रौशन
असग़री ख़ानम दो बातों में अपना जवाब नहीं रखती थीं। एक तो दीन धर्म के मुआ’मले में और दूसरे शादियाँ करवाने में। उनकी बुज़ुर्गी और पारसाई में तो किसी शुब्हे की गुंजाइश ही नहीं थी। सब को यक़ीन था कि उन्होंने इतनी इबादत की है कि जन्नत में उनके लिए एक शानदार ज़मुर्रद का महल रेज़-रु हो चुका है। हूरें और फरिश्ते वहाँ उनकी राह देख रहे हैं कि कब ख़ुदा का हुक्म हो और वो वुज़ू का बंधना, जाय-नमाज़ और तस्बीह संभाले बुर्क़ा फड़काए जन्नत की दहलीज़ पर डोली से उतरें और वो उन्हें दूध और शहद की नहरों में तैरा कर पिस्ते और बादाम के घने दरख़्तों की छाँव में टहलाते हुए ज़मुर्रद के महल में बिठा देवें और उनकी सेवा पर जुट जाए।
असग़री ख़ानम का ग़ुस्सा हमेशा नाक पर धरा रहता था। अगर ज़रा भी किसी जन्नती बीवी ने चीं चपड़ की तो वो उसकी सात पुश्त के मुर्दे उखाड़ने लगेंगी। और वो सिर पर पाँव रख कर भागेगी और दोज़ख़ की आग की पनाह लेगी।
दूर-दूर ख़ानम की धाक बैठी हुई थी। उन्हें सारी दुनिया का कच्चा चिट्ठा मा’लूम था। मजाल थी जो कोई उनके सामने बढ़-चढ़ कर बोले। गाज़ीपुर से ले कर लंदन तक की हर बद-कार औरत का भेद जानती थी।
“ए हे मुए ब्याही तियाही ढे़डो ने निगोड़े बादशाह को फाँस लिया”, वो मिसेज़ सम्सन और एडवर्ड हश्तम के इ’श्क़ पर तब्सिरा करतीं, “मुंह जली को लाज भी तो न आई। मेरा बस चलता तो तख़समी (जिसने तीन खसम किए हो) का चौंडा झुलस देती।”
मुसीबत ये थी कि उनका बस नहीं चल सकता था। लंदन सात समुंद्र पार था। और उनको घुटनों में आए दिन टीसें उठती रहती थीं। चौंडा झुलसने कैसे जातीं। इतना दम होता तो हज न कर आतीं।
मगर शादियाँ कराने में तो वो ऐसे-ऐसे मा’रके मार चुकी थीं कि दुनिया में कोई उनका मुक़ाबला नहीं कर सकता था। क़रीब-क़रीब मुम्किन क़िस्म की शादियाँ कराने का उन्होंने रिकॉर्ड क़ायम कर दिया था जिसे वो ख़ुद ही आए दिन तोड़ा करती थीं। बस इसी वजह से लोग उनकी बड़ी आवभगत किया करते थे। कुँवारियाँ किस घर का बोझ नहीं होतीं। जिस घर में चली जातीं, लोग सर आँखों पर बिठाते, सिर झुका कर उनकी गालियाँ सुनते, ता’ने सुनते। उन्होंने ऐसी-ऐसी डरावनी शक्ल की लड़कियों के नसीब खोले थे कि लोगों पर उनकी हैबत बैठ गई थी। ख़ास तौर पर यह कुँवारे लड़के तो उनसे ऐसे काँपते थे जैसे वो मौत का फरिश्ता हों। न जाने किस पर मेहरबान हो जाए और अपने बटवे में से कोई पिछल पाई निकाल कर सिर पर मढ़ दे। जहाँ कोई शादी के लायक़ नज़र पड़ जाती, वो पंजे झाड़ कर उसके माँ-बाप और सारे मोहल्ले टोले वालों के पीछे लग जातीं और शादी के क़ाबिल लड़के थर्रा उठते मगर वो शादी करा के ही दम लेतीं। कुछ ऐसा पैंतरा चलती की उलटा लड़का दहलीज़ पर नाक रगड़ने लगता। लोगों का कहना था कि उनके क़ब्जे में जिन्नात हैं जो उनका हर हुक्म बजा लाते हैं।
मगर एक जगह उनके सारे हथियार कुंद साबित हुए। तमाम ता’वीज़ गंडे चौपट हो गए। उनकी अपनी ममेरी बहन तौफ़ीक़ जहाँ की बेटी सबीहा को चौबीसवाँ साल लग चुका था और अभी तक क्वार कोटला चुना हुआ था। उससे छोटी अक़ीला मंगी हुई थी। अक़ीला की पीठ की मैमूना कॉलेज में पढ़ती थी। सब से छोटी मन्नो थी।
