क़ब्रों के बीचों बीच
स्टोरीलाइन
बंगाल के अकाल पर लिखी गई एक मार्मिक कहानी। कम्यूनिस्ट पार्टी के छात्र नेताओं का एक समूह राज्य भर में घूम रहा है और अकाल से मरने वाले लोगों का आंकड़ा इक्ट्ठा कर रहा है। इसके साथ ही उन्हें उम्मीद है कि अमीर राज्यों से वहाँ अनाज पहुँचेगा। लोगों को खाना मिलेगा और मुफ़्त लंगर खूलेंगे। सातों साथी गाँव-गाँव घूम रहे हैं और रास्ते में मिलने वाली लाशों, गाँवों और दूसरे दृश्यों को देखकर उनके जो ख़्यालात हैं वह एक-दूसरे से साझा करते चलते हैं। वह एक ऐसे गाँव में पहुँचते हैं जहाँ केवल दस लोग जीवित हैं लोगों के अंदर इतनी भी ताक़त नहीं है कि वह मुर्दों को दफ़्न कर सकें। इसलिए वह उन्हें दरिया में बहा देते हैं। छात्रों का यह समूह एक क़ब्रिस्तान में पहुँचता है जहाँ उन्हें एक बुढ़िया मिलती है। बुढ़िया के सभी बेटे मर चुके हैं और वह क़ब्र खोद-खोद कर थक गई है। समूह में शामिल गीता बुढ़िया से बात करती है और वापस लौटते हुए उसे लगता है कि बुढ़िया के बेटे उनके आगे चल रहे हैं। किसी फोड़ों की तरह... कब्रों के बीचों-बीच।
दस लाख भूक मौतें, पंद्रह लाख, उन्नीस लाख और इस हफ़्ते कुल जमा' चौबीस लाख और अभी तक इस भयानक दुर्भिक्ष का ज़ोर बढ़ रहा था...
गीता के दिमाग़ में उस वक़्त एक लोरी के सुर घूम रहे थे: छैले घूमा लो पाड़ा जड़ा लो, वर्गी एलो देशे बुलबुले ते धान खे छे ख़ज़ाना देब कुशो? या'नी बच्चा सो गया, मुहल्ला शांत हो गया। देश में वर्गी आ गए। बुलबलों ने धान खा लिया। अब लगान कैसे देंगे?
चलते-चलते उसने ये लोरी अपने साथियों को सुनाई। जा'फ़री सबकी तरफ़ से पूछा, “ये वर्गी क्या बला होती है, गीता?”
“भयानक वर्गी! नागपुर के राजा रग्घू जी राव भोसले के सिपाही वर्गी कहलाते थे।”
अली अमजद बोला, “मेरा ख़याल है कि इस लोरी में किसी महत्वपूर्ण घटना की ओर इशारा किया गया है।”
गीता पहले चुप रही। फिर जब साथियों की फुस-फुस बंद हो गई, वो बोली, “बंगला की ये लोरी मुझे सदा उदास कर जाती है। नवाब अली वर्दी ख़ाँ का ज़माना था। वर्गी मराठे बंगाल में घुस आते थे। ये वो ख़ूनी रीछ थे, जिसके पंजों से साँस खींच कर लेटी हुई जनता भी न बच सकती थी। नवाब इससे बचने के लिए हमेशा उन्हें अपने खज़ाने से दे-दिलाकर लौटा देता। जनता हैरान थी कि इतना लगान कहाँ से कुछ दे। बुलबुलें अलग धान की बालियाँ नोचती रहतीं।”
जा'फ़री कह उठा, “मेरा तो ख़याल है कि ये भी कोई वर्गी है!”
