Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

परिंदे का साया

अनवर क़मर

परिंदे का साया

अनवर क़मर

MORE BYअनवर क़मर

    माहिर-ए-नफ़सियात अ’ज़ीज़ शरीफ़ी ने बेगम फ़िरदौस के केस की पैरवी की फाईल उठाई और केस का शुरू से मुताला’ करनेलगे। गुज़िश्ता कई रोज़ से बेगम फ़िर्दौस उनके ज़ेर मुशाहिदा थीं। चुनांचे उनकी शख़्सियत के बा’ज़ ख़साइल शरीफ़ी की निगाह में आचुके थे। बादियुन्नज़र में बेगम फ़िर्दौस का केस पेचीदा तो था, मगर इस क़दर हमवार भी था कि ग़ौर-ओ-ख़ौज़ के बग़ैर शरीफ़ी की गिरफ़्त में जाता।

    बेगम फ़िर्दौस एक आ’ला ता’लीम याफ्ता ख़ातून थीं। लिहाज़ा वो अपने मसले को ख़ुद भी ख़ूब समझती थीं। साथ ही साथ वो इस हक़ीक़त से भी वाक़िफ़ थीं कि बग़ैर किसी माहिर-ए-नफ़सियात की मदद के, उनकी ज़ेह्नी गुत्थी सुलझ पाएगी। चुनांचे इसी ग़रज़ से उन्होंने शरीफ़ी से बराह-ए-रास्त राबिता क़ायम किया था।

    बेगम फ़िरदौस को शिकायत ये थी कि दो दो-चार चार रोज़ के वक़्फ़े से उन्हें एक ख़्वाब हॉंट किया करता था। ये ख़्वाब जिस रात भी उन्हें दिखाई देता, उसकी सुबह बेगम फ़िरदौस के लिए शाम-ए-ग़रीबाँ होती। उदासी का ये आ’लम होता कि वो घंटों बिना कुछ खाए पिए, गुम-सुम रहा करतीं। यहां तक कि इसी कैफ़ियत में शाम हो जाती। इधर शाम होती उधर उन पर गिर्या तारी होता। ये कैफ़ियत इस क़दर शदीदी होती कि बेगम फ़िरदौस उसकी ताब ना ला पातीं और बेहोश हो जातीं। मगर घंटे दो घंटे के बाद जब उन्हें होश आता तो क़ुदरती तौर पर उनकी ज़ेह्नी कैफ़ियत नॉर्मल हो चुकी होती।

    इस अर्से में शरीफ़ी ने बेगम फ़िरदौस से ख़्वाब की जुमला कैफ़ियात मा’लूम करने बहुतेरी कोशिश की थी, मगर अफ़सोस कि उन्हें अपने मक़सद में कामयाबी ना हो पाई थी। होता ये था कि बेगम फ़िर्दौस की ज़बान से अभी ख़्वाब के इब्तिदाई जुमले ही अदा होते कि वो नर्वस होने लगतीं। मज़ीद कोशिश करतीं तो उनका दिल भर आता, जिसके नतीजे में उनकी आँखों से आँसुओं का तार बंध जाता।

    शरीफ़ी को यक़ीन था कि अगर ख़्वाब की तर्सील उन तक हो चुकी होती, तो ऐ’न-मुमकिन था कि वो उसकी नफ्सियाती ता’बीर के सहारे बेगम फ़िरदौस को उस ख़्वाब के क़ुनूती असर से बाहर निकाल लेते, चूँकि शरीफ़ी की इस सिलसिले तमाम कोशिशें नाकाम हो चुकी थीं, लिहाज़ा उन्होंने बेगम फ़िरदौस को अपना ख़्वाब तहरीर करने का मश्वरा दिया। साथ ही उन्होंने उन्हें ये हिदायत भी दी थी कि वो अपना ख़्वाब किसी ताम्मुल के बग़ैर बिला कम-ओ-कास्त तहरीर करें।

    उस वक़्त बेगम फ़िर्दौस का ख़्वाब तहरीरी सूरत में शरीफ़ी के हाथों में था, जिसकी इब्तिदा यूं हुई थी।

    जज़ीरे पर गहरे स्याह बादल छाए हुए थे। हवाएं सीटियाँ बजाती चल रही थीं।

    “सुनो”।

    मैं चौंकती हूँ। ये आवाज़ कहाँ से आई। मेरा वहम तो नहीं!