क़ब्र के भी चार कोने होते हैं। तौफ़ीक़ जहाँ की क़ब्र चुनी खड़ी थी। आज तक ख़ानदान में न कोई बाहर की लड़की आई थी न गई थी। खरे सय्यदों के घराने को दाग़ लगाने की किसे हिम्मत थी। लड़कों का तो दिन-ब-दिन काल पड़ता जा रहा है। किसी की तनख़्वाह ठीक है तो मिट्टी में खोट, कोई कम्बोह है तो कोई पठान। एक बेचारे इंजीनियर की शामत आई, पैग़ाम भिजवा दिया बाद में पता चला कि है मुए अंसारी हैं। असग़री ख़ानम ने सत्याग्रह शुरू’ कर दी, तूफ़ान खड़ा कर दिया। उनके जीते जी बेटी अंसारियों में जाए, ऐसी भारी छाती का बोझ है तो कुटिया में डाल दो।
यह जब की बात है जब सबीहा को मीठा बरस लगा था। उसके बाद जब छ: बरस छ: सदियों की तरह छाती पर से दनदनाते गुज़र गए तो असग़री ख़ानम को अपनी पॉलिसी नर्म करनी पड़ी और ये तय पाया कि अच्छे ख़ानदान का लड़का हो तो कोई ज़ियादा बड़ा अंधेर नहीं। ये बात भी नहीं थी कि सबीहा कोई बद-सूरत हो कि कानी कथरी और जाहिल मरार मियाँ का लठ हो, न सांवली सलोनी। बूटा सा क़द, नाज़ुक-नाज़ुक हाथ पैर, कमर से नीचे झूलती हुई चोटी, सोई-सोई आँखें जिनमें क़ुदरती काजल भरा हुआ था, जी भर के देख लो तो नशा आ जाए। हँस देती तो मोती से रुल जाते। आवाज़ ऐसी मीठी कि नौहे पढ़ती तो सुनने वालों की हिचकी बंध जाती। इस पर सोने पर सुहागा अलीगढ़ से प्राइवेट मैट्रिक पास कर चुकी थी।
मगर नसीब की बात थी, होनी को कौन टाल सकता है। वरना कहाँ सबीहा और कहाँ रौशन। बड़े बूढ़े कहते हैं औरत मर्द का जोड़ा आसमानों पर तय हो जाता है। अगर सबीहा और रौशन का जोड़ भी आसमान पर तय हुआ था तो ज़रूर कुछ घपला हो गया। फरिश्तों से कुछ भूल चूक हुई। ये धांधली आसमानी ताकत ने जान-बूझ कर असग़री ख़ानम को सताने के लिए तो हरगिज़ न की होगी।
मगर इल्ज़ाम सारा असग़री ख़ानम के माथे थोप दिया गया। लड़का-लड़की सफ़ा छूट गए और वो धर ली गई। समद मियाँ को किसी ने कुछ न कहा कि वो बहन की बाँह पकड़ कर उसे अज़ाब-ए-दोज़ख झेलने को झोंक आए। सारा घर मुंह पीट कर रह गया किसी की एक न चली।
हाए असग़री ख़ानम कहीं मुँह दिखाने की न रही। क्या आन बान शान थी बेचारियों की। मजाल थी जो मौहल्ला में उनके बग़ैर कोई काज हो जाए। किसी की बेटी का कन-छेदन होता तो उन्हीं को दबोच कर बैठने के लिए बुला लिया जाता। किसी के यहाँ बच्चा होता, वही ज़च्चा का पेट थाम कर सहारा देतीं। फिर तौफ़ीक़ जहाँ तो उनकी सगी ममेरी थीं और रौशन को शीशे में उतारना कोई खेल न था। इसलिए मुआ’मला उन्हीं को अपने हाथों में लेना पड़ा।
समद मियाँ छह साल इंग्लिस्तान रह कर लौटे तो बेटे की सलामती की ख़ुशी में तौफ़ीक़ जहाँ ने मीलाद-शरीफ़ करवा दिया था। बरेली वाले मियाँ ख़ास तौर पर मीलाद पढ़ने तशरीफ़ लाए थे। सब औरतें अन्दर वाले गोल कमरे में बैठी सवाब लूट रही थीं। लड़कियाँ बालियाँ चिक से लगी खुस-फुस कर रही थी कि इतने में समद मियाँ रौशन के साथ दाख़िल हुए। वो शायद मीलाद शरीफ़ के बारे में भूल ही चुके थे। कोई और मौक़ा होता तो शायद लौट जाते मगर मियाँ साहब ने घूर कर देखा तो पकड़े गए। मजबूरन दोनों एक तरफ़ बैठ गए।
“हाए ये कौन है?” लड़कियों ने रौशन को देख कर कलेजे थाम लिए। समद मियाँ के सारे दोस्तों को देखा था। कमबख़्त सब ही चमरख़, मरघिल्ले और घोंचू थे। मगर रौशन अपने नाम की तरह रौशन थे कि आँखें चका-चौंध हो गईं, कलेजे मुँह को आ गए। जैसे दीवार फाड़ कर आफ़ताब सवा नेज़े पर आ गया। क्या तेज़-तेज़ जगमगाती आँखें जो हँसते में यूँ खो जातीं कि जी गुम हो जाता। दाँत गोया मोती चुन दिए हों। चौड़े चकले शाने, लम्बी-लम्बी बुत-तराशों जैसी सुडौल उँगलियाँ और रंगत जैसे मक्खन में ज़ाफ़रान के साथ चुटकी भर शहाबी रंग मिला दिया हो। बच्चों ने देखा कि सबीहा के सलोने चेहरे पर एका-एक हल्दी बिखर गई। घनी-घनी पलकें लरज़ीं और झपक गईं। होंठ मीठे-मीठे हो गए। लड़कियों को मक्कारी से मुस्कुराता देख कर बिगड़ बैठी।
