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अमृतसर आज़ादी से पहले

कृष्ण चंदर

अमृतसर आज़ादी से पहले

कृष्ण चंदर

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    जलियाँवाला बाग़ में हज़ारों का मजमा था। इस मजमे में हिंदू थे, सिक्ख भी थे और मुस्लमान भी। हिंदू मुस्लमानों से और मुस्लमान सिक्खों से अलग साफ़ पहचाने जाते थे। सूरतें अलग थीं, मिज़ाज अलग थे, तहज़ीबें अलग थीं, मज़हब अलग थे लेकिन आज ये सब लोग जलियाँवाला बाग़ में एक ही दिल ले के आए थे। इस दिल में एक ही जज़्बा था और इस जज़बे की तेज़ और तुंद आँच ने मुख़्तलिफ़ तमद्दुन और समाज एक कर दीए थे।

    दिलों में इन्क़िलाब की एक ऐसी पैहम रौ थी कि जिसने आस-पास के माहौल को भी पुर-फ़साद बना दिया था। ऐसा मालूम होता था कि इस शहर के बाज़ारों का हर पत्थर और इसके मकानों की हर एक ईंट इस ख़ामोश जज़्बे की गूंज से आश्ना है और इस लरज़ती हुई धड़कन से नग़मा-रेज़ है। जो हर लम्हे के साथ गोया कहती जाती हो। आज़ादी, आज़ादी।।

    जलियाँवाला बाग़ में हज़ारों का मजमा था और सभी निहत्ते थे और सभी आज़ादी के परसतार थे। हाथों में लाठियाँ थीं रिवॉल्वर, ना ब्रेन गन ना स्टेन गन। हैंड ग्रेनेड ना थे। देसी या विलाएती साख़्त के बम भी थे मगर पास कुछ ना होते हुए भी निगाहों की गर्मी किसी भूंचाल के क़यामत-ख़ेज़ लावे की हिद्दत का पता देती थी।

    सामराजी फ़ौजों के पास लोहे के हथियार थे। यहां दिल फ़ौलाद के बन के रह गए थे और रूहों में ऐसी पाकीज़गी सी गई थी जो सिर्फ आला-ओ-अर्फ़ा क़ुर्बानी से हासिल होती है। पंजाब के पांचों दरियाओं का पानी और उनके रूमान और उनका सच्चा इश्क़ और उनकी तारीख़ी बहादुरी आज हर फ़र्द, बशर, बच्चे, बूढ़े के टिमटिमाते हुए रुख़्सारों में थी। एक ऐसा उजला-उजला ग़ुरूर जो उसी वक़्त हासिल होता है जब क़ौम जवान हो जाती है और सोया हुआ मुल्क बेदार हो जाता है। जिन्हों ने अमृतसर के ये तेवर देखे हैं। वो इन गुरूओं के इस मुक़द्दस शहर को कभी नहीं भुला सकते।

    जलियाँवाला बाग़ मैं हज़ारों का मजमा था और गोली भी हज़ारों पर चली। तीनों तरफ़ रास्ता बंद था और चौथी तरफ़ एक छोटा सा दरवाज़ा था। ये दरवाज़ा जो ज़िंदगी से मौत को जाता था। हज़ारों ने ख़ुशी-ख़ुशी जाम-ए-शहादत पिया। आज़ादी की ख़ातिर, हिंदू मुस्लमानों और सिक्खों ने मिलकर अपने सीनों के खज़ाने लुटा दीए और पांचों दरियाओं की सर-ज़मीन में एक छटे दरिया का इज़ाफ़ा किया था। ये उनके मिले जले ख़ून का दरिया था ये उनके लहू की तूफ़ानी नदी थी जो अपनी उमंडती हुई लहरों को लिए हुए उठी और समाजी क़ुव्वतों को ख़स-ओ-ख़ाशाक की तरह बहा ले गई, पंजाब ने सारे मुल्क के लिए अपने ख़ून की क़ुर्बानी दी थी और इस वसीअ आसमान तले किसी ने आज तक मुख़्तलिफ़ तहज़ीबों, मुख़्तलिफ़ मज़हबों और मुख़्तलिफ़ मिज़ाजों को एक ही जज़्बे की ख़ातिर यूं मुदग़म होते ना देखा था। जज़्बा शहीदों के ख़ून से उस्तिवार हो गया था। उसमें रंग गया था। हुस्न, रानाई और तख़लीक़ की चमक से जगमगा उठा। आज़ादी, आज़ादी, आज़ादी...

