नए देवता
स्टोरीलाइन
तरक्की-पंसद अदीबों में से एक नफ़ासत हसन ने अपनी यहाँ दावत की हुई है। दावत में उसके बहुत से साथी आए हुए हैं। नफ़ासत हसन तरक़्क़ी-पसंद अदीब है, लेकिन जिस मह्कमे में वह नौकरी करता है उसके ख़्यालों के बिल्कुल उलट है। वैसे उसी नौकरी से वह अपने यहाँ इस दावत का इंतिज़ाम कर पाया है। खाने के दौरान अदब पर बातचीत चल निकलती है। एक दूसरे अदीब अंग्रेज़ी लेखक समरसेट माम को अपना पसंदीदा लेखक बताते हैं। मेज़बान भी समरसेट को लेकर अपनी दिवानगी ज़ाहिर करता है। इसको लेकर उन दोनों के बीच खासी नोक-झोंक होती है और इसी नोक-झोंक में समरसेट माम उनका नया देवता बनकर सामने आता है।
गाजर के गर्म हलवे की ख़ुशबू से सारा कमरा महक उठा था और अगर किसी दा’वत की सबसे बड़ी ख़ूबी यही है कि हर खाना निहायत सलीक़े से तैयार किया जाये और मा’मूली मा’मूली चीज़ में भी एक नया ही ज़ायक़ा पैदा कर दिया जाये तो बिलाशुब्हा दिल्ली की वो दा’वत मुझे हमेशा याद रहेगी।
इतनी भी क्या ख़ुशी है, मैं सोच रहा था, इतना तो नफ़ासत हसन पहले भी कमा लेता होगा। डेढ़ सौ रुपये के लिए उसने अपनी आज़ादी बेच दी और अब ख़ुश हो रहा है। वो तो शुरू से बाग़ियाना तबीयत का आदमी मशहूर है, उसके अफ़साने तरक़्क़ी-पसंद अदब में नुमायां जगह पाते रहे हैं। फिर ये नौकरी उसने कैसे करली? ग़रीबों पर ज़ुल्म ढाए जाते हैं, ज़िंदगी की हतक की जाती है, सरमाया दाराना निज़ाम मकड़ी की तरह बराबर अपना जाला बुनता रहता है और ग़रीब किसान मज़दूर आपसे आप उस जाले में फँसते चले जाते हैं... इन ख़्यालात का मालिक आज ख़ुद मक्खी की तरह इस जाले में फंस गया और इस ख़ुशी में यारों दोस्तों की दा’वत दे रहा है! मगर मैंने अपने ख़्यालात का असर चेहरे पर ज़ाहिर न होने दिया।
दा’वत में कई अदीब शरीक थे। मैं सोचने लगा। हिन्दोस्तान की आज़ादी के मुता’ल्लिक़ इन हैट पहनने वाले अदीबों से ज़्यादा मदद की उम्मीद न रखनी चाहिए और ब्राउनिंग का ख़्याल... “चंद चांदी के सिक्कों के इवज़ वो हमें छोड़ गया!” मेरे ज़ेह्न में फैलता चला गया। उन रजअ’त पसंदों को ये गुमान कैसे हो गया कि वो तरक़्क़ी-पसंद अदब का चर्चा करके सुनने वालों की आँखों में धूल डाल सकते हैं? कहाँ तरक़्क़ी और आज़ादी का हक़ीक़ी नस्ब-उल-ऐन और कहाँ ये चांदी की गु़लामी! नफ़ासत हसन के गोरे चेहरे पर हंसी नाच रही थी। सच्च पूछो तो ये हंसी मुझे बड़ी भयानक दिखाई देती थी।
गाजर का हलवा सच-मुच बहुत लज़ीज़ था और वो मेरे ख़्यालात पर हावी हो रहा था... मक़नातीस इतना क़रीब हो और लौह-चून के ज़र्रे खिंचे न चले आयें! ये कैसे हो सकता है। मतलब ये कि अगर ये हलवा न होता तो मैं नफ़ासत हसन को और भी ज़्यादा तन्क़ीदी ज़ाविए से देखता होता।
बहुतों के नामों से मैं नाआशना था। ये और बात है कि कई चेहरे मेरे लिए नये न थे। ख़ासकर मौलाना नूरहसन आरज़ू को तो इससे पहले कभी फ़ोटो में भी न देखा था। उनकी आवाज़ मुझे बहुत प्यारी लगी। बहुत जल्द मैंने उनकी फ़साहत का लोहा मान लिया। ये महसूस होते भी देर न लगी कि उन्हें ऐसी ऐसी दलीलों पर उ’बूर हासिल है कि मौक़ा पड़ने पर वो अपने हरीफ़ को घास के तिनके की तरह अपनी राह से उड़ा दें। उ’म्र में वो कोई बूढ़े न थे, अधेड़ ही थे। मगर नये ज़माने से उतना ही रिश्ता रखते थे कि सरकारी नौकरी की वजह से पाजामे और शेरवानी को ख़ैरबाद कह कर अंग्रेज़ी वज़ा’ का सूट पहनना शुरू कर दिया था।
बर्फ़ में लगी हुई गँडेरियों के ढेर पर सब अदीब दोस्त बढ़ बढ़कर हाथ मार रहे थे। जूंही गँडेरी का गुलाब में बसा हुआ रस हलक़ से नीचे उतरता मौलाना आरज़ू की आँखों में एक नई ही चमक आ जाती।
नफ़ासत हसन कह रहा था, “ये गँडेरियाँ तो खासतौर पर मौलाना के लिए मँगवाई गई हैं।”
“ख़ूब”, मौलाना बोले, “और गाजर का हलवा भी शायद मेरे ही लिए बनवाया गया था...”
“जी हाँ।”
नफ़ासत हसन की बेबाक निगाहें मौलाना की शोख़ आँखों में गड़ कर रह गईं। कुछ लोगों का ख़्याल था कि उसे अपने महकमे में नौकरी दिलाने में मौलाना का बहुत हाथ था। मगर ख़ुद नफ़ासत हसन ऐसा आदमी न था कि एहसानमंदी को तसव्वुर में भी लासके। उसका ख़्याल था कि ख़ुद वक़्त की करवट की बदौलत ही वो ये नौकरी हासिल कर सका है और गाजर का लज़ीज़ हलवा और गुलाब में बसी हुई गँडेरियाँ किसी मौलाना का एहसान उतारने के ख़्याल से हरगिज़ पेश नहीं की गईं।
मौलाना इधर बहुत मोटे हो गये थे और वो हैरान थे कि हिन्दोस्तान के सबसे बड़े शहर में लगातार कई साल गुज़ारने के बावजूद नफ़ासत हसन ने अपनी बैठक में एक-आध बड़ी कुर्सी रखने की ज़रूरत क्यों न महसूस की थी। अभी तक बढ़इयों ने बड़ी कुर्सियाँ बनाना बिलकुल तर्क तो नहीं किया। ये और बात है कि नये ज़माने में अब लोग कभी इतने मोटे न हुआ करेंगे! अपनी गोल-गोल घूमती हुई आँखें उन्होंने मेरी तरफ़ फेरीं और मैंने देखा कि उनमें ग़रूर और ग़म गले मिल रहे हैं और वो बीते वक़्तों को फिर से वापस आता देखने के लिए बेक़रार हो रहे हैं।
धीरे-धीरे महफ़िल छदरी होती गई। नये दोस्त ये ख़्याल लेकर लौटे कि नफ़ासत हसन एक निशात पसंद और दोस्त-नवाज़ आदमी है। ये अलग बात है कि वो रस्मी तकल्लुफ़ात का कोई बड़ा हामी नहीं है। है भी ठीक। दोस्ती होनी चाहिए आज़ाद नज़्म सी... क़ाफ़िया और रदीफ़ की क़ैद से आज़ाद।
मौलाना बराबर जमे हुए थे। मुझसे मुख़ातिब हो कर बोले, “साहिब, समरसेट माम का मुता’ला किया है आपने?”
उन्होंने ये बात इस लहजे में पूछी थी कि मुझे गोल-मोल जवाब पर उतरना पड़ा। साहिब, कहाँ तक मुताला किया जाये? अनगिनत किताबें हैं और अनगिनत मुसन्निफ़। अब मैं समर सेट माम का ख़्याल रखूँगा।”
“तो ये कहिए न कि आपने समर सेट माम की कोई किताब नहीं पढ़ी।”
अब मैं समझा कि समर सेट माम कोई मुसन्निफ़ हैं। मैंने झेंपते हुए जवाब दिया, “जी हाँ, यही समझ लीजिए।”
“तो इसका यही मतलब हुआ न कि अब तक आपने यूंही उ’म्र ज़ाए’ की।”
इस पर नफ़ासत हसन बिगड़ उठा। गर्मा गर्म बहस छिड़ गई। पता चला कि मौलाना ने नफ़ासत हसन को चिढ़ाने के लिए ही समर सेट माम का तज़्किरा किया था। एक दिन ख़ुद नफ़ासत हसन ने यही सवाल मौलाना से किया था और जब उन्हों ने मेरी तरह बात टालनी चाही तो वो कह उठा था “तो इसका यही मतलब हुआ न कि अब तक आपने यूँही उ’म्र ज़ाए’ की।”
उधर मौलाना ने अंग्रेज़ी अदब से रब्त बढ़ाना शुरू कर रखा था मगर नफ़ासत हसन बदस्तूर यही समझता था कि ये सिर्फ़ एक दिखावा है और अंग्रेज़ी अदब के नए रुजहानों से उन्हें कोई लगाव नहीं है। जब भी वो उनके हाथ में कोई अंग्रेज़ी किताब देखता, उसके ज़ेह्न में तंज़ जाग उठती , जैसे साँप के सर में ज़हर जाग उठता है। इस दिखावे की आख़िर क्या ज़रूरत है?... बेहूदा दिखावा...! नया रंग तो सफ़ेद कपड़े ही पर ठीक चढ़ता है!
