पक्का गाना
स्टोरीलाइन
यह अभिजात्य वर्ग की कहानी है। शिबू एक नौजवान लड़की है जो अपने घर में डांसिंग सिखाती है। बाप हर वक़्त किताबों में डूबे रहते हैं, और माँ डाँसिंग पर नाराज़ होती है। शिबू को जब नईम से शदीद क़िस्म की मुहब्बत हो जाती है तो एक दिन अचानक शिबू की माँ हाल में आ जाती हैं और नईम को रम्बा सिखाती हैं और फिर धीरे धीरे नईम और शिबू की माँ एक दूसरे के इश्क़ में मुब्तला हो जाते हैं।
“इससे अच्छा तो ये है कि डांसिंग स्कूल खोल ले और नहीं तो क्या! जैसे ठेका ले रखा है डांस सिखाने का। मैं कहती हूँ ये आसार अच्छे नहीं।”
“लेकिन इसमें बुराई क्या है। मुझे तो इसमें कोई ऐब नज़र नहीं आता।”
“तुम्हें क्यों नज़र आने लगा। तुम्हारी आँखों पर तो…”
“पर्दे पड़ गए हैं! है न और तुम्हारी अक़्ल पर पत्थर। जो सोचती हो उल्टा सोचती हो।”
“हुँह! मैं तो तुम्हारे भले की कहती हूँ। बदनामी होगी तुम्हारी, नाक कटेगी तो तुम्हारी…”
“और तुम्हारी नहीं?”
“मेरी क्यूँ कटने लगी। लड़की तुम्हारी है या मेरी?”
“शिबू ऐसी लड़की नहीं। तुम तो ख़्वाह-मख़ाह।”
“ऐसी लड़कीयों के सर पर क्या सींग होते हैं। जवान है, उम्र निकली जा रही है, जो कुछ न कर गुज़रे थोड़ा है। मैं कहती हूँ सर पर हाथ रखकर रोओगे।”
“तुम तो ज़रा सी बात का बतंगड़ बना देती हो।”
“इसी का तो रोना है। तुम्हें तो लाडली बेटी की हर बात ज़रा सी मा’लूम होती है। कमरे का दरवाज़ा बंद है। रेडीयो-ग्राम बज रहा है, क्या हो रहा है? डांस सिखाया जा रहा है, किसे? एक साहब को, पहले कभी न शक्ल देखी न नाम सुना... नन्ही बच्ची है ना। जिसने उँगली पकड़ ली उसके साथ हो ली और फिर न किसी से पूछना-गिछना, न किसी से इजाज़त माँगी।”
“इजाज़त माँगती तो तुम इनकार कर देतीं?”
“और तुम हाँ कह देते?”
“मगर मैं कहता हूँ शिबू बच्चा तो नहीं। अपना बुरा-भला सोच सकती है और मिले-जुलेगी नहीं तो क्या सारी उम्र यहीं बैठी रहेगी”
“ऐसा अंधा कौन होगा। न शक्ल न सूरत।”
“आख़िर तुम क्यों उसके रास्ते का रोड़ा बनती हो। नहीं मिले तो न सही।”
“मैं क्यों बनने लगी उसके रास्ते का रोड़ा। उसका जो जी चाहे करे। तुम जानो और तुम्हारी बेटी, मैं तो जब पूछूँगी जब कुछ करके धरेगी और ये किताब अब बंद करो।”
“क्यों?”
“मुझे नींद आ रही है।”
“मैं अभी पढूँगा”
“पढ़ना। पढ़ना। पढ़ना। दिन-रात पढ़ना। हुँह!”
माई डियर नजी ख़त का जवाब देने में ज़रा देर हुई तो नाराज़ हो गईं। शिकायतों का दफ़्तर खोल कर बैठ गईं। मैंने तो पहले ही माफ़ी माँग ली थी। जानती थी कि मेरी नजी बड़ी तुनुक-मिज़ाज है। ज़रा सी बात पर रूठ जाती है और फिर मनने का नाम नहीं लेती। अच्छा भई एक-बार फिर। अब के से हाथ जोड़ कर माफ़ी माँगती हूँ। हाँ तुम्हारी आपा तुमसे माफ़ी माँग रही है। क्या उसे माफ़ नहीं करोगी? क्या अपनी आपा से इतनी ख़फ़ा हो?
