हौले हौले खुलती है जैसे कोई ग़ुन्चा खिलता हो।
ग़ुन्चा।
अच्छी तशबीह है। वो आप ही आप मुस्कुराई। अमीन की याद और बदन की बॉस उसके हवास पर मुसल्लत थी।
थोड़ी देर पहले अमीन से सुने हुए गाने के बोल का एक लफ़्ज़ भी उसके हाफ़िज़े में नहीं था। हाँ लय अच्छी थी और पूरे चांद का ज़िक्र था और जोश-ए-जुनूँ में अमीन ने उसका मुँह ऊंचा करके कहा था... तुम भी पूरे चंद जितनी हसीन हो... ये सुनकर मैगी इतराने की बजाय ज़ोरदार क़हक़हा लगा कर हंसी।
God Forbid How Rediculous पूरे चांद जितना गोल और चपटा चेहरा...
अमीन को ग़ुस्सा आगया और उसने मैगी के सर पर हल्की सी चपत लगाई।
उल्लू की पट्ठी...
फिर तर्जुमा किया। मैगी खिल उठी।
हाँ, ये अच्छी तशबीह है।
अब के अमीन को उसकी बेवक़ूफ़ी पर हंसी आई। मैगी उसके चेहरे के तास्सुरात देखकर चीख़ी।
हाँ हाँ। हम अह्ल-ए-मग़रिब उल्लू को दानाई और दूरअंदेशी की अलामत समझते हैं।
फिर वो दोनों बग़लगीर हो कर क़हक़हे लगाते रहे और यूं एक फ़ासिला और बाद जो बातों से अचानक पैदा हो चला था। कम से कम हो गया।
तारीख़ी मुक़ामात की सैर के बाद मैगी अमीन को बार-बार कहती थी कि तुम्हारी क़ौम बिलाशुबहा अज़ीम... छोटी ईंटों से लेकर बुलंद मीनारों तक। सब तुम्हारी अज़मत-ए-रफ़्ता की गवाही देते हैं और ये सब कुछ पुख़्ता हैं।
अमीन के ज़ह्न पर मैगी तमाम गुफ़्तगु में से सिर्फ़ एक बात चस्पाँ हो कर रह गई।
अज़ीम क़ौम थी।
पलभर की सारी रवादारी और मुहब्बत जो वो सात समुंदर पार की हवा से रखता था। दब कर रह गए और वो चिल्ला कर बोला,
हम अब भी हेटे नहीं... तारीख़ को नए रंग से दोहराते हैं... ये और बात है कि हमने इस हक़ीक़त को अब महसूस किया कि ये दुनिया फ़ानी और आनी जानी है... पक्की इमारतें
बनाना फ़ुज़ूल है... ख़ालिस ज़ाती घरों की बात दूसरी है। उनमें बीवी-बच्चों को दिन-रात रहना होताहै... उनकी आसाइश का ख़याल तो रखना ही पड़ता है।
वो बोलता चला गया। मैगी ने एक झुरझुरी ली और अमीन की तरफ़ हमातन मुतवज्जा हुई। मगर अब वो ख़ामोश था। गोया उस के पास बातें ख़त्म हो गईं। सारे दलायल हाथ से जाते रहे। मैगी ने अपना हाथ आगे बढ़ाया। अमीन ने उस पर आँखें रख दीं...
पीपल के पत्तों के पीछे पहली तारीख़ों का पहला चांद पट पट तके जाता था... वो काली जीन्ज़ में फंसी हुई टांगें पसारे हाथों के सहारे लॉन पर बैठी थी। उस के गले में लटकते हुए चांदी की चेन को चांद की चोर किरनें चमका रही थीं।
तुम्हारे देस में हुस्न है। हर तरफ़ बिखरा हुआ, परेशान। ये बिखराव देखने वाले को मदहोश कर देता है। न मालूम मुझे ऐसा क्यों लगता है, कि तुम सब मदहोश हो... अमीन!
अमीन फीकी तंज़िया हंसी हंसा।
ये लॉकेट उसके पहले यार की निशानी होगा। वो सोच रहा था।
अमीन तुमने टेनीसन की Lotus Eaters पढ़ी है। पस तुम 'लोटस इटर' हो...
