पहला गाहक
स्टोरीलाइन
आर्थिक परेशानी की वजह से मजबूर हो कर इस्मत से समझौता करने वाली औरत की कहानी है। मुख़्तार अपने दोस्त तौफ़ीक़ के फ़्लैट में रहता है। नज्मा उसकी बीवी और नाज़ो छोटी सी लड़की है। छः महीने का किराया बाक़ी है जिसके लिए तौफ़ीक़ परेशान कर रहा है और उधर घर में राशन का एक दाना भी नहीं है। नज्मा अपने शौहर और बेटी को बहाने से बाहर भेज देती है, उसी बीच तौफ़ीक़ आ जाता है और वो उसके साथ मोटर पर बैठ कर चली जाती है।
मुख़्तार फ़्लैट में दाख़िल हुआ तो सूरज डूब चुका था। फ़्लैट के एक कमरे में रौशनी हो रही थी। दूसरे में अँधेरा था। रौशन कमरे की तरफ़ बढ़ते हुए उसने सवालिया निगाहों से तारीक कमरे की तरफ़ देखा मगर उसे फ़ौरन ही याद आ गया कि दूसरे कमरे का बल्ब फ़्यूज़ हुए कई दिन गुज़र चुके हैं
वो रौशन कमरे का दरवाज़ा खोल कर अन्दर दाख़िल हुआ तो सबसे पहले उसकी नज़र नाज़ो पर पड़ी जो चटाई के एक टुकड़े पर बैठी एक तीन टाँग के हाथी और एक बे-सर गुड़िया से खेल रही थी। कमरे में दो पलंग पड़े हुए थे। चटाई का टुकड़ा पलंगों के बीच में बिछा हुआ था। चार दिन पहले तक इस जगह चहार-गोशा मेज़ और एक कुर्सी पड़ी होती थी। मुख़्तार की आँखें उस जगह पर इस मेज़ और कुर्सी को देखने की इतनी आदी हो चुकी थीं कि उसे फिर उनकी ग़ैर-मौजूदगी का एहसास हुआ। एक पलंग दरवाज़े के पास बिछा हुआ था और दूसरा खिड़की के पास, जो बाहर खुलती थी। खिड़की के पास वाले पलंग पर नज्मा लेटी हुई थी। उसकी पुश्त दरवाज़े की सिम्त थी और उसका मुँह खिड़की की जानिब, मुख़्तार को देखकर नाज़ो चिल्लाई, “अब्बू आ गए। अब्बू आ गए।“
नज्मा ने करवट बदली और मुतजस्सिस निगाहों से मुख़्तार को देखा। मुख़्तार की नज़रें नज्मा की नज़रों से मिलते ही झुक गईं और वो दूसरे पलंग पर बैठ कर जूता उतारने लगा जिसकी एड़ियाँ आधी घिस चुकी थीं और जिस पर गर्द की इतनी दबीज़ तह जमी हुई थी कि उसका रंग काला कम और मटियाला ज़ियादा लग रहा था। एक हाथ से उसने जूते को पलंग के नीचे खिसकाया और दूसरे से पलंग के नीचे से चप्पल की जोड़ी निकाली जिसमें से एक पर मरम्मत के निशान थे। नाज़ो उसके पास आई और उसके घुटनों से लग कर खड़ी हो गई, “हमारा हाथी लाए अब्बू?“
“नहीं बेटी।” मुख़्तार ने नाज़ो के सर पर हाथ फेरते हुए कहा
