Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

नुदबा

नैयर मसूद

नुदबा

नैयर मसूद

MORE BYनैयर मसूद

    स्टोरीलाइन

    "यह कहानी एक विशेष समुदाय के रीति-रिवाज के तनाज़ुर में लिखी गई है। मुख्य पात्र एडवेंचर की ग़रज़ से विभिन्न इलाक़ों का सफ़र करता है और हर जगह अपने मेज़बान को अपना नाम और पता काग़ज़ पर लिख कर दे आता है। धीरे धीरे उसे ये घूमना फिरना फ़ुज़ूल व्यर्थ काम मालूम होता है। एक लम्बे अर्से के बाद एक भीड़ उसके शहर में आकर उसे तलाश करती है। उनके हाव भाव से लोग उन्हें भीख माँगने वाले समझते हैं, लेकिन जब ये अपने हाथ का लिखा हुआ पर्चा देखता है तो समझ जाता है कि ये कौन लोग हैं? उनके इशारों और संकेतों से अंदाज़ा होता है कि वो मदद चाहते हैं लेकिन प्रथम वाचक उनकी कोई मदद नहीं कर पाता।"

    (1)

    मैंने बे हासिल मश्ग़लों में ज़िंदगी गुज़ारी है। अब अपना ज़ियादा वक़्त ये सोचने में गुज़ारता हूँ कि मुझे इन मश्ग़लों से क्या हासिल हुआ। ये मेरा नया और शायद आख़िरी और शायद सबसे बे-हासिल मश्ग़ला है।

    बरसों तक मैं मुल्क में इधर से उधर घूमता फिरा। मक़सद शायद ये था कि अपने छोटे-बड़े शहरों से वाक़फ़ियत बढ़ाऊँ, लेकिन उन दौरों का हासिल ये निकला कि मुझे अपने शहर के सिवा सब शहर एक से मालूम होने लगे और मैं अपने शहर वापस आकर कई महीने तक गोशा-नशीन रहा। फिर मेरा दिल घबराया और मैं फिर निकल खड़ा हुआ। अबकी बार मेरा रुख़ देहाती आबादियों की तरफ़ था। लेकिन बहुत जल्द मुझे मालूम हो गया कि ये आबादियाँ शहरी आबादियों से कुछ बहुत मुख़्तलिफ़ नहीं हैं, या कम से कम मुझको मुख़्तलिफ़ नहीं मालूम होतीं। मैं वापस लौट आया और बहुत दिनों तक इस वहम में गिरफ़्तार रहा कि मैं चीज़ों में फ़र्क़ करने की सलाहियत खो बैठा हूँ। मैं इस वहम को दिल में लिए रहा और कोशिश करता रहा कि मेरी किसी बात से इसका इज़हार होने पाए, लेकिन जब मुझे महसूस हुआ कि मेरे रोज़ के मिलने वाले मुझको अजीब नज़रों से देखने लगे हैं तो मैंने फिर मुसाफ़िरत इख़्तियार की।

    इस मुसाफ़िरत में एक अर्से तक मैं अपनी क़दीम सर-ज़मीन के उजाड़ इलाक़ों में घूमता फिरा। उन इलाक़ों के मौसम सख़्त और मिट्टी ख़राब थी। दरिया उनसे दूर पड़ते थे और ज़ियादा ज़रूरतों वाले इंसानों का वहाँ बसना मुम्किन था, फिर भी ये इलाक़े इंसानों से ख़ाली थे। मैं ऐसे इलाक़ों से भी हो कर गुज़रा जिन्हें इंसान ने शायद कभी अपना मस्कन नहीं बनाया था, लेकिन ये महज़ बड़े-बड़े ग़ैर-आबाद जुग़राफ़ियाई ख़ित्ते थे जो किसी मुब्हम अंदाज़ में समुद्रों से मुशाबेह थे और ग़ैर आबाद होने के बावजूद उजाड़ नहीं मालूम होते थे। उजाड़ इलाक़े वो थे जिन्हें इंसानों ने क़दीम ज़मानों से आबाद कर रखा था। ये इलाक़े उन जुग़राफ़ियाई ख़ित्तों से गुज़रते मैं किसी टापू की तरह अचानक मिल जाते थे और शायद इंसानों ही के आबाद होने से उजाड़ मालूम होते थे। और जिस तरह ये इंसान अपने इलाक़ों पर असर डालते थे उसी तरह वो इलाक़े भी अपने बासियों पर ऐसा असर डालते थे कि इंसानों के ये मुंतशिर गिरोह एक-एक करके ख़त्म हो रहे थे। कोई अचानक वबा या मौसम की कोई बड़ी तब्दीली उनको आसानी से मिटा सकती थी और मिटा देती थी।

    कई बार ऐसा हुआ कि किसी बिरादरी में कुछ दिन गुज़राने के बाद जब मैं दोबारा उसके इलाक़े से गुज़रा तो मैंने देखा अब वहाँ कोई नहीं है और वो इलाक़ा किसी ग़ैर-आबादी जुग़राफ़ियाई ख़ित्ते में क़रीब गुम हो चुका है, इसलिए कि उन बिरादरियों की निशानियाँ बहुत जल्द मिटती थीं।