अमीन के आसाब खिंच गए। उसे ताव आरहा था... वो उसके जज़्बात मजरूह करने के मूड में क्यों थी... ख़ुलूस मईशत और सियासत से कहीं बलंद तर चीज़ है... ये अपनी और उसकी ज़ात के बारे में क्यों नहीं सोचती उसके मुताल्लिक़ क्यों नहीं कहती। औरत बाहमी रिश्ते और ज़ात से अलग हो कर सोचने लगे तो वबाल बन जाती है।
अमीन चिड़ कर मैगी की बातों का जवाब देता था... मैगी ने आख़िरी चुटकी ली,
मुहब्बत के दरमियान कोई दीवार हाइल नहीं होती। मगर उसकी बक़ा ज़ह्नी पुख़्तगी चाहती है।
अमीन बेनियाज़ी से बैठा दरख़्तों के पीछे चांद को हौले हौले उतरते देख रहा था। फ़िज़ा ख़ामोश थी। शहर के बड़े घड़ियाल ने दस बजाये वो उठ खड़ा हुआ।
अमीन, मैगी से नाराज़ हरगिज़ न था। बस, उसे शिकायत थी तो इतनी कि वो उसकी ज़ात से आगे बढ़ कर क्यों सोचती है। अमीन ने अपने यहां की औरतों का सिर्फ़ एक मर्कज़ ख़याल देखा था... मर्द... ख़्वाह शौहर हो या महबूब... बहुत किया तो तसव्वुफ़ में पनाहें लेने लगीं। वो अपने आपको बहरतौर फंसाए रखती हैं। आबोहवा का असर है या मिट्टी का? वो इस चक्कर से निकलना पसंद नहीं करतीं।
डूबते चांद की धुँदली चांदनी में वो मैगी की आँखों में न झांक सका और बज़ाहिर तुर्श लहजे में बोला,
मैग! हम दोस्ती से सवा हें... जानती हो!
वो मैगी पर झुका और मैगी ने अपनी पेशानी उसके होंटों के क़रीब कर दी... किसी गुनजान दरख़्त में परिंदों के पर फड़फड़ाने की आवाज़ आई... अमीन चल दिया।
क़ियामगाह के बाग़ की चौड़ी सड़क पर उसे ख़ुशबू ने घेर लिया जो मैगी के बालों की नहीं थी... चांद की किरनों के साथ खुलने वाले मुर्दा के सपेद फूलों की थी... क़ियामगाह से मुल्हिक़ गिर्जाघर के क़ब्रिस्तान में उल्लू बोल रहा था। अमीन को चुड़ेलों, भूतों और आवारा रूहों के ख़याल के साथ मैगी की बात याद आई। उसने लाहौल पढ़ते हुए एक बार फिर वही गाली दी...
उल्लू की पट्ठी...
दूसरे रोज़ मैगी बैंक में आई तो अमीन का चेहरा रूठे हुए बच्चे की तरह सूजा हुआ था। मैगी को कमरे में दाख़िल होते देखा और मुँह दूसरी तरफ़ फेर कर लोगों के साथ इन्हिमाक से गुफ़्तगु करने लगा... मैगी ने आहिस्ता-आहिस्ता से उसके कंधे पर हाथ रखा और पुकारा...