“भयानक वर्गी!”, गीता बोली।
और वर्गियों से कहीं अधिक भयानक था ये दुर्भिक्ष। आज जलपान किए बिना ही वो अपनी अगली मंज़िल की तरफ़ चल पड़े थे। आज वो उदास बंगाल की उदास सड़क पर उदास-उदास चल रहे थे।
“आगे पेटे कछु डाल आगे पेटे कछु डाल”, गीता चिल्लाने लगी। या'नी पहले पेट में कुछ डाल ले। अगर वो जलपान कर सकी होती तो शायद एक फ़क़ीर की ये आवाज़ याद न आती और फिर कलकत्ता के फ़ुट-पाथ पर पड़े हुए भूक के मारों की चीख़ पुकार उसके कानों में ज़िंदा हो उठी…, सर्वनीशे क्षुधा...! अमार पोड़ा कपाल...! अभाग कौन दे के जाए...? पोचे मर...! पोका पड़े मर...! अर्थात सर्वनाश करने वाली भूक! हमारा जला हुआ भाग्य! अभाग्य किस तरफ़ जाए? सड़ कर मर! कीड़े पड़-पड़ कर मर...! सर्वनाश करने वाली भूक ने माताओं की ममता को ख़त्म कर डाला था और वो आज अपनी कोख के बेटों तक को गालियाँ दे रही थीं सड़ कर मर! कीड़े पड़-पड़ कर मर।
सातों साथियों का ये क़ाफ़िला ऊंटों के भटके हुए कारवाँ की तरह उदास-उदास चला जा रहा था। सबसे आगे गीता थी। वो खादी की सोवियत साड़ी और लाल ब्लाउज़ पहने थी। अपने कंधे पर अपना सामान लटकाए हुए और एक हाथ में पार्टी का झंडा उठाए हुए, जिसकी लाल ज़मीन पर सोवियत हथौड़े और हँसिए की आकृति भी मटमैली और उदास- उदास नज़र आती थी, उसके पीछे जा'फ़री और फिर अमजद, अली अख़्तर और भूषण और उनके पीछे प्राशर और कपूर। सबके तन पर क़मीज़ और नैकर। अपने अपने हिस्से का सामान उठाए हुए। सब बराबर के कामरेड, हर तरह के भावुक शिष्टाचार से आज़ाद।
उनके पास रोटियाँ तो थीं नहीं कि लोक-कथा के पथिक की तरह उन्हें किसी दरख़्त की घनी छाया में कपड़ा बिछा कर फैला देते और बारी बारी स्वर में कहते, एक खाऊँ, दो खाऊँ, तीन खाऊँ? या सबकी खा जाऊँ?
धूप और भी तेज़ हो गई थी। सातों साथियों के चेहरे पर वो पतली-पतली सूइयों की तरह चुभने लगी। गर्द उड़कर उनके कपड़ों पर पड़ रही थी। सुरमे की सी धूल मीलों तक फैली हुई थी और फ़िज़ा में मुर्दा माँस की बदबू कुछ इस तरह समाई हुई थी कि इससे छुटकारा पाना असंभव प्रतीत होता था।
ऊँचे ऊँचे नारियल उदास थे। कटहल और महुवा के दरख़्त उदास थे। आम और शहतूत भी उदास थे।ओर क्षितिज भी उदास उदास बल्कि धुआँ-धुआँ नज़र आता था।
हवा के झोंके के साथ मुर्दा माँस की बदबू का रेला आकर गीता से टकरा गया। उसने सोचा, परे झाड़ियों में कोई लाश सड़ रही होगी। ज़रूर ये आदमी के मुर्दा माँस की बदबू थी। लेकिन गिध या चील का कहीं पता न था। झट उसे पुरानी गाली याद आ गई, तोर भोड़ा के चेले ओ खाबे ना! या'नी तेरी लाश को चीलें भी न खाएँगी।
जा'फ़री बोला, “क्या सोच रही हो, गीता?”
गीता ने मुड़ कर जा'फ़री की तरफ़ देखा। वो मुस्कुरा तो न सकी, चलते-चलते बोली, “ये मा'लूम होता है यहाँ पास ही किसी की लाश सड़ रही है।”
अमजद कह उठा, “लाश होती तो गिध भी होते।”
अली अख़्तर बोला, “गिध न होते तो चीलें ही होतीं।”
सड़ती हुई लाश से किसी को कुछ दिलचस्पी न थी और सच तो ये है कि वो डर गए थे कि कहीं सड़ती हुई लाश मिल गई तो उसे ठिकाने लगाने की मुसीबत आ खड़ी होगी।
अपने कॉलेज में ये सब लड़के ख़ूबसूरत लड़कियों का ख़ास ध्यान रखते थे। कपूर को ख़ूब याद था कि जब गीता उनके कॉलेज में पहले रोज़ नाम लिखाने आई थी तो वो किस तरह झूम उठा था। उसने अपने सब दोस्तों का ध्यान गीता की साड़ी की तरफ़ खींचते हुए कहा था, “ख़लीज बंगाल की कुल नीलाहट यहाँ जमा' हो गई है।”
उस वक़्त वो ये न जानता था कि एक दिन वो भूक मौतों के आँकड़े जमा' करने के लिए गीता की क़ियादत में एक टोली बना कर देश की सेवा कर पाएँगे।
कपूर ये आँकड़े जमा' करते-करते पहले अक्सर झुंजला कर रह जाता था। किसी भूके के मुँह में कुछ डाला जाए या प्यासे के मुँह जल की बूँद टपकाई जाए तो कुछ सेवा भी हो। वो अपने साथियों से वाद-विवाद छेड़ देता। उसका दिमाग़ उस पगडंडी का रूप धारण कर लेता जो धूल की गहरी धुंद में गुम हो गई हो। गीता अपने गले पर ज़ोर डाल कर कहती, “ये जो खाते-पीते प्रांतों से अब बंगाल में अनाज आ रहा है, उसमें भूक मौतों के आँकड़े जमा' करने की तहरीक ही का सबसे बड़ा हाथ है। ये जो अनाज की गाड़ियाँ धड़ा धड़ कलकत्ते पहुँच रही हैं, ये जो जगह जगह पर मुफ़्त लंगर खोले जा रहे हैं, हमारे इस तहरीक ही की मदद से। सोचो तो हमारे जैसी और कितनी टोलियाँ बंगाल के क़हत-ज़दा इ'लाक़ों में ये ख़िदमत कर रही होंगी” और कपूर चुप हो जाता।
“कम्युनिस्ट पार्टी, जनता की पार्टी”, गीता ने ना'रा लगाया और उसने मुड़ कर अपने साथियों की तरफ़ देखा। उसकी आँखों एक कुँवारी मुस्कान नाच उठी और चलते चलते सब साथियों ने मिल कर ना'रा बुलंद किया, “कम्युनिस्ट पार्टी जनता की पार्टी!”