समद मियाँ और रौशन नंगे सिर बैठे थे। उन्हें देख कर एक दाढ़ी वाले बुज़ुर्ग ग़ुर्राए, “ऐ साहबज़ादे इतने भी जेंटलमैन न बनो। मीलाद शरीफ़ के मौक़े पर नंगे सिर बैठने वालों के सिर पर शैतान धौले मारता है।”
रौशन ने सहम कर समद की तरफ़ देखा। उन्होंने झट जेब से रूमाल निकाल कर चपाती की तरह सिर पर मंढ़ लिया। रौशन ने भी उनकी नक़्ल की। हवा से रुमाल उड़ा तो बंदर की तरह सिर पर हथेली जमा कर बैठ गए। ऐसी भोली-भोली शक्ल लगी कि लड़कियों की पार्टी में गुदगुदी रेंग गई। सबीहा के मुखड़े की हल्दी में एक दम गुलाल खिल गया और नारंगी रंग फूट निकला।
दाढ़ी वाले हज़रत मूँछे दाढ़ी सफ़ा-चट विलायत पलट लड़कों की घात में बैठे थे और अपनी क़ह्र आलूद निगाहें दोनों पर गाड़ रखी थीं मगर ये दोनों भी चौकन्ने बैठे थे और बिल्कुल बंदरों की तरह उनकी नक़्ल में आँखें बंद करके झूम झूम कर सुन रहे थे और सर धुन रहे थे। बड़े मियाँ ने दुरुद पढ़ कर उँगलियों के पोरों को चूमा और आँखों से लगा लिया। झट समद मियाँ ने उनकी नक़ल की और रौशन को कोहनी मारी। उन्होंने भी बौखला कर जल्दी से उँगलियाँ चूम लीं। ऐसे भोंडेपन से कि लड़कियों के दिल उछलने लगे। बड़े मियाँ का जी ख़ुश हो गया। वो उन्हें बड़े फ़ख़्र से भीगी-भीगी आँखों से देखने लगे। सय्यद का बेटा इंग्लिस्तान क्या, अमेरिका भी चला जाए, रहेगा खरा सय्यद मगर लड़कियों को ख़ूब मा’लूम था कि उन लोगों को ख़ाक कुछ याद नहीं। यूँ ही मुल्लाओं की तरह बुद-बुद होंठ हिला रहे थे। उनकी इस शरारत पर इतनी बुरी तरह हँसी का हमला हुआ कि असग़री ख़ानम ने दूर से पँखे की डंडी दिखा कर धमकाया तब कहीं जाकर हँसी ने दम तोड़ा।
मीलाद शरीफ़ के ख़ात्मे पर जब सलाम पढ़ा गया तो सब खड़े हो गए। बड़े मियाँ ने मोहब्बत से लड़कों की तरफ़ देख कर सलाम पढ़ने में शरीक होने का इशारा किया।
“पढ़ो मियाँ, ख़ामोश क्यों हो?”
“जी! जी!”
“ख़ुदा के हुज़ूर में जो दिल से निकले, वही उसे मंज़ूर होता है।” उन्होंने रौशन को ऐसे घूरा कि वो सहम कर साथ देने लगे।
समद मियाँ ने भी एक तान कुछ “ओल्ड-मैन रिदर” से सुरों में लगाई मगर रौशन ने संभाल लिया। क्या भारी भरकम पुर-सोज़ आवाज़ थी कि बड़े मियाँ पर तो रिक़्क़त तारी हो गई। विलायत पलट लड़कों से बद-ज़ेह्न तमाम बुज़ुर्ग अपने गिरेबानों में मुँह डाल कर रह गए।
“अरे साहब सच्चा मुसलमान चाहे काफ़िरों में रहे चाहे मस्जिद में, उनके ईमान पर दाग़ नहीं पड़ता। माशाअल्लाह रौशन मियाँ के गले में अक़ीदे का सोज़ भरा हुआ है।” बड़े मियाँ ने आस्तीन के कोने से आँखें साफ़ कर के फ़रमाया और रौशन के चेहरे पर नूर की चमक देख-देख कर खिल उठे।
सबीहा की कटोरा जैसी आँखें छल-छल बरस उठीं। टक-टकी बाँधे वो उन्हें तकती रह गई। जब लड़कियों ने क़ायदे के मुताबिक़ उसे छेड़ा तो वो झूठ को भी न बिगड़ी। ज़िन्दगी में पहली बार ऐसा मा’लूम हुआ जैसे कोई पुराना जान पहचान का मिल गया हो।
समद मियाँ जब घर में आए तो हर एक का चेहरा रौशन के परतौ से जगमगा रहा था। सिवाए सबीहा के, जिसने चारों तरफ़ से घेर कर सवालों की भरमार कर दी थी। कौन हैं। क्या करते हैं।
“ऐ है किसका लड़का है?” सुग़रा ख़ानम ने लगामें अपने हाथ में ले लीं।
“अपने बाप का।” समद ने लापरवाही से टाल दिया और चाय बाहर भिजवाने की लिए कहा।
“ऐ है लड़के हर वक़्त का मज़ाक नहीं भाता। ये बता इसके बाप कौन हैं?”