मौलाना बड़ी सादा और पुरअसरार ज़बान में शे’र कहते थे। मज़ामीन भी लिखते थे। अफ़साना निगारी के बाब में उन्होंने कोई कोशिश न की थी। हाँ जब कोई वाक़िया’ सुनाते तो यही गुमान होता कि कोई कहानी जन्म ले रही है और अगर उस वक़्त कोई आदमी उनकी ता’रीफ़ कर देता तो ख़्वाह-मख़्वाह उनकी निगाह में बहुत ऊंचा उठ जाता। दाद पाकर ही वो दाद दे सकते हों, ये बात न थी। अक्सर वो किसी ऐसे मुआ’वज़े के बग़ैर भी नौजवान अदीबों की पीठ ठोंकते रहते थे। उनकी ये सरपरसताना तबीयत ही नफ़ासत हसन के नज़दीक वो ऐ’ब था जिसकी वजह से जैसा कि उसका ख़्याल था न वो पुराने दौर की नुमाइन्दगी करने में कामयाब हुए थे और न नये दौर ही से रिश्ता जोड़ सके थे।
जब भी नफ़ासत हसन मौलाना के ख़िलाफ़ बिस उगलता। मुझे यूं महसूस होता कि अदब का नया दौर अपने से पहले दौर की हतक कर रहा है। ये तो अपनी ही हतक है। सतही तौर पर उसका घिनावनापन आँख से कितना ही ओझल रहे मगर जब ये बात समझ में आजाती है कि अदब एक इर्तिक़ाई चीज़ है तो कोई भी अदीब अपना ये वतीरा जारी नहीं रख सकता।
हाँ, तो समरसेट माम वाला मज़ाक़ नफ़ासत हसन न सहार सका। बोला, “बस-बस चुप रहिए। इतनी ज़बान मत खोलिए।”
नफ़ासत हसन की ज़बान पर रंदा चलने का गुमान होता था। मौलाना ने क़दरे घूर कर उसकी तरफ़ देखा और बोले, “इतने गर्म क्यों होते हो, मियां! उ’म्र ही में सही, मैं तुम्हारे वालिद के बराबर हूँ।”
“बस-बस, ये शफ्क़त अपने ही पास रखिए। मुझे नहीं चाहिए ये कमीनी शफ़क़त... ये सरपरसताना शफ्क़त... बड़े आये हैं मेरे वालिद... वालिद! इतनी ज़बान दराज़ी!”
मौलाना ने अब तक यही समझा था कि वो मज़ाक़ ही की सरहद पर खड़े हैं। मुआ’मला तो दूसरा ही रंग इख़्तियार कर चुका था। उनके चेहरे पर गुस्से की तह चढ़ गई। बोले, “एक ससुरे समरसेट माम की ख़ातिर क्यों मेरी हतक करने पर तुले हो, मियां?... कमबख़्त समरसेट माम...!”
बात तूतू-मैंमैं की शक्ल इख़्तियार कर गई। मुझे तो यही ख़तरा महसूस होने लगा कि कहीं दोनों अदीब हाथा पाई पर न उतर आयें।
नफ़ासत हसन उस दिन मेज़बान था और घर पर आये हुए किसी मेहमान की शान में हर तरह की ज़बान दराज़ी से उसे परहेज़ करना चाहिए था और फिर ये मेहमान कोई मा’मूली आदमी न था। उस का हमअ’स्र अदीब था। उ’म्र में उससे बड़ा और ज़बान दानी में कहीं बढ़कर। मैं सोचने लगा कि समरसेट माम पर नफ़ासत हसन इतना क्यों फ़िदा है? वो भी मौलाना की तरह एक आदमी ही तो है, कोई फ़रिश्ता नहीं है और मैं तो समझता हूँ हर लिहाज़ से नफ़ासत हसन के कमरे में पड़ी हुई किसी भी हल्के भूरे रंग की कुर्सी से मौलाना ज़्यादा क़ीमती थे। नफ़ासत हसन इतना गर्म क्यों हो गया था? वो शायद अपने मेहमान को कुर्सी से उठा देना चाहता था। ये ठीक है कि मौलाना की तंज़ ज़रा तीखी थी मगर थी तो आख़िर ये तंज़ ही और इसका जवाब अगर तंज़ ही से दिया जाता तो इस क़दर दिलख़राश मुज़ाहरा तो न हुआ होता।
समरसेट माम आख़िर क्या लिखता होगा? क्या उसे अपने वतन इंग्लिस्तान में भी नफ़ासत हसन जैसा कोई आशिक़-ए-ज़ार नसीब हुआ होगा? मुझे ये शक गुज़रा कि नफ़ासत हसन के बहुत से जुमले जिन्हें वो मौक़ा बे मौक़ा निहायत शान से अपनी गुफ़्तगु और तहरीरमें नगीनों की तरह जड़ने में होशयार सुनार बन चुका है, ज़रूर विलायत की किसी फ़ैक्ट्री से बन कर आये हैं, उसकी अपनी तख़्लीक़ हरगिज़ नहीं। मैं सोचने लगा कि पहले-पहल कब समरसेट माम के क़लम ने उस पर जादू सा कर दिया था और क्या ये जादू कभी ख़त्म भी हो जायेगा?
एक दिन उसने मुझसे पूछा, “औरत किस वक़्त सुंदर लगती है?”
मुझे कोई जवाब न सूझा। “मैंने कहा आप ही बतलाइये।”
वो बोला, “हाँ तो सुनो... जब वो तीन दिन से बुख़ार में मुब्तला हो और उसके हाथों की रगें नीली पड़ जायें। तब औरत कितनी सुंदर लगती है, कितनी सुंदर!”
मैंने सोचा, शायद ये नगीना भी समरसेट माम की फ़ैक्ट्री से बन कर आया हो।
मैंने नफ़ासत हसन को मुख़ातिब करके कहा, “ख़फ़गी छोड़ो मियां! समरसेट माम तो एक देवता है।”
वो बोला “और मैं?”
“आप भी देवता हैं, मियां!”
मैंने उसे बताया कि देवताओं में तीन बड़े देवता हैं... ब्रह्मा, विष्णु और शिव। अपनी अपनी जुदागाना अहमियत के बाइ’स वो बेहद मुमताज़ बन गये हैं। ब्रह्मा जन्म देता है, विष्णु परवरिश करता है और शिव ठहरा मौत का नाच नाचने वाला... नटराज!
नफ़ासत हसन का ध्यान अब मेरी तरफ़ खिंच गया। उधर मौलाना की आँखों में गु़स्सा ठंडा पड़ गया था और वो मेरी बात में दिलचस्पी ले रहे थे। मैंने बताया कि हर अदीब मुख़्तलिफ़ वक़्तों में ब्रह्मा, विष्णु और शिव होता है। जब एक शख़्स एक चीज़ लिखने में कामयाब हो जाता है। मैं उसे ब्रह्मा कहना पसंद करूँगा। वो उस चीज़ को सँभाल-सँभाल कर रखता है। हरमुमकिन इस्लाह करता है, इस वक़्त वो विष्णु का हम पल्ला होता है और जब वो अपने ही हाथ से किसी तहरीर के टुकड़े-टुकड़े कर डालता है, वो सौ फ़ीसदी शिव का रूप धार लेता है।
मौलाना बोले, “बहुत ख़ूब! आपका तखय्युल मिसाल के तौर पर पेश किया जा सकता है।”
मैंने झट से कह दिया, “मेरा तख़य्युल ! नहीं मौलाना नहीं। ये मेरा तख़य्युल नहीं है। मतलब ये कि मेरा तबा’ज़ाद ख़्याल नहीं है...”
“तो किस का ख़्याल पेश कर रहे हैं आप?”
“बंबई की पी.ई.एन सोसाइटी में बुलबुल-ए-हिंद मिसेज़ सरोजनी नायडू ने मेरी एक तक़रीर पर सदारत करते हुए ये ख़्याल पेश किया था।”
“बहुत ख़ूब ...! बुलबुल-ए-हिंद ने आपकी तक़रीर पर सदारत की थी!.. हाँ, तो अब कोई तबा’ज़ाद ख़्याल सुनाइये ना!”
“तबा’ज़ाद...! तबा’ज़ाद की भी ख़ूब कही, मुझे तो सिरे से यही शक हो रहा है कि तबा’ज़ाद नाम की कोई चीज़ होती भी है या नहीं।”
नफ़ासत हसन बौखलाया, “क्या कह रहे हो, मियां? सुनिए मैं एक ख़्याल पेश करता हूँ... जूंही सुबह की पहली किरन आँखें मलती हुई धरती पर उतरी पास की कच्ची दीवार अंगड़ाई ले रही थी।”
मौलाना ने हैरत से कहा, “दीवार अंगड़ाई ले रही थी!”
मैंने बीच बचाव करते हुए कहा, “इस वक़्त नफ़ासत हसन एक ब्रह्मा हैं, मौलाना!”
“ब्रह्मा?”
“जी हाँ, ब्रह्मा... और न जाने कब तक वो विशनू बना हुआ ये ख़्याल सँभाल-सँभाल कर रखेगा... और फिर एक दिन वो शिव बन जाएगा और ख़ुद अपने हाथों से इस ख़्याल का गला घोंट डालेगा। उसे ख़ुद अपनी तख़्लीक़ पर हंसी आयेगी... सिर्फ़ हंसी, अगर ये ख़्याल उसका सौ फ़ीसद तबा’ज़ाद ख़्याल नहीं है और पूरी पूरी शर्म, अगर ये सच-मुच उसका सौ फ़ीसदी तबा’ज़ाद ख़्याल है।”
नफ़ासत हसन चाहता तो झट मेरे ख़्याल की तर्दीद कर देता। मगर वो चुप बैठा रहा। शायद वो कुछ झेंप सा गया था और अपनी कमतरी के जज़्बे को छुपाने की कोशिश कर रहा था।
मौलाना बोले, “ब्रह्मा, विष्णु और शिव के मुता’ल्लिक़ आज मैं कुछ और भी सुनना चाहता हूँ।”
मैंने कहा, “सुनिए विष्णु और शिव के हज़ारों मंदिर हैं और ब्रह्मा का एक भी मंदिर नहीं है कहीं।”
“ब्रह्मा का एक भी मंदिर नहीं।”
जी नहीं, सुनिए तो, बड़ी दिलचस्प कहानी है। एक-बार विष्णु और ब्रह्मा में ये मुक़ाबला हो गया कि कौन पहले शिवलिंग की गहराई और ऊंचाई का पता लासकता है। विष्णु जड़ की तरफ़ चल पड़ा और ब्रह्मा चोटी की तरफ़। ब्रह्मा ऊपर चढ़ गया। मगर शिवलिंग की चोटी कहीं नज़र न आती थी। ऊपर से एक चम्बेली का फूल गिरता आरहा था। ब्रह्मा ने पूछा “किधर से आना हुआ?”
