फिस्लन
जमील का तो इस तरफ़ ख़्याल तक न गया था, मगर ज़ाकिर के ग़ैर मुतवक़्क़े तर्ज़-ए-अमल ने उस के दिल में भी दिलचस्पी, वर्ना कम से कम खुरचन सी तो ज़रूर पैदा कर दी। वो हुआ यूं कि एक दिन मर्दाने में ज़ाकिर जमील की कमर में हाथ डाले पलंग पर बैठा था कि यकायक अंदर से नज़रु नमूदार हुआ। उसने एक लम्हे के लिए ठिटक कर कमरे के बाशिंदों का जायज़ा लिया, और फिर शाने चौड़े किए, सीना उठाए, अपनी मोटी मैली सूती बनियान की, जिसके मुख़्तलिफ़ रंग अर्से के इस्तिमाल से घुल मिल कर अब एक चित्तियों दार भूरी रंगत में तबदील हो चुके थे, आधी आस्तीनों से निकली हुई बाँहों और टख़नों से ऊंची धारीदार तहमद हिलाता, बग़ैर किसी तरफ़ देखे अपने गले के स्याह डोरे को हाथ से घुमाता हुआ लापरवाई से सीधा मेज़ की तरफ़ चल दिया। नज़रू के दाख़िल होते ही ज़ाकिर की भंवें ऊपर उठ गई थीं, और उसकी आँखें नज़रू के चेहरे पर गड़ चुकी थीं। नज़रू के चलने के साथ साथ ज़ाकिर की आँखें भी उसके पीछे पीछे चलीं और जमील के कंधे को झटका देकर बायां हाथ अपने घुटने पर फ़ैसलाकुन अंदाज़ से रखते हुए एक भौं ऊपर चढ़ा कर और दूसरी नीचे खींच कर तिरछी सलवटों से जुते हुए माथे और तंज़ से मुस्कुराती हुई आँखों के साथ पूछा, ये कौन साहिब हैं भई?
अरे! तुम्हें नहीं मालूम? और उसके यहां ज़ाकिर की आमद-ओ-रफ़्त की तादाद को देखते हुए जमील का ताज्जुब बेजा भी न था। ये नौकर है हमारा नया... नज़रू... कमाल है यार, तुम्हें अब तक ख़बर न हुई... हैं?
इस सवाल के जवाब की अहमियत पर ग़ौर किए बग़ैर, ज़ाकिर ने कहा, यानी आपको भी ये शौक़ हुआ। ये कब से? क्या इरादे हैं आख़िर? उसकी शक-ओ-शुबहा से भरी हुई आँखों की तेज़ी और चमक, और उनके झुके हुए किनारों के साथ अब दो होंट भी हँसने के लिए खुल चुके थे।
जमील का दिल न चाहता था कि इस गुफ़्तगु को महज़ मज़ाक़ से ज़्यादा वक़अत दे, मगर इस नुक़्ता-ए-नज़र के अनोखेपन ने उसे ऐसा मजबूर कर दिया कि शाम तक जितनी मर्तबा भी नज़रू उस के सामने आया, उसने उसे ऊपर से नीचे तक देखकर इस नज़रिया की सदाक़त मालूम करने की कोशिश की, मगर हर दफ़ा यही फ़ैसला करना ज़्यादा ख़ुशगवार मालूम हुआ कि ज़ाकिर सिर्फ़ उसे चिड़ा रहा था। ताहम उसे अपने नए नौकर की शख़्सियत कुछ अजीब-ओ-ग़रीब, अजनबी और पुर रम्ज़ ज़रूर मालूम हो रही थी, आज से नहीं बल्कि पहले ही दिन से। वो आकर बड़े ला उबालियानापन से हाथों को पेट के ऊपर एक दूसरे पर रख कर धूप में जा खड़ा हुआ था। और हाँ, उसने किसी को सलाम तक न किया था। जब उस से नौकरी करने को पूछा गया तो उसने पूरे एतिमाद के साथ कहा था, हाँ हाँ, जी। क्यों न करेंगे? उसे दावा था कि वो हर काम कर सकता है। जब उस से तनख़्वाह के मुताल्लिक़ सवाल किया गया तो उसने अपना ज़र्दी माइल बेरंग लंबा साफा उतारा, और उसे झाड़कर दुबारा बाँधते हुए ऐसे अंदाज़ में कहा गोया तनख़्वाह आख़िरी चीज़ थी जिससे उसे दिलचस्पी हो सकती थी। अजी, जो भी दिल चाहे दे देना। और उसने तीन रुपये पर कोई एतराज़ किया भी नहीं। दो दिन तक वो बहुत ख़ामोशी और सुस्ती से अपना काम करता रहा, मगर तीसरे दिन उसने बिल्कुल ग़ैर मुतवक़्क़े तर्ज़-ए-गुफ़्तुगू इख़्तियार किया। जब जमील स्कूल जाने से पहले बावर्चीख़ाना में बैठा खाना खा रहा था तो नज़रू ने निहायत राज़दाराना लहजे में कहा, अजी आज एक साली अजीब बात हुई...सुनाऊं मैं जमील मियां, विस को तुम्हें? नज़रू के तने हुए कान, गोल-गोल फिरती हुई आँखें, हंसी में खुले हुए होंट, उसकी नाक के दोनों तरफ़ सुर्ख़ी की झलक, और गालों में पड़े हुए गढ़े को देखकर जमील हिचकिचाया और उसके मुँह से नवाले में से फंसती फंसाती एक नीम रज़ामंद 'हूँ' निकली। नज़रू को इसकी ज़रूरत भी न थी। ये जो बराबर में लाला रहते हैं ना, अजी यही दीवार तले। नज़रू हर शख़्स और हर चीज़ की बहन के बारे में अपने फ़ासिद ख़यालात का बिला झिजक इज़हार किया करता था। और इस वक़्त भी वो उसे छुपा न रहा था। तो आज जो मैं ज़रा कोठे पे गया जमील मियां, तो क्या देखा कि विस की बीवी साली, बस बिल्कुल वैसे ही बैठी थी...बस एक साड़ी लपेट रखी थी विस ने। और अब क्या बताऊं भई लो...लाहौल बिला, लाहौल बिला। सब दिखाई दे रहा था...तो जी, इतने में विस का मियां...लाला। नज़रू और क़रीब खिसक आया था और जमील का सारा चेहरा गुलाबी हो गया था, और वो जल्दी जल्दी निवाले तोड़ रहा था। तो जी विस ने आते ही विस के ले के पलंग... जमील के फंदा लग गया और वो खॉँसता हुआ घड़ों की तरफ़ भागा, और पानी पी कर सीधा चल दिया। उसके किसी नौकर ने कभी उससे ऐसा ज़िक्र न किया था। इस चीज़ ने उसे शश-ओ-पंज में डाल रखा था। और फिर आज की ज़ाकिर की बातें। वो निहायत मज़बूत दलीलों और मिसालों से उस सबकी अहमियत कम करने और उसे कोई ग़ैरमामूली चीज़ न समझने की कोशिश कर रहा था, मगर फिर उसे अपने फ़ैसलों पर एतबार न आता था।