    सिद्दीक़ कटरा फ़त्ह ख़ाँ में रहता था। कटरा फ़त्ह ख़ाँ में ओम प्रकाश भी रहता था जो अमृतसर के एक मशहूर ब्योपारी का बेटा था। सिद्दीक़ उसे और ओम प्रकाश सिद्दीक़ को बचपन से जानता था। वो दोनों दोस्त ना थे क्योंकि सिद्दीक़ का बाप कच्चा चमड़ा बेचता था और ग़रीब था और ओम प्रकाश का बाप बैंकर था और अमीर था लेकिन दोनों एक दूसरे को जानते थे। दोनों हम-साए थे और आज जलियाँवाला बाग़ में दोनों इकट्ठे हो कर एक ही जगह पर अपने रहनुमाओं के ख़्यालात और उनके तास्सुरात को अपने दिल में जगह दे रहे थे। कभी कभी वो यूं एक दूसरे की तरफ़ देख लेते और यूं मुस्कुरा उठते जैसे वो सदा से बचपन के साथी हैं और एक दूसरे का भेद जानते हैं। दिल की बात निगाहों में निथर आई थी। आज़ादी, आज़ादी,आज़ादी...

    और जब गोली चली तो पहले ओम प्रकाश को लगी कंधे के पास और वो ज़मीन पर गिर गया। सिद्दीक़ उसे देखने के लिए झुका तो गोली उस की टांग को छेदती हुई पार हो गई। फिर दूसरी गोली आई। फिर तीसरी। फिर जैसे बारिश होती है। बस इसी तरह गोलीयाँ बरसने लगीं और ख़ून बहने लगा और सिक्खों का ख़ून मुस्लमानों में और मुस्लमानों का ख़ून हिंदूओं में मुदग़म होता गया। एक ही गोली थी, एक ही क़ुव्वत थी, एक ही निगाह थी जो सब दिलों को छेदती चली जा रही थी।

    सिद्दीक़ ओम प्रकाश पर और भी झुक गया। उसने अपने जिस्म को ओम प्रकाश के लिए ढाल बना लिया और फिर वो ओम प्रकाश दोनों गोलीयों की बारिश में घुटनों के बल घिसटते घिसटते इस दीवार के पास पहुंचे जो इतनी ऊंची ना थी कि उसे कोई फलाँग ना सकता लेकिन इतनी ऊंची ज़रूर थी कि उसे फलांगते हुए किसी सिपाही की गोली का ख़तरनाक निशाना बनना ज़्यादा मुश्किल था। सिद्दीक़ ने अपने आपको दीवार के साथ लगा दिया और जानवर की तरह चारों पंजे ज़मीन पर टेक कर कहा।

    “लो प्रकाश जी ख़ुदा का नाम ले के दीवार फलाँग जाओ।” गोलीयाँ बरस रही थीं। प्रकाश ने बड़ी मुश्किल से सिद्दीक़ की पीठ का सहारा लिया और फिर ऊंचा हो कर उसने दीवार को फलांगने की कोशिश की। एक गोली सनसनाती हुई आई..

    “जल्दी करो..” सिद्दीक़ ने नीचे से कहा।

    लेकिन इससे पहले प्रकाश नीचे जा चुका था। सिद्दीक़ ने उसी तरह उकड़ूँ रह कर इधर-उधर देखा और फिर यक-लख़्त सीधे हो कर जो एक जस्त लगाई तो दीवार के दूसरी तरफ़ लेकिन दूसरी तरफ़ जाते-जाते सन-सनाती हुई गोली उसकी दूसरी टांग के पार हो गई। सिद्दीक़, प्रकाश के ऊपर जा गिरा फिर जल्दी से अलग हो कर उसे उठाने लगा।

    “तुम्हें ज़्यादा चोट तो नहीं आई प्रकाश।”