फूल बोला, “शिवलिंग की चोटी से।”
ब्रह्मा ने पूछा, “कितनी दूर है वो चोटी?”
फूल ने कहा... “दूर बहुत दूर।”
ब्रह्मा चम्बेली के हमराह वापस हुआ। रास्ते में उसने उस फूल को इतना सा झूट बोलने के लिए रज़ामंद कर लिया कि वो विष्णु के सामने कह दे कि वो दोनों ख़ास शिवलिंग की चोटी से होते हुए आरहे हैं। मगर शिव तो ठहरा अंतर जामी। ब्रह्मा और चम्बेली को बड़ी भारी सज़ा दी गई। रहती दुनिया तक ब्रह्मा का कहीं मंदिर न बनेगा। चम्बेली किसी मंदिर में पूजा न चढ़ाई जाएगी।
नफ़ासत हसन बोला, मगर ये तो नया ज़माना है। अब तो शायद ब्रह्मा का भी मंदिर बन जाये कहीं और मेरा यक़ीन है कि अगर ब्रह्मा पर कोई फूल चढ़ेगा तो वो बिला शुब्हा चम्बेली का फूल ही होगा।”
नफ़ासत हसन ने यक़ीनन उस वक़्त यही सोचा होगा कि अब तक वो ख़ुद फ़क़त एक ब्रह्मा ही है, क्योंकि उसके पब्लिशर ने उसके अफ़्सानों का ज़ख़ीम मज्मुआ’ शाये’ करने से अभी तक गुरेज़ ही किया है। मगर जूंही ये किताब शाये’ होगी, उसकी शोहरत का हक़ीक़ी मंदिर ता’मीर होते देर न लगेगी और उस मंदिर में चम्बेली के फूल ही उस पर चढ़ाए जाया करेंगे।
अपने मुता’ल्लिक़ इस क़दर ग़लतफ़हमी रखने में उसके दो-चार गहरे दोस्तों ही का हाथ था। उनका ख़्याल था कि उषा के घूँघट खोलने से पहले की सारी स्याही और सुर्ख़ी... अँधियारे और उजाले की गंगा-जमुनी सरगोशियाँ... उसकी तबा’ में बहुत नुमायां नज़र आती हैं और अगर उसने शुरू में रूसी अफ़्सानों के तर्जुमा में अपनी उठती जवानी का ज़ोर लगाने के बजाय तबा’ज़ाद अफ़्साने लिखने में सरगर्मी दिखाई होती तो आज उसका नाम सफ़-ए-अव़्वल के तरक़्क़ी-पसंद अफ़्साना निगारों में शुमार होता। उनका ये भी ख़्याल था कि अब भी गिरे हुए बेरों का कुछ नहीं बिगड़ा। अगर ये सौ फ़ीसदी तबा’ज़ाद अफ़्साना निगार सौ फ़ीसदी वसीला साज़ भी होता गया, तो यक़ीनन वो हिन्दोस्तान भर के अफ़्सानवी अदब की चोटी पर नज़र आयेगा।
एक-बार दोस्तों ने उसे बताया कि वो बड़ा साफ़ गो है। चुनांचे सपनों में भी ये ख़्याल उसका तआ’क़ुब करने लगा कि वाक़ई वो बड़ा साफ़ गो है। यही वो सिफ़त है जो सौ फ़ीसदी तबा’ज़ाद अफ़्साना निगार को ज़िंदगी के मुताले में हक़ीक़ी मदद दे सकती है। जब इस नौकरी के लिए उसने दरख़्वास्त भेजी तो उससे पूछा गया कि उसने किस मज़मून में अपना इल्म पाया-ए-तक्मील तक पहुंचाया है। बिला झिजक उसने लिख भेजा कि मैंने अपनी बेशतर ज़िंदगी बेस्वाओं का मुता’ला करने में गुज़ारी है। गो उस साफ़-गोई से कहीं ज़्यादा किसी की सिफ़ारिश ही ने उसे ये नौकरी दिलाने में मदद दी थी। मगर वो बराबर नये मिलने वालों के रूबरू इसका ज़िक्र बड़े फ़ख़्र से किया करता था। साफ़-गोई, सौ फ़ीसदी साफ़-गोई! मैंने सोचा शायद इस साफ़-गोई की सरहद ने अभी घर की दीवारों तक पांव न फैलाए होंगे। घर में आकर तो अक्सर बड़े-बड़े तरक़्क़ी-पसंद अदीब भीगी बिल्ली बनने पर मजबूर होजाते हैं।
ये ठीक है कि उसकी तरक़्क़ी पसंदी बड़ी हद तक उर्यां जिन्सी बयान से घिरी रहती थी मगर कुछ अ’र्से से उसके ज़ेह्न में ये वहम समा गया था कि वो किसी भी जानदार या बे-जान शय के गिर्द अपने अफ़्साने को घुमा सकता है। अपने एक अफ़्साने में उसने एक पत्थर की सरगुज़श्त बयान की थी जो एकाएकी किसी कुँवारी की उठती मचलती हुई छाती से टकराने के लिए बेक़रार हो उठा था। आदमी बदस्तूर आदमी है। मगर पत्थर अब पत्थर ही नहीं है। ये बात उसने बड़ी गहराई से लिखी थी। नफ़सियात की सरहदें अब सुकड़ी न रहेंगी। पत्थर अब पत्थर ही नहीं है, न बिजली का खंबा बिजली का खंबा ही। वो चाहता तो अपने सिगरेट केस में भी दिल डाल देता और उसके गिर्द नफ़सियात का बारीक जाल बुन देता।
उसकी ज़बान न बहुत मुश्किल थी न बहुत आसान। यहां वहां नई नई तश्बीहें भी हाज़िर रहती थीं। अभी उसे किसी का फूला हुआ थैला देखकर हामिला औरत के पेट का ध्यान आगया, अभी किसी की ज़ेह्नी कमज़ोरी उस दोशीज़ा सी नज़र आई जो आंधी में अपनी सारी सँभालने से क़ासिर हो। किसी के बोल सोडे के बुलबुले थे तो किसी की नाक चीनी की प्याली की ठूंठनी जैसी।
शाम हो चली थी। नफ़ासत हसन उठकर खड़ा हो गया और अपनी उंगलियों से बालों में कंघी करता हुआ छज्जे पर आगया। निकल्सन रोड पर क़रीब ही के टेलर मास्टर की दुकान में बर्क़ी क़ुमक़ुमे रोशन हो चुके थे। छज्जे पर खड़ा खड़ा नफ़ासत हसन पलटते हुए बोला,
“मौलाना, चलो लगे हाथों सरदार जी ही से मिलते आयें।”
मैं हैरानी से अपनी सीट में दुबका बैठा था। मैंने सोचा ये सरदारजी कौन हैं। जिनसे मिलने के लिए नफ़ासत हसन इतना मुश्ताक़ नज़र आता है। फिर मुझे ख़्याल आया कि वो सिर्फ़ अपने फ़र्क़ बराए फ़र्क़ के नज़रिये के मुताबिक़ ही मुझसे भी लंबी दाढ़ी वाले शख़्स से मिलना चाहता है। हालाँकि ख़ुद उसके चेहरे पर दाढ़ी तो दाढ़ी मूंछ तक का निशान हर दूसरे तीसरे दिन हटा डाला जाता था। इस से पहले भी उसने एक अदीब की मूंछों को महज़ इसलिए पसंद किया था कि वो मूँछें मौलाना ने नापसंद की थीं। मुझे यक़ीन था कि अगर मौलाना ने उन मूंछों की ता’रीफ़ में एक-आध बात कह दी होती तो वो फ़ौरन कह उठता, मौलाना आपकी अंधा धुंद पसंद की तो हद हो चुकी है। लाहौल व ला क़ुव्वत... आपने भी ख़ूब आदमियों में आदमी चुना!
ये सरदार जी कौन हैं? ये सवाल मेरे ज़ेह्न में फैलता चला गया। उनसे मुतआ’रिफ़ होने की खवाहिश देखकर नफ़ासत हसन ने मुझे भी अपने हमराह ले लिया। वो एक अजब मस्ती के आलम में सीढ़ियों से उतर रहा था। अपने पांव को वो ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर से ज़मीन पर फेंकता था और फट- फट की आवाज़ से शोर पैदा करता हुआ पड़ोसियों के आराम में मुख़िल हो रहा था। इस क़िस्म की हरकत को वो आज़ादी तसव्वुर करता था और उसे किसी क़ीमत पर भी देने को तैयार न था।
एक बड़े लंबे चौड़े बाज़ार में घूमते घामते हम आख़िर सरदारजी की दुकान पर पहुंच गये। पता चला कि नफ़ासत हसन इस्म बा मुसम्मा था। क्योंकि शराब की दुकान जहां उसने सरदारजी से मुलाक़ात का वक़्त मुक़र्रर किया था, सख़्त बदबूदार जगह थी। मेज़ पर संगमरमर की सिलों पर सोडा और विस्की जमी हुई थी और हमारी नशिस्त गाह के क़रीब ही टूटे हुए आबखू़रों का अंबार लग रहा था। बग़ल में एक उधेड़ उ’म्र का आदमी अपनी टांगें एक बोसीदा अलमारी के ऊपर टिकाए अपना मुँह पूरी तरह खोले बेहोश पड़ा था। आबखू़रों के इतना क़रीब होने की वजह से उसका खुला हुआ मुँह एक आबख़ोरा ही तो दिखाई देता था। एक लम्हा के लिए मुझे गुमान हुआ कि नफ़ासत हसन उसी शख़्स से मिलने आया है। गोया अपने आपसे, अपने सुंदर नाम से इन्साफ़ करने आया है। थोड़ी देर के बाद नफ़ासत हसन ने अपनी करख़्त आवाज़ से, जिससे हमेशा की तरह ख़्वाह-मख़्वाह रंदा चलने का गुमान होता था, पुकारा,
“ओ मियां जुम्मां! लाओ तो सरदार जी को।”
मियां जुम्मां एक झाड़न से बोतल साफ़ कर रहा था। दिन के वक़्त वो इसी झाड़न से सड़क पर से उड़कर आने वाली गर्द को शीशों में पड़ी हुई पेस्ट्री पर से झाड़ा करता था, या आबखू़रों के दरमियान तने हुए जालों को साफ़ करता रहता था। कुछ देर बाद जुम्मां ने विस्की की एक बोतल और सोडे की दो बोतलें मेज़ पर ला रखीं।
सरदार जी की शख़्सियत से वाक़िफ़ होते देर न लगी। मगर मैं बदस्तूर अफ़्सानों की दुनिया में घूम रहा था। फिर मैंने बेमहल ही नफ़ासत हसन से पूछा,
“आपके अफ़्साने तो बहुत जमा हो चुके होंगे?”
