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मोहब्बत की देवी

नियाज़ फ़तेहपुरी

मोहब्बत की देवी

नियाज़ फ़तेहपुरी

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    स्टोरीलाइन

    यह एक ऐसी लड़की की कहानी है, जो अपने हुस्न और पाक-दामनी की वजह से पूरे इलाक़े में मशहूर है। वह जब मंदिर में पूजा करने आती है, उसकी एक झलक पाने के लिए वहाँ सैंकड़ों लड़कों की क़तार लगी रहती है। मगर न चाहते हुए भी जिसकी मोहब्बत में तड़पते हुए वह अपनी जान दे देती है, वह कोई और नहीं, मोहम्मद क़ासिम होता है।

    (1)

    ज़मीन जाने कितनी बार आफ़ताब के गिर्द तसद्दुक़ हो चुकी है, मालूम नहीं चाँद कितनी मर्तबा कुर्रा-ए-अर्ज़ की ओट से अपनी पेशानी का हलाल दिखा-दिखा कर ग़ायब हो गया और ज़मीन के बुख़ारात मालूम कितनी दफ़ा फ़िज़ाए आसमानी में अब्र बन-बन कर क़तरा ज़न हुए, लेकिन राधा ने जो अज़लत-नशीनी इख़्तियार कर ली, वो उसी तरह क़ायम रही, और देबल के किसी मंदिर में पूजा करने के लिए वो कभी आई।

    सुब्ह-ओ-शाम, मंदिरों के घंटे अब भी हवा में गूँजा करते हैं, देबल की आबादी अब भी बदस्तूर अपनी पुर ख़ुलूस पेशानियों को बोध के मुक़द्दस अस्थान के सामने घुसती हुई नज़र आती है, लेकिन राधा फिर अपने मकान से निकली और मंदिर में आने वाला हर नौजवान ये महसूस करने लगा कि आसमान की इस अलहतह-उल-जमाल (ज़ुहरा) की तरह जो चेहरे पर एक बार नक़ाब डाल लेने के बाद उफ़ुक़ मग़रिब को एक ज़माना दराज़ के लिए बे नूर बना जाती है, अब शायद राधा भी नज़र आएगी। नग़मा हाय परस्तिश, माबद के दर-ओ-दीवार से अब भी सदाए बाज़-गश्त पैदा करते हैं, चंग-ओ-रबाब के तार वहाँ की फ़िज़ा में अब भी अपनी लरज़िशों को मूसीक़ी में तब्दील करते रहते हैं, लेकिन एक राधा के आने से जो उदासी वहाँ की फ़िज़ा में पैदा हो गई है गो उसका इल्म बोध के पुजारियों को हो लेकिन देबल का एक-एक नौजवान उसका ज़ख़्म अपने दिल में लिए हुए है।

    (2)

    आफ़ताब ग़ुरूब हो गया है, और क़रीब की पहाड़ी जो बारिश के असर से ज़मुर्रद बन चुकी है, उन गल्ला बानों की बाँसुरियों से जो अपना विदाई राग क़ुदरत के उस शादाब चरागाह को सुना रहे हैं, मामूर हैं। राधा अपनी झोंपड़ी के सामने एक पत्थर पर बैठी हुई है, उस मंज़र को देख रही है और इस तरह मुतहय्यर है गोया वो एक बुत है, जिसे यूनान के अह्द-ए-ज़र्रीं में यहाँ नसब किया गया था, और अब इसकी परस्तिश करने वाले दुनिया से उठ गए हैं। इसकी सूरत से इश्क़ का ऐसा सोग टपक रहा है, मोहब्बत का वो सूर ज़ाहिर हो रहा है, गोया कि वो अंदर ही अंदर सती हुई जा रही है और दुनिया में इस रस्म का देखने वाला और इस नौजवान ग़म-ज़दा लड़की पर आँसू बहाने वाला कोई नहीं है।