“आप तो कह रहे थे आज ज़रूर ला दूँगा। फिर वो दौड़ कर चटाई तक गई और तीन टाँग का हाथी उठा लाई, “देखो ना। अब तो इस की सूंड भी टूट गई।” उसने हाथी को मुख़्तार की आँखों के सामने घुमा कर कहा।
“हाँ बेटी। आज भूल गया।”
“आप तो रोज़ भूल जाते हैं!” नाज़ो का मुँह फूल गया।
“कल ज़रूर ला दूँगा अपनी बेटी को।” नाज़ो उसके सामने से हटी तो मुख़्तार की नज़रें फिर नज्मा की नज़रों से चार हो गईं जो अभी तक मुख़्तार की सम्त लगी हुई थीं। मुख़्तार ने फिर नज़रें झुका लीं मगर नज्मा मुतवातिर उसकी तरफ़ देखती रही। मुख़्तार की आँखों के नीचे सियाह निस्फ़ हल्क़े। इसके उलझे हुए बाल। इसके पिचके हुए गाल। उसकी ज़र्द रंगत। उसकी मैली क़मीस। उसका जेब के पास से फटा हुआ पतलून। ग़रज़ उसकी हर एक चीज़ को नज्मा ने एक-बार नहीं कई बार देखा मगर अपनी निगाहों का रुख़ नहीं बदला। मुख़्तार थोड़ी देर तक गर्दन झुकाए बैठा रहा। नज्मा की नज़रें उस पर जमी रहीं और नाज़ो अपने हाथी को तीन टाँगों पर खड़ा करने की नाकाम कोशिश करती रही। फिर वो आहिस्ता से पलंग पर से उठा और जाकर दूसरे पलंग पर नज्मा के पास बैठ गया।
“मैं ख़ान बहादुर से मिला था” नज्मा की ख़ामोशी में इन्तिज़ार भी था, इस्तिफ़सार भी।
“वो कहने लगे आपको किसी ने ग़लत इत्तिला दे दी। हम लोग तो अगले महीने से कंडक्टरों की छुट्टी कर रहे हैं। और वैसे भी ये काम आपके बस का नहीं। दो घंटे इन्तिज़ार करना पड़ा, तब जा कर मुलाक़ात हुई। और...” उसने जुम्ला अधूरा छोड़कर नज्मा को शिकायत से लब्रेज़ आँखों से देखा जैसे कह रहा हो, तुम ही बताओ कहाँ का इन्साफ़ है! नज्मा की आँखों ने जवाब दिया। मैं तो पहले से जानती थी कि ये कोशिश बेकार है। वो उठकर बैठ गई और पैर पलंग से नीचे लटकाते हुए बोली, “तुम जा कर मुँह हाथ धोलो। मैं खाना निकालती हूँ” मुख़्तार मुँह हाथ धोकर कमरे में वापस आया तो उसके बदन पर क़मीस और पतलून की जगह एक गंुजला हुआ कुर्ता और एक मैला पायजामा था। वो नाज़ो के पास चटाई के टुकड़े पर बैठ गया।
“बेटी अब खेल ख़त्म करो और खाना खा लो ।” उसने हाथी और गुड़िया को चटाई पर से हटाते हुए कहा, “अब कल खेलना।” खिलौने दूसरे पलंग के नीचे सरका कर उसने नाज़ो को गोद में बिठा लिया। नज्मा चीनी की एक प्लेट में, जिसका किनारा जगह जगह से टूटा हुआ था, चावल लाई और चीनी के एक प्याले में थोड़ी सी दाल। प्लेट और प्याला मुख़्तार के सामने रखकर वो ख़ुद पलंग पर बैठ गई।
“क्यों? तुम नहीं खाओगी?”