इस वक़्त तक वो सोडा और विस्की दोनों को मिला चुका था। मैंने सरदार जी से मुतआ’रिफ़होने से इनकार कर दिया था। इसलिए उसने और मौलाना ने गिलास टकराए और अपने अपने मुँह से लगा लिये। एक घूँट हलक़ से नीचे उतारते हुए नफ़ासत हसन बोला,
मैं अफ़्साने वग़ैरा कभी इकट्ठे नहीं करता। मेरे अफ़्साने कबूतर के बच्चे हैं। जिन्हें मैं लिखता हूँ और कहता हूँ ओ कबूतर के बच्चो! उड़ जाओ और वो उड़जाते हैं।”
इस तशबीह के अंदाज़ की मैंने बहुत ता’रीफ़ की। सच्च पूछो तो उस वक़्त मेरे ज़ेह्न में आइंस्टीन का नज़रिया-ए इज़ाफ़ीयत नुमायां हो गया था। हर चीज़ को दूसरी चीज़ से निस्बत है, अफ़्साने को कबूतर के बच्चे से, फ़ाहिशा औरत की मुस्कुराहट को बदर-रू में फटते हुए बुलबुले से, सुबह की पहली किरन को अंगड़ाई लेती हुई दीवार से, नफ़ासत हसन को चरखे से...
उस वक़्त में सोचने लगा कि ये तश्बीहें, नादिर और दूर अज़ कार तश्बीहें इस अज़ीमुश्शान अदीब के दिमाग़ में पैदा कहाँ से होती हैं। फिर मुझे फ़ौरन ही ख़्याल आया,ये तो एक सीधा-सादा सा अ’मल है ख़ुद नफ़ासत हसन ने एक-बार मुझे बतलाया था कि उसे क़ब्ज़ की शिकायत कभी नहीं होती। बा’ज़ मुसन्निफ़ तो सख़्त क़ब्ज़ में मुब्तला नज़र आते हैं, बेचारे बहुत ज़ोर लगाकर लिखते हैं। मैंने सोचा, इस लिहाज़ से तो नफ़ासत हसन हर-रोज़ रात को दूध के साथ इतरीफ़ल ज़मानी खाता है, यही वजह है कि वो पत्थर, बुलबुले, रघुबीर,पहलवान, किताब, मेज़ , कुर्सी, क़लम, दवात, हर चीज़ पर लिख कर उनके मज्मूओं के नाम दौड़ो, भागो, रोओ, पीटो रख सकता है।
मगर मैं बहुत देर तक इन अफ़्सानों की दुनिया में न रह सका। उस वक़्त तक दोनों अदीब विस्की की बोतल आधी के लगभग ख़त्म कर चुके थे। मन्नान के ख़्याल में क़िस्म-क़िस्म की शराब को मिलाकर पीने की धुन समाई। चुनांचे जुम्मन मियां ने बहुत सी बोतलों से एक-एक पैग उंडेला और फिर सबको विस्की में उंडेल दिया। उस वक़्त मौलाना शराब में अपने आपको खो रहे थे। शायद उन्होंने इसीलिए नफ़ासत हसन की अदबी जौलानियों को सराहना चाहा और पैग हलक़ से नीचे उतारते हुए उन्होंने नफ़ासत हसन को एक थपकी दी और बोले,
“शाबाश! बरखु़र्दार... लिखे जाओ!”
नफ़ासत हसन जो सरदारजी के मकान की फ़िज़ा से बहुत मानूस था और जो बग़ैर बौखलाए बहुत से पैग पी सकता था, बोला,
“बस-बस मौलाना! यही एक बात है जो मुझे सिरे से नापसंद है। इस बेहूदा सरपरस्ती की मुझे चंदाँ ज़रूरत नहीं, आपकी मदह-ओ-ज़म की मुझे मुतलक़ पर्वा नहीं। समझे आप? अगर आपने मेरे अफ़्साने पढ़े तो इससे मेरा कुछ संवर नहीं गया। अगर नहीं पढ़े तो कुछ बिगड़ा नहीं।”
मौलाना को इस बेजा गुफ़्तगु से सख़्त हैरत हुई। अपने मेज़बान के कंधे थपकते हुए बोले, “बरखु़र्दार! अगर तुम अफ़्साना निगारी के बजाय मिट्टी का तेल भी बेचा करते तब भी मेरे दिल में तुम्हारी ऐसी ही इज़्ज़त
होती।”
ये दोनों अदीब तो आपस में संजीदगी से गुफ़्तगु कर रहे थे। मगर मैं इस माहौल में बौखला सा गया। फिर मुझे यूं महसूस होने लगा कि ये अदीब मेरी तरह परहेज़गार हैं और शराब दरअसल मैं पी रहा हूँ।
एक और पैग हलक़ से नीचे उतारने के बाद नफ़ासत हसन ने पापड़ का एक टुकड़ा मुँह में डाला और कहा,
“मौलाना! में लिखना चाहता हूँ, बहुत कुछ लिखना चाहता हूँ। मेरी कभी किसी चीज़ से तसल्ली नहीं होती।”
और अभी नफ़ासत हसन ने गुफ़्तगु ख़त्म भी न की थी कि मुझे ख़्याल आया कि तसल्ली कैसे हो सकती है क्योंकि उसके अफ़्साने तो कबूतर के बच्चे हैं और जब तक वो कबूतर के बच्चे रहेंगे वो फिर से नफ़ासत हसन के पास से उड़जायेंगे। आख़िर नफ़ासत हसन ने कोई छतनारा भी तो क़ायम नहीं किया ताकि बेचारे उसी पर कभी-कभी आकर बैठ जायें और अपने गुज़श्ता मालिक को देख लें। अब वो बेशुमार आवारा रूहों की तरह एक लाया’नी आसमान में पर फड़फड़ाते फिर रहे हैं।
नफ़ासत हसन अपनी गुफ़्तगु को जारी रखते हुए बोला,
“बस एक चीज़ लिख लूँगा, एक चीज़, तो मेरी तसल्ली हो जायेगी। उसके बाद में मर भी जाऊं तो भी यही समझूँगा कि मैंने ज़िंदगी में एक बहुत बड़ा काम किया है।”
मौलाना के और मेरे हक़ीक़ी और क़यासी नशे हिरन हो गये। हमारी दोनों की तवज्जो उस अफ़्साने का प्लाट सुनने के लिए नफ़ासत हसन आग के पतले और नहीफ़ चेहरे की तरफ़ उठ गई। नफ़ासत हसन बोला,
“मैं उन दिनों बंबई में रहता था। मेरे मकान का एक दरवाज़ा एक ग़ुस्ल-ख़ाने में खुलता था। उस ग़ुस्ल-ख़ाने में एक दर्ज़ थी। बस उसी दर्ज़ में से मैं कुँवारी लड़कियों को नहाते हुए देखता था। अधेड़ उ’म्र की और बूढ़ी औरतों को भी। इसके इ’लावा नौजवान मर्द भी नहाने के लिए आया करते थे और जैसा आपको मा’लूम है इन्सान आम ज़िंदगी में वो हरकतें नहीं करता जो ग़ुस्ल-ख़ाने में करता है।
मैं इस बात को समझ न सका। लेकिन मेरे सामने आइन्स्टाइन का नज़रिया-ए इज़ाफ़ीयत था। इसलिए मैंने चंदाँ पर्वा न की और सुनता चला गया। नफ़ासत हसन बोला,
“बस उन ग़ुस्ल-ख़ाने में नहाने वालियों और नहाने वालों के मुता’ल्लिक़ मैं लिख कर मरजाऊं तो मुझे कोई अफ़सोस न होगा। उस अफ़साने का नाम रखूँगा... एक दर्ज़ में से...! और मरजाऊंगा।”
मुझे नफ़ासत हसन की इस हरकत पर बहुत हंसी आई और मेरा जी चाहने लगा कि अगर मैं उसका तज़्किरा लिख कर मरजाऊं तो मुझे भी ज़िंदगी में कोई हसरत न रह जायेगी।
मौलाना, जो नफ़ासत हसन की ‘बेतूकियों’ को बड़े ग़ौर से सुन रहे थे, कुछ न बोले। न जाने नफ़ासत हसन के दिल में ख़ुद ही ख़्याल आया कि उसने मौलाना की हतक की है। वो अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ। बोसे के लिए उसने अपना दायाँ गाल मौलाना के सामने पेश कर दिया। मौलाना ने तबर्रुकन एक बोसा ले लिया। उसके बाद नफ़ासत हसन ने बायां गाल पेश कर दिया। मौलाना के नज़दीक अब तबर्रुक का मसला नहीं रहा था। लेकिन उन्होंने बोसा ले लिया।
मैं उनकी बाहमी लड़ाई का मुतवक़्क़ा था। लेकिन अचानक मौलाना ने उठकर बड़े ख़ुलूस से छाती पर हाथ रखते हुए कहा,
“देखो भाई अब तुम मानोगे। मैं समरसेट माम हूँ।”
नफ़ासत हसन ने अपनी छाती पर हाथ रखते हुए कहा,
“मैं समरसेट माम हूँ।”
मौलाना ने कोई मुज़ाहमत ना की बल्कि अपनी छाती पर हाथ रखते हुए बोले,
“मैं समरसेट माम हूँ।”
फिर नफ़ासत हसन की तरफ़ इशारा करते हुए वो बोले,
