मश्कूक लोग
स्टोरीलाइन
होटल में एक ही टेबल पर बैठे हुए लोग किसी खु़फ़ीया मुआमले के बारे में बातें करते हुए प्रशासन, देश की सियासत पर आलोचना करते हैं और आपस में एक दूसरे पर शक करने लगते हैं। उनमें से एक व्यक्ति को लगता है कि दूसरे व्यक्ति की आँखें शीशे की हैं, इसी तरह धीरे-धीरे सब एक दूसरे की तरफ़ देखते हुए ये महसूस करते हैं कि उसकी आँखें शीशे की हो गई हैं।
शुक्र है कि मैं उनमें से नहीं हूँ। बातें सुनते-सुनते उसने सोचा और इतमीनान का साँस लिया, एक तो हसनैन था, एक आरिफ़ था, और एक वो ख़ुद, फिर शफ़ीक़ आ गया।
आ भई शफ़ीक़! आरिफ़ कहने लगा, यार तू नज़र नहीं आया?
मैं वहाँ पहुँचा था मगर फिर मैं पलट आया।
क्यों?
बस पलट आया, सब बिके हुए हैं साले। शफ़ीक़ को बोलते-बोलते ग़ुस्सा आ गया, वो चुप हुआ, फिर बैरे को आवाज़ दी, बैरा!
शरीफ़ ने दूर से शफ़ीक़ को देखा, आया, बोला, हाँ जी शफ़ीक़ साहब जी! खाना?
पहले पानी पिला यार! शफ़ीक़ ने बेज़ारी के लहजे में कहा, फिर आरिफ़ से मुख़ातिब हुआ, कौन-कौन था?
सब ही थे। आरिफ़ कहने लगा, तुफ़ैल था, इश्तियाक़ था...
इश्तियाक़! शफ़ीक़ बात काटते हुए बोला, उसे मैंने देखा था, फ़्रॉड! उसकी आवाज़ और गुस्सैली हो गई।
हसनैन इश्तियाक़ की हिमायत में कहने लगा, वो सबसे आगे-आगे था।
शफ़ीक़ ने हसनैन को लाल-पीली नज़रों से देखा और गर्मा कर बोला, ऐसे लोग सबसे आगे-आगे ही हुआ करते हैं।
कैसे लोग? हसनैन ने जल कर सवाल किया।
तुम इश्तियाक़ को नहीं जानते? शफ़ीक़ ने सवाल के जवाब में सवाल किया।
पता नहीं तुम्हारा किस तरफ़ इशारा है! हसनैन बोला।
मेरा जिस तरफ़ इशारा है वो तुम अभी नहीं समझे हो तो जल्दी समझ जाओगे। ख़ैर! ये बताओ कि कोई गड़बड़ तो नहीं हुई?
नहीं! आरिफ़ ने इतमीनान के लहजे में कहा।
हो जाती... हसनैन कहने लगा, मगर इश्तियाक़ ने सिचुवेशन को संभाल लिया।
हाँ अगर... आरिफ़ बोला, इश्तियाक़ यू एस आई एस की तरफ़ जाने से न रोकता तो गड़बड़ हो गई थी।
शरीफ़ गुज़रते-गुज़रते पानी का ग्लास मेज़ पर रख गया था और शफ़ीक़ इत्मीनान से पानी पी रहा था, मगर आरिफ़ की बात सुन कर वो चौंका।
तो तुम लोग यू एस आई एस नहीं गए?
नहीं।
शफ़ीक़ तल्ख़ सी हँसी हँसा और कहने लगा, जब मैंने इश्तियाक़ को आगे-आगे चलते-चलते देखा तभी मेरा माथा ठनका था।
क्या मतलब? हसनैन कुछ चकरा सा गया।
तुम्हारे साथ वो हाथ कर गया और तुम मुझसे मतलब पूछ रहे हो!
आरिफ़ सोच में पड़ गया, फिर बोला कि, यार हसनैन! शफ़ीक़ ठीक कह रहा है, उस वक़्त मुझे भी थोड़ी हैरानी हुई थी कि आख़िर इश्तियाक़ क्यों इतना मोअ्तबर बन रहा है! हसनैन चुप हो गया, हाँ ये आदमी है तो घपला ही, साबिर तुम्हारा क्या ख़्याल है?
मेरा...! वो चौंक पड़ा, मेरा ख़्याल क्या होता!
इश्तियाक़ को तुम तो बहुत जानते हो, तुम्हारा क्या ख़्याल है उसके बारे में।
वो सोच में पड़ गया, फिर बोला, यार कुछ पता नहीं। शफ़ीक़ हँसा, साबिर कुछ नहीं कहेगा! शरीफ़ घूमता फिरता फिर उस मेज़ पर आ गया, हाँ जी शफ़ीक़ साहब जी! चिकन करी, चिकन रोस्ट, ब्रेन करी, ब्रेन मसाला, आलू क़ीमा, पसंदा, पाया।
यार पाए ले आ, मगर जल्दी! शरीफ़ चलने लगा, मगर उसने फिर रोका, शरीफ़ सुनो, चाय भी!
मैं नहीं पियूँगा... हसनैन ने ऐलान किया।
क्यों...?
यार, सुबह से दफ़्तर नहीं गया हूँ, अब चलना चाहिए... ये कहते-कहते हसनैन उठ खड़ा हुआ और बाहर निकल गया।
यार तुमने हसनैन को उखाड़ दिया... शफ़ीक़ ने फ़ातिहाना अंदाज़ में कहा।
मगर क्यों...?