मशग़ूलियत नहीं, उसे काहिली कह सकती हो। उधर कुछ अरसा से काहिली मुझ पर इस बुरी तरह छाई है कि जितना मैं अपने प्रोग्रामों का दायरा तंग करती जाती हूँ, उतना ही मेरी काहिल मशग़ूलियत का दायरा वसीअ’ होता जाता है। घंटे गुज़र जाते हैं कि मैं कुछ नहीं करती। मगर फिर भी मुझे महसूस होता है कि जैसे ये तमाम घंटे मैंने पहाड़ काटने में गुज़ारे हैं।
यही तो मौसम है यहाँ आने का। इस बार आना मुल्तवी न करो। वर्ना ऐसा मौसम फिर कभी देखने को न मिलेगा। तुम्हारा ख़याल ग़लत है। इस साल गर्मी तो यहाँ पड़ी ही नहीं। अ’जीब मौसम है। चौबीस घंटे काले दिलदार बादल घिरे रहते हैं, न गरजते हैं, न बरसते हैं। हर वक़्त ठंडी हवा के झोंके चला करते हैं। सच कहती हूँ। ऐसा मौसम फिर कभी न पाओगी। जितनी जल्दी हो सके आ जाओ। तुम बहुत याद आती हो। डैडी भी तुम्हें बहुत याद करते हैं। हक़्क़ी से मिले अरसा हो गया। अब घर पर नहीं आता। न जाने क्यूँ कतराता है, सुना है उसकी शादी हो रही है। ख़ान बहादुर की लड़की से।
उनका नाम नई’म है। क़रीब-क़रीब रोज़ आते हैं। मैं उन्हें डांस सिखा रही हूँ। काफ़ी सीख गए हैं। सच कहती हूँ नजी। मैंने इतनी जल्दी डांस सीखते आज तक किसी को नहीं देखा। तीन-चार दिन में फॉक्सट्रॉट सीख लिया है। तुम यक़ीन नहीं करोगी, स्लोवाल्टज़ वो अब मुझसे अच्छा कर लेते हैं। उन्हें स्लोवाल्टज़ पसंद भी बहुत है। मम्मी को ज़ुकाम हो गया था। मगर अब ठीक है। उनसे तुम्हारे आने का ज़िक्र किया था। कुछ बोलीं नहीं।
“तुम्हारी शिबू।”
“तुम्हारे सर की क़सम चाचा। मैंने अपनी आँखों से देखा।”
“जा बे। तेरी बात का कौन यकीन करे।”
“क़ुरआन उठवा लो चाचा। जो झूट निकल जाए तो चोर की सज़ा सो मेरी।”
“ज़बान को लगाम दे छोकरे। क्यूँ नाहक ऐसी बातों में पाक किताब को लावे है। सरम नहीं आती तुझे!”
“मैं जो कह रहा हूँ कि मैंने अपनी आँखों से देखा और तुम हो कि मानते ही नहीं, उल्टा मुझी को झूटा ठैराते हो।”
“अच्छा ये बोल तू ने देखा कैसे।”
“मैं ऊपर जा रहा था, शिबू बी-बी के कमरे की खिड़की खुली हुई थी। बस झलक नज़र आ गई।”
“पर अंग्रेजी डांस तो ऐसे ही हुए है, ये कोई अपना हिन्दुस्तानी नाच थोड़ी है कि दूर ही दूर से। ये तो बिलावती नाच है।”
“नहीं चाचा, मैं जो कह रहा हूँ मैंने उसे शिबू बी-बी की चुम्मी लेते देखा। तुम्हारे सर की क़सम चाचा।”
“धीरे बोल किसी ने सुन लिया तो सामत आ जाएगी”
“फ़िक्र न करो। फ़ोन-बाजा जो बज रहा है।'
“अरे ये भिंडियाँ काट रहा है या फल। छोटे-छोटे टुकड़े कर, नहीं तो बेगम साहिब ऐसी खबर लेंगी कि बस। हाँ तो तू ने अपनी आँखों से देखा।”
“तुम्हारे सर की क़सम चाचा अपनी आँखों से, मैं तो झट वहीं सीढ़ीयों पर दुबक गया। ऐसे चिमटे हुए थे एक दूसरे से। पूछो मत चाचा कि क्या सीन था।”
“पर ये बोल कि बेगम साब को कैसे खबर हो गई”
“अपुन को नहीं मा’लूम। पर उन्हें ख़बर हुई ज़रूर।”
“नईं। मुझे तो यूँ जान पड़े है कि नजी बी-बी जो आई हैं ना। तो उनी की ख़ातिर ये इंतजाम हुआ है। दोनों बहनें पहले भी इसी कमरे में रहवै थीं वो तो जब से नजी बी-बी की सादी हुई है तब से।”
“वो तो ठीक है पर मैंने ख़ुद सुना। तुम्हारे सर की क़सम अपने कानों से सुना। बेगम साब शिबू बी-बी से कह रही थीं दोपहर को कमरा ख़ाली रहता है, तो वहीं सिखाया करो?”
