पंडित दुर्गा नाथ जब कॉलेज से निकले तो कस्ब-ए-मआश की फ़िक्र दामनगीर हुई। रहम दिल और बा उसूल आदमी थे। इरादा था कि काम ऐसा करना चाहिए जिसमें अपनी गुज़रान भी हो और दूसरों के साथ हमदर्दी और दिलसोज़ी का भी मौक़ा मिले। सोचने लगे अगर किसी दफ़्तर में क्लर्क बन जाऊँ तो अपनी गुज़र तो हो सकती है लेकिन अवाम से कोई ताल्लुक़ न रहेगा। वकालत में शरीक होजाऊँ तो दोनों बातें मुम्किन हैं मगर हज़ार एहतियात करने पर भी दामन को साफ़ रखना मुश्किल होगा। पुलिस के महकमा में ग़ुरबा परवरी के बेइंतिहा मवाक़े हैं। मगर वहाँ की आबोहवा आज़ादमनिश और नेक नीयत आदमी के लिए ना-मुवाफ़िक़ है। माल के सीग़ा में क़ायदा और क़ानून की गर्म-बाज़ारी है। बेलौस रहने पर भी सख़्ती और जब्र से मुहतरिज़ रहना ग़ैर-मुमकिन। इस तरह बहुत ग़ौर-ओ-फ़िक्र के बाद उन्होंने फ़ैसला किया कि किसी ज़मींदार के यहाँ मुख़तार-ए-आम बन जाना चाहिए। तनख़्वाह तो ज़रूर मिलेगी मगर ग़रीब काश्तकारों से रात-दिन का ताल्लुक़ रहेगा। हुस्न-ए-सुलूक के मौके़ मिलेंगे। सादगी की ज़िंदगी बसर होगी। इरादा मज़बूत हो गया।
कुँवर बिशाल सिंह एक साहब-ए-सर्वत ज़मींदार थे। उनकी ख़िदमत में हाज़िर हुए और अर्ज़ की कि मुझे भी अपने नमक-ख़्वारों के ज़ुमरे में शामिल कर लीजिए। कुँवर साहब ने उन्हें सर से पाँव तक देखा और बोले, “पंडित जी मुझे आपको अपने यहाँ रखने से बड़ी ख़ुशी होती मगर आपके लाइक़ मेरे यहाँ कोई जगह नहीं है।”
दुर्गा नाथ ने कहा, “मेरे लिए किसी ख़ास जगह की ज़रूरत नहीं है। मैं हर एक काम करने को तैयार हूँ। तनख़्वाह जो कुछ आप बख़ुशी देंगे वो मुझे मंज़ूर है। मैंने तो इरादा कर लिया है कि सिवा किसी रईस के और किसी की नौकरी न करूँगा।”
कुँवर बिशाल सिंह ने मग़रूराना अंदाज़ से फ़रमाया, “रईस की नौकरी, नौकरी नहीं, रियासत है। मैं अपने चपरासियों को दो रुपया महीना देता हूँ और वो तनजे़ब की अचकन पहन कर निकलते हैं। दरवाज़ों पर घोड़े बंधे हुए हैं। मेरे कारिंदे पाँच रुपया से ज़्यादा नहीं पाते लेकिन शादी ब्याह वकीलों के ख़ानदान में करते हैं। मालूम नहीं उनकी कमाई में क्या बरकत होती है, बरसों तनख़्वाह का हिसाब नहीं करते। कितने ही ऐसे हैं जो बिला तनख़्वाह के कारिंदगी या चपरासगिरी करने को तैयार बैठे हैं। मगर अपना ये उसूल नहीं। समझ लीजिए मुख्तार-ए-आम अपने इलाक़े में ज़मींदार से कम हैसियत नहीं रखता। वही रोब, वही हुकूमत, वही शान, जिसे इस नौकरी का चसका लग चुका है उसके सामने तहसीलदारी की क्या हक़ीक़त है।”
पंडित दुर्गा नाथ ने कुँवर साहब की ताईद नहीं की। जैसा कि करना उनका फ़र्ज़ था। दुनियादारी में अभी कच्चे थे। बोले, “मुझे अब तक किसी रईस की नौकरी का चसका नहीं लगा है। मैं तो अभी कॉलेज से निकला आता हूँ और न मैं इन वुजूह से ये नौकरी करना चाहता हूँ जो आपने फ़रमाए मगर इतने क़लील शाहराह में मेरा गुज़र न होगा। आपके और मुलाज़िम आसामियों का गला दबाते होंगे। मुझसे मरते दम तक ये फे़’ल न होंगे। अगर ईमानदार नौकर की क़दर होती है तो मुझे यक़ीन है कि आप बहुत जल्द मुझ से ख़ुश होजाएंगे।”
कुँवर साहब ने बड़ी मतानत से कहा, “बेशक ईमानदार आदमी की सब जगह क़दर होती है। लेकिन मेरे यहाँ ज़्यादा तनख़्वाह देने की गुंजाइश नहीं है।”