बस ये भी इश्तियाक़ का भाई है।
अब शरीफ़ ने पाए की डिश लाकर चुन दी थी और शफ़ीक़ खाना खा रहा था। खाना खाते-खाते कहने लगा, एक रोज़ ये बहुत तेज़ी में बैंक आया उसे चेक बनाना था, इत्तिफ़ाक़ से उस रोज़ मैं काउंटर पर था, चेक देते-देते उसने मुझे देखा तो रंग फ़क़ पड़ गया।
आख़िर क्यों...?
ये मत पूछो, रक़म कुछ लंबी ही थी, और मालूम है चेक कहाँ से आया था!
कहाँ से?
बस ये मत पूछो, वैसे इश्तियाक़ भी साथ था, मगर वो मुझे देख कर दूर ही से पलट गया, और बाहर कार में जा बैठा... और शफ़ीक़ ने फिर बड़े-बड़े निवाले लेने शुरू कर दिए। दरवाज़ा खुला और तुफ़ैल दाख़िल हुआ, आकर पूछने लगा कि, यार यहाँ हसनैन था, कहाँ गया? आरिफ़ हँसा और बोला, था तो सही, मगर शफ़ीक़ ने उसे उखाड़ दिया।
वो कैसे?
शफ़ीक़ पाए की हड्डी चूसते-चूसते बोला, यार वो इश्तियाक़ को Defend कर रहा था, जैसे हम इश्तियाक़ को जानते ही नहीं। तुफ़ैल हँसा और कुर्सी घसीट कर बैठ गया, अच्छा? आरिफ़ कहने लगा, मुझे भी हसनैन के बारे में कभी-कभी शक होता है।
शक...? शफ़ीक़ ने निवाला शोरबे में डुबोते-डुबोते हाथ रोका, तुम्हें अभी तक शक है, मैं तो यक़ीन से कह सकता हूँ, फिर वो बड़बड़ाया, हराम-ज़ादे... सब बिके हुए हैं... फिर उसने निवाला शोरबे में डुबोया और मुँह में रख लिया।
मगर कल तो वो बहुत नारे लगा रहा था। तुफ़ैल बोला।
ऐसे लोग नारे बहुत लगाते हैं।
आरिफ़ साहब आपका फ़ोन है... काउंटर से आवाज़ आई। आरिफ़ लपक कर काउंटर पर गया, फ़ोन पर कुछ देर बातें करता रहा, फिर वहाँ से वापस आया, कहने लगा, यार मैं जा रहा हूँ।
चाय जो आ रही है! शफ़ीक़ बोला।
मेरे बदले की तुफ़ैल पिएगा, मेरा फ़ोन आ गया है, मैं जा रहा हूँ। आरिफ़ चला गया, शफ़ीक़ ख़ामोशी से खाना खाता रहा, फिर खाते-खाते बोला, यार आरिफ़ के फ़ोन कुछ ज़्यादा ही आते हैं और कभी पता न चला कि कहाँ से आते हैं, फ़ोन पर या तो बहुत लंबी गुफ़्तगू करता है या फिर डेढ़ दो सेकंड बात की और फ़ौरन चला गया।
हाँ आदमी ख़ासा पुर-असरार है! तुफ़ैल ने टुकड़ा लगाया।
ख़ाली प्लेट में पाए की हड्डियों की एक ढेरी बन गई थी और शफ़ीक़ अच्छी-ख़ासी बातें कर चुका था, फिर चाय आ गई, वो चाय बनाने लगा, तुफ़ैल उठ कर बाथ रूम की तरफ़ चला गया, शफ़ीक़ ने चाय बनाते-बनाते सादगी से पूछा, यार साबिर! तुफ़ैल तेरा तो दोस्त है आज कल क्या कर रहा है?
फ़्रीलांसिंग!
फ़्रीलांसिंग! कौन कहता है?
ख़ुद तुफ़ैल कह रहा था कि आज कल फ़्रीलांसिंग कर रहा हूँ।
बकवास करता है।
शफ़ीक़ चुप हो गया, चाय बनाने लगा, फिर पूछने लगा, अगर फ़्रीलांसिंग करता है तो किसी अख़बार में उसका कोई फ़ीचर, कोई कॉलम, आना चाहिए, बताओ किस अख़बार में आता है? इस सवाल पर उसने कुछ सोचा, फिर घबरा कर कहा, यार पता नहीं! शफ़ीक़ जब उससे ब-राह-ए-रास्त सवाल-जवाब करने लगता तो वो बिल-उमूम घबरा जाता, किसी की बात होती मगर उसे यूँ लगता कि वो मुजरिम है और शफ़ीक़ के रू-ब-रू कटहरे में खड़ा है, मगर फिर शफ़ीक़ ने ख़ुद ही पहलू बदला, और अगर फ़्रीलांसिंग भी हो तो क्या फ़र्क़ पड़ता है, जो अख़बार में बा-क़ायदा काम करते हैं उन्हें भी मैं जानता हूँ, सब साले बिके हुए हैं।
तुफ़ैल बाथरूम से वापस आ गया, चाय अब बन गई थी, शफ़ीक़ ने एक प्याली तुफ़ैल की तरफ़, दूसरी प्याली उसकी तरफ़, तीसरी ख़ुद अपनी तरफ़ सरकाई, तुफ़ैल प्याली को मज़ीद अपनी तरफ़ सरकाते हुए पूछने लगा, हाँ क्या कह रहे थे?