“यूँही कह दिया होगा।”
“अरहे चाचा तुम नहीं जानते बेगम साब को। बड़ी चलती पुर्ज़ा हैं।”
“और सुनो लौंडे की बातें मैं बेगम साहब को नईं जानूँ हूँ, अबे जब शिबू बी-बी की बालदा जन्नत सिधारीं, उससे पहले से साहब के पास हूँ, अल्लाह जन्नत नसीब करे बड़ी नेक बी-बी थीं।”
“वो तो ठीक है चाचा, पर मैं तो कह रहा हूँ कि मैंने कितनी बार बेगम साब को शिबू बी-बी की टोह लेते देखा। वो दरवाज़ा बंद करके समझती होंगी कि छुट्टी हुई। पर बेगम साहब को हर बात की खबर रहती है, मेरी मानो चाचा, बेगम साब ने ज़रूर इसीलिए हॉल कमरे के वास्ते कहा।”
“यूँ भी हो सकता है और नजी बी-बी के आने में तो अभी कई रोज बाकी हैं।”
“यही तो में भी कह रहा था कि इस हॉल कमरे वाले मा’मले में कुछ गड़बड़ घोटाला ज़रूर है।”
डैडी आज बड़ा मज़ा रहा। जातने हैं क्या हुआ...? उँह ऐसे थोड़ी बताऊँगी। अच्छा गेस कीजीए… उँह... नहीं... ग़लत... अच्छा मैं बताती हूँ। आज मम्मी ने भी नई’म के साथ डांस किया। नहीं, उन्हें डांस सिखाया। मैं उन्हें रम्बा सिखा रही थी कि मम्मी आ गईं... मेरे कमरे में नहीं हॉल में… उफ़ओह! आप मेरी बात तो सुनते ही नहीं। कह जो दिया कि हम लोग आजकल हॉल कमरे में डांस करते हैं… उफ़ओह! कितने सवाल करते हैं आप, इसलिए कि मम्मी ने कहा था। उन्होंने कहा था कि दोपहर को हॉल कमरा ख़ाली रहता है, हाँ तो मम्मी आ गईं। पहले तो कुछ देर देखती रहीं। फिर आप ही बोलीं तुम्हें रम्बा ख़ुद नहीं आता, सिखाओगी क्या और फिर उन्होंने कहा, लाओ मैं सिखाती हूँ। मैं तो ख़ुद सोचती थी कि मम्मी से कहूँ कि वो नई’म को रम्बा सिखा दें। मगर डर लगता था कि कहीं इनकार न कर दें। बस इसी वज्ह से नहीं कहा और मम्मी ने ख़ुद ऑफ़र कर दिया।
आप जानते हैं पूरे पच्चास मिनट सिखाया मम्मी ने। मम्मी को रम्बा बहुत अच्छा आता है... आप हँसी बहुत उड़ाते हैं। मैं झूट नहीं कह रही। मम्मी रम्बा बहुत अच्छा करती हैं। सच! और मम्मी ने आप ही आप ये भी वा’दा कर लिया कि वो उन्हें रोज़ रम्बा सिखाया करेंगी और फिर बा’द में गाना भी हुआ। मेरा नहीं नई’म का, मैं सच कहती हूँ डैडी वो बहुत अच्छा गाते हैं आवाज़ बिल्कुल सहगल से मिलती है। बड़ा दर्द है उनकी आवाज़ में... नहीं, उन्हें नहीं पसंद आया। मम्मी को तो सिवाए पक्के गानों के और कुछ पसंद आता ही नहीं और फ़िल्मी गानों से तो न जाने क्यों नफ़रत है... उफ़ओह! आप फिर किताब में खो गए। मेरी बात नहीं सुनते... सच डैडी। अच्छा कल ही सुनवाऊँगी। आप ख़ुद अंदाज़ा लगाइयेगा। क्या आवाज़ है।
