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डरपोक

MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    यह कहानी एक ऐसे शख़्स की है जो औरत की शदीद ख़्वाहिश होने के चलते रंडीख़ाने पर जाता है। उसने अभी तक की अपनी ज़िंदगी में किसी औरत को छुआ तक नहीं था। न ही उसने अभी तक किसी से इज़हार-ए-मोहब्बत किया था। ऐसा नहीं था कि उसे कभी कोई मौक़ा न मिला हो। मगर उसे जब भी कोई मौक़ा मिला वह किसी अनजाने ख़ौफ़़ के चलते उस पर अमल न कर सका। मगर पिछले कुछ दिनों से उसे औरत की बेहद ख़्वाहिश हो रही थी। इसलिए वह उस जगह तक चला आया था। रंडीख़ाना उससे एक गली दूर था, पर पता नहीं किस डर के चलते उस गली को पार नहीं कर पा रहा था। अंधेरे में तन्हा खड़ा हुआ वह आस-पास के माहौल को देखता है और अपने डर पर क़ाबू पाने की कोशिश करता है। मगर इस से पहले कि वह डर को अपने क़ाबू में करे, डर उसी पर हावी हो गया और वह वहाँ से ऐसे ही ख़ाली हाथ लौट गया।

    मैदान बिल्कुल साफ़ था, मगर जावेद का ख़याल था कि म्युनिसिपल कमेटी की लालटेन जो दीवार में गड़ी है, उसको घूर रही है। बार बार वो उस चौड़े सहन को जिस पर नानक शाही ईंटों का ऊंचा-नीचा फ़र्श बना हुआ था, तय कर के उस नुक्कड़ वाले मकान तक पहुंचने का इरादा करता जो दूसरी इमारतों से बिल्कुल अलग थलग था। मगर ये लालटेन जो मस्नूई आँख की तरह हर तरफ़ टकटकी बांधे देख रही थी, उसके इरादे को मुतज़लज़ल कर देती और वो इस बड़ी मोरी के इस तरफ़ हट जाता जिसको फांद कर वो सहन को चंद क़दमों में तय कर सकता था... सिर्फ़ चंद क़दमों में!

    जावेद का घर इस जगह से काफ़ी दूर था। मगर ये फ़ासला बड़ी तेज़ी से तय कर के यहां पहुंच गया था। उसके ख़यालात की रफ़्तार उसके क़दमों की रफ़्तार से ज़्यादा तेज़ थी। रास्ते में उसने बहुत सी चीज़ों पर ग़ौर किया। वो बेवक़ूफ़ नहीं था। उसे अच्छी तरह मालूम था कि एक बेस्वा के पास जा रहा है और उसको इस बात का भी पूरा शुऊर था कि वो किस ग़रज़ से उसके यहां जाना चाहता है।

    वो औरत चाहता था। औरत, ख़्वाह वो किसी शक्ल में हो। औरत की ज़रूरत उसकी ज़िंदगी में यक-ब-यक पैदा नहीं हुई थी। एक ज़माने से ये ज़रूरत उसके अंदर आहिस्ता आहिस्ता शिद्दत इख़्तियार करती रही थी और अब दफ़अ’तन उसने महसूस किया था कि औरत के बग़ैर वो एक लम्हा ज़िंदा नहीं रह सकता। औरत उसको ज़रूर मिलनी चाहिए, ऐसी औरत जिसकी रान पर हौले से तमांचा मार कर वह उसकी आवाज़ सुन सके। ऐसी औरत जिससे वो वाहियात क़िस्म की गुफ़्तगु कर सके।