ज़मींदार की इस नाक़द्री पर किसी क़दर तरस हो कर पंडित जी ने जवाब दिया, “तो फिर मजबूरी है, इस तकलीफ़देही के लिए माफ़ फ़रमाइएगा। मगर मैं आपसे कह सकता हूँ कि ईमानदार आदमी इतना सस्ता न मिलेगा।”
कुँवर साहब ने दिल में सोचा कि आख़िर अदालत-कचहरी रोज़ होती ही रहती है। सैकड़ों रुपये तजवीज़ों और फ़ैसलों के तर्जुमे में सर्फ़ होजाते हैं। एक अंग्रेज़ीदां आदमी मिलता है, बिल्कुल सादा लौह। कुछ ज़्यादा तनख़्वाह देनी पड़ेगी तो कोई मुज़ाइक़ा नहीं, मगर पंडित जी की बात का जवाब देना ज़रूरी था। बोले, “महाराज ईमानदार आदमी ईमानदार ही रहेगा चाहे उसे तनख़्वाह कितनी ही कम दीजिए और न ज़्यादा तनख़्वाह पाने से बेईमान ईमानदार बन सकता है। ईमान का रुपया से कोई ताल्लुक़ नहीं। मैंने ईमानदार चपरासी देखे हैं। और बेईमान हाईकोर्ट के जज, लेकिन ख़ैर, आप होनहार आदमी हैं, मेरे यहाँ शौक़ से रहिए। मैं आपको एक इलाक़े का मुख्तार बना दूंगा। आपका काम देख कर तरक़्क़ी भी करूँगा।”
दुर्गा नाथ बीस रुपया माहवार पर राज़ी हो गए। वहाँ से ढाई मील पर कुँवर साहब के कई मौज़े चाँद पार के इलाक़े के नाम से मशहूर थे। पंडित जी उस इलाक़े के मुख्तार-ए-आम मुक़र्रर हुए।
दुर्गा नाथ चाँद पार के इलाक़े में पहुंचे तो उन्हें मालूम हुआ कि वाक़ई जैसा कुँवर साहब कहते थे रियासत की नौकरी बजाय ख़ुद रियासत है। रहने के लिए ख़ूबसूरत बंगला, फ़र्श फ़रोश से सजा हुआ सैकड़ों बीघा की सैर, कई नौकर, कई चपरासी, सवारी के लिए एक ख़ूबसूरत टांघन। आसाइश और तकल्लुफ़ के सब सामान मौजूद। मगर उन्हें ये ठाट बाट देखकर कुछ ज़्यादा ख़ुशी न हुई क्योंकि इसी सजे हुए बंगले के चारों तरफ़ काश्तकारों के झोंपड़े थे। फूंस के बने हुए जिनमें मिट्टी के बर्तनों के सिवा और कोई असासा न था। बंगला वहाँ के उर्फ़-ए-आम में कोट मशहूर था। लड़के सहमी हुई आँखों से बरामदे को देखते मगर ऊपर कदम रखने की जुर्रत न होती। इस इफ़्लास के बीच में सर्वत और तमव्वुल का ये नज़ारा उनके लिए निहायत दिल शिकन था। काश्तकारों की ये हालत कि सामने आते हुए थरथर काँपते थे। चपरासी लोग उनसे बिला तू तकार के बात न करते।
पहले ही कई सौ काश्तकारों ने पंडित जी की ख़िदमत में नज़राने पेश किए मगर उन्हें कितना ताज्जुब हुआ जब उनके नज़राने वापस कर दिए गए। काश्तकार तो ख़ुश हुए मगर चपरासियों के ख़ून उबलने लगे। नाई और कुम्हार ख़िदमत के लिए आए। वो लौटा दिए गए। ग्वालों के घरों से दूध का एक भरा हुआ मटका आया। वो भी वापस हुआ। तंबोली एक ढोली पान ले कर आया। मगर उसकी नज़र भी क़बूल न हुई। असामियों ने आपस में कहा कि ये कोई धर्मात्मा आदमी मालूम होता है लेकिन चपरासियों से ये बेज़ाब्तगियां क्यों कर बर्दाश्त होतीं। उन्होंने कहा कि हुज़ूर अगर आप को ये चीज़ें पसंद न हों तो न लें। मगर रस्म को तो न मिटा दें। अगर कोई दूसरा आदमी यहाँ आएगा तो उसे नए सिरे से ये रसूम बाँधने में कितनी दिक़्क़त होगी। पंडित जी ने इस नेक सलाह का सिर्फ़ इतना जवाब दिया जिसके सर जैसी पड़ेगी आप भुगत लेगा। अभी से इसकी फ़िक्र करने की क्या ज़रूरत है।
एक चपरासी ने जुर्रत करके कहा, “इन असामियों को आप जितना ग़रीब समझते हैं उतने ग़रीब नहीं हैं। उनका ढंग ही ऐसा है। भेस बनाए रहते हैं। देखने में ऐसे सीधे सादे गोया बे सींग की गाय हैं मगर सच मानिए इनमें का एक एक आदमी हाइकोर्ट का वकील है।”
