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सौ कैंडल पॉवर का बल्ब

सआदत हसन मंटो

सौ कैंडल पॉवर का बल्ब

सआदत हसन मंटो

MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    "इस कहानी में इंसान की स्वाभाविक और भावनात्मक पहलूओं को गिरफ़्त में लिया गया है जिनके तहत वो कर्म करते हैं। कहानी की केन्द्रीय पात्र एक वेश्या है जिसे इस बात से कोई सरोकार नहीं कि वो किस के साथ रात गुज़ारने जा रही है और उसे कितना मुआवज़ा मिलेगा बल्कि वो दलाल के इशारे पर कर्म करने और किसी तरह काम ख़त्म करने के बाद अपनी नींद पूरी करना चाहती है। आख़िर-कार तंग आकर अंजाम की परवाह किए बिना वो दलाल का ख़ून कर देती है और गहरी नींद सो जाती है।"

    वो चौक में क़ैसर पार्क के बाहर जहां टांगे खड़े रहते हैं। बिजली के एक खंबे के साथ ख़ामोश खड़ा था और दिल ही दिल में सोच रहा था। कोई वीरानी सी वीरानी है!

    यही पार्क जो सिर्फ़ दो बरस पहले इतनी पुररौनक़ जगह थी, अब उजड़ी पचड़ी दिखाई थी। जहां पहले औरत और मर्द शोख़-ओ-शंग फ़ैशन के लिबासों में चलते फिरते थे। वहां अब बेहद मैले कुचैले कपड़ों में लोग इधर-उधर बे मक़सद फिर रहे थे। बाज़ार में काफ़ी भीड़ थी मगर उसमें वो रंग नहीं था जो एक मेंले–ठेले का हुआ करता था। आस पास की सीमेंट से बनी हुई बिल्डिंगें अपना रूप खो चुकी थीं। सर झाड़ मुँह फाड़ एक दूसरे की तरफ़ फटी फटी आँखों से देख रही थीं, जैसे बेवा औरतें।

    वो हैरान था कि वो ग़ाज़ा कहाँ गया, वो सिंदूर कहाँ उड़ गया। वो सर कहाँ ग़ायब हो गए जो उसने कभी यहां देखे और सुने थे। ज़्यादा अर्से की बात नहीं, अभी वो कल ही तो (दो बरस भी कोई अर्सा होता है) यहां आया था। कलकत्ते से जब उसे यहां की एक फ़र्म ने अच्छी तनख़्वाह पर बुलाया था तो उसने क़ैसर पार्क में कितनी कोशिश की कि उसे किराए पर एक कमरा ही मिल जाये मगर वो नाकाम रहा था। हज़ार फ़रमाइशों के बावजूद।

    मगर अब उसने देखा कि जिस कंजड़े, जोलाहे और मोची की तबीअत चाहती थी, फ़्लैटों और कमरों पर अपना क़ब्ज़ा जमा रहा था।

    जहां किसी शानदार फ़िल्म कंपनी का दफ़्तर हुआ करता था, वहां चूल्हे सुलग रहे हैं। जहां कभी शहर की बड़ी बड़ी रंगीन हस्तियां जमा होती थीं, वहां धोबी मैले कपड़े धो रहे हैं।

    दो बरस में इतना बड़ा इन्क़िलाब!

    वो हैरान था, लेकिन उसको इस इन्क़िलाब का पसमंज़र मालूम था। अख़बारों के ज़रिये से और उन दोस्तों से जो शहर में मौजूद थे। उसे सब पता लग चुका था कि यहां कैसा तूफ़ान आया था। मगर वो सोचता था कि ये कोई अजीब-ओ-ग़रीब तूफ़ान था जो इमारतों का रंग-ओ-रूप भी चूस कर ले गया। इंसानों ने इंसान क़त्ल किए। औरतों की बेइज़्ज़ती की, लेकिन इमारतों की ख़ुश्क लकड़ियों और उनकी ईंटों से भी यही सुलूक किया।