मैं बिस्तर पर लेटी हुई एक किताब पढ़ रही थी। पढ़ क्या रही थी बस यूँही वरक़-गरदानी कर रही थी। नींद नहीं आ रही थी, इसलिए किताब उठा ली थी। वैसे तो मैं जल्द सोने की आदी हूँ, मगर उस रात न जाने क्यों पपोटे भारी होने का नाम नहीं ले रहे थे। हालाँकि सारा घर सुनसान पड़ा था। शोर-ओ-गुल का ज़िक्र क्या, सरगोशियाँ तक मा’दूम थीं। घर में सिर्फ डैडी थे। सो वो शाम से अपनी लाइबरी में घुसे हुए थे। खाने के बा’द मुझसे दो एक इधर-उधर की बातें कीं। फिर पाइप सुलगाया और चले गए। घर में और कोई नहीं था। शिबू आपा और मम्मी बाहर गई हुई थीं। नई’म साहब की रोज़ा कुशाई जो थी। मम्मी भी कभी बड़े मज़े की बात कह देती हैं। रोज़ा कुशाई! उनका मतलब था नई’म साहब पहली मर्तबा हॉल रुम में डांस करेंगे।
कई रोज़ पहले प्रोग्राम बन चुका था। शिबू आपा मुसिर थीं कि मैं भी चलूँ, मगर मैंने साफ़ इनकार कर दिया, अव्वल तो मुझे डांस से कोई ख़ास लगाव नहीं और दूसरे मैं ये नहीं चाहती थी कि मेरी मौजूदगी से उनकी, मेरा मतलब है शिबू आपा और नई’म साहब की इवनिंग में किसी किस्म की कमी रह जाये। सच तो ये है कि मम्मी का उन लोगों के साथ जाना भी मेरी समझ में नहीं आया। मगर शिबू आपा शायद मम्मी की मौजूदगी को ज़रूरी समझती थीं। मा’लूम नहीं मम्मी ख़ुद प्रोग्राम में शामिल हो गई थीं या शिबू आपा ने इसरार किया था। मगर मुझे इतना मा’लूम है कि शिबू आपा को किसी किस्म का ए’तिराज़ हरगिज़ न था।
तो इसी वज्ह से घर में सन्नाटा था। नौकर भी खा पी कर सो चुके थे। मम्मी वग़ैरा के प्रोग्राम में रात का खाना शामिल न होता तो नौकरों को शायद रत-जगा करना पड़ता। क्यूँकि वो लोग जल्दी लौटने वाले थोड़ी थे और इसी वज्ह से मुझे क़दर-ए-त’अज्जुब हुआ, जब अचानक दरवाज़ा खुला और शिबू आपा कमरे में दाख़िल हुईं। मेरी नज़रें उनके चेहरे का जायज़ा लेने से पहले ख़ुद-ब-ख़ुद घड़ी की तरफ़ उठ गईं, अभी तो दस भी नहीं बजे थे। बहुत से सवालात मेरे दिमाग़ में फुदकने लगे।
“बड़ी जल्दी आगईं आप?”
आपा ने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया। मुझे उनकी ख़ामोशी कुछ ग़ैर-मा’मूली लगी। सरगोशियाँ करती हुई सी। वो अभी तक दरवाज़े के पास खड़ी हुई थीं।
“मम्मी नहीं आईं?”