    राधा देबल की उन चंद लड़कियों में से थी जिनके हुस्न की दास्तानों से वहाँ की रंगीन महफ़िल ख़ाली नज़र आती थी, लेकिन राधा इसलिए ज़ियादा तबाह-कुन थी कि उसके हुस्न के साथ कोई आरज़ू वाबस्ता हो सकी थी और वो अपनी शोहरत के लिहाज़ से इस क़दर बुलंद थी कि एक इंसान का उससे मोहब्बत करना गोया मला-ए-आला की किसी मख़लूक़ से मुहब्बत करना था, इसलिए जब तक वो एक मंदिर में आती रही, एक देवी ही की तरह उसकी इज़्ज़त की गई और जब उसने आना तर्क कर दिया, तो किसी में हिम्मत हुई कि उसके मकान तक जाए, क्योंकि एक देवी के ख़लवत ख़ाने में किसी इंसानी हस्ती का गुज़र नहीं हो सकता।

    (3)

    परमात्मा, मैं क्या करूँ? मैं इस शर्म का इज़हार क्यों करूँ, जो तेरा नाम लेते ही मेरे सारे जिस्म को ऐसा बना देती है जैसे बेद की वो नाज़ुक डाली, जो हवा का हल्का सा झोंका गुज़र जाने के बाद घंटों थरथराया करती है, काँपा करती है, लोग कहते हैं राधा ने तेरी पूजा छोड़ दी, बेशक छोड़ दी लेकिन उन्हें कैसे यक़ीन दिलाऊँ कि राधा अब तेरा नाम लेने और तेरे सामने सर झुकाने के क़ाबिल नहीं रही। अपने दिल में जिस आरज़ू की परवरिश कर रही हूँ, उसका तअल्लुक़ इस जिस्म से है। मैंने तेरे लिए तज दिया है मगर वो आरज़ू तुझसे अलैहदा है, फिर जिसने तेरी परस्तिश इस तरह की हो कि जिसके साथ उसकी रूह भी तेरे रूबरू झुक जाए वो क्योंकर तेरा नाम ले सकती है जबकि दिल में तेरे सिवा किसी और की मूरत मौजूद हो और रूह तेरे अलावा किसी और सूरत के लिए बेताब।

    मैं जानती हूँ कि तू मेरी परस्तिश का मुहताज नहीं, तुझ पर क़ुर्बान होने के लिए मुझसे ज़्यादा अच्छी रूहें मौजूद हैं लेकिन मैं अपने इस दर्द को कहाँ ले जाऊँ, जो तेरी जुदाई से पैदा हो गया है। परमात्मा, ये किस क़िस्म का अज़ाब है कि मैं तुझसे जुदा हो सकती हूँ और मिल सकती हूँ, ये किस आग में तूने डाल दिया है, जो जलाती है और आज़ाद करती है।

    वो दिन जब तेरे अस्थान पर तेरे पुजारियों की क़ुर्बानी हो रही थी और मैं भी इस ख़्याल से उस शख़्स की तरह जिसने कोई तेज़ शराब पी ली हो, मस्त-ओ-मख़मूर थी कि अनक़रीब किसी ज़ालिम की तलवार मेरे सीने में भी तैर जाएगी, और मैं अपनी हयात का आख़िरी क़तरा-ए-रंगीन तेरे हुज़ूर में पेश कर सकूँगी। आह वो वक़्त मैं कुछ नहीं भूल नहीं सकती, जब उसी हाल में उन ज़ालिमों के सरदार ने दफ़्अतन आकर उस खूँ-रेज़ी को रोक दिया, और उसको देखते ही मेरा वो सजदा जो तेरे लिए ज़मीन बोस था, चुपके ही चुपके उसकी हसीन ज़ालिम सूरत के लिए मुंतक़िल हो गया। मैंने महसूस किया कि तूने अपने गहरे उमुक़ में गिरा दिया, लेकिन रूह फिर भी इसी के लिए सर-ब-सुजूद थी और तुझे भूल जाने और तुझसे जुदा हो जाने पर ज़्यादा मग़्मूम थी।