अगले दिन तक ये बात स्कूल में पहुंच गई। दरमियानी वक़फ़े में जब नौवीं क्लास के लड़के नीम के पेड़ के नीचे जमा हुए तो एक पूरी टोली ने जमील को घेर लिया।
ऊंचे जा रहे हैं भई जमील भी आजकल।
ख़ैर मियां शुक्र करो, ये इस क़ाबिल तो हुए।
अबे हटा। ये! उस मरे यार से आता ही क्या है सिवाए घोटने के, किसी के सामने बात तो कर नहीं सकता, बड़ा बना है कहीं का वो।
मक्खियां मारोगे बेटा। मिर्ज़ा बेदार बख़्त ने नसीहत की। सब भूल जाओगे ये फ़र्स्ट वर्स्ट आना।
जमील इन सब के जवाब में झेंप झेंप कर रूखी हंसी हंस रहा था और ख़ाली निगाहों से उनके चेहरे देख रहा था। लेकिन वो उसे वक़्ती तफ़रीह समझ कर टला न सकता था। और शुबहों के साथ साथ उसकी दिलचस्पी भी बढ़ती जा रही थी। वो उन चीज़ों से भी वाक़िफ़ होना चाहता था जिसका ये सब लोग ज़िक्र कर रहे थे और जिसका तख़य्युल उसके दिमाग़ में निहायत ग़ैर वाज़िह सा था। वो भी अली बाबा के ग़ार में दाख़िल होना चाहता था।
उसी दिन दोपहर को मिर्ज़ा बेदार बख़्त ज़ाकिर को साथ लेकर जमील के यहां नमूदार हुए। उन्होंने उसका पहले ही से ऐलान कर दिया था। मिर्ज़ा जी को बड़ी प्यास लगी हुई थी। नज़रू उन्हें पानी का गिलास देकर खड़ा हो गया और अपना सर खुजाने लगा। मिर्ज़ा जी ने पानी का गिलास वापस नहीं दिया। वो दो मिनट तक उसका जायज़ा लेते रहे और फिर बोले, कहो दोस्त, क्या नाम है तुम्हारा?
हमारा नाम? क्या करोगे पूछ के हमारा नाम? उसने बेतवज्जुही से कहा।
कुछ बुराई है पूछने में?
हमारा नाम है सय्यद नज़ीर अली! नज़रू ने बतलाया।
और नज़रू? मिर्ज़ा जी ने पूछ लिया।
अब हम ग़रीब आदमी हैं, चाहे जो कह लो।
रहने वाले कहाँ के हो तुम? अच्छा बैठो, बैठो, बातें करनी हैं तुमसे।
नज़रू पलंग के क़रीब कुर्सी खींच कर बैठ गया। यूं तो कभी कभी उसे कुर्सी पर बैठने में जमील का लिहाज़ न होता था। लेकिन इस वक़्त उसकी नशिस्त बता रही थी कि वो अपने आपको मुवाख़िज़े से मामून समझ रहा है।
उसने माथे और सर पर अपना चौड़ा और मोटा हाथ फेरते हुए कहा, अजी क्या पूछो हो... हम ग़रीबों का रहना रहवाना।
अबे साले? मिर्ज़ा जी ने पहलू बदल कर डाँटा। अकड़ गया कुर्सी पे बैठ के! बताता है कि की जाये क़ानूनी कार्रवाई तेरे साथ।
नज़रू एक दम हंस पड़ा। उसका हाथ सर से घुटने पर आगया। पीछे खिसक कर उसने मानूस और मुसालहाना अंदाज़ में टांगें फैला लीं। और बग़ैर किसी मज़ीद, गो मुतवक़्क़े, सवाल के अपनी पूरी सवानिह हयात सुना डाली, रहने वाले तो हम हैं इनायतपूर के। हमारे वालिद हैं सय्यद मक़बूल अहमद। देखा होगा आप ने। बहुत आते हैं वो तो शेर। मिर्ज़ा जी के इनकार से मायूस हुए बग़ैर उसने और ज़्यादा एतिमाद के साथ दूसरी शहादत पेश की। अच्छा, तो ये हैं न सय्यद अशफ़ाक़ अली। ये बज़ार के नुक्कड़ पर जो रहवें हैं... मोटे से... बड़ी बड़ी मूँछें फोटोग्राफ के रकाट बग़ल में दबाए जो फिरते हैं। यही तो हैं हमारे ख़ालू।।। सगे ख़ालू हैं ये हमारे।।। तो अब्बा जो थे हमारे।।। वो थे इस क़द रुके ज़ालिम के बस। जब मैं पढ़ने ना जाता तो मार देवें थे ऐसी बोदी कि दस साल का था मैं विस वख़त। एक दिन जो मारा उन्होंने मुझे, तो मुझे आया बड़ा ग़ुस्सा, में भाग कर बदलो जुलाहे की फुलिया पे जा बैठा। विस ने मस से कहा चल-बे दिल्ली।।। शीशे के कर ख़ाने में। मैं वसी के साथ चल दिया। बस जी वो दिन है और आज का दिन। कुसुम ले लूम्स से जो फिर घर में झाँका भी हूँ। पाँच साल हो गए और फिर वालिद ने की भी बड़ी कोशिश, लेकिन मैं वन के ना आया झांसे में।।।दिल्ली में मैं शीशे के कर ख़ाने में नौकर हो गया था। कर ख़ाने वाला बस बेटे के बराबर समझता था मुझे, जो चीज़ चाहे उठाऊं चाहे रखों। और पैसों के मुआमले में बिचारे ने कभी मुझसे ना नहीं की। बड़ी मुहब्बत थी वसे मस से। एक दिन में राँग आग पे रुख के ज़रा नीचे बज़ार में उतर गया। वहां एक लौंडा साला करने लगा मजाख़, बस इसी में देर हो गई। आके जो देख मैंने तो राँग उल्टा पड़ा था। कर ख़ाने वाला बहुत बिगड़ा मुझपे। ख़ैर ऐसी बात का तो मैं बुरा भी ना मानता, पर वो मुझे गाली दे बैठा। वख़त की बात आग लग गई मेरे बदन में। मैं विस से लड़के निकल गया। कई दिन फिरा वो मेरे पीछे पीछे। ख़ुशामद करतावा कि चल, चल, इत्ती सी बात का बुरा मान गया। परसाब, ये देख लू कि मैंने ही ना सुनी विस की बात। सय्यद ठहरे फिर हम भी। कोई रईयत थे विस की। विस से कह दिया मैंने कि लय तेरी ख़ातिर हमने दिल्ली भी छोड़ी। बस में वहां से यहां चला आया।