    मैं उन लोगों के बारे में ज़ियादा मालूमात हासिल नहीं कर सका, इसलिए कि अगरचे मेरी ज़बान वो कुछ-कुछ समझ लेते थे लेकिन उनकी बोलियाँ मेरी समझ में नहीं आती थीं और हमारी ज़ियादा गुफ़्तगू इशारों में होती थी, लेकिन उसने भी मुझे कुछ बहुत फ़ायदा नहीं दिया इसलिए कि अलग-अलग बिरादरियों के अलग-अलग इशारे होते थे और कभी-कभी एक ही इशारा दो बिरादरियों में एक दूसरे के बिल्कुल बर-ख़िलाफ़ मानी देता था। एक बिरादरी ख़ुशी के इज़हार में जिस तरह हाथों को फैलाती थी दूसरी उसी तरह ग़म के इज़हार में फैलाती थी, एक बिरादरी सर की जिस जुंबिश से किसी बात का इक़रार करती थी दूसरी उसी जुंबिश से इनकार करती थी। उनके इशारों को सही-सही समझने के लिए वक़्त चाहिए था और मैं किसी एक बिरादरी में ज़ियादा टिकता नहीं था इसलिए इशारों की मदद से जो कुछ मैंने अपने नज़दीक मालूम किया उसका कोई भरोसा था और मैंने इस उलटी-सीधी मालूमात को वापस लौटने से पहले ही भुला दिया। जो कुछ मुझे याद रह गया वो उन बिरादरियों का नुदबा था जो हर जगह मेरी पहचान में जाता था।

    मैं नहीं कह सकता कि ये महज़ इत्तिफ़ाक़ था या उन लोगों में मौतें ज़ियादा होती थीं लेकिन बहुत सी बिरादरियों में मेरे पहुँचने के दूसरे ही तीसरे दिन कोई कोई मौत ज़रूर हुई जिसका ऐलान मरने वाले के क़रीब-तरीन रिश्तेदारों, या उन रिश्तेदारों के क़रीब तरीन रिश्तेदारों के चीख़ने या रोने से होता था। बिरादरी वाले उन सोगवारों के पास ख़ामोशी के साथ आते और उन्हें चुप करा के ख़ामोशी के साथ वापस चले जाते थे। कुछ लोग मय्यत को ठिकाने लगाने के बंदोबस्त में लग जाते। ये बंदोबस्त मुकम्मल करके कहीं मय्यत को ठिकाने लगाने के बाद और कहीं उससे पहले ही सब मिल कर नुदबा करते जिसके लिए बा-क़ायदा मक़ाम और वक़्त मुक़र्रर होता था।

    ज़ियादा तर बिरादरियों का नुदबा फ़रियादी लहजे में मौत की शिकायत से शुरू होकर मरने वाले की याद तक पहुँचता, फिर उसमें तेज़ी आने लगती। और जब नुदबा पूरे उरूज पर आता तो सब पर एक जोश तारी हो जाता और उनके बदनों की जुंबिशों और उनकी आवाज़ों और सबसे बढ़ कर उनकी आँखों से ग़म के बजाय ग़ुस्से का इज़हार होने लगता और कभी-कभी ऐसा मालूम होता कि सब ने कोई तेज़ नशा इस्तेमाल कर लिया है। कहीं-कहीं मुझको भी उस रस्म में शरीक होना पड़ता लेकिन मैं ऐसे मौक़ों पर जज़्बों से आरी बे-अक़्ली के साथ दूसरों की भोंडी नक़्क़ाली करता रह जाता और नुदबा ख़त्म भी हो जाता, जिसके बाद सब एक दूसरे को तसल्ली देते। उसमें मुझे भी तसल्ली दी जाती थी।

    नुदबा करने वालों में कहीं औरतों की तादाद ज़ियादा होती थी, कहीं मर्दों की, लेकिन एक बिरादरी में औरतों और मर्दों की तादाद बिल्कुल बराबर रखी जाती थी। यही एक बिरादरी थी जिसकी औरतों को इस रस्म के दौरान मैंने बहुत क़रीब से और छूकर देखा। उन औरतों के क़द छोटे और रंग साँवले थे। उनके औरत होने की पहचानें बनाने में क़ुदरत ने मुबालग़े से काम लिया था और वो क़दीम ज़माने की उन मूर्तियों और दीवारी तस्वीरों की अस्ल मालूम होती थीं जिनके बारे में ख़्याल किया जाता है कि उन लोगों की बनाई हुई हैं जिन्होंने सचमुच की औरत को कभी नहीं देखा था, या क़रीब से नहीं देखा था और छू कर तो बिल्कुल ही नहीं देखा था।

    इस बिरादरी का नुदबा यूँ होता था कि एक क़तार में मर्द और उनके रूबरू दूसरी क़तार में औरतें नंगी ज़मीन पर दो ज़ानू होकर बैठती थीं और ये आमने-सामने वाले एक दूसरे की कुहनियों से कुहनियाँ मिलाते, फिर कलाइयाँ मिलाते, फिर हथेलियों पर हथेलियाँ मारते और उंगलियाँ आपस में उलझा कर जो कुछ कहना होता कहते, फिर अलग होते, फिर कुहनियाँ और कुहनियों से कलाइयाँ तक मिलाकर हथेलियाँ लड़ाते और उंगलियाँ उलझा कर बोल कहते। उनका नुदबा बार-बार उरूज पर आता, धीमा पड़ता। फिर उरूज पर आता और देखने में समुद्र का ज्वारभाटा मालूम होता। यहाँ तक कि सबकी आँखें पलट जातीं और आख़िर सब पसीने-पसीने होकर कपकपाती हुई कमज़ोर आवाज़ों में नुदबा ख़त्म करते और आहिस्ता-आहिस्ता हाँपते हुए अलग हो जाते।