“मैं खा चुकी।”
“नहीं अब्बू। अम्मी ने खाना नहीं खाया अभी।” नाज़ो ने मुख़्तार का कंधा हिला कर कहा। मुख़्तार ने नज्मा की तरफ़ देखा।
“मुझे भूक नहीं लग रही।” ये कह कर वो पलंग पर लेट गई।
“थोड़ा सा खा लो।”
“नहीं। बिल्कुल भूक नहीं।” मुख़्तार ने गर्दन झुका कर नज़रें चावलों की प्लेट में जमा दीं।
“मैंने आज फिर भेजा था नाज़ो को राशन वाले के पास।” नज्मा करवट के बल लेटी हुई थी और उसका मुँह चटाई के टुकड़े की जानिब था, थोड़ा सा आटा दे देता मगर वो नहीं माना, पिछला हिसाब साफ़ किए बग़ैर...” मुख़्तार ने पियाला उठा कर थोड़ी सी दाल चावलों की प्लेट के एक कोने में उंडेल दी।
“मुट्ठी दो मुट्ठी चावल और हैं। कल तक को हो जाएँ तो बहुत है।” मुख़्तार उँगलियों से दाल और चावल मिला रहा था।
“और दाल का एक दाना भी बाक़ी नहीं!”, मुख़्तार ने एक छोटा सा निवाला बना कर नाज़ो को खिलाया और फिर क़द्रे बड़ा निवाला अपने मुँह में डाल कर उसे थोड़ी देर तक चबाता रहा। जब वो एक और छोटा सा निवाला नाज़ो के मुँह तक ले गया तो नाज़ो ने मुँह फेर लिया।
“हम तो घी शक्कर से खाएँगे। मुख़्तार ने नज्मा की तरफ़ देखा। निवाला अभी तक उसके उठे हुए हाथ में था।
“खा लो बेटी!” नज्मा ने नाज़ो को पलंग पर से चुमकारा।
“नहीं हम तो घी शक्कर से खाएँगे”
“घी शक्कर ख़त्म हो गया। कल जब अब्बू लाएँगे तब खाना।”
“नहीं। नहीं। हम तो अभी खाएँगे
“खा लो बेटी।” मुख़्तार ने दूसरा हाथ नाज़ो के सर पर फेरा, “बस थोड़ा-सा खा लो, कल अपनी बेटी के लिए ज़रूर घी शक्कर लाऊँगा”
“कहाँ से लाएँगे। राशन वाला तो नहीं देगा।”
“हम अपनी बेटी के लिए मार्केट से लाएँगे।”
“खा लो बेटी!” नज्मा ने फिर चुमकारा।
“हाँ। बेटी खा लो।” मुख़्तार ने फिर उसके सर पर हाथ फेरा।
“अब्बू!”
“हाँ बेटी!”
“आप राशन वाले के पैसे क्यों नहीं देते?”
निवाला मुख़्तार के हाथ से छूट कर प्लेट में जा गिरा, और नज्मा ने करवट बदल कर अपना मुँह खिड़की की तरफ़ कर लिया। जिसमें से फैला हुआ आस्मान और उस पर चमकते हुए चाँद तारे नज़र आ रहे थे। नाज़ो मुख़्तार की गोद से उठकर नज्मा के पास गई, “बताएँ अम्मी क्यों नहीं देते अब्बू राशन वाले के पैसे?” नज्मा उठकर बैठ गई और नाज़ो को अपने सीने से लगा कर उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगी। मुख़्तार कुछ देर ख़ामोश बैठा रहा। फिर आहिस्ता-आहिस्ता निवाले बना कर मुँह में रखने लगा।
“तौफ़ीक़ से मिले थे?” नज्मा ने नाज़ो को अपने पास पलंग पर लिटा कर पूछा।
“सीधा उसी के पास तो गया था।”
“क्या कहता था?”
“बदमाश है!”
नज्मा की ख़ामोशी कह रही थी मेरे सवाल का जवाब नहीं मिला।
“भूकों मर जाऊँगा मगर उस लफ़ंगे के पास हरगिज़ नहीं जाऊँगा”
नज्मा की ख़ामोशी कह रही थी। ये भी मेरे सवाल का जवाब नहीं।
“दौलत का नशा अंधा कर देता है इन लोगों को। चर्बी चढ़ जाती है आँखों पर। इन्सानियत गँवा बैठते हैं!” दाल ख़त्म हो चुकी थी और मुख़्तार अब रूखे चावल खा रहा था, “दोस्ती का दावा किया करता था कमीना कहीं का....” नज्मा की ख़ामोशी कह रही थी। मेरे सवाल का जवाब क्यों नहीं देते।
“इसे कहते हैं तोता चश्मी। ऐसे मिला जैसे मुझसे बात करके मुझ पर एहसान कर रहा है...”
नज्मा को आख़िर बोलना ही पड़ा, “किराए के बारे में कुछ कहा उसने?