इस दिन से मिर्ज़ा जी, और ख़ुसूसन ज़ाकिर की आमद-ओ-रफ़्त पहले की निसबत बहुत बढ़ गई। लेकिन जमील महसूस कर रहा था कि इस की कमर के गर्द ज़ाकिर के हाथ की गिरिफ़त बहुत कमज़ोर पड़ गई है। इन दोनों को आते ही पानी या पान की ज़रूरत पेश आती थी। और जितनी देर वो बैठते, इसका ज़्यादा हिस्सा नज़रो से दल के बाज़ारों, गलीयों, कारख़ानों, और सड़कों के मुताल्लिक़ मालूमात हासिल करने में गुज़रता। नज़रो की वो पहले वाली कसालत, सस्ती और ख़ामोशी सिरे से ग़ायब हो चुकी थी।अब उस की चाल में फुर्ती आचुकी थी, और वो दिन में तीन चार बार मुँह हाथ धोने लगा था। इस का साफा अब बावर्चीख़ाने की खिड़की में पड़ा रहता था और इस के छोटे घुंगराले बाल, जिन पर पहले ख़ुशकी जमी रहती थी, कड़वे तेल से स्याह ओ रचमकदार नज़र आने लगे थे। वो अपने बनियाइन और तहमद को भी एक दफ़ा कुवें पर पिछाड़ चुका था।इस की टीन की डिबिया अब कभी बेड़ियों से ख़ाली नहीं नज़र आती थी। बल्कि उस के गले का डोरा भी रेशमी हो गया था। बातूनी भी वो इस बलाका हो गया था कि उसके दिल्ली के मुताल्लिक़ क़िस्से कभी ख़त्म ना होते मालूम होते थे। लेकिन मर्ज़ अजी और ज़ाकिर उसे दो अच्छे सामईन मिल गए थे। और इन दोनों से तो उस के ताल्लुक़ात तरक़्क़ी करके दोस्ताने के लग भग पहुंच गए थे। उन्हें नज़रो के मुँह की झूटी बीड़ियाँ पीने में ज़रा ताबल ना होता था। वो उसे यार दोस्तों की सी गालियां भी दे लिया करते थे, हालाँकि वो एक मर्तबा जमील के गधाकह देने पर भड़क उठा था। जब वो मिर्ज़ा जी के जूते छुपा देता तूम रज़ा जी उसे पकड़ कर फ़र्श पर गिरा देते और इस के गालों और सीने पर चुटकियां लेते, यहां तक कि वो जूतों का पता बता देता। जमील ने अक्सर अंदर से निकलते हुए ज़ाकिर की बाँहों को नज़रो के गले में देखा था, मगर वो उस के सामने आते ही हटाली जाती थीं। नज़रो ने जमील का कहना मानना बिलकुल छोड़ दिया था। वो उस की बात को इन-सुनी कर देता था। जब जमील पढ़ता होता तो वो सामने चारपाई पर उल्टा लेट कर ऊंची झनझनाती आवाज़ में गाने लगता। मेरी जां जलफ़ के फंदे बनाना किस से सीखे हो। या जानी जबना पे इतना ना इतराया करो।वो जमील के मना करने पर भी ना मानता, और हंस हंसकर दूसरा गीत शुरू कर देता। वो चले फटक के चावल मरी मंगनी और ब्याह के। जब जमील ज़बत की आख़िरी हद पर पहुंचने के बाद ग़ुस्से में दाँत कचकचाता, जूता लेकर सीधा खड़ा हो जाता तो वो जूता छीन कर भाग जाता और फिर हाथ ना आता। आख़िर जमील रोनखा हो जाता और फिर इस से ना पढ़ा जाता। वो तहय्या कर लेता कि आज ज़रूर वो नज़रो को अब्बा के सामने मारेगा और घर से निकाल देगा। लेकिन जब थोड़ी देर बाद नज़रो आकर लजाजत से कहता जमील मियां, मजाख़ का बड़ा मान गए। तो वो अपने इरादे में तरमीम कर लेता और नज़रो के सर पर दो तीन थप्पड़ जमा कर, जिसमें शायद उस की बारीक उंगलीयों को ही ज़्यादा तकलीफ़ पहुँचती होगी, अपना ग़ुस्सा भुला देता। मगर इस सब के मअनी ये नहीं हैं कि नज़रो को जमील का ख़्याल नहीं था। बग़ैर कहे ही वो जमील का हरकाम तैयार रखता था। इस के जूते कभी मैले नहीं रहते थे, और ना उस के कमरे में गर्द का निशान। नज़रो उस का सरपरस्त और मुहाफ़िज़ बन गया। वो हमेशा जमील को किताबें साफ़ रखने में, अंधेरे में घर से बाहर निकलने में, ग़रज़ हर बात में बुजु़र्गाना हिदायतें और नसीहतें किया करता । वो मिर्ज़ा जी और ज़ाकिर को भी उसे ज़्यादा तंग ना करने देता था। जमील को नज़रो की ये हैसियत जो उसने क़ायम करली थी, गिरां तो ज़रूर गुज़रती थी, और वो अब अपने दोस्तों के सामने नज़रो की मौजूदगी में अपने आपको एक कम एहमीयत वाली शख़्सियत महसूस करने लगा था। लेकिन इस के दिल में कभी कभी सिर्फ एक हल्की और ग़ैर वाज़िह झुँझलाहट सी महसूस हो कर रह जाती थी। चुनांचे उसने निहायत आसानी से नज़रो को अपने ऊपर मुसल्लत होजाने दिया। मिर्ज़ा जी और ज़ाकिर के नज़रो की तरफ़ मुतवज्जा हो जाने से अब वो उसे परेशान ना करते थे, और वो अपने आप को कुछ हल्का सा पाता था। नज़रो की ख़बर-गेरी और तवज्जा से इस के काम बग़ैर किसी तकलीफ़ के हो जाते थे और अब उसे अपनी किताबों और रिसालों के रूमानी अफ़्सानों में वक़्त गुज़ारने का पहले से बहुत ज़्यादा मौक़ा मिलने लगा था इसलिए उसने नज़रो और इस के बरताओ को बग़ैर कोई एहमीयत दीए या बग़ैर किसी तशवीश के यूँही चलने दिया और अपने पहले इस्तिजाब को तहलील होजाने दिया।