    जावेद पढ़ा लिखा होशमंद आदमी था। हर बात की ऊंच-नीच समझता था। मगर इस मुआ’मले में मज़ीद ग़ौर-ओ-फ़िक्र करने के लिए तैयार नहीं था। उसके दिल में एक ऐसी ख़्वाहिश पैदा हुई थी, जो उसके लिए नई थी। औरत की क़ुरबत हासिल करने की ख़्वाहिश इससे पहले कई बार उसके दिल में पैदा हुई और इस ख़्वाहिश को पूरा करने के लिए इंतिहाई कोशिशों के बाद जब उसे ना-उम्मीदी का सामना करना पड़ा तो वो इस नतीजे पर पहुंचा कि उसकी ज़िंदगी में सालिम औरत कभी नहीं आएगी और अगर उसने इस सालिम औरत की तलाश जारी रखी तो किसी रोज़ वो दीवाने कुत्ते की तरह राह चलती औरत को काट खाएगा।

    काट खाने की हद तक, अपने इरादे में नाकाम रहने के बाद अब दफ़अ’तन उसके दिल में इस ख़्वाहिश ने करवट बदली थी। अब किसी औरत के बालों में अपनी उंगलियों से कंघी करने का ख़याल उसके दिमाग़ से निकल चुका था। औरत का तसव्वुर उसके दिमाग़ में मौजूद था। उसके बाल भी थे मगर अब उसकी ये ख़्वाहिश थी कि वो उन बालों को वहशियों की तरह खींचे, नोचे, उखेड़े।

    अब उसके दिमाग़ में से वो औरत निकल चुकी थी जिसके होंटों पर वो अपने होंट इस तरह रखने का आर्ज़ूमंद था। जैसे तितली फूलों पर बैठती है, अब वो उन होंटों को अपने गर्म होंटों से दाग़ना चाहता था... हौले-हौले सरगोशियों में बातें करने का ख़याल भी उसके दिमाग़ में नहीं था। अब वो बलंद आवाज़ में बातें करना चाहता था। ऐसी बातें जो उसके मौजूदा इरादे की तरह नंगी हों।

    अब सालिम औरत उसके पेश-ए-नज़र नहीं थी... वो ऐसी औरत चाहता था जो घिस घिस कर शिकस्ता हाल मर्द की शक्ल इख़्तियार कर गई हो। ऐसी औरत जो आधी औरत हो और आधी कुछ भी हो।

    एक ज़माना था जब जावेद ‘औरत’ कहते वक़्त अपनी आँखों में ख़ास क़िस्म की ठंडक महसूस किया करता था। जब औरत का तसव्वुर उसे चांद की ठंडी दुनिया में ले जाता था। वो ‘औरत’ कहता था, बड़ी एहतियात से जैसे उसको इस बेजान लफ़्ज़ के टूटने का डर हो... एक अ’र्से तक वो इस दुनिया की सैर करता रहा मगर अंजामकार उसको मालूम हुआ कि औरत की तमन्ना उसके दिल में है। उस की ज़िंदगी का ऐसा ख़्वाब है जो ख़राब मे’दे के साथ देखा जाये।

    जावेद अब ख़्वाबों की दुनिया से बाहर निकल आया था। बहुत देर तक ज़ेहनी तौर पर वो अपने आप को बहलाता रहा। मगर अब उसका जिस्म ख़ौफ़नाक हद तक बेदार हो चुका था। उसके तसव्वुर की शिद्दत ने उसकी जिस्मानी हिस्सियात की नोक-पलक कुछ इस तौर पर निकाली थी कि अब ज़िंदगी उसके लिए सुइयों का बिस्तर बन गई। हर ख़याल एक नशतर बन गया और औरत उसकी नज़रों में ऐसी शक्ल इख़्तियार करगई जिसको वो बयान भी करना चाहता तो कर सकता।

    जावेद कभी इंसान था मगर अब इंसानों से उसे नफ़रत थी, इस क़दर कि अपने आप से भी मुतनफ़्फ़िर हो चुका था। यही वजह थी कि वो ख़ुद को ज़लील करना चाहता था। इस तौर पर कि एक अ’र्से तक इसके ख़ूबसूरत ख़याल जिनको वो अपने दिमाग़ में फूलों की तरह सजा के रखता रहा था, ग़लाज़त से लिथड़े रहें।