उनकी भूक तो किसी तरह न दब सकी। लेकिन ये भरोसा भी कुछ कम न था कि क़लोपत्रा उदास नहीं रही।
कपूर को अचानक एक फ़्रांसीसी लेखक का क़ौल याद आ गया।
“औ'रत को एड़ी से लेकर चोटी तक परखना चाहिए, जैसे मछली को दुम से लेकर सर तक जाँची जाती है।”
गीता भी एक मछली ही तो थी जो बंगाल की खाड़ी से उचक कर धरती की लहरों पर थिरकने लगी थी। पर अगले ही पल उसे झुंजलाहट हुई। उसी लेखक का दूसरा विचार उसे झिंझोड़ रहा था।
“हमारे सारे संघर्ष का मक़सद सिर्फ़ आनंद की तलाश है। पर कुछ ऐसे शौक़ हैं जिनकी मौजूदगी में आनंद के हुसूल से शर्म आनी चाहिए।”
ठीक तो था। उसे अपने ऊपर शर्म आने लगी। क़लो-पत्रा लाख मुस्कुराए, यहाँ इ'श्क़ का सवाल ही न उठना चाहिए।
प्राशर बोला, “कहो कामरेड कपूर, क्या सोच रहे हो?”
कपूर ने गीता के हाथ में मौजूद झंडे की तरफ़ देखा और वो बोला, “सोचने की भी तुमने एक ही कही, कामरेड प्राशर!”
भूषण कह उठा, “भूक और मौत है। इससे ज़ियादा आदमी और क्या सोच सकता है?”
फिर प्राशर ने जापानी बमबारी का ज़िक्र छेड़ दिया। इस पर सब साथियों ने अपना-अपना ग़ुस्सा निकाल लिया। लेकिन फ़िज़ा बराबर मुर्दा माँस की बदबू से बोझल था।
ये एक छोटी सीरियल गाड़ी ही तो थी। ऊँघती चाल से चली जा रही रेल-गाड़ी। लाल झंडे वाली गीता इस रेल के लिए इंजन बनी हुई थी। ये सब उसी की शक्ति थी कि रेल-गाड़ी आगे बढ़ी जा रही थी, नहीं तो सब के सब डिब्बे ढेर हो जाते अचल मर्दों की तरह! कपूर चाहता था गीता से भी आगे जा कर इस नन्ही-मुन्नी रेल-गाड़ी का इंजन बन जाए और इतना दौड़े, इतना दौड़े कि सब साथी उसके साथ दौड़ने पर मजबूर हो जाएँ।
गीता ने मुड़ कर जा'फ़री से पूछा, “क्या सोच रहे हो, कामरेड?”
जा'फ़री बोला, “वही जो कामरेड कपूर सोच रहा है।”
और इस गाड़ी के सब डिब्बे क़हक़हा मार कर हँसने लगे। थोड़ी देर के लिए वो भूल गए कि उन्होंने सवेरे से जलपान तक नहीं किया, या ये कि धूप पहले से कहीं ज़ियादा तेज़ हो गई है।
भूक के मारे गीता का बुरा हाल था। उसे महसूस हुआ कि वो एक सुर्मा-दानी है। ख़ाली सुर्मा-दानी! सुर्मा कभी का ख़त्म हो गया, नाम अब भी सुर्मा-दानी। उसने मुड़ कर कपूर की तरफ़ देखा, जैसे कह रही हो तुम अपनी आँखों में सुरमे की सिलाई फेरना चाहो भी तो मैं कहूँगी, माज़रत चाहती हूँ, कामरेड कपूर!
धूप उन्हें जला रही थी। मंज़िल पर पहुँचना तो ज़रूरी था। ऊपर से सब चुप थे, भीतर से यही चाहते थे कि किसी खेत के मेढ़ पर अपने को यूँ फैला दें जैसे किसी ने बड़ी मेहनत से कुछ कपड़े धो कर डाल दिए हों। वो दाएँ-बाएँ देखते जाते थे और फिर सामने नज़र दौड़ाते, अभी मंज़िल दूर थी।
सब पसीना-पसीना हो रहे थे। धूल के मारे अलग तबीअ'त परेशान थी। कपूर धूल के बादल को घूरता हुआ पीछे रह गया। दिल ही दिल में उसने उसे चार पाँच अश्लील गालियाँ दे डालीं। फिर वो भाग कर अपने साथियों से जा मिला। साथ-साथ चलना किसी हद तक आसान था।
प्राशर बोला, “ज़रा गीता की साड़ी का तो मुलाहिज़ा कीजिए।”
कपूर ने शह दी, “जी, हाँ। बहुत मैली हो रही है। शायद पूरी अठन्नी के रीठे भी इसे धोने के लिए ना-काफ़ी हों।”
भूषण कह उठा, “हर चीज़ महंगी हो रही है। महंगी और आसानी से हाथ न लगने वाली। महंगे ही सही , इतने रीठे मिलेंगे कहाँ से?”
