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पसमांदगान

इन्तिज़ार हुसैन

पसमांदगान

इन्तिज़ार हुसैन

MORE BYइन्तिज़ार हुसैन

    हाशिम ख़ान अट्ठाईस बरस का कड़ियल जवान, लंबा तड़ंगा, सुर्ख़-व-सफ़ेद जिस्म आन की आन में चटपट हो गया। कम्बख़्त मर्ज़ भी आंधी हांदी आया। सुब्ह को हल्की हरारत थी, शाम होते होते बुख़ार तेज़ हो गया। सुब्ह जब डाक्टर आया तो पता चला कि सरसाम हो गया है। ग़रीब माँ-बाप ने अपनी सी सब कुछ कर डाली। दिन भर में डाक्टर से लेकर पीरों-फ़क़ीरों तक सबके दरवाज़े खटखटाए लेकिन दवा दारू ने असर किया और तावीज़ गण्डे काम आए। पहर रात हुई थी फिर हालत बिगड़ गई और ऐसी बिगड़ी कि सुबह पकड़नी दुशवार हो गई। माँ-बाप ने सारी रात आँखों में काटी और बिलक बिलक कर दुआ मांगी कि किसी तरह सुब्ह हो जाए। उनकी दुआ क़ुबूल हुई तो सही मगर उधर सुब्ह का गजर बजा उधर मरीज़ ने पट से दम दे दिया। आनन फ़ानन मरने वालों की ख़बर भी आनन फ़ानन फैलती है सारे मोहल्ले में मलक पड़ गया। जिसने सुना सन्नाटे में गया। हलीमा बुआ के घर ख़बर नब्बो ने पहुँचाई। दहलीज़ में क़दम रखते ही बोली, अजी हलीमा बुआ क़हर हो गया। हाशिम ख़त्म हो गया, हलीमा बुआ के मुँह से बेसाख़्ता निकला हए हए हलीमा बुआ उस वक़्त चूल्हे पे बैठी बच्चों के नाशतादान के लिए रोटी डाल रही थी। मगर हाथ पैर हाथ ही में रह गया। फ़ौरन उन्हों ने उल्टा चूल्हे की आग ठंडी कर दी। कुल्सूम की बेटी की खांसाहबनी से ऐसी लड़ाई थी कि आपस का भाजी बख़रा भी बंद था। चुनांचे कुलसूम की बेटी का जब ब्याह हुआ तो ख़ानसाहबनी ना तो ब्याह में बैठीं और ना बारात का मीवी लिया। मगर हाशिम की ख़बर सुनकर कुलसूम अगली पिछली सारी लड़ाईयाँ भूल गई। फौरन बोली , मौत का मुँह खुला है, ना बीबी मैं ज़रूर जाऊँगी। ये कह कर चादर उठा फ़ौरन ख़ान साहबनी के घर की तरफ़ रवाना हो गई। सूबेदारनी भी ख़बर सुनते ही उठ खड़ी हुई थीं। मगर फिर उन्हें कुछ ख़याल आया। सूबेदार साहब को मर्दाने से बुलवा कर हिदायत की कि एक वक़्त की रोटी हमारी तरफ़ से होगी। उसका इंतिज़ाम करवाओ मैं जा रही हूँ, फिर उन्होंने चलते चलते नौकरानी को भी एक हिदायत कर डाली कि अरे देख री, रात की रोटियाँ रखी हैं, लौंडे को भूक लगे तो घी बूरा से उसे रोटी खिला दीजो।

    सूबेदारनी ने खांसाहबनी के घर तक का रास्ता उजलत से लेकिन ख़ामोशी से तय किया। उन्होंने औरतों की तक़लीद मुनासिब समझी जिन्होंने मर्दों के हुजूम से गुज़रते हुए गली ही से अपने जज़्बात का दबा दबा इज़हार शुरू कर दिया था। हाँ दहलीज़ से घुसने के बाद उनसे ज़ब्त हो सका। उनके बैन सिर्फ़ चंद लम्हों तक सुने जा सके। घर में कोहराम मचा हुआ था। उसमें सूबेदारनी या किसी की आवाज़ भी अलग सुनाई नहीं दे सकती थी।

    घर में कोहराम मचा हुआ था लेकिन बाहर उसी क़दर ख़ामोशी छाई हुई थी। बैठक से कुर्सियाँ उठा दी गई थीं। अब वहाँ सिर्फ़ जाजिम बिछी हुई थी। एक शख़्स ख़ामोशी से बैठा कफ़न सी रहा है। उसके चेहरे पे तो हुज्न-व-मलाल की कैफ़ियत थी और इत्मिनान और ख़ुशी की झलक थी। ऐसी जानदार चीज़ें भी होती हैं जो एहसास से सिरे से ही आरी होती हैं और ऐसी बेजान चीज़ें भी होती हैं जो हर दम एक नई कैफ़ियत पैदा करती हैं। सफ़ेद लट्ठा ईद की चांदनी रात को दर्ज़ी की जिस दुकान और जिस घर में नज़र आता है उससे हरकत और रौशनी पैदा होती है। जब उसका कफ़न सिलता है तो सफ़ेद गुबार की तरह बैठने लगता है। बैठक में सब से नुमायाँ चीज़ तो ये कफ़न ही था। वैसे उससे अलग एक कोने में ख़ान साहब घुटनों में सर दिए चुपचाप बैठे थे। इक्का दुक्का और लोग भी वहाँ नज़र आते लेकिन ज़्यादा लोगों ने बैठक से बाहर गली में ठहरना मुनासिब समझा था। दबी दबी आवाज़ में गुफ़्तगु होती और ख़ुदबख़ुद ख़त्म हो जाती। फिर कोई नया शख़्स गली में दाख़िल होता। आहिस्ता से किसी के पास जा खड़ा होता। सरगोशी के अंदाज़ में कुछ सवाल करता। कुछ ग़म और हैरत का इज़हार करता और फिर चुप हो जाता। सूबेदार सब से अलग बैठक की दहलीज़ पर उकड़ूँ बैठे किसी सोच में गुम थे। बैठक के सामने ज़रा हट कर एक दूसरा मकान था जिसके पत्थर पे बाक़र भाई और तजम्मुल बैठे बड़े संजीदा अंदाज़ में होले-होले बातें करते थे। उनके अंदाज़-ए-गुफ़्तगु ने अली रियाज़ को कई मर्तबा ललचाया था, लेकिन उनके पास जाने का उसे कोई बहाना हाथ आया। अलबत्ता जब छन्नूँ मियाँ वहाँ पहुँचे तो हिम्मत करके वो भी आहिस्ता से उधर हो लिया। छन्नूँ मियाँ हाशिम की ख़बर सुन कर घर से बहुत लपके चले थे लेकिन गली में दाख़िल होते ही उनकी रफ़्तार धीमी पड़ गई शायद उन्हें अपने क़दमों की आहट से भी कुछ उलझन हो रही थी। छन्नूँ मियाँ जब तजम्मुल और बाक़र भाई के पास पहुंचे तो उस वक़्त तजम्मुल हाशिम ख़ाँ के थानेदारी के इंतिख़ाब का ज़िक्र कर रहा था। हाशिम ख़ाँ की छाती थी ग़ज़ब थी मुझसे तो दो उसमें समा जाएँ। बस बाक़र भाई समझ लो कि सुपरिडेंट ने जो देखा तो दंग रह गया। अली रियाज़ आहिस्ता से बोले, क्या ख़बर है भाई उसी की नज़र लग गई हो।