“तुम समरसेट माम हो... हम दोनों समरटसेट माम हैं... जो है समरसेट माम है, जो नहीं है वो भी समरसेट माम है... समरसेट माम भी समरसेट माम है...!” गाजर के गर्म हलवे की ख़ुशबू से सारा कमरा महक उठा था और अगर किसी दा’वत की सबसे बड़ी ख़ूबी यही है कि हर खाना निहायत सलीक़े से तैयार किया जाये और मा’मूली मा’मूली चीज़ में भी एक नया ही ज़ायक़ा पैदा कर दिया जाये तो बिलाशुब्हा दिल्ली की वो दा’वत मुझे हमेशा याद रहेगी।
इतनी भी क्या ख़ुशी है, मैं सोच रहा था, इतना तो नफ़ासत हसन पहले भी कमा लेता होगा। डेढ़ सौ रुपये के लिए उसने अपनी आज़ादी बेच दी और अब ख़ुश हो रहा है। वो तो शुरू से बाग़ियाना तबीयत का आदमी मशहूर है, उसके अफ़साने तरक़्क़ी-पसंद अदब में नुमायां जगह पाते रहे हैं। फिर ये नौकरी उसने कैसे करली? ग़रीबों पर ज़ुल्म ढाए जाते हैं, ज़िंदगी की हतक की जाती है, सरमाया दाराना निज़ाम मकड़ी की तरह बराबर अपना जाला बुनता रहता है और ग़रीब किसान मज़दूर आपसे आप उस जाले में फँसते चले जाते हैं... इन ख़्यालात का मालिक आज ख़ुद मक्खी की तरह इस जाले में फंस गया और इस ख़ुशी में यारों दोस्तों की दा’वत दे रहा है! मगर मैंने अपने ख़्यालात का असर चेहरे पर ज़ाहिर न होने दिया।
दा’वत में कई अदीब शरीक थे। मैं सोचने लगा। हिन्दोस्तान की आज़ादी के मुता’ल्लिक़ इन हैट पहनने वाले अदीबों से ज़्यादा मदद की उम्मीद न रखनी चाहिए और ब्राउनिंग का ख़्याल... “चंद चांदी के सिक्कों के इवज़ वो हमें छोड़ गया!” मेरे ज़ेह्न में फैलता चला गया। उन रजअ’त पसंदों को ये गुमान कैसे हो गया कि वो तरक़्क़ी-पसंद अदब का चर्चा करके सुनने वालों की आँखों में धूल डाल सकते हैं? कहाँ तरक़्क़ी और आज़ादी का हक़ीक़ी नस्ब-उल-ऐन और कहाँ ये चांदी की गु़लामी! नफ़ासत हसन के गोरे चेहरे पर हंसी नाच रही थी। सच्च पूछो तो ये हंसी मुझे बड़ी भयानक दिखाई देती थी।
गाजर का हलवा सच-मुच बहुत लज़ीज़ था और वो मेरे ख़्यालात पर हावी हो रहा था... मक़नातीस इतना क़रीब हो और लौह-चून के ज़र्रे खिंचे न चले आयें! ये कैसे हो सकता है। मतलब ये कि अगर ये हलवा न होता तो मैं नफ़ासत हसन को और भी ज़्यादा तन्क़ीदी ज़ाविए से देखता होता।
बहुतों के नामों से मैं नाआशना था। ये और बात है कि कई चेहरे मेरे लिए नये न थे। ख़ासकर मौलाना नूरहसन आरज़ू को तो इससे पहले कभी फ़ोटो में भी न देखा था। उनकी आवाज़ मुझे बहुत प्यारी लगी। बहुत जल्द मैंने उनकी फ़साहत का लोहा मान लिया। ये महसूस होते भी देर न लगी कि उन्हें ऐसी ऐसी दलीलों पर उ’बूर हासिल है कि मौक़ा पड़ने पर वो अपने हरीफ़ को घास के तिनके की तरह अपनी राह से उड़ा दें। उ’म्र में वो कोई बूढ़े न थे, अधेड़ ही थे। मगर नये ज़माने से उतना ही रिश्ता रखते थे कि सरकारी नौकरी की वजह से पाजामे और शेरवानी को ख़ैरबाद कह कर अंग्रेज़ी वज़ा’ का सूट पहनना शुरू कर दिया था।
बर्फ़ में लगी हुई गँडेरियों के ढेर पर सब अदीब दोस्त बढ़ बढ़कर हाथ मार रहे थे। जूंही गँडेरी का गुलाब में बसा हुआ रस हलक़ से नीचे उतरता मौलाना आरज़ू की आँखों में एक नई ही चमक आ जाती।
नफ़ासत हसन कह रहा था, “ये गँडेरियाँ तो खासतौर पर मौलाना के लिए मँगवाई गई हैं।”
“ख़ूब”, मौलाना बोले, “और गाजर का हलवा भी शायद मेरे ही लिए बनवाया गया था...”
“जी हाँ।”
नफ़ासत हसन की बेबाक निगाहें मौलाना की शोख़ आँखों में गड़ कर रह गईं। कुछ लोगों का ख़्याल था कि उसे अपने महकमे में नौकरी दिलाने में मौलाना का बहुत हाथ था। मगर ख़ुद नफ़ासत हसन ऐसा आदमी न था कि एहसानमंदी को तसव्वुर में भी लासके। उसका ख़्याल था कि ख़ुद वक़्त की करवट की बदौलत ही वो ये नौकरी हासिल कर सका है और गाजर का लज़ीज़ हलवा और गुलाब में बसी हुई गँडेरियाँ किसी मौलाना का एहसान उतारने के ख़्याल से हरगिज़ पेश नहीं की गईं।
मौलाना इधर बहुत मोटे हो गये थे और वो हैरान थे कि हिन्दोस्तान के सबसे बड़े शहर में लगातार कई साल गुज़ारने के बावजूद नफ़ासत हसन ने अपनी बैठक में एक-आध बड़ी कुर्सी रखने की ज़रूरत क्यों न महसूस की थी। अभी तक बढ़इयों ने बड़ी कुर्सियाँ बनाना बिलकुल तर्क तो नहीं किया। ये और बात है कि नये ज़माने में अब लोग कभी इतने मोटे न हुआ करेंगे! अपनी गोल-गोल घूमती हुई आँखें उन्होंने मेरी तरफ़ फेरीं और मैंने देखा कि उनमें ग़रूर और ग़म गले मिल रहे हैं और वो बीते वक़्तों को फिर से वापस आता देखने के लिए बेक़रार हो रहे हैं।
धीरे-धीरे महफ़िल छदरी होती गई। नये दोस्त ये ख़्याल लेकर लौटे कि नफ़ासत हसन एक निशात पसंद और दोस्त-नवाज़ आदमी है। ये अलग बात है कि वो रस्मी तकल्लुफ़ात का कोई बड़ा हामी नहीं है। है भी ठीक। दोस्ती होनी चाहिए आज़ाद नज़्म सी... क़ाफ़िया और रदीफ़ की क़ैद से आज़ाद।
मौलाना बराबर जमे हुए थे। मुझसे मुख़ातिब हो कर बोले, “साहिब, समरसेट माम का मुता’ला किया है आपने?”
उन्होंने ये बात इस लहजे में पूछी थी कि मुझे गोल-मोल जवाब पर उतरना पड़ा। साहिब, कहाँ तक मुताला किया जाये? अनगिनत किताबें हैं और अनगिनत मुसन्निफ़। अब मैं समर सेट माम का ख़्याल रखूँगा।”
“तो ये कहिए न कि आपने समर सेट माम की कोई किताब नहीं पढ़ी।”
अब मैं समझा कि समर सेट माम कोई मुसन्निफ़ हैं। मैंने झेंपते हुए जवाब दिया, “जी हाँ, यही समझ लीजिए।”
“तो इसका यही मतलब हुआ न कि अब तक आपने यूंही उ’म्र ज़ाए’ की।”
इस पर नफ़ासत हसन बिगड़ उठा। गर्मा गर्म बहस छिड़ गई। पता चला कि मौलाना ने नफ़ासत हसन को चिढ़ाने के लिए ही समर सेट माम का तज़्किरा किया था। एक दिन ख़ुद नफ़ासत हसन ने यही सवाल मौलाना से किया था और जब उन्हों ने मेरी तरह बात टालनी चाही तो वो कह उठा था “तो इसका यही मतलब हुआ न कि अब तक आपने यूँही उ’म्र ज़ाए’ की।”
उधर मौलाना ने अंग्रेज़ी अदब से रब्त बढ़ाना शुरू कर रखा था मगर नफ़ासत हसन बदस्तूर यही समझता था कि ये सिर्फ़ एक दिखावा है और अंग्रेज़ी अदब के नए रुजहानों से उन्हें कोई लगाव नहीं है। जब भी वो उनके हाथ में कोई अंग्रेज़ी किताब देखता, उसके ज़ेह्न में तंज़ जाग उठती , जैसे साँप के सर में ज़हर जाग उठता है। इस दिखावे की आख़िर क्या ज़रूरत है...? बेहूदा दिखावा...! नया रंग तो सफ़ेद कपड़े ही पर ठीक चढ़ता है!