“नहीं।”
“क्यों? तुमने किराए की बात नहीं की?”
“मौक़ा ही नहीं दिया उसने। बदमाश अपनी बातें ख़त्म करता तब ही तो करता में िकराए की बात।”
कैसी बातें? सवाल नज्मा की ज़बान पर आकर रह गया।
“तुम फ़िक्र न करो।” उसने नज्मा के चेहरे की तरफ़ देखते हुए कहा, जिस पर बेशुमार अन्देशे गर्दन झुकाए बैठे थे, “मैं किराए की एक एक पाई चुका दूँगा, मैं मज़दूरी करूँगा मगर उसका किराया ज़रूर अदा करूँगा, डेढ़ सौ रुपया होता ही क्या है, ज़रा सी देर में अदा कर दूँगा। नज्मा ने सर झुका लिया और ख़ाली प्लेट को देखने लगी।
“समझ क्या रखा है लफ़ंगे ने....” मुख़्तार ख़ाली प्लेट और पियाला उठा कर एक दम खड़ा हो गया।
“लाओ मैं रख आऊँ।”
“तुम बैठी रहो। मैं रख आता हूँ।” मुख़्तार कमरे में वापस आया तो नज्मा टाँगें फैलाए, दीवार से सर टिकाए चटाई के टुकड़े पर बैठी हुई थी और नाज़ो पलंग पर लेटी किसी नज़र न आने वाले शख़्स से बे-सदा गुफ़्तुगू कर रही थी।
“क्या सोच रही हो?” वो नज्मा के पास चटाई के टुकड़े पर बैठ गया।
“कुछ भी नहीं।” नज्मा ने मुस्कुराने की कोशिश की। फिर थोड़ी देर बाद उसने पूछा, “तुम कब मिले थे उस से?”
“सुब्ह सीधा उसी के हाँ तो गया था।”
नज्मा चुप हो गई।
“क्यों?”
“वो आज फिर यहाँ आया था।
मुख़्तार के जैसे बिच्छू ने डंक मार दिया।
“कौन...? तौफ़ीक़...? कब आया था....?”
“शाम को।” नज्मा की आवाज़ में क़ब्र का सा सुकून था।
“क्यों घुसने दिया तुमने उसे घर में। निकाल दिया होता बाहर बदमाश को!”
“मैं तो शुरू से कहती थी कि ये आदमी मुझे पसन्द नहीं। उसका आना जाना मुझे अच्छा नहीं लगता। तुम ही उसके गुन गाया करते थे। दोस्त आदमी है। ऐसा है। वैसा है।” नज्मा की आवाज़ में सूखे पत्तों की खड़खड़ाहट आ गई थी।
“मुझे क्या मालूम था।”
“पर मैं जो कहा करती थी।”
मुख़्तार चुप हो गया।
“इस वक़्त उसका पल्ला भारी है। जब तक किराया अदा न हो जाएगा हमें दबना ही पड़ेगा। नज्मा की आवाज़ में अब फिर क़ब्र का सुकून था। मुख़्तार ने धीमी आवाज़ में पूछा, “क्या कह रहा था?” नज्मा जवाब देने से पहले लम्हे भर रुकी, “कह रहा था कल तक किराया अदा न हुआ तो फ़्लैट ख़ाली करवा लेगा।”
“झूठा कहीं का। मुझसे कहा तीन दिन मोहलत और देता हूँ। और तुमसे कह गया...”
“उसका पल्ला भारी है।” नज्मा ने जैसे मुख़्तार को याद दिलाया, “वो झूठ बोल कर भी खरा बना रहेगा। कौर तो हमारी दब रही है।”
“देखता हूँ कैसे फ़्लैट ख़ाली करवाता है!”
नज्मा के होंठों पर एक बे-जान हँसी फैल गई, “दो आदमी ले आएगा अपने साथ और पलंग और बक्स उठवा कर सड़क पर फेंकवा देगा। एक दो का नहीं छः महीने का किराया है। देखने वाले भी उसी की सी कहेंगे। तमाशा बनना मन्ज़ूर है?”