दफ़्तर आते ही मैगी को टेलीफ़ोन करना अमीन का मामूल था। सुबह न हो सका तो दोपहर को। बैंक के औक़ाकार ख़त्म होने तक तीन-चार बार ज़रूर टेलीफ़ोन पर बात करता... मगर आज... मैगी यही मालूम करने आई थी।
अमीन ने मुड़ कर अपने पीछे खड़ी मैगी को देखा और कोशिश के बावजूद मुस्कुराहट को न दबा सका। खिसियानी हंसी, चेहरे पर फैली आँखों में नदामत और एतराफ़-ए-जुर्म बन कर तैरी... फिर एक अधूरे क़हक़हे के साथ उड़ गई।
चंद सानिए के बाद वो बड़े बाज़ार में घूम रहे थे। मैगी ने अमीन के कंधे को फपथपाया और कहा,
तुम्हें दोस्ती रखने का सलीक़ा आता है... और हाँ आज मुझे वही चांद वाला गाना। रोमन रस्म-उल-ख़त में लिख दो ना! मैं उसे रटने की कोशिश करूँगी। वो निहायत संजीदा नज़र आती थी।
मेरे जज़्बात की संजीदगी को कब समझोगी मैग! वो बड़बड़ाया।
मैगी चलते चलते लड़खड़ा गई और उसने अपना सारा बोझ अमीन पर डाल दिया।
काफ़ी हाऊस में बैठी वो दिलचस्पी से हर तरफ़ देख रही थी और चुप थी। पाकिस्तानी गुड़ियाँ और मॉडल पैकेटों में बंद मेज़ के एक कोने पर रखे थे।
अमीन! ये ख़ुशी की बात नहीं कि दुनिया के तमाम इन्सान एक कुन्बे की सूरत इख़्तियार किए जाते हैं? तहज़ीबी और तमद्दुनी इन्फ़िरादियत ग़ैर पुख़्ता ज़ह्न की बातें हैं... बच्चों की सी।
मैगी अपने तौर पर अपनी सोच से मसरूर और मस्हूर अमीन की आँखों में तस्दीक़ और तस्लीम-ओ-रज़ा तलाश कर रही थी... वो कुछ तवक़्क़ुफ़ के बाद बोला कि उसने इस क़िस्म की बातों के मुताल्लिक़ कभी ग़ौर नहीं किया।
बैंककारी ने सोचने की सलाहियत सल्ब करली थी। अमीन अब सिर्फ़ इस क़दर जानता था कि इस रक़म पर इतना सूद लगेगा और इस आसामी को इस हद तक क़र्ज़ा दिया जा सकता है... और मियार-ए-ज़िंदगी बुलंद करने के लिए सिर्फ़ रुपया चाहिए। बूँद जितने वक़्त में दौलत की रुपहली नहर निकले तो ज़िंदगी। वर्ना कुत्ते का सा जीना मुक़द्दर... तजुर्बे ने उसे ये सब कुछ सिखा दिया था। मगर वो टैक्टिस नहीं जानता था जो कारोबारी ज़िंदगी में निहायत ज़रूरी होते हैं।
सामने की मेज़ पर अदीब और शायर नुमा वो शख़्स किसी ज़बरदस्त सियासी, समाजी उलझन में थे और ज़ोर ज़ोर से बोल रहे थे। वो बार-बार ख़ाली प्यालों को बजाते और बैरे को बुलाते। कभी माचिस के लिए कभी दो अदद सिगरेट और गिलास भर पानी के लिए... पर उनकी बहस किसी नतीजे पर पहुँचती तो कोई बात भी थी... अचानक उनमें एक घूँसा हवा में उछाल कर चीख़ा,
मैं बर्ट्रेण्ड रसल के ख़यालात की पुरज़ोर हिमायत करता हूँ। ख़ुदा की क़सम! अगर ख़ुदा न होता तो वो ख़ुदा होता। (नौज़ बिल्लाह) लानत हो तुम पर...
दूसरे ने भी उतनी बुलंद आवाज़ से जवाब दिया।
क़रीब था कि वो बर्तन उठा कर एक दूसरे के सर में दे मारते लेकिन रेस्टोराँ के माहौल से मरऊब पेचोताब खाते बैठे रहे। मैगी की आँखें ख़ौफ़ से फैल गईं। अमीन ने उसे तसल्ली दी और समझाया कि वो लड़ हरगिज़ नहीं रहे। अदब पैदा कर रहे हैं... नया अदब मुशाहिदे, मुताले और ज़ह्नी उपज से ज़्यादा बहस-ओ-तमहीस का मरहून है।