मगर चपरासियों की इस बहस का पंडित जी पर कुछ असर न हुआ। उन्होंने हर एक काश्तकार से हमदर्दाना और बिरादराना बरताव करना शुरू किया। सुबह से ९ बजे तक ग़रीबों को मुफ़्त दवाएं देते। फिर हिसाब किताब का काम देखते। उनके अख़लाक़ ने असामियों को मोह लिया। मालगुज़ारी का रुपया जिसके लिए हर साल क़ुर्क़ी और नीलामी की ज़रूरत होती थी इम साल एक इशारे पर वसूल हो गया। किसानों ने अपने भाग सराहे और मनाने लगे कि हमारे सरकार की कभी बदली न हो।
कुँवर बिशाल सिंह अपनी रिआया की परवरिश का बहुत ख़्याल रखते थे। बीज के लिए अनाज देते। मज़दूरी और बैल के लिए रुपये। फ़सल कटने पर एक के डेढ़ वसूल करलेते। जैसा कि मुनासिब था। चाँद पार के इलाक़े में कितने असामी उनके मक़रूज़ थे।
चैत का महीना था। फ़सल कुछ खलियान में थी, कुछ घर में आ चुकी थी। कुँवर साहब ने चाँद पार वालों को बुलाया और कहा, “हमारा अनाज और रुपया बेबाक़ कर दो, चैत आगया। जब तक सख़्ती न की जाये तुम लोग डकार तक नहीं लेते। इस तरह काम नहीं चल सकता।”
बूढ़े मलूका ने कहा, “सरकार, असामी कभी अपने मालिक से बेबाक हो सकता है कुछ अभी ले लिया जाये कुछ फिर देदेंगे। हमारी गर्दन सरकार की मुट्ठी में है।”
कुँवर साहब ने फ़रमाया, “आज कौड़ी कौड़ी चुका कर तब यहाँ से उठने पाओगे। तुम लोग हमेशा इसी तरह हीला हवाला करते रहते हो।”
मलूका ने मिन्नत कर के कहा, “हमारा पेट है, सरकार की रोटियाँ हैं। हमको और क्या चाहिए। जो कुछ उपज है वो सब सरकार ही की तो है।”
कुँवर साहब को मलूका की इस ज़बान दराज़ी पर ग़ुस्सा आगया। राजा रईस ठहरे। उसे सख़्त सुस्त कहा और बोले, “कोई है, ज़रा इस बुड्ढे की गोशमाली तो कर दे। ये बहुत बढ़ बढ़कर बातें करता है।”
उन्होंने तो शायद धमकाने की नीयत से कहा मगर चपरासियों की आँखों में चाँद पार खटक रहा था। एक तेज़ दम चपरासी क़ादिर ख़ान ने लपक कर बूढ़े किसान की गर्दन पकड़ी और ऐसा धक्का दिया कि वो बेचारा तेवरा कर ज़मीन पर गिर पड़ा। मलूका के दो जवान बेटे चुपचाप खड़े थे। बाप की ये हालत देखी ख़ून ने जोश मारा। दोनों झपटे और क़ादिर ख़ान पर टूट पड़े। धमाके की आवाज़ें आने लगीं। साफा गिरा,अचकन तारतार हुई और क़ादिर ख़ान ज़मीन दोज़ हो गए। हाँ, ज़बान की तेज़ी में ज़र्रा भर फ़र्क़ न आया।
मलूका ने देखा कि बात बिगड़ गई। उठा और क़ादिर ख़ान को छुड़ाकर अपने लड़कों को गालियां देने लगा। जब लड़कों ने उल्टे उसी को डाँटा तो दौड़कर कुँवर साहब के पैरों पर गिर पड़ा। मगर बात सच-मुच बिगड़ चुकी थी। उसकी मस्लहत आमेज़ियां बेअसर हुईं। कुँवर साहब की आँखों से शोले निकल रहे थे। बोले, “बेईमान आँखों के सामने से दूर हो जा, वरना तेरा ख़ून पी जाऊँगा।”
बूढ़े के जिस्म में ख़ून तो न था मगर कुछ गर्मी ज़रूर थी। समझा था कि ये कुछ इन्साफ़ करेंगे। ये फटकार सुन कर बोला, “सरकार, बुढ़ापे में आपके दरवाज़े पर पानी उतर गया और इस पर सरकार हमीं को डाँटते हैं।” कुँवर साहब ने कहा, “तुम्हारी इज़्ज़त अभी क्या उत्तरी है, अब उतरेगी।”
दोनों लड़के तैश में आकर बोले, “सरकार अपना रुपया लेंगे, किसी की इज़्ज़त लेंगे।”