    “मुझे नफ़ासत तलाश करने में नाकामी रही है लेकिन ग़लाज़त तो मेरे चारों तरफ़ फैली हुई है। अब जी ये चाहता है कि अपनी रूह और जिस्म के हर ज़र्रे को इस ग़लाज़त से आलूदा कर दूँ। मेरी नाक जो इससे पहले ख़ुशबुओं की मुतजस्सिस रही है, अब बदबूदार और मुतअ’फ़्फ़िन चीज़ें सूँघने के लिए बेताब है। यही वजह है कि मैंने आज अपने पुराने ख़यालात का चुग़ा उतार कर इस मुहल्ले का रुख़ किया है जहां हर शय एक पुरअसरार तअ’फ़्फ़ुन में लिपटी नज़र आती है... ये दुनिया किस क़दर भयानक तौर पर हसीन है!”

    नानक शाही ईंटों का नाहमवार फ़र्श उसके सामने था। लालटेन की बीमार रोशनी में जावेद ने इस फ़र्श की तरफ़ अपनी बदली हुई नज़रों से देखा तो उसे ऐसा महसूस हुआ कि बहुत सी नंगी औरतें औंधी लेटी हैं जिनकी हड्डियां जा बजा उभर रही हैं। उसने इरादा किया कि इस फ़र्श को तय कर के नुक्कड़ वाले मकान की सीढ़ियों तक पहुंच जाये और कोठे पर चढ़ जाये मगर म्युनिसिपल कमेटी की लालटेन ग़ैर मुख़्ततिम टकटकी बांधे उसकी तरफ़ घूर रही थी। उसके बढ़ने वाले क़दम रुक गए और वो भिन्ना सा गया। “ये लालटेन मुझे क्यों घूर रही है... ये मेरे रास्ते में क्यों रोड़े अटकाती है।”

    वो जानता था कि ये महज़ वाहिमा है और असलियत से इसका कोई तअ’ल्लुक़ नहीं लेकिन फिर भी उसके क़दम रुक जाते थे और वो अपने दिल में तमाम भयानक इरादे लिए मोरी के इस पार खड़ा रह जाता था, वो ये समझता था कि उसकी ज़िंदगी के सत्ताईस बरसों की झिजक जो उसे विर्से में मिली थी, इस लालटेन में जमा होगई है। ये झिजक जिसको पुरानी केंचुली की तरह उतार कर वह अपने घर छोड़ आया था, उससे पहले वहां पहुंच चुकी थी जहां उसे अपनी ज़िंदगी का सबसे भद्दा खेल खेलना था। ऐसा खेल जो उसे कीचड़ में लत-पत कर दे, उसकी रूह को मुलव्विस कर दे।

    एक मैली कुचैली औरत इस मकान में रहती थी। उसके पास चार-पाँच जवान औरतें थीं जो रात के अंधेरे और दिन के उजाले में यकसाँ भद्देपन से पेशा किया करती थीं। ये औरतें गंदी मोरी से ग़लाज़त निकालने वाले पंप की तरह चलती रहती थीं। जावेद को इस क़हबाख़ाने के मुतअ’ल्लिक़ उसके एक दोस्त ने बताया था जो हुस्न-ओ-इश्क़ की लाश कई मर्तबा इस क़ब्रिस्तान में दफ़न कर चुका था। जावेद से वो कहा करता था, “तुम औरत-औरत पुकारते हो... औरत है कहाँ? मुझे तो अपनी ज़िंदगी में सिर्फ़ एक औरत नज़र आई जो मेरी माँ थी... मस्तूरात अलबत्ता देखी हैं और उनके मुतअ’ल्लिक़ सुना भी है लेकिन जब कभी औरत की ज़रूरत महसूस हुई है तो मैंने माई जीवां के कोठे को अपना बेहतरीन रफ़ीक़ पाया है... बख़ुदा माई जीवां औरत नहीं फ़रिश्ता है... ख़ुदा उसको ख़िज्र की उम्र अता फ़रमाए।”

