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पापोश

अज़ीज़ अहमद

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    स्टोरीलाइन

    एक ऐसे हैदराबादी जागीरदार की कहानी है, जो अपनी बीवी सकीना बेगम के विरोध के बावजूद घर की नौकरानी की बेटी से गाँव जाकर मुता (निकाह) कर लेता है। उस निकाह के बाद वह इसरार करके सकीना बेगम को भी गाँव ले जाता है। मगर वहाँ दोनों बीवियों के बीच ऐसा झगड़ा होता है कि सकीना बेगम जागरीदार साहब का घर छोड़कर चली जाती है।

    दिलबर अली ख़ां छोटे से जागीरदार हैं जिस ज़माने में हैदराबाद के नवाह में किशन पल्ली की पहाड़ियां एक बड़ा फ़ैशनेबल मुहल्ला बन गईं उन्होंने यहां बुलंदी पर एक छोटा सा मकान बनवा लिया। तीन कमरे, एक बरामदा, बाहर एक बरामदा और चबूतरा और पहाड़ी की ढलवान पर एक बेहंगम सा बाग़ जिसमें नीम, बबूल और बहुत से ख़ुदरो पौदों के साथ साथ दो-चार सरो के दरख़्त थे। सुर्ख़ फूलों की जापानी बेलें थीं। गुलाब अलबत्ता कई क़िस्म के थे।

    इस बाग़ में और बरामदे में तातीलात के दिनों में दिलबर अली ख़ां या उनके ख़ानदान के मुतफ़र्रिक़ अफ़राद, मुहल्ले के दूसरे बंगलों वालों को टहलते नज़र आते हैं। दिलबर अली ख़ां को जागीर से कोई चार पाँच सौ रुपया माहवार का औसत मिल जाता था और उनके पास दो मोटरें भी थीं। एक छोटी सी डी.के. डब्लयु और एक बड़ी शेवरलेट। शेवरलेट पर टैक्सी का नंबर था और उसकी रजिस्ट्री भी उन्होंने टैक्सी की हैसियत से कराई थी। इससे फ़ायदा ये था कि पेट्रोल राशनिंग के इस तकलीफ़दह ज़माने में उन्हें तीस गैलन के क़रीब पेट्रोल मिल जाता था। लेकिन दिलबर अली ख़ां ने सरकारी नौकरी भी करली थी। मोहक्मा... में वो इन्सपेक्टर थे नाके पर कभी अपनी छोटी गाड़ी और कभी बड़ी शेवरलेट में बड़ी शान से जाते। उनके अफ़सर भी उन्हें नवाब साहब कहते और बावजूद इसके कि वो अपने अफ़सरों को हमेशा अपने से बरतर समझते और ताज़ीमन साहब कहते, मगर उनकी भी इज़्ज़त की जाती थी। अपने आबा-ओ-अज्दाद की तरह नवाब दिलबर अली ख़ां का भी रासिख़ अक़ीदा था कि सरकारी मुलाज़मत से इज़्ज़त होती थी। ख़्वाह वो सरकारी मुलाज़िमत इन्सपेक्टरी ही क्यों हो। वर्ना बेकार नवाबों की आमदनी कितनी ही हो, उनको कौन जानता है? नौकरी में इतनी इज़्ज़त तो ज़रूर है कि अगर दस अफ़सरों का हुक्म मानना पड़ता है तो दस मातहतों पर हुक्म चल भी सकता है। इसलिए नवाब दिलबर अली ख़ां अपने ढलवान पहाड़ी के बाग़ीचे में सिर्फ़ तातीलों में ही नज़र आते हैं। तीन लड़के जवान थे। तीनों यूनीवर्सिटी में पढ़ते थे। एक एल.एल.बी. कर रहा था। एक बी.ए. में था। एक इंटरमीडिएट के साल अव्वल में। कॉलेज के वक़्त से पहले और उसके बाद ये तीनों इस बाग़ीचे में अक्सर काश्तकारी में मस्रूफ़ रहते। ख़ुसूसन बरसात में मौसमी फूलों के बीज बोए जाते और भुट्टे, केले और बहुत सी अजनास की तुख़्म रेज़ी की जाती। उनमें से एक लड़का बरामदे में पाबंदी से मग़रबीन की नमाज़ पढ़ता नज़र आता।