कुँवर साहब ने ऐंठ कर, “रुपया पीछे लेंगे। पहले देखेंगे तुम्हारी इज़्ज़त कैसी है।”
चाँद पार के किसान अपने गाँव में पहुँच कर पंडित दुर्गा नाथ से ये राम कहानी कह ही रहे थे कि इतने में कुँवर साहब का आदमी पहुंचा और ख़बर दी कि सरकार ने इसी दम आप को बुलाया है।
दुर्गा नाथ ने असामियों को तशफ़्फ़ी दी और घोड़े पर सवार हो कर दरबार में हाज़िर हुए।
कुँवर साहब की आँखें ग़ुस्से से लाल थीं, चेहरा तमतमाया हुआ। कई मुख्तार और चपरासी बैठे हुए आग पर तेल डाल रहे थे। पंडित जी को देखते ही कुँवर साहब बोले, “चाँद पार वालों की हरकत आपने देखी।”
पंडित जी ने सर झुकाकर कहा, “जी हाँ, निहायत रंज हुआ ये तो ऐसे सरकश न थे।”
कुँवर साहब बोले, “ये सब आप ही के क़दमों की बरकत है। आप अभी स्कूल के लड़के हैं। आप क्या जानें दुनिया में किस तरह रहना होता है। अगर आपका असामियों के साथ यही बरताव रहा तो फिर मैं ज़मींदारी कर चुका। ये सब आपकी करनी है। मैंने इसी दरवाज़े पर असामियों को रस्सियों से बांध बांध कर उल्टे लटका दिया है और किसी ने चूँ तक नहीं की। आज उनकी ये जुर्रत कि मेरे सामने मेरे ही आदमी पर हाथ चलाएं।”
दुर्गा नाथ ने माज़रत आमेज़ अंदाज़ से कहा, “हुज़ूर इसमें मेरी क्या ख़ता है। मैंने तो जब से सुना है ख़ुद अफ़सोस कर रहा हूँ।”
कुँवर साहब ने फ़रमाया, “आपकी ख़ता नहीं है तो और किसकी है। आप ही ने उन्हें सर पर चढ़ाया। बेगार बंद कर दी। आप ही उनके साथ भाई चारा रखते हैं। उनके साथ गपशप करते हैं। ये छोटे आदमी इस बरताव की क़दर नहीं कर सकते। किताबी अख़लाक़ मदरसों के लिए है। दुनियावी अख़लाक़ का क़ानून दूसरा है। ख़ैर जो हुआ सो हुआ। अब मैं चाहता हूँ कि इन बदमाशों को इस गुस्ताख़ी का मज़ा चखाऊं। असामियों को अभी आपने मालगुज़ारी की रसीद तो नहीं दी है?”
दुर्गा नाथ ने डरते डरते कहा, “जी नहीं, रसीदें तैयार हैं सिर्फ़ आपके दस्तख़त की देर है।”
कुँवर साहब के चेहरे पर इत्मीनान की झलक नज़र आई। बोले, “ये बहुत अच्छा हुआ। शगुन अच्छे हैं। अब आप इन रसीदों को चराग़ अली के सिपुर्द कीजिए। इन लोगों पर बक़ाया लगान की नालिश की जाएगी। फ़सल नीलाम कराऊंगा, भूकों मरेंगे तब आटे-दाल का भाव मालूम होगा। जो रुपया अब तक वसूल हो चुका है वो बीज और क़र्ज़ के खाते में चढ़ा लीजिए। आपको शहादत सिर्फ़ ये देनी होगी कि मालगुज़ारी की मद में नहीं क़र्ज़ा की मद में रुपया वसूल हुआ बस।”
दुर्गा नाथ सकते में आगए क्या यहाँ भी उन्हें आफ़तों का सामना करना पड़ेगा जिनसे बचने के लिए ये गोशा-ए-क़नाअत इख्तियार किया था। जान-बूझ कर इतने ग़रीबों की गर्दन पर छुरी फेरूँ। इसलिए कि मेरी नौकरी क़ाइम रहे। ना, ये मुझसे ना होगा। बोले, “क्या मेरी शहादत के बग़ैर काम न चलेगा?”
कुँवर साहब ने ग़ुस्से से कहा, “क्या इतना कहने में आपको कोई उज़्र है?”
दुर्गा नाथ ने दुबिधे के लहजे में कहा, “जी यूं तो मैं आपका नमक ख़्वार हूँ। हर एक हुक्म की तामील के लिए हाज़िर हूँ। मगर मैंने शहादत कभी नहीं दी है और शायद ये काम मुझसे अंजाम न हो सके। मुझे तो माफ़ ही रखा जाये।”
कुँवर साहब ने तहक्कुमाना अंदाज़ से फ़रमाया, “ये काम आप को करना पड़ेगा। इसमें हीला हवाले की गुंजाइश नहीं है। आग आपने लगाई है बुझाएगा कौन?”