    लेकिन परमात्मा में तेरा एहसान क्योंकर भुला सकती हूँ कि उसपर भी तूने मुझे बचाया और तेरे लिए कुछ मुश्किल था कि उसके सामने एक बार बे हिजाबाना चली जाती और मोहब्बत की वो तमाम लज़्ज़तें हासिल कर लेती, जिसके लिए मैं अब भी वैसी ही बेक़रार हूँ जैसी तेरी क़दमों में हुआ करती थी, फिर जबकि तूने मेरी नापाक हस्ती पर इतना करम किया तो क्या उसको और ज़्यादा वसीअ नहीं कर सकता, क्या तेरी उंगलियाँ मेरे दिल को फेंक नहीं दे सकतीं, जिसने तेरी परस्तिश को छीन लिया है। मैं राज़ी हूँ अगर इस मोहब्बत का निकलना जान का निकलना हो, और इस ख़लिश का दूर होना, जिस्म से रूह का जुदा हो जाना हो।

    महीनों हो गए कि सुब्ह-ओ-शाम तेरे घंटों की आवाज़ सुन-सुन कर काँप उठती हूँ, इक ज़माना हो गया कि रोज़ तेरे अस्थान पर जा कर जान देने के लिए तड़प-तड़प गई हूँ लेकिन डरती हूँ कि कहीं मेरे नापाक क़दम तेरे मुक़द्दस मअबद को ख़राब कर दें, कहीं तू इस गुस्ताख़ी से बरहम होकर मेरे दिल के अंदर वो जज़्बा पैदा कर दे जो एक औरत के दिल से पाक दामनी की इज़्ज़त को महव कर देता है, परमेश्वर रहम कर और मोहब्बत के उस तूफ़ान को, जिसकी लहरों पर मैंने नाज़ुक और टूटी हुई कश्ती इस क़दर बेरहमी से डाल दी है, दूर कर दे, तेरे ग़ुस्से की आग में जल जाना मुझे मंज़ूर है, लेकिन उस तूफ़ान की मौजों में अपनी लाश दफ़न करना मुझे गवारा नहीं, कोई लम्हा ऐसा नहीं गुज़रता जब मैं उस काफ़िर की सूरत-ओ-सीरत में हज़ारों ऐब निकालती हूँ, मैं दिल को हर तरह से यक़ीन दिलाती हूँ कि उसकी आँखें ख़ूँख़ार हैं, उसकी फ़ितरत जफ़ाकार है, उसकी चितवन ग़ज़ब-आलूद है और उसकी सारी हस्ती नापाक-ओ-मरदूद लेकिन ऐन उस वक़्त जबकि मैं ये सब कुछ समझना चाहती हूँ, दिल तड़प कर ख़ून की एक गर्म मौज मेरे तमाम शराइन में दौड़ा देता है और मैं उस शराब के नशे से मग़्लूब होकर फिर उसको पूजने लगती हूँ जिस को ज़लील समझना चाहिए लेकिन मैं नहीं समझ सकती। फिर तू ही बता कि इस जंग में कब तक मसरूफ़ रहूँ और क्योंकर अपनी शिकस्त की लज़्ज़त को मह्व कर दूँ।

    राधा पर इस ख़्याल में चंद महीने गुज़र जाते हैं और उसकी मोहब्बत हरारत की उस मंज़िल तक पहुँच जाती है जिसे मुस्तलहात-ए-इल्म-इल-कीमिया में दर्जा-ए-ब्याज़ से तामीर करते हैं और जिसके बाद कायनात की हर चीज़ सिर्फ़ दुख़ान हो कर फ़िज़ा में तहलील हो जाती है, हक़ीक़त ये है कि मोहब्बत जो चिंगारी की सूरत में उसके दिल के अंदर मुतमक्किन हुई थी उसके लिए राधा का हर तनफ़्फ़ुस हवा का झोंका साबित हुआ। यहाँ तक कि चंद माह के अंदर वो चिंगारी इश्तिआल-ओ-इलहाब के तमाम मदारिज तै कर गई और अब उसके लिए सिर्फ़ यही बाक़ी रह गया था कि वो किसी दिन अपने झोंपड़े के गोशे में ख़ाकिस्तर का ढेर नज़र आए या एक आह होकर हवा में मिल जाए।