“मगर कल तक किराए का इन्तिज़ाम कैसे हो सकेगा?” मुख़्तार ने गोया अपने आपसे पूछा।
“और तीन दिन बाद भी किराए का इन्तिज़ाम कैसे हो सकेगा?
मुख़्तार भड़क उठा, “हम कहीं झोंपड़ी डाल लेंगे। फ़ुट-पाथ पर रह लेंगे। मगर... मगर...” नज्मा की आँखें पूछ रही थीं। सच...? उसने सँभल सँभल कर कहना शुरू किया, “वो लोग कहते हैं पेट किसी न किसी तरह भरा जा सकता है। बदन ढाँपा जा सकता है। मगर सर छिपाने की जगह ढूँढना बेकार है।
मुख़्तार कुछ देर चटाई के टुकड़े पर सर झुकाए ख़ामोश बैठा रहा। फिर जाकर दूसरे पलंग पर लेट गया। वो करवट के बल लेटा हुआ था। उसका एक हाथ तकिए के नीचे था। दूसरा पलंग से नीचे लटक रहा था और उसकी आँखें फ़र्श पर जमी हुई थीं। फ़र्श के फूल पत्तों को घूरते घूरते उसकी नज़रें अख़बारी काग़ज़ के एक टुकड़े की तरफ़ भटक गईं जो पलंग के पाए के पास पड़ा था। पहले तो उसने इसी तरह लेटे लेटे काग़ज़ पर छपी हुई इबारत को पढ़ने की कोशिश की। फिर हाथ बढ़ा कर काग़ज़ के उस टुकड़े को उठा लिया।
“मुहाजिरीन की आबादकारी एक साल में मुकम्मल हो जाएगी वज़ीर-ए-बहालियात का ऐलान।”
कराची। 13 दिसंबर। आज वज़ीर-ए-बहालियात ने एसोसीएटेड प्रेस को एक ख़ास मुलाक़ात के दौरान बताया कि हुकूमत ने मुहाजिरीन की आबादकारी की एक नई स्कीम मुरत्तब की है जिसके तहत मुल्क की सारी मुहाजिर आबादी एक साल के अन्दर अन्दर... पूरी ख़बर पढ़े बग़ैर मुख़्तार ने काग़ज़ के टुकड़े को उलट कर देखा। दूसरी तरफ़ किसी नज़्म के चन्द बन्द छपे हुए थे जिनमें इस मिस्रे की तक्रार थी... बहारों का मस्कन है मेरा वतन। उसने काग़ज़ के टुकड़े को गंुजल कर पलंग के नीचे फेंक दिया और चित् हो कर छत पर नज़रें जमा दीं। नाज़ो ने यकायक नज़र न आने वाली शख़्सियत से अपनी बे-सदा गुफ़्तुगू का सिलसिला बंद कर दिया और उठकर बैठते हुए बोली, “भूक लग रही है अम्मी!” मुख़्तार ने नज्मा को देखा जो अभी तक चटाई के टुकड़े पर बैठी हुई थी
“थोड़े से चावल बाक़ी हैं। नज्मा ने कहा।
“हम ख़ाली चावल नहीं खाएँगे नाज़ो ने रूठी आवाज़ में कहा, “हम तो घी शक्कर से खाएँगे
“कह जो दिया बेटी घी शक्कर नहीं है घर में। मुख़्तार ने कहा।
“कहाँ से लाएँगे तेरे लिए घी शक्कर, कह दिया एक दफ़ा। नज्मा की झल्लाई हुई आवाज़ उसके हल्क़ में फँस गई। नाज़ो का चेहरा लंबा हुआ। फिर उसने रोना शुरू कर दिया। आहिस्ता-आहिस्ता ऊँ ऊँ ऊँ। मुख़्तार ने पलंग पर से उतर कर उसे गोद में उठा लिया। वो रोती जा रही थी और कहती जा रही थी, “हम तो घी शक्कर से खाएँगे। हम तो घी शक्कर से खाएँगे। नज्मा उठकर खड़ी हो गई।