कपूर ने उलट कर फिर कहा, “यही तो मैं कह रहा हूँ। ज़रा सोचो तो। लाहौर के इंडिया काफ़ी हाऊस में, गीता ऐसी हालत में चली जाए तो यक़ीन करो उसे पागल समझ कर निकाल दिया जाए।”
गीता हँसकर दोहरी हो गई। बोली, “ये सच है कामरेड कपूर। पर मैं कहती हूँ, रीठों से कहीं ज़ियादा ज़रूरत है जल-पान की।”
कपूर कह रहा था, अच्छा बोलो, “क्या खाओगी! घी में तले हुए नमकीन काजू?”
गीता झुंजलाई, “तुम तो दिल-लगी कर रहे हो।”
“उपहास कैसा? मैंने तुम्हारी दिल-पसंद चीज़ का नाम ले दिया है।”
“पर घी में तले हुए नमकीन काजुओं से ज़ियादा लज़ीज़ होगी क्रीम-काफ़ी।”
“कहाँ मिलेगी क्रीम काफ़ी?”
“कड़वी कसैली काफ़ी क्रीम के साथ मिलकर एक नया ज़ाएक़ा पैदा कर देती है।”
“जी हाँ!”
“मुझे याद आ रहा है, काफ़ी की मशीन का ऊँघता-ऊँघता शोर मेरे दिमाग़ पर कभी-कभी हथौड़े की चोट कर जाता है।”
“ओहो! हथौड़े की चोट!”
एक-बार सब साथी शहर की मक्खियों की सी भिनभिनाहट में उलझ गए। फिर गुफ़्तगू का सिलसिला शुरू' करते हुए गीता बोली, “बंगाल भूका है। हम भी तो कई बार भूके रह जाते हैं।”
बात को फिर इंडिया काफ़ी हाऊस की तरफ़ घूमाते हुए कपूर बोला, “काफ़ी से ज़ियादा तुम्हें मेरी बात में रस आ जाता था, गीता! तुम्हारी ग़ैर-हाज़िरी में मेरे सामने फ़ैज़ का वो मिसरा उजागर हो उठता, गुल हुई जाती है अफ़्सुर्दा सुलगती हुई शाम। ऐश-ट्रे में सिगरेट की राख गिराते हुए मुझे महसूस होता कि मेरी ज़िंदगी उस सिगरेट की तरह है और वो ऐश-ट्रे शमशान भूमी बन उठती।”
“ख़ूब-ख़ूब!”, सब साथियों ने एक आवाज़ में कहा। गीता ने ख़ामोश दाद दी और पीछे को घूम कर कपूर की तरफ़ एक मुस्कुराहट फेंक दी।
कहीं इंसान की शक्ल नज़र न आती थी। एक बरसाती नदी की ख़ुश्क तलेटी पार करते हुए गीता सोचने लगी, अच्छी फ़स्लें न होने पर भी ये क़हत! उस वक़्त उसकी आँखों में एक बुड्ढे किसान का चित्र घूम गया जिसकी भयानक गुफाओं की सी आँखों में झाँक कर उसने गहरे गहरे सायों के पीछे देख लिया था कि किस तरह मौत एक रीछनी की तरह दुबकी बैठी है। वो फ़नकार होती तो उसे अपनी शाहकार की शक्ल में दुनिया के सामने रखती। उसका नाम तो बस एक ही हो सकता था, भूका बंगाल!