दुर्गा नाथ ने ज़ोर दे कर कहा, “मैं झूट बोलने का आदी नहीं हूँ और इस तरह की शहादत नहीं दे सकता।”
कुँवर साहब मस्लहत आमेज़ लहजे में बोले जिसमें तंज़ का पहलू ग़ालिब था, “मेहरबान ये झूट नहीं है मैंने झूट का व्यपार नहीं किया है। मैं ये नहीं कहता कि आप रुपया की वसूली से इनकार कीजिए। जब असामी मेरे मक़रूज़ हैं तो मुझे इख्तियार है कि चाहे रुपया क़र्ज़ा की मद में वसूल करूँ चाहे मालगुज़ारी की मद में। अगर इतनी सी बात को आप झूट समझते हैं तो ये आपकी ज़्यादती है। अभी आपने दुनिया नहीं देखी। ऐसी साफ़गोई के लिए दुनिया में जगह नहीं है। आप मेरे मुलाज़िम हैं आख़िर हक़-ए-नमक भी तो कोई चीज़ है। आप तालीम याफ़्ता होनहार आदमी हैं। अभी आपको दुनिया में बहुत दिन रहना और बहुत काम करना है। अभी से आप ये रविश इख्तियार करेंगे तो आप को ज़िंदगी में बजुज़ मायूसी और परेशानी के और कुछ हाथ न आएगा। ईमानदारी बेशक अच्छी चीज़ है मगर एतिदाल का ख़्याल भी रहना चाहिए। इंतिहा हर चीज़ की बुरी होती है। अब ज़्यादा सोच बिचार करने की ज़रूरत नहीं। ये मौक़ा ऐसा ही है।”
कुँवर साहब पुराने फ़िकैत थे नौजवान खिलाड़ी हार गया। वो पसोपेश के जाल में फंस गया। जो नेक इरादों के लिए सुम-ए-क़ातिल है।
इस वाक़िआ के तीसरे दिन चाँद पार के असामियों पर बक़ाया लगान की नालिश हुई। सम्मन आए। घर घर कुहराम मच गया। सम्मन क्या थे, मौत के परवाने थे। देवी देवताओं की मनावन होने लगी। औरतें ज़मींदार को कोसने लगीं और मर्द अपनी तक़दीरों को। मुक़र्ररा तारीख़ के दिन गाँव के गँवार कंधे पर लिपटा डोर, और अंगोछे में चबेना बाँधे कचहरी को चले। सैकड़ों औरतें और बच्चे रोते हुए उनके पीछे पीछे चले जाते थे गोया वो उनसे अब फिर नहीं मिलेंगे।
पंडित दुर्गा नाथ के लिए ये तीन दिन सख़्त आज़माइश के दिन थे। एक तरफ़ कुँवर साहब की दिलजूइयाँ थीं। दूसरी तरफ़ किसानों की आह-ओ-ज़ारियां। मगर पस-ओ-पेश के भंवर में तीन दिन तक ग़ोते खाने के बाद उन्हें ज़मीन का सहारा मिल गया। दिल ने कहा ये पहली आज़माइश है। अगर इसमें नाकाम रहे तो फिर उनका सामना करना ग़ैर मुम्किन। फ़ैसला हो गया कि मैं अपने फ़ायदे के लिए इतने बेकसों को नुक़्सान न पहुंचाऊँगा।
दस बजे दिन का वक़्त था। अदालत के अहाता में मेला सा लगा हुआ था। जा बजा छोटे-बड़े सियह-पोश देवताओं की पूजा हो रही थी। चाँद पार के किसान ग़ोल के ग़ोल एक दरख़्त के नीचे आकर बैठे। उनसे कुछ दूर कुँवर साहब के मुख्तार-ए-आम और सिपाहियों और गवाहों का हुजूम था। ये लोग बहुत ख़ुश थे। जिस तरह मछली पानी में पहुँच कर कुलेलें करती है उसी तरह ये लोग ख़ुश फ़े’लियाँ कर रहे थे। कोई पान खा रहा था, कोई हलवाई की दूकान से पूरियों के पत्तल लिए चला आता था। उधर बेचारे किसान दरख़्त के नीचे उदास बैठे हुए सोचते थे कि आज न जाने क्या होगा। नहीं मालूम क्या आफ़त आएगी। राम का भरोसा है।
मुक़द्दमा पेश हुआ। इस्तिग़ासा की शहादतें गुज़रने लगीं। ये असामी बड़े सरकश हैं। जब लगान मांगी जाती है तो जंग पर आमादा होते हैं। अब की उन्होंने एक हब्बा नहीं दिया, क़ादिर ख़ान ने रो कर अपने सर की चोट दिखाई। सब के पीछे पंडित दुर्गा नाथ की पुकार हुई। उन्हीं के बयान पर इस्तिग़ासा का फ़ैसला था। वकील साहब ने उन्हें ख़ूब तोते की तरह पढ़ा रखा था। मगर उनकी ज़बान से पहला ही जुमला निकला था कि मजिस्ट्रेट ने उनकी तरफ़ तेज़ निगाहों से देखा। वकील साहब बग़लें झाँकने लगे। मुख़्तार-ए-आम ने उनकी तरफ़ घूर कर देखा। अहलमद और पेशकार सब के सब उनकी तरफ़ मलामत आमेज़ निगाहों से देखने लगे।
अदालत ने सख़्त लहजे में कहा, “तुम जानते हो कि मजिस्ट्रेट के रूबरू खड़े हो?”