    किशन पल्ली में कोई भी ज़्यादा पर्दा नहीं करता। उन पहाड़ियों में पर्दा तो पर्दा तख़्लिया भी ज़रा मुश्किल ही है। बँगले टीलों पर और नशेबों में इस तरह बिखरे हैं कि हर एक बंगला दूसरे के लिए मंज़र-ए-आम है। मकानों को हवादार बनाने के लिए खिड़कियों की वो कसरत है कि एक मकान से दूसरे मकान के कमरे का सारा फ़र्नीचर गिन लीजिए। इसीलिए नवाब दिलबर अली ख़ां के घराने में भी पर्दे का कोई ऐसा ख़ास एहतमाम था। उनकी बेगम जो चालीस साल की होंगी अक्सर माटी मिले नौकरों और (दिमाग़ चोटी हरामज़ादी) मामाओं को डाँटती हुई बरामदे में या बाग़ में नज़र आतीं। कभी भैंसों को चराने वाला छोकरा आता तो वो अपने बाग़ में भैंसों की रखवाई भी कर लेतीं। आस-पास के तमाम बंगलों में पच्चीस साल से कम उम्र की लड़कियां उन्हें सकीना ख़ाला कहतीं। वो थीं भी जगत ख़ाला हर एक के दुख-दर्द में शरीक। हमसायों में किसी के यहां ज़च्चगी हो, किसी का बच्चा बीमार हो, वो बराबर मदद के या ख़िदमत के लिए मौजूद। बा'ज़ से तो उनके इतने मरासिम थे कि घर की मालकिन गर्मियों में अपने मियां के साथ बैंगलोर या महाबलेश्वर जाएं तो अपने बच्चों को और घर की कुंजियों को सकीना ख़ाला के सपुर्द कर जातीं और जब वापस आतीं तो उन्हें हैरत होती कि सकीना ख़ाला के ख़ानादारी के ज़माने में ख़र्चा अंदाज़े से कम हुआ है।

    जब किशन पल्ली के किसी ख़ाली बँगले में कोई नए लोग आते तो किसी और बेगम के साथ सकीना बेगम मुलाक़ात के लिए सबसे पहले पहुंचतीं। इन्किसार में कोई कमी करतीं। यहां तक कि बा'ज़ दिमाग़ चोटी छोकरिया उनके इन्किसार को बेवक़ूफ़ी समझने लगतीं। जब सदर-उलमहाम बहादुर के काग़ज़ात ममहूर की भतीजी ने किशन पल्ली में एक मकान किराए पर लिया तो सकीना बेगम तीसरे ही रोज़ मिलने को पहुँचीं और दिल अफ़रोज़ सुलतान यानी सदर-उल-महाम बहादुर की भतीजी को अदब से झुक के सलाम किया। दिल अफ़रोज़ ने कहा, ख़ाला मुझे आपको सलाम करना चाहिए। मैं छोटी हूँ आप बड़ी हैं। आप मुझे शर्मिंदा करती हैं।

    तो ये बात सकीना ख़ाला की समझ में भी गई और उन्होंने तलाफ़ी माफ़ात के लिए दिल अफ़रोज़ की चट चट बलाएं लीं और दिल अफ़रोज़ और उसके दूल्हा को दुआएं दीं।

    सकीना बेगम और नवाब दिलबर अली ख़ां के दो लड़कियां भी थीं। एक ज़ैनब थी जो अब कोई सोलह सतरह साल की हो गई थी। ज़ैनब पर पाबंदी ज़्यादा तो थी मगर वो माँ-बाप से पूछे बग़ैर दिल अफ़रोज़, महर निगार, शोभा या और किसी 'आपा' के बंगले जा सकती थी। जब दफ़्तर के वक़्त उन आपाओं के मियां चले जाते तब वो कभी सकीना बेगम के साथ, कभी अपनी छोटी बारह साला बहन शहर बानो के साथ उन सब के यहां जाती। यूं उन लड़कियों पर भी पर्दे की कोई सख़्त पाबंदी थी। बरामदे में वो उमूमन फिरती रहतीं। मुहल्ले के दूल्हे भाइयों में से किसी से आमने-सामने आगे बातचीत तो करतीं मगर दूर से उनको देख के छिपने की भी कोशिश करतीं और किशन पल्ली में कोई किसी से छुपता ही नहीं था।