    जावेद माई जीवां और उसके यहां की चार-पाँच पेशा करने वाली औरतों के मुतअ’ल्लिक़ बहुत कुछ सुन चुका था। उसको मालूम था कि उनमें से एक हर वक़्त गहरे रंग के शीशे वाला चशमा पहने रहती है। इसलिए कि किसी बीमारी के बाइ’स उसकी आँखें ख़राब हो चुकी हैं। एक काली कलूटी लौंडिया है जो हर वक़्त हंसती रहती है।

    उसके मुतअ’ल्लिक़ जावेद जब सोचता तो अ’जीब-ओ-ग़रीब तस्वीर उसकी आँखों के सामने खिंच जाती। मुझे ऐसी ही औरत चाहिए जो हर वक़्त हंसती रहे, ऐसी औरतों को हंसते ही रहना चाहिए... जब वो हंसती होगी तो उसके काले काले होंट यूं खुलते होंगे जैसे बदबूदार गंदे पानी में मैले बुलबुले बन बन कर फटते हैं।

    माई जीवां के पास एक और छोकरी भी थी जो बाक़ायदा तौर पर पेशा करने से पहले गलियों और बाज़ारों में भीक मांगा करती थी। अब एक बरस से वो इस मकान में थी, जहां अठारह बरसों से यही काम हो रहा था। ये अब पोडर और सुर्ख़ी लगाती थी। जावेद उसके मुतअ’ल्लिक़ भी सोचता।“ उसके सुर्ख़ी लगे गाल बिल्कुल दागदार सेबों के मानिंद होंगे... जो हर कोई ख़रीद सकता है।”

    इन चार या पाँच औरतों में से जावेद की किसी ख़ास पर नज़र नहीं थी... मुझे कोई भी मिल जाये। मैं चाहता हूँ कि मुझसे दाम लिये जाएं और खट से एक औरत मेरी बग़ल में थमा दी जाये। एक सेकंड की देर होनी चाहिए। किसी क़िस्म की गुफ़्तगु हो, कोई नर्म-ओ-नाज़ुक फ़िक़रा मुँह से निकलने पाए... क़दमों की चाप सुनाई दे।

    दरवाज़ा खुलने की खड़खड़ाहट पैदा हुई... रुपये खनखनाएं और आवाज़ें भी आएं मगर मुँह बंद रहे, अगर आवाज़ निकले तो ऐसी जो इंसानी आवाज़ मालूम हो। मुलाक़ात हो बिल्कुल हैवानों की तरह, तहज़ीब-ओ-तमद्दुन के संदूक़ में ताला लग जाये। थोड़ी देर के लिए ऐसी दुनिया आबाद हो जाये जिसमें सूँघने, देखने और सुनने की नाज़ुक हिस्सियात ज़ंग लगे उस्तरे के मानिंद कुंद हो जाएं।

    जावेद बेचैन हो गया। एक उलझन सी उसके दिमाग़ में पैदा हो गई। इरादा उसके अंदर इतनी शिद्दत इख़्तियार कर चुका था कि अगर पहाड़ भी उसके रास्ते में होते तो वो उनसे भिड़ जाता मगर म्युनिसिपल कमेटी की एक अंधी लालटेन जिसको हवा का एक झोंका बुझा सकता था, उसकी राह में बहुत बुरी तरह हाइल हो गई थी।

    उसकी बग़ल में पान वाले की दुकान खुली थी। तेज़ रोशनी में उसकी छोटी सी दुकान का अस्बाब इस क़दर नुमायां हो रहा था कि बहुत सी चीज़ें नज़र नहीं आती थीं। बिजली के क़ुमक़ुमे के इर्दगिर्द मक्खियां इस अंदाज़ से उड़ रही थीं जैसे उनके पर बोझल हो रहे हैं। जावेद ने जब उनकी तरफ़ देखा तो उसकी उलझन में इज़ाफ़ा हो गया। वो नहीं चाहता था कि उसे कोई सुस्त रफ़्तार चीज़ नज़र आए।