मौलाना बड़ी सादा और पुरअसरार ज़बान में शे’र कहते थे। मज़ामीन भी लिखते थे। अफ़साना निगारी के बाब में उन्होंने कोई कोशिश न की थी। हाँ जब कोई वाक़िया’ सुनाते तो यही गुमान होता कि कोई कहानी जन्म ले रही है और अगर उस वक़्त कोई आदमी उनकी ता’रीफ़ कर देता तो ख़्वाह-मख़्वाह उनकी निगाह में बहुत ऊंचा उठ जाता। दाद पाकर ही वो दाद दे सकते हों, ये बात न थी। अक्सर वो किसी ऐसे मुआ’वज़े के बग़ैर भी नौजवान अदीबों की पीठ ठोंकते रहते थे। उनकी ये सरपरसताना तबीयत ही नफ़ासत हसन के नज़दीक वो ऐ’ब था जिसकी वजह से जैसा कि उसका ख़्याल था न वो पुराने दौर की नुमाइन्दगी करने में कामयाब हुए थे और न नये दौर ही से रिश्ता जोड़ सके थे।
जब भी नफ़ासत हसन मौलाना के ख़िलाफ़ बिस उगलता। मुझे यूं महसूस होता कि अदब का नया दौर अपने से पहले दौर की हतक कर रहा है। ये तो अपनी ही हतक है। सतही तौर पर उसका घिनावनापन आँख से कितना ही ओझल रहे मगर जब ये बात समझ में आजाती है कि अदब एक इर्तिक़ाई चीज़ है तो कोई भी अदीब अपना ये वतीरा जारी नहीं रख सकता।
हाँ, तो समरसेट माम वाला मज़ाक़ नफ़ासत हसन न सहार सका। बोला, “बस-बस चुप रहिए। इतनी ज़बान मत खोलिए।”
नफ़ासत हसन की ज़बान पर रंदा चलने का गुमान होता था। मौलाना ने क़दरे घूर कर उसकी तरफ़ देखा और बोले, “इतने गर्म क्यों होते हो, मियां! उ’म्र ही में सही, मैं तुम्हारे वालिद के बराबर हूँ।”
“बस-बस, ये शफ्क़त अपने ही पास रखिए। मुझे नहीं चाहिए ये कमीनी शफ़क़त... ये सरपरसताना शफ्क़त... बड़े आये हैं मेरे वालिद... वालिद! इतनी ज़बान दराज़ी!”
मौलाना ने अब तक यही समझा था कि वो मज़ाक़ ही की सरहद पर खड़े हैं। मुआ’मला तो दूसरा ही रंग इख़्तियार कर चुका था। उनके चेहरे पर गुस्से की तह चढ़ गई। बोले, “एक ससुरे समरसेट माम की ख़ातिर क्यों मेरी हतक करने पर तुले हो, मियां...? कमबख़्त समरसेट माम...!”
बात तूतू-मैंमैं की शक्ल इख़्तियार कर गई। मुझे तो यही ख़तरा महसूस होने लगा कि कहीं दोनों अदीब हाथा पाई पर न उतर आयें।
नफ़ासत हसन उस दिन मेज़बान था और घर पर आये हुए किसी मेहमान की शान में हर तरह की ज़बान दराज़ी से उसे परहेज़ करना चाहिए था और फिर ये मेहमान कोई मा’मूली आदमी न था। उस का हमअ’स्र अदीब था। उ’म्र में उससे बड़ा और ज़बान दानी में कहीं बढ़कर। मैं सोचने लगा कि समरसेट माम पर नफ़ासत हसन इतना क्यों फ़िदा है? वो भी मौलाना की तरह एक आदमी ही तो है, कोई फ़रिश्ता नहीं है और मैं तो समझता हूँ हर लिहाज़ से नफ़ासत हसन के कमरे में पड़ी हुई किसी भी हल्के भूरे रंग की कुर्सी से मौलाना ज़्यादा क़ीमती थे। नफ़ासत हसन इतना गर्म क्यों हो गया था? वो शायद अपने मेहमान को कुर्सी से उठा देना चाहता था। ये ठीक है कि मौलाना की तंज़ ज़रा तीखी थी मगर थी तो आख़िर ये तंज़ ही और इसका जवाब अगर तंज़ ही से दिया जाता तो इस क़दर दिलख़राश मुज़ाहरा तो न हुआ होता।
समरसेट माम आख़िर क्या लिखता होगा? क्या उसे अपने वतन इंग्लिस्तान में भी नफ़ासत हसन जैसा कोई आशिक़-ए-ज़ार नसीब हुआ होगा? मुझे ये शक गुज़रा कि नफ़ासत हसन के बहुत से जुमले जिन्हें वो मौक़ा बे मौक़ा निहायत शान से अपनी गुफ़्तगु और तहरीरमें नगीनों की तरह जड़ने में होशयार सुनार बन चुका है, ज़रूर विलायत की किसी फ़ैक्ट्री से बन कर आये हैं, उसकी अपनी तख़्लीक़ हरगिज़ नहीं। मैं सोचने लगा कि पहले-पहल कब समरसेट माम के क़लम ने उस पर जादू सा कर दिया था और क्या ये जादू कभी ख़त्म भी हो जायेगा?
एक दिन उसने मुझसे पूछा, “औरत किस वक़्त सुंदर लगती है?”
मुझे कोई जवाब न सूझा। “मैंने कहा आप ही बतलाइये।”
वो बोला, “हाँ तो सुनो... जब वो तीन दिन से बुख़ार में मुब्तला हो और उसके हाथों की रगें नीली पड़ जायें। तब औरत कितनी सुंदर लगती है, कितनी सुंदर!”
मैंने सोचा, शायद ये नगीना भी समरसेट माम की फ़ैक्ट्री से बन कर आया हो।
मैंने नफ़ासत हसन को मुख़ातिब करके कहा, “ख़फ़गी छोड़ो मियां! समरसेट माम तो एक देवता है।”
वो बोला “और मैं?”
“आप भी देवता हैं, मियां!”
मैंने उसे बताया कि देवताओं में तीन बड़े देवता हैं... ब्रह्मा, विष्णु और शिव। अपनी अपनी जुदागाना अहमियत के बाइ’स वो बेहद मुमताज़ बन गये हैं। ब्रह्मा जन्म देता है, विष्णु परवरिश करता है और शिव ठहरा मौत का नाच नाचने वाला... नटराज!
नफ़ासत हसन का ध्यान अब मेरी तरफ़ खिंच गया। उधर मौलाना की आँखों में गु़स्सा ठंडा पड़ गया था और वो मेरी बात में दिलचस्पी ले रहे थे। मैंने बताया कि हर अदीब मुख़्तलिफ़ वक़्तों में ब्रह्मा, विष्णु और शिव
होता है। जब एक शख़्स एक चीज़ लिखने में कामयाब हो जाता है। मैं उसे ब्रह्मा कहना पसंद करूँगा। वो उस चीज़ को सँभाल-सँभाल कर रखता है। हरमुमकिन इस्लाह करता है, इस वक़्त वो विष्णु का हम पल्ला होता है और जब वो अपने ही हाथ से किसी तहरीर के टुकड़े-टुकड़े कर डालता है, वो सौ फ़ीसदी शिव का रूप धार लेता है।
मौलाना बोले, “बहुत ख़ूब! आपका तखय्युल मिसाल के तौर पर पेश किया जा सकता है।”
मैंने झट से कह दिया, “मेरा तख़य्युल ! नहीं मौलाना नहीं। ये मेरा तख़य्युल नहीं है। मतलब ये कि मेरा तबा’ज़ाद ख़्याल नहीं है...”
“तो किस का ख़्याल पेश कर रहे हैं आप?”
“बंबई की पी.ई.एन सोसाइटी में बुलबुल-ए-हिंद मिसेज़ सरोजनी नायडू ने मेरी एक तक़रीर पर सदारत करते हुए ये ख़्याल पेश किया था।”
“बहुत ख़ूब ...! बुलबुल-ए-हिंद ने आपकी तक़रीर पर सदारत की थी!.. हाँ, तो अब कोई तबा’ज़ाद ख़्याल सुनाइये ना!”
“तबा’ज़ाद...! तबा’ज़ाद की भी ख़ूब कही, मुझे तो सिरे से यही शक हो रहा है कि तबा’ज़ाद नाम की कोई चीज़ होती भी है या नहीं।”
नफ़ासत हसन बौखलाया, “क्या कह रहे हो, मियां? सुनिए मैं एक ख़्याल पेश करता हूँ... जूंही सुबह की पहली किरन आँखें मलती हुई धरती पर उतरी पास की कच्ची दीवार अंगड़ाई ले रही थी।”
मौलाना ने हैरत से कहा, “दीवार अंगड़ाई ले रही थी!”
मैंने बीच बचाव करते हुए कहा, “इस वक़्त नफ़ासत हसन एक ब्रह्मा हैं, मौलाना!”
“ब्रह्मा?”
“जी हाँ, ब्रह्मा... और न जाने कब तक वो विशनू बना हुआ ये ख़्याल सँभाल-सँभाल कर रखेगा... और फिर एक दिन वो शिव बन जाएगा और ख़ुद अपने हाथों से इस ख़्याल का गला घोंट डालेगा। उसे ख़ुद अपनी तख़्लीक़ पर हंसी आयेगी... सिर्फ़ हंसी, अगर ये ख़्याल उसका सौ फ़ीसद तबा’ज़ाद ख़्याल नहीं है और पूरी पूरी शर्म, अगर ये सच-मुच उसका सौ फ़ीसदी तबा’ज़ाद ख़्याल है।”
नफ़ासत हसन चाहता तो झट मेरे ख़्याल की तर्दीद कर देता। मगर वो चुप बैठा रहा। शायद वो कुछ झेंप सा गया था और अपनी कमतरी के जज़्बे को छुपाने की कोशिश कर रहा था।
मौलाना बोले, “ब्रह्मा, विष्णु और शिव के मुता’ल्लिक़ आज मैं कुछ और भी सुनना चाहता हूँ।”
मैंने कहा, “सुनिए विष्णु और शिव के हज़ारों मंदिर हैं और ब्रह्मा का एक भी मंदिर नहीं है कहीं।”
“ब्रह्मा का एक भी मंदिर नहीं।”
जी नहीं, सुनिए तो, बड़ी दिलचस्प कहानी है। एक-बार विष्णु और ब्रह्मा में ये मुक़ाबला हो गया कि कौन पहले शिवलिंग की गहराई और ऊंचाई का पता लासकता है। विष्णु जड़ की तरफ़ चल पड़ा और ब्रह्मा चोटी की तरफ़। ब्रह्मा ऊपर चढ़ गया। मगर शिवलिंग की चोटी कहीं नज़र न आती थी। ऊपर से एक चम्बेली का फूल गिरता आरहा था। ब्रह्मा ने पूछा “किधर से आना हुआ?”