    उसकी ग़रीब बेवा माँ ने इलाज-ओ-चारा-साज़ी में पूरी कोशिश सर्फ़ कर दी, जिस हद तक उसका अख़लाक़ इजाज़त दे सकता था। उसने कोई दक़ीक़ा उस कोशिश में उठा रखा कि देबल का ये चाँद गहन से निकल आए लेकिन वो कामयाब नहीं हुई और राधा रोज़ निढाल होती गई, गोया वो एक शमा सबाही थी जिसके मुज़्महिल शोले सिर्फ़ हलक़ा-ए-शमादान ही के अंदर कुछ-कुछ नज़र आते हैं।

    उसका जिस्म जो पहले भी बहुत नाज़ुक था अब ख़तरनाक हद तक नाज़ुक हो गया था और उस आबगीना ने अब हुबाब, एक निहायत ही नाज़ुक हुबाब की सूरत इख़्तियार कर ली थी, उसका वो रंग जो कभी-कभी मालूम होता था कि जिल्द के नीचे पिघला हुआ सोना दौड़ रहा है, रफ़्ता-रफ़्ता ज़ाफ़रानी, ज़र्द और सफ़ेद है कि अब ऐसा नज़र आता था गोया राधा कोई चाँद की मूरत है, जिसपर पारा की सैक़ल कर दी गई है। उसकी लांबी-लांबी घनी पलकें जो हसीन आँखों पर चार शफ़ के सियाह रेशमी नक़ाब की तरह पड़ी रहती थीं, उसकी ख़ूबसूरत लांबी-लांबी गर्दन जिसकी सबाहत में कौसर-ओ-नसीम का रंग झलका करता था, उसका वो जिस्म जो सीना कमर के तनासुब और नशेब-ओ-फ़राज़ को पेश करके दुनियाए जज़्बात में ख़ुदा जाने किस क़िस्म का तलातुम बरपा करता था, उसकी वो प्यारी-प्यारी पेशानी जिसका संदल-ओ-ग़ाज़ा मिल कर एक मलकूती मंज़र पेश किया जाता था, उसके वो लांबे-लांबे बाल जो हज़ारों हलक़े बनाते हुए उलझी हालत में भी कमर को उबूर कर जाते थे, उसके वो रुख़सार जिनको दुनिया ने हमेशा शोला-ए-बिल्लौरीं समझा, उसका वो शबाब जिसके अंदर कायनात के तमाम समुंदरों का शदीद तरीन तूफ़ान अंदर ही अंदर जोश खाता हुआ मालूम होता था, अल ग़रज़ राधा अपनी तमाम ख़ुसूसियात-ए-जमाल के साथ जिन्हें फ़ितरत मुश्किल ही से कभी किसी एक हस्ती में जमा कर देती है। उस वक़्त कायनात ग़ायत-दर्जा मुज़्महिल और सोगवार थी, लेकिन बावजूद इसके, उसकी आँखों का जिनकी कैफ़ियात को दुनिया का कोई लिट्रेचर क़लम बंद नहीं कर सकता, ये आलम था कि बजाय निगाहों के उनसे कुहर बाई ख़ुतूत निकलते हुए नज़र आते थे और उनकी लमआनियत तमाशा सोज़ हद तक बढ़ गई थी।

    (4)

    देबल में आज मातम बपा है, हर तरफ़ हुज़न-ओ-मलाल के आसार नमूदार हैं और हर शख़्स बेताब-ओ-मुज़्तरिब है, दुकानें बंद हैं, बाज़ार की चहल पहल मौक़ूफ़ है और लोग परेशान हैं कि उन्हें अब ऐसा हुक्मरान क्योंकर नसीब होगा, दुनिया में कौन ऐसा है जो उनके साथ इस रवादारी को ज़ायज़ रखेगा। ऐसा फ़रमां रवा जिसने बावजवूद अजनबी होने के कभी हमारी परस्तिशों से तअर्रुज़ नहीं किया, जो हमारी नाक़ूस की आवाज़ों से कभी चीं-ब-जबीं हुआ, जिसने हमारे हुक़ूक़ कभी पामाल नहीं किए, जिसने एक मामूली जज़्बे के एवज़ में हमारे जान-ओ-माल की पूरी हिफ़ाज़त की और जो हमेशा नज़ाआत को हमारे ही मज़हब के मुताबिक़ फ़ैसला करता रहा। अब दोबारा नहीं सकता, फ़ितरत इस राहत रसानी की तकरार मुश्किल से करती है। सिंध के आमिल को गए हुए महीनों हो गए और उसकी इज़्ज़त-ओ-अज़मत की यादगार आख़िर इस सूरत से परस्ताराना जज़्बात में मुंतक़िल हो गई कि ब्रह्मनों ने उसका बुत तैयार किया ताकि रोज़ सुबह को उसके सामने सर एतिकाफ़ झुका कर उसकी रूहानी बरकात हासिल किया करें।