मा'लूम होता था कि अब वो कोई बातचीत न कर सकेंगे। उसकी रही सही हिम्मत भी ख़त्म हो रही थी और जतन करने पर भी वो रेंग-रेंग कर ही चल सकते थे।
हवा भी मरियल सी मा'लूम होती थी। कहीं दो घूँट पानी भी तो न मिल सकता था। कपूर को ये ख़याल आया कि अपने साथियों पर नुक्ता-चीनी शुरू' कर दी। भाड़ में जाए देश प्रेम और काला नाग डस जाए जनता पार्टी को। शैतान चाटता रहे भूक मौतों के आँकड़ों को... चौबीस लाख हुए तो क्या और तीस या पैंतीस लाख हो गए तो क्या? अ'जब हिमाक़त है। भूक मौतों के आँकड़े जमा' करने से आख़िर हाथ क्या आएगा? वो चाहता था कि घर लौट जाए।
अपनी सोच को वो उलट-पलट कर देखता रहा। ये भी कठिन था। गीता को छोड़कर वो कहीं न जा सकता था। उसने एक मुशायरे में सुनी हुई एक नई कविता पर विचार करना शुरू' कर दिया। कारख़ानों में मशीनों के धड़कने लगे दिल! काश! वो ख़ुद भी किसी कारख़ाने की मशीन होता और उसका दिल बराबर धड़कता रहता। उसका दिल तो डूब रहा था। उसके क़दम बुरी तरह बोझल हो रहे थे। उसका दिमाग़ जवाब देने लगा। ये ठीक था कि कम्यूनिज़म के बिना इस देश की तपेदिक़ का इ'लाज नहीं होने का। पर वो किधर का इ'लाज है कि भूक मौतों के आँकड़े जमा' करते करते आदमी ख़ुद भी भूक का शिकार हो जाए? काफ़... मेव... नज़्म... वो सोचते-सोचते लड़खड़ा रहा था। पर जैसे ख़ुद कामरेड लेनिन उसकी पीठ पर हाथ रखकर उसका हौसला बढ़ा रहा था। कारख़ानों में मशीनों के धड़कने लगे दिल! या'नी जब मशीन भी दिल रखती है तो आदमी अपने दिल को क्यों डूबने दे?
मटमैले आकाश पर बादल बिल्कुल न थे। सातों साथियों के जिस्म में अथाह लावा पिघल रहा था। गीता बोली, “हम इसी तरह चलते रहे तो ये धूप हमें आलुओं की तरह भून डालेगी।”
एक दरख़्त के नीचे पहुँच कर सब साथी गोल दाएरे में बैठ गए और मुनाफ़ा-ख़ोरों को सौ-सौ गालियाँ सुनाने लगे। धरती क्या करती? एक-एक कर के ये लोग आए और गाँव के सब अनाज निकाल ले गए।इस दौरे में देखे हुए दर्दनाक चेहरे उनकी आँखों में फिर गए। नंग-धड़ंग बच्चे, मर्द भी सब चीथडों में, औ'रतें भी सब चीथडों में, लटकती हुई छातियों से लटके हुए बच्चे अध-मुए क्या जवान, क्या बुड्ढे, सब चुसी हुई गँडेरियों की तरह बेकार। अरहर नहीं तो दाल कैसी? चावल नहीं तो भात कैसा? सब अनाज -चोर मंडियों में जा पहुँचा था। ज़िंदगी की बुल-अ’जबी देखिए कि लोग बे-रहम अनाज चोरों की बजाए अपने देवताओं को कोस रहे थे। ये हाथ की रेखाओं से क़िस्मत की पगडंडी ढ़ूढ़ने वाले लोग ज़िंदगी पर झपटने की अहलियत खो बैठे थे।
सर के नीचे बाँह का तकिया बना कर गीता ज़रा परे हट कर लेट गई। उसकी आँखें मिच गईं। उसके मन में अनाज चोर घूमने लगे, जिन्होंने बंगाल के छः करोड़ किसानों का गला घोंटने की साज़िश की थी।उसके हाथ किसी अनाज चोर की मरम्मत करने को तरस रहे थे। रात हो जाए और वो अपने चूहे-दान को धो मांझ कर रख दे, फिर सवेरे पता चले कि मोटे मोटे चूहे उसमें फँस गए हैं और वो उन्हें ज़िंदा ज़मीन में दफ़ना दे, ये सोचते सोचते उसकी आँख लग गई।
जा'फ़री बोला, “कलकत्ते के फुट-पाथ पर भूके बंगाल की इ'ज़्ज़त बिक रही है। कितनी शर्म की बात है!”
अमजद कह रहा था, “ख़ुद माँ बाप अपनी बेटियों को बेचने पर मजबूर हैं।”
अली अख़्तर ने भी अपना राग छेड़ दिया, “दस-दस, बीस-बीस आने में जवान लड़कियाँ बेसवाओं के हाथ बिक जाएँ, ग़ज़ब हो गया ग़ज़ब!”
भूषण ने कहा, “अब तक बीस हज़ार कुँवारियाँ बहू-बाज़ार की रानियाँ बन चुकी हैं। तअ'ज्जुब है!”
प्राशर ने अपनी मेघ गंभीर आवाज़ में कहा, “ये कुँवारियाँ बिक न जाती तो फुट-पाथ पर भूक का शिकार हो जातीं।”
कपूर अब तक चुप था। बोला, “भूक की बाढ़ में ये सब कुँवारियाँ डूब गईं! ग़ज़ब हो गया!”