    लेकिन प्रकाश मरा पड़ा था। उसके हाथ में हीरे की अँगूठी भी ज़िंदा थी। उसकी जेब में दो हज़ार के नोट कुल-बुला रहे थे। उसका गर्म ख़ून अभी तक ज़मीन को सेराब किए जा रहा था। हरकत थी, ज़िंदगी थी, इज़तिराब था, लेकिन वो ख़ुद मर चुका था। सिद्दीक़ ने उसे उठाया और उसे घर ले चला, उस की दोनों टांगों में दर्द शिद्दत का था। लहू बह रहा था। हीरे की अँगूठी ने बहुत कुछ कहा सुना। लोगों ने बहुत कुछ समझाया। वो तहज़ीब जो मुख़्तलिफ़ थी। वो मज़हब जो अलग था, वो सोच जो बेगाना थी। उसने तंज़-ओ-तशनीअ से भी काम लिया। लेकिन सिद्दीक़ ने किसी की ना सुनी और अपने बहते हुए लहू और अपनी निकलती हुई ज़िंदगी की फ़र्याद भी ना सुनी और अपने रास्ते पर चलता गया। ये रास्ता बिलकुल नया था। गो कटरा फ़त्ह ख़ाँ ही को जाता था। आज फ़रिश्ते उस के हमराह थे। गो वो एक काफ़िर को अपने कंधे पर उठाए हुए था। आज उस की रूह इस क़दर अमीर थी कि कटरा फ़त्ह ख़ाँ पहुंच कर उस ने सबसे कहा, “ये लो हीरे की अँगूठी और ये लो दो हज़ार रुपय के नोट और ये है शहीद की लाश” इतना कह कर सिद्दीक़ भी वहीं गिर गया और शहर-वालों ने दोनों का जनाज़ा इस धूम से उठाया गोया वो सगे भाई थे।

    अभी कर्फ़्यू ना हुआ था। कूचा राम दास की दो मुस्लमान औरतें, एक सिक्ख औरत और एक हिंदू औरत सब्ज़ी ख़रीदने आईं। वो मुक़द्दस गुरू द्वारे के सामने से गुज़रीं। हर एक ने ताज़ीम दी और फिर मुँह फेर कर सब्ज़ी ख़रीदने में मसरूफ़ हो गईं। उन्हें बहुत जल्द लौटना था। कर्फ़्यू होने वाला था और फ़िज़ा में शहीदों के ख़ून की पुकार गूंज रही थी फिर भी बातें करते और सौदा ख़रीदते उन्हें देर हो गई और जब वापस चलने लगें तो कर्फ़्यू में चंद मिनट ही बाक़ी थे।

    बेगम ने कहा, “आओ इस गली से निकल चलें। वक़्त से पहुंच जाऐंगे।”

    पारो ने कहा, “पर वहाँ तो पहरा है गोरों का। शाम कौर बोली “और गोरों का कोई भरोसा नहीं।”

    ज़ैनब ने कहा, “वो औरतों को कुछ ना कहेंगे। हम घूँघट काढ़े निकल जाएँगी जल्दी से चलो।”

    वो पांचों दूसरी गली से हो लीं। फ़ौजीयों ने कहा, “इस झंडे को सलाम करो ये यूनीयन जैक है।” औरतों ने घबरा कर और बौखला कर सलाम किया। अब यहां से वहां तक। फ़ौजी ने गली की लंबाई बताते हुए कहा, “घुटनों के बल चलती हुई यहां से फ़ील-फ़ौर निकल जाओ।”

    “घुटनों के बल। ये तो हमसे ना होगा...” ज़ैनब ने चमक कर कहा। “और झुक कर चलो। सरकार का हुक्म है घुटनों के बल घिसट कर चलो।”

    “हम तो यूं जाऐंगे”। शाम कौर ने तन कर कहा, “देखें कौन रोकता है। हमें” ये कह कर वो चली।

    “ठहरो, ठहरो” पारो ने डर कर कहा। “ठहरो, ठहरो।”

    गोरे ने कहा, “हम गोली मारेगा।”

