मोम की मरयम
स्टोरीलाइन
किसी भी चीज़ की क़द्र तभी होती है जब हम उसे खो देते हैं। स्मृतियों के सहारे चलने वाली यह एक ऐसी ही कहानी है। अब वह नहीं है, लेकिन वह हर जगह है। उसे आयशा का ख़त मिला, जिसमें कु़दसिया की मौत का ज़िक्र था। कु़दसिया, मोम की मरियम की तरह जो हर दुख, तकलीफ़ और नागवार हालात को बर्दाश्त करती रही। वह उससे हमेशा नफ़रत करता रहा है और वह नज़र-अंदाज़ किए जाने के बाद भी उससे मोहब्बत करती रही।
आज भी अँधेरे में लेटा मैं ख़्याली ह्यूलों से खेल रहा था।
और जब भी अंधेरा छा जाता है तुम ना जाने कहाँ से निकल आती हो। जैसे तुमने तारीकी की कोख से ही जन्म लिया हो और मजबूरन मुझे जले हुए सिगरेट की राख की तरह तुम्हें भी ज़मीन पर झटक देना पड़ता है।
मैंने कभी तुम्हारे सामने हाथ नहीं फैलाए। कभी तुम्हारे ऊपर नज़्में नहीं लिखीँ। कभी तुम्हारी याद में तारे नहीं गिने। फिर क्यों तुम्हें याद किए जाऊं...?
ज़िंदगी में तुमसे इतनी दूर रहा कि कभी इस रंग-ओ-बू के सैलाब में ग़र्क़ न हो सका जो तुम्हारे चारों तरफ़ फैला हुआ था। हमारे बीच में झूटी अक़ीदत और मज़हकाख़ेज़ एहतिराम की ख़लीज हाइल रही। फिर आज तुम अपनी आहों और सिसकियों से कौन से दबे हुए जज़्बे जगाना चाहती हो...?
आज सुबह आयशा के ख़त से मुझे तुम्हारी मौत की ख़बर मिल चुकी है मगर मैं उस मौत पर इज़हार-ए-अफ़सोस न कर सका। रोज़ाना जाने कितने बादल बिना बरसे गुज़र जाते हैं। कितने नग्में साज़ के अंदर ही दम तोड़ देते हैं। कितने इन्सान एक लम्हे की ख़ुशी ढूंडते ढूंडते मर जाते हैं। फिर तुम्हारी मौत तो मेरे सामने कितनी बार हो चुकी है। अगर माद्दी तौर पर तुम चलती फिरती नज़र आती थीं। बिल्कुल इसी तरह जैसे आज मेरे कमरे में आ बैठी हो।
जब से आयशा का ख़त पढ़ा है मेरे ख़यालात कटी हुई पतंग की तरह डोलते फिरते हैं और न जाने क्यों बहुत सी धुंदली धुंदली यादें झिलमिलाने लगी हैं और अंधेरे-उजाले में बहुत से चेहरे ग़लत-मलत हो गए हैं।
मगर इस वक़्त तुम्हारे ख़याली वुजूद से बातें नहीं कर रहा हूँ क्यों कि तुम्हारी जानी-पहचानी सिसकियाँ मुझको तुम्हारी मौजूदगी का यक़ीन दिला रही हैं तो मैं इसे वाहिमा कैसे तसव्वुर कर सकता हूँ...?
तुम्हारा और अंधेरे का हमेशा का साथ रहा है। तुम ज़िंदगी-भर जहां-जहां भी गईं चिराग़ गुल होते गए। तारीकी के हलक़े तुम्हें अपने घेरे में असीर किए रहे। जिस तरह मरियम की तस्वीर के गिर्द मुसव्विर ने नूर का हाला खींच दिया है। इस्मत, तक़द्दुस और मासूमियत की लकीरें जिनके अंदर पाक मरियम की रूह को महसूर कर दिया गया है।
इस वक़्त भी जब तुम्हारे स्याह मुस्तक़बिल की तरह कमरे में तारीकी छाई हुई है। तुम्हारे आँसू यूं चमक रहे हैं जैसे पर पुर उम्मीद बहरीन ने दरिया की सतह पर चराग़ों की क़तार छोड़ दी हो। मेरे कमरे में तुम्हारे आँसुओं ने उजाले की उम्मीद क़ायम कर रखी है... हम मशरिक़ के मर्द सदियों से अपनी ऐश-गाहों में तुम्हारे अश्कों से चराग़ां मनाते आए हैं...