मैं अपने मुल्क की सहाफ़त की बात कर रहा था।
कुछ मत पूछो कि सहाफ़ी क्या कर रहे हैं! तुफ़ैल ने ठंडा साँस भरा और चाय पीने लगा, फिर कहने लगा, मैं तो सोच रहा हूँ कि पेशा छोड़ ही दूँ। बहुत ज़लील पेशा हो गया है।
फिर क्या करोगे?
वकालत! चुप हुआ, फिर उससे मुख़ातिब हुआ, साबिर! इश्तियाक़ की वकालत कैसी जा रही है?
बुरी तो शायद नहीं जा रही! उसने सादगी से कहा।
बहुत अच्छी जा रही है। शफ़ीक़ अपने तंज़िया लहजे में बोला।
हाँ भई उन्ही लोगों का ज़माना है! तुफ़ैल ने फिर ठंडा साँस भरा, पता है किसके मुक़दमे लेता है? शफ़ीक़ ने ज़हर नाक लहजे में कहा।
पता है! तुफ़ैल ऐसे हंसा जैसे वो दरून-ए-पर्दा सारे राज़ों से वाक़िफ़ है, शफ़ीक़ तुफ़ैल के इस रद्द-ए-अमल पर ख़ासा मुत्मइन था, ख़ामोशी से चाय पीने लगा मगर फिर चाय पीते-पीते पूछने लगा, तो आरिफ़ था कल?
हाँ! तुफ़ैल बोला।
उसने भी ख़ूब नारे लगाए?
नारे-वारे उसने नहीं लगाए, बस साथ था।
शफ़ीक़ के होंटों पर एक मअ्नी-ख़ेज़ मुस्कुराहट खेल गई, घुन्ना आदमी है! फिर शफ़ीक़ ने जल्दी-जल्दी चाय पी, बैरे को आवाज़ दे के बिल अदा किया।
बस? तुफ़ैल उसे देखते हुए बोला।
हाँ यार! दफ़्तर में करने के लिए बहुत काम पड़ा है।
रात में दफ़्तर...?
हाँ आज महीने की आख़िरी तारीख़ है, हिसाब क्लोज़ हो रहा है। और वो तेज़ी से बाहर निकल गया। शफ़ीक़ के जाने के बाद मेज़ पर अजब ख़ामोशी छा गई... अब तुफ़ैल था और वो था, दोनों थोड़ी देर बैठे रहे, बातें करते रहे, फिर बोर हो गए।
यार चलें अब! तुफ़ैल बोला... और दोनों उठ खड़े हुए। इस लंबी सड़क पर वो और तुफ़ैल देर तक ख़ामोश चलते रहे, जैसे चाय की मेज़ की गुफ़्तगू से थक गए हों और अब चुप रहना चाहते हों, वो चाय की मेज़ की गुफ़्तगू से बेशक थक गया था मगर उस गुफ़्तगू ने उसका पीछा नहीं छोड़ा था। शफ़ीक़ के शक भरे ऐलानात उसे एक-एक कर के याद आ रहे थे...
यार तुफ़ैल! वो चलते-चलते बोला, शफ़ीक़ इश्तियाक़ के बारे में बहुत शक का इज़हार कर रहा था, ज़ाहिर में तो वो ऐसा नज़र नहीं आता, तुम्हारा क्या ख़्याल है?
ज़ाहिर में तो यार सभी अच्छे नज़र आते हैं... तुफ़ैल रुका, फिर बोला, ज़ाहिर की सुनो! तुमने कॉफ़ी हाउस में एक आदमी को देखा होगा जो वहाँ सुबह, दोपहर, शाम, हर वक़्त बैठा रहता था, और सबके हाथ देखा करता था।
हाँ देखा है, बल्कि उसे हाथ भी दिखाया है।
तुफ़ैल हँसा, अच्छा तो तुम भी उसे हाथ दिखा चुके हो?
हाँ यार! मुझे तो उसने माज़ी की सब बातें ठीक बताईं।
तुफ़ैल तंज़िया बोला, माज़ी की बातें तो वो सब ही को ठीक बताता था, सब ही का माज़ी उसकी उँगलियों पर था।
मेरे हाथ का वो बहुत मोअ्तरिफ़ था।
अच्छा।
हाँ, कहता था कि ऐसा हाथ मैंने नहीं देखा, उसने मेरे हाथ का अक्स भी लिया था।
क्या...? तुफ़ैल चलते-चलते एक दम से रुक गया, तुमने उसे हाथ का अक्स दे दिया?
हाँ! फिर? वो सिटपिटा कर तुफ़ैल को देखने लगा।
तुफ़ैल ग़ुस्से से बोला, तो तुम उसे सच-मुच पामिस्ट समझते थे?
वो कुछ बौखला सा गया, फिर कौन था वह?
साबिर! तुम निरे गाँवई हो! तुफ़ैल ने बिगड़े से लहजे में कहा, और फिर चलने लगा। तुफ़ैल ने उसके सवाल का कोई जवाब नहीं दिया था, मगर सवाल उसका तआक़ुब करता हुआ चल रहा था... फिर कौन था वह? पामिस्ट नहीं था! मैं तो उसे यही समझता था, सबही उसे ऐसा समझते थे और अपना-अपना हाथ दिखाते थे। तुफ़ैल बकवास करता है। हाथ देखना तो वो जानता था, मुझे एक-एक बात उसने सही बताई थी, मेरे हाथ का बहुत मोअ्तरिफ़ था। जभी तो उसने इस एहतिमाम से मेरे हाथ का अक्स लिया था मगर... वो ठिटक गया।
यार तुफ़ैल! वो आदमी आज कल नज़र नहीं आ रहा, कहाँ है?