मैगी हल्के हल्के क़हक़हे लगाती, मख़सूस ठहरे हुए अंदाज़ में देखा की। ये बहुत तेज़ी से सोचने वाली औरत थी। इतना तेज़ कि अमीन अक्सर पीछे रह जाता और वो ऐसी बातें कह जाती जिनके मुताल्लिक़ वो कई दिन बाद सोचता और झुंझलाता।
काफ़ी हाऊस से निकल कर सड़क पर चलते हुए वो अमीन को बताने लगी कि पूरी दुनिया Teenager Problem से दो-चार है। कोई ज़ह्नी तौर पर, कोई माद्दी तौर पर।
अमीन ने मैगी को पनवाड़ी की दुकान से पान खिलवाया। पत्ते को चबा कर मैगी के चेहरे पर मसर्रत की लहर दौड़ गई। जैसे उसने कुछ दर्याफ़्त कर लिया हो.. नया और अनोखा... इस तजुर्बे के इदराक से उसकी रूह मसरूर थी... अमीन का हाथ भींचते हुए वो ज़ोर से चिल्लाई,
ये मशरिक़ी है, ख़ालिस मशरिक़ी... और वो ख़ुशबू।
गो पान का ज़ायक़ा उसके लिए कड़वा था।
उसके बाद वो जब भी उस तरफ़ से गुज़रते मैगी, रोलदद के हाथ से पान ज़रूर खाती... रोलदद दोनों को अपनी तरफ़ आता देखता तो गिलौरी पहले ही से तैयार कर लेता। मेमसाहब के मुँह में गिलौरी रखने के बाद वो सुर्ख़रु हो कर एतिमाद भरे अंदाज़ से देखता और निहायत सलीक़े से बड़ हाँकता जैसे किसी मुल्क का सफ़ीर अपने क़ौमी कल्चरल शो के लिए तमाशाइयों के सामने इत्तिलाआत से भरपूर तक़रीर करे, मैगी के पल्ले कुछ भी न पड़ता और वो रोलदद को ख़ुश करने के लिए हूँ- हाँ करती रहती... रोलदद के मन में कई बार ये स्कीम आई कि वो मैगी से सर्टीफ़िकेट लेकर दुकान में लगाए जिसमें लिखा हो।
वो मेमसाहब होते हुए भी बड़े मियां से मुतास्सिर हुई है और ख़ास तौर पर उनके पान से। क़िवाम की तो बात ही क्या? और उनका पान खिलाने का अंदाज़... वल्लाह! दुनिया देखी, कहीं नहीं देखा। रोलदद ने अमीन के सामने अपनी तजवीज़ पेश की मगर अमीन ने इतना कहा,
इससे क्या होता है...
और चल दिया। उसे क्या मालूम उस सर्टीफ़िकेट से कारोबार कितना चमक उट्ठेगा। ये सर्टीफ़िकेट ज़रा शीसे में जड़वा कर दीवार पर टांग दिया जाये तो देखो सारी माडर्न सोसाइटी इधर खिंची चली आए और एक-बार फिर वो ज़माना लौट आए कि इत्र बेज़ शामों में पान की ख़ुशबू यों महकती फिरे जैसे दिल्ली के चाँदनी चौक की कुंवारियां। जिनकी मौजूदगी और चढ़ते जोबन के एहसास से अह्ल-ए-दिल सरशार रहते थे। इक बॉस चढ़ी रहती थी इक आस बंधी रहती थी।
काम कहने कहाने और बीच बचाओ करने से चलता है। नहीं तो पैसे चढ़ा दो, चुटकियों में छोड़ पलक झपकने तक में काम चलालो। पर अमीन यार तो बात ही मोड़ गए... इससे क्या होता है? ये कोई जवाब था। रोलदद को अंग्रेज़ी आती होती तो वो ख़ुद ही मैगी से बात कर लेता।
एक रोज़ रोलदद इशारों कनायों में माफ़िल-ज़मीर बयान करने में कामयाब हो ही गया। मैगी ने अमीन से तफ़सील सुनी तो वो बड़े ज़ोर से हंसी और टूटी हुई उर्दू में कहा,
पान वाला! टूम बच्चा... टीनएजर बच्चा हाय।
बड़े मियां बड़ी मासूमियत के साथ मुस्कुराते हुए मैगी की तरफ़ तके जाते थे... मैगी ने सोचा और ख़ुशी की लहर उसके सारे जिस्म में दौड़ गई।
और तुम कितने प्यारे बूढ़े हो। तमाम दुनिया के बूढ़े और बच्चे एक से होते हैं। जवानी को जाने क्या हो जाता है? उसके बेशुमार रंग हैं और उसके आहंग को बक़ा नहीं...