    उसने सुना था कि उस तूफ़ान में औरतों को नंगा किया गया था, उनकी छातियां काटी गई थीं। यहां उसके आस पास जो कुछ था, सब नंगा और जोबन बुरीदा था।

    वो बिजली के खंबे के साथ लगा अपने एक दोस्त का इंतिज़ार कर रहा था जिसकी मदद से वो अपनी रिहाइश का कोई बंदोबस्त करना चाहता था। उस दोस्त ने उससे कहा कि तुम क़ैसर पार्क के पास जहां तांगे खड़े रहा करते हैं मेरा इंतिज़ार करना।

    दो बरस हुए जब वो मुलाज़मत के सिलसिले में यहां आया तो ये टांगों का अड्डा बहुत मशहूर जगह थी, सबसे उम्दा, सबसे बाँके टांगे सिर्फ़ यहीं खड़े रहते थे क्योंकि यहां से अय्याशी का हर सामान मुहय्या हो जाता था। अच्छे से अच्छा रेस्टोरेंट और होटल क़रीब था। बेहतरीन चाय, बेहतरीन खाना और दूसरे लवाज़मात भी।

    शहर के जितने बड़े दलाल थे वो यहीं दस्तयाब होते थे। इसलिए कि क़ैसर पार्क में बड़ी बड़ी कंपनियों के बाइस रुपया और शराब पानी की तरह बहते थे।

    उसको याद आया कि दो बरस पहले उसने अपने दोस्त के साथ बड़े ऐश किए थे। अच्छी से अच्छी लड़की हर रात को उनकी आग़ोश में होती थी। स्काच जंग के बाइस नायाब थी मगर एक मिनट में दर्जनों बोतलें मुहय्या हो जाती थीं।

    टांगे अब भी खड़े थे मगर उन पर वो कलग़ियाँ, वो फुंदने, वो पीतल के पालिश किए हुए साज़-ओ-सामान की चमक-दमक नहीं थी। ये भी शायद दूसरी चीज़ों के साथ उड़ गई थी।

    उसने घड़ी में वक़्त देखा, पाँच बज चुके थे। फ़रवरी के दिन थे। शाम के साए छाने शुरू हो गए थे। उसने दिल ही दिल में अपने दोस्त को लअनत-मलामत की और दाएं हाथ के वीरान होटल में मोरी के पानी से बनाई हुई चाय पीने के लिए जाने ही वाला था कि किसी ने उसको हौले से पुकारा। उसने ख़याल किया कि शायद उसका दोस्त गया। मगर जब उसने मुड़ कर देखा तो एक अजनबी था। आम शक्ल-ओ-सूरत का, लट्ठे की नई शलवार में जिसमें अब और ज़्यादा शिकनों की गुंजाइश नहीं थी। नीली पाप्लीन की क़मीज़ जो लांड्री में जाने के लिए बेताब थी।

    उसने पूछा, “क्यूँ भई। तुमने मुझे बुलाया?”

    उसने हौले से जवाब दिया, “जी हाँ।”

    उसने ख़्याल किया, मुहाजिर है, भीक मांगना चाहता है, “क्या मांगते हो?”

    उसने उसी लहजे में जवाब दिया, “जी कुछ नहीं।” फिर क़रीब कर कहा, “कुछ चाहिए आपको?”

    “क्या?”

    “कोई लड़की-वड़की।” ये कह कर वो पीछे हट गया।

    उसके सीने में एक तीर सा लगा कि देखो इस ज़माने में भी ये लोगों के जिन्सी जज़्बात टटोलता फिरता है और फिर इंसानियत के मुतअल्लिक़ ऊपर-तले उसके दिमाग़ में बड़े हौसला शिकन ख़्यालात आए। उन्ही ख़्यालात के ज़ेर-ए-असर उसने पूछा, “कहाँ है?”