तुम्हारे मुताल्लिक़ लोगों ने जो कहानियां मशहूर कर रखी थीं वो बिल्कुल सतही थीं और इसीलिए मैंने हक़ीक़त की सतह पर उतर कर तुम्हें समझना चाहा था... तुम क्या थीं! अमावस की रात को टूटने वाला एक सितारा जो अपनी आख़िरी झलक से बहुत से दिलों में उम्मीद की किरन चमका कर ग़ायब हो जाये... एक तुंद लहर जो अपने ज़ोअम में साहिल के परख़चे उड़ा देने के साथ ख़ुद भी मिट गई हो।
आज जब तुम अपने गुनाहों की लंबी फ़हरिस्त समेत ख़ुद ही मेरे कमरे में आ गई हो तो मुझे एतिराफ़ करना पड़ता है कि तुम एक आम सी लड़की होने के बावजूद दूसरों से किस क़दर मुख़्तलिफ़ थीं। तुम एक मस्हूर करने वाला जादू बन गईं थीं। जो कितने ही ख़रीदारों को ख़रीद लाया। मगर सूँघा हुआ फूल समझ कर सब वापस चले गए।
दूकानदार के नज़दीक वो चीज़ कितनी हक़ीर हो जाती है जिसे गाहक उलट-पलट कर फिर दुकान पर रख जाये... शीशे के केस में बंद रहने वाली गुड़िया... आज तुम इतनी साफ़ साफ़ बातें सुनकर हैरान क्यों हो रही हो। जबकि तुमने अपने आस-पास के शीश-महल चकना-चूर कर डाले थे। और समाज की खींची हुई लकीरों पर चलने से इनकार कर दिया था। एक-बार तुम सब लड़कियों को आँगन में धमाचौकड़ी मचाते देखकर अम्मी ने कहा था,
उंह, मत रोको निगोड़ी मारियों को... कुँवारी लड़कियां बरसाती चिड़ियां होती हैं। कौन जाने कल किस का डोला दरवाज़े पर खड़ा होगा।
इस वक़्त अख़बार पढ़ते पढ़ते मैंने तुम्हारी ज़िंदगी का पूरा फ़िल्म देख डाला था। जब तुम किसी नासिर या शाहिद क्लर्क से ब्याही जाओगी और आँसू पोंछती डोले में सवार कराई जाओगी। फिर हर साल एक नए मुन्ने की पैदाइश में इज़ाफ़ा होता रहेगा। और सातवें या आठवीं नन्हे की पैदाइश पर तप-ए-दिक़ का शिकार हो कर मर जाओगी। हर लड़की इन्ही लकीरों पर दौड़ती आई है। मगर तुमने अपनी इन्फ़िरादियत का एक दूसरा रास्ता ढूंढना चाहा जिसकी सज़ा में मौत और ज़िंदगी तुम पर हराम हो गई।
तुम मँझले चचा की दसवीं या ग्यारहवीं औलाद थीं... फिर ना-मुराद लड़की।
उंह, लड़की है तो क्या हुआ नसीब अच्छे हों। लड़के कौन सा फ़ैज़ पहुंचाते हैं... माँ-बाप की मौत पर आँसू बहाने वाली बेटी ही तो होती है।
और अपनी मौत के नौहागर के पैदा होते ही किसी ने तुम्हें ख़ुश-आमदीद न कहा।
अपने इर्द-गिर्द के इस माहौल ने तुम्हें ज़्यादा हस्सास बना दिया। हिक़ारत की नज़रों ने ख़ुदी का एहसास बेदार किया और तुमने कुछ करने और कुछ पाने की क़सम खा ली। तुम्हारे मुताल्लिक़ बदनामियाँ और सरगोशियाँ बढ़ती चली गईं। जाहिल, बद-दिमाग़, बदसूरत और मग़रूर। दिन-भर तुम्हें इन्ही खिताबों से याद किया जाता है मगर तुम एक नन्ही चिड़िया की तरह इतरा-इतरा कर कहती रहीं... जो मेरे पास है वो रानी के महल में भी नहीं।
इसी अनानियत पसंदी से तुम एक ऐसा शेअर बन गईं जिसके ग़ालिब के शारहीन की तरह हर एक ने अलग मअनी निकालने चाहे मगर फिर भी बहुत कम हक़ीक़त की तह तक पहुंच सके।
और मैंने बहुत दूर हो कर भी तुम्हें समझना चाहा। ये सच है कि मैंने दूसरे मर्दों की तरह तुम्हारी दोशीज़गी की जानिब हाथ नहीं बढ़ाया। कभी इस क़दर नज़दीक नहीं आया कि तुम्हारे तनफ़्फ़ुस की रफ़्तार से कोई राज़ पा सकूं। फिर भी मैंने इस शे’र पर काफ़ी रिसर्च की। दिमाग़ी लेबार्टी में दो साल तक तजुर्बे किए मगर कुछ भी समझ न सका।
एक-बार मुझे अपनी जानिब झुकते देखकर तुमने कहा था,
अहमद भाई! मैं आपकी बहुत इज़्ज़त करती हूँ और ये नहीं चाहती कि कोयलों की दलाली में आप भी अपने हाथ काले कर बैठें। मगर ये कितना बड़ा ख़ज़ीना है कि तुमने बहुत-सों को कोयलों की दलाली से बचाने की ख़ातिर अपने मुँह पर कालिक मल ली थी ताकि उनके सफ़ेद दामन स्याही से मुलव्विस न हों... तुम मेरी बहुत इज़्ज़त करती थीं... एक नौजवान मर्द की, जो तुम्हारे ज़रा से सहारे पर आगे बढ़ना चाहता था... जिसने तुम्हारी अठारह साल की ज़िंदगी में मुसलसल फ़रेब दिए थे, जिसने तुम्हें मंज़िल के क़रीब ला कर भटका था। बदनामी की कोठड़ी में धकेल कर हर दरवाज़ा बंद कर दिया था। फिर तुमने अपनी रही सही इज़्ज़त की धज्जियाँ बिखेर डालीं और बीच चौराहे, अपने सब ज़ाहिरी लिबास उतार डाले। वो तो ख़ैर हुई कि तुम मेरी इज़्ज़त करती रहीं और मैं तुम्हें समझने में इतना मुनहमिक हो गया कि जज़्बात के इंजेक्शन क़तई बे-असर हो गए वर्ना मुम्किन था एक दिन मेरी ख़ुद्दारी और इज़्ज़त तुम्हारे क़दमों में पड़ी बख़्शिश की तलबगार होती और तुम अतहर की तरह मुझे एक चट्टान पर छोड़कर कहतीं।
मैंने तुम्हें पाने के लिए बहुत सी ठोकरें खाईं मगर तुम्हारे छूने से पहले इतनी बुलंदी पर पहुंच गई कि जब तुम वहां पहुंचे मैं सराब बन चुकी थी।
घबराओ नहीं। तुमने ये अलफ़ाज़ अतहर या रियाज़ से ख़ुद नहीं कहे। मगर आज तक तुमने कौन कौन सी बातें ज़बान से अदा की हैं, तुम तो इस गूँगी की तरह हो जिसे अपना मफ़हूम हमेशा अमली तौर पर समझाना पड़ता है।
सिर्फ़ अठारह साल की ज़िंदगी में तुमने इतनी बातें कैसे कह लीं!