    हाँ क्या ख़बर है,तजम्मुल ने ताईद की।

    बाक़र भाई धीमे से लहजे में बोले, सब कहने की बातें हैं। मौत का बहाना होता है।

    कुल्लो-नफ़्सिन-ज़ाइक़त-उल- मौत।

    छन्नूँ मियाँ ने ठंडा सा साँस लिया, क्या ख़ुदा की क़ुदरत है? बाक़र भाई दोनों हाथों से सर पकड़े उकड़ूँ बैठे थे। निगाहें ज़मीन पे जमी हुई थीं। इसी कैफ़ियत में बैठे बैठे फिर बोले,

    आदमी में क्या रखा है। हवा का झोंका है आया और गया।

    अली रियाज़ की आँखों में एक तहय्युर की कैफ़ियत पैदा हुई, बाक़र भाई क्या होता है। आदमी अच्छा ख़ासा बैठा कि हिचकी आई पट से दम निकल गया। जा रहा है, जा रहा है। ठोकर लगी, आदमी ख़त्म कुछ अजब करिश्मा है।

    बाक़र भाई सोचते हुए बोले, बस भाई साँस का एक तार है जब तक चलता है, चलता है। ज़रा ठेस लगी, तार टूटा आदमी ख़त्म।

    बाक़र भाई और छन्नूँ मियाँ दोनों किसी गहरी सोच में डूब गए। चंद लम्हों तक अली रियाज़ भी चुप रहा। मगर वो बोला भी तो कुछ इस अंदाज़ से गोया ख़्वाब में बड़बड़ा रहा है, ज़िंदगी का क्या भरोसा। आँख बंद हुई खेल ख़त्म कैसा सितम है, उधर नौकरी का परवाना आया इधर मौत का तार-ए-बर्क़ी गया। उसके भेद वही जाने, अजब कारख़ाना है उसका, फिर अली रियाज़ भी किसी सोच में डूब गया। एक डेढ़ मिनट तक मुकम्मल ख़ामोशी रही। अली रियाज़ और छन्नूँ मियाँ दोनों बुत बने हुए थे। बाक़र भाई ब-दस्तूर हाथों में सर थामे कोहनियाँ घुटनों पे टेके बैठे थे। मगर उनकी आँखें शायद अब बंद होती जा रही थीं। अली रियाज़ फिर चौंका और बाक़र भाई से मुख़ातिब हुआ, बाक़र भाई ख़ुदा है भी या नहीं? बाक़र भाई ने अपनी आँखें खोलीं, भाई मेरे, वो रुके और फिर बोले, मौत ही इसका सब से बड़ा सबूत है कि ख़ुदा है।

    अली रियाज़ बाक़र भाई की सूरत तकता रहा। फिर ख़याल की जाने कौन सी दुनिया में पहुँच गया। तजम्मुल और छन्नूँ मियाँ फिर किसी ख़्याल में गुम थे।

    और सामने बैठक की दहलीज़ पर सूबेदार साहिब इसी एक ज़ाविए से बैठे थे। बोलने की ज़रूरत उन्हें जब भी पेश आई, उन्होंने ज़ेर-लब कोई मुख़्तसर फ़िक़रा कहा और चुप हो गए। लोग ख़ासे जमा हो गए थे, गली फिर भी ख़ामोश थी। आने जानेवाले बदस्तूर अपने क़दमों की आहट से ख़ौफ़ज़दा थे। फिर छन्नूँ मियां ने घुटने से अपनी ठोढ़ी उठाई और एक नीम महसूस से अंदाज़ में फरेरी लेते हुए बोले, जनाब मुझे तो यक़ीन नहीं आता। छन्नूँ मियाँ चुप हो गए। ख़ामोशी फिर छा गई। बाक़र भाई इस तरह बेहिस-व-हरकत बैठे थे। अलबत्ता अली रियाज़ और तजम्मुल ने उनकी तरफ़ देखा मगर कुछ बोले नहीं। छन्नूँ मियाँ की ज़बान से एक फ़िक़रा फिर निकला, बार बार उसकी शक्ल आँखों के सामने आती है। यक़ीन नहीं आता कि वो मर गया।

    यक़ीन कैसे आए यार, तजम्मुल आहिस्ता आहिस्ता कह रहा था, तरसों तक तो अच्छा भला था। बाज़ार में मुझ से मुढ़ भेड़ हुई। मैं पूछने लगा, हाशिम ख़ाँ कब जा रहे हो नौकरी पे, बोला, यार तक़र्रुरी तो हो गई है इस हफ़्ते में चला ही जाऊँगा।