तुफ़ैल हँसा, तुमने उसे हाथ का अक्स दिया है, तुम्हें पता होगा!
हाथ का अक्स लेने के बाद एक-दो दफ़ा तो नज़र आया था, कह रहा था कि मैंने मुताल'अ कर लिया है, तुम्हें बताऊँगा, फिर वो ग़ायब ही सा हो गया... और कहते-कहते वो सोच में पड़ गया कि आख़िर वो शख़्स गया कहाँ, फिर उसे अपने हाथ के अक्स का ध्यान आया और उसका दिल अंदर ही अंदर बैठने लगा।
वैसे आज-कल एक नए साहब तुम्हारी मेज़ पर मुस्तक़िल नज़र आते हैं... तुफ़ैल कहने लगा, मैं तो उन्हें जानता नहीं, कौन साहब हैं ये...?
अच्छा वो जिसने फ़्रैंच कट रख छोड़ी है! बहुत माक़ूल गुफ़्तगू करता है।
करता होगा, मगर है कौन? हुदूद-ए-अर्बअ् क्या है उन साहब का?
यार, ये तो मैं भी नहीं जानता!
गुफ़्तगू तो उससे बहुत लंबी होती है।
तुफ़ैल की इस बात पर उसका लहजा किसी क़दर मा'ज़िरती हो गया, यार वो तो वियतनाम का ज़िक्र आ गया था, इसलिए बात ज़रा लंबी हो गई, वैसे मैं उन साहब को मुतअल्लिक़ नहीं जानता, अस्ल में ये साहब आरिफ़ के हवाले से हमारी मेज़ पर आए हैं।
फिर ठीक है... तुफ़ैल तंज़िया हँसी हँसा।
यार तुफ़ैल तुम तो दूसरे शफ़ीक़ बन गए हो, हर एक पे शक करते हो!
शफ़ीक़ का शक हमेशा बे-बुनियाद नहीं होता! तुफ़ैल रुका, फिर बोला, तुम्हें याद है कि आरिफ़ के साथ एक ज़माने में एक गोरी चमड़ी वाला आया करता था और आरिफ़ कहता था कि मेरा दोस्त है, कैनेडा से आया है, और एंटी अमेरिकन है। जंग छिड़ी तो वो बंदा एक-दम से ग़ायब हो गया, वो अस्ल में 5 सितंबर को यहाँ से चला गया था, और वो कैनेडा का नहीं था।
फिर कौन था वह?
तुफ़ैल ने उसे घूरते हुए कहा, शफ़ीक़ से पूछो, वो बताएगा तुम्हें! शफ़ीक़ के हवाले पर अब उससे रहा न गया, बोला, शफ़ीक़ तो तुम्हारे बारे में भी बहुत कुछ कहता है!
मेरे बारे में! तुफ़ैल ठिटक गया, मेरे बारे क्या कहता है?
बस तुम्हारी आमदनी के ज़राएअ के बारे में शक करता है।
तुफ़ैल किसी क़दर ताम्मुल से हँसा, फिर लापरवाई ज़ाहिर करते हुए बोला, आदमी के अपने ज़राएअ्-ए-आमदनी मशकूक हों तो उसे दूसरे के ज़राएअ्-ए-आमदनी ख़्वाह-मख़ाह मशकूक नज़र आते हैं। तुफ़ैल के रद्द-ए-अमल पर उसकी गई हुई हमदर्दी तुफ़ैल के साथ बहाल हो गई और शफ़ीक़ के बारे उसका अपना रद्द-ए-अमल ऊद कर आया, यार शफ़ीक़ अजब है, सब ही के बारे में शक करता है।
ताकि ख़ुद उसके बारे में कोई शक न करे... तुफ़ैल ने मुख़्तसरन कहा, और ख़ामोश हो गया। दोनों ख़ामोश चलते रहे, फिर तुफ़ैल ने झुर्झुरी ली, यार साबिर! तुम वहाँ क्या करने लगे थे?
मैं! कहाँ? वो चकरा सा गया।
शफ़ीक़ तुम्हें परसों कहाँ मिला था?
अच्छा! वो हँसा, मैं लाइब्रेरी गया था, उन अमेरिकियों की लाइब्रेरी से इस्तिफ़ादे में भी मुज़ाइक़ा है? क्या कह रहा था शफ़ीक़...?
जो वो सबके बारे में कहा करता है!
वो फिर हँस पड़ा। दोनों फिर ख़ामोश चलने लगे, चलते-चलते तुफ़ैल बोला, शफ़ीक़ ज़रा मुहतात रहा करो!
क्यों? वो चौंका।
बस मैंने कह दिया है... तुफ़ैल ने मअ्नी-ख़ेज़ लहजे में कहा। अब उसकी गली का मोड़ आ गया था, अच्छा यार साबिर, कल मिलेंगे!