लेकिन इस का इस्तिजाब दुबारा ज़िंदा हुआ। वो उस वक़्त जब मिर्ज़ा जी और ज़ाकिर की आमद-ओ-रफ़्त बढ़ने के बाद फिर घटते घटते बहुत कम रह गई थी।
इस के मिलने वालों के दो गिरोह थे।एक तो उस के साथी, नौवीं क्लास के कुछ लड़के,ये सब इस से काफ़ी बड़े थे और सब अपने अपने अस्त्रों का इंतिख़ाब कर चुके थे। ये जमील की तरह दुबले पुतले कमज़ोर और मुनहनी ना थे, बल्कि उनकी चौड़ी हड्डियां, उठे हुए कंधे और भरे हुए डनडथे। ये लोग जब आते तो इस से अलग हो कर बैठना तो जानते ही ना थे। वो कभी तो इस की गर्दन में हाथ डालते, कभी उसे सीने से लिपटा कर भींचते, यहां तक कि इस का चेहरा सुर्ख़ हो जाता और इस की पिसलियाँ टूटने सी लगतीं। कोई उसे गोद में बिठाता, कोई उस के सीने की खाल खींच खींच कर लाल कर देता, कोई उस के बाल बिखेर देता। और फिर उन लोगों की चमकती हुई आँखों और फड़कते हुए नथनों और फैले हुए होंटों से मालूम होता कि उनकी तसकीन नहीं हुई है। उनके जाने के बाद वो थक कर बिलकुल चूर हो जाता, उस के दिमाग़ से हर किस्म के ख़्यालात ग़ायब हो जाते और वो अफ़्सुर्दगी से चारपाई पर पड़ा रहता। बाअज़ दफ़ा तो ऐसा मालूम होता था कि इस के गालों पर ऐसा लैसदार थूक लप जाता कि उसकी खाल खींचती हुई मालूम होने लगती। दो दो तीन तीन मर्तबा मुँह धोने के बाद भी उसे महसूस होता कि ये नजासत उस के चेहरे पर इसी तरह नुमायां है और वो ग़ुस्ल-ख़ाने से निकल कर घरवालों की नज़रों से बचता हुआ सीधा अपने कमरे में चला जाता।इतने लोगों को अपना मद्दाह पाकर उसे एक गोना तसल्ली तो ज़रूर होती थी। मगर उसे उनकी ये हरकात अजब मुहमल और लगू नज़र आती थीं। उनका मक़सद उस के लिए मुबहम और मशकूक साथा, ऊर्णा उस की मितानत ने उन लोगों को इन हरकात की ग़रज़-ओ-ग़ायत को ज़्यादा वाज़िह करने दियाथा। जब वो जाते तो उस के लिए बस इतना छोड़कर जाते, थका मांदा जिस्म, दुखती हड्डियां, निचे हुए गाल, गर्म कनपटियां, दर्द करता हुआ सर और चिड़चिड़ा मिज़ाज। और फिर उनसे बचना भी ख़ुशगवार नताइज पैदा ना कर सकता था। ये मुम्किन था कि वो अंदर से कहलवा दिया करे कि वो घर पर मौजूद नहीं है, लेकिन उसने ख़ुद देखा था कि एक मर्तबा शम्सुद्दीन ने शर्त बद कर घूँसे से कुर्सी का तख़्ता तोड़ दियाथा और इनायत अली के हाथ की क़ुव्वत तो ख़ुद उस की उंगलियां पंजा लड़ाने में महसूस कर चुकी थीं।
मिलने वालों के दूसरे गिरोह में नीची क्लासों के लड़के थे। छुट्टी से लेकर आठवीं तक। ये सब जमील के हमउमर या इस से कुछ छोटे थे। ये लोग पहले गिरोह की ग़ैरमौजूदगी में आते थे और इन्ही में जमील को ज़्यादा खुल कर हँसने बोलने और तफ़रीह करने का मौक़ा मिलता था।फिर उन पर इस का रोब भी ख़ासा था। अगर वो कभी ज़रा नाराज़गी का इज़हार करता तो सबकी हंसी रुक जाती थी और वो मुजरिमाना नज़रों से एक दूसरे को दीकेन लगते थे। ताहम वो बड़ी हद तक उनके मज़ाक़ का बुरा भी ना मानता था। बाअज़ बाअज़ दिन तो जब वो दोपहर की गर्मी और ख़ामोशी में बेचैनी से अकेला करवटें बदलता होता और कहीं सातवें क्लास वाला मज़हर आ निकलता तो इस का दिल तेज़ी से हरकत करने लगता। अपनी क़मीज़ के दामन को हाथों से टांगों के क़रीब थामे हुए वो मज़हर को किसी बहाने कोने की तरफ़ ले जाता और इस का कंधा पकड़ कर हिचकिचाते हुए जल्दी से इस के गाल पर अपने होंट रख देता और फ़ौरन पीछे हटा लेता। गाल ठंडा, चिकना और फीका सा होता, मगर उसे महसूस होता कि इस की बेचैनी यकलख़त मद्धम पड़ गई, उसे अपनी ये हरकत कुछ बेमानी और अहमक़ाना सी मालूम होने लगती। वो दिल ही दिल में हैरत से हँसता। फिर कुछ शरमाकर बैठ जाता। और मज़हर से इस की पढ़ाई के बारे में पूछने लगता।
ग़रज़ इसी गिरोह ने जमील को दुबारा नज़रो की तरफ़ मसतफ़सराना नज़रों से देखने पर मजबूर किया। उसे मालूम ना था कि इन लोगों में भी नज़रो के बारे में चिमीगोइयां हो रही हैं। एक दिन नज़रो की मौजूदगी में, मुश्ताक़ ने मज़ाक़ और क़हक़हों और चीख़ों के दरमयान अपनी आवाज़ को बुलंद करने की कोशिश करते हुए कहा भई आज ये तै करो कि दोनों में से कौन अच्छा है, मालिक या नौकर। अपने नौकर को इस नई रोशनी में देखे जाने के ख़ौफ़ से जमील की नाक के दोनों तरफ़ सुर्ख़ी झलक आई और उसे अपनी खाल सिकुड़ती हुई मालूम होने लगी। मगर उसने इस तरकीब में अपनी आख़िरी उम्मीद समझते हुए मसरूर को ज़ोर से धक्का दिया। अबे, मेरे ऊपर ग्राही पड़ता है। उसे तवक़्क़ो से ज़्यादा कामयाबी हासिल हुई थी। मसरूर के धक्के से मेज़ गिर पड़ी, और उसने सबको किताबें चुनने में लगा दिया।