    अली रियाज़ ने ठंडा साँस लिया। हाँ ग़रीब चला ही गया, छन्नूँ मियाँ ने अली रियाज़ के फ़िक़रे पर ध्यान नहीं दिया। वो तजम्मुल से मुख़ातिब थे, भई पिछली जुमेरात को मैं और वो दोनों शिकार को गए हैं, शिकार के लफ़्ज़ के साथ साथ मुख़्तलिफ़ अनमिट बेजोड़ तस्वीरें छन्नूँ मियाँ की आँखों के सामने उभर आईं। फ़ुरेरी लेकर बोले, क्या निशाना था नेक बख़्त का। सुब्ह की धुंद में हाथ को हाथ सुझाई नहीं देता। क़ाज़ें हड़बड़ा कर उठी हैं। परों की फड़ फड़ फड़ाहट पे धौं से गोली चलाई और क़ाज़ें टप टप गिर रही हैं। अब उसी दफ़ा का ज़िक्र है साहब, मुझे तो पता चला नहीं कि हिरनी किधर से उठी और किधर चली। बंदूक़ को तानते हुए बोला, वो हिरनी चली मैंने कहा कि बहुत दूर है, मगर वो भलामानुस कहाँ सुनता था, धन से गोली चला दी। हिरनी बीस क़दम गिरी, चली और फिर लड़खड़ा के गिर पड़ी।

    छन्नूँ मियाँ चुप हो गए। फिर कुछ सोचते हुए बोले, वक़्त की बात है। बा'ज़ वक़्त मुँह से ऐसी आवाज़ निकलती है कि पूरी हो कर रहती है। शिकार से वापसी में कहने लगा, छन्नूँ मियाँ अपना ये आख़िरी शिकार था। अब हम चले जाएँगे ग़रीब सचमुच चला गया।

    बाक़र भाई के जिस्म को आख़िर ज़रा जुंबिश हुई। सोचते हुए बोले, जुमेरात का दिन था वक़्त क्या था? अली रियाज़ और तजम्मुल दोनों भाई को तकने लगे। बाक़र भाई इक ज़रा ताम्मुल से हिचकिचाते हुए बोले, ऐसे वक़्त में जानवर को नहीं मारना चाहिए।

    आहिस्ता आहिस्ता उठते क़दमों के अफ़्सुर्दा शोर से सारी बज़रिया में एक ख़ामोशी सी छा गई। काले पनवाड़ी की दुकान पे जो क़हक़हे बुलंद हो रहे थे वो एका एकी बंद हो गए। सामने के कोठे वाली नकई पहाड़न के सिलसिले में शुबराती के ज़ेह्न में एक बहुत फड़कता हुआ फ़िक़रा आया था। उसे इस अच्छे फ़िक़रे का गला घोंट देना पड़ा। सामने एक साइकल सवार गुज़र रहा था। मय्यत देख कर वो भी साइकल से उतर पड़ा। सिमी हलवाई उस वक़्त मोती चूर के लड्डू बना रहा था। उसके हाथ यक-ब-यक रुक गए और आँखों में एक हैरत अंगेज़ अफ़्सुर्दगी की कैफ़ियत पैदा हो गई। मुल्ला पंसारी के आसाब पर मज़हब सवार था शायद इसलिए वो मौत की संजीदगी से कुछ ज़रूरत से ज़्यादा ही मरऊब हो जाता था। बुढ़िया को तीन पैसे का धनिया तौलते तौलते वो एक साथ उठ कर खड़ा हुआ और जब तक जनाज़े को कांधा देने का सवाब हासिल कर लिया पलट कर नहीं आया। यूँ तो उसने वापस आते ही काम में लग जाने की कोशिश की थी। मगर बुढ़िया के भी आख़िर कुछ रुहानी मुतालिबात थे। मुल्ला के वापस आते ही उसने सवाल किया, भैया रे यू किस की मय्यत थी?

    मुल्ला ने ठंडा साँस भरते हुए जवाब दिया, ख़ानसाहब हैं न, उनका लौंडा गुज़र गया। बुढ़िया की आँखें खुली की खुली रह गईं, हाय अल्लाह।

    हीरा सोनार अभी अभी गुलाल लेने की नीयत से दुकान पे पहुँचा था। ख़ान साहब का सुन कर वो चौंका, ख़ान साहब जी का पुत्र? वा मर गेसू? बड़ी घटना हो गई फिर ज़रा ताम्मुल से बोला, वाकी दयी तो बड़ी बनी हुई थी कैसे मर गयो?

    मुल्ला ने फिर ठंडा साँस लिया, महाराज मौत बड़ी बलवान है वो बूढ़े जवान किसी को नहीं छोड़ती, हीरा भी बहक निकला, मुल्ला यू तू सच कहियो हे। मौत तो जोगियों और महाऋषियों को भी आई और शिकस्ती मान राजों महाराजों को भी आई राजा कंश अदहक चितर हूँ था पर मौत ने वाको भी दाब ही लियो। मुल्ला के लहजे में अब तवानाई पैदा हुई, लाला ऋषि मुनि हों या पीर पैग़ंबर, मौत ने किसी को माफ़ नहीं किया। सुना किया कि अफ़लातून ने एक बूटी तैयार की। अपने शागिर्द से मरते वक़्त कहा कि मुझे दफ़न मत कीजियो। ये बूटी चराग़ में डाल के मेरे सिरहाने चालीस दिन तक जलाइयो। चराग़ बुझने पाए। चालीसवें दिन मैं उठ खड़ा हूँगा। मगर चालीसवें दिन क्या हुआ कि शागिर्द की आँख लग गई और चराग़ बुझ गया। अफ़लातून मरा का मरा रह गया। तो लाला मौत बड़ी ज़ालिम है।

    हीरा का सर झुक गया। बुढ़िया के लहजे में अफ़्सुर्दगी पैदा हो गई, हाँ बाबा मौत पर कसो का क्या बस है। बुढ़िया चुप हो गई मगर जब कोई कुछ मिला तो एक फ़िक़रा फिर उसकी ज़बान से निकल गया, ख़ान साहब मबनी के दोनों कड़ियल जवान गए उसके ग़ज़ब से डरता ही रहे।

    मुल्ला ने बड़े फ़लसफ़ियाना अंदाज़ में जवाब दिया, बड़ी बेवा इम्तिहान लेवी है।

    शुबराती जाने किस लहर में काले की दुकान से उठ कर मुल्ला की दुकान पर बैठा था। मुल्ला के इस फ़िक़रे से वो गर्मा गया, मुल्ला बे! यूँ तेरा ख़ुदा बड़ी ज़ौहरी है, जो उसके इम्तिहान के अड़ंगे में गया। उसका कबाड़ा गया।