    “इधर देखो। मैं बोल रहा हूँ”।

    मैं आवाज़ के रुख़ देखती हूँ। सोफ़े की नर्म कुर्सी पर बैठा हुआ परिंदा। अपनी नन्ही मुन्नी आँखों से मुझे देख रहा है।

    “तुम.....? तुम कौन हो?” मैं सहम कर पूछती हूँ।

    “मैं....मैं एक मा’मूली सा परिंदा हूँ, और तुम्हारा मम्नून हूँ”।

    दो रोज़ क़ब्ल ये परिंदा मुझे ज़ख़्मी हालत में समुंदर किनारे मिला था। मैं नहीं जानती कि लंबी उड़ान की बिना पर इसके परों में ज़ख़्म आए थे, या रास्ते में किसी ख़ूँ-ख़्वार परिंदे से इसकी मुडभेड़ हुई थी। ख़ून बाज़ुओं से बह कर इसके पंजों तक आचुका था, लिहाज़ा मैंने इसकी तीमारदारी की, इसे नर्म अनाज पका कर खिलाया। साथ ही इसके लिए गर्म और आरामदेह बिस्तर भी मुहय्या किया।

    अब इसके ज़ख़्म मुंदमिल हो चुके हैं। शरीफ़ी साहिब ये परिंदा कौन है? ये क्योंकर ज़ख़्मी हुआ? मुझे हैरत है कि मैंने परिंदे की नर्सिंग की है? जब कि आज तक मैंने किसी की ड्रेसिंग तक नहीं की।

    “तुम दो रोज़ से मेरे साथ हो, इस अ’र्से में क्यों नहीं बोले?”

    “सच्च मानो तो कहूं....मैं तुम्हारी दिल-आवेज़ शख़्सियत से इस क़दर मुतास्सिर हुआ था कि हलक़ से आवाज़ ही निकल पा रही थी”।

    “तो फिर अब क्यों बोले.... क्या मेरे मुता'ल्लिक़ तुम्हारा ख़्याल बदल चुका है?”

    “नहीं ये बात नहीं”। परिंदा गहरी सोच में डूब गया। फिर बोला।

    “बात दरअसल ये है कि मुझे आज ही सफ़र पर रवाना होना है”।

    “इतनी तेज़ हवा में .... इस क़दर गहरी शाम को...!”

    “हाँ, हवाएं तेज़ भी हैं और शाम बहुत गहरी। मगर परिंदे की ज़िंदगी में इससे भी कड़ा वक़्त आता है.... इससे भी भारी शाम आती है। इनसे भी सवा हवाएं चलती हैं”।

    जाने क्यों मैं उदास हो जाती हूँ।

    “लेकिन ये ख़तरनाक भी साबित हो सकती हैं”।

    शरीफ़ी साहिब! मैं परिंदे में इस क़दर दिलचस्पी क्यों लेने लगी हूँ? वो जाता है तो जाये। शाम गहरी हो या हवाएं तेज़। मुझे इनसे क्या सरोकार?

    ता’ज्जुब है कि मैं उदास हो जाती हूँ?

    आख़िर क्यों?

    परिंदा कहता है:

    “ख़तरनाक? जहां मेरे हक़ में ये हवाएं यक़ीनन खतरनाक हो सकती हैं। लेकिन जी जाने का ख़तरा कब नहीं और कहाँ नहीं? शायद तुम्हें ये जान कर हैरत हो कि मुझे तूफ़ानी रात और भरी बरसात में सफ़र करते हुए बड़ा लुत्फ़ आता है”।

    मैं ख़फ़गी से कहती हूँ:

    “लुत्फ़? का हे का लुत्फ़....जब जान जोखूं में पड़ी हो...”

    परिंदा कहता है:

    “हवा मेरी उड़ान की सिम्तें बदलती है। बरसात परों को तर कर के भारी कर देती है। स्याही मुझे तक़रीबन अंधा कर देती है,लेकिन मैं अपने विज्दान के सहारे, अपने हौसलों की मा'रफ़त, अपने ज़ेह्न की आँख से रास्ता टटोलता हुआ सफ़र करता हूँ। मुहिमजुई और मा’रका-आराई में मुझे नामा’लूम सी मसर्रत होती है। ऐसा सफ़र अपनी पोशीदा कुव्वतों के इज़हार, अपनी ख़ुफ़िया सलाहियतों की तलाश और ख़ुशगवार नतीजे की उम्मीद में किया जाने वाला सफ़र होता है। मैंने ऐसे मुतअद्दिद सफ़र किए हैं”।