    मेरे सामने इस बिरादरी में तीन मौतें हुईं। पहली दो मौतों पर नुदबा करने वालों के साथ मैं भी शरीक हुआ, लेकिन तीसरी मौत मेरे बूढ़े मेज़बान की हो गई। मैंने अपने पास मौजूद रहने वाली दवाओं से उसका इलाज भी किया था लेकिन वो बच सका। उसकी सूरत ही नहीं, कई अदाएं भी मेरे बाप की याद दिलाती थीं और मैंने उसे, कुछ ज़बान से और कुछ इशारों से, ये बात बताने की कोशिश भी की थी। मुझे नहीं मालूम कि उसने बिरादरी वालों से मेरे बारे में क्या बातें की थीं, लेकिन उसके मरने के बाद जो लोग सोगवारों को चुप कराने निकले थे उनमें से एक दो मेरे पास भी आगए और अगरचे मैं ख़ामोश था लेकिन उन्होंने मुझे चुप कराया। उनके आने से मुझको अपने बाप की मौत का दिन याद गया। उस दिन मेरे घर में औरतों के रोने का बे-हंगम शोर था और मैं सबसे अलग चुप-चाप बैठा रह गया था।

    मेज़बान की मौत ने मुझे अपने बाप का आख़िरी वक़्त का चेहरा याद दिला दिया। फिर मुझे बूढ़े मेज़बान की सूरत याद आने लगी और जब उसके आख़िरी बंदोबस्त के बाद बिरादरी की औरतें और मर्द आमने सामने क़तारें बनाने लगे तो मैं ख़ामोशी के साथ उठ कर उस इलाक़े से मुत्तसिल ग़ैर-आबाद ख़ित्ते की तरफ़ निकल गया और वहीं के वहीं मैंने अपनी मुसाफ़िरत ख़त्म कर देने का फ़ैसला किया और उसी दिन वापसी का सफ़र शुरू कर दिया।

    अब जैसा कि मैंने बताया, मेरा ज़ियादा वक़्त ये सोचने में गुज़रता है कि मुझे इन मशग़लों से क्या हासिल हुआ। इस तरह मेरी ज़िंदगी, जिसका बड़ा हिस्सा ना-हमवारियों में निकल गया, अब एक मुद्दत से बिल्कुल हमवार गुज़र रही है। अलबत्ता सिर्फ़ एक दिन उसमें थोड़ी सी ना हमवारी आई थी। ये ना-हमवारी शायद मेरे एक मश्ग़ले का हासिल थी, लेकिन ऐसा हासिल जो मैं समझता हूँ बे-हासिली से भी बदतर था।

    (2)

    उस दिन सवेरे-सवेरे मेरे मकान के उस दरवाज़े पर दस्तक दी गई जो बाज़ार की तरफ़ खुलता था। मैंने सुस्ती के साथ उठ कर दरवाज़ा खोला तो देखा मुहल्ले का पागल लड़का हाथ में काग़ज़ का एक मुड़ा-तुड़ा पुर्ज़ा लिए खड़ा है। मुझे देखते ही उसने पुर्ज़ा मेरे हाथ में थमाया और हँसता हुआ भाग गया। उसकी आदत थी कि बाज़ार की गिरी पड़ी चीज़ें उठाता और दूसरों को बाँट देता था। उसे वो इनाम देना कहता था और बाज़ार वाले तक़ाज़ा करके उससे इनाम लिया करते थे।

    तो आज मुझे बे-माँगे इनआम मिल गया, मैंने दरवाज़ा बंद करते हुए सोचा और अपने रोज़मर्रा के कामों में लग गया। मैंने ये भी सोचा जो मैं कभी-कभी सोचा करता था कि उस लड़के को पागल क्यों समझा जाता है। उसमें कोई ग़ैर-मामूली बात नहीं थी, सिवा इसके कि वो हर वक़्त ख़ुश रहता और बात-बात पर हँसता था, ताहम सब उसको पागल समझते थे, मैं भी समझता था। कुछ देर बाद फिर उसी दरवाज़े पर दस्तक हुई। मैंने फिर दरवाज़ा खोला। फिर वही लड़का था।

    बुला रहे हैं। उसने हँसी रोक कर कहा।

    कौन बुला रहे हैं? मैंने पूछा।

    ''जो आए हैं।

    कौन आए हैं?