    मुल्ला को टूट कर ग़ुस्सा तो शायद ही ज़िंदगी में आया हो। मगर उसके लहजे में हल्की सी ब्रहमी ज़रूर पैदा हो गई कहने लगा, भैया ख़ुदा तो मेरा भी है और तेरा भी है।

    शुबराती की बग़ावत का जोश झाग की तरह बैठ गया। जवाब वो क्या देता। उसका सर झुक गया और उसकी ठोढ़ी खिसक कर घुटनों पे आन टिकी। मुल्ला अब शुबराती से क़तअन बेनियाज़ हो कर फ़िज़ा में घूरने लगा था।

    बुढ़िया कनजड़ी, हीरा, शुबराती, मुल्ला चारों के चारों चंद लम्हों के लिए बिल्कुल गुमसुम हो गए और उनके चेहरों पे कुछ ऐसी कैफ़ियत पैदा हो गई जो ज़िंदगी की बे-सबाती और किसी बड़ी ताक़त के वजूद के एहसास से पैदा होती है।

    आख़िर बुढ़िया कनजड़ी चौंकी, ला मेरे बैरा धनिया बांध दे। मैं चली।

    मुल्ला ने हड़बड़ा कर तराज़ू उठाई और धनिया तौल कर काग़ज़ में बांधने लगा। अब हीरा भी होश में गया था। उसने तक़ाज़ा किया, मुल्ला मोको भी गुलाल बांध दे।

    कितने का दूँ?

    इकन्नी का।

    लाला इकन्नी के गुलाल में गया बैंक लगेगी तेहवार रोज़ रोज़ थोड़े ही आवे है।

    पहाड़न नकटी अब बन ठन कर अपने छज्जे पे खड़ी हुई थी। किसी जले तिनके ने पिछले बरस उसकी बेमुरव्वती से भुन कर दिन दहाड़े दाँतों से उसकी नाक काट ली थी। यूँ उसके सियाह चेहरे की फबन तो ज़रूर बिगड़ गई थी मगर उस से तो उसकी क़हर भरी गात का जादू ज़ाइल हुआ था और उसके ठस्से में फ़र्क़ पड़ा था। शुबराती ने उसे देख कर ज़ोर से अंगड़ाई ली और ऊंची लै में गाने लगा:

    या रब निगाह-ए-नाज़ पे लाइसेंस क्यूँ नहीं? बन्नो को ये फ़ायदा था कि खाँसाबनी की दीवार से उसकी दीवार मिली हुई थी बल्कि इस मुश्तर्क दीवार में बाहमी समझौते से एक उल्टी-सीधी खिड़की भी फोड़ी गई थी। आज ये खिड़की बन्नो के बहुत काम आई। आँसूओं का ग़लबा जब भी कम हुआ और तबीयत रोने से जब भी ज़रा चाट हुई बन्नो उस खिड़की से निकल कर अपने घर पहुँच गई।

    हलीमा बुआ ने तो उलटते वक़्त अपने नन्हे नवासे का ख़याल ही नहीं किया था। अब उसने भूक भूक का गुल मचाना शुरू किया। जनाज़ा उठने के बाद वो भी उस खिड़की से निकल बन्नो के घर जा पहुँचीं। उनका मक़सद तो सिर्फ़ इतना था कि बन्नो के घर रात का कोई टुकड़ा निवाला बचा हो तो नवासे को खिला कर उसका हलक़ बंद कर दें। वहाँ वो बन्नो से बातों में लग गईं। हलीमा बुआ की आँखों में हाशिम ख़ाँ की तस्वीर बार बार फिर जाती थी। ख़ान साहबनी की बदनसीबी का ख़याल भी उन्हें रह रह कर रहा था। बन्नो पर भी तक़रीबन कुछ यही आलम गुज़र रहा था। चुनांचे जब हलीमा बुआ ने ये कहा, डूबी खांसाहबनी तो जीते जी मर गई, तो बन्नो की आवाज़ में भी दर्द पैदा हो गया बोली, बदनसीब की कोख उजड़ गई दो पू थे दोनों ख़त्म हो गए। आंगन में झाड़ू सी दिल गई।

    हलीमा बुआ कुछ देर चुप रहीं फिर खोए खोए से अंदाज़ में बोलीं, हज्ज़ों की क़िस्मत ही ऐसी होवे है। ख़ान साहबनी कम्बख़्त को ओहदे रास नहीं आए। याद नहीं जब ख़ान साहब को मजिस्ट्रेटी मिली थी तो कैसे खटिया पे पड़ी थे।

    हाँ आ! हाकिम होते मुए मर्ज़ की भेंट चढ़ गया ओहदा।

    हलीमा बुआ को ख़ान साहबनी के बड़े बेटे का वाक़या याद गया, उसका बड़ा पूत भी ऐसे ही जवानी की भरी बहार में गया। बीबी ये समझो कि चाँद की पहली को तहसीलदारी का ख़त आया और सत्ताईसवें को उस ग़रीब का तार गया। वो भी आनन फ़ानन गया। खांसाहबी की सारी मौतें ऐसे ही हुईं।

    बन्नो किसी और आलम में खींची गई थी। उसकी आँखें ख़ला में घूर रही थीं और उन आँखों में एक अजीब सी कैफ़ियत पैदा हो गई थी। वो चंद लम्हे बिल्कुल चुप रही फिर ठंडा साँस लेते हुए बोली, बा पालें-पोसें छाती पे सुला सुला के बड़ा करें और फिर क़ब्र में सुला आएँ ग़ज़ब है।

    बन्नो फिर इस आलम में खींची गई। हलीमा बुआ भी कुछ मुतास्सिर हुईं अब वो भी चुप थीं। हलीमा बुआ को फिर कुछ याद आया। बोलीं, कम्बख़्त हाथों में दिल रखती थी पूत का। इस ईद पे उसके लिए वो भारी अचकन बनवाई कि क्या कोई ब्याह में बनवाएगा। बन्नो इसी खोए खोए अंदाज़ में फिर बोली, ज़र्क़-बर्क़ पोशाकें सब रखी रह जावें हैं। चाँद के से टुकड़ों पे दम के दम में सैंकड़ों मन मिट्टी पड़ जावे है, बन्नो चुप हो गई थी। हलीमा बुआ गुम मथान बनी बैठी थी।