“हैं नहीं, थे। फ़ॉरेस्ट ऑफ़िसर थे। तीन साल हुए डेथ हो गई उनकी।”
“इन्ना लिल्लाही व इन्ना इलैही राजिऊन! क्या करता है लड़का?” नानी जी ने पूछा।
“कौन सा लड़का?” समद ने जाते-जाते पलट कर पूछा।
“कौन! ऐ यही तेरा दोस्त।”
“रौशन? डॉक्टर है। एमडी की डिग्री लेने मेरे साथ ही गया था, फिर वहीं इंग्लैंड में नौकरी कर ली। कुछ खाने को भिजवा दीजिए मगर मेरे कमरे में भिजवाएगा। बाहर दर्जन भर बूढ़े बैठे हैं, सब हड़प कर जाएंगे। ये बुढ़ापे में लोग इतने नदीदे क्यों हो जाते हैं?”
सुगरा ख़ानम फ़ौरन ख़म ठोक कर मैदान में फाँद पड़ीं तीर, तलवार संभाले और हमला बोल दिया।
“ए समद मियाँ! जैसे तुम वैसे तुम्हारा दोस्त। इससे क्या पर्दा? इधर ही गोल कमरे में बुला लो।” वो आँखों में रस घोल कर बोली। उन दिनों सय्यदों में भी काना पर्दा शुरु’ हो गया है। ख़ानदान के बड़े-बूढ़ों की आँख बचा कर लड़कियाँ खुले-मुँह नुमाइश में जाएँ, मुशाइ’रों में शरीक हों, सहेलियों के भाइयों और भाइयों के दोस्तों से बड़े बूढ़ों की रज़ा-मंदी ले कर मिलें मगर सड़क पर जाते वक़्त ताँगे में पर्दा बाँधा जाता है। बुज़ुर्गों को दिखाने के लिए। समद रौशन को गोल कमरे में ले आए। सबीहा के सिवा सब वहीं चाय पीने लगे।
सबीहा को सुग़रा ख़ानम कमरे में घेरे चौमुखे हमले कर रही थी। उनका बस चलता तो जहेज़ का कोई भारी ज़रतार जोड़ा पहना देतीं। मगर सबीहा हस्ब-ए-आदत बड़ी-बड़ी आँखों में आँसू लिए रो रही थी। घर में जब कोई मोटा मुर्ग़ा आता उसे यूँ ही सजाया जाता। बेचारी के हाथ पैर ठंडे हो जाते, मुँह लटक जाता और नाक पर पसीना फूट निकलता और शक्ल छोटी बिल्ली की सी हो जाती। जब से कई पैग़ाम आकर फिर गए तब से उसे और भी दहशत होने लगी थी। रौशन जैसा हैंडसम और कमाऊ वर भला कैसे फँसेगा। ज़रा कोई लड़का किसी क़ाबिल हुआ तो ख़ानदान वाले ही रिश्ते का हक़ वसूल करने दौड़ पड़ते हैं। फिर मिलने वालों की बारी आती है। हो सकता है उसकी शादी हो चुकी हो। दो बच्चे हों!
मगर असग़री ख़ानम कच्ची गोलियाँ नहीं खेलती थी न उन्होंने धूप में चौंडा सफ़ेद किया था।
“लौंडा ख़ैर से कुँवारा है, ब्याहे मर्द का ढंग ही और होता है।” दूसरे उन्होंने पहले ही समद से पूछ लिया था।
“बीवी बच्चे संग ही हैं?”
“किसके? रौशन के। अरे गधे के बीवी बच्चे कहाँ, अभी तो ख़ुद ही बच्चा है। मुझसे दो साल छोटा है।” बस असग़री ख़ानम ने चट हिसाब लगा लिया कि सबीहा से चार साल बड़ा हुआ। ख़ूब जोड़ी रहेगी। इससे कम फ़र्क हो तो चार बच्चों बाद बीवी मियाँ की अम्मा लगने लगती है। वैसे मरने वाले तो असग़री ख़ानम से बीस बरस बड़े थे। हाए क्या इश्क़ था अपनी दुल्हन जान से! मगर जब असग़री ख़ानम सजा बना कर सबीहा को गोल कमरे में लाईं तो रौशन जा चुके थे। असग़री ख़ानम का बस चलता तो चीख़तीं चिल्लातीं उनके पीछे लपकतीं। मगर समद मियाँ की उन्होंने ख़ूब टाँग ली।
“जवान बहनिया की पाल कब तक डालोगे। क्या सफ़ेद चौंडे में अफ़्शाँ चुनी जाएगी। तुम ही कुछ न करोगे तो कौन करेगा?”
“कौन, मैं?” समद ख़्वाह-म-ख़्वाह चिढ़ गए, “मुझसे ख़ुद तो अपनी शादी हो नहीं रही है, दूसरों की क्या करुँगा?”