    उसका लहजा दलाल के लिए उम्मीद अफ़्ज़ा नहीं था। चुनांचे क़दम उठाते हुए उसने कहा, “जी नहीं, आपको ज़रूरत नहीं मालूम होती।”

    उसने उसको रोका, “ये तुम ने किस तरह जाना। इंसान को हर वक़्त उस चीज़ की ज़रूरत होती है जो तुम मुहय्या कर सकते हो... वो सूली पर भी... जलती चिता में भी।”

    वो फ़लसफ़ी बनने ही वाला था कि रुक गया, “देखो... अगर कहीं पास ही है तो मैं चलने के लिए तैयार हूँ। मैंने यहाँ एक दोस्त को वक़्त दे रखा है।”

    दलाल क़रीब गया, “पास ही... बिल्कुल पास।”

    “कहाँ?”

    “ये सामने वाली बिल्डिंग में।”

    उसने सामने वाली बिल्डिंग को देखा, “उसमें... उस बड़ी बिल्डिंग में?”

    “जी हाँ।”

    वो लरज़ गया, “अच्छा... तो...?”

    सँभल कर उसने पूछा, “मैं भी चलूं?”

    “चलिए... लेकिन मैं आगे आगे चलता हूँ।” और दलाल ने सामने वाली बिल्डिंग की तरफ़ चलना शुरू कर दिया।

    वो सैंकड़ों रूह शिगाफ़ बातें सोचता उसके पीछे हो लिया।

    चंद गज़ों का फ़ासिला था। फ़ौरन तय हो गया। दलाल और वो दोनों उस बड़ी बिल्डिंग में थे। जिसकी पेशानी पर एक बोर्ड लटक रहा था... उसकी हालत सबसे ख़स्ता थी, जगह जगह उखड़ी हुई ईंटों, कटे हुए पानी के नलों और कूड़े करकट के ढेर थे।

    अब शाम गहरी हो गई थी। डेवढ़ी में से गुज़र कर आगे बढ़े तो अंधेरा शुरू हो गया। चौड़ा-चकला सेहन तय करके वो एक तरफ़ मुड़ा। इमारत बनते बनते रुक गई थी। नंगी ईंटें थीं। चूना और सीमेंट मिले हुए सख़्त ढेर पड़े थे और जा जा बजरी बिखरी हुई थी।

    दलाल नामुकम्मल सीढ़ियां चढ़ने लगा कि मुड़ कर उसने कहा, “आप यहीं ठहरिए। मैं अब आया।”

    वो रुक गया। दलाल ग़ायब हो गया। उसने मुँह ऊपर कर के सीढ़ियों के इख़्तताम की तरफ़ देखा तो उसे तेज़ रोशनी नज़र आई।

    दो मिनट गुज़र गए तो दबे पांव वो भी ऊपर चढ़ने लगा। आख़िरी ज़ीने पर उसे दलाल की बहुत ज़ोर की कड़क सुनाई दी।

    “उठती है कि नहीं?”

    कोई औरत बोली, “कह जो दिया मुझे सोने दो।” उसकी आवाज़ घुटी-घुटी सी थी।

    दलाल फिर कड़का, “मैं कहता हूँ उठ... मेरा कहा नहीं मानेगी तो याद रख...”

    औरत की आवाज़ आई, “तू मुझे मार डाल... लेकिन मैं नहीं उठूंगी। ख़ुदा के लिए मेरे हाल पर रहम कर।”

    दलाल ने पुचकारा, “उठ मेरी जान, ज़िद कर। गुज़ारा कैसे चलेगा।”

    औरत बोली, “गुज़ारा जाये जहन्नम में। मैं भूकी मर जाऊंगी। ख़ुदा के लिए मुझे तंग कर। मुझे नींद रही है।”

    दलाल की आवाज़ कड़ी हो गई, “तू नहीं उठेगी। हरामज़ादी, सुअर की बच्ची...”