    सकीना बेगम के मुलाज़मीन में सिर्फ़ काबिल-ए-ज़िक्र है ये एक पाँच साल का छोकरा है। छः महीने हुए दिलबर अली ख़ां ने दौरा करते हुए जोगीपेठ के क़रीब उस यतीम-ओ-यसीर लड़के को एक एक दाना चावल के लिए तरसते हुए देखा था। शहर बानो ज़िद करने लगी कि हम इस को पालेंगे। यूं तो वो उसे गांव से उठा नहीं ला सकते थे। दिलबर अली ख़ां ने दरियाफ़्त किया तो मालूम हुआ कि उसकी सिर्फ़ एक फूफी है। जिसे ख़ुद ही कुछ खाने को मयस्सर नहीं। पाँच रुपये देकर दिलबर अली ख़ां ने उससे ये लड़का ले लिया और उनका नाम हुर रखा। हुर इसलिए कि ख़रीदते ही शहर बानो ने उसे आज़ाद कर दिया था और नौकर रख लिया था। ये बच्चा हुर अब आधी उर्दू और आधी तिलंगी तुतला के बोलता था और बयक वक़्त नौकर भी था और खिलौना भी। ज़ैनब और शहर बानो दोनों की मार भी खाता था और दोनों उसे चाहती भी बहुत थीं। हुर इस उम्र में इस तरह काम करता था कि तमाम हमसायों को हैरत थी। मुहर्रम के रोंट या हलवे की सीनी उसके सर पर रख दी जाती और शहर बानो या सकीना बेगम उससे कहतीं, हुर! ये हिस्सा ले जा कर मेहर निगार के यहां दे के आ। अगर गिराया तो फिर देख।

    और ये बच्चा, काली, छोटी सी शक्ल, बमुश्किल डेढ़ फुट का क़द, पहाड़ी पगडंडी से, सर्कस के मसखरे की तरह सर पर थाली का बोझ सँभाले उतरता। शुक्रिया की चिट्ठी लिख के थाली में रख देता। अगर कोई ख़ुदा-तरस हुआ तो ज़रा सी मिठाई हुर को भी खिला देता। हुर पर अगर कोई ज़्यादा मेहरबान होता तो ये पाँच साल का बच्चा जो मशीन की तरह काम कर सकता था अपने को बच्चा समझ के रो देता। वो बच्चों की तरह शर्मीला था और नौकरी की तो मजबूरी थी। लेकिन अजनबियों की दख़ल अंदाज़ी और उनका ज़बरदस्ती का रहम और प्यार उसे गवारा नहीं था।

    सकीना बेगम और दिलबर अली ख़ां और उनके बच्चे जब खाना खाते तो वो दूर बैठा हुआ खाने को देखता रहता। लेकिन जब वो खाना खा चुके तो फिर किसी नौकर या मामा की मजाल नहीं थी कि दस्तरख़्वान के यानी ख़ासे के खाने में से एक लुक़मा भी हुर से पहले खाए। बचे हुए दस्तरख़्वान से जो चीज़ उसे पसंद आती। वो सबसे पहले उसे अपनी मिट्टी की रिकाबी में उंडेल लेता और अगर कोई मामा उसे छेड़ती और दस्तरख़्वान उठाते वक़्त कोई चीज़ हुर को लेने देती तो वो रोने लगता।देख दुर्रा सानी। और दुर्रा सानी (मालिका) यानी हुर की शहर बानो या छोटी बीबी फ़ौरन मामा को डाँटती, क्यों गे (री)। क्यों चुप की चुप सता रई (रही है) इस को। या अगर कहीं कोई मामा ऐसा ग़ज़ब करती कि हुर के खाने से पहले सचमुच कुछ खा लेती तो फिर मौक़े की अहमियत के लिहाज़ से सकीना बेगम को ग़ुस्सा आता, क्यों री मुशटन्डी हरामज़ादी... खा खा के कैसी निकल रही है, देख हराम यक चुड़ैल को। अलग़र्ज़ हुर का मर्तबा दिलबर अली ख़ां के घराने में हिन्दुस्तानी नौकरों से ज़्यादा और विलाइती कुत्ते के बराबर था।