“मज़ाक में हर बात को टाल देते हो। आज इसका बाप ज़िन्दा होता तो...” असग़री ख़ानम टसर-टसर रोने लगीं, “आख़िर क्या होगा इन चार चट्टानों का। तौफ़ीक़ निगोड़ी को हौल दिल के दौरे न पड़ें तो और क्या हो।”
“कौन सी चट्टानें?” समद मियाँ इंजीनियर थे। उन्हें चट्टानों, पहाड़ियों से बड़ी दिलचस्पी थी।
“ए मियाँ अब बनो मत। अल्लाह रखे अब तुम इस क़ाबिल हो अपने दोस्तों में से ढूँढो कोई।”
“भई मैं इन झगड़ों में नहीं पड़ना चाहता।” वो टाल कर चल दिए।
मगर आँधी टले तूफान टले असग़री ख़ानम को कौन टाले? आते-जाते टाँग लेती। फिर उन्हें एक अनोखी तरकीब सूझी। वो फ़ौरन किसी जानलेवा और अनजाने मर्ज़ में मुब्तला हो गईं। और ऐन उस वक़्त जब रौशन समद मियाँ से मिलने आए, उन पर सख़्त भयानक क़िस्म का दौरा पड़ गया। इतनी ज़ोर-ज़ोर से आहे भरीं की बेचारे बद-हवास हो गए। झट से नौकर को भेज कर अपनी डिस्पेंसरी से बैग और इंजेक्शन मंगवाए। बड़ी देर तक देखते भालते रहे। असग़री ख़ानम आख़िरी वक़्त में भला सबीहा का हाथ क्यों कर छोड़ देती। वो उनके सिरहाने सहमी बैठी रही कि कहीं चोर पकड़ न लिया जाए। उन्हें ख़ामोश देख कर वो समझ गई कि असग़री बुआ की चाल पकड़ी गई।
“क्या बीमारी है?” उसने डरते-डरते पूछा।
“ए पूछिए कौन सी बीमारी नहीं है। गुर्दों की हालत ख़राब है, मे'दा क़तई काम नहीं करता। दिल बस ज़रा सा धड़क रहा है। आँतों में ज़ख़्म हैं। फेफड़ों के नीचे पानी उतर आया है।” उन्होंने समद को एक तरफ़ ले जाकर कहा। सबीहा ने सुना तो हँसी न रोक सकी। अस्ल मर्ज़ की तरफ़ तो उन्होंने आँख उठा कर भी न देखा।
“अमाँ हटाओ भी इतनी बीमारियाँ होतीं तो ज़िन्दा कैसे रह सकती थीं। और ज़िन्दा भी कैसी, सारे ख़ानदान पर चाबुक फटकारती हैं।” समद बोले।
“यही तो मैं सोच रहा हूँ। ये ज़िन्दा कैसे हैं। कुछ ऐसी लीपा-पोती होती रहती है कि खंडर खड़ा है। डॉक्टरी से बढ़ कर कोई ताक़त काम कर रही है।”
असग़री बुआ ठनकीं और बिदक उठीं, “ऊई नौज... दूर पार। ए लो मेरे दुश्मन काहे को लब-ए-गोर होते। ऐ मियाँ तुम डॉक्टर हो कर निरे सलौतरी। ए चूल्हे में जाए तुम्हारी दवाएँ। मुई फिरंगियों की दवाओं में दुनिया भर की क़लीतें होती हैं। थू...” वो बड़बड़ाई।
“बस अल्लाह पाक इज़्ज़त आबरू से उठा ले। ऐ लड़के ठीक से बैठ। निगोड़ियों कुछ शरबत पानी लाओ कि गधों की तरह खड़ी मुँह देख रही हो। ऐ बच्चे कै बहनें हैं तेरी,” अचानक असग़री ख़ानम ने पैंतरा बदला।
“ऐं! जी दो... दो बड़ी बहनें। एक बेवा है।” रौशन ने संभल कर वार रोका।
“चे हे हे। और दूसरी कहाँ ब्याही है?”
“कानपुर में सिविल इंजीनियर हैं उनके...”
“ऐ कानपुर ही में तो अपने तक़ी मियाँ की ख़लिया सास रहवे हैं। क्या नाम है अल्लाह रखे बहनोई का।”
“एस. एन. किचलू।” समद मियाँ बोले। “क्यों क्या कुछ बनवाने का इरादा है।”
“हाँ अपनी क़ब्र बनवाऊँगी। अच्छा तो तुम लोग कश्मीरी हो।” बेचारी कुछ बुझ गईं।
“ऐ सैफ़-उद-दीन किचलू के ख़ानदान से कुछ है मेल।”
“जी वो मेरे चाचा के दोस्त थे।”
रौशन के जाने के बाद तड़प कर मरीज़ा उठ बैठीं।
“भई सोच लो कश्मीरी है।”
“हाँ और इससे पहले जो पैग़ाम आया था वो लोग कम्बूह थे। बस यही देखती रहो। अरे सब इन्सान बराबर हैं। पाक परवरदिगार ने सब को अपने हाथ से बनाया है। मुसलमानों में ज़ात-पात छूत-छात नहीं होती।” तौफ़ीक़ जहाँ बिगड़ने लगीं।
“भई मुझे ये सबीहा के नखरे फूटी आँख नहीं भाते। उधर वो आया और इधर बन्नो मुँह थोथा कर भागीं। जी चाहा लगाऊँ चुड़ैल के दो चाँटे।”
मगर सबीहा क्या करती। रौशन के आते ही वो कमरे में भाग जाती। यूँ सब के सामने घूर कर देखती तो न जाने वो क्या सोचते। दरवाजे़ की ओट से मज़े से जी भर के देख सकती थी। अब तो इलाज के लिए वो बिला-नाग़ा आने लगे। असग़री ख़ानम कुछ ऐसी तरकीब चलती कि सबीहा को पास रोक लेती। और बेचारे रौशन तो ऐसे झेंपू थे कि सबीहा भी शेर हो गई उन्हें एक नज़र भर कर अपनी काली भौंरा आँखों से देखती तो उनके हाथ में इंजेक्शन की सुई काँपने लगती। वो हँस पड़ती तो घबरा कर बच्चों की तरह नाख़ून कतरने लगते। तब वो और भी दीदा दिलेर हो जाती।
“डॉक्टर साहब हमारी बिल्ली का जी अच्छा नहीं।”
“क्या हो गया?”