    शाम कौर सीधी जा रही थी। ठाएं, शाम कौर गिर गई। ज़ैनब और बेगम ने एक दूसरी की तरफ़ देखा और फिर वो दोनों घुटनों के बल गिर गईं। गोरा ख़ुश हो गया उसने समझा कि सरकार का हुक्म बजा ला रही हैं। ज़ैनब और बेगम ने घुटनों के बल गिर कर अपने दोनों हाथ ऊपर उठाए और चंद लम्हों के सुकूत के बाद वो दोनों सीधी खड़ी हो गईं और गली को पार करने लगीं। गोरा भौंचक्का रह गया। फिर ग़ुस्से से उसके गाल तमतमा उठे और उसने रायफ़ल सीधी की। ठाएं, ठाएं

    पारो रोने लगी। “अब मुझे भी मरना होगा। ये क्या मुसीबत है। मेरे पति देव। मेरे बच्चे, मेरी माँ जी, मेरे पिता, मेरे वीरू, मुझे क्षमा करना। आज मुझे भी मरना होगा, मैं मरना नहीं चाहती, फिर मुझे भी मरना होगा, में अपनी बहनों का साथ नहीं छोड़ूँगी।” पारो रोते-रोते आगे बढ़ी।

    गोरे ने नरमी से उसे समझाया , “रोने की ज़रूरत नहीं, सरकार का हुक्म मानो और इस गली में यूं घुटनों के बल गिर कर चलती जाओ, फिर तुम्हें कोई कुछ ना कहेगा”। गोरे ने ख़ुद घुटने पर गिर कर उसे चलने का अंदाज़ समझाया।

    पारो रोते-रोते गोरे के क़रीब आई। गोरा अब सीधा तन कर खड़ा था। पारो ने ज़ोर से इस के मुँह पर थूक दिया और फिर पलट कर गली को पार करने लगी। वो गली के बीचों-बीच सीधी तन कर चली जा रही थी और गोरा उस की तरफ़ हैरत से देख रहा था। चंद लम्हों के बाद उसने अपनी बंदूक़ सीधी की और पारो जो अपनी सहेलीयों में सबसे ज़्यादा कमज़ोर और बुज़्दिल थी। सबसे आगे जा कर मर गई।

    पारो, ज़ैनब, बेगम और शाम कौर...

    घर की औरतें, पर्देदार ख़वातीन, इफ़्फ़त मआब बीबियाँ, अपने सीनों में अपने ख़ाविंद का प्यार और अपने बच्चों की ममता का दूध लिए ज़ुल्म की अँधेरी गली से गुज़र गईं। उसके जिस्म गोलीयों से छलनी हो गए, लेकिन उनके क़दम नहीं डगमगाए। उस वक़्त किसी को मुहब्बत ने पुकारा होगा। किसी को नन्हे बाज़ुओं का बुलावा आया होगा, किसी को सुहानी मुस्कुराहट दिखाई दी होगी लेकिन उनकी रूहों ने कहा नहीं, आज तुम्हें झुकना नहीं है। आज सदियों के बाद वो लम्हा आया है जब सारा हिन्दोस्तान जाग उठा है और सीधा तन कर इस गली से गुज़र रहा है। सर उठाए आगे बढ़ रहा है, सर उठाए आगे बढ़ रहा है। ज़ैनब, बेगम, पारो, शाम कौर...

    किस ने कहा इस मुल्क से सीता मर गई? किस ने कहा अब इस देस में सती सावित्री पैदा नहीं होती?। आज इस गली का हर ज़र्रा किसी के कुद्दूसी लहू से रोशन है। शाम कौर, ज़ैनब, पारो, बेगम, आज तुम ख़ुद इस गली से सर ऊँचा कर के नहीं गुज़री हो, आज तुम्हारा देस फ़ख़्र से सर उठाए इस गली से गुज़र रहा है। आज आज़ादी का ऊँचा झंडा इस गली से गुज़र रहा है, आज तुम्हारे देस तुम्हारी तहज़ीब, तुम्हारे मज़हब की क़ाबिल-ए-एहतेराम रिवायतें ज़िंदा हो गईं। आज इन्सानियत का सर ग़ुरूर से बुलंद है। तुम्हारी रूहों पर हज़ारों, लाखों सलाम...

    स्रोत:

    हम वहशी हैं

    • लेखक: कृष्ण चंदर
      • प्रकाशक: रितिका चोपड़ा
      • प्रकाशन वर्ष: 2002

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