    ''पर्चे वाले। वो बोला, ज़ोर से हँसा और भाग गया।

    मैंने दरवाज़ा भेड़ कर पलंग पर पड़ा हुआ पुर्ज़ा उठा लिया। पुराना काग़ज़ था और उस पर मेरी ही तहरीर में मेरा नाम और पता लिखा हुआ था और यह तहरीर उन ज़मानों की मालूम होती थी जब मैं हाथ संभाल कर और हर्फ़ों को ख़ूबसूरत बना कर लिखता था। मुझे वो ज़माने याद आए। ये भी याद आया कि उन्हीं में से एक ज़माना मैंने उजाड़ इलाक़ों की बिरादरियों में घूमते गुज़ारा था। मुझे याद सका कि ये पुर्ज़ा मैंने कब और कहाँ लिखा था लेकिन ये ज़रूर याद गया कि उस ज़माने में काग़ज़ के ऐसे पुर्ज़े मैंने बड़ी फ़राख़-दिली के साथ बिरादरियों में तक़सीम किए थे। मैं उनकी मेहमान नवाज़ियों का यही एक सिला देता था। मैं ये ताकीद भी कर देता था, ज़ियादा-तर ग़लत-सलत इशारों की ज़बान में कि अगर किसी को कभी शहर में कोई काम पड़े तो मेरी तहरीर की मदद से सीधा मेरे पास पहुँच जाए।

    मैं जानता था कि अपनी उन तहरीरों में से कोई भी मुझे फिर देखने को नहीं मिलेगी। लेकिन इस वक़्त इतने ज़माने के बाद एक तहरीर का पुर्ज़ा मेरे हाथ में था और अगरचे इत्तिला देने वाला वो था जिसको सबके साथ मैं भी पागल समझता था, मगर मुझे इत्तिला मिली थी कि कुछ लोग उस पुर्ज़े की मदद से मुझ तक पहुँच गए हैं और मुझे बुलवा रहे हैं। चंद लम्हों के अंदर मेरी देखी हुई सारी बिरादरियाँ ख़्वाब के ख़ाकों की तरह मेरे ज़ेहन में घूम कर ग़ायब हो गईं और मैं घर से निकल कर बाज़ार में गया।

    दुकानें खुलने का वक़्त हो गया था लेकिन ज़ियादा तर दुकानें बंद पड़ी थीं। दुकानदार अलबत्ता मौजूद थे और एक टोली बनाए हुए आपस में चे मेगोईयाँ कर रहे थे। मुझ को देख कर सब मेरी तरफ़ बढ़ आए।

    ये कौन लाया है? मैंने पुर्ज़ा उन्हें दिखा कर पूछा। उन्होंने कुछ कहे बग़ैर शुमाल की तरफ़ उतरने वाली उस बेनाम कच्ची सड़क की तरफ़ इशारा कर दिया जिसके दहाने को बाज़ार के कूड़ा घर ने क़रीब-क़रीब बंद कर दिया था। मैंने उस तरफ़ देखा। एक नज़र में मुझे ऐसा मालूम हुआ कि कूड़ा घर की हद से बाहर तक कूड़े के छोटे-छोटे ढ़ेर लगे हुए हैं लेकिन दूसरी नज़र में पता चला कि ये ज़मीन पर बैठे हुए आदमियों की टोली है।

    ये कौन लोग हैं? किसी दुकानदार ने मुझसे पूछा।

    कोई बिरादरी मालूम होती है। मैंने कहा और उधर बढ़ने को था कि एक और दुकानदार बोला, उन्हें आप ने बुलाया है?

    नहीं। मैंने कहा।

    ''मिलना तो आप ही से चाहते हैं।

    मगर मैंने उन्हें बुलाया नहीं है।

    अच्छा इनकी गाड़ी तो हटवाइए, रास्ता रुक रहा है।

    मैंने पक्की सड़क पर खड़ी हुई गाड़ी को अब देखा। एक बड़े से पीपे को बीच से खड़ा-खड़ा काट दिया गया था। इस तरह उसकी शक्ल एक मुदव्वर पेंदे ओर बग़ैर नोकों वाली छोटी नाव की सी हो गई थी, या शायद वो कोई बे मुसरिफ़ नाव ही थी जिसके दोनों सरों पर किसी पुराने दरख़्त के गोल तने की दो बड़ी-बड़ी टिकियों के पहिये लगा कर उसे ख़ुश्की में सफ़र के क़ाबिल बनाया गया था। मैंने गाड़ी को ज़रा और ग़ौर से देखा तो पता चला जिसे में पीपा समझ रहा था वो भी किसी दरख़्त का आधा कटा हुआ खोखला तना था जिसके नीचे हरी छाल के रेशों की मोटी रस्सी में बंधा और ज़मीन को क़रीब-क़रीब छूता हुआ एक बड़ा सा बे-डौल पत्थर झूल रहा था। ये शायद गाड़ी का तवाज़ुन क़ाइम रखने के लिए लटकाया गया था, फिर भी गर्द से अटे हुए दो आदमी उसे दोनों तरफ़ से पकड़े हुए थे। मैंने बे-ध्यानी के साथ सोचा, अगर वो उसे छोड़ दें तो गाड़ी आगे की तरफ़ उलटेगी या पीछे को। फ़िर मैंने उसे और ग़ौर से देखा।

    गाड़ी के ख़ला में ऊपर तक गूदड़ भरा हुआ था और उस पर झुकी हुई एक औरत गूदड़ को मुसलसल इधर-उधर कर रही थी। सर से पैर तक चादर में लिपटी होने के बावजूद वो जवान मालूम होती थी। मैंने एक नज़र उसको और गाड़ी को थामे हुए दोनों आदमियों को देखा ही था कि एक और दुकानदार की आवाज़ सुनाई दी, कौन सी बिरादरी है?