    बन्नो एक साथ फिर चौंकी और हलीमा बुआ से मुख़ातिब हुई, हलीमा बुआ ये ख़ुदा का क्या इंसाफ़ है जिसे औलाद देगा, दिए चला जावेगा जिससे छीनेगा उसका घर उजड़ कर देगा।

    हलीमा बुआ बोलीं, अरी मय्या शिकायत क्या है उसकी चीज़ थी उसने ले ली। बन्नो ने इक ज़रा तल्ख़ी से जवाब दिया, अजी औलाद हो तो सब्र है कि भई तक़दीर में औलाद थी हुई मगर कलेजे के टुकड़े यूँ मिट्टी में मिलाने के लिए कहाँ से जिगर आवे।

    हलीमा बुआ को कोई जवाब बन आया तो वो ख़ामोश हो गईं लेकिन फिर जल्द ही उनकी समझ में बात गई बोलीं, अजी सब अपने अपने आमाल होवे हैं, उन्होंने इक ज़रा ताम्मुल किया और फिर कहने लगीं, बीबी हमने तो किसी लड़ने वाली को फलते देखा। कम्बख़्त दाँता किल किल कोई अच्छी बात थोड़ाई है। कुल्सूम बात बात पे उसके बेटे को याद करती थी। आख़िर बेटा बदनसीब ख़त्म हो गया, इस सिलसिले में हलीमा बुआ भी कुछ कहना चाहती थीं लेकिन उनके लाडले नवासे ने फिर वही रट लगानी शुरू कर दी कि, बुआ जी भूक लगी है। हलीमा बुआ ने उसे बहुत बहलाया फुसलाया मगर वो कहाँ मानने वाला था। हलीमा बुआ को ख़ुद भी उसकी भूक का एहसास था। बन्नो से कहने लगीं, मेरा बच्चा आज भूक से हलकान हो गया,बन्नो को भी दबी दबी शिकायत पैदा हुई, अजी, अभी तो मय्यत गई है कब लोग वापस आए और कब रोटी मिली।

    हलीमा बुआ को यकायक एक सवाल याद आया, अरी रोटी किसकी तरफ़ से है?

    सूबेदारनी दे रही है।

    फिर तो अच्छी रोटी देगी।

    बन्नो तंग कर बोली, अजी, हाँ हाँ अच्छी रोटी देगी। क़बूली पक रही है।

    क़बूली? हलीमा बुआ को बड़ा तअज्जुब हुआ, डूबा ये अलग़ारों पैसा जो है वो क्या छाती पे धर के क़ब्र में ले जावेगी।

    बन्नो कहने लगी, हलीमा बुआ! ये तो सब दिल की बात होवे है। हमारे बाप की क्या हैसियत थी मगर तुम्हें तो याद होगा हमारी सास के मरने पे गोश्त रोटी दी थी। हलीमा बुआ ताईदी लहजे में बोलीं, अरे भई, बिरादरी का तो लिहाज़ करना ही पड़े है और क़बूली? क़बूली तो बुड्ढों ठड्डों के मरने में दी जावे है।

    क़ब्र तैयार होने में अभी ख़ासी देर थी। अली रियाज़, तजम्मुल, बाक़र भाई और छन्नूँ मियाँ क़ब्रिस्तान से निकल कर कर्बला की तरफ़ हो लिये। ये कर्बला ऐसी लंबी चौड़ी इमारत तो नहीं थी। बस एक बड़े रक़बे में पक्की चार दीवारी खींची हुई थी। शायद दानिस्ता ये एहतिमाम किया गया था कि उसमें दरख़्त नहीं होने चाहियें। फिर भी एक कोने में नीम के दो घने दरख़्त नज़र आते थे। उसके अक़ब में आमों का एक घना बाग़ था। बाएँ सिम्त सिर्फ़ बेरियाँ ही नहीं बल्कि उस से परे इमली के बुलंद-व-बाला दरख़्त भी नज़र आते थे। ऐसे माहौल में ये कर्बला लक़-व-दक़ सहरा का तास्सुर भला क्या पेश करती मगर उसकी फ़िज़ा एक गहरी उदासी का रंग लिए हुए ज़रूर थी।

    ये चार दीवारी तो पस्त ही थी लेकिन उसके फाटक का आहनी कटहरा ख़ासा बुलंद था और उससे एक ऐसा वक़ार टपकता था जो इस क़िस्म की इमारतों के दरवाज़ों से मख़सूस है। मगर ये आहनी कटहरा इमारत की सब से बुलंद चीज़ नहीं थी। इस दरवाज़े में दो मीनार भी तो शामिल थे जो आहनी कटहरे से कहीं बुलंद थे। ये अलग बात है कि इस खुली फ़िज़ा में वो दूर से पस्त ही नज़र आते थे इस खुली फ़िज़ा में एक वसीअ-व-अरीज़ चार दीवारी के साथ उन दो मीनारों को देख कर कुछ इस क़िस्म की कैफ़ियत गुज़रती थी जिसे बा'ज़ लोग कोई सही लफ़्ज़ मौजूद होने की वजह से हस्सास तन्हाई कहने लगे। आहनी दरवाज़े के ऐन सामने एक पक्की क़ब्र थी जो ज़मीन की सतह से बिल्कुल हमवार थी। बाक़र भाई को आज ही नहीं इससे पहले भी अक्सर मर्तबा इस क़ब्र पर शक हुआ था कि हर साल दलदल की नापें और मातमियों के क़दम दोनों उसे मस करते हैं। ये तो ख़ैर सब जानते थे कि ये क़ब्र मौलाना हैदर इमाम की थी और उनके ज़ोह्द का एहतिराम करते हुए ही उन्हें मुनासिब मक़ाम पर दफ़न किया गया था। मगर अली रियाज़ इस शेअर को पढ़ने की कोशिश कर रहा था जो उस क़ब्र पर नक़्श था। पहला मिसरा तो साफ़ था। बड़े शौक़ से सुन रहा था ज़माना! लेकिन दूसरे मिसरे के आख़िरी लफ़्ज़ बिल्कुल मिट गए थे। हमीं सो गए दास्ताँ अली रियाज़ ने बहुत बहुत सर मारा मगर उसकी समझ में कुछ आया। आख़िर बाक़र भाई ने उस मुअम्मे को हल किया। कुछ तो उन्हीं मिटे हुए लफ़्ज़ पढ़ने की अटकल थी फिर यूँ भी उन्होंने मज़हबी किताबों के साथ साथ थोड़ा सा वक़्त शायरी के मुताले पर भी सर्फ़ किया था। आख़िर बहुत सोच समझ कर उन्होंने दूसरा मिस्रा पढ़ा। हमीं सो गए दास्तान सुनते सुनते। अली रियाज़ ने ही नहीं तजम्मुल और छन्नूँ मियाँ ने भी शेअर की दाद दी। अली रियाज़ ने बड़े एहतिमाम से अपने लहजे में अफ़्सुर्दगी का रंग पैदा किया और शेर पढ़ने लगा:

    बड़े शौक़ से सुन रहा था ज़माना

    हमीं सो गए दास्तान सुनते सुनते

    वाह छन्नूँ मियाँ के मुँह से बे-साख़्ता निकला, किस का शेअर है?

    अली रियाज़ थोड़ा सा चकराया फिर सोचते हुए बोला, अनीस का मालूम होता है? क्यूँ बाक़र भाई?

    बाक़र भाई ने जवाब दिया, भई शेअर तो मुँह से बोल रहा है कि मैं मीर अनीस का हूँ।

    वाह वाह मीर अनीस भी क्या क्या शेअर कह गए हैं। छन्नूँ मियाँ ने फिर दाद दी।

    बाक़र भाई,अली रियाज़ का लहजा यका यकी बदला, सुनते हैं कि मीर अनीस शेअर ख़ुद नहीं कहते थे।

    छन्नूँ मियाँ का चेहरा सुर्ख़ पड़ गया तड़ख़ कर बोले, फिर क्या जुनैद ख़ाँ लिख के दे जाते थे।

    अली रियाज़ ने जल्दी से अपनी बात की तशरीह की, अभी हमने तो ये सुना है कि मोहर्रम के दिनों में मीर अनीस जब सो के उठते थे तो उनके सिरहाने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का लिखा हुआ मर्सिया रखा होता था।

    छन्नूँ मियाँ के चेहरे पे सुर्ख़ी जिस तेज़ी से आई थी उसी तेज़ी से ग़ायब हो गई। हाँ उसी तेज़ी के साथ उनकी आँखों में हैरत की कैफ़ियत पैदा हो गई थी। अच्छा?

    तजम्मुल ने बराह-ए-रास्त बाक़र भाई से सवाल किया, क्यूँ भाई। सच है ये? बाक़र भाई मालूम किस क़माश की आदमी थे, किसी बात की तो ज़ोर शोर से ताईद करते थे और ज़ोर शोर से तरदीद करते थे। उनके जवाब में हाँ और नहीं दोनों पहलू शामिल होते थे। कहने लगे, हाँ, लखनऊ जा के किसी से पूछ लो और ये वाक़िया तो लखनऊ के बच्चे बच्चे की ज़बान पे है, तजम्मुल ने बे सबरे-पन से पूछा, क्या वाक़िया?

    यही कि एक दफ़ा मीर अनीस और मिर्ज़ा दबीर में बहस हो गई कि देखें मौला को किस का मर्सिया पसंद है। दोनों ने मर्सिया लिखा और अपना अपना मर्सिया बड़े इमामबाड़े में आलिमों के पास रख आए। सुब्ह को जो जा के देखें हैं तो मीर अनीस का मर्सिया तो वैसा ही लिखा है और मिर्ज़ा दबीर के मरसिए पे पंजे का निशान। पंजे का निशान? तजम्मुल और छन्नूँ मियाँ दोनों की आँखें फटी की फटी रह गईं।

    अली रियाज़ ने बड़े एतिमाद से कहा, हाँ पंजे का निशान। बस जनाब मीर अनीस का तो बुरा हाल हुआ समझे कि मौला की शान में कोई गुस्ताख़ी हो गई। फिर रात हुई। ज़रा आँख झपकी होगी कि घोड़े की टापों की आवाज़ आई। मीर अनीस चौंक पड़े। अली रियाज़ रुका और तजम्मुल और छन्नूँ मियाँ दोनों की आँखों में आँखें डाल के बारी बारी देखा। तजम्मुल और छन्नूँ मियाँ दोनों हैरत से टकटकी बांधे उसे देख रहे थे। और तो और बाक़र भाई की बेनियाज़ी में भी फ़र्क़ चला था। अली रियाज़ फिर बोला, घोड़े के टापों की आवाज़ पास आती गई। बस समझो कि सारा इमामबाड़ा गूंजने लगा। मीर अनीस क्या देखते हैं कि एक सफ़ेद घोड़ा है। उस पे एक बुज़ुर्ग सवार हैं। चेहरे पे सियाह नक़ाब पड़ी हुई, कमर में तलवार। मीर अनीस के बराबर आए और उनके सर पे हाथ रख कर बोले, कि अनीस तू मेरी औलाद है। दबीर मेरा आशिक़ है उसका दिल टूट जाता, मीर अनीस की रोते रोते हिचकी बंध गई। आँख खुली तो घोड़ा घोड़ा सवार। तड़का निकल आया था। मस्जिद में अज़ान हो रही थी।

    अली रियाज़ की दास्तान ख़त्म हो चुकी थी। तजम्मुल और छन्नूँ मियाँ एक डेढ़ मिनट तक अली रियाज़ को तकते रहे फिर उनकी निगाहें बाक़र भाई पे जम गईं। बाक़र भाई ने इक ज़रा लापरवाही से खंखार कर ये साबित करने की कोशिश की कि वो इस दास्तान से कुछ ऐसे ज़्यादा मुतास्सिर नहीं हैं। फिर आप ही आप कहने लगे, मगर इस रिवायत से तो यही साबित होता है कि अनीस ख़ुद मर्सिया लिखते थे।

    मगर साब, बाक़र भाई अब क़मची के इशारे के बगै़र चल रहे थे, अनीस की शायरी वाक़ई इंसानी कलाम नहीं है मोजिज़ा है। बाक़र भाई चंद लम्हों के लिए बिल्कुल ख़ामोश रहे और फिर आप ही आप बड़बड़ाने लगे।