गीता सो रही थी। कपूर ने उठकर उसके माथे को हल्का सा झटका दिया, “उट्ठो गीता, मंज़िल पर पहुँचना तो ज़रूरी है।”
गीता का अंग-अंग दुख रहा था। उसके जी में आया कि वो अपने साथियों से कहे, “तुम लोग आगे बढ़ जाओ। मुझे यहीं पड़े-पड़े मर जाने दो। मैं नहीं चाहती कोई मेरी लाश को शमशान भूमि में ले जाए; मैं नहीं चाहती कोई मेरी लाश क़ब्रों में दफ़नाए। कोई भूका गिध मुझे खा लेगा।”, पर उसके साथी कब उसे छोड़ने वाले थे?
अपनी साड़ी का पल्लू उसने कमर के गर्द किस कर बाँध लिया। बोली अब हम सीधी क़तार में चलेंगे बराबर-बराबर।
“बहुत ख़ूब”, सब साथी एक स्वर में बोले।
तीन साथी दाएँ तरफ़, तीन साथी बाएँ तरफ़। बीच में गीता, लाल झंडा उठाए हुए। दाएँ तरफ़ तर्तीब से जा'फ़री, अमजद और अली अख़्तर और बाएँ तरफ़ कपूर, प्राशर और भूषण। वो काफ़ी ऊँची ज़मीन पर पहुँच गए थे। सामने का गाँव, जहाँ उन्हें पहुँचना था दूर ही से नज़र आने लगा। सब का हौसला नए सिरे से क़ाएम हो गया, जैसे सब ने छाछ का एक-एक गिलास चढ़ा लिया हो।
सूरज अब इतना गर्म न था कि फिर से उनके शरीर में लावा पिघलने लगे। चलते-चलते सब साथी रुक गए। बाएँ तरफ़ एक मोर नाच रहा था, बंगाल के दुर्भिक्ष से बे-ख़बर! सब उसे ध्यान से देखने लगे। कपूर को ग़ुस्सा आ गया। हरामज़ादा! किस तरह नाच रहा है जैसे शराब पी रखी हो। सामने मोरनी बैठी है। पट्ठा उसे ख़ुश करने के लिए ये गुर न जाने किससे सीख आया है? उसके हाथ में तीर कमान होता तो पहले ही तीर से वो उस मोर को ख़त्म कर डालता। फिर उसके विचारों ने पलटा खाया। नहीं, नहीं, ये तो ज़ुल्म होगा। अब वो उस मोर को बता देना चाहता था कि कम्यूनिज़म का संदेश मोरों के लिए भी इतना ही ज़रूरी है जितना आदमियों के लिए, बल्कि कम्युनिस्ट समाज में एक मोर भी बराबर का हिस्सेदार हो सकेगा, दूसरे कलाविदों के साथ मिलकर वो भी किसी कला-भवन की स्थापना कर सकेगा। न जाने वो कब से नाच रहा था? देखते देखते चमकीला पंख सिकुड़ गया।
सातों साथी फिर अपनी मंज़िल की तरफ़ बढ़ने लगे। सबने रूमाल से अपना-अपना चेहरा पोंछ लिया था।गीता ने अपने बालों में कंघी भी कर ली थी। कपूर ने चोर आँखों से उसकी सीधी माँग की तरफ़ देखकर कहा, “मैं कहता हूँ हवाई जहाज़ से नीचे देखने पर गंगा भी तो इसी तरह एक रुपहली लकीर बन कर रह जाती होगी, गीता की माँग की तरह!” और इस पर सब साथी खिलखिलाकर हँस पड़े।
चलते चलते गीता ने एक बंगाली लोकगीत छेड़ दिया, “कित मनुश गोरू मरे गेल जेष्ठी मा सिर झड़े, ओ भाई जेष्ठी मा सिरर झड़े!” या'नी कितने आदमी और पशु मर गए, ज्येष्ठ मास के तूफ़ान में!
पास से कपूर ने इस गीत को उठा लिया और धीरे-धीरे सब साथी गीता के साथ शामिल हो गए। कित मनुश गोरू मरे गेल जेष्ठी मा सिर झड़े, ओ भाई जेष्ठी मा सिर झड़े! आज उन्होंने आकाश में जो आग बरसती देखी थी, उससे तो कहीं अच्छा होगा कि ज्येष्ठ महीने का तूफ़ान, कपूर गीता की मुस्कुराहट को दावत देना चाहता था, लेकिन ये मुस्कुराहट उस मौत के तूफ़ान का सामना करते करते अपनी सब महक खो बैठी थी। वो महक जो लाहौर के इंडिया काफ़ी हाऊस के फ़िज़ा में कपूर के वजूद को गुदगुदाती रहती थी।
जा'फ़री बोला, “कपूर की कहानी काफ़ी हाऊस की एक शाम मुझे बहुत पसंद है।”
गीता की आँखों में एक पल के लिए फिर कुँवारी मुस्कान थिरक उठी। बोली, “कामरेड जा'फ़री के साथ मैं भी मुत्तफ़िक़ हूँ, कपूर! काफ़ी हाऊस की एक शाम में तुमने मुझे उर्वशी बना दिया... हाँ तो मैं पूछती हूँ तुम्हारा क़लम काफ़ी हाऊस से बाहर कब निकलेगा?”