    मैंने मुड़ कर कूड़ा घर के आगे ज़मीन पर बैठे हुए लोगों को देखा। दस-बारह आदमी थे और सबके सब गर्द में इस तरह अटे हुए थे कि उनके कपड़ों के रंग तक आसानी से पहचाने नहीं जा सकते थे। उन लोगों को देख कर मुझे कुछ भी याद नहीं आया। ताहम मैंने पहचान लिया कि ये उजाड़ इलाक़ों की रहने वाली कोई बिरादरी है। मैंने उन्हें देर तक देखा। वो सब मेरी तरफ़ बे-तअल्लुक़ी से देख रहे थे और मुझे यक़ीन होता जा रहा था कि मैं उस बिरादरी में कभी नहीं रहा हूँ। मेरी समझ में नहीं रहा था कि मेरा नाम पता इन लोगों के पास कहाँ से गया। मैंने एक बार फिर काग़ज़ के उस पुर्ज़े को ग़ौर से देखा। तब उन लोगों ने भी देखा कि मेरे हाथ में काग़ज़ का पुर्ज़ा है, और अचानक सब में जान सी पड़ गई। उन्होंने जल्दी-जल्दी आपस में कुछ बातें कीं, फिर सबके सब उठ खड़े हुए। उनके कपड़ों से थोड़ी सी गर्द उड़ी और मैंने ख़ुद को उनके हल्क़े में पाया। इसी के साथ मैं बाज़ार वालों के सवालों के भी नर्ग़े में गया। उन्होंने सबसे पहले अपना आख़िरी सवाल दोहराया, कौन सी बिरादरी है?

    मैंने बता दिया कि में मैं उन लोगों से वाक़िफ़ नहीं हूँ, फिर भी सब मुझसे इस तरह सवाल करते रहे जैसे मुझको उन लोगों का ज़ामिन समझ रहे हों। मगर उनके सवाल ऐसे थे कि मैं उनका जवाब नहीं दे सकता था। ये नापाक लोग तो नहीं हैं? शहर में चोरी की वारदातों में जो अचानक इज़ाफ़ा हो गया है, क्या इसका सबब यही लोग हैं? ये कहाँ से आए हैं? क्या ये भीक माँगने वाले हैं?

    अब मैंने पूछा, क्या उन्होंने किसी से कुछ माँगा है?

    अभी तक तो नहीं। मुझे जवाब मिला, हम तो जिस वक़्त आए हैं ये काग़ज़ दिखा-दिखा कर सबसे आप का पता पूछ रहे थे।

    किस बोली में?

    इशारे से।

    फिर? मैंने पूछा, इशारे से भीक तो नहीं मांग रहे थे?

    मगर इनका हुलिया तो देखिए।

    देख रहा हूँ।

    और गाड़ी... सब से बुलंद आवाज़ वाला दुकानदार बोला।

    वो भी देख रहा हूँ।

    और गाड़ी में किसको बिठा लाए हैं? अभी ख़त्म हो जाए तो ठिकाने लगाने के लिए हमारे ही सामने नहीं रोएंगे? सब खाने-कमाने के ढंग हैं।

    अब मैंने गाड़ी के सवार को देखा। अभी तक मैं समझ रहा था कि गाड़ी में भरा हुआ गूदड़ कुछ ऊपर उभर आया है लेकिन ये उसके सवार का बार-बार झुकता हुआ सर था जिसे औरत सहारा देती थी लेकिन वो फिर झुक जाता था। मैं बढ़ कर उस के क़रीब पहुँच गया। औरत ने उसके सर को दोनों हाथों से थाम कर उठाना शुरू किया था कि मुझे उन सब लोगों की आवाज़ें एक साथ सुनाई दीं और मैं उनकी तरफ़ मुड़ गया।

    वो बार-बार मेरे घुटने छू रहे थे और बोल रहे थे। उनकी बोली मेरी अपनी ज़बान की कोई बिगड़ी हुई... या बिगड़ने से पहले की, इब्तिदाई शक्ल मालूम होती थी जो मेरी समझ में नहीं आई। वो मेरे घुटने छूते, फिर गाड़ी की तरफ़ इशारा करते और उनके लहजे में लजाजत जाती। उस वक़्त मुझको भी शुब्हा होता था कि ये भीक माँगने वालों की टोली है। उनसे दो ही चार बातें करने के बाद मुझको एहसास हो गया कि वो भी मेरी ज़बान नहीं समझते हैं, बल्कि मेरा सपाट लहजा उनको अंदाज़े से भी मेरी बात नहीं समझने देता। ख़ुद उनके लहजे मुख़्तलिफ़ थे ताहम मुझे अंदाज़ हुआ कि वो किसी बड़ी ख़द्शे में मुब्तिला हैं, तरह-तरह की मुसीबतें झेलते हुए यहाँ तक पहुँचे हैं, मुझसे किसी क़िस्म की इमदाद चाहते हैं और इन सब बातों का तअल्लुक़ गाड़ी के सवार से है।

    इस अर्से में औरत मुस्तक़िल सवार की नशिस्त दुरुस्त करती और उसके झुकते हुए सर को सहारा देती रहती थी। मैं उसके बिल्कुल क़रीब पहुँच गया। सवार सीने तक गूदड़ में दफ़्न था और उसके सर पर भी गूदड़ लिपटा हुआ था। औरत ने एक तरफ़ सरक कर दोनों हाथों से उसका चेहरा ऊपर किया और मेरी तरफ़ घुमा दिया।