तुफ़ैल अपनी गली में मुड़ गया, अब वो अकेला था और आज़ादी से अपने ख़्यालात में मगन चल सकता था, चलते-चलते उसे एक मर्तबा फिर इश्तियाक़ का ख़्याल आया, बात कुछ समझ में नहीं आती, इश्तियाक़ इस क़िमाश का आदमी तो नहीं है, मैं भी उसे इतने अरसे से जानता हूँ, और आदमी आख़िर कब तक अपने आपको छुपा सकता है, मगर शफ़ीक़ कहता है। ख़ैर शफ़ीक़ तो सब ही के बारे में कहता है, हसनैन के बारे में भी, आरिफ़ के बारे में भी, तुफ़ैल के बारे में भी, तो गोया सब ही का दामन आलूदा है... हद हो गई, और ख़ुद शफ़ीक़? शफ़ीक़ इश्तियाक़ के बारे में कहता है और इश्तियाक़ शफ़ीक़ के बारे में कहता है।
यार साबिर! इश्तियाक़ पूछ रहा था, शफ़ीक़ की तनख़्वाह क्या होगी?
पता नहीं यार...
क़यास तो कर सकते हो कि कितनी होगी, यार मेरे ने गुलबर्ग में ज़मीन ख़रीदी है...
गुलबर्ग में? नहीं यार!
अच्छा मत मानो! तो इश्तियाक़ शफ़ीक़ के बारे में कहता है और शफ़ीक़ इश्तियाक़ के बारे में कहता है और तुफ़ैल दोनों के बारे में कहता है, शफ़ीक़, इश्तियाक़, तुफ़ैल, हसनैन, आरिफ़, गोया सब ही, हद हो गई, गोया हम सब ही का दामन आलूदा है। ये सोचते-सोचते वो ठिटका... हम सब कह कर तो उसने आपको भी शामिल कर लिया था, उसने फ़ौरन अपने ख़्याल की तसहीह की और अपने आप को क़तार से अलग कर लिया। अस्ल में इस पस-ए-पर्दा में जब-जब उसने अपना जायज़ा लिया था, अपने आपको सर से पैर तक ईमानदार पाया था। उस वक़्त उसने एक मर्तबा फिर अपने किरदार का ग़ैर जानिब दाराना मुहासिबा किया और अपने आप को सब बुराइयों से बरी पाया, जो जिनमें से है उनके साथ उठाया जाएगा, शुक्र है कि मैं उनमें से नहीं हूँ।
उसने एक एहसास बरतरी के साथ इतमीनान का साँस लिया, मगर फिर उसे तुफ़ैल की कही हुई बात याद आगई, शफ़ीक़ मेरे बारे में क्या कहता फिरता है, ख़ैर ऐसी बातों से क्या फ़र्क़ पड़ता है, मैं वही हूँ जो मैं हूँ, उसने बे-एतिनाई से सोचा और शफ़ीक़ की बात को रद्द कर दिया, मगर चलते-चलते फिर उसे इस बात का ख़्याल आ गया। आख़िर उसने ऐसा कहा क्यों? और उसे ग़ुस्सा आता चला गया, अस्ल में वो उनमें शुमार नहीं होना चाहता था जिनमें से वो नहीं था और उसने तै किया कि फ़ित्ना का सद्द-ए-बाब फ़ौरन होना चाहिए, मैं इश्तियाक़ तो नहीं हूँ कि आना-कानी कर जाऊँ, आना-कानी वो करे जिसके अंदर खोट हो, और वो चलते-चलते पलटा।
अब रात थी और सड़क पर उजाला भी था और अंधेरा भी था, वो चल क्या रहा था, दौड़ रहा था, बहुत आगे जाकर वो वापस हुआ था, फिर भी वो जल्द ही आ पहुँचा और तीर के माफ़िक़ अंदर दाख़िल हुआ।
शरीफ़, शफ़ीक़ साहब आए थे?
आए थे, बहुत देर बैठे रहे, अभी-अभी गए हैं!
उसे सख़्त अफ़सोस हुआ, ज़रा देर पहले आ जाता तो उसे पकड़ लेता, ग़लती की, मुझे रिक्शा ले लेना चाहिए था, फिर वो बैठ गया, आ गए हैं तो पी कर चलेंगे मगर थोड़ी ही देर में वो बे इत्मीनान हो गया और उठ खड़ा हुआ, चाय का ऑर्डर मंसूख़ कराया और बाहर निकल गया, ख़ैर कोई बात नहीं, कल निबटूँगा, अच्छा है इस दौरान तुफ़ैल से तफ़्सील भी मालूम हो जाएगी। उस वक़्त भी तो उसने उड़ती सी एक बात कही थी, मैंने भी ज़्यादा ध्यान नहीं दिया, पहले पूरी बात मालूम कर लेनी चाहिए। वैसे अभी कौन सी ज़ियादा रात हुई है और तुफ़ैल सवेरे सोने वालों में तो नहीं है, एक लहर आई और उसके क़दम तुफ़ैल के घर की तरफ़ उठ गए। गेट खोल लपक-झपक दाख़िल हुआ, बत्ती सिर्फ़ बरामदे में जल रही थी, लॉन में अंधेरा था, क़ाज़ी साहब की महफ़िल आज ज़्यादा लंबी चौड़ी नहीं थी। रोज़ के आने वालों में सिर्फ़ मिर्ज़ा साहब थे, बाक़ी एक साहब और बैठे थे जो उसके लिए अजनबी थे, क़ाज़ी साहब बातें करते-करते रुके, साबिर आओ भई, तुफ़ैल अभी यहीं था, कोई आए तो बुलवाता हूँ, बैठो।
ख़ाली पड़ी हुई कुर्सियों में से एक कुर्सी पर वो बैठ गया, क़ाज़ी साहब ने गुफ़्तगू का टूटा हुआ सिलसिला फिर जोड़ा, तो साहब रोज़ रात को जब बारह का अमल होता तो वो आदमी आता, रूपया फेंकता और मिठाई का टोकरा ले जाता! अजनबी आदमी अपनी कुर्सी पर कसमसाया, मिठाई का टोकरा? एक रूपये में? क़ाज़ी साहब हँसे, अरे भाई ये तुम्हारे ज़माने की बात नहीं है, हमारे ज़माने का ज़िक्र है, मिर्ज़ा साहब ज़रा बताओ इन्हें उस ज़माने में गेहूँ किस भाव था...