    गर्मियों के दिनों में छुट्टी ले के (दिलबर अली ख़ां) अक्सर अपनी जागीर को जाया करते थे लेकिन सकीना ख़ाला और बच्चे उनके साथ बहुत कम जाते थे। इस की वजह हमसाए की तमाम बेगमाते को मालूम थी। सकीना ख़ाला दिल अफ़रोज़ से कभी कभी दुखड़ा रोतीं, बीबी। मैं क्या बोलूँ आपसे, मेरी पाली हुई छोकरी, वही मुंडी काटी, छा... गुलज़ार। हमारे साहब, उस पर रीच (पर ही) नीयत ख़राब किए हैं। मेरे से बोले सकीना तेरे को डाक्टर इन तीन महीने का परहेज़ बताए हैं...

    वो काहै का परहेज़। दिल अफ़रोज़ की वालिदा ने छालिया कुतरते हुए पूछा।

    अपनी वालिदा के इस बे एहतियात सवाल और उनकी नासमझी पर झेंप के दिल अफ़रोज़ ने कहा, चुप बैठो मम्मा।

    मगर सकीना ख़ाला तशरीह पर तुली हुई थीं। क़रीब आने का परहेज़ आपा। बड़ी बी समझ के, मुस्कुरा के फिर छालिया काटने लगीं। दिल अफ़रोज़ झेंप के सोचने लगी। सकीना ख़ाला को अपने घर के सारे भेद इस तरह बयान करने की क्या ख़ास ज़रूरत थी।

    फिर सकीना ख़ाला ने कहना शुरू किया, मेरे से बोलने लगे। सकीना, तेरे को डाक्टर इन तीन महीने का परहेज़ बताए हैं। मैं फिर गुलज़ार से तीन महीने का मुता कर लेता हूँ। तेरे पैर पड़जाऊँ सकीना। मैं उसको यहां हैदराबाद लेताऊँ। मैं बोली, नवाब तुम्हारे को शर्म-लिहाज़ नहीं। माशा-अल्लाह से तीन बेटे, एक बेटी जवान जहान है। पच्चास साल की उम्र होने को आये। पाँच बरस में क्या बोलते हो कि वज़ीफ़ा ले के अल्लाह-अल्लाह करने का वख़त आएंगा और अब ये सब का माँ करेंगे। क़सम अमीर अलैहिस-सलाम की, तुम उस लौंडी को लाओ तो सही, मैं तुम्हारा घर छोड़ के नहीं चली गई तो बोलो। बीबी मेरा मेहर पच्चास हज़ार है। क्या मै उसको छोड़ूँगी। हज़रत अब्बास की क़सम दावा कर के एक एक कौड़ी झड़ा लूँगी...। मेहर बराबर वसूल करना बीबी। ख़ुदा की शान है जो लौंडी मेरी पापोश के बराबर नहीं थी। सौ आने आज के दिन मेरी सौकन बनेगी। मैं अपने बच्चों को ले के नहीं चली गई तो अने देखना। मैं उसकी लौंडी-बांदी हूँ क्या। अने बेचारा समझता होंगा, मेरे को पच्चास हज़ार में ख़रीद लिया। मगर पच्चास हज़ार में पहले धरवा लेयोंगी। मेरी शादी कुछ ऐसी वैसी हुई थी। बीबी मैं नवाब गुज़ारिश जंग की बेटी हूँ। कुछ हंसी ठट्ठा नहीं। मेरी शादी में महाराजा किशन प्रशाद, हैदरी साहब, आपके चचा, सब लोगां आए थे, अब तक हमारे दीवानख़ाने में तस्वीर लगी है। आप कभी आए तो देखो... आप लोगों में अच्छा है। मुता-वुता का झगड़ा नहीं।

    दिल-अफ़रोज़ की वालिदा ने कहा, तो क्या हुआ। हम लोगों में मुता नहीं तो मर्दां निकाह-ए-मुता के बग़ैर ही औरतों को घरों में डाल नहीं लेते क्या?