“नहीं।” जवाब दे कर वो दो क़दम चलीं। मेज़ के पास आईं और उस पर अपना सुर्ख़ बटुवा रख कर फिर साकित खड़ी हो गईं। मैं उठकर बैठ गई, दो-एक सवाल मेरी ज़बान तक आकर रुक गए। मैंने हाथ बढ़ा कर लैम्प के शैड को इतना तिरछा कर दिया कि रौशनी शिबू आपा के चेहरे पर पड़ने लगी। मेरा कलेजा धक से हो गया। शिबू आपा ने झट से मुँह फेर लिया।
“लाईट आफ़ कर दो न जी।”
मैंने फ़ौरन बैड स्विच दबा दिया। वो जाकर सड़क पर खुलने वाली खिड़की के पास खड़ी हो गईं, मगर मेरी नज़र उनके चेहरे पर भरपूर पड़ चुकी थी और मैंने उनकी भीगी पलकें, उनके हल्दी जैसे गाल और उन गालों पर आँसूओं के निशान देख लिए थे। मैं भी जाकर खिड़की के पास खड़ी हो गई।
“क्या बात है आपा? तुम रो क्यों रही हो?”, मगर उन्होंने जवाब नहीं दिया।
“मम्मी कहाँ हैं?”
“मुझे क्या मा’लूम।”
“तुम रो क्यों रही हो।” वो फिर चुप साध गईं और मेरी परेशानी में इज़ाफ़ा होने लगा।
“आख़िर हुआ क्या?”
जवाब-नदारद। शिबू आपा में सौ बुराईयों की एक बुराई ये है कि अगर चुप साध लेंगी तो फिर कोई कुछ ही क्यूँ न करे वो ज़बान न हिलाएँगी, एक तो वैसे ही कम-गो हैं बातें करने का दौरा तो उन पर साल छः महीने में एक-आध बार ही पड़ता था। उधर कुछ दिनों से हँसने बोलने लगी हैं। हश्शाश-बश्शाश नज़र आती हैं। जैसे तपती हुई ज़मीन पर बरसात का छींटा पड़ गया। वर्ना उनका काम तो बसा-औक़ात हूँ-हाँ से चलता है, जैसे सुन मेरी रही हों और सोच कुछ रही हों। अरसा हो गया उखड़ी-उखड़ी सी रहती हैं और ये मौन व्रत का मर्ज़ दाइमी भी नहीं कोई पाँच-छः साल पुराना होगा।
आख़िर मैंने पूछ ही डाला, “और नई’म साहब?”
या अल्लाह! उनकी आँखों से टप-टप आँसू गिरने लगे। मेरी वहशत चीख़ने चलाने पर तुल गई और कई वस्वसे मेरे दिमाग़ को टहोके देने लगे। लो वो फूट फूटकर रोने लगीं और फुवार मूसलाधार बारिश में तब्दील हो गई। जी तो कुछ और चाह रहा था, मगर में उनका बाज़ू पकड़ कर उन्हें बिस्तर की तरफ़ खींचने लगी और वो खिंची चली आएँ। बिस्तर तक। जैसे उनमें जान ही न थी, जो ज़रा सी मुज़ाहमत भी करतीं। उन्हें बिस्तर पर बिठा कर मैंने अपना दोपट्टा उनकी आँखों में ठूँस दिया। फिर वो अपने ऊपर क़ाबू पाने की कोशिश में सिसकियाँ भरने लगीं। उफ़ओह! कितनी ख़ुश्बू आरही थी उनके कपड़ों से। मगर मु’आमला अभी साफ़ नहीं हुआ था। और मैंने जैसे क़सम खाई थी कि उसे साफ़ करके दम लूँगी।
“और नई’म साहब?”, वही चुप। मगर इस बार आँसू नहीं टपके।
“आपा में क्या पूछ रही हूँ?”, मगर वो उसी तरह एक हाथ के सहारे सर झुकाए ख़ामोश बैठी रहीं। आख़िर मेरी वहशत झल्लाहट बन कर फुट पड़ी, “सुन रही हो कि नहीं!” उनकी ख़ामोशी ही उनका जवाब था। मैंने हिम्मत हार दी। ज़ियादा इस्तिफ़सार बेकार है। मैं समझ गई कि आपा बताएँगी ज़रूर मगर उस वक़्त नहीं। चुप हो गईं तो बस चुप हो गईं। अब तो जब ये चुप टूटेगी तभी कुछ मा’लूम होगा।