मैगी ने अपना हाथ अमीन के हाथ में थमा दिया। बड़े मियां को शब-बख़ैर कहते हुए वो चल दिये। अमीन उसके साथ घिसटता हुआ जा रहा था... मैगी का हाथ ख़ुन्क था और लर्ज़ां। उसकी शफ़्फ़ाफ़ आँखों में मोटरों की रोशनियां झिलमिलाती थीं और लबों पर पान की लाली थी।
हमारे मुल्क का संजीदा तजुर्बेकार तबक़ा छोकरे-छोकरियों के मसाइल से परेशान है और तुम सब अभी इस उम्र में हो। इस उम्र में जी एक एक ख़्वाहिश के अहया के लिए तड़पता है... इज्तिमाई शऊर से ना-बलद इन्फ़िरादी मसर्रतों का मुतलाशी ज़ह्न...
वो बोलती गई अमीन ने उसका हाथ छोड़ दिया। अब वो अलग अलग चल रहे थे।
अमीन! में लंडन में साल भर तक Probation Officer के तौर पर काम करती रही हूँ... इस मसले का मुताला मैंने ख़ूब किया है... अमीन... अमीन... तुम भी कुछ बोलो।
उसने अमीन को झंझोड़ा।
मैं क्या बोलूँ! मेरे पास कहने को कुछ नहीं। मैं तुम्हारे साथ सिर्फ़ तुम्हारी बातें कर सकता हूँ... वो तुम सुनना पसंद नहीं करतीं। ख़ालिस ओरिएंटल और ओरिजनल बातें मैं कहाँ से लाऊँ! इधर कुछ अर्सा से हमारे पास कुछ भी नहीं रहा और... और...
अमीन को मायूसी और कम-माइगी के एहसास ने दबा लिया। मैगी ने प्यार से उसका हाथ दुबारा पकड़ लिया... अब वह दोनों ख़ामोश थे।
अमीन बातें करते करते यास और ना उम्मीदी के अंधेरे में ग़र्क़ हो जाता है, ऐसे मौके़ पर मैगी के दिल में एक ख़ास क़िस्म का जज़्बा उभरता कि वो उस थके हुए भारी सर को अपने सीने पर रख ले... बिल्कुल ऐसे ही जैसे कोई माँ अपने बच्चे को दुख में देखकर कर्ब और उलझन महसूस करे। वो उलझ सी जाती। अमीन की भुरी आँखों में झाँकती... ख़ुलूस, मुहब्बत और यगानगी की रू सी चलती वक़्त उनके दरमियान हज़ारों मील का फ़ासिला और सैंकड़ों सदियों का तहज़ीबी बोअद सिमट कर साँसों की रु से भी कम रह जाता।
मैं बस्ती-बस्ती घूमती चली आई हूँ। अमीन! शायद तुम्हारे लिए।
मैगी रुक रुक कर कहती।
तुम कभी ना जाना। अमीन कहता।
अच्छा...
मैगी लफ़्ज़ 'अच्छा' बख़ूबी अदा कर लेती थी और उसका ख़याल था कि वो उसकी अदायगी में एक ज़ायक़ा महसूस करती है जो नाक़ाबिल-ए-बयान है। उसका इरादा था कि पाकिस्तान में रहने की सूरत में वो यहां की ज़बान पर कुछ रिसर्च करेगी। इस मक़सद के लिए मैगी ने पढ़े लिखे लोगों से मश्वरे भी किए, लोग मदद के लिए फ़ौरन आमादा हो गए! बिलआख़िर तान टूटी तो यहां कि हमारी लिसानियात का मुकम्मल इल्म हासिल करने के लिए विलाएत जाना पड़ेगा... तो मैगी एक ही बार उखड़ गई।
सर्दीयों का मौसम भी बीत गया। सर्द ममालिक से आए हुए सय्याह मौसमी पंछीयों की तरह घरों को लौट रहे थे या फिर उन इलाक़ों का रुख़ कर रहे थे जहां की आब-ओ-हवा साज़गार हो। मैगी को अमीन के ख़ुलूस और मुहब्बत ने बांध रखा था। अमीन का ख़याल था कि मैगी अगर ये मौसम झेल गई तो वो उसे शादी का पैग़ाम दे देगा। यूं जल्दबाज़ी करना वैसे भी ओछापन है।