    हाव। ये भी ठीक बात बोले आप। सकीना बेगम ने उनकी राय से इत्तिफ़ाक़ किया।

    लेकिन मालूम होता है कि किसी तरह नवाब दिलबर अली ख़ां वो कर ही गुज़रे जिसका अंदेशा था। उन्होंने उस छोकरी गुलज़ार से मुता कर लिया, गुलज़ार की माँ और उसकी नानी इससे पहले इसी घराने में नौकर थीं। गुलज़ार यहीं पैदा हुई थीं और उसकी जवानी, भैंस की जवानी के आते ही सब रीझ गए। नवाब दिलबर अली ख़ां तो एक तरफ़ नवाब दिलनवाज़ अली ख़ां यानी उनके वालिद जिनकी उम्र अब अस्सी साल के ऊपर थी। जिनकी पुश्त ख़म हो चुकी थी और जो बात बात पर खाँसते थे और हर महफ़िल में नवाब अफ़ज़ल-उद्दौला मरहूम के ज़माना सल्तनत का ज़िक्र करते थे। वो नवाब दिलनवाज़ अली ख़ां तक उस नौजवान भैंस के क़द्रदानों में थे। उससे हाथ पैर दबवाते। उसे हुक्म देते कि उनके सामने ही बैठी रहे। अभी साग़र-ओ-मीना मिरे आगे और उनके नौजवान पोतों का पूछना ही नहीं तीनों गुलज़ार पर तिरछी-तिरछी, मीठी-मीठी निगाहें डालते। मगर जब उन्हें मालूम हुआ कि ये नौजवान भैंस वालिद बुजु़र्गवार को पसंद आई है तो ये शरीफ़ लड़के मजबूरन दस्तबरदार हो गए और नवाब दिलबर अली ख़ां ने मुता कर के उसे रख ही लिया, मगर हैदराबाद में नहीं, जागीर में।

    उस साल हैदराबाद में इस कड़ाके की गर्मी हुई कि ख़ुदा की पनाह और किशन पल्ली के पथरीले टीले दिन के ग्यारह बजे से तपना शुरू कर देते। हैदराबाद में लू नहीं चलती। लेकिन उस साल अप्रैल ही से हवा में लू की सी गर्मी थी। तालाब, कंटे सब सूख गए थे और ख़ुद हुसैन सागर और गंडी पेठ में बहुत थोड़ा सा पानी रह गया था। इसलिए जब दिलबर आली ख़ां ने अपनी बीवी और बच्चों को जागीर चलने के लिए कहा तो उनकी बीवी अगरचे ये कह के कई दिन तक इनकार करती रहीं। नवाब मैं तो नहीं आती। वहां तुम उस हरामज़ादी संडी को रखे हैं। उसको देखते ही मेंरिया हाथ उठेंगा और मैं अपनी पापोश उसको खींच के मारूंगी। फिर तुम मेरे से लड़ेंगे और जवान-जहान बच्चों के सामने थुक्का फ़ज़ीहती होईंगी। ये सब काईं को। तुम जाओ। मैं आतिज (आती ही) नईं। लेकिन गर्मियों की शिद्दत से मजबूर हो के वो और बच्चे बिल-आख़िर तैयार हो गए।

    जागीर पहुंच के सकीना ख़ाला गुलज़ार से उसी तरह का सुलूक करतीं जैसा नौकरानियों से किया जाता है। लाख नवाब ने उससे मुता किया हो। लेकिन उस हरामज़ादी की क्या मजाल जो हुर से पहले दस्तरख़्वान का बचा हुआ एक टुकड़ा भी वो खा ले। गुलज़ार को वो वही खाना देतीं जो और सब नौकरों को मिलता। नाशते में ज्वार की रोटी। दोपहर में बाजरे की रोटी और मोटे चावल और दाल। शाम को मोटे चावल और एक बघारा सालन या कढ़ी। दिलबर अली ख़ां कुछ कहते तो सकीना बेगम बिफर के कहतीं, ये लौंडी रंडी नौकरों का खाना नहीं तो क्या सरदारोँ का खान खाएँगी। मेरी और मेरी बच्चों की पापोश की बराबरी करेंगी?