कपूर बोला, “मेरी नई कहानी का नाम होगा लाश!”
“जी हाँ, लाश!”
गीता ज़रा देर से चौंकी, “कैसी लाश?”
कपूर ने बड़ी गंभीरता से कहा, “जो न जलाई गई, न दफनाई गई!”
“ज़रूर लिक्खो, कपूर और मैं इसका बंगला तर्जुमा करने का वचन देती हूँ।”
“पहले ही से धन्यवाद!”
लाश का ध्यान आते ही गीता को फिर सारा वातावरण मुर्दा माँस की बदबू से बोझल महसूस होने लगा और हवा भी कराए की सोग करने वालों की तरह रस्मी तौर पर साएँ साएँ किए जाती थी।
दिन ढल रहा था। सारा आकाश उदास-उदास नज़र आता था उदास-उदास और बे-रंग! झाड़ियाँ ख़ामोश थीं। ख़ामोश और दिल-गीर।
गाँव क़रीब था। झोंपड़ियाँ साफ़ दिखाई दे रही थीं। पास जाने पर मा'लूम हुआ कि कई बूढ़े दरख़्त गाँव की तारीख़ के अमानत-दार हैं।
उस गाँव में एक जुलाहे ने आगे बढ़कर इस क़ाफ़िले का स्वागत किया। बंगाल मर गया तो कौन ज़िंदा रहेगा? सब साथियों ने ना'रा लगाया।
बड़े-बड़े दरख़्तों के उस पार गाँव की मस्जिद भी ख़ामोश और दिल-गीर थी। सारे गाँव पर नहूसत बरसती थी। जुलाहे ने एक मरियल सा बच्चा उठा रखा था। पता चला कि यहाँ ज़ियादा आबादी मुसलमानों की थी। उन्होंने मस्जिद के सामने जमा' हो कर ये फ़ैसला किया था कि वो गाँव को छोड़कर बाहर न जाएँगे।
गीता ने जुलाहे के समझ में आने लाएक़ अंदाज़ में उसको धीरज बँधाया और पूछा, “यहाँ कितनी भूक मौतें हुई हैं, बाबा?”
पता चला कि सिर्फ़ दस आदमी ज़िंदा हैं। आठ दूसरे आदमी और दोनों ये बाप बेटा। वो भी जल्द मर जाएँगे। उसने बहुत मुश्किल से जवाब दिया और अब आँसुओं की बाढ़ को न रोक सका।
गीता ने कहा, “रोते क्यों हो? हम तो तुम्हारे सेवक हैं, बाबा!”
कपूर बोला, “अब जल्दी करो, गीता।”
गीता ने धीरे से कहा, “हाँ, कामरेड, बस अभी शुरू' करते हैं।”
फ़ैसला हुआ कि पहले ज़िंदा लाशों का जाएज़ा लिया जाए। दो आदमी सत्तरे बहत्तरे मा'लूम होते थे, जैसे जोंकों ने उनका सब ख़ून चूस लिया हो। एक झोंपड़ी में बारह बरस का एक अनाथ छोकरा दम तोड़ रहा था। उसके पास एक पड़ोसन सेवा को मौजूद थी। जो अब अपने घर में अकेली रह गई थी। यही बुढ़िया बीच बीच उठकर उन सत्तरे बहत्तरे बुड्ढों के मुँह में पानी टपका जाती थी। एक जगह पर एक नन्हा बच्चा अपनी माँ की चूसी हुई गुठलियों जैसी छातियों को बराबर चूसता जा रहा था... अब और हिम्मत किस में थी कि इन भयानक झाँकियों में उलझा रहता।
सातों साथियों का क़ाफ़िला अब क़ब्रिस्तान की तरफ़ चल पड़ा। अपना अपना सामान सबने जुलाहे की झोंपड़ी में छोड़ दिया था। अपने बच्चे को गोद में उठाए वो जुलाहा इस क़ाफ़िले को रास्ता दिखा रहा था।
गीता नई क़ब्रें गिनती जाती थी और कपूर रजिस्टर पर नंबर चढ़ाता जाता था। इतनी मेहनत से तो कोई तारीख़ की गुज़री हुई सदियों को न गिनता होगा।
क़ब्रिस्तान के साथ साथ एक दरिया बह रहा था। नई क़ब्रें ख़त्म होती नज़र न आती थीं। वो जुलाहा साथ न होता तो नई और पुरानी क़ब्रों में कुछ मुग़ालता भी हो सकता था। पर अब तो किसी तरह की भूल की उम्मीद न थी।
“या अल्लाह!”, जुलाहा पीली आँखों से आकाश की तरफ़ देखकर बोला। ये उसकी बीवी की क़ब्र थी। गीता ने उसको धीरज बँधाया और वो हाँपते हुए बैल की तरह चल पड़ा।
अब तक गीता एक एक क़ब्र के पास पहुँच कर पूरी होशियारी से गिनती के नंबर लिखती जाती थी। अब इतना सब्र न था । अब वो दूर ही से गिनती कर लेती। अब ये भी ज़रूरी न रह गया था कि हर हालत में जुलाहे की तसदीक़ के बा'द ही गिनती को ठीक समझा जाए। ये पता चल गया था कि बाक़ी का क़ब्रिस्तान सिर्फ़ नई क़ब्रों के सबब बढ़ता चला गया था।
वो जुलाहा इजाज़त लेकर वापिस चला गया। जाते हुए वो कहता गया कि वो अपने क़ौमी सेवकों के लिए थोड़े दाल भात का प्रबंध करना अपना फ़र्ज़ समझता है। मौत तो आएगी ही कल नहीं तो परसों। ज़ियादा फ़िक्र तो आज की थी। अतिथी सत्कार तो ज़रूरी है।
सातों साथी आगे ही आगे चले जा रहे थे। एक दिल-दोज़, ख़ौफ़नाक चीख़ फ़िज़ा में गूँज रही थी।
अब वो क़ब्रिस्तान की अंतिम सीमा पर पहुँच गए थे। ये एक कोना था ठीक साठ का कौन बना हुआ था।
सामने एक क़ब्र पर सोवियत बालों वाली एक बुढ़िया बैठी थी। गीता बोली हम क्षुधा मृत्यु के आँकड़े प्राप्त कर रहे हैं, माँ!