अब जमील की आँखें ज़्यादा तजस्सुस से और शक आमेज़ हैरत से नज़रो के चेहरे और जिस्म को टटोला करती थीं। मुश्ताक़ ने ऐसा ज़िक्र छेड़कर उस के जज़बा इफ़्तिख़ार को एक बेपनाह ठेस लगा दी थी। उसने अपने दोस्तों के दूसरे गिरोह से भी मिलना अब बहुत कम कर दिया था। क्योंकि उसे उनके मुत्तफ़िक़ा फ़ैसले का, जो मुम्किन था उस के ख़िलाफ़ होता बहुत डर था। मगर वो इस ख़्याल को अपने दिल से किसी तरह दूर ना कर सका। इसी लिए वो अपने ख़तरों को दलीलों से दूर करने की पैहम कोशिश करता कि एक नफ़रत आमेज़ हिना के साथ उस की हर तरफ़ से नज़रें फेर ले। नज़रो की उंगलियां, वो सोचा करता, कैसी मोटी मोटी गँवारों की सी हैं और इसी तरह उस के भद्दे पैर, बग़ैर बालों वाली पिंडुलियां केले के पेड़ जैसी हैं, बीच में से मुड़ा हुआ, एक दाँत आधा टूटा, अद्रक की गाँठ जैसे कान, छोटी और घुन्नी गर्दन, फैलाहुआ पेट, गालों में हंसी के वक़्त गढ़े पड़ जाते हैं जैसे बाज़ारी औरतों के एक नफ़रत आमेज़ हिना! लेकिन इस हिना के बावजूद वो उसे दूसरी दफ़ा देखने पर मजबूर होता। इस के गंदुमी रंग में सफ़ेदी की छींट है। आँखों के नीचे हड्डीयों पर तो ज़रा सी सुर्ख़ी भी झलकती है, खाल तनी हुई है मगर चिकनी और चमक दार। ठोढ़ी क्या गोल है! चाल के लाव बाल्य पन में ना मालूम ये हल्की सी कशिश क्यों है। आँखें गोल मटोल सही, मगर मुतजस्सिस और चमकती हुई। इस की गर्दन पर ज़रा मेल नहीं जमता। बाज़ूओं की मछलियाँ कैसी हरकत करती हैं। चेहरा गोलाई लिए हुए है। जमील ख़ुद अपनी राय से भी ख़ौफ़-ज़दा हो जाता और फ़ौरन कोई किताब उठा लेता। जो दस मिनट से ज़्यादा उस की मदद ना कर सकती। आसतीनें ऊपर खींच कुरोह अपनी बाँहों को ऊपर से नीचे तक देखता, गंदुमी रंग, पतली पतली लकड़ियाँ सी, हल्के हल्के बाल। कुछ मुतमइन हो कर वो अपने चेहरे पर हाथ फेरता। एक नरम, निहायत नरम , रोई की तरह। ।। और चिकनी सतह परइस की उंगलियां फसलतीं। यक़ीन को ऐनुलयक़ीन बनाने के लिए वो आईना उठा लेता। बड़ी बड़ी स्याह, बादामी, लंबी पलकों वाली आँखें आईने में से देखकर उस की तरफ़ झा नकतें।उसे ऐसी ख़ुशी होती गोया उसने कोई नई दरयाफ़त की है। दूध जैसे सफ़ैद और बुलंद माथे पर स्याह चमकदार बालों की , जिनमें पीछे की तरफ़ हल्का सुनहरा रंग झलकता था, कोई लुट पड़ी होती, ज़रदी माइल सफ़ैद रंग में आँखों के नीच काफ़ी दूर तक सेब की सी सुर्ख़ी मिली हुई है। नाक लंबी मगर पुतले होंट ख़ासा नियम-उल-बदल हैं। कानों के लम्बान को बाल छिपा लेते हैं। थोड़ी चपटी है।।। है तो हुआ करे, रंग तो गोरा है। चेहरा गोल नहीं है।।।आनहा।।। गोल चेहरे ही में कौन सी ख़ूबसूरती लगी हुई है। ऊपर के होंट पर हल्के हल्के बाल नज़र आने लगे हैं। ।। मगर ऐसा रवां तो जमील ने कई औरतों के भी देखा था।।। अपनी पतली कमर की बदौलत वो अपने दुबले पिन को भी माफ़ कर सकता था।
ये नज़रिए इतमीनान बख़श तो ज़रूर थे, मगर मुवाज़ने का ख़्याल जमील के सामने एक ऐसे घिनाओने इफ़रीयत की शक्ल में आता था जो अपनी ज़हर नाक हासिदाना नज़रों से नाक और कानों को खींच खींच कर दुगना लंबा कर देता। ठोढ़ी को फैलाते फैलाते दहलीज़ बना देता। चेहरे को हर तरफ़ से पीट पीट कर कानें निकाल देता। इस के रंग को हल्दी की तरह दिखलाता और इस की सेब की सी सुर्ख़ी को धुँदला देता। ऊपर के होंट के हल्के हल्के बाल गहरे और घने होने शुरू हो जाते और जमील पेचोताब से तंग आकर उन्हें नाख़ूनों से खींचने लगता।
मगर नज़रो का तर्ज़-ए-अमल बदल रहा था। अब वो पहले से ज़्यादा उस का ख़्याल रखने लगा था। अब वो उस का कहना मानने से इनकार ना करता था और कम से कम जमील के पढ़ते वक़्त वो बिलकुल ना गाता था। बल्कि अब तो इस की ग़ज़ालों का इंतिख़ाब भी इस्लाह पज़ीर था और इस का दिल पसंद गाना अब ये था करेगा क्या अरे सय्याद तो जंजीर के टुकड़े। अब वो जमील के कमरे की तरफ़ ज़्यादा रहने लगा था। जमील पढ़ता रहता और वो एक तरफ़ कुर्सी पर बैठा अपना सर खुजाया करता और बाज़-औक़ात तो ऊँघने भी लगता। ना मालूम उसे क्या समागई थी कि वो अपनी उम्र जमील से कम साबित करने के लिए बहुत बेक़रार रहता था, बैठे-बैठे वो जमील को पढ़ने से रोक कर कहता ज़रा हिसाब तो लगाना जमील मियां, कि मैं कुत्ते बरस का हुआ।।। जब मैं पढ़ने बैठा हूँ तो आठ साल का था। मैं तो आठ और दो दस और पाँच पंद्रह। छोटा ही हुआ ना मैं तुमसे?