    औरत चिल्लाने लगी, “मैं नहीं उठूंगी... नहीं उठूंगी... नहीं उठूंगी।”

    दलाल की आवाज़ भिंच गई, “आहिस्ता बोल... कोई सुन लेगा... ले चल उठ... तीस-चालीस रुपये मिल जाऐंगे।”

    औरत की आवाज़ में इल्तिजा थी, “देख मैं हाथ जोड़ती हूँ... मैं कितने दिनों से जाग रही हूँ... रहम कर... ख़ुदा के लिए मुझ पर रहम कर।”

    “बस एक दो घंटे के लिए... फिर सो जाना... नहीं तो देख मुझे सख़्ती करनी पड़ेगी।”

    थोड़ी देर के लिए ख़ामोशी तारी हो गई। उसने दबे पांव आगे बढ़ कर उस कमरे में झांका जिसमें बड़ी तेज़ रोशनी रही थी।

    उसने देखा कि एक छोटी सी कोठड़ी है जिसके फ़र्श पर एक औरत लेटी है... कमरे में दो तीन बर्तन हैं, बस इसके सिवा और कुछ नहीं। दलाल उस औरत के पास बैठा उसके पांव दाब रहा था।

    थोड़ी देर के बाद उसने उस औरत से कहा, “ले अब उठ... क़सम ख़ुदा की एक दो घंटे में जाएगी... फिर सो जाना।”

    वो औरत एक दम यूँ उठी जैसे आग दिखाई हुई छछूंदर उठती है और चिल्लाई, “अच्छा उठती हूँ।”

    वो एक तरफ़ हट गया। असल में वो डर गया था। दबे पांव वो तेज़ी से नीचे उतर गया। “उसने सोचा कि भाग जाये... इस शहर ही से भाग जाये। इस दुनिया से भाग जाये... मगर कहाँ?”

    फिर उसने सोचा कि ये औरत कौन है? क्यूँ उस पर इतना ज़ुल्म हो रहा है?..और ये दलाल कौन है?... उसका क्या लगता है और ये इस कमरे में इतना बल्ब जला कर जो सौ कैंडल पावर से किसी तरह भी कम नहीं था। क्यूँ रहते हैं, कब से रहते हैं?

    उसकी आँखों में उस तेज़ बल्ब की रोशनी अभी तक घुसी हुई थी। उसको कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। मगर वो सोच रहा था कि इतनी तेज़ रोशनी में कौन सो सकता है? इतना बड़ा बल्ब? क्या वो छोटा नहीं लगा सकते। यही पंद्रह-पच्चीस कैंडल पावर का?

    वो ये सोच ही रहा था कि आहट हुई। उसने देखा कि दो साए उसके पास खड़े हैं। एक ने जो दलाल का था, उससे कहा, “देख लीजिए।”

    उसने कहा, “देख लिया है।”

    “ठीक है ना?”

    “ठीक है।”

    “चालीस रुपए होंगे।”

    “ठीक है।”

    “दे दीजिए।”

    वो अब सोचने-समझने के क़ाबिल नहीं रहा था। जेब में उसने हाथ डाला और कुछ नोट निकाल कर दलाल के हवाले कर दिए।

    “देखलो कितने हैं!”

    नोटों की खड़खड़ाहट सुनाई दी।

    दलाल ने कहा, “पचास हैं।”

    उसने कहा, “पचास ही रखो।”

    “साहब सलाम।”

    उसके जी में आई कि एक बहुत बड़ा पत्थर उठा कर उसको दे मारे।

    दलाल बोला, “तो ले जाइए इसे। लेकिन देखिए तंग कीजिएगा और फिर एक दो घंटे के बाद छोड़ जाइएगा।

    “बेहतर।”