भाव की बात तो ये है... मिर्ज़ा साहब हुक़्क़े की नै मुँह से अलग करते हुए बोले, कि एक रूपये में गेहूँ से बोरी भर जाती थी...
साहब हम तो ये जानते हैं... क़ाज़ी साहब बोले, कि एक रूपये के गेहूँ के लिए हम मज़दूर क्या करते थे... अब तुम्हारे एक रूपये का गेहूँ ख़ुदा झूट न बुलवाए मुट्ठी में आ जाता है।
मिर्ज़ा ने ठंडा साँस भरा, क़ाज़ी साहब पैसे की क़ीमत नहीं रही!
मिर्ज़ा साहब, पैसे की क़ीमत तो आदमी से होती है, अब आदमी ही की कौन सी क़ीमत रह गई है!
आदमी! मिर्ज़ा साहब ने फिर ठंडा साँस भरा, आदमी तो मूली-गाजर बन गए! क़ाज़ी साहब ख़ामोश हुक़्क़ा पीने लगे, मिर्ज़ा साहब ने आँखें बंद कर लीं और ख़्यालों में खो गए, अजनबी आदमी कुर्सी में फिर कसमसाया, साहब वो क़िस्सा तो बीच ही में रह गया!
हाँ, वो क़िस्सा! क़ाज़ी साहब ने हुक़्क़े की नै एक तरफ़ की, साहब कुछ तो उन दिनों मिठाई सस्ती थी और कुछ शायद उस रूपये की तासीर थी कि मिठाई कुछ ज़्यादा ही तुल जाती थी, बस ये समझ लो कि उधर आदमी टोकरा लेकर रुख़्सत हुआ, इधर यूँ लगता कि दुकान में झाड़ू दिल गई। रहीम बख़्श हलवाई की समझ में कुछ न आए कि बात क्या है, मगर मौला कुबड़ा बहुत पहुँचा हुआ था, वो ताड़ गया, बोला कि रहीम बख़्श तेरी दुकान पे फ़लाँ-फ़लाँ आदमी आवे है, मुझे लगे है कि वो आदमी नहीं है, रहीम बख़्श ने पूछा कि बे तूने कैसे जाना। मौला बोला कि मैंने उसकी पुतली देखी है वो फिरती नहीं। रहीम बख़्श चुप रहा, मगर जब रात के बारह बजे और वो आदमी आया तो रहीम बख़्श ने मिठाई तौलते-तौलते उसकी पुतली पर नज़र मारी। बिल्कुल साकित... रहीम बख़्श के जी में क्या आई, पूछ बैठा कि सेठ तुम्हारा नाम क्या है, ये पूछना था कि तड़ाख़ से एक थप्पड़ पड़ा और आदमी ग़ायब!
आदमी ग़ायब? अजनबी ने तअज्जुब से पूछा।
हाँ आदमी ग़ायब, फिर वो नज़र नहीं आया, फिर न पूछो कि शहर में कैसा हरास फैला। आदमी, आदमी से ख़ौफ़ खाने लगा... हर कोई किसी पर शक करता और नाम पूछने से कतराता।
मिर्ज़ा साहब सोच में पड़ गए, फिर बोले कि, रात के वक़्त किसी से नाम नहीं पूछना चाहिए।
साहब मैं तो दिन में भी नहीं पूछता, क्या पता कौन आदमी अंदर से क्या निकले, हाँ पुतली ज़रूर देख लेता हूँ।
मिर्ज़ा साहब बोले, आदमी के पहचानने का तरीक़ा ही ये है कि आँखों में आँखें डाल कर देखो, कोई और मख़लूक़ है तो कभी आँख नहीं मिलाएगी।
ख़तरनाक खेल है... क़ाज़ी साहब आहिस्ते से बोले।
हाँ ख़तरनाक तो है!
फिर क़ाज़ी साहब और मिर्ज़ा साहब दोनों कुछ चुप हो गए, क़ाज़ी साहब ने हुक़्क़े के चंद घूँट लिए, फिर ख़ामोशी से नै मिर्ज़ा साहब की तरफ़ मोड़ दी। मिर्ज़ा साहब ने खोए-खोए अंदाज़ में नै होंटों में डाली और घूँट भरने लगे, सामने बरामदे की धुँधली रौशनी में एक साया हरकत करता नज़र आया, क़ाज़ी साहब ने आवाज़ दी, रमज़ानी, तुफ़ैल को भेजो!
तुफ़ैल मियाँ सो गए जी!
मियाँ, वो तो सो गया... क़ाज़ी साहब उसकी तरफ़ मुतवज्जे हुए।
मिर्ज़ा साहब हुक़्क़ा पीते-पीते चौंके, रात अच्छी-ख़ासी ही हो गई है अब चलना चाहिए।
मगर मिर्ज़ा साहब के उठने से पहले वो उठ खड़ा हुआ, क़ाज़ी साहब को सलाम किया और बाहर निकल आया...