बज़ाहिर तुम कितनी मामूली लड़की थीं। छोटे छोटे काँधों तक लहराते हुए बाल जिनकी बारीक बारीक आवारा लटें चेहरे के गिर्द हाला सा बनाए काँपती रहतीं। मामूली सा क़द, दुबला पतला धान पान जिस्म जैसे तेज़ हवा के झोंके भी तुम्हें उड़ा कर ले जाएंगे। जैसे तुम्हारी जानिब हाथ भी बढ़ाया तो छुई-मुई की तरह कुमला जाओगी। एक वाहिमा सी, एक अधूरा ख़ाका। कितने हल्के हल्के थे तुम्हारे ख़द-ओ-ख़ाल। पतले ख़मीदा लब जो हमेशा सर्द मेहरी से बंद रहते। हर चीज़ को तजस्सुस से देखने वाली हमदर्द आँखें जो अपने सारे गुनाह आशकार करने को तैयार रहतीं और इसी ख़याल से बात करते वक़्त बार-बार बंद हो जातीं ताकि उनकी गहराइयों का कोई पता न लगा सके और लम्हा लम्हा बदलने वाला रंग, जो कभी शोले की तरह दहकने लगता, कभी राख की तरह सीला पड़ जाता।
और जब बातें करतीं तो तुम्हारे ख़द्द-ओ-ख़ाल में कोई तब्दीली न आती। कितनी मुश्किल बात थी तुम्हारे चेहरे से किसी बात का अंदाज़ा लगाना।
इस मामूली शक्ल-ओ-सूरत ही ने तो तुम्हें घर में एक नाक़ाबिल इल्तिफ़ात चीज़ बना दिया था। अपनी ख़ूबसूरत सआदतमंद बहनों के मुक़ाबले में तुम्हारी कोई क़दर-ओ-क़ीमत न थी। ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त के इस बाज़ार में सिर्फ़ अच्छी सूरत वाली लड़की ही फ़ायदा उठाती है... और ये ख़याल चचा और चची के लिए सोहान-ए-रूह था।
मुझे आज से तीन साल पहले वाली जाड़ों की एक सुब्ह याद आ रही है।
तुम उस वक़्त नहा कर आई थीं। नसरीन और आयशा के साथ सेहन में बैठी, स्वेटर का एक नमूना बना बना कर उधेड़ रही थीं। नवंबर की लतीफ़ धूप आँगन में बिखरी हुई थी। चची नीचे बैठी नए लिहाफ़ों में धागे पिरो रही थी। उस वक़्त तुम्हारे गुलाबी दुपट्टे, भीगे बाल और निखरे हुए रंग को देख कर भी मुझे कोई शे’र याद नहीं आया, कोई तशबीह दिमाग़ में नहीं उभरी। आयशा, नसरीन और फ़र्ज़ाना के फरोज़ां हुस्न ने वहां तुम्हारे चिराग़ को टिमटिमाने नहीं दिया... कितनी कमतर थीं तुम अपनी मग़रूर और अपने हुस्न पर ख़ुद ही मर मिटने वाली बहनों के हलक़े में... उस वक़्त मैंने सोचा था कि हुस्न के इस जमघट में तुम्हारी कहानी कितनी मुख़्तसर और फीकी होगी।
उन्ही दिनों में मुसलसल बेकारी ने मुझे नई नई राहों से वाक़िफ़ कर दिया था। और घर से बहुत दूर एक हड़ताल के सिलसिले में गिरफ़्तार हुआ था। तो आयशा का ख़त पढ़ कर पहली दफ़ा तुम्हारी जानिब मुतवज्जे हुआ था... तुम लड़कियों को ख़त लिखने को भी तो कोई बात नहीं मिलती। आयशा के ख़त भी उसी की तरह ख़ूबसूरत और मासूम होते जिनमें वो अब्बा की नाराज़गी से लेकर ख़ानदान की अहम तक़रीबों में आने वाली औरतों के कपड़े, ज़ेवरों के डिज़ाइन और स्कूल की सहेलियों के रूमान तक... सब का तफ़्सील के साथ ज़िक्र करती। साथ ही वो मुझे भी ऐसा ही मज़ेदार लंबा ख़त लिखने की हिदायत करती... मेरी बेवक़ूफ बहन नहीं जानती थी कि मैं रूमानों, सरगोशियों और रंगीनियों की दुनिया से कितनी दूर था। मगर वो मेरी मुसलसल ख़ामोशी के बावजूद एक हंगामा-परवर घर के कमरे में बैठी, बार-बार मुँह पर झुक आने वाले लटों को पीछे झटक कर लिखती रही... आपने एक और ख़बर सुनी भाई जान? क़ुदसिया के यहां छोटी ख़ाला अमजद भाई का पैग़ाम लेकर गयीं तो क़ुदसिया ने ख़ुद आ कर उनसे कह दिया कि वो अमजद से शादी नहीं करेगी।
सुना है चचा अब्बा ज़हर खाने वाले हैं और सारे ख़ानदान में थू थू हो रही है।
उस दिन बहुत दिनों के बाद जेल की तन्हा कोठड़ी में मुस्कुरा सका। इस दिलेराना जुरात पर मैंने ग़ायबाना तौर पर तुम्हारी पीठ ठोंकी थी और कहा था कि जिस ख़ौल में हम अपने आपको लपेटे हुए हैं वो जगह जगह से टूट रहा है। जी चाहा कि फ़ौरन चचा-अब्बा को ज़हर की एक शीशी भेज दूं ताकि वो सिर्फ़ इरादा कर के ही न रह जाएं। तुम फिर एक-बार मेरे सामने आई थीं। झुँझला कर स्वेटर उधेड़ती हुई।
फिर मैं इस वाक़े को भूल गया। आयशा अपने ख़तों में लिखती रही कि तुम्हारा और रियाज़ का रूमान चल रहा है... अपनी सफ़ाई में कुछ कहने की कोशिश मत करो। मुझे मालूम है कि तुमने अपनी मुहब्बत को कामयाब बनाने की कितनी कोशिश की। लेकिन रियाज़ तुम्हारे हाँ का ले पालक था। तुम्हारे दस्तर-ख़्वान के झूटे टुकड़ों पर पला था। फिर चचा अब्बा को इसकी सुन-गुन मिली तो रियाज़ घर ही से नहीं शहर ही से निकाल दिया गया। और तुमने बड़े तहम्मुल से मुहब्बत की इस लाश को दिल के क़ब्रिस्तान में दफ़न कर देना चाहा... लेकिन शायद ऐसा न हो सका क्योंकि मुर्दार खाने वाले गिध, जो ऐसे मौक़ों की तलाश में मारे मारे फिरते हैं, इस लाश को बाहर खींच लाए। जी भर के उस से लुत्फ़ उठाया और फिर उसे चीर फाड़ कर रख दिया। तुम्हारी बीमारी को बड़े ख़ौफ़नाक मअनी पहनाए गए। यानी ये सब रियाज़ की अमानत को ठिकाने लगाने के बहाने हैं और तुम अपने कमरे ही में नहीं पड़ी रहतीं बल्कि रियाज़ के साथ फ़रार हो चुकी हो।
ये बातें मैंने बहुत दूर बैठ कर सुनीं और हर बात को यक़ीन के ख़ाने में डालता गया। ये कोई नाक़ाबिल-ए-यक़ीन बात भी तो न थी। बक़ौल आयशा के तुम अपनी अहमियत का एहसास दिलाने का फ़ैसला कर चुकी थीं और तुमने सारी दुनिया को ठुकरा के अपनी मनमानी करने का अज़्म कर लिया था... फिर तुम जैसी मुहब्बत की मारी लड़कियां इससे ज़्यादा अपनी अहमियत का क्या सुबूत दे सकती हैं...?