    उसका कर गुज़रने का इरादा जो वो अपने घर से लेकर यहां आया था, इन मक्खियों के साथ साथ बार बार टकराया और वो उसके एहसास से इस क़दर परेशान हुआ कि एक हुल्लड़ सा उसके दिमाग़ में मच गया, “मैं डरता हूँ... मैं ख़ौफ़ खाता हूँ... इस लालटेन से मुझे डर लगता है... मेरे तमाम इरादे इसने तबाह कर दिए हैं... मैं डरपोक हूँ... मैं डरपोक हूँ... ला’नत हो मुझ पर।”

    उसने कई ला’नतें अपने आप पर भेजीं मगर ख़ातिर-ख़्वाह असर पैदा हुआ। उसके क़दम आगे बढ़ सके। नानक शाही ईंटों का ना हमवार फ़र्श उसके सामने लेटा रहा।

    गर्मियों के दिन थे। निस्फ़ रात गुज़रने पर भी हवा ठंडी नहीं हुई थी। बाज़ार में आमद-ओ-रफ़्त बहुत कम थी। गिनती की सिर्फ़ चंद दुकानें खुली थीं। फ़िज़ा ख़ामोशी में लिपटी हुई थी। अलबत्ता कभी कभी किसी कोठे से हवा के गर्म झोंके के साथ थकी हुई मोसीक़ी का एक टुकड़ा उड़ कर इधर चला आता था और गाड़ी ख़ामोशी में घुल जाता था।

    जावेद के सामने या’नी माई जीवां के क़हबाख़ाने से इधर हट कर बड़े बाज़ार में जो दुकानों के ऊपर कोठों की एक क़तार थी, इसमें कई जगह ज़िंदगी के आसार नज़र आरहे थे। उसके बिलमुक़ाबिल खिड़की में तेज़ रोशनी के क़ुमक़ुमे के नीचे एक स्याहफ़ाम औरत बैठी पंखा झल रही थी। उसके सर के ऊपर बिजली का बल्ब जल रहा था और ऐसा दिखाई देता था कि सफ़ेद आग का एक गोला है जो पिघल पिघल कर उस वेश्या पर गिर रहा है।

    जावेद उस स्याह फ़ाम औरत के मुतअ’ल्लिक़ कुछ ग़ौर करने ही वाला था कि बाज़ार के उस सिरे से जो उसकी आँखों से ओझल था, बड़े भद्दे नारों की सूरत में चंद आवाज़ें बुलंद हुईं। थोड़ी देर के बाद तीन आदमी झूमते झामते शराब के नशे में चूर नुमूदार हुए। तीनों के तीनों उस स्याह फ़ाम औरत के कोठे के नीचे पहुंच कर खड़े हो गए और जावेद के कानों ने ऐसी ऐसी वाहियात बातें सुनीं कि उसके तमाम इरादे उसके अंदर सिमट कर रह गए।

    एक शराबी ने जिसके क़दम बहुत ज़्यादा लड़खड़ा रहे थे, अपने मूंछों भरे होंटों से बड़ी भद्दी आवाज़ के साथ एक बोसा नोच कर उस काली वेश्या की तरफ़ उछाला और एक ऐसा फ़िक़रा कसा कि जावेद की सारी हिम्मत पस्त हो गई। कोठे पर बर्क़ी लैम्प की रोशनी में उस स्याह फ़ाम औरत के होंट एक आबनूसी क़हक़हे ने वा किए और उसने शराबी के फ़िक़रे का जवाब यूं दिया जैसे टोकरी भर कूड़ा नीचे फेंक दिया है। नीचे ग़ैर मरबूत क़हक़हों का एक फ़व्वारा सा छूट पड़ा और जावेद के देखते देखते वो तीनों शराबी कोठे पर चढ़े। थोड़ी देर के बाद वो नशिस्त जहां वो काली वेश्या बैठी थी ख़ाली हो गई।