    रात का सुकून आलम का मुहीत है, चाँद देबल की ख़्वाब-आलूद आबादी पर अपनी शुआएँ डालता हुआ गुज़र रहा है और राधा भी आहिस्ता-आहिस्ता सपेद चादर ओढ़े हुए एक नूरानी साये की तरह अपने झोंपड़े से निकलती है और मअबद अज़ीम में दाख़िल हो जाती है।

    (5)

    मेरी रूह पर ज़ुल्म करने वाले इंसान! मेरे बदन में मोहब्बत की आग फूँक देने वाले ज़ालिम देवता! क्या ख़ुदा की इस वसीअ आबादी में तेरे सिवा और कोई था जिसकी आरज़ू से मैं अपने दिल को आबाद कर सकती, जिसकी सूरत मेरे दिमाग़ में मनक़ूश हो जाती। मैं कि जिसके सामने सुबह का देवता भी अपनी तमाम नर्म-ओ-ख़ुनक रौशनियों के साथ अगर सिर्फ़ एक निगाह-ए-लुत्फ़-ओ-करम का उम्मीदवार होता तो कभी कामयाब हो सकता। मैं कि शाम के देवता को भी सिर्फ़ उसकी रंगीन मलाहतों की वजह से क़ाबिल-ए-तवज्जो समझती हूँ कि जिसके रू बरू क़ौस-ए-क़ज़ह की रंगीनियाँ, चाँद की सीम अफ़शानियाँ, फूलों की निकहत, बहार की तलअत और तमाम वो चीज़ें जिन्हें ज़मीन-ओ-आसमान में हसीन कहा जा सकता है, कोई कशिश-ओ-जाज़िबीयत रखती थीं, तेरी सिर्फ़ एक निगाह की हरीफ़ बन सकी और अपने सारे वक़ार को इस तरह तेरे ऊपर क़ुर्बान कर दिया जिस तरह वो कोई सबसे बुरी चीज़ हो।

    दुनिया में कैसे-कैसे जवान, कैसे-कैसे हसीन मौजूद हैं और इस मंदिर के अंदर मुझे मालूम है कि जब मैं फूल चढ़ाने आया करती थी, सर ज़मीन-ए-देबल के कैसे-कैसे नौजवान सूरमा सिर्फ़ इस इंतिज़ार में घंटों खड़े रहा करते थे कि शायद भूल कर ही इनमें किसी की तरफ़ देख लूँ लेकिन उस मुक़द्दस जगह का एक-एक ज़र्रा गवाह है कि मेरी निगाह कभी भी घूँघट के अंदर भी पलकों से बाहर नहीं निकली। क्योंकि मैं समझती थी कि उनको देख लेना उनमें किसी की आरज़ू का पैदा कर देना है, जिसका पूरा करना मेरे इख़्तियार में था, लेकिन तू दफ़्अतन नमूदार हुआ और तूने मुझे सिर्फ़ एक नज़र से इस तरह बे दस्त-ओ-पा कर दिया जैसे कमंद से हिरन। मैंने उसी वक़्त चाहा कि तू कोई गुस्ताख़ी करे, मेरी जानिब दस्त-ए-हिर्स दराज़ करे और मैं तेरे ऐलान की तरफ़ से मुतनफ़्फ़िर होकर तुझसे बेज़ार हो जाऊँ और इस तरह तेरे ख़्याल को दिल से निकाल सकूँ।