इसके बाद जब मैं रिहा हो कर घर आया तो तुम वक़्त का एक अहम मौज़ू बन चुकी थीं या आयशा के अलफ़ाज़ में कुछ कर दिखाने की धुन में अपना रहा सहा वक़ार भी खो बैठी थीं।
इस दौरान में तुम अपने मास्टर से भी मुहब्बत कर चुकी थीं जो तुम्हें पढ़ाने आता था। एक सीधा साधा, ख़तरनाक हद तक शरीफ़ इन्सान, जो अपनी मज़लूमी और बेचारगी ज़ाहिर करके दूसरों से रहम की भीक मांगता था।
पहले उसने तुम्हें शराफ़त और इज़्ज़त के सबक़ पढ़ाए। अपनी बेचारगी और दुख के अफ़साने सुनाए। उसकी महबूबा ने उसे धोका दिया था। महज़ ग़ुर्बत की वजह से उसे ठुकरा दिया था (ये महबूबाओं के धोका देने का दुखड़ा भी कितना फ़र्सूदा हो चुका।) फिर उसकी प्यासी दुनिया में तुमने अपनी हमदर्दी के चंद क़तरे बरसाने चाहे। अपने तर्ज़-ए-अमल से उसका दुख कम करना चाहा। अपने ग़म की कहानी भी उसे सुना डाली... फिर कोर्स की किताबों को एक जानिब समेट कर तसल्ली और तस्कीन के सबक़ पढ़ाए जाने लगे।
फिर तुम्हारा मास्टर बीमार हो गया और चचा-अब्बा ने दूसरा मास्टर रखना चाहा तो तुमने पढ़ने से इनकार कर दिया। तुम उस मास्टर से पढ़ना चाहती थीं और उसकी मिज़ाजपुर्सी के लिए उसके घर जाने पर मुसिर थीं।
ये सारी बातें घर के छोटे बच्चों तक ने मुझे सुनाईं। मैं कैसे यक़ीन कर लूं कि तुम्हें उस मास्टर से मुहब्बत नहीं थी, सिर्फ़ हमदर्दी थी। ये इन्सानियत का जज़्बा ही था जो तुम्हें एक रात चुपके से उठा कर मास्टर के घर ले गया और जब तुम अभी दरवाज़ा ही खटकठा रही थीं कि चचा अब्बा के डंडे की ज़र्ब से बेहोश हो गयीं।
फिर महीनों घर वाले तुम्हारे साये से भी अछूतों की तरह बचते फिरे। घर की लंबी लंबी नाक वाली औरतों ने ख़ानदान में निकलना छोड़ दिया। चचा अब्बा ने वक़्त से पहले पेंशन ले ली और सारे ख़ानदान में खड़ी हो कर तुमने अपनी माँ से कहा कि अम्मी जो मेरा जी चाहेगा करूँगी या फिर आप लोग मुझे मार डालिए। फिर सबने दूसरी बात से इत्तिफ़ाक़ कर लिया। यानी तुम मार डाली गयीं। सबने तुम पर फ़ातिहा पढ़ा। लेकिन शमीम मामूं इस फ़ातिहे में शरीक नहीं हुए थे। रफ़्ता-रफ़्ता दूसरा ज़ख़्म भी भरने लगा फिर शमीम मामूं की नाज़ बरदारियों ने उसे मिटा डाला था... वो तुम पर बेहद मेहरबान थे। आयशा कहती थी,
शमीम मामूं की अज़रा तो क़ुदसिया की क्लास फ़ेलो है। जैसी उनकी लड़की वैसी क़ुदसिया, फिर कैसे एक लड़की को घुल घुल कर मर जाने दें। शमीम मामूं मुद्दतों से अपनी बीवी बच्चों से क़त-ए-तअल्लुक़ कर के अकेली ज़िंदगी गुज़ार रहे थे। सिर्फ़ इतनी सी बात पर कि उनकी बीवी कभी अच्छी तरह साड़ी न बांध सकीं।
एक-बार मुझे आयशा ने लिखा था कि तुम बेहतरीन साड़ी बाँधने पर स्कूल में इनाम ले चुकी हो। वो अपने बच्चों को छोड़कर तुम्हें सैर कराने लिए जाते, तुम्हारे सदक़े में सारा घर सिनेमा देखता, पिकनिक पर जाता। तुम कोई आला डिग्री लेना चाहती थीं और चचा अब्बा तुम्हें तन्हा हॉस्टल में छोड़ने पर तैयार न थे। इसलिए बेचारे शमीम, अपनी वकालत के बेशुमार अहम काम छोड़ के, बारह बारह बजे रात तक फ़ारसी और उर्दू शाइरों का कलाम पढ़ाते और इशक़-ओ-तसव्वुफ़ में डूबे हुए अशआर का मतलब तुम से पूछते।
सब के ठुकराए जाने से पहले तुम ख़ुद ही किसी से बात करना पसंद न करती थीं। दिन-भर पलंग पर औंधी पड़ी न जाने क्या सोचा करतीं। कोई बात न करता तो शिकायत न करतीं। शमीम मामूं सर पर हाथ फेरते तो मना न करतीं। हाथ पकड़ के मोटर में बिठा देते तो बैठ जातीं। मुम्किन है तुमसे उनकी वीरान ज़िंदगी न देखी गई हो और इन्सानियत के तक़ाज़े ने मजबूर कर दिया हो। मगर तुम्हारी ये रविश कितनी ताज्जुब ख़ेज़ थी। मुमानी को अपना मुस्तक़्बिल ख़तरे में नज़र आने लगा और सबकी सवालिया निगाहें फिर तुम्हारे चेहरे पर गड़ गईं... एक रात जब शमीम मामूं तुम्हें पढ़ा रहे थे। कमरे में कुछ शोर सा हुआ फिर फिर तुम बग़ैर दुपट्टे के भागती हुई कमरे में आईं और पलंग पर गिर कर रोने लगीं।