फूल बोला, “शिवलिंग की चोटी से।”
ब्रह्मा ने पूछा, “कितनी दूर है वो चोटी?”
फूल ने कहा... “दूर बहुत दूर।”
ब्रह्मा चम्बेली के हमराह वापस हुआ। रास्ते में उसने उस फूल को इतना सा झूट बोलने के लिए रज़ामंद कर लिया कि वो विष्णु के सामने कह दे कि वो दोनों ख़ास शिवलिंग की चोटी से होते हुए आरहे हैं। मगर शिव तो ठहरा अंतर जामी। ब्रह्मा और चम्बेली को बड़ी भारी सज़ा दी गई। रहती दुनिया तक ब्रह्मा का कहीं मंदिर न बनेगा। चम्बेली किसी मंदिर में पूजा न चढ़ाई जाएगी।
नफ़ासत हसन बोला, मगर ये तो नया ज़माना है। अब तो शायद ब्रह्मा का भी मंदिर बन जाये कहीं और मेरा यक़ीन है कि अगर ब्रह्मा पर कोई फूल चढ़ेगा तो वो बिला शुब्हा चम्बेली का फूल ही होगा।”
नफ़ासत हसन ने यक़ीनन उस वक़्त यही सोचा होगा कि अब तक वो ख़ुद फ़क़त एक ब्रह्मा ही है, क्योंकि उसके पब्लिशर ने उसके अफ़्सानों का ज़ख़ीम मज्मुआ’ शाये’ करने से अभी तक गुरेज़ ही किया है। मगर जूंही ये किताब शाये’ होगी, उसकी शोहरत का हक़ीक़ी मंदिर ता’मीर होते देर न लगेगी और उस मंदिर में चम्बेली के फूल ही उस पर चढ़ाए जाया करेंगे।
अपने मुता’ल्लिक़ इस क़दर ग़लतफ़हमी रखने में उसके दो-चार गहरे दोस्तों ही का हाथ था। उनका ख़्याल था कि उषा के घूँघट खोलने से पहले की सारी स्याही और सुर्ख़ी... अँधियारे और उजाले की गंगा-जमुनी सरगोशियाँ... उसकी तबा’ में बहुत नुमायां नज़र आती हैं और अगर उसने शुरू में रूसी अफ़्सानों के तर्जुमा में अपनी उठती जवानी का ज़ोर लगाने के बजाय तबा’ज़ाद अफ़्साने लिखने में सरगर्मी दिखाई होती तो आज उसका नाम सफ़-ए-अव़्वल के तरक़्क़ी-पसंद अफ़्साना निगारों में शुमार होता। उनका ये भी ख़्याल था कि अब भी गिरे हुए बेरों का कुछ नहीं बिगड़ा। अगर ये सौ फ़ीसदी तबा’ज़ाद अफ़्साना निगार सौ फ़ीसदी वसीला साज़ भी होता गया, तो यक़ीनन वो हिन्दोस्तान भर के अफ़्सानवी अदब की चोटी पर नज़र आयेगा।
एक-बार दोस्तों ने उसे बताया कि वो बड़ा साफ़ गो है। चुनांचे सपनों में भी ये ख़्याल उसका तआ’क़ुब करने लगा कि वाक़ई वो बड़ा साफ़ गो है। यही वो सिफ़त है जो सौ फ़ीसदी तबा’ज़ाद अफ़्साना निगार को ज़िंदगी के मुताले में हक़ीक़ी मदद दे सकती है। जब इस नौकरी के लिए उसने दरख़्वास्त भेजी तो उससे पूछा गया कि उसने किस मज़मून में अपना इल्म पाया-ए-तक्मील तक पहुंचाया है। बिला झिजक उसने लिख भेजा कि मैंने अपनी बेशतर ज़िंदगी बेस्वाओं का मुता’ला करने में गुज़ारी है। गो उस साफ़-गोई से कहीं ज़्यादा किसी की सिफ़ारिश ही ने उसे ये नौकरी दिलाने में मदद दी थी। मगर वो बराबर नये मिलने वालों के रूबरू इसका ज़िक्र बड़े फ़ख़्र से किया करता था। साफ़-गोई, सौ फ़ीसदी साफ़-गोई! मैंने सोचा शायद इस साफ़-गोई की सरहद ने अभी घर की दीवारों तक पांव न फैलाए होंगे। घर में आकर तो अक्सर बड़े-बड़े तरक़्क़ी-पसंद अदीब भीगी बिल्ली बनने पर मजबूर होजाते हैं।
ये ठीक है कि उसकी तरक़्क़ी पसंदी बड़ी हद तक उर्यां जिन्सी बयान से घिरी रहती थी मगर कुछ अ’र्से से उसके ज़ेह्न में ये वहम समा गया था कि वो किसी भी जानदार या बे-जान शय के गिर्द अपने अफ़्साने को घुमा सकता है। अपने एक अफ़्साने में उसने एक पत्थर की सरगुज़श्त बयान की थी जो एकाएकी किसी कुँवारी की उठती मचलती हुई छाती से टकराने के लिए बेक़रार हो उठा था। आदमी बदस्तूर आदमी है। मगर पत्थर अब पत्थर ही नहीं है। ये बात उसने बड़ी गहराई से लिखी थी। नफ़सियात की सरहदें अब सुकड़ी न रहेंगी। पत्थर अब पत्थर ही नहीं है, न बिजली का खंबा बिजली का खंबा ही। वो चाहता तो अपने सिगरेट केस में भी दिल डाल देता और उसके गिर्द नफ़सियात का बारीक जाल बुन देता।
उसकी ज़बान न बहुत मुश्किल थी न बहुत आसान। यहां वहां नई नई तश्बीहें भी हाज़िर रहती थीं। अभी उसे किसी का फूला हुआ थैला देखकर हामिला औरत के पेट का ध्यान आगया, अभी किसी की ज़ेह्नी कमज़ोरी उस दोशीज़ा सी नज़र आई जो आंधी में अपनी सारी सँभालने से क़ासिर हो। किसी के बोल सोडे के बुलबुले थे तो किसी की नाक चीनी की प्याली की ठूंठनी जैसी।
शाम हो चली थी। नफ़ासत हसन उठकर खड़ा हो गया और अपनी उंगलियों से बालों में कंघी करता हुआ छज्जे पर आगया। निकल्सन रोड पर क़रीब ही के टेलर मास्टर की दुकान में बर्क़ी क़ुमक़ुमे रोशन हो चुके थे। छज्जे पर खड़ा खड़ा नफ़ासत हसन पलटते हुए बोला,
“मौलाना, चलो लगे हाथों सरदार जी ही से मिलते आयें।”
मैं हैरानी से अपनी सीट में दुबका बैठा था। मैंने सोचा ये सरदारजी कौन हैं। जिनसे मिलने के लिए नफ़ासत हसन इतना मुश्ताक़ नज़र आता है। फिर मुझे ख़्याल आया कि वो सिर्फ़ अपने फ़र्क़ बराए फ़र्क़ के नज़रिये के मुताबिक़ ही मुझसे भी लंबी दाढ़ी वाले शख़्स से मिलना चाहता है। हालाँकि ख़ुद उसके चेहरे पर दाढ़ी तो दाढ़ी मूंछ तक का निशान हर दूसरे तीसरे दिन हटा डाला जाता था। इस से पहले भी उसने एक अदीब की मूंछों को महज़ इसलिए पसंद किया था कि वो मूँछें मौलाना ने नापसंद की थीं। मुझे यक़ीन था कि अगर मौलाना ने उन मूंछों की ता’रीफ़ में एक-आध बात कह दी होती तो वो फ़ौरन कह उठता, मौलाना आपकी अंधा धुंद पसंद की तो हद हो चुकी है। लाहौल व ला क़ुव्वत... आपने भी ख़ूब आदमियों में आदमी चुना!
ये सरदार जी कौन हैं? ये सवाल मेरे ज़ेह्न में फैलता चला गया। उनसे मुतआ’रिफ़ होने की खवाहिश देखकर नफ़ासत हसन ने मुझे भी अपने हमराह ले लिया। वो एक अजब मस्ती के आलम में सीढ़ियों से उतर रहा था। अपने पांव को वो ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर से ज़मीन पर फेंकता था और फट- फट की आवाज़ से शोर पैदा करता हुआ पड़ोसियों के आराम में मुख़िल हो रहा था। इस क़िस्म की हरकत को वो आज़ादी तसव्वुर करता था और उसे किसी क़ीमत पर भी देने को तैयार न था।
एक बड़े लंबे चौड़े बाज़ार में घूमते घामते हम आख़िर सरदारजी की दुकान पर पहुंच गये। पता चला कि नफ़ासत हसन इस्म बा मुसम्मा था। क्योंकि शराब की दुकान जहां उसने सरदारजी से मुलाक़ात का वक़्त मुक़र्रर किया था, सख़्त बदबूदार जगह थी। मेज़ पर संगमरमर की सिलों पर सोडा और विस्की जमी हुई थी और हमारी नशिस्त गाह के क़रीब ही टूटे हुए आबखू़रों का अंबार लग रहा था। बग़ल में एक उधेड़ उ’म्र का आदमी अपनी टांगें एक बोसीदा अलमारी के ऊपर टिकाए अपना मुँह पूरी तरह खोले बेहोश पड़ा था। आबखू़रों के इतना क़रीब होने की वजह से उसका खुला हुआ मुँह एक आबख़ोरा ही तो दिखाई देता था। एक लम्हा के लिए मुझे गुमान हुआ कि नफ़ासत हसन उसी शख़्स से मिलने आया है। गोया अपने आपसे, अपने सुंदर नाम से इन्साफ़ करने आया है। थोड़ी देर के बाद नफ़ासत हसन ने अपनी करख़्त आवाज़ से, जिससे हमेशा की तरह ख़्वाह-मख़्वाह रंदा चलने का गुमान होता था, पुकारा,
“ओ मियां जुम्मां! लाओ तो सरदार जी को।”
मियां जुम्मां एक झाड़न से बोतल साफ़ कर रहा था। दिन के वक़्त वो इसी झाड़न से सड़क पर से उड़कर आने वाली गर्द को शीशों में पड़ी हुई पेस्ट्री पर से झाड़ा करता था, या आबखू़रों के दरमियान तने हुए जालों को साफ़ करता रहता था। कुछ देर बाद जुम्मां ने विस्की की एक बोतल और सोडे की दो बोतलें मेज़ पर ला रखीं।
सरदार जी की शख़्सियत से वाक़िफ़ होते देर न लगी। मगर मैं बदस्तूर अफ़्सानों की दुनिया में घूम रहा था। फिर मैंने बेमहल ही नफ़ासत हसन से पूछा,
“आपके अफ़्साने तो बहुत जमा हो चुके होंगे?”