    ये कहते-कहते वो अपनी नन्ही मुन्नी आँखों से मुस्कुराने लगता है। मुझे महसूस होता है कि वो भी दुखी है।

    बिजली चमकती है। बंद खिड़की तेज़ी से खुल जाती है। सर्द हवा का झोंका समुंदरी लहर की मानिंद अंदर आता है। मैं झट से उठकर खिड़की बंद कर देती हूँ।

    शरीफ़ी साहिब, उसकी आ’लिमाना बातें सुनकर मैं मस्हूर हो चुकी हूँ। आपने कैसा ग़ैर दिलचस्प फ़र्ज़ मुझ पर आ’यद कर रखा है। बग़ैर सोचे समझे, लिखे चली जा रही हूँ।

    परिंदा कुर्सी से फ़ुदक कर फ़र्श पर आजाता है। दो एक-बार अपने पर खोल-खोल कर समेटता है। मैं देखती हूँ कि उसके परों पर मोम और मोती का मुलम्मा’ चढ़ा हुआ है और उनकी नुक़रई सतह पर जो सुर्ख़ी सी नज़र रही है वो मुम्किन है परिंदे की तवाना ख़्वाहिश का मज़हर हो।

    “तो मैं चलूं”।

    परिंदा अपने पाकीज़ा बाज़ुओं को मेरे सर पर रखकर इंतिहाई शफ़क़त से कहता है।

    मैं गर्दन झुकाए सोच रही हूँ.... मैं किस क़दर अकेली थी। ऐसे भरे पुरे माहौल में मेरी हैसियत गोया किसी बे-जान और बेमस्रफ़ शैय की सी थी। ये परिंदा जाने किन सिम्तों से उड़ता हुआ पहुंचा .... दो रोज़ मेरे साथ रहा.... और अब अपनी जुदाई का ऐसा सदमा दिए जा रहा है कि मेरे लिए जीना दूभर हुआ जा रहा है। काश! कि आज भी ये ख़ामोश ही रहता। चुप-चाप आया था, चुप-चाप चला जाता, लेकिन उसने तो कलाम किया है!

    “मैं जानता हूँ तुम क्या सोच रही हो”।

    इक...मैं अपने ख़यालों से लौट आती हूँ।

    “इन्सान की ज़िंदगी में कलाम की बड़ी अहमियत है। मैं तुमसे बिना कोई बात किए रुख़्सत हो सकता था। तुम्हें कभी इल्म ही हो पाता कि मैं बोलने वाला परिंदा हूँ। लेकिन तुम्हारे बातिन की रोशनी और क़ल्ब की हरारत ने मुझे मजबूर किया कि मैं तुमसे दो बातें करूँ। बा’ज़-औक़ात आदमी के पास मोती होते हैं, जिन्हें वो कंकर समझ कर झील की नज़र कर देता है। कभी यूं भी होता है कि उसे अपनी मताए’ अज़ीज़ की क़दर-ओ-क़ीमत का अंदाज़ा नहीं होता। या फिर वो जिस बाज़ार में पहुंचता है, उस बाज़ार पर ठगों और लुटेरों की अ’मल-दारी होती है। चुनांचे तो उनके नाप सही होते हैं और ही उनके तौल। ऐसी सूरत में किसी बेग़रज़ को उस जिन्स की क़ीमत का सही सही तअ’य्युन कर देना चाहिए, जो कि अज़बस ज़रूरी है। ऐसी आगाही उ’मूमन हमें जीने का हौसला अ’ता करती है। ना मुसाइ’द हालात में नबरद आज़माई की क़ुव्वत बख़्शती है और ज़मीन पर साबित क़दमी से सर उठा कर चलने की हिम्मत पैदा करती है”।

    ये कह कर परिंदा ख़ामोश हो जाता है गोया वो अपने ख़्यालात को समेट रहा हो।

    “अच्छा..... वक़्त बहुत हो चुका। देखो आसमान बिल्कुल स्याह हो गया”।

    हम मकान से बाहर जाते हैं। सर्द हवा में नमी पैदा हो चुकी है। मैं जुदाई के बेपनाह कर्ब और माहौल की क़ातिलाना संगीनी से काँपने लगती हूँ, लेकिन जल्द ही मुझे परिंदे की हिदायत याद जाती है और परिंदे के दुशवार सफ़र का भी ख़्याल आता है।