चची ने तुम्हारे कमज़ोर जिस्म पर अपनी दानिस्त में बड़े ज़ोरदार धमोके रसीद किए और बहुत सी मुर्ग़ियां कुड़कुड़ाने लगीं। जवाब में सिस्कियाँ रोक के तुमने बड़ी मुश्किल से कहा,
मैं जिधर भी जाऊं सब मुझी को बुरा कहते हैं। मुझे क्या मालूम था वो इतना कमीना।
और मुझे हंसी आ गई... कोई मर्द मामूं नहीं होता, मास्टर नहीं होता, शरीफ़ नहीं होता, सिर्फ़ कमीना होता है। जो औरत से सब कुछ लेने के बाद भी उसे झिलमिलाते आँसुओं के अलावा कुछ नहीं दे सकता।
शमीम मामूं ने सोचा होगा कि अगर रियाज़ या मास्टर तुम्हें कोई अमानत न दे सके तो वो क्यों न उस बहती गंगा में हाथ धो लें। जबकि वो किसी रिश्ते नाते से तुम्हारे फ़र्ज़ी मामूं भी बने हुए थे।
फिर तो उनकी बीवी ने शहर भर में ये ख़बर आम कर दी कि तुम चाहो तो बीवी बच्चों वाले बूढ़े मर्दों को भी भटका सकती हो। फिर किसी म्यूज़ियम में रखी हुई लाखों साल पुरानी ममी की तरह तुम एक नुमाइश की चीज़ बन गयीं। लंबी लंबी छतों को फलांगती हुई ये बात सारे शहर का गश्त लगा कर तुम्हारे माथे पर चुप गई। औरतें और लड़कियां दूर दूर से बच्चे कूल्हों पर टिकाते, नाक पर उंगलियां रखे तुम्हें देखने को आतीं। मर्दों की महफ़िलों में बुलंद क़हक़हों और फ़ुहश गालियों के दरमियान तुम्हारा नाम आ जाता तो ख़ुद भी इस लुटने वाले बाग़ में जाने को तबीयत मचल उठती।
अतहर इसी माल-ए-ग़नीमत की उम्मीद में आया था।
मेरा छोटा भाई जो अपनी आवारगी के सबब हवालात तक हो आया था। कॉलेज से निकाल दिया गया था। और मुत्तफ़िक़ा तौर पर ये तय हो गया था कि उसे कोई अपनी बेटी न देगा। मुतवस्सित तबक़े का एक बेकार नौजवान जिससे सब लोग मायूस हो गए थे।
बाहर की तफ़रीहों के अलावा और भी कई लड़कियों को झांसा दे चुका था बल्कि राहत के मुताल्लिक़ तो मशहूर है कि सिर्फ़ अतहर की वजह से उसके शौहर ने उसे छोड़ दिया है और वह मैके में दिन गुज़ार रही है।
मगर इतने स्याह कारनामों के बावजूद तुम्हारी जानिब से मायूस न लौटा।
सारी दुनिया से धुत्कारा हुआ बेरहम, मुँह-फट, चीख़ चीख़ कर बातें करने वाला अतहर, जिसे अब्बा रोज़ घर से निकाल देते, अम्मी कोसने देती और आयशा अपनी क़िस्मत पर सब्र कर के बैठ जाती... अगर बहनों के भाई क़ाबिल-ए-फ़ख़्र न हों तो वो कितनी बदनसीब नज़र आती हैं। ख़ूबसूरत कमाऊ भाइयों के भरोसे पर ही तो वो कितनी ही नाकों को अपने सामने रगड़वा सकती हैं। आयशा की सारी तवज्जो मुझ पर मर्कूज़ हो गई थी। लड़कियों के लिए मेरी ख़ुश्क और बेरब्त ज़िंदगी में भी कोई कशिश न थी। मगर फिर भी मेरी शख़्सियत को घर में काफ़ी अहमियत दी जाती थी।
तुम्हारी बारगाह में अतहर को कैसे शर्फ़-ए-नियाज़ बख़्शा गया। ये बात सब के लिए हैरानकुन थी। वो तो सिर्फ़ अपने ख़ूबसूरत जिस्म और बेबाक लहजे से मार्के सर करता था और तुमने हमेशा बुझे हुए दिल और बीमार ज़ेह्न तलाश किए थे।
यहां पर मुझे अपनी पिछली रिसर्च बेकार मालूम हुई और उसे उठा कर फेंकने से पहले मैंने तुमसे राह रस्म बढ़ाना चाही। मुझे घर में रहने का इत्तिफ़ाक़ बहुत कम होता। ख़ुसूसन तुम से तो कभी बेतकल्लुफ़ी से बात भी न कर सका था। इसलिए एक घर में रहने के बावजूद हम बहुत दूर रहते थे। तुम हमेशा मुझसे छुपना चाहतीं क्यों कि पहले दिन हमारी मुलाक़ात ने बड़ी तल्ख़ फ़िज़ा पैदा कर दी थी। उस दिन हमारी मुलाक़ात नाश्ते की मेज़ पर हुई थी। तुम शायद मेरी संजीदगी की बात आयशा से पहले ही सुन चुकी थीं और मुझ तक अपने कारनामे पहुंचाने से गुरेज़ कर रही थीं। एहतियात से सर पर पल्लू डाले, नज़रें झुकाए यूं बैठी थीं जैसे किसी पादरी के सामने अपने गुनाहों का एतिराफ़ करने आई हो। आयशा ने मेरी जानिब बड़ी बामानी नज़रों से देखकर कहा था,
भाई जान! देखिए ये हैं क़ुदसिया... आयशा की तंज़िया नज़रों को तुमने बीच में से ही पकड़ लिया और होंटों पर ज़बान फेर कर शिकस्ता लहजे में कहा, तो अहमद भाई जान मुझे पहले से ही जानते हैं?
