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मिलावट

MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    यह एक ईमानदार और साफ़ तबीयत के आदमी की कहानी है। उसने अपनी ज़िंदगी में कभी धोखा-धड़ी नहीं की थी। वह अपनी ज़िंदगी से ख़ुश था। उसने शादी करने की सोची मगर शादी में उसके साथ धोखा हुआ। इसके बाद वह जहाँ भी गया उसके साथ धोखा ही होता रहा। फिर उसने भी लोगों को धोखा देने की ठान ली। आख़िर में ज़िंदगी से तंग आकर उसने मरने की सोची और आत्महत्या के लिए उसने जो ज़हर ख़रीदा, उसमें भी मिलावट थी, जिसकी वजह से वह बच गया।

    अमृतसर में अली मोहम्मद की मनियारी की दुकान थी छोटी सी, मगर उसमें हर चीज़ मौजूद थी। उसने कुछ इस क़रीने से सामान रखा था कि ठुंसा ठुंसा दिखाई नहीं देता था।

    अमृतसर में दूसरे दुकानदार ब्लैक करते थे मगर अली मोहम्मद वाजिबी नर्ख़ पर अपना माल फ़रोख़्त करता था, यही वजह है कि लोग दूर दूर से उसके पास आते और अपनी ज़रूरत की चीज़ें ख़रीदा करते।

    वो मज़हबी क़िस्म का आदमी था, ज़्यादा मुनाफ़ा लेना उसके नज़दीक गुनाह था। अकेली जान थी, उसके लिए जायज़ मुनाफ़ा ही काफ़ी था।

    सारा दिन दुकान पर बैठता, गाहकों की भीड़ लगी रहती। उसको बा’ज़ औक़ात अफ़सोस होता जब वो किसी गाहक को सनलाईट साबुन की एक टिकिया दे सकता या केलिफ़ोरनियन पोपी की बोतल, क्योंकि ये चीज़ें उसे महदूद तादाद में मिलती थीं।

    ब्लैक करने के बावजूद वो ख़ुशहाल था। उसने दो हज़ार रुपये पस-अंदाज़ कर रखे थे। जवान था, एक दिन दुकान पर बैठे बैठे उसने सोचा कि अब शादी कर लेनी चाहिए। बुरे बुरे ख़याल दिमाग़ में आते हैं, शादी कर लूं कि ज़िंदगी में लताफ़त पैदा हो जाएगी। बाल बच्चे होंगे, उनकी परवरिश के लिए मैं और ज़्यादा कमाने की कोशिश करूंगा।

    उसके वालिदैन अ’र्सा हुआ अल्लाह को प्यारे हो चुके थे। उसकी कोई बहन थी भाई। वो बिल्कुल अकेला था। शुरू शुरू में जबकि वो दस बरस का था, उसने अख़बार बेचने शुरू किए। उसके बाद ख़वांचा लगाया, क़ुलफ़ियाँ बेचीं, जब उसके पास एक हज़ार रुपया जमा हो गया तो उसने एक छोटी सी दुकान किराए पर ले ली और मनियारी का सामान ख़रीद कर बैठ गया।

    आदमी ईमानदार था उसकी दुकान थोड़े ही अ’र्से में चल निकली... जहां तक आमदन का तअ’ल्लुक़ था वो उससे बेफ़िक्र था, मगर वो चाहता था घर बसाए। उसकी बीवी हो, बच्चे हों और वो उनके लिए ज़्यादा से ज़्यादा कमाने की कोशिश करे, इसलिए कि उसकी ज़िंदगी मशीन ऐसी बन गई थी। सुबह दुकान खोलता, गाहक आते, उन्हें सौदा देता, शाम को दुकान बंद करता और एक छोटी सी कोठरी में जो उसने शरीफ़पुरा में ले रखी थी, सो जाता।