दुर्गा नाथ ने मुअददबाना मगर मुस्तक़िल अंदाज़ से जवाब दिया, “जी हाँ ख़ूब जानता हूँ।”
अदालत, “तुम्हारे ऊपर दरोग़ बयानी का मुक़द्दमा आइद हो सकता है।”
दुर्गा नाथ, “बेशक, अगर मेरा बयान ग़लत हो।”
वकील ने उनसे तंज़िया लहजे में कहा, “मालूम होता है किसानों के दूध-घी और नज़र व नियाज़ ने ये काया पलट कर दी है।” और मजिस्ट्रेट की तरफ़ उसी अंदाज़ से कहा।
दुर्गा नाथ बोले, “आपको उन नेअमतों का ज़्यादा तजुर्बा होगा। मुझे अपनी रूखी रोटियाँ ज़्यादा प्यारी हैं।”
अदालत ने पूछा, “तुम अज़रूए हलफ़ कहते हो कि इन असामियों ने बिल्कुल मुतालिबा चाक़ कर दिया है।”
दुर्गा नाथ ने जवाब दिया, “जी हाँ मैं अज़रूए हलफ़ कहता हूँ कि उनके ज़िम्मे लगान की एक कौड़ी बाक़ी नहीं है।”
अदालत, “रसीदें क्यों नहीं दीं?”
दुर्गा नाथ, “मेरे आक़ा का हुक्म।”
मजिस्ट्रेट ने नालिशें ख़ारिज कर दीं। कुँवर साहब को जूंही इस शिकस्त की ख़बर मिली उनके ग़ैज़-ओ- ग़ज़ब की कोई हद न रही। पंडित दुर्गा नाथ को हज़ारों ही बेनुक़त सुनाईं। नमक-हराम, दग़ाबाज़, बेवफ़ा, मक्कार, मैंने इस शख़्स की कितनी ख़ातिर की। मगर कुत्ते की दुम कभी सीधी नहीं होती। आख़िर दग़ा कर ही गया। ख़ैरियत ये हुई कि पंडित दुर्गा नाथ मजिस्ट्रेट का फ़ैसला सुनते ही मुख़्तार-ए-आम को कुंजियाँ और काग़ज़ात सुपुर्द करके रुख़्सत हो गए थे वरना इस नमकहरामी के सिले में कुछ दिनों तक हल्दी और गुड़ पीने की ज़रूरत होती।
कुँवर साहब का लेन-देन वसीअ पैमाने पर था। चाँद पार बड़ा इलाक़ा था। वहाँ के असामियों पर कई हज़ार की रक़म आने को थी। उन्हें यक़ीन हो गया कि अब ये रुपया डूब जाएगा। वसूल होने की कोई उम्मीद नहीं। इस पंडित ने असामियों को सिर चढ़ा दिया। अब उन्हें मेरा ख़ौफ़ नहीं रहा। अपने कारिंदों और मुशीरों से सलाह ली। उन्होंने भी यही कहा कि अब वसूली की कोई सूरत नहीं। काग़ज़ात अदालत में पेश किए जाएंगे तो आमदनी का टैक्स तो लग जाएगा मगर रुपया वसूल होना मुश्किल। उज़्रदारियां होंगी। कहीं साहब में कोई ग़लती निकल आई तो रही सही साख भी जाती रहेगी और दूसरे इलाक़ों का रुपया भी मार पड़ेगा।
मगर दूसरे दिन जब ठाकुर साहब पूजापाट से फ़ारिग़ हो कर अपने चौपाल में बैठे तो क्या देखते हैं कि चाँद पार के असामी ग़ोल के ग़ोल चले आरहे हैं। उन्हें ख़ौफ़ हुआ कि कहीं ये सब कोई फ़साद करने तो नहीं आए। मगर किसी के हाथ में लकड़ी तक न थी। मलूका आगे आगे आता था। उसने दूर ही से झुक कर सलाम किया। ठाकुर साहब को ऐसी हैरत हुई गोया कोई ख़्वाब देख रहे हैं।
मलूका ने सामने आकर अर्ज़ की, “सरकार हम लोगों से जो कुछ भूल चूक हुई उसे माफ़ किया जाए। हम लोग सब हुजूर के चाकर हैं। सरकार ने हमको पाला है। अब भी हमारे ऊपर वही निगाह रहे।”
कुँवर साहब का हौसला बढ़ा। समझे कि पंडित के चले जाने से इन सभों के होश ठिकाने हो गए हैं। अब किस का सहारा लेंगे। उसी बदमाश ने इन सब को भड़का दिया था। कड़क को बोले, “वो तुम्हारे हिमायती पंडित कहाँ गए। वो आ जाते तो ज़रा उनकी मिज़ाजपुर्सी की जाती।”
बूढ़े मलूका ने आँखों में आँसू भरे हुए कहा, “सरकार उनको कुछ न कहें। वो आदमी नहीं देवता थे। जवानी की सौगन्द है जो उन्होंने आपकी कोई शिकायत की हो। वो बेचारे तो हम लोगों को बार बार समझाते रहते कि देखो मालिक से बिगाड़ करना अच्छी बात नहीं। हमसे कभी एक लोटे पानी के रवादार नहीं हुए। चलते चलते हम लोगों से कहा कि मालिक का जो कुछ तुम्हारे ज़िम्मे निकले, चुका देना। आप हमारे मालिक हैं। हमने आपका बहुत खाया पिया। आप ही के नमक से हमारे तन पले हैं। अब हमारी सरकारत यही बनती है कि हमारा हिसाब-किताब देखकर जो कुछ हमारे ऊपर निकले हमसे बता दिया जाये हम एक एक कौड़ी चुका कर तब पानी पिएंगे।”