और तुम चाय की प्याली रखकर उठ गई थीं।
फिर बरसात की एक शाम को हल्की हल्की रिमझिम ने मौसम बड़ा पुर-कैफ़ बना दिया था। बहुत देर तक फ़ैज़ की नक़्श-ए-फ़र्यादी पढ़ने के बाद मैं हस्ब-ए-आदत सिगरेट के धुंए से ख़याली ह्यूले बना रहा था।
आयशा, परवीन, छोटी भाबी और फ़र्ज़ाना क़रीब बैठी कैरम खेल रही थीं और किसी फ़िल्म पर ज़ोरदार बहस कर रही थीं। जिसमें एक हीरो दो लड़कियों से मुहब्बत करता है और डायरेक्टर हर बार उस मुहब्बत को सच्ची मुहब्बत बनाने पर मुसिर है। आयशा के ख़याल में ये मुहब्बत की तौहीन थी या हीरो की बुलहौसी।
तुम उनके क़रीब वाली कुर्सी पर बैठी, स्याह साटन के एक टुकड़े पर नन्हे नन्हे आईने टांक रही थीं। जिनकी बहुत सी शुआओं ने मिलकर तुम्हारे चेहरे पर मशअलें सी जला दी थीं।
अपनी राय को ज़्यादा वज़नी बनाने के लिए आयशा ने मुझसे पूछा,
आप बताईए भाई जान! क्या मुहब्बत एक-बार से ज़्यादा की जा सकती है?
और मैंने बिला सोचे समझे कह दिया, क़ुदसिया से पूछो।
तुम्हारे हाथ काम करते करते रुक गए। चेहरे पर जलती हुई मशअलें बुझ गईं और तुम गहरी शिकायत आमेज़ नज़रों से मुझे देखती हुई कमरे से बाहर चली गयीं। भाबी और परवीन आहिस्ता-आहिस्ता हँसने लगीं। फ़र्ज़ाना बात को टालने के लिए गुनगुनाने लगी और आयशा ने दाद तलब निगाहों से मुझे देखा। फिर मैंने इस ख़ूबसूरत शाम का ज़रतार लिबास नोच कर फेंक दिया। रिमझिम का शोर मचाने वाली बूंदें आंसुओं के धारे बन गयीं, फ़ैज़ के दिल-नशीं शे’र हाथ मिला कर मुझसे रुख़्सत हो गए और कमरे में अंधेरा बढ़ने लगा।
आज मौसम कितना ख़ुशगवार है।!
हुँह।
जी चाह रहा है कहीं बाहर घूमने जाऊं।
तो जाइए... तुम हस्ब-ए-आदत मुख़्तसर जवाब दे रही थीं।
मगर कोई साथ चलने वाला जो नहीं। अतहर ने वाअदा किया था मगर नहीं आया। कितना ग़ैर ज़िम्मेदार और झूटा हो गया है ये लड़का।
जान-बूझ कर अतहर की बुराई कर के मैंने तुम्हारे चेहरे पर कुछ ढ़ूंडा। तुम्हारी आँखें सामने खुली हुई किताब पर थीं और हाथ टेबल क्लॉथ की शिकनें दुरुस्त करने में मस्रूफ़। फिर बड़े तंज़ के साथ तुमने कहा,
इतने सुहाने मौसम में तो वो किसी बार में बेहोश पड़े होंगे। आप लोग तो उन्हें अच्छी तरह जानते हैं ना।
ये तुम कह रही थीं। तुम, जिसके मुताल्लिक़ मशहूर था कि सारे ख़ानदान की इज़्ज़त जूते की नाक पर उछाल कर तुम अतहर से शादी करोगी, सबसे छुपा कर उसे रुपये देती हो। वो शराब पी कर आता है तो उसकी पर्दापोशी करती हो। इतने बुरे इन्सान पर तुम्हारी ये इनायतें क्यों थीं जबकि पिछली ज़िंदगी में कई क़ाबिल-ए-एतबार मर्द तुम्हें धोका दे चुके थे।
तुम्हारे मुताल्लिक़ फैली हुई बदनामियों के दरमियान मुझे अपनी ये राय बड़ी मज़हकाख़ेज़ लगी, उसे मैंने अपने दिमाग़ से खुरच दिया। तुम सब के लिए नाक़ाबिल-ए-फ़हम बन गयी थीं। भूल भुलैयों के पेचीदा रास्तों की तरह तुमने अपने गिर्द मकर-ओ-फ़रेब के जो जाल बिछा रखे थे, उन्हें देखकर मुझे तुमसे नफ़रत हो गई। फिर एक दिन बड़ी सोच बिचार के बाद में कुछ हवासबाख़्ता सा तुम्हारे कमरे में आया।
मैं तुम्हारे मुताल्लिक़ कुछ जानना चाहता हूँ क़ुदसिया, अगर तुम मुझे इजाज़त दो तो... तो... अपनी घबराहट पर मैं ख़ुद मुतअज्जिब था। उस दिन तुम्हारे चेहरे पर पहली बार मैंने डर की परछाइयां देखीं जिन पर हैरानी ग़ालिब थी। तुम यूं खड़ी हो गईं जैसे शमीम मामूं तुम पर झपटना चाहते हैं। तुमने दुपट्टे को सीने पर सँभाल कर कहा,
आप भी मुझे जानना चाहते हैं अहमद भाई! मैं आपकी बहुत इज़्ज़त करती हूँ। फिर आप क्यों कोयलों की दलाली में अपने हाथ काले करना चाहते हैं। और तुम पीछे देखे बग़ैर बाहर भाग गईं थीं।