    गंजे का होटल था, उसमें वो खाना खाता, सिर्फ़ एक वक़्त। सुबह नाश्ता जैमल सिंह के कटड़े में शाभे हलवाई की दुकान में करता, दुकान खोलता और शाम तक अपनी गद्दी पर बैठा रहता।

    उसके अंदर शादी की ख़्वाहिश शिद्दत इख़्तियार करती गई लेकिन सवाल ये था कि इस मुआ’मले में उसकी मदद कौन करे। अमृतसर में उसका कोई दोस्त यार भी नहीं था जो उसके लिए कोशिश करता।

    वो बहुत परेशान था, शरीफ़पुरा की कोठरी में रात को सोते वक़्त वो कई मर्तबा रोया कि उसके माँ बाप इतनी जल्दी क्यों मर गए? उन्हें और कुछ नहीं तो इसलिए ज़िंदा रहना चाहिए था कि वो उस की शादी का बंदोबस्त कर जाते।

    उसकी समझ में नहीं आता था कि वो शादी कैसे करे, बहुत देर तक सोचता रहा, इस दौरान में उस के पास तीन हज़ार रुपये जमा हो गए। उसने एक छोटे से घर को जो अच्छा ख़ासा था किराए पर ले लिया, मगर रहता वो शरीफ़पुरे ही में था।

    एक दिन उसने अख़बार में एक इश्तिहार देखा जिसमें लिखा था कि शादी के ख़्वाहिशमंद हज़रात हम से रुजूअ’ करें। बी.ए पास, लेडी डाक्टर, हर क़िस्म के रिश्ते मौजूद हैं, ख़त-ओ-किताबत कीजिए या ख़ुद के मिलिए।

    इतवार को वो दुकान नहीं खोलता था। उस दिन वो उस पते पर गया और उसकी मुलाक़ात एक दाढ़ी वाले बुज़ुर्ग से हुई। अली मोहम्मद ने अपना मुद्दआ बयान किया। दाढ़ी वाले बुज़ुर्ग ने मेज़ का दराज़ खोल कर बीस-पच्चीस तस्वीरें निकालीं और उसको एक एक कर के दिखाईं कि वो इनमें से कोई पसंद करे।

    एक लड़की की तस्वीर अली मोहम्मद को पसंद गई, छोटी उम्र की और ख़ूबसूरत थी। उसने शादियां कराने वाले एजेंट से कहा, “जनाब। ये लड़की मुझे पसंद है।”

    एजेंट मुस्कुराया, “तुमने एक हीरा चुन लिया है।”

    अली मोहम्मद को ऐसा महसूस हुआ कि वो लड़की उसकी आग़ोश में है, उसने गटकना शुरू कर दिया। “बस, जनाब आप बात पक्की कर दीजिए।”

    एजेंट संजीदा हो गया,” देखो बरखु़र्दार! ये लड़की जो तुमने चुनी है, इलावा हसीन होने के बहुत बड़े ख़ानदान से तअ’ल्लुक़ रखती है, लेकिन मैं तुमसे ज़्यादा फ़ीस नहीं मांगूंगा।”

    “आप की बड़ी नवाज़िश है, मैं यतीम लड़का हूँ, अगर आप मेरा ये काम कर दें तो आपको सारी उम्र अपना बाप समझूंगा।”

    एजेंट के मूंछों भरे होंटों पर फिर मुस्कुराहट नुमूदार हुई, “जीते रहो, मैं तुमसे सिर्फ़ तीन सौ रुपये फीस लूंगा।”

    अली मोहम्मद ने बड़े मुतशक्किराना लहजे में कहा, “जनाब का बहुत बहुत शुक्रिया, मुझे मंज़ूर है।”