कुँवर साहब को सकता सा होगया। उन्हें रुपयों के लिए कितनी बार ज़बरदस्ती खेत कटवाए गए। कितनी बार घरों में आग लगवाई, कितनी बार मार पीट की। कैसी कैसी सख़्तियां कीं, कैसे कैसे सितम ढाए। और आज ये सब ख़ुद बख़ुद सारा हिसाब साफ़ करने आए हैं, ये क्या जादू है।
मुख़्तार-ए-आम साहब ने काग़ज़ात खोले और आसामियों ने अपनी अपनी पोटलियां खोलीं। जिसके ज़िम्मे जितना निकला उसने बे चूं चरा वो रक़म सामने रख दी। देखते देखते सामने रुपयों का ढेर लग गया। छः हज़ार रुपया दम की दम में वसूल हो गया। किसी के ज़िम्मे कुछ बाक़ी नहीं। ये सच्चाई और इन्साफ़ की फ़तह थी। ज़बरदस्ती और ज़ुल्म से जो काम कभी न हुआ वो इंसानियत ने पूरा कर दिखाया।
कल जब से ये लोग मुक़द्दमा जीत कर घर आए उसी वक़्त से उन्हें रुपया अदा करने की धुन सवार थी। पंडित जी को वो सचमुच देवता समझने लगे थे और यह उनकी सख़्त ताकीद थी। किसी ने गल्ला बेचा, किसी ने गहने गिरवी रखे। किसी ने बैल फ़रोख़्त कर डाले। ये सब कुछ सहा, मगर पंडित जी की बात न टाली।
कुँव साहिब के दिल में पंडित जी की तरफ़ से जो बदगुमानी और कुदूरत थी वो बहुत कुछ मिट गई। मगर उन्होंने हमेशा सख़्ती और ज़ुल्म से काम लेना सीखा था। उन्हीं उसूलों के वो क़ाइल थे। इन्साफ़ और सच्चाई और मुलाइमियत की उन्होंने हमेशा आज़माइश नहीं की और उन पर उनका बिल्कुल एतिक़ाद न था। मगर आज उन्हें साफ़ नज़र आ रहा था कि सच्चाई और नरमी में बड़ी ताक़त है। ये असामी मेरे क़ाबू से निकल गए थे। मैं उनका क्या बिगाड़ सकता था। ये ख़ौफ़ का करिश्मा नहीं, हक़ और इन्साफ़ की तासीर है। ज़रूर वो पंडित सच्चा और धर्मात्मा आदमी था। उसमें मस्लहत अंदेशी न हो, मौक़ा शनासी न हो, मगर इसमें कोई शक नहीं कि वो सच्चा और बेलौस था।
जब तक हमको किसी चीज़ की ज़रूरत न हो उसकी हमारी निगाहों में क़दर नहीं होती। हरी दूब भी किसी वक़्त अशर्फ़ियों के तौल बिक जाती है। कुँवर साहब का काम एक बेलौस आदमी के बग़ैर रुका नहीं रह सकता था। इसलिए पंडित जी के इस मर्दाना फे़’ल की क़दर एक शायर का फ़िक्र-ए-सुख़न से ज़्यादा न हुई। चाँद पार के आदमीयों ने तो उसके बाद अपने ज़मींदार को किसी क़िस्म की तकलीफ़ नहीं दी। हाँ, रियासत के दूसरे हिस्सों में वही साबिक़ दस्तूर रगड़ झगड़ मची रहती थी। रोज़ाना अदालत, रोज़ाना फ़ौजदारी, रोज़ाना डाँट फटकार, मगर यह सब ज़मींदारी के सिंगार हैं। इनके बग़ैर ज़मींदारी क्या!आख़िर वो दिन भर बैठे-बैठे क्या मक्खियां मारे। कुँवर साहब इसी तरह शान-ए-क़दीम के साथ अपना इंतज़ाम सँभालते थे।
कई साल गुज़र गए। कुँवर साहब का कारोबार रोज़ बरोज़ चमकता गया और बावजूद इसके कि पाँच लड़कियों की शादियां बड़े हौसले और धूम के साथ कीं। उनके उरूज में ज़वाल न आया। हाँ, कुवा अलबत्ता कुछ-कुछ ढीले होने लगे। अफ़सोस ये था कि अब तक इस माल-ओ-ज़रा और जाह-ओ-हशम का कोई वारिस नहीं था। भांजे, भतीजे और नवासे रियासत पर दाँत लगाए हुए थे।