इस वक़्त तक वो सोडा और विस्की दोनों को मिला चुका था। मैंने सरदार जी से मुतआ’रिफ़होने से इनकार कर दिया था। इसलिए उसने और मौलाना ने गिलास टकराए और अपने अपने मुँह से लगा लिये। एक घूँट हलक़ से नीचे उतारते हुए नफ़ासत हसन बोला,
मैं अफ़्साने वग़ैरा कभी इकट्ठे नहीं करता। मेरे अफ़्साने कबूतर के बच्चे हैं। जिन्हें मैं लिखता हूँ और कहता हूँ ओ कबूतर के बच्चो! उड़ जाओ और वो उड़जाते हैं।”
इस तशबीह के अंदाज़ की मैंने बहुत ता’रीफ़ की। सच्च पूछो तो उस वक़्त मेरे ज़ेह्न में आइंस्टीन का नज़रिया-ए इज़ाफ़ीयत नुमायां हो गया था। हर चीज़ को दूसरी चीज़ से निस्बत है, अफ़्साने को कबूतर के बच्चे से, फ़ाहिशा औरत की मुस्कुराहट को बदर-रू में फटते हुए बुलबुले से, सुबह की पहली किरन को अंगड़ाई लेती हुई दीवार से, नफ़ासत हसन को चरखे से...
उस वक़्त में सोचने लगा कि ये तश्बीहें, नादिर और दूर अज़ कार तश्बीहें इस अज़ीमुश्शान अदीब के दिमाग़ में पैदा कहाँ से होती हैं। फिर मुझे फ़ौरन ही ख़्याल आया,ये तो एक सीधा-सादा सा अ’मल है ख़ुद नफ़ासत हसन ने एक-बार मुझे बतलाया था कि उसे क़ब्ज़ की शिकायत कभी नहीं होती। बा’ज़ मुसन्निफ़ तो सख़्त क़ब्ज़ में मुब्तला नज़र आते हैं, बेचारे बहुत ज़ोर लगाकर लिखते हैं। मैंने सोचा, इस लिहाज़ से तो नफ़ासत हसन हर-रोज़ रात को दूध के साथ इतरीफ़ल ज़मानी खाता है, यही वजह है कि वो पत्थर, बुलबुले, रघुबीर,पहलवान, किताब, मेज़ , कुर्सी, क़लम, दवात, हर चीज़ पर लिख कर उनके मज्मूओं के नाम दौड़ो, भागो, रोओ, पीटो रख सकता है।
मगर मैं बहुत देर तक इन अफ़्सानों की दुनिया में न रह सका। उस वक़्त तक दोनों अदीब विस्की की बोतल आधी के लगभग ख़त्म कर चुके थे। मन्नान के ख़्याल में क़िस्म-क़िस्म की शराब को मिलाकर पीने की धुन
समाई। चुनांचे जुम्मन मियां ने बहुत सी बोतलों से एक-एक पैग उंडेला और फिर सबको विस्की में उंडेल दिया। उस वक़्त मौलाना शराब में अपने आपको खो रहे थे। शायद उन्होंने इसीलिए नफ़ासत हसन की
अदबी जौलानियों को सराहना चाहा और पैग हलक़ से नीचे उतारते हुए उन्होंने नफ़ासत हसन को एक थपकी दी और बोले,
“शाबाश! बरखु़र्दार... लिखे जाओ!”
नफ़ासत हसन जो सरदारजी के मकान की फ़िज़ा से बहुत मानूस था और जो बग़ैर बौखलाए बहुत से पैग पी सकता था, बोला,
“बस-बस मौलाना! यही एक बात है जो मुझे सिरे से नापसंद है। इस बेहूदा सरपरस्ती की मुझे चंदाँ ज़रूरत नहीं, आपकी मदह-ओ-ज़म की मुझे मुतलक़ पर्वा नहीं। समझे आप? अगर आपने मेरे अफ़्साने पढ़े तो इससे मेरा कुछ संवर नहीं गया। अगर नहीं पढ़े तो कुछ बिगड़ा नहीं।”
मौलाना को इस बेजा गुफ़्तगु से सख़्त हैरत हुई। अपने मेज़बान के कंधे थपकते हुए बोले, “बरखु़र्दार! अगर तुम अफ़्साना निगारी के बजाय मिट्टी का तेल भी बेचा करते तब भी मेरे दिल में तुम्हारी ऐसी ही इज़्ज़त होती।”
ये दोनों अदीब तो आपस में संजीदगी से गुफ़्तगु कर रहे थे। मगर मैं इस माहौल में बौखला सा गया। फिर मुझे यूं महसूस होने लगा कि ये अदीब मेरी तरह परहेज़गार हैं और शराब दरअसल मैं पी रहा हूँ।
एक और पैग हलक़ से नीचे उतारने के बाद नफ़ासत हसन ने पापड़ का एक टुकड़ा मुँह में डाला और कहा,
“मौलाना! में लिखना चाहता हूँ, बहुत कुछ लिखना चाहता हूँ। मेरी कभी किसी चीज़ से तसल्ली नहीं होती।”
और अभी नफ़ासत हसन ने गुफ़्तगु ख़त्म भी न की थी कि मुझे ख़्याल आया कि तसल्ली कैसे हो सकती है क्योंकि उसके अफ़्साने तो कबूतर के बच्चे हैं और जब तक वो कबूतर के बच्चे रहेंगे वो फिर से नफ़ासत हसन के पास से उड़जायेंगे। आख़िर नफ़ासत हसन ने कोई छतनारा भी तो क़ायम नहीं किया ताकि बेचारे उसी पर कभी-कभी आकर बैठ जायें और अपने गुज़श्ता मालिक को देख लें। अब वो बेशुमार आवारा रूहों की तरह एक लाया’नी आसमान में पर फड़फड़ाते फिर रहे हैं।
नफ़ासत हसन अपनी गुफ़्तगु को जारी रखते हुए बोला,
“बस एक चीज़ लिख लूँगा, एक चीज़, तो मेरी तसल्ली हो जायेगी। उसके बाद में मर भी जाऊं तो भी यही समझूँगा कि मैंने ज़िंदगी में एक बहुत बड़ा काम किया है।”
मौलाना के और मेरे हक़ीक़ी और क़यासी नशे हिरन हो गये। हमारी दोनों की तवज्जो उस अफ़्साने का प्लाट सुनने के लिए नफ़ासत हसन आग के पतले और नहीफ़ चेहरे की तरफ़ उठ गई। नफ़ासत हसन बोला,
“मैं उन दिनों बंबई में रहता था। मेरे मकान का एक दरवाज़ा एक ग़ुस्ल-ख़ाने में खुलता था। उस ग़ुस्ल-ख़ाने में एक दर्ज़ थी। बस उसी दर्ज़ में से मैं कुँवारी लड़कियों को नहाते हुए देखता था। अधेड़ उ’म्र की और बूढ़ी औरतों को भी। इसके इ’लावा नौजवान मर्द भी नहाने के लिए आया करते थे और जैसा आपको मा’लूम है इन्सान आम ज़िंदगी में वो हरकतें नहीं करता जो ग़ुस्ल-ख़ाने में करता है।
मैं इस बात को समझ न सका। लेकिन मेरे सामने आइन्स्टाइन का नज़रिया-ए इज़ाफ़ीयत था। इसलिए मैंने चंदाँ पर्वा न की और सुनता चला गया। नफ़ासत हसन बोला,
“बस उन ग़ुस्ल-ख़ाने में नहाने वालियों और नहाने वालों के मुता’ल्लिक़ मैं लिख कर मरजाऊं तो मुझे कोई अफ़सोस न होगा। उस अफ़साने का नाम रखूँगा... एक दर्ज़ में से...! और मरजाऊंगा।”
मुझे नफ़ासत हसन की इस हरकत पर बहुत हंसी आई और मेरा जी चाहने लगा कि अगर मैं उसका तज़्किरा लिख कर मरजाऊं तो मुझे भी ज़िंदगी में कोई हसरत न रह जायेगी।
मौलाना, जो नफ़ासत हसन की ‘बेतूकियों’ को बड़े ग़ौर से सुन रहे थे, कुछ न बोले। न जाने नफ़ासत हसन के दिल में ख़ुद ही ख़्याल आया कि उसने मौलाना की हतक की है। वो अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ। बोसे के लिए उसने अपना दायाँ गाल मौलाना के सामने पेश कर दिया। मौलाना ने तबर्रुकन एक बोसा ले लिया। उसके बाद नफ़ासत हसन ने बायां गाल पेश कर दिया। मौलाना के नज़दीक अब तबर्रुक का मसला नहीं रहा था। लेकिन उन्होंने बोसा ले लिया।
मैं उनकी बाहमी लड़ाई का मुतवक़्क़ा था। लेकिन अचानक मौलाना ने उठकर बड़े ख़ुलूस से छाती पर हाथ रखते हुए कहा,
“देखो भाई अब तुम मानोगे। मैं समरसेट माम हूँ।”
नफ़ासत हसन ने अपनी छाती पर हाथ रखते हुए कहा,
“मैं समरसेट माम हूँ।”
मौलाना ने कोई मुज़ाहमत ना की बल्कि अपनी छाती पर हाथ रखते हुए बोले,
“मैं समरसेट माम हूँ।”
फिर नफ़ासत हसन की तरफ़ इशारा करते हुए वो बोले,
“तुम समरसेट माम हो... हम दोनों समरटसेट माम हैं... जो है समरसेट माम है, जो नहीं है वो भी समरसेट माम है... समरसेट माम भी समरसेट माम है...!”
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