मैगी की वजह से अमीन सबकी नज़रों में आगया था, अब बैंक के मैनेजर साहिब उसके साथ बेतकल्लुफ़ी से मिलते। दो एक-बार तो उन्होंने अमीन को मैगी के साथ होटल में मदऊ भी किया। उसके शरीककार उससे हसद करते। कभी मैगी दफ़्तर के औक़ात में अमीन से मिलने आती तो दफ़्तर के मसरूफ़कार अमले में जो मख़सूस भिनभिनाहट होती है, दम तोड़ देती, फिर कोई फ़िक़रा जुड़ता। मैगी कहाँ समझ सकती थी। हाँ वो निगाहों की ज़बान समझती थी।
जब कोई आँख झूट बोलती तो मैगी को निहायत ग़ुस्सा आता। वो इस झूट को तर्बीयत और माहौल पर महमूल करती। अमीन भी कभी कभी दिल की बात छुपा जाता। लेकिन झूट उसके चेहरे पर सुबह-ए-काज़िब की तरह उभरता। आरिज़ी और धुँदला ऐसी कैफ़ियत उस वक़्त तारी होती जब वो मैगी की तरफ़ पूरे ख़ुलूस से माइल होता... एक सवाल आँखों में उभरता... वो चुप रहता और मैगी तड़प कर रह जाती।
तुम कुछ पूछने वाले थे। एक रोज़ मैगी ने पूछ ही लिया।
हाँ, मैं हर-रोज़ पूछना चाहता हूँ।
उसने मैगी के सीने पर लटकते हुए दिल की शक्ल के लॉकेट को छेड़ा। रक़ाबत की आँच उस वक़्त तेज़ थी और मैगी की तरफ़ से बदज़नी का गुमान पुख़्ता तर। मैगी कितनी बुरी थी कि पहले महबूब की निशानी को सीने से लटकाए एक और रूमान लड़ा रही थी। जवानी के मौसम में मज़हब और ख़ुदा से कहीं ज़्यादा महबूब की लव लगी रहती है। मैगी के बताने के बावजूद कि वो अपने ब्वॉय फ्रैंड को छोड़ चुकी है अगरचे उसके देस में वो अब भी उसकी राह देख रहा होगा क्योंकि उसने क़ौल दे रखा था कि जब तक मैगी शादी नहीं कर लेती वो उसकी तरफ़ से मायूस नहीं हो सकता। अमीन का यक़ीन अक्सर डांवां डोल होता रहता।
कल ही जब उसने अपनी वापसी का इरादा ज़ाहिर किया तो अमीन चुप-चाप लौट आया। मैगी अपनी तरफ़ से बड़ा फ़लसफ़ियाना फ़िक़रा कह कर सुबुकदोश हो रही थी।
मैं मशरिक़ में रोशनी की तलाश में आई थी कि सूरज इधर से निकलता है मगर तुम सब रोशनी के लिए मग़रिब को मुँह उठाए हुए हो। अमीन ने उस के नज़रिए और फ़लसफ़े पर कुढ़ने के बाद एक ही रक़ीबाना फ़ैसला किया कि पहले आशिक़ ने तो उसे चांदी का ज़लील सा तोहफ़ा दिया लेकिन वो उसे सोने का देगा। पाकिस्तानी दोस्त का हाथ किसी सूरत में तो बाला रहे... इसी मक़सद के लिए वो तेज़ चलता, सोना बाज़ार को जा रहा था। रोलदद पनवाड़ी की बातों और आईने ने दिल में ख़्वाह-मख़्वाह मज़ीद हलचल पैदा कर दी थी। अमीन का जी शाम के धुँदलके में पहले तारे की मानिंद तन्हा और लर्ज़ां था।
बाद में मैगी ने इंडिया जाने की बजाय अपने वतन वापस जाने का प्रोग्राम बना लिया। रवानगी से चंद रोज़ क़ब्ल वो बेहद मसरूफ़ रही। मिलना मिलाना। अलविदाई पार्टीयां... पाकिस्तान में क़ियाम की आख़िरी शाम अमीन ने अपने लिए वक़्फ़ करना चाही।
कल मिलोगी? अमीन ने पूछा।
नहीं... कल संडे है और मैं पाकिस्तान में आख़िरी नमाज़ पढ़ना चाहती हूँ।
और शाम को?