    जावेद अपने आप से और ज़्यादा मुतनफ़्फ़िर हो गया, “तुम... तुम... तुम क्या हो? मैं पूछता हूँ, आख़िर तुम क्या हो, तुम ये हो, वो हो... तुम इंसान हो हैवान। तुम्हारी ज़ेहानत-ओ-ज़कावत आज सब धरी की धरी रह गई है।

    तीन शराबी आते हैं, तुम्हारी तरह उनके दिल में इरादा नहीं होता, लेकिन बेधड़क उस वेश्या से वाहियात बातें करते हैं और हंसते, क़हक़हे लगाते कोठे पर चढ़ जाते हैं गोया पतंग उड़ाने जा रहे हैं... और तुम... और तुम जो कि अच्छी तरह समझते हो कि तुम्हें क्या करना है। यूं बेवक़ूफ़ों की तरह बीच बाज़ार में खड़े हो और एक बेजान लालटेन से ख़ौफ़ खा रहे हो। तुम्हारा इरादा इस क़दर साफ़ और शफ़्फ़ाफ़ है लेकिन फिर भी तुम्हारे क़दम आगे नहीं बढ़ते, ला’नत हो तुम पर...”

    जावेद के अंदर एक लम्हे के लिए ख़ुद इंतक़ामी का जज़्बा पैदा हुआ। उसके क़दमों में जुंबिश हुई और मोरी फांद कर वो माई जीवां के कोठे की तरफ़ बढ़ा। क़रीब था कि वो लपक कर सीढ़ियों के पास पहुंच जाये कि ऊपर से एक आदमी उतरा। जावेद पीछे हट गया। ग़ैर इरादी तौर पर उसने अपने आपको छुपाने की कोशिश भी की लेकिन कोठे पर से नीचे आने वाले आदमी ने उसकी तरफ़ कोई तवज्जो दी।

    उस आदमी ने अपना मलमल का कुर्ता उतार कर कांधे पर धरा था और दाहिनी कलाई में मोतिए के फूलों का मसला हुआ हार लपेटा था। उसका बदन पसीने से शराबोर होरहा था। जावेद के वजूद से बेख़बर, वो अपने तहमद को दोनों हाथों से घुटनों तक ऊंचा किए नानक शाही ईंटों का ऊंचा-नीचा फ़र्श तय करके मोरी के उस पार चला गया और जावेद ने सोचना शुरू किया कि इस आदमी ने उस की तरफ़ क्यों नहीं देखा?

    इस दौरान में उसने लालटेन की तरफ़ देखा तो वो उसे ये कहती मालूम हुई, “तुम कभी अपने मक़सद में कामयाब नहीं हो सकते, इसलिए कि तुम डरपोक हो... याद है तुम्हें, पिछले बरस बरसात में जब तुमने उस हिंदू लड़की इंदिरा से अपनी मुहब्बत का इज़हार करना चाहा तो तुम्हारे जिस्म में सकत नहीं रही थी। कैसे कैसे भयानक ख़याल तुम्हारे दिमाग़ में पैदा हुए थे... याद है, तुमने हिंदू- मुस्लिम फ़साद के मुतअ’ल्लिक़ भी सोचा था और डर गए थे।

    “उस लड़की को तुमने इसी डर के मारे भुला दिया और हमीदा से तुम इसलिए मुहब्बत कर सके कि वो तुम्हारी रिश्तेदार थी और तुम्हें इस बात का ख़ौफ़ था कि तुम्हारी मुहब्बत को ग़लत नज़रों से देखा जाएगा। कैसे कैसे वहम तुम्हारे ऊपर उन दिनों मुसल्लत थे... और फिर तुमने बिलक़ीस से मुहब्बत करना चाही। मगर उसको सिर्फ़ एक बार देख कर तुम्हारे सब इरादे ग़ायब हो गए और तुम्हारा दिल वैसे का वैसा बंजर रहा...