    ये कह कर उसने जेब से तीन नोट सौ सौ रुपये के निकाले और उस बुजु़र्गवार को दे दिए।

    तारीख़ मुक़र्रर हो गई, निकाह हुआ, रुख़्सती भी हुई। अली मोहम्मद ने वो छोटा सा मकान किराए पर ले रखा था अब सजा सजाया था। वो उसमें बड़े चाव से अपनी दुल्हन ले कर आया। पहली रात का तसव्वुर मालूम नहीं उसके दिल-ओ-दिमाग़ में किस क़िस्म का था, मगर जब उसने दुल्हन का घूंघट हाथों से उठाया तो उसको ग़श सा गया।

    निहायत बदशक्ल औरत थी, सरीहन उस मर्द बुज़ुर्ग ने उसके साथ धोका किया था। अली मोहम्मद लड़खड़ाता कमरे से बाहर निकला और शरीफ़पुरे जा कर अपनी कोठरी में देर तक सोचता रहा कि ये हुआ क्या है, लेकिन उसकी समझ में कुछ भी आया।

    उसने अपनी दुकान खोली, दो हज़ार रुपये वो अपनी बीवी का हक़-ए-मेहर अदा कर चुका था। तीन सौ रुपये उस एजेंट को। अब उसके पास सिर्फ़ सात सौ रुपये थे। वो इस क़दर दिल बर्दाश्ता हो गया था कि उसने सोचा शहर ही छोड़ दे। सारी रात जागता रहा और सोचता रहा। आख़िर उसने फ़ैसला कर ही लिया। सुबह दस बजे उसने अपनी दुकान एक शख़्स के पास पाँच हज़ार रुपये में या’नी औने पौने दामों बेच दी और टिकट कटवा कर लाहौर चला आया।

    लाहौर जाते हुए गाड़ी में किसी जेब कतरे ने बड़ी सफ़ाई से उसके तमाम रुपये ग़ायब कर दिए। वो बहुत परेशान हुआ, लेकिन उसने सोचा कि शायद ख़ुदा को यही मंज़ूर था।

    लाहौर पहुंचा तो उसकी दूसरी जेब में जो कतरी नहीं गई थी, सिर्फ़ दस रुपये और ग्यारह आने थे उससे उसने चंद रोज़ गुज़ारा किया लेकिन बाद में फ़ाक़ों की नौबत गई।

    इस दौरान में उसने कहीं कहीं मुलाज़िम होने की बहुत कोशिश की मगर नाकाम रहा... वो इस क़दर मायूस हो गया कि उसने ख़ुदकुशी का इरादा कर लिया, मगर उसमें इतनी जुरअत नहीं थी। इसके बावजूद एक रात वो रेल की पटरी पर लेट गया, ट्रेन रही थी मगर कांटा बदला और वो दूसरी लाईन पर चली गई कि उसे उधर ही जाना था।

    उसने सोचा कि मौत भी धोका दे जाती है, चुनांचे उसने ख़ुदकुशी का ख़याल छोड़ दिया और हल्दी और मिर्चें पीसने वाली एक चक्की में बीस रुपये माहवार पर मुलाज़मत इख़्तियार कर ली।

    यहां उसे पहले ही दिन मालूम हो गया कि दुनिया धोका ही धोका है। हल्दी में पीली मिट्टी की मिलावट की जाती थी और मिर्चों में सुर्ख़ ईंटों की।

    दो बरस तक वो इस चक्की में काम करता रहा, उसका मालिक हर महीने कम अज़ कम सात सौ रुपये माहवार कमाता था, इस दौरान में अली मोहम्मद ने पाँच सौ रुपये पस-अंदाज़ कर लिये थे। एक दिन उसने सोचा, जब सारी दुनिया में फ़रेब ही फ़रेब है तो वो भी क्यों फ़रेब करे।

    उसने चुनांचे एक अ’लाहिदा चक्की क़ायम कर ली और उसमें मिर्चों और हल्दी में मिलावट का काम शुरू कर दिया। उसकी आमदनी अब काफ़ी मा’क़ूल थी उसको शादी का कई बार ख़याल आया मगर जब उसकी आँखों के सामने उस पहली रात का नक़्शा आया तो वो काँप-काँप गया।