“आप लेट जाईए।”, मैंने उनका हाथ पकड़ कर कहा।
अड़ाड़-ड़-धम। जैसे रेत के घरौंदे को ठेस लग गई हो। जहाँ बैठी थीं वहीं ढेर हो गईं, मैंने तकिया उठा कर उनके सिर के नीचे रख दिया और ख़ुद उनके पास बैठ गई। आँखें बंद थीं मगर वो जाग रही थीं, बड़ी शिद्दत से बेदार थीं। बहुत देर उनके पास बैठी न जाने क्या-क्या सोचती रही। माज़ी। हाल। मुस्तक़बिल। कल। आजकल के चक्कर लगाती रही। उधर से इधर, उधर से उधर दौड़ती रही, हत्ता कि मेरे ज़ेहन में भनभनाहट होने लगी। जैसे मेरा ज़ेहन शहद की मक्खीयों का छत्ता हो। ये भनभनाहट तेज़ और बुलंद होती गई, यहाँ तक कि मैं घबरा कर बिस्तर पर से उठी और जाकर खुली हुई खिड़की के पास खड़ी हो गई।
आसमान पर बादल थे, ज़मीन पर अँधेरा था, फ़िज़ा में ख़ामोशी थी। सड़क सुनसान थी। रात काफ़ी गुज़र चुकी थी। मेरे ज़ेहन के छत्ते में फिर भनभनाहट शुरू’ हो गई और मेरा दम लौटने लगा। एक ख़याल इधर से आता और ज़न से उधर निकल जाता। फिर दूसरा फिर तीसरा और कोई-कोई ख़याल तो न ज़न से आता न ज़न से जाता। बस जम कर खड़ा हो जाता और आँखें मटका-मटका कर मेरा मुँह चिढ़ाने लगता। मैं घबरा कर आपा के बिस्तर की तरफ़ जाने वाली थी कि एक कार खिड़की के नीचे सड़क के किनारे आकर रुकी। मैं ठिटक गई, मैं कार को तो पहचान गई मगर अँधेरा होने की वज्ह से कार की अगली सीट पर बैठे हुए दोनों इन्सानों को पहचान न सकी। वो एक दूसरे से चिमट गए। ऐसे चिमटे कि जुदा होने का नाम न लेते थे। आख़िर-ए-कार वो जुदा हो गए और मेरे फेफड़ों ने एक लंबा साँस ख़ारिज किया। फिर कार का दरवाज़ा खुला। उनमें से एक बाहर निकला। मैं पहचान गई ये मम्मी थीं। दूसरे का सिर्फ हाथ बाहर निकला। जवाब में मम्मी ने अपना हाथ हिलाया। कार स्टार्ट हुई और ये जा वो जा। मैंने मुड़ कर पीछे देखा। शिबू आपा उठकर बैठ गई थीं।
“कौन था?”
“मम्मी!”
मैं उनके पास आकर खड़ी हो गई। उन्होंने नज़रों के ज़रिया मुझसे एक और सवाल किया। मैंने जवाब दिया, “हाँ।” इतने में ज़ीने पर मम्मी के क़दमों की चाप सुनाई दी। मेरा सारा बदन तन गया। शिबू आपा ने फिर गर्दन झुका ली थी। क़दमों की चाप पास आती गई। हत्ता कि हमारे कमरे के सामने आई और आगे निकल गई। मम्मी एक फ़िल्मी धुन गुनगुना रही थीं। आपा का महबूब गीत। “ठंडी हवाएँ लहरा के आएँ।” मेरी मुट्ठीयाँ भिंच गईं।
“मैं अभी जाकर डैडी से कहती हूँ!”, और मैंने एक क़दम दरवाज़े की तरफ़ उठा भी लिया। मगर आपा के बर्फ़ जैसे ठंडे हाथ ने मेरी कलाई पकड़ ली। कितनी ताक़त आगई थी इस कमज़ोर हाथ में। मैं हिल भी न सकी। फिर उस कमज़ोर हाथ ने मेरी कलाई को एक झटका दिया। अड़ाड़-रा-धम! जैसे रेत के घरौंदे को ठेस लग गई हो। मैं शिबू आपा के पास बिस्तर पर गिर पड़ी और मेरी जलती हुई आँखों में नमी दौड़ चली।
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