जमील चिड़ सा जाता, उसे महसूस होता कि नज़रो अपनी बरतरी जताना चाहता है। एक दूसरी चीज़ भी जमील को बहुत नागवार गुज़रती थी। जब वो अपनी किताब में ग़र्क़ लेटा होता तो नज़रो उस के पैर में गुदगुदी किए बग़ैर कभी ना मानता। हालाँकि उस के बदले में उसे लातें और चाँटे खाने पड़ते थे। नज़रो की एक और आदत ये थी कि वो जमील के सिरहाने बैठ जाता और उसके बालों में हल्के हल्के उंगलियां फिराया करता। इस से जमील के थके हुए और ख़ुशकदिमाग़ में ऐसा मालूम होता गोया सुकून उतरता चला जा रहा है और वो गर्दन को ढीला छोड़कर किताब से तवज्जा हटा लेता। शुरू शुरू में तो इस ने नज़रो को भगा भगा दिया, मगर जब वो किसी तरह बाज़ ना आया तो आख़िर इस ने नज़रो को यहां तक इजाज़त दे दी कि वो कंघा लेकर बैठ जाये और जिस तरह चाहे उस के बाल बनाए और फिर बिगाड़े, और फिर बनाए और फिर बिगाड़े।
अख़ीर अक्तूबर की रात के नौ बजे थे , कुछ ख़ुनकी सी हो रही थी। जमील कोठे पर दालान मैं अकेला लेटा था। नज़रो आया और उसने हिचकिचाते हुए कहा जमील मियां एक बात कहूं तुमसे, बुरा तो नहीं मानोगे?
जमील धक से रह गया। इस के दिल की हरकत रुकती ही मालूम हुई और टांगें सनसनाने लगीं। कई दिन से नज़रो का अंदाज़ ज़ाहिर कर रहा था कि वो कोई बात कहनी चाहता है। जमील को शुबा था कि वो बात ग़ैरमामूली ज़रूर है। उसने इरादा कर लिया कि वो ऐसी बात सुंन से जिसकी नौईयत से वो बिलकुल बे-ख़बर है, इनकार कर देगा। लेकिन उसे हैरत भी हो रही थी। आख़िर कुछ सोच कर उसने रुकते हुए कहा हाँ, कह।
नज़रो ने बात कहने का अंदाज़ बनाना शुरू किया ही था कि क़दमों की आवाज़ आई।
ये बात कई दफ़ा क़दमों की आवाज़ से मुल्तवी होहो गई। लेकिन आख़िर एक दिन ऐसा आया कि नज़रो ने ना सिर्फ बात कहने का अंदाज़ बना लिया बल्कि बात भी शुरू कर दी, और कोई आवाज़ ना सुनाई दी। उसने पुर-असरार आवाज़ में मुस्कुराते हुए कहा। अजी क्या बताऊं मैंने कैसा अजीब ख़ाब देखा।।। अजीब ख़ाब था साला।।। क्या बताऊं, जमील मियां, क्या ख़ाब था वो।
हाँ, क्या ख़ाब था वो ? जमील ने बे-ताबी, मगर शुबा से पूछा।
अजी, क्या बताऊं।।। क्या ख़ाब था वो।।। मैं जब से वसी को सोच रहा हूँ बराबर।
अबे तो कुछ कहेगा भी?
हाँ हाँ तो जी, वो ख़ाब।।। बुरा तो नहीं मानोगे, जमील मियां।
तो कह तो किसी तरह।
लंबा सांस लेकर नज़रो ने सुनाया बुरा मत मानना, जमील मियां, देखो वो ख़ाब।।। हंसी आवे है मुझे इस ख़ाब पे
जमील ने फिर डाँटा।
हाँ तो मैं ने ये देखा ख़ाब में, जमील मियां, कि।। कि।। मैं और तुम एक पलंग पर लेटे हैं।
बम का गोला फटा। मगर चूँ कि जमील ने इसी नौईयत की कोई बात सुनने के लिए अपने आपको पहले से तैयार कर लिया था, इसलिए इस धक्के का मुक़ाबला करने में इस की कोशिश ज़्यादा कामयाब रही। इस सबको हैं ख़त्म कर देने के लिए जमील ने इस लफ़्ज़ को इंतिख़ाब क्या अच्छा। और इस लफ़्ज़ को उसने ऐसी आवाज़ में अदा करने की कोशिश की जिसमें किसी जज़बे की आमेज़िश ना हो।
नीचे से किसी ने नज़रो को पुकार कर जमील की मदद की। उसने जाने के लिए उठते हुए तमस्ख़ुराना अंदाज़ में आँखें घुमा कर कहा। जमील मियां, वैसे चाहो जितना चाहे दिक़ करलो, ख़ाब में तो मत तंग किया करो।
अब जमील नज़रो की निगाहों से कुछ सहमा-सहमा सा रहने लगा। नज़रो ने भी इस के कमरे में आना बहुत कम कर दिया था। लेकिन वो अक्सर जमील के सामने मुस्कुरा पड़ता था। जिससे जमील शर्मिंदा सा हो जाता। गोया वो चोरी करता पकड़ा गया है। जब तक नज़रो उस के कमरे में रहता उसे सोईयां सी चुभती मालूम होतीं और इस का दिल चाहता कि चादर ओढ़ कर अपने आपको नज़रो की निगाहों से बचा ले। कभी ऐसा होता कि लेटे लेटे वो किसी चीज़ को अपने पैरों के क़रीब महसूस करता। किताब सामने से हटा कर देखने पर मालूम होता कि नज़रो उस के पैर से अपना चेहरा लगाए बैठा है। वो नफ़रत और ग़ुस्से से पैर खींच लेता। मगर अब वो नज़रो की मुस्कुराहट और आँखों की चमक के ख़ौफ़ से इस के लात ना मारता था।अब चाहे उसके सर में दर्द ही क्यों ना हो, वो कभी नज़रो से सर मिलने को नहीं कहता था और इस के बालों से नज़रो की दिलचस्पी भी जैसे ज़ाइल सी हो गई थी।