    मेरे सामने एक बच्चे का सूजा हुआ चेहरा था। उसकी आँखों के पपोटे बहुत फूल गए थे। एक पपोटे में हल्की सी दर्ज़ थी जिसमें वो मुझको देख रहा था। दूसरा पपोटा बिल्कुल बंद था लेकिन उस पर चूना या कोई और सफ़ेदी फेर कर बीच में काजल या किसी और सियाही का बड़ा सा दीदा बना दिया गया था जिसकी वजह से उस भरे हुए पपोटे पर ऐसी आँख का धोका हो जाता था जो हैरत से फटी की फटी रह गई हो। मैंने उस हैरान आँख पर से नज़रें हटा लीं और झुक कर दूसरी आँख की दर्ज़ में झाँका। उलझी हुई पलकों के पीछे छुपी हुई निगाह में अज़ियत भी थी, लजाजत भी थी और बेज़ारी भी। मैंने उसके चेहरे को ज़रा और क़रीब से देखने की कोशिश की तो गाड़ी में ठुंसे हुए गूदड़ में लहरें सी पड़ीं। सवार ने एक झटके से अपना चेहरा पीछे कर लिया। उसके होंट सिकुड़े और दाँत बाहर निकल आए। दूर से दुकानदारों को वह शायद हँसता हुआ दिखाई दिया लेकिन मुझको वो किसी बीमार कुत्ते की तरह नज़र आया जिसकी तरफ़ शरीर लड़के बढ़ रहे हों।

    मुझे अपनी पुश्त पर बाज़ार वालों की भुनभुनाहट और बिरादरी वालों की तेज़ आवाज़ें सुनाई दीं। मुझे शुब्हा हुआ कि वो आपस में उलझ पड़े हैं। मैंने पलट कर देखा। दोनों गिरोह मुझसे कुछ कह रहे थे। लेकिन मेरी समझ में किसी की कोई बात नहीं आई। उसी वक़्त औरत ने मेरा हाथ दबोच लिया और मैं उसकी तरफ़ घूम गया। उसने अपना दूसरा हाथ गूदड़ में डाला और इधर-उधर टटोल कर सवार का एक हाथ कुहनी तक बाहर निकाल लिया। मेरे सामने तीन हाथ थे, मेरा अपना जाना-पहचाना हाथ, उसकी उँगलियों में उँगलियाँ उलझाए हुए औरत का नर्म, सफ़ेद और धीरे-धीरे पसीजता हुआ हाथ, और हम दोनों की हथेलियों के दरमियान सवार का छोटा सा सूखा हुआ हाथ जिसकी कलाई से कुहनी तक रंग-बिरंगे डोरे लिपटे हुए थे और उनके बीच-बीच से दिखाई देती हुई मुर्दा सी खाल में झुर्रियाँ पड़ी हुई थी।

    औरत की उँगलियाँ मेरी उँगलियों में दिल की तरह धड़कीं, मुझे हल्की सी झुरझुरी आई और सवार ने मुँह से एक आवाज़ निकाली। उसी बीमार कुत्ते की तरह जिसकी तरफ़ शरीर लड़के बढ़ रहे हों। एक दुकानदार ने मेरे कँधे पर हाथ रखा और मैं उधर मुड़ गया।

    गाड़ी हटवाइए। वो कह रहा था, दुकानदारी ख़राब हो रही है। सवेरे-सवेरे ये लोग...

    मैं बिरादरी वालों की तरफ़ मुड़ा। अब वो सब ख़ामोशी से मुझको तक रहे थे। मैंने उन्हें सीधी सड़क पर मग़रिब की तरफ़ बढ़ने का इशारा किया जो उनकी समझ में फ़ौरन गया। गाड़ी को सहारा देने वाले आदमियों ने उसे आसानी से मग़रिब की तरफ़ घुमा दिया। औरत ने मेरे हाथ से अपना हाथ छुड़ाया और सवार का हाथ गूदड़ के अंदर करके उसके सर को सहारा देना शुरू किया और गाड़ी हल्की खड़खड़ाहट के साथ आगे बढ़ी। उसके पीछे अपनी मैली-कुचैली पोटलियाँ संभाले और हाथों में लंबी-लंबी लाठियाँ थामे बिरादरी वाले चल रहे थे और सड़क के दोनों तरफ़ दुकानदार मुहल्ले के दूसरे लोग, जिनमें कुछ औरतें और बच्चे भी थे, ख़ामोश खड़े हुए थे।

    मैं गाड़ी के आगे-आगे तेज़ी से चलता और दुकानों के सिलसिले को पीछे छोड़ता हुआ पक्की सड़क के जुनूबी मोड़ तक पहुँच कर रुका। मैंने मुड़ कर उन लोगों को उस मोड़ पर आके ठहरने का इशारा किया और वो धीरे-धीरे आगे बढ़ते रहे। उनके आस-पास धुवें की तरह गर्द मंडला रही थी और अब मुझे सब कुछ एक साथ नज़र आया। उनमें से हर फ़र्द और हर शय ख़स्ता और बोसीदा और अन-क़रीब बिखर जाने वाली मालूम होती थी। फिर भी, मैंने सोचा, अगर सब कुछ इतना ग़ुबार-आलूद होता और अगर गाड़ी के नीचे लटकता हुआ पत्थर कुछ सुडौल होता तो इस जुलूस पर किसी शाही सवारी का भी गुमान हो सकता था।