“अब बंद करती है ये रट कि लगाऊँ एक थप्पड़!” नाज़ो ने रट तो बंद कर दी मगर उसका रोना जारी रहा। अब वो सिसकियाँ भी भर रही थी। मुख़्तार ने हाथ के इशारे से नज्मा को डाँटने से मना किया। झल्लाहट गोया एक क़ुव्वत थी जिसने नज्मा को बैठे से खड़ा कर दिया था। ये क़ुव्वत उसके बदन से चली गई तो वो जैसे कमज़ोरी से मग़्लूब हो कर पलंग पर बैठी नहीं, गिर पड़ी। नाज़ो ने कनखियों से नज्मा को देखा और फूट फूट कर रोने लगी। नज्मा थोड़ी देर सर झुकाए बैठी रही। फिर उसने यकायक चौंक कर कहा, “तुम इसे बाहर ले जाओ।
“इस वक़्त?” मुख़्तार की नज़रें उसकी ख़ाली कलाई की तरफ़ उठ गईं।
“हाँ, अब्बू हम बाज़ार चलेंगे।”
“ले भी जाओ वर्ना रो-रो कर सारा घर भर देगी।”
“हाँ अब्बू, हमें बाज़ार ले चलो।”
“तुम इसे ले ही जाओ।” नज्मा की आवाज़ में फ़िक्र और थकन साथ साथ बोल रहे थे। मुख़्तार ने उसके चेहरे को ऐसी निगाहों से, जिनमें बहुत से अधूरे सवाल तक्मील पा रहे थे देखा और नाज़ो को गोद में उठाए दरवाज़े की तरफ़ चल दिया। जब वो क़रीब क़रीब दरवाज़े से बाहर निकल गया तो नज्मा झपट कर पलंग पर से उठी। दरवाज़े तक गई और ऐसे बोली जैसे उसने कोई इरादा बदल दिया था या उसे कुछ याद आ गया था। या वो कुछ भूल जाना चाहती थी, “जल्दी लौट आना।” मुख़्तार ने मुड़कर एक-बार फिर नज्मा के चेहरे को देखा और क़दम उठाता फ़्लैट से बाहर चला गया।
“आख़िर शहज़ादी ने शहज़ादे की ख़ातिर एक दिन....” मुख़्तार जुमला पूरा किए बग़ैर ठिठक गया। उसकी नज़रें सामने वाली बिल्डिंग के उस फ़्लैट पर जम गईं जिसमें वो रहता था। किसी ने फ़्लैट के कमरे की रौशनी गुल कर दी थी। वो नाज़ो को बाज़ार की सैर करा के लौट रहा था।
“क्या किया शहज़ादी ने?” नाज़ो ने, जो उसकी उंगली पकड़े हुए थी, मुख़्तार का हाथ हिला कर पूछा। मुख़्तार ने नाज़ो को गोद में उठा लिया। वो फ़ुट-पाथ पर खड़ा था और उसे सड़क पार करनी थी। जिस पर बेशुमार मोटरें, साइकलें, घोड़ा गाड़ियाँ, रिक्शे और बसें दौड़ रही थीं।
“अभी बताता हूँ” उसने सड़क पर क़दम रखते हुए कहा। सड़क पार करते हुए मुख़्तार ने सोचा, “शायद नींद आ रही होगी। नज्मा इतनी जल्दी सोने की आदी तो नहीं। अभी उसने सड़क की तीन चौथाई चौड़ाई पार की होगी कि उसे सामने गली में बिल्डिंग के दरवाज़े के सामने एक मोटर खड़ी नज़र आई। सड़क पार करके दूसरे फ़ुट-पाथ पर क़दम रखते हुए उसने सोचा, “उसी बदमाश की है। वही नम्बर। वही पिचका हुआ मड्गार्ड। वही काला रंग....” “आएँ,अब्बू क्या किया शहज़ादी ने?”