तुफ़ैल के घर से निकल वो अपने घर की तरफ़ हो लिया, रात अच्छी-ख़ासी हो गई थी। आमद-ओ-रफ़्त कम-ओ-बेश बंद थी, कभी कोई रिक्शा, कभी कोई टैक्सी इक शोर के साथ गुज़री चली जाती, और फिर वही ख़ामोशी। सुनसान सड़क पर चलते-चलते सामने से इक शख़्स आता नज़र आया। क़रीब आता गया, फिर बिल्कुल क़रीब उसे देखता गुज़रा चला गया... कौन शख़्स था यह? बहुत ग़ौर से मुझे देख रहा था, आँखों में आँखें डाल कर ख़्याल आया कि मुड़ कर देखे मगर फ़ौरन ही उसने ये इरादा तर्क कर दिया। होगा कोई, मुझे क्या! सारे-सारे दिन काफ़ी हाउस में बैठा रहता, कभी इस मेज़ पर, कभी उस मेज़ पर, कभी तजरीदी आर्ट पर बहस, कभी सियासी सूरत-ए-हाल पर गुफ़्तगू, फिर हाथ देखने लगता और सब अपना-अपना हाथ दिखाते। माज़ी की सही तफ़सीलात जान कर हैरान होते और मुस्तक़बिल के बारे में सवाल करते।
मगर तुफ़ैल कहता है कि वो पामिस्ट था ही नहीं, कमाल है, फिर कैसे बता देता था, और अगर पामिस्ट नहीं था तो फिर कौन था? और मेरे हाथ का अक्स? उसे कुछ वसवसा होने लगा, मगर फिर फ़ौरन ही उसने अपने आप पर क़ाबू पा लिया, मैं तो शफ़ीक़ बनता जा रहा हूँ, हद है शफ़ीक़ से, हसनैन, आरिफ़ तुफ़ैल सब पर शक करता है, कमाल लोग हैं, हर कोई हर किसी पर शक करता है, आदमी, आदमी से ख़ौफ़ खाने लगा, वो ठिटका, ये तो क़ाज़ी साहब कह रहे थे।
क़ाज़ी साहब भी ख़ूब बुज़ुर्ग हैं, दुनिया का कोई ज़िक्र हो, जिनों का ज़िक्र दरमियान में ज़रूर ले आते हैं, आख़िर उन्होंने ज़िंदगी में कितने जिन देखे हैं, क्या उस ज़माने में सबही जिन-भूत थे? कम से कम उस ज़माने में जिन-भूत तो नहीं होते, होते तो हैं आदमी ही, मगर शफ़ीक़... शफ़ीक़ तो ख़ैर ख़ुद... शफ़ीक़ अगर क़ाज़ी साहब के ज़माने में होता तो क़ाज़ी साहब होता। सबकी पुतली देखा करता, हद ये है कि मेरे बारे में भी... बस हद ही हो गई, अब वो ग़ुस्से में नहीं था, मगर उसे शफ़ीक़ की बात पर रह-रह कर तअज्जुब हो रहा था और किसी क़दर मलाल। मैं इतना अलग थलग रहा हूँ और मेरे बारे में भी... फिर रफ़्ता-रफ़्ता उसने अपने ग़ैर जानिब-दाराना रवैये को बहाल किया और सोचने लगा कि आख़िर शफ़ीक़ को शक कैसे पड़ा, उसने अपनी कई भूली बिसरी लग़्ज़िशों को याद किया, मगर हर लग़्ज़िश का उसके पास एक जवाज़ था। यूँ भी ये कौन सी बड़ी लग़्ज़िश थी, दूसरे जो कर रहे हैं उनके मुक़ाबले में तो ये बातें कोई हैसियत नहीं रखतीं। बाक़ी कहने वालों का क्या है, और मैं फ़रिश्ता तो हूँ नहीं, उसने एक मर्तबा अपने हक़ में क़रार-दाद एतिमाद मंज़ूर की और मुत्मइन चलने लगा।
सड़क सुनसान थी, कोई-कोई रिक्शा शोर करती तेज़ी से क़रीब से गुज़र जाती और ख़ामोशी फिर दूनी हो जाती, बहुत रात हो गई, इधर आना बे-सूद रहा, आख़िर इतनी उजलत की ज़रूरत क्या थी, कल तुफ़ैल को मिलना ही है और शफ़ीक़ को भी, हाथ के हाथ दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा, चलते-चलते वो ठिटक सा गया। अब वो मोड़ वाली कोठी के सामने से गुज़र रहा था, यहाँ क़दरे अंधेरा था, और कोठी का कुत्ता ख़ामोश खड़ा उसे शक की नज़रों से घूर रहा था, उसने अपनी चाल में फ़र्क़ नहीं आने दिया, एतिमाद का ऐलान करती आहिस्ता चाल के साथ सामने से गुज़रा चला गया।
गुज़रते-गुज़रते एक नज़र कुत्ते पर डाली, उसे लगा कि उसकी आँखें शीशे की हैं, तो कुत्ते की पुतली भी गर्दिश नहीं करती, फिर उसे यूँही उस आदमी का ख़्याल आ गया कि जो अभी थोड़ी देर पहले उसके क़रीब से उसे ग़ौर से देखते हुए गुज़रा था, अजीब बात है कि दिन में कोई किसी की तरफ़ नहीं देखता, रात में हर कोई हर किसी को शक भरी नज़रों से देखता है।