    वो मेरे क़रीब आकर रुक गए। मैंने उनके पीछे कुछ दूर पर बाज़ार वालों को अपनी दुकानों की तरफ़ जाते और तमाशाइयों की क़तारों को मुंतशिर होते देखा। फिर मैं बिरादरी वालों की तरफ़ मुतवज्जे हुआ और उन्होंने शायद समझ लिया कि अब मैं इतमीनान के साथ उनकी बात सुन सकता हूँ। उन्होंने भी इतमीनान के साथ बोलना शुरू किया। मेरी समझ में सिर्फ़ इतना आया कि वह गाड़ी के सवार के बारे में मुझे तफ़सीलें बता रहे हैं। लेकिन उन तफ़सीलों का सिर्फ़ एक जुज़ मेरी समझ में सका कि गाड़ी का वो सवार आख़िरी है। छोटी बिरादरियों में घूमने के दौरान मेरे सामने आख़िरी का मफ़हूम मुख़्तलिफ़ बोलियों में और मुख़्तलिफ़ इशारों से इतनी बार अदा किया गया था कि अब उसे मैं आसानी से समझ लेता था। इस बिरादरी का भी क़रीब-क़रीब हर आदमी सवार का हाल बताने के बाद मेरे घुटने छूता और बड़ी लजाजत के साथ जताता कि वो सवार आख़िरी है।

    मैंने बिला-सबब ख़ुद को उनका, और उनसे ज़ियादा उस सवार का, ज़ामिन महसूस किया और उन्हें मुतमइन होने का इशारा किया। वो सब ख़ामोश होकर मुझे देखने लगे, फिर सबने एक दूसरे को मुतमइन हो जाने का इशारा किया और वाक़ई मुतमइन हो गए। मैंने उन्हें वहीं ठहर कर इंतिज़ार करने का इशारा किया और तेज़ क़दमों से चलता हुआ, जैसे अभी वापस आता हूँ, अपने मकान के दरवाज़े पर गया। पागल लड़का दरवाज़े पर खड़ा था और डरा हुआ मालूम हो रहा था।

    वो कौन लोग हैं। उसने घुटी हुई आवाज़ में पूछा।

    पर्चे वाले हैं। मैंने जवाब दिया, तुमने उन्हें इन्आम नहीं दिया?

    इन्आम? उसने यूँ पूछा जैसे उसकी समझ में कुछ आया हो। मैंने उसका कंधा थपथपाया और कहा, जाओ दौड़ कर इनआम ले आओ फिर उनके पास चलेंगे।

    नहीं। उसने कहा और पहले से भी ज़ियादा डरा हुआ मालूम होने लगा।

    अच्छा जाओ खेलो। मैंने कहा, मुझे काम है।

    वो बुड्ढ़ा कौन है?

    बुड्ढ़ा?

    जो गाड़ी में छिपा हुआ है...

    वो बुड्ढ़ा नहीं है। मैंने कहा।

    फिर मेरे ज़ेहन को एक झटका लगा। मैंने उसे बच्चा क्यों समझ लिया था? वो कोई बूढ़ा भी हो सकता था। मैंने उसकी हैअत याद की। उसका चेहरा सूजा हुआ था और हाथों पर झुर्रियाँ थीं। मैंने ज़ेहन पर ज़ोर डाल कर उसके हाथ की बनावट को याद करने की कोशिश की लेकिन उसकी जगह मुझे औरत का सफ़ेद पसीजा हुआ हाथ याद आया जिसकी उँगलियाँ मेरी उँगलियों में उलझी हुई थीं और दिल की तरह धड़कती थीं। मैंने सर को ज़ोर से झटका दिया और बिरादरी वालों की बातों और इशारों को याद करने लगा। मेरी समझ में सिर्फ़ इतना आया था कि वो आख़िरी है। बिरादरी का आख़िरी बच्चा, या आख़िरी बूढ़ा? किसी आदमी की, या किसी वाक़िए की, आख़िरी निशानी? किसी चीज़ की, या किसी ज़माने की, आख़िरी यादगार? मेरा दिमाग़ उलझता गया और मैंने उस उलझन में शायद बहुत वक़्त गुज़ार दिया इसलिए कि जब मैंने फ़ैसला किया कि उसे फिर से जाकर देखूँ तो पागल लड़का जा चुका था और दोपहर ढ़लने के क़रीब थी।

    कूड़ा घर और दुकानों के सिलसिले को पीछे छोड़ता हुआ मैं आगे बढ़ा तो मैंने देखा वो सब मेरी तरफ़ रहे हैं। गाड़ी आगे-आगे थी। सवार का चेहरा गाड़ी की कगार पर टिका हुआ था और उसके सर पर लिपटा हुआ गूदड़ अब जगह-जगह से खुल गया था। औरत बार-बार ख़ुद भी गाड़ी में सवार होने की कोशिश कर रही थी और हर बार कोई कोई आदमी उसे पकड़ कर पीछे घसीट लेता था। मुझे गाड़ी की खड़खड़ाहट के पीछे उनकी आवाज़ें सुनाई दीं। वो कुछ गाते हुए से मालूम हो रहे थे। बारी-बारी एक आदमी कुछ बोल कहता और उसके आख़िरी लफ़्ज़ों को सब मिल कर दोहराते थे। उन्होंने एक सफ़ बना ली थी और उनकी आवाज़ें बुलन्द होती जा रही थीं। एक आदमी सफ़ से ज़रा आगे निकला, उसने लहन से कुछ कहा और सबने उसे दोहराया। वो आदमी सफ़ में वापस चला गया और दूसरा आदमी आगे निकला। उसकी आवाज़ और दूसरों की जवाबी आवाज़ पहले की आवाज़ों से ज़ियादा बुलंद थी। और अब उनके हाथ और बदन कुछ रक़्स के से अंदाज़ में जुंबिश कर रहे थे। कुछ-कुछ देर बाद कोई एक आदमी आगे बढ़ता कुछ बोल कहता, सब उसका साथ देते, फिर चुप होकर यूँ सर हिलाते जैसे उसे दाद दे रहे हों। मेरे ख़्याल में वो दाद देने का इशारा था, लेकिन मुझे मालूम नहीं था कि इस बिरादरी में इस इशारे का क्या मतलब, जिस तरह ये नहीं मालूम था कि इस बिरादरी में दाद देने का इशारा क्या है।