    उसने बड़ी बिल्डिंग के बाहर निकलना शुरू किया जिसकी पेशानी पर वो कई बार एक बहुत बड़ा बोर्ड पढ़ चुका था।

    बाहर टांगा खड़ा था। वो आगे बैठ गया और औरत पीछे।

    दलाल ने एक बार फिर सलाम किया और एक बार फिर उसके दिल में ये ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो एक बहुत बड़ा पत्थर उठा कर उसके सर पर दे मारे।

    टांगा चल पड़ा... वो उसे पास ही एक वीरान से होटल में ले गया... दिमाग़ को हत्तल-मक़्दूर इस तकद्दुर से जो उसे पहुंच चुका था निकल कर उसने उस औरत की तरफ़ देखा जो सर से पैर तक उजाड़ थी... उसके पपोटे सूजे हुए थे। आँखें झुकी हुई थीं। उसका ऊपर का धड़ भी सारे का सारा ख़मीदा था जैसे वो एक ऐसी इमारत है जो पल भर में गिर जाएगी।

    वो उससे मुख़ातिब हुआ, “ज़रा गर्दन तो ऊंची कीजिए।”

    वो ज़ोर से चौंकी, “क्या?”

    “कुछ नहीं... मैंने सिर्फ़ इतना कहा था कि कोई बात तो कीजिए।”

    उसकी आँखें सुर्ख़ बूटी हो रही थीं जैसे उनमें मिर्चें डाली गई हों... वो ख़ामोश रही।

    “आप का नाम?”

    “कुछ भी नहीं?” उसके लहजे में तेज़ाब की सी तेज़ी थी।

    “आप कहाँ की रहने वाली हैं?”

    “जहां की भी तुम समझ लो।”

    “आप इतना रूखा क्यूँ बोलती हैं।”

    औरत अब क़रीब क़रीब जाग पड़ी और उसकी तरफ़ लाल बूटी आँखों से देख कर कहने लगी, “तुम अपना काम करो, मुझे जाना है।”

    उसने पूछा, “कहाँ?”

    औरत ने बड़ी रूखी बेएतनाई से जवाब दिया, “जहां से मुझे तुम लाए हो।”

    “आप चली जाइए।”

    “तुम अपना काम करो न... मुझे तंग क्यों करते हो?”

    उसने अपने लहजे में दिल का सारा दर्द भर के उससे कहा, “मैं तुम्हें तंग नहीं करता... मुझे तुम से हमदर्दी है।”

    वो झल्ला गई, “मुझे नहीं चाहिए कोई हमदर्द।” फिर क़रीब-क़रीब चीख़ पड़ी, “तुम अपना काम करो और मुझे जाने दो।”

    उसने क़रीब कर उसके सर पर हाथ फेरना चाहा तो उस औरत ने ज़ोर से एक तरफ़ झटक दिया।

    “मैं कहती हूँ, मुझे तंग करो। मैं कई दिनों से जाग रही हूँ... जब से आई हूँ, जाग रही हूँ।”

    वो सर-ता-पा हमदर्द बन गया, “सो जाओ यहीं।”

    औरत की आँखें सुर्ख़ हो गईं। तेज़ लहजे में बोली, “मैं यहां सोने नहीं आई... ये मेरा घर नहीं।”

    “तुम्हारा घर वो है, जहां से तुम आई हो?”

    औरत और ज़्यादा ख़श्मनाक हो गई।

    “उफ़... बकवास बंद करो... मेरा कोई घर नहीं... तुम अपना काम करो वर्ना मुझे छोड़ आओ और अपने रुपये ले लो उस... उस...” वो गाली देती देती रह गई।

    उसने सोचा कि इस औरत से ऐसी हालत में कुछ पूछना और हमदर्दी जताना फ़ुज़ूल है। चुनांचे उसने कहा, “चलो, मैं तुम्हें छोड़ आऊं।”

    और वो उसे इस बड़ी बिल्डिंग में छोड़ आया।

    दूसरे दिन उसने क़ैसर पार्क के एक वीरान होटल में उस औरत की सारी दास्तान अपने दोस्त को सुनाई। दोस्त पर रिक़्क़त तारी हो गई। उसने बहुत अफ़सोस का इज़हार किया और पूछा, “क्या जवान थी?”