कुँवर साहब का दिल उन दुनियावी झगड़ों से फिरता जाता था। आखिर यह रोना-धोना किसके लिए। अब उनके तर्ज़-ए-ज़िदंगी में एक इन्क़िलाब हुआ। कभी कभी साधू संत उनके दरवाज़े पर धूनी रमाए नज़र आते, वो ख़ुद अब भगवत गीता और विष्णु पुराण ज़्यादा पढ़ते। बैतरनी घाट से उतरने के सामान होने लगे लेकिन परमात्मा की मर्ज़ी, साधू संतों की दुआ की बदौलत, ख़ाह धर्म और पुन के असर से, बुढ़ापे में उनके लड़का पैदा हुआ। सूखा पेड़ हरा हुआ। ज़िंदगी की उम्मीदें बर आईं। ख़ूब दिल खोल कर माल-ओ-ज़र लुटाया।
मगर जिस तरह बाँस की जड़ें निकली हुई कोपल जूँ-जूँ बढ़ती है बाँस सूखता है। उसी तरह कुँवर साहब भी जिस्मानी आरिज़ों में मुब्तला होते गए। हमेशा बेदों और डाक्टरों का तांता लगा रहता। मगर मालूम होता था कि दवाओं का उल्टा असर हो रहा है। क़ाबिज़ मुसहल और मुसहल क़ाबिज़ का काम करती। जूं तूं करके उन्होंने दो ढाई साल काटे। यहाँ तक कि ताक़तों ने जवाब दे दिया। ज़िंदगी की आस टूट गई मालूम हो गया कि मेरे दिन क़रीब हैं।
मगर यह सारी जायदाद और सारा कारोबार किस पर छोड़ जाऊँ। अफ़सोस अरमान दिल ही में रह गया। बच्चे का ब्याह भी न देख सका। इसकी तुतली बातें सुनने की भी नौबत न आई। इस जिगर के टुकड़े को किसे सौंपूँ जो इसे अपना बेटा समझे, जो पौधे को सींचे, पाले और इसकी पूँजी उसे सौंप दे। लड़के की माँ औरत ज़ात, न कुछ जाने न सुने। इससे कारोबार सँभलना मुश्किल। मुख़्तार-ए-आम और गुमाशते और कारिंदे दर्जनों हैं, मगर सबके सब दग़ाबाज़, ईमान फ़रोश, ख़ुदग़रज़। एक भी ऐसा आदमी नहीं जिस पर मेरी तबीयत जमे। कोर्ट आफ़ वार्डस के सुपुर्द कर दूँ तो वहाँ भी वही सब आफ़तें। कोई इधर दबाएगा, कोई उधर खींचेगा। यतीम बच्चे का कौन पुरसां होगा, हाय! मैंने आदमी की क़दर न की, मुझे आदमी नहीं हीरा मिल गया था। मैंने उसे ठीकरा समझा। कैसा सच्चा, कैसा दिलेर, अपने ईमान पर क़ाइम रहने वाला आदमी था। वो अगर कहीं मुझे मिल जाये तो मेरे सब बिगड़े काम बन जाएं। इस बदनसीब लड़के के दिन फिर जाएं। मैं उसके पैरों पर सर रख दूँगा, उसे मनाऊँगा और अपने लाल को उसके क़दमों पर डाल दूँगा। मैं अपने जन्म की कमाई उसके सुपुर्द कर दूंगा। उसके दिल में दर्द है, रहम है। वो एक यतीम पर तरस खाएगा। आह, काश मुझे उसके दर्शन मिल जाते। मैं इसको देवता की पैर धो धोकर माथे पर चढ़ाता। आँसुओं से उसके पैर धोता, उसकी मिन्नत करता, उससे दया का दान माँगता। वही अगर हाथ लगाए तो ये डूबती हुई डोंगी पार लग सकती है।
ठाकुर साहब की हालत रोज़ बरोज़ ख़राब होती गई। वक़्त आख़िर आ पहुंचा। उन्हें पंडित दुर्गा नाथ की रट लगी हुई थी। बच्चे की सूरत देखते और कलेजे से एक आह निकल जाती। बार बार पछताते और कफ़-ए-अफ़सोस मलते, हाय! उस देवता को कहाँ पाऊँ। जो शख़्स इस वक़्त उनके दर्शन करा दे आधी जायदाद उसके निछावर कर दूँ। प्यारे पंडित मेरी ख़ता मुआफ़ करो। मैं अंधा था, नादान था। अब मेरी बांह पकड़ो, मुझे डूबने से बचाओ। इस मासूम बच्चे पर तरस खाओ।
अज़ीज़-ओ-अक़ारिब का जमघट सामने खड़ा था। कुँवर साहब ने उनके चेहरों की तरफ़ नीम-वा आँखों से देखा। सच्ची ग़मख़्वारी कहीं नज़र न आई। हर एक चेहरे पर ख़ुदग़रज़ी झलक रही थी। आलम-ए-यास में उन्होंने आँखें मूँद लीं।
उनकी बीवी ज़ार-ज़ार रो रही थी। आखिर उस से ज़ब्त न हो सका। उसने रोते हुए क़रीब जाकर कहा, “पति जी हमको और इस अनाथ बालक को किस पर छोड़े जाते हो?”
कुँवर साहब ने आहिस्ते से कहा, “पंडित दुर्गा नाथ पर, वो जल्द आएंगे, मेरा दिल कहता है। उनसे कह देना कि मैंने अपना सब कुछ उसके भेंट कर दिया, ये मेरी आख़िरी वसीयत है।”
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