    गोदी है कभी माँ की, कभी क़ब्र का आग़ोश

    सरगर्म-ए-सुख़न है कभी इंसान, कभी ख़ामोश

    गुल पैरहन अक्सर नज़र आए हैं कफ़न पोश

    गह सख़्त है और गाह जनाज़ा ब-सर-ए-दोश

    बाक़र भाई इक ज़रा रुके। उनकी आवाज़ डूबने लगी थी वाह क्या शेअर है।

    इक तौर पे देखा जवाँ को मसन को

    शब को तो छप्पर खट में हैं ताबूत में दिन को

    बाक़र भाई चुप हो गए। अब वो फिर बुत बन गए थे। अली रियाज़, तजम्मुल और छन्नूँ मियाँ पे भी सकता छा गया था। चारों तरफ़ ख़ामोशी छाई हुई थी। अलबत्ता आस पास के नीम और इमली के दरख़्तों में धीमा धीमा शोर ज़रूर बरपा था। हवा बहुत तेज़ तो नहीं थी। उसे मौसम का असर किए कि हवा का कोई झोंका अगर दबे पाँव भी आता तो ज़र्द पत्तों को बहाना मिल जाता और टहनियों से बिछड़ कर फ़िज़ा में तैरने लगते। बहती हुई रेत के रेले में नीम के बहुत से नन्हे नन्हे ज़र्द पत्ते भी गए थे और क़ब्र पे बड़े क़रीने से बिछ गए थे।

    इस नीम बेदार नीम ख़्वाबीदा फ़िज़ा में नीम के दरख़्तों से लेकर कर्बला की दीवारों की मुंडेरों तक हर चीज़ कुछ उजड़ी उजड़ी सी नज़र रही थी और अली रियाज़, तजम्मुल, छन्नूँ मियाँ गुम मथान बने बैठे थे और बाक़र भाई पर मराक़बे की कैफ़ियत तारी थी।

    आख़िर छन्नूँ मियाँ ने इस सुकूत को तोड़ा। उन्होंने बड़े मरे हुए अंदाज़ में अंगड़ाई ली। भई धूप में चटख़ी गई। यहाँ से उठो।

    छन्नूँ मियाँ खड़े हुए। दूसरे भी उठ खड़े हुए। छन्नूँ मियाँ ने इस सिलसिले में मश्वरे या इत्तिला की ज़रूरत नहीं समझी। शायद ना-दानिस्ता तौर पर उनके क़दम बेरियों की तरफ़ उठ गए थे। ये बैरियाँ इस साल अल्लाह दिये ने ले रखी थीं। उसने इस बर्गज़ीदा क़ाफ़िले को बेरियों की तरफ़ आते देखा तो बे-तहाशा पका हुआ था। क़रीब पहुँच कर उसने छूटते ही सलाम किया, मियाँ सलाम।

    सलाम, सिर्फ़ छन्नूँ मियाँ ने सलाम का जवाब देना ज़रूरी समझा।

    बेरियों में दाख़िल होते हुए छन्नूँ मियाँ कहने लगे, साब मौसम अब बदल ही गया। धूप में अच्छी ख़ासी तेज़ी गई है।

    हाँ, तजम्मुल बोला, जाड़े तो अब गए ही समझो। मैं होली के इंतिज़ार में हूँ। होली चली और मैंने बाहर सोना शुरू किया।

    छन्नूँ मियाँ अल्लाह दिये की तरफ़ मुतवज्जे हो गए, अबे अल्लाह दिये कब जल रही है होली?

    अगले शुक्र को जल जावेगी जी। बस छन्नूँ मियाँ बेर भी अगले शुक्र तक के हैं। होली के बाद उनमें कंडार पड़ जावेगी, फिर ज़रा रुक कर बोला, मियाँ बेर खा लो।

    छन्नूँ मियाँ बेज़ार हो कर बोले, मेरे यार दम तो लेने दे।

    अल्लाह दिया चुप हो गया। उसने अपनी रफ़्तार धीमी कर दी और पीछे तजम्मुल के बराबर बराबर हो लिया। कुछ देर वो ख़ामोश चलता रहा फिर आहिस्ता से बोला, तजम्मुल मियाँ कितनी देर है दफ़न होने में?

    आध घंटे से कम क्या लगेगा।

    अल्लाह दिया ख़ामोश चलता रहा फिर ज़रा हिचकिचा कर बोला, तजम्मुल मियाँ जो होनी होवे है वे हो के ही रहवे है। मेरा माथा उसी वख़त ठनका था। मैंने हाशिम मियाँ को मना भी किया पर उन्होने मेरी सुनी नहीं।

    अली रियाज़ चुपचाप पीछे चले रहे थे। इन फ़िक़्रों पर उनके कान खड़े हुए। उन्होंने चाल तेज़ कर दी और पास कर बोले, क्या बात?

    अमां मैं दस रोज़ा के शिकार की बात कर रहा हूँ अल्लाह दिए की आवाज़ अब ज़रा बुलंद हो गई थी, छन्नूँ मियाँ तो साथ था। पूछ लो मैंने मना किया था या नहीं। साला नील कंठ रस्ता काट गया। मैंने कहा कि हाशिम मियाँ लौट चल फिर वन्होंने मुझे डपट दिया। जब हिरनी उठी तो मेरा कलेजा धक से रह गया, अल्लाह दिया चुप हुआ और जब वो फिर बोला तो उसकी आवाज़ ने तक़रीबन सरगोशी का रंग इख़्तियार कर लिया था। अजी दस के हिरन को पिछले महीने हाशिम मियाँ ने मारा था। मेरा दिल अंदर से यो कैवे कि अल्लाह दिए आज कुछ होवेगा। मैंने कहा कि हाशिम मियाँ गोली मत चलाव। पर जी वन्होंने मुझे फिर झिड़क दिया।

    अल्लाह दिया चुप हो गया। बेरियों के पत्ते ख़ामोश थे, हवा शायद बहुत धीमी हो गई थी। सिर्फ़ क़दमों की चाप सुनाई दे रही थी। अल्लाह दिये की झोंपड़ी के क़रीब पहुँच कर सब लोग चारपाई पर बैठ गए। अल्लाह दिये ने हुक़्क़ा भी ताज़ा कर के रख दिया था। छन्नूँ मियाँ ने दो घूँट ख़ामोशी से लिये। फिर आप ही आप कहने लगे। भई अब कुछ ही कह लो मगर हम तो बचपन से शिकार खेलते रहे हैं। हमने तो कभी शगुन-वगुन की पर्वा नहीं की।

    अली रियाज़ बोले, भाई ये नई रौशनी का ज़माना है। आज हम कहते हैं कि साहब बड़े बूढ़े लोग बड़े दक़यानूसी थे, तौहम परस्त थे मगर साहब उनका कहा हुआ आज भी पत्थर की लकीर है।

    तजम्मुल ने बे-साख़्ता टुकड़ा लगाया, ये वाक़िया है।

    अली रियाज़ की बात जानदार थी। छन्नूँ मियाँ को मजबूरन बाक़र भाई से रुजू करना पड़ा, बाक़र भाई आप का क्या ख़याल है?