मुख़्तार ने नाज़ो को गोद से उतार दिया और उसका हाथ पकड़ कर फ़ुट-पाथ की गोलाई तय करने लगा। उसकी नज़रें बिल्डिंग के दरवाज़े के सामने रुकी हुई मोटर पर से हटने का नाम नहीं ले रही थी। अभी वो मोटर से कोई बीस पच्चीस गज़ के फ़ासले पर था कि नज्मा एक आदमी के साथ बिल्डिंग से बाहर आई। आदमी ने बढ़कर दरवाज़ा खोला और नज्मा कार में बैठ गई तो दरवाज़ा बंद कर दिया। दूसरा दरवाज़ा खोला और ख़ुद भी कार में बैठ गया। कार स्टार्ट हुई और ये जा वो जा। पल भर में कई ख़यालात ज़न-ज़न करते हुए मुख़्तार के दिमाग़ में से गुज़र गए। पहले उसने सोचा कि कार के पीछे भागे। फिर उसे ख़याल आया कि वो दौड़ता हुआ अपने फ़्लैट में जाए और पलंग पर गिर कर ख़ूब रोए। और फिर उसने सोचा कि वहीं खड़े खड़े ज़ोर-ज़ोर से क़हक़हे लगाए और....
“बताओ न अब्बू क्या किया शहज़ादी ने? नाज़ो जो लम्हे भर के लिए नुक्कड़ की दुकान में शीशे की मर्तबानों में भरी हुई अंग्रेज़ी मिठाईयों में खो गई थी, मुख़्तार का हाथ हिला हिला कर पूछ रही थी। उसने नाज़ो को फिर से गोद में उठा लिया।
“शहज़ादी ने कहा कि मेरे बदन का सारा ख़ून निचोड़ कर शहज़ादे की रगों में दौड़ा दो और उसकी जान बचा लो।”
“बाबू जी।” मुख़्तार ने गली के दूसरे नुक्कड़ की जानिब देखा।
“मैंने कहा, बाबू जी।” वो नाज़ो को गोद में लिए गली की चौड़ाई पार कर के दूसरे नुक्कड़ पर पहुँच गया, जहाँ पान बीड़ी सिगरेट की दूकान थी
“मैंने कहा पिछले महीने का हिसाब अभी तक साफ़ नहीं हुआ। बाबू जी।” दूकान की गद्दी पर बैठे हुए बुड्ढे ने शिकायत-आमेज़ लहजे में कहा।
“माफ़ करना बड़े मियाँ।” मुख़्तार इन चार लफ़्ज़ों को तेज़ी से अदा करके ठहर गया। फिर उसने आहिस्ता-आहिस्ता धीमी आवाज़ में कहा, “बहुत जल्द साफ़ हो जाएगा तुम्हारा हिसाब।”
“क्या कहा बाबू जी।”
“बहुत जल्द साफ़ हो जाएगा तुम्हारा हिसाब।”
“हाँ बाबू जी, तुम तो जानो हो अपनी रोजी का वसीला तो यही दूकान है।” मुख़्तार जाने के लिए मुड़ा।
“ग़रीब आदमी के लिए तो तुम जानो... मुख़्तार रुक गया।
“एक कैप्सटन की सिगरेट देना बड़े मियाँ।” बुड्ढे ने मुश्तबह नज़र से मुख़्तार की तरफ़ देखा और फिर पैकेट में से एक सिगरट निकाल कर उसकी जानिब बढ़ा दी।
“माचिस!” मुख़्तार ने सिगरेट मुँह में लगा कर कहा। बुड्ढे ने बिजली के खम्बे से बंधी हुई रस्सी की तरफ़ इशारा किया जिसका एक सिरा सुलग रहा था। मुख़्तार ने नाज़ो को गोद से उतारा और झुक कर रस्सी को झटका तो रस्सी के सुलगते हुए सिरे पर से राख झड़ गई और एक छोटा सा नोकदार अँगारा बे-नक़ाब हो गया। मुख़्तार ने सिगरेट को अँगारे की नोक से मिला कर कश खींचा तो सिगरेट का सिरा भी सुलग उठा।
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.