“पता नहीं। बेचारी खोई-खोई सी रहती है।”
“ओहो। मा’लूम होता है बेचारी का दिल टूट गया है।”
“अरे वाह। क्यों?”
“आप रुठ गई होंगी।” वो दबी ज़बान से कहते।
“अजी हाँ, मैं क्यों रुठती?” सबीहा काली-काली पलकें झपकाती।
“तो फिर डरती होगी आप से।”
“वाह क्या में इतनी डरावनी हूँ।”
“डरावनी चीज़ों से तो डरपोक डरते हैं!”
“और बहादुर?”
“काली-काली आँखों से।”
दोनों अंग्रेज़ी में नोक-झोंक किए जाते तो असग़री ख़ानम को घबराहट होने लगती। भला घिट-पिट करके भी कहीं प्यार की बातें हुआ करती है। मुई काफ़िरों की ज़बान में “लेफ़्ट राइट क्विक मार्च” के सिवा और क्या होता है? वो एक दम बीच में कूद पड़तीं, “ऐ रौशन! मेरे चाँद, ज़रा मेरी बालूशाहियों पर नियाज़ तो दे दे। तेरे ख़ालू मियाँ की बरसी है।” वो फ़ौरन होशियारी से रिश्ता लगातीं।
“कौन मैं?” रौशन बौखला गए।
“आप भी हद करती हैं असग़री ख़ाला। इनसे फ़ातिहा पढ़वा कर अपनी आक़िबत ख़राब करने का इरादा है। भला इन्हें क्या ख़बर कि फ़ातिहा किस चिड़िया का नाम है। एक आयत भी न याद होगी।” सबीहा उड़ाने लगी।
“अच्छा मुल्लानी जी आप बीच में न बोलें।” रौशन चिढ़ गए।
“अरे साहब छोड़िए। हमें मा’लूम है। आप और समद भैय्या में क्या कुछ फर्क़ है? वो भी तो साहब बहादुर बन गए हैं।”
“ख़ाला जी आप रौशन से फ़ातिहा पढ़वा रही हैं?” समद ने क़हक़हा लगाया।
“अरे ग़ारत हो कल-मुंहो। लानत हो। मुए आज कल के लौंडे हैं कि निगोड़े सब के सब बे-दीन।” असग़री ख़ानम बालूशाहियों का थाल उठा कर दालान में ले गईं। मगर बेचारी की फ़िक्र दूर न हुई।
“ऐ तौफ़ीक़ जहाँ।”
“हाँ क्या है?” तौफ़ीक़ जहाँ ने पँखे से मक्खी को धमका कर जवाब दिया।
“ऐ मैं कहूँ ये आज कल के लड़कों के निकाह कैसे पढ़े जावेंगे।”
“क्यों?”
“अरे इन्हें आमंतो भी तो नहीं आती।” आमंतो बिल्लाह एक आयात होती है जो निकाह के वक़्त दूल्हा को पढ़नी पड़ती है, जिसमें वो इक़रार करता है कि मैं ख़ुदा और उसके फरिश्तों और उसकी भेजी हुई किताबों पर ईमान रखता हूँ। इस आयत को पढ़े बग़ैर निकाह नहीं हो सकता। “क़ाज़ी जी बोलते जाते हैं और दूल्हा दोहराता जाता है।”
बस बहन अब तो ऐसे ही निकाह हो रहे हैं।” तौफ़ीक़ जहाँ बोली।
“मगर अब इस नियाज़ का क्या हो?” वो फ़िक्र-मंद हो गई।
“कैसी नियाज़?”
“अरे भई मैंने तो झूट-मूठ कह दिया था कि उनकी बरसी है। ये मन्नत की नियाज़ है। लड़का ख़ुद नियाज़ दे जब ही पूरी होगी।”
“ए चलो इधर। ऐसी कोई मन्नत नहीं होती।” तौफ़ीक़ जहाँ ने टालना चाहा। “नहीं जी! तुम तो किसी बात को मानती ही नहीं हो। ख़ैर फिर सही।” और वो ख़ुद दुपट्टा सिर पर मंढ़ कर बुद-बुद नियाज़ देने लगीं।
दूसरे दिन रौशन आए तो झट पूछा, “क्यों रे तूने क़ुरआन ख़त्म किया था?”
“जी? नहीं तो, एक बार अंग्रेज़ी में पढ़ा था थोड़ा सा... तो...” रौशन हकलाए।
“हे हे... ये मुई लक्कड़-तोड़ ज़बान में कैसा क़ुरआन? लड़के दीवाना तो नहीं हुआ।”
“तो समद भैया ने कौन सा पढ़ लिया है। सारी उ’म्र अंग्रेज़ी स्कूल में रहे। कॉलिज में फ़ुरसत न मिली। उसके बाद इंग्लैंड चले गए।”
मगर सबीहा ख़ुद हर रमज़ान के महीने में पाँच क़ुरआन ख़त्म करती थी। रोज़े नमाज़ की पाबंद थी। हालाँकि समद कहते थे कि वो नाज़ुक बदन बनने के लिए फ़ाक़े करती थी। तौबा-तौबा!