रफ़्ता-रफ़्ता ये सब मामूल सा हो गया और जमील ने नज़रो की तरफ़ ज़्यादा ख़्याल करना छोड़ दिया लेकिन एक वाक़िया से इस की झेंप और डर, जो अब कम हो चले थे, नफ़रत और कराहत में तबदील हो गए। पहली मर्तबा क़व्वाली सुनने का शौक़ जमील को उर्स में ले गया और रात के ख़्याल से नज़रो भी इस के साथ कर दिया गया। जगह तो ख़ैर बीच में मिल गई, मगर खिच पिच इतनी थी कि करवट बदलने का मौक़ा ना मिलता था। तालियों और ढोल के घटाके, कव्वालों की मंझी हुई बे रोक आवाज़ों के साथ मिलकर अपना काम कर चुके थे। एक गेरवा लिबास और लंबी दाढ़ी और बालों वाले साहिब ने अपनी वारिफ़्तगी का इज़हार, आँखें बंद कर के झोंटे खाने से बढ़कर, अपने मसलक की रिवायती ख़ुश अदाई से करना शुरू कर दिया था। उनके लिए मैदान ख़ाली कर दिया गया और जहां पैदा हुआ शेर ख़ुदा मालूम होता है की तकरार होने लगी। उनकी हर फ़लक शि्गाफ़ अल्लाह हो पर उनके सर को अपनी तरफ़ बढ़ता हुआ देखकर नज़रो अजी! अजी! कह कर पीछे हटता जाता था और जमील के ऊपर गिरा पड़ रहा था। वो बेचैनी से जमील का बाज़ू खींच खींच कर कह रहा था अजी जमील मियां, मुझे तो ड्रिलगे है। लोग हँसने लगे। जमील के कान सुर्ख़ और गर्म हो गए और उसकी कनपटियां जल उठीं। इस दिन से जमील की झिजक निकल गई और अब वो नज़रो की निगाहों का बे-ख़ौफ़ हो कर मुक़ाबला कर सकता था। लेकिन अब उसने नज़रो को ऐसी हक़ारत और नफ़रत से देखना शुरू कर दिया था जैसे इस काले पीले मेंढ़क को, जो बरसात में नालीयों पर से रेंगता हुआ बिस्तर पर आचढ़े।
अप्रैल आगया।।। गंगा और जमुना के दो आबे का रंग और अफ़्सुर्दा अप्रैल। मौसम की ख़ुशकी, गर्मी, हुआ, ख़ाक, धूल, सालाना इमतिहान की तैयारीयों, मायूसियों और उम्मीदों ने इज़मिहलाल और ग़म-गश्तगी की एक मुस्तक़िल फ़िज़ा पैदा कर दी थी।।। रूह पर एक नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त लेकिन लाज़िमी बोझ की तरह। दोपहर का वक़्त था। हुआ कमरे के किवाड़ों को हिलाए डालती थी और गर्द-ए-नय रोशन दानों में से आ आकर चेहरे और बालों को भूरा बनादिया था। बाहर तो धूप का जो कुछ भी हाल हो, मगर कमरे में, जहां जमील लेटा था, गर्मी का इस क़दर असर ज़रूर था कि इस के जिस्म को थका हुआ और दिमाग़ को गुट्ठल बनादिया था। बावजूद दरख़्तों के हिलने के एक पर रम्ज़ और गिराँ-बार ख़ामोशी मुसल्लत मालूम होती थी। जिसमें दूर से किसी ख़्वांचे वाले की आवाज़ वहशत का इज़ाफ़ा कर देती थी। घड़ी की टुक-टुक एक जांकाह हथौड़े की तरह कान के पर्दे पर पड़ रही थी। और हरी मक्खी की भनभनाहट तेज़ लंबी सलाख़ों की तरह दिमाग़ में घुस कर उसे बे-हिस कर चुकी थी। जबा हैऐं टूटी पड़ती थीं और आँखों से पानी ढलकने लगा था। करवटों पर करवटें बदलने और सर के बाल नोचने प्रभी नींद ना आरही थी। कुछ ऐसा एहसास हो रहा था गोया मौसम की सख़्तियों ने हर चीज़ को बर्बाद कर दिया है। ख़ातमा कर दिया है। सुकून का भी और नींद का भी। टांगें पत्थर की हो गई थीं। और रानों में टीसें सी उठ रही थीं। थोड़ी थोड़ी देर बाद जमील ख़ामोश सीधा लेट जाता, हाथ फैला कर ऊपर की तरफ़, और टांगें अकड़ा कर नीचे की तरफ़ खींचता, और फिर ढीला छोड़ देता। वो रानों को मज़बूती से पकड़ कर ख़ूब रगड़ता, गोया वो आज उन्हें घुस कर ख़त्म कर देने पर तिला हुआ है। जब इस से भी उसे चैन ना आता तो वो घुटने पट्टी पर और बान्हा आँखों पर रखकर ख़ामोश लेट जाता।।। थोड़ी देर से नज़रो खड़ा दिलचस्पी से इस की हालत देख रहा था। वो पायँती की तरफ़ आया और एक मिनट तक आँखें घुमा घुमा कर देखता रहा और फिर यकलख़त हंस कर कहने लगा जमील मियां! तुम्हारे पास बैठ जाऊं।
जमील के पैरों में से ख़ून भागा और रानों में सनसनी फैलाता हुआ तेज़ी से दिमाग़ में जा कर खोपड़ी से खट से टकराया।दिल धड़ धड़ चलने लगा। कनपटियों की रगें उभर आएं और दर्द करने लगीं।।।मालूम होता था उस के जिस्म की हर हर रग बग़ावत पर उठ खड़ी हुई है। ख़ून के दौरान ने इस की सोचने की कुव्वतों को मुअत्तल कर दिया था। वो हाँ कहने वाला था कि बाहर से किसी ने पुकारा जमील!