शाम को आराम करूँगी।
मैगी के लहजे में अज़्म की झलक थी। जुदा होते वक़्त अमीन उसे ये भी न कह सका कि मैं तुम्हें तोहफ़ा देना चाहता हूँ... एक ख़ास तक़रीब के साथ... उसे ग़ुस्सा था। नाकामी, नदामत, रक़ाबत और दिल का ख़ला। रास्ते भर वो सोचा किया।
गिरजा जाना बहुत ज़रूरी था... मज़हब क्या है, एक तर्बीयत का नाम और मुहब्बत। फ़ित्री जज़्बा... हाँ फ़ित्रत को तर्बीयत के ताबे रहना चाहिए... लेकिन मैग को क्या मुझसे मुहब्बत थी? जाने क्या था... फ़ित्रत... फ़ित्री जज़्बा कुछ भी नहीं और मैगी कभी भी नहीं... और मैगी कभी कुछ फ़ैसला करती है। कभी कुछ... कमीनी है।
अवाइल जून की सुबह निहायत चमकीली थी। ऊंची दीवारों और दरख़्तों पर पीली धूप फैली थी। गर्म हवा के झक्कड़ सवेरे ही से चल रहे थे। अमीन दफ़्तर जाने के बजाय नहा-धो कर मैगी से मिलने गया तो पता चला कि वो किसी के हाँ सुबह के नाशते पर मदऊ है और वहां से आते ही हवाई अड्डे पर चली जाएगी। वो नौकर के पास एक नोट छोड़ गई थी कि अमीन हवाई अड्डे पर ज़रा जल्दी पहुंच जाये, बहुत सी बातें करना हैं। वो जल कर रह गया। ये सुबह वो उसके साथ भी तो गुज़ार सकती थी। इस क़ुमाश की औरतें दौलतमंदों को तर्जीह देती हैं। ये बात थी तो मैगी उस मर्द का इतनी नफ़रत से क्यों ज़िक्र कर रही थी जो एक शाम को उसके पीछे पीछे हॉस्टल में पहुंच गया था। चौकीदार ने सोचा था कि मेमसाहब का कोई मिलने वाला होगा। इसलिए रोका नहीं... रोशनी में अजनबी का चेहरा बग़ौर देखकर वो ठिठकी तो मर्द सैंकड़ों रूपों के नोट उसके सामने गिनते हुए शुस्ता अंग्रेज़ी में कहने लगा,
तुम्हें पाकिस्तान की चीज़ें पसंद हैं, तुम्हें पाकिस्तानी लोग पसंद हैं। मैं तुम्हें नए नए लिबास और जे़वरात से लाद दूँगा। मेरे साथ चलो। भूके क्लर्कों के साथ क्यों फिरती हो?
मैगी ग़ुस्से और नफ़रत से चीख़ी। चौकीदार के चौकन्ना होने से पहले अजनबी अपनी राह ले चुका था।
और नए साल की बेतकल्लुफ़ पार्टी में ढलती उम्र के मर्द ने मैगी के साथ नाचते हुए एक सानिए में प्रोपोज़ल दे डाला।
मैं तुम्हें महारानी बना कर रखूँगा।
मैगी थक कर बैठ गई। वो नए साल को ख़ुश-आमदीद कहने के लिए नाच रही थी और लोग उसे नई ज़िंदगी का पैग़ाम दे रहे थे। ऐसी ऊंची सतह की पार्टीयां मैग ने अपने मुल्क में कहाँ देखी होंगी। इसलिए हर बात आकर अमीन को और अपनी हमजोलियों को सुनाती और कहती अगर मेरा बाप यहां आकर देखे तो वो मुझे पहचान न सके। उसे क्या मालूम कि उसकी बेटी यहां आकर ऊंची सोसाइटी की ख़ातून बन गई है।
असल में वो यहां की गलियों और अवाम देखने आई थी। मगर पलकों पर बिठा ली गई। वो इन्सान थी आँसू तो न थी कि पलकों की बालकोनियों से उतर कर नीचे चली जाती। जहां ज़िंदगी अंधी और लूली-लंगड़ी है। अमीन ने भी अंदरून शहर दिखाने की जसारत न की। मबादा वो दिल बर्दाश्ता न हो जाये। मगर अब वो जा रही थी... वो चाहता था उसके बारे में कम से कम सोचे।
सह पहर को हवाई जहाज़ को रवानगी थी और अभी दिन का एक बजा था। टेलीफ़ोन किया तो पता चला कि वो रेजिडेंस पर वापस आचुकी है। अमीन बिजली की सी तेज़ी के साथ पहुंचा। मैगी का चेहरा उतरा हुआ था।
मैग तुम सच-मुच जा रही हो।
हाँ।
तुम तो श्रीनगर जा रही थीं।
फिर सही।
मैग!