    परिंदे ने दो तीन दफ़ा’ ज़ोर से अपने पर फड़फड़ाए हैं। वो वक़्त चुका है, जब जुदाई दबे-पाँव सीने के पिंजरे में दाख़िल होती है और पूरी क़ुव्वत से दिल पर ख़ंजर गाड़ देती है। एक चीख़ ज़रूर निकलती है, लेकिन वो हलक़ में घुटी की घुटी रह जाती है। अल-विदा’.... अल-विदा’।

    “अल... वि- ...दा’”। लफ्ज़ अदा नहीं हो पाता।

    परिंदा बाज़ू फैलाए नीची उड़ान भरता हुआ चंद लम्हों में सतह समुंदर पर पहुंच जाता है और देखते ही देखते उसका वजूद रोशन हो जाता है, गोया उसकी पुश्त पर कोई चांद उतर आया हो। वो आहिस्ता -आहिस्ता ऊपर और ऊपर उठता चला जाता है।

    शरीफ़ी साहिब इसके बाद उ’मूमन मेरी आँख खुल जाया करती है। मेरा दम घुटने लगता है। मुझे महसूस होता है कि जैसे किसी ने मुझे एक खद्दर की चादर में गठरी कर दिया हो।

    ख़्वाब में चंद ऐसे वाज़िह इशारे थे, जिनकी बुनियाद पर शरीफ़ी ने उनकी शख़्सियत का तजज़िया कर लिया था। जिस चक्रव्यूह में वो दाख़िल हो चुकी थीं उनका इस से बाहर निकल आना तक़रीबन नामुमकिन था। अलबत्ता ऑटो सजेशन्स (Auto suggestions) के ज़रिये शरीफ़ी उन्हें हालात से समझौता कर लेने और अपने किए हुए फ़ैसले की नदामत के शदीद एहसास से यक़ीनन छुटकारा दिला सकते थे।

    इस ख़्याल से वो बेगम फ़िरदौस को अगले रोज़ का अपॉइंटमेंट (Appointment) दे चुके थे। उस रोज़ वो नहीं आईं। शरीफ़ी ने समझा कि घरेलू मसरुफ़ियात की बिना पर वो पाई हों, अगले रोज़ जाएँगी। ख़िलाफ़-ए-तवक़्क़ो’ वो अगले रोज़ भी नहीं आईं। ये सुनकर आपको यक़ीनन ता’ज्जुब होगा कि इस वाक़ए’ को महीनों बीत चुके हैं। लेकिन आज तक नहीं आईं।

    शरीफ़ी का ख़्याल था कि बेगम फ़िरदौस को इस अफ़सोसनाक ख़्वाब से निजात मिल चुकी होगी, वर्ना कोई भी शख़्स ऐसे अ’ज़ाब का इस मुद्दत तक हरगिज़ मुतहम्मिल नहीं हो सकता था... एक मर्तबा उन्होंने चाहा कि बेगम फ़िरदौस को फ़ोन करें और उनका हाल मा’लूम करें, लेकिन फिर ये सोच कर उन्होंने अपना इरादा मंसूख़ कर दिया कि शहर में उनसे कहीं बेहतर और तजुर्बेकार माहिरीन नफ़सियात मौजूद हैं। मुम्किन है कि बेगम फ़िर्दौस उनमें से किसी माहिर-ए-नफ़सियात से रुजू’ हुई हूँ और उसके ज़ेर-ए-इलाज हों। या ये भी मुम्किन है कि वो अब तक मुकम्मल तौर पर शिफ़ायाब हो चुकी हों। चुनांचे उन्होंने एक नेक दिल और ख़ुदातरस बंदे की तरह बेगम फ़िर्दौस के हक़ में दुआ’ की कि वो जहां भीहों, सुखी हूँ, जैसी भी हों, पर ज़ेह्नी तौर पर नॉर्मल हो चुकी हों।

    रफ़्ता-रफ़्ता बेगम फ़िरदौस का तसव्वुर शरीफ़ी के शऊ’र से तहतुश-शुऊ’र और तहतुश-शुऊ’र से ला शऊ’र में जा बसा। एक रोज़ शरीफ़ी अपनी क्लीनिक में बैठे डाक देख रहे थे कि ख़तों में बेगम फ़िरदौस का ख़त पा कर बौखला गए। क़दरे लज़रते हुए हाथों से उन्होंने लिफ़ाफ़ा चाक किया। लिखा था:

    “शर्मिंदा हूँ कि एक अ’र्से की ग़ैर-हाज़िरी के बाद आपसे रुजू’ हो रही हूँ। बात दरअसल ये है कि जिन दिनों उस ख़्वाबसे दो-चार थी, उन दिनों किसी तिनके का सहारा भी मेरे लिए बहुत बड़ा सहारा था। आपने सिर्फ मेरे केस में दिलचस्पी ली, बल्कि मेरी जानिब ख़ुसूसी तवज्जो फ़रमाई। चुनांचे आपकी नेक नियती का करिश्मा था या महज़ इत्तिफ़ाक़ कि अगले ही दिन से उस ख़्वाब की योरिश थम गई। और एक मुद्दत तक वो ख़्वाब तो कुजा कोई दूसरा ख़्वाब भी मुझे नहीं आया। चूँकि दिल अंदेशों की आमाजगाह है, सो मेरे दिल से वो ख़तरा टला। मुझे बदस्तूर रात में सोने से पहले धड़का लगा रहा कि अगली सुबह में कहीं फिर उसी भंवर में जा पड़ूँ। पर एक अ’र्से तक कोई ऐसा मनहूस दिन तुलूअ’ हुआ मैं समझी कि उस बला ने किसी और का घर देख लिया है, सो अब मैं इस अ’ज़ाब से महफ़ूज़ हूँ, लेकिन ये कैफ़ियत ज़्यादा अ’र्से तक बरक़रार रह सकी, बल्कि सरासर मेरी ख़ुश-फ़हमी साबित हुई। सूरज को सवा-नेज़े पर झेलना मेरे मुक़द्दर में लिखा जा चुका था। लिहाज़ा पिछले हफ़्ते वो बला कील कांटे से दुरुस्त हो कर दुबारा नाज़िल हुई , और अपनी नुकीले मिनक़ार से मेरे तालू पर मुसलसल ठोके लगा रही है। अब वो ख़्वाब उस परिंदे की रवानगी ही तक महदूद नहीं रहता बल्कि एक वाक़ए’ के इज़ाफे़ के बाद एक अल्मिये की सूरत इख़तियार कर लेता है। मैं परिंदे की रवानगी के सीक्वेंस (SEQUENCE) में देखती हूँ।

    समुंदर के साहिल पर दराज़ क़द साये जो ता’दाद में कई थे। अचानक यूं नमूदार होते हैं, गोया तारीकी ने उन्हें अपनी सुरंग से उगल दिया हो। मेरे अतराफ़ घूम फिर कर वो ऐसी नज़रें दौड़ाते हैं जैसे किसी अहम चीज़ को खोज रहे हों। उनमें से एक की निगाह उफ़ुक़ में उठ जाती है। वो देखता है कि रोशन परिंदा लम्हा बह लम्हा दूर होता चला जा रहा है। वो मसर्रत से चीख़ कर अपने तमाम साथियों की तवज्जो परिंदे की जानिब मबज़ूल करता है। पलक झपकते ही उनमें से एक किसी वज़नी आले को अपने शाने पर रखता है और एक ज़ानू फ़र्श पर टेक कर शुस्त बाँधता है। दूसरे ही लम्हे वो आला, बादल सी गरज के साथ बारूद उगल देता है। चंद ही सेकंड बाद, परिंदे का रोशन वजूद बुझ कर रह जाता है। मारे वहशत के मेरी सांस रुकने लगती है और हिचकी बंध जाती है। जिस पुरअसरार सूरत में वो साये आए थे, उसी पुरअसरार सूरत में वो ग़ायब हो जाते हैं”।

    शरीफ़ी के हाथ बदस्तूर लरज़ रहे थे। उन्हें यक़ीन हो चुका था कि बेगम फ़िरदौस के ख़्वाब की ता’बीर उन्होंने जिन नफ्सियाती उसूलों और तहलीले नफ़सी के जिन नज़रियों की बुनियाद पर की थी।अब वो ता’बीर-ए-ख़्वाब में इस वाक़ए के इज़ाफे़ के बाद सरासर ग़लत साबित हो रही थी। लिहाज़ा शरीफ़ी बेगम फ़िरदौस के ख़्वाब की इस पुरअसरार इ’मारत में एक नए दरवाज़े से दाख़िल होने के इमकानात पर ग़ौर कर रहे थे।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

    Get Tickets
    बोलिए