इमतिहान के अंदेशों और दुगदुगों की जगह अब छुट्टीयों की बेफ़िकरी और बे-ख़याली ने ले ली। गर्मियां जम चुकी थीं। गर्मी अब भी पड़ती थी, हुआ अब और तेज़ हो गई थी मगर नए मौसम का कसल और बेगानगी ख़त्म हो चुकी थी।
आधी रात का वक़्त था कि किसी चीज़ के इस की टांग के क़रीब हरकत करने से जमील की आँख खुली। वो छत पर सो रहा था। चांद आसमान पर बेचों बीच में था और हर तरफ़ रोशनी फैली हुई थी।सेहन के दूसरे कोने से ख़ालू के तेज़ ख़र्राटों की मुतवातिर आवाज़ आ रही थी, लेकिन ये देखकर उसे ताज्जुब हुआ कि नज़रो का पलंग जो शाम दूर बिछा था, अब इस से एक गज़ के फ़ासले पर आगया है। उसने अपने पलंग पर हर तरफ़ टटोला। मगर कोई चीज़ ना दिखाई दी। उसने फिर चादर से मुँह ढक लिया। थोड़ी देर ख़ामोश लेटे रहने से उसे पसीना आता मालूम हुआ और उसने चादर को सीने तक खींच लिया। नींद एक दफ़ा उचटी तो बस फिर ग़ायब ही हो गई। कुछ देर तो वो चांद को आसमान पर खिसकते हुए देखता रहा, और फिर इस से उकता कर ख़ालू के ख़र्राटों पर दिल ही दिल में हँसने लगा। कैसी आवाज़ निकल रही है। उसने सोचा, जैसे बिल्लियां लड़ रही हूँ।।। ये तशबीया उसने अपनी ख़ाला से सीखी थी। दफ़्फ़ातन उसे नज़रो की आँखें चमकती हुई दिखाई दें।
अबे जाग रहा है? उसने पूछा।
गाड़े की मोटी चादर में से निकले हुए मुँह ने जवाब दिया। हाँ।
यहां कैसे आगया है तो? कुछ ना कुछ कहने की ग़रज़ से जमील ने पूछ लिया।
तो कुछ हर्ज है?
जमील ने इतनी रात गए उस का जवाब चाँटे से देना मुनासिब ख़्याल ना किया मगर ये जवाब गुफ़्तगु को आगे बढ़ाने में भी मददगार ना हो सका। थोड़ी देर तक दोनों ख़ामोश लेटे अपनी पलकें झपकाते रहे।
नज़रो का हाथ और सेना भी चादर से बाहर निकल आया। उसने कहा अजी, क्या चांदनी हो रही है।
हवन जमील ने जवाब दिया। मगर चाहता वो भी था कि अगर नींद नहीं आती तो कम से कम बातें कर के ही वक़्त टाला जाये।
बड़ी सैरें की हैं हमने भी दिल्ली में चांदनी में।
जमील ने ऐसा मौज़ू तलाश करने की कोशिश में, जिसमें कुछ देर तक बातें हो सकें, हमेशा से ज़्यादा बे-तकल्लुफ़ी से कहा बड़ी बदमाशियां की होंगी साले तुमने दिल्ली में।
अजी हमने? नज़रो हिंसा। अजी हाँ।।। नहीं।।। तुम्हें तो जमील मियां कुछ शौक़ ही नहीं।
अबे , मुझे शौक़! किस बात का?
यही सैर वीर , दिल-लगी। नज़रो अपनी कहनी के सहारे उठा और इस का हाथ जमील के पलंग की पट्टी प्रागया। उसने मुस्कुरा कर कहा। लाओ टांगें दबादों जमील मियां।
क्यों, क्या में कोई थका हुआ हूँ।
नज़रो का हाथ उस की टांग के क़रीब आगया ना वैसे ही।
होनहा! जमील ने झेंपते हुए कहा। लेकिन जब नज़रो का हाथ उस की रान पर पहुंच गया तो इस ने कोई एतराज़ किया भी नहीं और चुप लेटा रहा।
हाथ रान पर आहिस्ता-आहिस्ता चलने लगा। जमील की टांगों पर च्यूंटीयां सी रेंगती हुई मालूम हुईं और नज़रो की उंगलीयों के साथ साथ उस का ख़ून भी चलने लगा। जब उंगलियां ज़्यादा सरीअ अलहस हिस्सों पर पहुंचीं तो उस के गुदगुदी होने लगी। और उसने नज़रो का हाथ हल्के से पकड़ कर, बग़ैर उसे हटाने की कोशिश के अबे कहा। मगर हाथ इसी तरह चलता रहा।
ख़ालू के ख़र्राटे रुक गए। हाथ खींच लिया गया।
फिर वही ख़र-ख़र ख़र-ख़र।।। रान फिर सहलाई जाने लगी।
यकलख़त नज़रो ने हाथ खींच लिया और चादर से अपने जिस्म को कंधों तक ढक कर सीधा लेट गया। इस का बदन तीर की तरह खिंचा हुआ था। नथुने फड़फड़ा रहे थे और पलकें जल्दी जल्दी झपक रही थीं। अगर जमील उस का चेहरा छू कर देखता तो उसे मालूम होता कि वो कितना गर्म है।
अबे ये किया?
अजी तुम क्या जानो, तुमने क्या कर दिया। नज़रो ने रुकती हुई आवाज़ में जवाब दिया।
जमील हैरत-ज़दा नज़रों से उसे देखने लगा। दस मिनट बाद नज़रो फिर सीधा हुआ। अब उस के चेहरे से ऐसा सुकून ज़ाहिर होता था गोया कोई तूफ़ान चढ़ कर उतर गया हो।
जमील की रान फिर सहलाई जाने लगी।।। जमील के बदन में खलबली सी हुई। सर चकरा सा गया। सारा जिस्म फुंकने लगा। उसे एक फरेरी सी आई और वो नज़रो का हाथ अलग फेंक कर उठ खड़ा हुआ। उसने जल्दी से नाली प्रजा कर पेशाब किया। पानी पी कर उसने थूका और अब सोने के इरादे से चादर तान कर लेट गया। ख़ालू के ख़र्राटों से इस पर जल्दी ही ग़नूदगी तारी हो गई।
इस की टांग पर कोई चीज़ हिली। उसने चादर से सर निकाल कर देखा, नज़रो का हाथ था। नज़रो अपने पलंग पर से आगे झुका हुआ था, और इस की आँखें गोल गोल घूम रही थीं।
नज़रो ने कहा आजाओं?
जमील के पेट में एक हैजान सा पैदा हुआ जो बिजली की सुरअत से तमाम जिस्म में फैल गया। इस का सर घूमा। आँखों के सामने धुंद सी फैल गई और साएबान के खम्बे और उनके लंबे साय नाचते हुए मालूम होने लगे। इस के रुके हुए हलक़ से फंसे हुए सिर्फ दो लफ़्ज़ निकल सके अबे हट!ओ
- पुस्तक : लौह (पृष्ठ 575)
- रचनाकार : मुमताज़ अहमद शेख़
- प्रकाशन : रहबर पब्लिशर्स, उर्दू बाज़ार, कराची (2017)
- संस्करण : Jun-December
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