मैगी नज़रें न मिलाती थी और लोगों से मिले हुए छोटे छोटे तहाइफ़ बिन खोले बिन देखे पर्स में भर रही थी। अमीन ने जेब में पड़ी हुई डिबिया को उंगलियों से कई बार छुआ।
मैग मैं तुम्हें याद आऊँगा।
ओह...
वो थकन का बहाना कर के बैठ गई। उसके हाथ काँप रहे थे और रंगत सुर्ख़ हो रही थी। मैगी का छोटा सा गुलाबी हाथ अमीन के बालों में छुप गया। अमीन ने उसे क़रीबतर कर लिया।
बाहर खिड़की के पास खड़ा चपड़ासी कह रहा था, देर हो चली मिस साहिब! टैक्सी आगई।
मैगी ने उजलत से अपनी तस्वीर अमीन की तरफ़ बढ़ाई। उस पर पते और दस्तख़तों के इलावा लिखा था,
अमीन के लिए... मुहब्बत के साथ।
अमीन एक बार फिर मुस्कुरा दिया।
हवाई अड्डे पर मैगी के मिलने वालों में से कोई भी न पहुंचा था। वो कोने में पड़े एक सोफ़े पर बैठे एक दूसरे को देख भी न रहे थे। ज़िंदगी में बा'ज़ ऐसे मुक़ाम भी आते हैं जब भरे हुए पैमाने से कुछ नहीं छलकता... कोई शिकवा कोई शिकायत।
ज़ब्त एक मेह्र।
एक बोझ... कि जिसके नीचे दब कर सब कुछ दम तोड़ देता है।
वेटिंग रुम में बड़ी रौनक़ थी। अनाउंसर की आवाज़ पर कोई तवज्जो न देता था। कराची जानेवाले मुसाफ़िर जहाज़ तक पहुंच जाएं।
मैगी उठ खड़ी हुई। अब वो परेशान न थी। अमीन ने उजलत से डिबिया खोल कर सोने का सादा छल्ला निकाला जो ईसाई दूल्हा निकाह के बाद अपनी दुल्हन को पहनाता है। वो मैगी के हाथ बढ़ाने का मुंतज़िर था। मैगी की रंगत फीकी पड़ गई... अमीन ने बढ़कर उसका बायां हाथ पकड़ लिया और छंगुलिया के साथ वाली उंगली में पहनाने लगा तो मैगी ने हाथ खींच लिया।
नहीं।
इससे ज़्यादा की ख़्वाहिश न करूँगा।
मैं इस उंगली में नहीं पहनूँगी।
अमीन के दिल पर एक क़ियामत गुज़र गई। वो पागलों की तरह बकने लगा।
मुझे पहले ही पता था, मैं पहले ही जानता था। ये लॉकेट... मैगी तुम... क़रीब था कि वो फूट फूटकर रोने लगे कि मैगी ने लॉकेट की डिबिया खोली और अमीन की हथेली पर उलट दी। उसमें मिट्टी की एक डली थी और घास की चंद पत्तियाँ।
मैं जा रही हूँ... वहां जा कर भर लूँगी। ये तुम ले लो... ये मेरे देस की मिट्टी है और मेरे देस की घास, मेरे महबूब।
अमीन ने देखा कि वो तेज़ी से मुसाफ़िरों के गुज़रने के ख़ास रास्ते की तरफ़ लपक रही है... अचानक वो मुड़ी और अमीन को हाथ हिला कर सलाम किया... मगर अमीन शश-ओ-पंज में था कि वो इस लड़की को अलविदा कहे या गाली दे!
फिर उसका सर अपने आप झुक गया। जैसे वो सज्दा कर रहा हो।
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