उन ही दिनों इत्तिफ़ाक़ से मुझे एक ख़त हाथ लगा जो तुमने रियाज़ को लिखा था मगर उसे भेज न सकी थीं या शायद उसे भेजने को लिखा ही न हो क्यों कि ये सिर्फ़ तुम्हारी रूह की पुकार थी, जिसको रियाज़ जैसा बेवक़ूफ इन्सान कभी न समझ सकता। उसकी मुहब्बत में तुम्हारी बरतरी और प्रस्तिश का जज़्बा ग़ालिब था। और तुम उसे रूह की बुलंदी कभी न दे सकती थीं। बारिश बहुत ज़ोरों की हो रही थी। और दरीचों से नीचे गिरने वाले क़तरों को बच्चे हाथों में रोक कर बहुत ख़ुश हो रहे थे। इतने में भाबी का छोटा बच्चा राशिद नाव बनवाने के लिए एक काग़ज़ लेकर आया। ये नीले काग़ज़ पर लिखा हुआ एक लंबा चौड़ा ख़त था। नीचे तुम्हारे बहुत ही बिगड़े हुए दस्तख़त। वो ख़त राशिद तुम्हारी अटैची से निकाल कर लाया था। अपनी शराफ़त का सुबूत देने के लिए मैंने उसे वापस रखवाना चाहा मगर एक-बार पढ़ने से बाज़ न रह सका।
मेरी जानिब मलामत आमेज़ नज़रों से न देखो... उन दिनों मैं तुम पर रिसर्च कर रहा था। बीसवीं सदी का एक निकम्मा इंटेलेक्चुअल... तुम्हारा ये ख़त बहुत सी ढकी छुपी बातों को सामने ले आया और मेरी राय फिर डगमगाने लगी।
उस ख़त में रियाज़ को लिखा था कि बचपन से तुमने हर दिल में अपने लिए हिक़ारत और नफ़रत पाई और सिर्फ़ किसी की नज़र में बरतरी हासिल करने का ये जज़्बा ही तुम्हें रियाज़ की जानिब ले गया। जो तुम्हारी तरह सबकी जानिब से धुत्कारा हुआ दूसरा फ़र्द था। रियाज़ की नियाज़मंदी और एहसास-ए-कमतरी ने उसे गहरा कर दिया। और घरवालों की मुख़ालिफ़त ने उसे जंगल में लगी हुई आग की तरह भड़का दिया। फिर तुमने हर क़ीमत अदा कर के रियाज़ को पा लेने का तहय्या कर लिया। मगर रियाज़ के क़दम इस दुशवार रास्ते पर लड़खड़ा गए। अब्बा की एक डाँट पर मुहब्बत उछल कर दूर जा पड़ी और वो अपना बोरिया बिस्तर समेट कर भाग गया।
ख़त के आख़िर में तुमने उसे ख़ूब ज़लील किया था... बुज़दिल, तू समझता है इस तरह तूने अपनी मुहब्बत को रुस्वाई से बचा कर मेरी लाज रख ली। मगर अभी हमारी मुहब्बत शुरू ही कहाँ हुई थी, पहले ही मेरी इज़्ज़त कौन से झंडे पर चढ़ी बैठी थी। मैं वो दे ही न सकी जो मेरी ज़िंदगी का बुलंद तरीन आदर्श है... काश मैं तुझे उस बुलंदी पर पहुंचा सकती जहां तक ख़ुद मेरा हाथ भी न जा सका। अब मेरी रूह उस वसीअ समुंदर में उस तिनके को तलाश करती फिरेगी।
तो अब तुम उस तिनके की तलाश में ख़ौफ़नाक चट्टानों से टकरा रही थीं। तुम... जो मोम की मूर्ती की तरह अपने ख़ालिक़ के तख़य्युल की गर्मी से पिघल सकती थीं किसी की तेज़ निगाहों से सुलग सकती थीं, फिर अपने चारों तरफ़ छाई हुई भयानक आग में तुम्हारे क़दम कैसे नहीं डगमगाते?
दूसरे दिन मैंने अतहर को तुम्हारे सामने ख़ूब डाँटा।
कल तुम मुझसे वाअदा करने के बाद क्यों नहीं आए? कभी तो तुम्हें अपने वा’दे का ख़याल करना चाहिए। मैं यहां इंतिज़ार में बैठा रहा और बक़ौल क़ुदसिया जनाब किसी बार में पड़े रहे।
अतहर के बेसाख़्ता क़हक़हे रुक गए और वो यूं ख़ामोश हो गया जैसे मैंने उसे फांसी का हुक्म सुनाया हो। थोड़ी देर के बाद वो बड़ा पशेमान सा मेरे पास आया।
और उसने मेरे मुताल्लिक़ क्या कहा? उसे मेरी आदतों की ख़बर है? क्या उसने मेरी शिकायत की थी? वो बहुत रंजीदा होगी? ज़िंदगी में आज पहली बार मैंने अतहर को शर्मिंदा देखा था तो वो भी किसी की शिकायत सुनने को तैयार था उससे मुतास्सिर हो सकता था।
ये तो नयी नयी बात है। जबकि तुम हमेशा से फ़रेब देते आए हो और क़ुदसिया हमेशा से फ़रेब खाती आई है।
आप भी ऐसा समझते हैं भाई जान! उसने शिकायत आमेज़ लहजे में कहा।
क़ुदसिया के बिगड़ने में उसका कोई क़ुसूर नहीं है वो बहुत बदनसीब लड़की है लेकिन मैं ये चाहता हूँ कि अगर उसे कुछ न दे सकूं तो उसकी बदनामियों में इज़ाफे़ का सबब भी न बनूँ। मैं सच-मुच बहुत बुरा हूँ और क़ुदसिया को फ़रेब देकर भी नुक़्सान ही में रहूँगा।
वो बाहर चला गया और एक बार फिर तुम मेरे सामने नयी गुत्थियाँ लिए आ गयीं, अतहर कौन सा रास्ता इख़्तियार कर रहा था!