    बाक़र भाई फिर अपने इसी मुज़बज़ब से लहजे में बोले, अल्लाह बेहतर जानता है, क्या भेद है, वैसे हमने बहुत सी रस्में हिंदुओं से ली हैं। इस्लाम तो शगुन-वगुन का क़ाइल है ही नहीं

    छन्नूँ मियाँ की बात की ताईद हुई थी। फिर भी उन्होंने इस जवाब पे कुछ बे इत्मिनानी सी महसूस की। अली रियाज़ चंद लम्हों तक बिल्कुल गुमसुम रहा फिर बड़बड़ाने लगा, उसके भेद वही जाने। अजब तिलिस्मात है ये दुनिया। बाक़र भाई की नियत जवाब देने की नहीं थी, बस यूँ ही बैठे बैठे कहने लगे, मियाँ हम तो ये जानते हैं कि तक़दीर में जो लिख गया वो मिट नहीं सकता।

    बाक़र भाई फिर किसी दूसरी दुनिया में जा पहुँचे, अली रियाज़, तजम्मुल और छन्नूँ मियाँ गुम मथान बने बैठे थे। हवा का तनफ़्फ़ुस बहुत धीमा हो गया था मगर बेरियों के पत्तों में एक दबा दबा सा शोर था। कुछ ऐसा शोर कि बच्चे चोरी छिपे कुछ कुतर कुतर कर खा रहे हैं। अल्लाह दिये ने जल्दी से गोपिया उठाई और उसमें ईंट रख कर आगे चला बेरियों के बीचों बीच। दरख़्तों के घने साये में पहुँच कर उसने गोपिया घुमाई और साथ में हलक़ से ललगाने की आवाज़ भी निकाली। बेरियों के पत्तों में यकायक एक हंगामा पैदा हुआ और तोतों की एक डार चीख़ती चिल्लाती तेज़ी से पत्तों की तह से उठी और फ़िज़ा में एक उल्टी सीधी सब्ज़ धारी बन कर फैल गई। गोपिया ने दोहरा तिलिस्म पैदा किया उसके इशारे से सब्ज़ तोते आसमान की तरफ़ उठे और सब्ज़ सुर्ख़ बेर ज़मीन पे गिरे। अल्लाह दिये ने सुर्ख़ सुर्ख़ बेरियों से गोद भरी और उसे मेहमानों के सामने जा कर ख़ाली कर दिया। कहने लगा, मियाँ पोंडा बेर है पक्के पक्के बीन के लाया हूँ। ज़रा यूँ चख के देखो।

    बाक़र भाई ने किसी क़िस्म का इज़हार-ए-ख़याल नहीं किया। हाँ अली रियाज़ ने उनकी खट मिट्ठे होने की तारीफ़ की। छन्नूँ मियाँ का ख़याल था अगर पिसा हुआ नमक होता तो लुत्फ़ जाता। तजम्मुल बेर खाते खाते पूछने लगा, अबे अल्लाह दिये बेरियों से तू ने अच्छा कमा लिया होगा?

    अल्लाह दिया बड़े अफ़्सुर्दा से लहजे में बोला, अजी तजम्मुल मियाँ इन बेरों से क्या बैंक लगेगी। अब की बरस बड़ा घाटा आया है। आमों की फ़सल सूखी निकल गई। सारी रक़म डूब गई। सिंघाड़ों की बेल ली थी, दसे जोंक लग गई। तजम्मुल मियाँ बस अपनी तो बधिया बैठ गई। सिंघाड़ों की बेल से अल्लाह दिया का ज़ेह्न किसी और तरफ़ मुंतक़िल हो गया। उसका रुख़ छन्नूँ मियाँ की तरफ़ हो गया। अजी छन्नूँ मियाँ वे पोखर थी नहीं अपनी दस पे आज कल मुर्ग़ाबी बहुत गिर रई ऐ।

    छन्नूँ मियाँ चौंके, अच्छा।

    हाँ मियाँ।

    देख लें किसी दिन।

    अल्लाह दिया बोला, तो छन्नूँ मियाँ उस साले जानवर का भरोसा नहीं ऐ। बस चलना है तो जल्दी चले चलो। किसी दिन पोह फटने से पहले तारों की छाओं में चलो। तड़के तड़के घर पे आन लगेंगे।

    छन्नूँ मियाँ जवाब देने ही वाले थे कि अली रियाज़ बीच में बोल उठा। उसकी आँखें दूर क़ब्रिस्तान की तरफ़ देख रही थीं और वो कह रहा था, यार लोग तो वापस जा रहे हैं। हद हो गई, हम यही बैठे रह गए।

    छन्नूँ मियाँ, अली रियाज़, तजम्मुल, बाक़र भाई चारों उठ खड़े हुए। बेरियों से बाहर निकलते हुए अल्लाह दिये ने फिर छन्नूँ मियाँ को ठोका, तो छन्नूँ मियाँ कब चल रए ओ?

    छन्नूँ मियाँ दिल ही दिल में हिसाब लगाते हुए बोले, कल? कल नहीं परसों नतीजा है। हाँ तरसों जाइओ। मगर दिन चढ़े से पहले पहले वापस आना है।

    अल्लाह दिया गरमा कर बोला, दिन चढ़े,? क्या कह रए छन्नूँ मियाँ। अजी, फ़ज्र की नमाज़ मस्जिद में के पढ़ेंगे।

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