    लेकिन मुझ पर कैसा शदीद ज़ुल्म किया, तेरे शरीफ़ाना अख़लाक़ कि मंदिर में मुझे लरज़ा बर अंदाम देखते ही तूने एक निगाह-ए-मोहब्बत फ़िरोज़ तो ज़रूर डाली, लेकिन उसके बाद अगर तूने मुझसे बात भी की तो इस तरह गोया तू मुझे शराफ़त-ओ-इज़्ज़त की देवी समझता है, और तुझमें निगाह उठा कर बात करने की भी जुरअत नहीं है। तू फ़ातिह था... अगर तू चाहता तो देबल की हर हसीन लड़की तेरी ख़िदमत करने के लिए हाज़िर हो सकती थी, चे जाए कि मुझ ऐसी ग़रीब-ओ-बेकस लड़की कि अगर तू उस वक़्त मुझे ज़ब्ह भी कर देता तो कोई तुझसे मेरे क़सूर का पूछने वाला था, लेकिन तूने बावजूद इसके कि उन्फ़ुवान-ए-शबाब के तमाम जज़्बात तकमील के साथ तेरे हर-हर उज़्व से टपक रहे थे, मुझे जो शायद बजा तौर से अपने हुस्न-ओ-शबाब पर नाज़ कर सकती थी कोई हया-सोज़ इलतिफ़ात नहीं किया।

    फिर उस वक़्त से कि तूने हिफ़ाज़त के साथ मेरे घर तक पहुँचा दिया, उस वक़्त तक कि मैं तेरी हसीन तस्वीर तेरी मुक़द्दस मूरत के सामने सर-ब-सुजूद हूँ तूने मेरी तलाश नहीं की, हालाँकि मुझे तेरी भी बेक़रारी का हाल मालूम था, तूने मुझे बे हिजाब देखना भी गवारा नहीं किया, हालाँकि मैं जानती हूँ तू इसके लिए क्या-क्या तड़पा किया। सिर्फ़ इसलिए कि तूने मेरी इज़्ज़त के मुक़ाबले में अपनी तमन्नाओं का ख़ून कर देना आसान समझा और तूने ये भी गवारा नहीं किया कि लोग राधा को बुरी तरह याद करें।

    मैं एक उम्र तक पत्थर की उन मूरतों के सामने पेशानी घिसती रही। लेकिन हदूद-ए-इंसानियत से एक क़दम भी आगे रख सकी। तूने सिर्फ़ एक बार अपना चेहरा दिखाया और मैं इस मक़ाम तक पहुँच गई जहाँ किसी देवी की रसाई नहीं। फिर अब जबकि तू यहाँ नहीं है और शायद कभी आएगा, मैं सिवाय इसके और क्या कर सकती हूँ कि जब तक ज़िंदा रहूँ सिर्फ़ तेरी ही परस्तिश करूँ और एक नए मज़हब की बुनियाद डाल दूँ, जो दुनिया वालों को परस्तिश-ओ-शराफ़त की तालीम दे। तेरे लिए मेरी ज़िंदगी के तमाम आँसू सर्फ़ हो चुके, मेरे बदन का एक-एक बाल तेरे लिए रो चुका, यानी परस्तिश की इस मामूली मंज़िल से हर शख़्स वाक़िफ़ है, मैं गुज़र चुकी, फिर अब मैं तुझे सिर्फ़ रूह हो कर पूजना चाहती हूँ, क्योंकि तेरे एहसान से ओहदा बर होने और तुझसे मिल रहने की तमन्ना अब शायद उसी तरह पूरी हो सकती है।

    (6)

    सुबह होते ही सारे देबल को मालूम हो जाता है कि राधा जिसने महीनों से मंदिर का जाना तर्क कर दिया था, रात पूजा के लिए आई और मर गई। लोग मुतहय्यर थे और उनकी समझ में आता था कि ये क्योंकर हुआ, मगर रौशनी के सामने, मोहम्मद क़ासिम की वो तस्वीर जो उससे क़ब्ल मुज़्महिल नज़र आया करती थी मसरूर थी और ये मालूम होता कि उसके अंदर कोई रूह दौड़ गई है।

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