“क्षुधा मृत्यु के आँकड़े!”, बुढ़िया ने एक गुस्ताख़ क़हक़हा लगाया।
“जनता की लाल पार्टी की सेवा हमारा आदर्श है माँ!”
“लाल पार्टी!”, बुढ़िया ने फिर गुस्ताख़ क़हक़हा लगाया।
“माँ, हँसो मत। हम तो क्षुधा मृत्यु के आँकड़े प्राप्त कर रहे हैं। हमने जलपान भी नहीं किया। पिघलाने वाली धूप भी हमारी राह न रोक सकी। हम ये गिनती समाचारपत्रों को भेजते हैं और अनाज की गाड़ियाँ देश के खाते पीते लोगों से कलकत्ते पहुँच रही हैं और जगह जगह पर मुफ़्त लंगर खोले जा रहे हैं, माँ!”
“मुफ़्त लंगर!”, बुढ़िया ने फिर क़हक़हा लगाया।
“माँ, हँसो मत। हम तो नई क़ब्रें गिन रहे हैं, माँ!”
बुढ़िया चुप हो गई। उसने क़हक़हा न लगाया। बोली, “गिन लो क़ब्रें, राज कन्या!”
“हाँ, माँ!”
पता चला कि क़ब्रों से दोगुनी लाशें दरिया में फेंकी जा चुकी थीं और एक बात और भी तो थी। उस क़ब्र में बुढ़िया के दो बेटे पिल्लों की तरह सोए पड़े थे। उनके चार बेटे और भी थे, वो भी भूक के बीमार थे। एक दिन वो एक साथ मर गए। वो उनके लिए एक भी क़ब्र न खोद सकी। उन हाथों से उसने उन्हें दरिया में फेंक दिया।
गीता बोली, “इस मौत का अंत नहीं है संसार में, पर हम भी तो तुम्हारी संतान हैं, माँ!”
अब वो बुढ़िया रो रही थी। उसको धीरज बँधाने की शक्ति गीता में तो न थी। न जाने कितने दिनों से वो इस क़ब्र पर धरना दिए बैठी थी, जैसे अब उसने मौत पर झपटने का इरादा कर लिया हो।
क़ाफ़िला लौट पड़ा। सामने पच्छम में सूरज ग़ुरूब हो रहा था। मा'लूम होता था कि वो भी एक ख़ूनी है और अन-गिनत लोगों के ख़ून से हाथ रंग कर क्षितिज में पनाह ढूँढ रहा है। गीता ने मुड़ कर उस बुढ़िया की ओर निगाह दौड़ाई और एक-बार फिर कलकत्ते के फुट-पाथ पर पड़े हुए भूक के मारों की चीख़-ओ-पुकार उसके कानों में ज़िंदा हो उठी… सर्व नीशे क्षुधा...! आमार पोड़ा कपाल... अभाग कौन दे के जाए...? पोचे मर...! पोका पोड़े मर…! या'नी सर्वनाश करने वाली भूक! हमारा जला हुआ भाग्य! अभाग्य किस ओर जाए? सड़ कर मर! कीड़े पड़-पड़ कर मर...! और वो तेज़-तेज़ क़दम उठाने लगी। उसके पीछे कपूर था, फिर प्राशर और भूषण और उनके पीछे अली अख़्तर, अमजद और जा'फ़री। मा'लूम होता था कि वो सातों साथी उस बुढ़िया के सातों बेटे थे जो धरती और पानी की क़ब्रों से उठकर चले जा रहे थे, आगे ही आगे, नए फोड़ों की तरह उभरी हुई क़ब्रों के बीचों बीच।
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