सूत न कपास कोल्हू से लट्ठम-लट्ठा! रौशन की आँखों से दिल के राज़ का पता बच्चे-बच्चे को चल चुका था, मगर ज़बान न जाने क्यों गुंग थी। कभी बैठे-बैठे एक दम आँखों में ग़म का अथाह समंदर ठाटे मारने लगता और सिर झुका कर उठ कर चले जाते। सबीहा की तरफ़ ऐसी तरसी हुई निगाहों से देखते जैसे वो किसी दूसरी दुनिया में खड़ी हो, दरमियान में फ़ौलादी सलाख़ें हों और काले देव का पहरा। सबीहा के मुखड़े पर ग़ुरूर और इत्मिनान का नूर फूटने लगा था। जैसे मन्ज़िल पर पहुँच कर आराम से छाँव में बैठ गई हो। सारी अनजानी कसक और तन्हाई मिट कर घरौंदा जगर मगर करने लगा हो।
मगर दिक़्क़त ये थी कि लड़के का यहाँ कोई है नहीं, फिर पैग़ाम कैसे मंगवाया जाए। आज तो शादियाँ ऐसे ही होती है कि दो जनों का एक दूसरे पर जी आ गया। दोस्तों ने पैग़ाम दिया। यारों ने शादी कर दी। असग़री ख़ानम को ऐसी टुकड़ा तोड़ शादियों से नफ़रत थी। मगर ज़माने के नए रंग-ढंग देख कर नई वज़ा की शादियों से भी उन्होंने रो पीट कर समझौता कर लिया था। पहले-पहल जब नुसरत और ख़लीक़ा ने ऐसी चट-पट शादी की थी तो उन्होंने बड़ा शोर मचाया था। मगर फिर उन्हें अपनी पॉलिसी नर्म करनी पड़ी।
इधर रौशन भोंदू थे। उधर सबीहा भी ज़रा चंट होतीं तो कभी का उन्हें डकार चुकी होतीं। काश उसे कोई छोटी प्यारी सी बीमारी लग जाती तो रौशन उसका इलाज करते-करते ख़ुद मर्ज़ मोल ले बैठते। असग़री ख़ानम घेर-घेर कर मुर्ग़ी को दरबे में फाँसने की कोशिश करतीं मगर अपने मुँह की खा कर रह जातीं।
“ऐ लड़की तेरे सिर में आधे सिर का दर्द होवे है। इलाज क्यों नहीं करा लेती डॉक्टर से?” वो सबीहा को राए देतीं।
“ऐ वाह ख़ाला जी मेरे सिर में काहे को होता दर्द।” वो बिगड़ने लगती गधी।
“पहले तो होवे था अब भली चंगी हो गई हो तो मुझे नहीं ख़बर।”
वो सबीहा की सेहत से जल कर कहतीं, “देख तो बेटा रौशन कैसी झुलस कर रह गई है बच्ची।”
“अरे ख़ाला जी इनकी तो रंगत ही सियाह भट है। कहिए तो खाल खींच कर दूसरी चढ़ा दूँ प्लास्टिक सर्जरी से।”
“जी हाँ बड़े आए खाल खींचने वाले। हम काले ही भले।”
“ऊई काली किधर है लौंडिया। हाँ गेहुंआ रंगत है।” असग़री बुआ परेशान होकर कहती।
“जी हाँ इधर कुछ दिनों से अमेरिका से गहूँ भी काला ही आ रहा है।” रौशन छेड़ते।
“हाँ बस एक आप ही ज़माने भर में गोरे हैं, हो न हो फीके शलजम!” सबीहा चिढ़ जाती।
“आप तो नमक की कान हैं। चलिए कुछ तो मज़ा आ जाएगा।” वो चुपके से कहते।
असग़री ख़ानम बद-मज़्गी मिटाने को जल्दी से बात बदलती, “ऐ काली-गोरी रंगतें सब अल्लाह की देन है। परसों कह रही थी सिर भारी है। वैसे तेरे बाल भी तो झड़ रहे हैं। बेटा कोई बाल बढ़ाने की दवा बताओ।”
“अरे ख़ाला जी बहुत बाल हैं। हाँ कहें तो दिमाग़ को बढ़ाने की दो चार इंजेक्शन लगा दूँ।”
“आ हा हा बड़े आए सलोतरी जी।” और रौशन का चेहरा हँसते-हँसते सबीहा के गुलाबी आँचल को मात करने लगता।
असग़री ख़ानम इस कचर-मचर से उदास हो कर बड़ी ज़ोर-ज़ोर से कराहने लगतीं। एक दो दफ़ा’ उन्होंने समद को घेर कर बात कर ही डाली।
“ऐ भैय्या कोई पैग़ाम न ऐग़ाम।”
“कैसा पैग़ाम?”
“ऐ रौशन का। उससे कहो अपनी बहन बहनोई से पैग़ाम भिजवाए।”
“मगर ख़ाला जी रौशन...”