    एक दिन सकीना बेगम ने अपने मियां और गुलज़ार को उसकी कोठड़ी में देख लिया था, दिन भर वो चिड़ चिढ़ाती और ग़ुस्सा करती रहीं। शाम के खाने पर सेहन में वो उनके मियां और सब बच्चे बैठे थे। खाना सेहन में शतरंजी पर होता था और ज़रा अव्वल वक़्त ही हो जाता था कि पतिंगे परेशान करें। हुर शतरंजी से ज़रा दूर बैठा दस्तरख़्वान और उठते हुए लुक़्मों पर नज़र जमाए था। गुलज़ार क़रीब ही खड़ी खाना खिला रही थी और दिलबर अली ख़ां को देख देख के हंस रही थी।

    सकीना बेगम का ख़ून दफ़अतन खौल उठा, जा यहां से मुर्दार। यहां क्या नख़रे करे रही है।

    दिलबर अली ख़ां ने कहा, अने क्या कर रई है बेचारी।

    बेचारी? सकीना बेगम की आवाज़ चीख़ बन गई। अने बेचारी है। एक तुम बेचारे, एक अने बेचारी। शर्म नहीं आती बुड्ढे तेरे को। देख ये तेरी जवान बेटी बैठी है, तू इसके और बच्चों के सामने एक अदना छोकरी से हंसी ठट्ठा कर रहे। ये रंडी, छि...अल को इशारे कर राहे। यही सबख़ (सबक़) दे रहा है। जवान बेटी को। आज तो मैं ये हरामज़ादी की चोटी काटूँगी।

    देखो सकीना। तुम चुप नहीं बैठे तो मैं मज़ा बताऊँगा। नवाब दिलबर अली ख़ां को भी अब ग़ुस्सा रहा था।

    क्यों क्या करेंगे तुम मेरे को। क्या मज़ा बताएँगे जी। सारी उम्र चुप बैठी ना जी, मैं चुप बैठ बैठ के तो आज ये हाल हुआ। क्या करेंगे तुम मेरे को। बोलो ना। सकीना बेगम ने हिस्टीरिया के आलम में चीख़ते हुए बकना शुरू किया।

    दिलबर अली ख़ां चुप हो गए। मगर सकीना बेगम का ग़ुस्सा बढ़ता जा रहा था, वो गुलज़ार की तरफ़ मुख़ातिब हुईं।

    निकल यहां से रंडी, मुर्दार, मालज़ादी। और ये देख कर कि गुलज़ार अपनी जगह से नहीं हिल रही है। उन्होंने अपनी जूती उठाई और उसे मारने को उठीं।

    दिलबर अली ख़ां ने झपट कर जूती उनके हाथ से छीन ली और उसी जूती से सकीना बेगम को मारना शुरू किया। अपने तीन जवान बेटों, अपनी बेटियों के सामने। सकीना बेगम और ज़ोर-ज़ोर से चीख़ने और रोने लगीं, मारो मेरे को मारो, आज तुम मेरे को मार डालो। दोनों लड़कियां एक दूसरे को लिपट कर रोने लगीं। हुर भी बजाय खाने की तरफ़ घूरने के चीख़ें मार मार कर रोने लगा। तीनों लड़के उठ के बे-ताक़त बुतों की तरह बे-हिस-ओ-हरकत खड़े हो गए और गुलज़ार ने हँसना शुरू किया। हिस्टीरिया और फ़तह की मिली-जुली हंसी। आज एक जवान लौंडी ने बूढ़ी मालिका पर फ़तह पाई थी जो पापोश बचपन से उसके सर पर पड़ती रही थी। आज बेगम साहिबा के जिस्म पर बरस रही थी।