कौन था वह? कौन? उसके ध्यान ने पटरी बदली और काफ़ी हाउस में चला गया, अगर वो पामिस्ट नहीं था तो फिर कौन था...? और मेरे हाथ का अक्स... उसका दिल डूबने लगा था, मगर उसने फ़ौरन ही झुरझुरी ली... मैं तो बिल्कुल क़ाज़ी साहब होता जा रहा हूँ, क़ाज़ी साहब के ख़्याल से उसे अजीब सा ख़्याल आया... इश्तियाक़, तुफ़ैल, हसनैन, आरिफ़, शफ़ीक़, सबको एक-एक करके वो ध्यान में लाया, उन्हें और उनकी पुतलियों को, क्या उनकी पुतलियाँ... उसने फिर झुरझुरी ली... मैं तो बिल्कुल शफ़ीक़ बनता जा रहा हूँ, और उसने लम्बे-लम्बे डग भरने शुरू कर दिए।
घर पहुँच कर उसने इतमीनान का साँस लिया, आज उसे ये मुख़्तसर सी मसाफ़त कितनी तवील नज़र आई थी, कमरे में जा कर उसने बिजली जलाई, कमरे की हर चीज़ क़रीने से रखी थी। शायद आज अम्माँ जी ने कमरे की सफ़ाई कराई है, कार्निस पर रखा हुआ बड़ा सा आईना जो कि सुबह तक मैला-मैला था कितना चमक रहा था, वो आईने के सामने खड़े होकर टाई खोलते-खोलते बे ध्यानी से अपना चेहरा ग़ौर से देखने लगा, अपना चेहरा, अपनी पुतलियाँ, मगर फिर उसे फ़ौरन ही ध्यान आ गया, वो आईने के सामने से हटा, कपड़े बदले और कुर्सी पर टाँगें उठा कर बैठ गया। इस तरह वो बैठ कर सुस्ताया करता था, ये उसकी पुरानी आदत थी।
बैठे-बैठे उसका ध्यान फिर ग़ोता खा गया, क़ाज़ी साहब ख़ूब बुज़ुर्ग हैं, लोगों की पुतलियाँ देखते हैं, तुफ़ैल की पुतली भी देखी होगी! इस तसव्वर से वो थोड़ा मुस्कुराया, मगर ध्यान फिर किसी और सम्त में निकल गया और ऊबड़-खाबड़ चाल चलने लगा, मेरे हाथ का अक्स... कौन था वो आदमी...? क़ाज़ी साहब... शफ़ीक़... जब गेट में दाख़िल हो कर मैंने लॉन में क़दम रखा था तो क़ाज़ी साहब ने मुझे कैसे देखा था... वैसे तो नहीं देखा था जैसे उस आदमी ने... मगर क्या ख़बर... और उसे लगा कि उसके हाथ का अक्स फैल गया है और सारी लकीरें शफ़ीक़, इश्तियाक़, तुफ़ैल, सब पर अयाँ हो गई हैं, वो हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ।
इसने अंगड़ाई लेते हुए सारे वसवसों और अंदेशों को यकसर झटका और सोचा कि रात जा रही है, अब सोना चाहिए। वो सख़्त थकन महसूस कर रहा था, सोच-सोच कर भी आदमी कितना थक जाता है, सोचा कि सोने से पहले मुँह-हाथ धो लो कि थकन उतरे और चैन की नींद आए, ये सोच कर वो बाथरूम की तरफ़ हो लिया, मुँह धोते-धोते उसने ताज्जुब करते हुए सोचा कि क्या इश्तियाक़ वाक़ई... मगर इश्तियाक़ शफ़ीक़ के बारे में भी कुछ कहता है, और शफ़ीक़ तो सब ही के बारे में कहता है। अजीब मज़हका-ख़ेज़ सूरत-ए-हाल है, वो हँस पड़ा मगर जब वो बाथ रूम से निकल कर तौलीया से मुँह पोंछ रहा था तो उसकी हँसी रुख़्सत हो चुकी थी। उसने थके हुए से अंदाज़ में सोचा कि शायद हम सब ही मशकूक हालात में नक़ल-ओ-हरकत कर रहे हैं। इश्तियाक़... तुफ़ैल... हसनैन... आरिफ़... और शायद शफ़ीक़ भी... और शायद मैं... मगर वो फ़ौरन ही ठिटक गया जैसे क़दम उठ गया मगर सामने खाई देख कर उठा का उठा रह गया हो, और आदमी एक टाँग पर बरक़रार रहने की कोशिश कर रहा हो।
मुँह पोंछते-पोंछते वो रुक गया था मगर फिर वो वसवसों की दुनिया से वापस आ गया, सब वाहिमों और वसवसों को दफ़ा कर के इत्मीनान से मुँह पोंछा, सर पोंछा, फिर तौलीया कुर्सी पर डाली, ठंडी-ठंडी उँगलियों से ठंडे-ठंडे बालों को सँवारने लगा। बालों को यूँ सँवारते-सँवारते वो कार्निस की तरफ़ बढ़ा, आईना देखने लगा था कि रुक गया, रूका, सोचा और फिर आईना उलट कर रख दिया, फिर बिजली गुल की और बिस्तर पर लेटते हुए तै किया कि शफ़ीक़ क़ाइल होने से रहा, तो क्यों वज़ाहत और सफ़ाई की कोशिश की जाए! फिर उसने करवट ली और सो गया।
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.