“हाँ-हाँ बेटे मुझे सब मा’लूम है। मगर अब ज़माना बदल गया है। हज़ारों शादियाँ हो रही हैं, कब तक लड़की बिठाए रखेंगे। तौफ़ीक़ जहाँ का दिल कोई दिन और काम देगा। फिर दोनों में अल्लाह रखे चाव भी है।”
“मगर... ख़ाला जी।”
“बेटे! तुम अल्लाह रखे सात समंदर पार रहे, तुम्हें क्या मा’लूम दुनिया कितनी बदल गई। सय्यदों की बेटियाँ किन-किन को गईं। सरफराज़ मियाँ की लड़की ने तो ज़हर खा लिया। अब अल्लाह की मर्ज़ी ही है तो जहालत की बातों में पड़ने से क्या हासिल।”
“मगर... मैं सोचूँगा।” समद मियाँ चकराए से जाकर बाहर पड़ गए। इस इन्क़िलाब की उन्हें उम्मीद न थी। दुनिया से दूर वो कितने जाहिल रह गए जबकि उनके बुज़ुर्ग तक इतने रौशन ख़याल हो चुके थे। उनका दिल ग़ुरुर से भर गया। शाम की गाड़ी से उन्हें साईंस कॉन्फ़्रेंस में शिरकत के लिए जाना था। अब वहाँ से लौट कर ही सब कुछ होगा।
इधर असग़री ख़ानम ने वक़्त ज़ाया करना मुनासिब न समझा। अगर कोई और मौक़ा होता तो आसमान सिर पर उठा लेतीं। यहाँ बेटी ब्याहनी थी इसलिए तौफ़ीक़ जहाँ को कह-सुन कर पटा लिया कि सबीहा बेकार वक़्त बर्बाद करने के बजाए अगर कुछ काम सीखने लगे तो कैसा रहे? तय हुआ कि रौशन मियाँ की डिस्पेंसरी में नर्सिंग सीखने चली जाया करे। बिल्ली के भागों छींका टूटा और सबीहा नर्सिंग सीखने जाने लगी, जिसका सबक़ सुबह से ले कर रात के सिनेमा के आख़िरी शो तक चलता रहता। और सबीहा चुस्त चालाक नर्स के बजाए दिन-ब-दिन उस जाने पहचाने मर्ज़ में खोती गई जो जन्म-जन्म से मर्द औरत को सौंपता आया। रौशन के स्वेटर बुने जाने लगे और कमरे में उनकी क़मीस, उनके मोज़े बिखर से गए। बस चौदह तबक़ रौशन हो गए।
जैसे ही शिकार गिरता है, शिकारी जो मक्र-गाँठे झाड़ियों में दुबका होता है, एक ही जस्त लगा कर आ दबोचता है और गले पर छुरी रख देता है। असग़री ख़ानम ने भी सारी बीमारी दूर फेंकी और धम से अखाड़े में आन जमीं। झपा-झप जहेज़ सिलने लगा, बड़ी देग़ों पर से लिहाफ़ तोशक के अंबार उतार कर कली होने लगी। ड्योढ़ी पर सुनार बैठ गया कि सामने न बनवाओ तो मुआ उपले थोप देगा। बी सैदानी मचले की पोट संभाल कर तवी चम्पा और गोखरु तोड़ने लगीं। गोखरु के हर कंगूरे पर लब भर के दुआए देती जातीं। गवइयाँ सुहाग और बनरे याद कर कर के कापियों में उतारने लगी। गोरे दूल्हा और साँवली दुल्हन पर गीत जोड़े जाने लगे।
“ए भई बाप का नाम रौशन तो बेटे का?” असग़री ख़ानम फ़िक्र-मंद हो कर पूछतीं।
“जौशन” कोई शोख़ सहेली छेड़ती और सबीहा जल कर उसकी बोटियाँ नोचने लगती।
“ऐ भई उन्हें अपनी कल्लो रानी ही पसंद है, तुम लोग काहे को जल मरती हो।” असग़री ख़ानम डाँटतीं और सबीहा आँखों में ख़्वाबों के जमघटे लिए नर्सिंग सीखने भाग जातीं।
मगर किसे ख़बर थी क़िस्मत ये गुल खिलाएगी। पल भर में चमकता सूरज उलटा तवा बन जाएगा। वही रौशन जो कल तक चौहदवीं के चाँद को शरमा रहे थे, लोट पोट कर खड़े हुए तो काला देव! और उस काले देव ने पलक झपकाते में ऊँचे-ऊँचे महलों को चकनाचूर कर दिया। असग़री ख़ानम के सारे नए पुराने मर्ज़ एक दम उन पर टूट पड़े। जब समद मियाँ कॉन्फ्रे़ंस से जम-जम लौटे तो घर में जैसे कोई मय्यत हो गई हो। सन्नाटा भाँय-भाँय कर रहा था। असग़री ख़ानम का एक कोसना ज़मीन तो एक आसमान। ज़मुर्रद का महल सातवें आसमान पर लरज़ा और एक दम फुस से बैठ गया। क़लई की देगों पर फिर लिहाफ़ तोशक लद गए। धनक की पिंडिया उलझ कर झोंज बन गई। सुनार ड्योढ़ी से धुत्कार दिया गया और जिसने सुना मुँह पीट लिया।
“आख़िर हुआ क्या। कुछ मा’लूम तो हो?” समद मियाँ ने पूछा।
“अरे उस छत्तीसी से पूछे। जो चढ़-चढ़ कर दीदे लड़ाने जाती थी।”
तौफ़ीक़ जहाँ ने ज़ानू पीट लिया, “हर्राफ़ा...”
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