    इतने में मँझले लड़के ने बड़े से आहिस्ते से कहा, भाई ये हरामज़ादी हंस रही है।

    इस पर बड़े ने फ़ौरन अपना जूता सँभाला और गुलज़ार की तरफ़ झपटा। दिलबर अली ख़ां अपनी बीवी को छोड़ के उससे लिपट गए। बड़े लड़के ने ग़ज़बनाक लहजे में कहा, अब्बा, आपने हमारी माँ को जूतों से मारा, इस हरामज़ादी के लिए और ये खड़ी हो के हंस रही है। मैं तो आज इसको मार डालूँगा, छोड़िए आप। बाप की गिरिफ्त और मज़बूत हो गई और बेटा बाप पर जूता उठा सका। जूता उसके हाथ से गिर गया और वो फूट फूट के रोने लगा। लेकिन इतने में मँझले और छोटे लड़के ने अपने अपने जूते सँभाले और गुलज़ार पर पिल पड़े। बड़े लड़के ने अब बाप को अपनी जवान आहनी गिरफ़्त में इस तरह पकड़ लिया कि वो हिल सकते थे। छोटे और मँझले लड़के ने अपनी माँ के इस जुमले की भी परवा ना ली, अब्बास, रशीद तू नक्को (नहीं) मारो। तुम्हारे बाप ने इसके साथ मुता किया है। जूते तड़ा तड़ातड़ गुलज़ार पर पड़ते रहे। यहां तक कि उसकी नाक से ख़ून बह निकला और वो बेहोश हो के गिर पड़ी और उसको मार खाते देख के सब ही ने अपनी मसर्रत को ज़ब्त किया, शहर बानो तक ने मगर पाँच साल का ग़ुलाम हुर खिलखिला के हंस पड़ा।

    सकीना बेगम दूसरे दिन सुब्ह की गाड़ी से बड़े बेटे को साथ ले के हैदराबाद आईं। मगर अपने घर नहीं अपनी फूफी के घर। तीन महीने हो गए अब तक उन्होंने अपने मियां दिलबर अली ख़ां के घर में क़दम नहीं रखा है। लेकिन और सब बच्चे बाप ही के साथ हैं। गुलज़ार से मुता की तजदीद हो चुकी है मगर वो हैदराबाद नहीं बुलाई गई। जागीर ही में है। जहां बड़ी तातीलों में दिलबर अली ख़ां चले जाते हैं। मालूम नहीं सकीना बेगम का इरादा मेहर और नान नफ़्क़े का दावा करने का है या नहीं। वो किशन पल्ली में बहुत कम लोगों के पास मिलने को आईं।

    दफ़्तर के दिनों में तीनों लड़के कॉलेज चले जाते हैं। ख़ुद दिलबर अली ख़ां दफ़्तर को और शहर बानो बच्चियों के स्कूल को। ज़ैनब जो मदरसे नहीं भेजी जाती घर में अकेली रह जाती है। सिर्फ़ दो नौकर और एक बुढ़िया और एक ज़रा सा हुर। मालूम नहीं किस मुसीबत से उस का सारा दिन कटता है। बाप से पूछ के कभी जब मुहल्ले के सारे दूल्हे अपनी अपनी कचहरियों और दफ़्तरों को चले जाते हैं तो वो दिल अफ़रोज़ आपा या महर निगार आपा से मिलने जाती है और जल्द ही वापस आजाती है। शाम के चार बजे हुर को साथ ले के, कोई निस्फ़ मील के फ़ासले पर अपनी वालिदा सकीना बेगम से मिलने जाती है और उनकी ख़ुशामद करती है। सकीना बेगम रातों को उठ उठ के वज़ीफ़े पढ़ती और दुआएं माँगती हैं कि उनकी जवान बेटी पर पंजतन का साया रहे। ख़ुदा उसे हर तरह के शर और हर बुरी निगाह से बचाए रखे। लेकिन उनका दिल ये किसी तरह नहीं मानता कि इस लड़की की हिफ़ाज़त के लिए भी वो अपने शौहर के घर वापस आने का नाम लें।

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