वो बेरहम इन्सान जो अपने मुफ़ाद के आगे किसी पर रहम न कर सकता था... तुम मुझे एक कसौटी नज़र आईं जिस पर सोना और पीतल दोनों वाज़ेह शक्ल में चमक उठते हैं।
दो गुनाहों के इत्तिसाल से इतना पाक जज़्बा भी वुजूद में आता है।
फिर तुम्हारी कहानी का बाक़ी हिस्सा मैं ख़ुद न देख सका, मेरी मस्रूफ़ियतें मुझे कलकत्ता खींच कर ले गईं और वहां मुझे आंधेरा के इलाक़ों में जाना पड़ा और आंधेरा की बेदार ज़िंदगी और पुरजोश सरगर्मियों ने तुम्हारी मुहब्बत की नीम मुर्दा रेंगती हुई कहानी भुला दी और घर में होने वाले ये छोटे छोटे हादिसे ज़ेह्न के किसी कोने थक कर सो गए।
एक-बार आएशा ने लिखा कि अतहर की मुसलसल ना-फ़रमानियों के सबब अब्बा ने उसे आक़ कर दिया है और वो घर से चला गया है और मालूम हुआ कि तुम अचानक घर से ग़ायब हो गयीं और किसी ने एक बार मुझे बताया कि तुम दोनों अब लखनऊ में रहते हो। चचा अब्बा अब तुम्हें घर बुलाने पर तैयार नहीं हैं।
इससे आगे की कहानी मुझे किसी ने नहीं सुनाई मगर इस बात का मुंतज़िर रहा कि अब अतहर अपना उल्लू सीधा करने मुंबई ले जाएगा। जहां कई बरसों तक ठोकरें खाने के बाद मैं तुम्हें एक दिन किसी फ़िल्म में देखूँगा। हीरोइन के पीछे, एक्स्ट्राओं में कूल्हे मटकाते हुए कोई आवारा सा गीत तुम्हारे लबों पर होगा, जो तुम्हारे मस्नूई चेहरे, छातियों, पिंडलियों और कमर की नुमाइश करेगा। तुम एक झूट का खोल होगी। सेलुलाइड की गुड़िया जिसकी हर जुंबिश दूसरों के ताबे होती है और तुम अपनी ख़ुद्दारी की लाश पर नाच रही होगी।
एक हद से ज़्यादा जज़्बाती लड़की के तख़य्युल की उड़ान हमेशा यूँही खाइयों में गिर के दम तोड़ देती है।
मुझे तुम दोनों के नाम से नफ़रत हो गई। आयशा ने एक-बार लिखा भी था कि क़ुदसिया वहां किसी प्राईवेट स्कूल में नौकर हो गई है। अतहर बीमार है और वो दोनों बड़ी तकलीफ़ के दिन गुज़ार रहे हैं।
लेकिन मैंने बड़ी सख़्ती से उसे लिख दिया कि मैं अब क़ुदसिया के मुताल्लिक़ कुछ सुनना नहीं चाहता।
अतहर की तब्दीली जितनी नफ़रत-अंगेज़ थी उतनी ही हैरत-अंगेज़ भी थी... वो किसी की शादी की ख़बर सुनकर मज़ाक़ उड़ाया करता था। एक ही राग मुसलसल लोग कैसे सुने जाते हैं। मैं तो दो ही दिन में पागल हो जाऊँगा।
फिर उसने दो साल तक उस राग को कैसे सुना!
अम्मी अपनी क़िस्मत को रो कर बैठ रहीं। उनकी ज़िंदगी के दोनों कड़वे फल गए। मैं तो ख़ैर अपनी ख़तरनाक ज़िंदगी से कोई फ़ैज़ न पहुंचा सकता था।
मगर अब्बा भी ये बर्दाश्त न कर सके कि अतहर की क़िस्मत अचानक पल्टा खाए और वो कोई अच्छी मुलाज़िमत हासिल कर ले।
फिर अम्मी के आँसुओं ने अब्बा से ख़त लिखवा ही दिए जिसमें अतहर को अपनी ख़ानदानी इज़्ज़त और बेशुमार दौलत का वास्ता दिया गया था और तुम्हें अतहर की मुहब्बत का... और आज आयशा ने लिखा है;
भाई जान! आप क़ुदसिया से नफ़रत करते है। आइन्दा उसके मुताल्लिक़ कोई बात नहीं होगी जो मैं आपको सुनाऊँगी आज अतहर भाई को अब्बा तन्हा घर ले आए हैं। क़ुदसिया मामूली बीमारी से मर चुकी है।
तुम ज़िंदगी-भर मेरी इज़्ज़त करती रहीं और मैं तुमसे नफ़रत करता रहा। ये हम दोनों की अपनी ज़ेह्नियत का क़ुसूर है। उधर मुँह करो... तुम्हारी आँखों में चमकते हुए आँसू क्या कह रहे हैं?
क्या सच-मुच तुम किसी मामूली बीमारी से मर गयीं! उस छोटी सी बीमारी को अपने नाज़ुक जिस्म पर न सह सकीं और उस बीमारी का इलाज किसी से न हो सका, अतहर से भी नहीं। मुझसे भी नहीं जो तुमसे नफ़रत करता रहा।
तुम्हें अपनी शिकस्त पर आँसू नहीं बहाना चाहिये क्यों कि तुमने अतहर को वो तोहफ़ा दे दिया जिसके लिए तुम ज़िंदगी-भर सरगर्दां रहीं और चुप-चाप अंधेरे में खो गयीं... और अब तुम्हारी रौंदी हुई सिसकियाँ और झिलमिलाते आँसू ही मुझे तुम्हारी मौजूदगी का एहसास दिलाते हैं... तुम आज घुटी घुटी आहों और पीते हुए आँसूओं से इस कमरे में मेरे लिए अपनी इज़्ज़त का तोहफ़ा लेकर आई हो... मगर मैं इसके इलावा कुछ नहीं कर सकता कि जले हुए सिगरेट को ऐश ट्रे में फेंक कर तुम्हारे ख़याल को भी ज़ेह्न से झटक दूं...
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