    उसने कहा, “मुझे मालूम नहीं... मैं उसे अच्छी तरह बिल्कुल देख सका... मेरे दिमाग़ में तो उस वक़्त ये ख़याल आता था कि मैंने वहीं से पत्थर उठा कर दलाल का सर क्यूँ कुचल दिया।”

    दोस्त ने कहा, “वाक़ई बड़े सवाब का काम होता।”

    वो ज़्यादा देर तक होटल में अपने दोस्त के साथ बैठ सका। उसके दिल-ओ-दिमाग़ पर पिछले रोज़ के वाक़िए का बहुत बोझ था। चुनांचे चाय ख़त्म हुई तो दोनों रुख़्सत हो गए।

    उसका दोस्त चुपके से टांगों के अड्डे पर आया। थोड़ी देर तक उसकी निगाहें उस दलाल को ढूंढती रही मगर वो नज़र आया। छः बज चुके थे। बड़ी बिल्डिंग सामने थी, चंद गज़ों के फ़ासले पर। वो उस तरफ़ चल दिया और उसमें दाख़िल हो गया।

    लोग अंदर जा रहे थे। मगर वो बड़े इत्मिनान से उस मुक़ाम पर पहुंच गया। काफ़ी अंधेरा था मगर जब वो उन सीढ़ियों के पास पहुंचा तो उसे रोशनी दिखाई दी, ऊपर देखा और दबे पांव ऊपर चढ़ने लगा। कुछ देर वो आख़िरी ज़ीने पर ख़ामोश खड़ा रहा।

    कमरे से तेज़ रोशनी रही थी। मगर कोई आवाज़, कोई आहट उसे सुनाई दी। आख़िरी ज़ीना तय कर के वो आगे बढ़ा। दरवाज़े के पट खुले थे। उसने ज़रा उधर हट कर अंदर झांका। सबसे पहले उसे बल्ब नज़र आया। जिसकी रोशनी उसकी आँखों में घुस गई। एक दम वो परे हट गया ताकि थोड़ी देर अंधेरे की तरफ़ मुँह करके अपनी आँखों से चकाचोंद निकाल सके।

    उसके बाद वो फिर दरवाज़े की तरफ़ बढ़ा मगर इस अंदाज़ से कि उसकी आँखें बल्ब की तेज़ रोशनी की ज़द में आएं। उसने अंदर झांका... फ़र्श का जो हिस्सा उसे नज़र आया। उस पर एक औरत चटाई पर लेटी थी। उसने उसे ग़ौर से देखा... सो रही थी... मुँह पर दुपट्टा था। उसका सीना सांस के उतार चढ़ाओ से हिल रहा था।

    वो ज़रा और आगे बढ़ा... उसकी चीख़ निकल गई मगर उसने फ़ौरन ही दबा ली... उस औरत से कुछ दूर नंगे फ़र्श पर एक आदमी पड़ा था, जिसका सर पाश पाश था... पास ही ख़ूनआलूद ईंट पड़ी थी।

    ये सब उसने एक नज़र देखा और सीढ़ियों की तरफ़ लपका... पांव फिसला और नीचे... मगर उसने चोटों की कोई परवाह की और होश-ओ-हवास क़ायम रखने की कोशिश करते हुए बमुश्किल अपने घर पहुंचा और सारी रात डरावने ख़्वाब देखता रहा।

    स्रोत:

    (Pg. 46)

    • लेखक: सआदत हसन मंटो
      • प्रकाशक: मॉडर्न पब्लिशिंग हाउस, दरियागंज, नई दिल्ली

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