    मैं उनकी आँखों के ठीक सामने होने के बावजूद उन्हें शायद नज़र नहीं रहा था। उनकी पेश-क़दमी के साथ मैं उल्टे क़दमों आहिस्ता-आहिस्ता पीछे हट रहा था। मेरे कान उनकी आवाज़ों पर और निगाहें उनकी जुंबिशों पर लगी हुई थीं। वो कोई दास्तान सुना रहे थे और उस दास्तान के मुब्हम मंज़र मेरे सामने ख़्वाब के ख़ाकों की तरह बन-बन कर मिट रहे थे। मैंने देखा कि एक नौ-ज़ाईदा बच्चे को गोदियों में खिलाया जा रहा है। बच्चा चलना सीख रहा है। डगमगाता हुआ चलता है, चलते-चलते गिर कर रो रहा है। उठाया जाता है, बहलाया जाता है, बहल गया है। दौड़ रहा है। दरख़्त पर चढ़ रहा है। थक कर सो गया है। सो कर उठा है। हथेलियों से आँखें मल रहा है और उसकी दोनों आँखें सुर्ख़ हो गई हैं।

    मुझे बहुत सी सुर्ख़ आँखों के जोड़े अपनी तरफ़ बढ़ते दिखाई दिए। अब वो सब एक साथ एक ही लहन में, एक ही इशारे से आख़िरी-आख़िरी कह रहे थे और उनके गले फटे जा रहे थे। उन पर एक जोश तारी था और मालूम होता था सब ग़ुस्से से पागल हो रहे हैं। फिर सब पर नशा सा चढ़ गया। हल्की गर्द ने उनके कपड़ों से निकल-निकल कर और उनके क़दमों से उठ-उठ कर उनको लपेट लिया। उस गर्द के पीछे गाड़ी के सवार के चेहरे को औरत ने फिर सहारा दे कर ऊपर उठा दिया था। उसकी आँख की दर्ज़ बंद हो गई थी। लेकिन दूसरी सफ़ेदी और सियाही से बनी हुई आँख मुझे हैरत से देख रही थी और गर्द में अट जाने के बाद भी बंद नहीं हो रही थी। गाड़ी सड़क के किसी खाँचे पर से गुज़री। सवार के सर को एक झटका लगा और उस पर लिपटा हुआ गूदड़ थोड़ा और खुल गया। आँख में मलामत झलकी, फिर ग़ुस्सा, फिर हलका सा नशा, और वो फिर हैरत से मेरी तरफ़ देखने लगी।

    दुकानों के सिलसिले के क़रीब पहुँचते ही वो सब ख़ामोश होकर रुक गए। सब थकन से चूर और मेरी मौजूदगी से बे ख़बर मालूम हो रहे थे। उन्होंने आपस में कुछ मश्वरा किया और दूर पर मेरे मकानों के दरवाज़े की तरफ़ इशारा करने लगे। मैं मुड़ा और तेज़ी से अपने मकान की तरफ़ चला। दरवाज़ा आने से कुछ पहले मैंने पलट कर देखा। अब वो मेरी तरफ़ इशारे करके एक दूसरे को कुछ बता रहे थे। फिर वो आगे बढ़ने लगे, सीधे मेरी तरफ़। मैं मुड़ा और अपने दरवाज़े को पीछे छोड़ता हुआ कोई चालीस क़दम आगे निकल कर फिर रुका। आहिस्ता से घूम कर मैंने उनकी तरफ़ देखा तो वो मुझे कूड़े के एक हिलते ढ़ेर की तरह नज़र आए। फिर उनकी तरतीब बिगड़ गई और सब ने सर झुका लिए।

    देर तक मुझ पर ये एहसास ग़ालिब रहा कि मैंने कोई मंज़र देखा है जिसे आइन्दा कभी देख सकूँगा। मुझे हल्का सा पछतावा भी था कि मैं ख़ुद उस मंज़र में शामिल नहीं हुआ। ताहम मैंने ख़ुद को बहुत महफ़ूज़ भी महसूस किया इसलिए कि अब वो लोग शुमाल की सम्त कटने वाली उस बे-नाम कच्ची सड़क पर उतर रहे थे जो शहर से बाहर उजाड़ इलाक़ों की तरफ़ जाती थी।

    स्रोत :

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Rekhta Gujarati Utsav I Vadodara - 5th Jan 25 I Mumbai - 11th Jan 25 I Bhavnagar - 19th Jan 25

    Register for free
    बोलिए