    अली मोहम्मद ख़ुश था, उसने फ़रेबकारी पूरी तरह सीख ली थी। उसको अब उसके तमाम गुर मालूम हो गए थे, एक मन लाल मिर्चों में कितनी ईंटें पिसनी चाहिऐं, हल्दी में कितनी ज़र्द रंग की मिट्टी डालनी चाहिए और फिर वज़न का हिसाब, ये अब उसको अच्छी तरह मालूम था।

    लेकिन एक दिन उसकी चक्की पर पुलिस का छापा पड़ा। हल्दी और मिर्चों के नमूने बोतलों में डाल कर मोहरबंद किए गए, और जब केमिकल एग्जामिनर की रिपोर्ट आई कि इनमें मिलावट है तो उसे गिरफ़्तार कर लिया गया।

    उसका लाहौर में कौन था जो उसकी ज़मानत देता। कई दिन हवालात में बंद रहा, आख़िर मुक़द्दमा अदालत में पेश हुआ और उसको सौ रुपया जुर्माना और एक महीने की क़ैद बामुशक़क़्त की सज़ा हुई।

    जुर्माना तो उसने अदा कर दिया लेकिन एक महीने की क़ैद बामुशक़क़्त उसे भुगतना ही पड़ी। ये एक महीना उसकी ज़िंदगी में बहुत कड़ा वक़्त था। इस दौरान में वो अक्सर सोचता था कि उसने बे-ईमानी क्यों की जबकि उसने अपनी ज़िंदगी का ये उसूल बना लिया था कि वो कभी फ़रेबकारी नहीं करेगा।

    फिर वो सोचता कि उसे अपनी ज़िंदगी ख़त्म कर लेनी चाहिए, इसलिए कि वो इधर का रहा उधर का, उसका किरदार मज़बूत नहीं। बेहतर यही है कि मर जाये ताकि उसका ज़ेहनी इज़्तराब ख़त्म हो।

    जब वो जेल से बाहर निकला तो वो मज़बूत इरादा कर चुका था कि ख़ुदकुशी कर लेगा ताकि सारा झंझट ही ख़त्म हो। इस ग़रज़ के लिए उसने सात रोज़ मज़दूरी की और दो तीन रुपये अपना पेट काट काट कर जमा किए। इसके बाद उसने सोचा, कौन सा ज़हर होगा जो कारआमद हो सकता है।

    उसने सिर्फ़ एक ही ज़हर का नाम सुना था जो बड़ा क़ातिल होता है... संख्या, मगर ये संख्या कहाँ से मिलती?

    उसने बहुत कोशिश की, आख़िर उसे एक दुकान से संख्या मिल गई। उसने ईशा की नमाज़ पढ़ी, ख़ुदा से अपने गुनाहों की माफ़ी मांगी कि वो हल्दी और मिर्चों में मिलावट करता रहा, फिर रात को संख्या खाई और फुटपाथ पर सो गया।

    उसने सुना था संख्या खाने वालों के मुँह से झाग निकलते हैं, तशन्नुज के दौरे पड़ते हैं, बड़ा कर्ब होता है, मगर उसे कुछ भी हुआ। सारी रात वो अपनी मौत का इंतिज़ार करता रहा मगर वो आई।

    सुबह उठ कर वो उस दुकानदार के पास गया जिससे उसने संख्या ख़रीदी थी और उससे पूछा, “भाई साहब! ये आपने मुझे कैसी संख्या दी है कि मैं अभी तक नहीं मरा।”

    दुकानदार ने आह भर के बड़े अफ़सोसनाक लहजे में कहा, “क्या कहूं मेरे भाई, आजकल हर चीज़ नक़ली होती है या उसमें मिलावट होती है।”

    स्रोत:

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      • प्रकाशन वर्ष: 1955

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