    क्या तुम्हें इस बात का एहसास नहीं कि हर बार तुमने अपनी बेलौस मुहब्बत को आप ही शक की नज़रों से देखा है। तुम्हें इस बात का कभी पूरी तरह यक़ीन नहीं आया कि तुम्हारी मुहब्बत ठीक फ़ितरी हालत में है... तुम हमेशा डरते हो। इस वक़्त भी तुम ख़ाइफ़ हो, यहां घरेलू औरतों और लड़कियों का सवाल नहीं, हिंदू-मुस्लिम फ़साद का भी इस जगह कोई ख़दशा नहीं लेकिन इसके बावजूद तुम कभी इस कोठे पर नहीं जा सकोगे... मैं देखूंगी तुम किस तरह ऊपर जाते हो।”

    जावेद की रही सही हिम्मत भी पस्त हो गई। उसने महसूस किया वो वाक़ई परले दर्जे का डरपोक है... बीते हुए वाक़ियात तेज़ हवा में रखी हुई किताब के औराक़ की तरह उसके दिमाग़ में देर तक फड़फड़ाते रहे और पहली मर्तबा उसको इस बात का बड़ी शिद्दत के साथ एहसास हुआ कि उसके वजूद की बुनियादों में एक ऐसी झिजक बैठी हुई है जिसने उसे क़ाबिल-ए-रहम हद तक डरपोक बना दिया है।

    सामने सीढ़ियों से किसी के उतरने की आवाज़ आई तो जावेद अपने ख़यालात से चौंक पड़ा। वही जो गहरे रंग के शीशों वाली ऐ’नक पहनती थी और जिसके मुतअ’ल्लिक़ वो कई बार अपने दोस्त से सुन चुका था, सीढ़ियों के इख़्तितामी चबूतरे पर खड़ी थी। जावेद घबरा गया, क़रीब था कि वो आगे सरक जाये कि उसने बड़े भद्दे तरीक़े पर उसे आवाज़ दी, “अजी ठहर जाओ... मेरी जान घबराओ नहीं, आओ... आओ...” इसके बाद उसने पुचकारते हुए कहा, “चले आओ... जाओ।”

    ये सुन कर जावेद को ऐसा महसूस हुआ कि अगर वो कुछ देर वहां ठहरा तो उसकी पीठ में दुम उग आएगी जो वेश्या के पुचकारने पर हिलना शुरू करदेगी। इस एहसास समेत उसने चबूतरे की तरफ़ घबराई हुई नज़रों से देखा। माई जीवां के क़हबाख़ाने की इस ऐ’नक चढ़ी लौंडिया ने कुछ इस तरह अपने बालाई जिस्म को हरकत दी कि जावेद के तमाम इरादे पके हुए बेरों की मानिंद झड़ गए। उस ने फिर पुचकारा, “आओ... मेरी जान अब भी जाओ।”

    जावेद उठ भागा। मोरी फांद कर जब वो बाज़ार में पहुंचा तो उसने एक ऐसे क़हक़हे की आवाज़ सुनी जो ख़तरनाक तौर पर भयानक था, वो काँप उठा।

    जब वो अपने घर के पास पहुंचा तो उसके ख़यालात के हुजूम में से दफ़अ’तन एक ख़याल रेंग कर आगे बढ़ा, जिसने उसको तस्कीन दी, “जावेद, तुम एक बहुत बड़े गुनाह से बच गए। ख़ुदा का शुक्र बजा लाओ।”

    स्रोत:

    منٹو کےافسانے

      • प्रकाशन वर्ष: 1940

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