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सातवाँ चराग़

मिर्ज़ा अदीब

सातवाँ चराग़

मिर्ज़ा अदीब

MORE BYमिर्ज़ा अदीब

    स्टोरीलाइन

    अँधविश्वास और भ्रम की कहानी। शुमाल की पहाड़ी पर बने एक मक़बरे के बारे में मशहूर था कि जो भी शख़्स बिना नाग़ा वहाँ सात चराग़ जलाएगा उसकी दिली मुराद पूरी होगी। एक औरत के अलावा कोई भी वहाँ लगातार सात चराग़ नहीं जला पाया। रात के अँधेरे में एक बुढ़िया आती है और लगातार छह चराग़ जलाती है लेकिन जब सातवें चराग़ की बारी आती है तो वह बुढ़िया खु़द एक मुजिज़ा बन गई और लोग अब उसका मज़ार बना कर उस पर चराग़ाँ करने लगे।

    गर्मी हो या सर्दी शुमाली पहाड़ी की बुलंदियों से सर्द हवाएं मुसलसल नीचे उतरती रहती हैं। कभी तो बड़ी बोझल होतीं और कभी निस्बतन हल्की। ये हवाएं जब भी इस बे-आब-ओ-गयाह इलाक़े में से गुज़रती थीं तो कहीं भी ठहरने का नाम नहीं लेती थीं क्यों कि कोई दीवार, दरख़्तों की कोई क़तार उनके रास्ते में हाइल नहीं हो सकती थी। बराबर आगे बढ़ती चली जातीं और गो बाबा साहब के मक़बरे तक पहुंचते पहुंचते उनकी रफ़्तार कभी कभी मद्धम भी पड़ जाती थी ताहम जिस वक़्त भी वो इस मक़बरे की बोसीदा दीवारों से टकराती थीं तो देखने वाले को फ़ौरन ये एहसास हो जाता था कि ये दीवारें फ़िलफ़ौर ज़मीन बोस हो जाएँगी, मगर बरसों से हवाओं का ये अमल जारी था और मक़बरे की ये कमज़ोर दीवारें बदस्तूर अपनी अपनी जगह पर खड़ी थीं। ये ज़रूर है कि उनमें कहीं कहीं रख़्ने पड़ गए थे और हवाओं के झोंके उन रख़नों में से गुज़र कर टूटे फूटे मज़ार को छूते हुए आगे निकल जाते थे।

    ये बाबा साहब कौन थे? उनकी ये अबदी क़ियामगाह कब तामीर हुई थी और इन दीवारों ने कब सर उठाया था? इन बातों का किसी को भी इल्म नहीं था।

    बाबासाहब के मक़बरे से डेढ़ मील दूर जुनूब की जानिब एक छोटा सा गांव जीजी पुर के नाम से ज़रूर आबाद था। लेकिन उस गांव का बूढ़े से बूढ़ा आदमी भी इन सवालों का जवाब देने से क़ासिर था।

    इस गांव को आबाद हुए निस्फ़ सदी से ज़्यादा मुद्दत नहीं बीती थी। इससे पहले यहां पानी ही पानी था। फिर जब इस पानी को मसरफ़ में लाने के लिए एक क़रीबी नहर में मुंतक़िल कर दिया गया तो दलदली इलाक़ा सूरज की तमाज़त से सूख कर इस क़ाबिल हो गया कि यहां लोग कच्चे-पक्के मकान बना सकें और इर्द-गिर्द देहात में रहने वालों ने मीलों फैली हुई इस ज़मीन को देखा जहां वो आसानी से मकानात तामीर कर सकते थे, खेत बना कर फ़सलें उगा सकते थे तो वो इधर आने लगे और चंद ही साल में यहां अच्छी ख़ासी आबादी हो गई।

    इस गांव का नाम जीजीपुर कैसे पड़ा? इस सिलसिले में गांव के पुराने लोग बताते थे कि जब उनमें से किसी ने सबसे पहला मकान बनाया तो यहां एक झोंपड़ी में एक बूढ़ा शख़्स रहता था जो बिलउमूम नीम उर्यां हालत में दिखाई देता था।

    उस शख़्स ने बताया कि वो बाबा साहब का मुरीद-ए-ख़ास था। चुनांचे वो दिन का सारा वक़्त तो अपनी झोंपड़ी ही में बसर करता था और जैसे ही शाम की तारीकी फ़िज़ाओं में फैलने लगती थी बाबा साहब के मज़ार पर चला जाता था और तमाम रात वहीं गुज़ार देता था।

    बाबा साहब को मानने वाले लोग मज़ार पर कुछ कुछ नज़र-ओ-नियाज़ चढ़ाते रहते थे। ये शख़्स उसमें से थोड़ा सा हिस्सा वसूल कर के बाक़ी ज़ाइरीन ही में बांट देता था और यूं उसके लिए क़ुव्वत या सेहत का सामान मुहय्या हो जाता था।

    गांव का नाम उसी शख़्स की निस्बत से मशहूर हुआ था। उसका हक़ीक़ी या पैदाइशी नाम क्या था किसी को भी मालूम नहीं था और वो किसी को अपने बारे में मालूमात बहम पहुंचाने का ख़्वाहिश-मंद ही था। असल मुआमला ये था कि वो हर दूसरे फ़िक़रे पर जी जी कहता था, यूं कहना चाहिए कि जी जी उस का तकिया कलाम था। उसके पास अक़ीदत से आने वालों ने उसे बार-बार जी जी कहते सुना तो उसका नाम ही जी जी मियां लेने लगे और इस तरह ये गांव जीजीपुर मशहूर हो गया।

    गांव वाले जीजी मियां का बहुत एहतिराम करते थे और जो कुछ वो कहता था उसे सही तस्लीम कर लेते थे। इस जीजी मियां ने गांव के ख़ास ख़ास लोगों को बताया था कि बाबा साहब बड़े ऊंचे दर्जे के बुज़ुर्ग थे। मगर तबीयत के लिहाज़ से थे जलाली। बड़ी जल्दी जलाल में जाते थे और बड़े से बड़े आदमी को भी बिला तकल्लुफ़ झिड़क देते थे।

    शायद इन्ही जी जी मियां ने बताया था अगर बाबा साहब के मज़ार पर हर जुमेरात को मिट्टी का एक चराग़ जलाया जाए तो सातवें जुमेरात को जब आख़िरी चराग़ जलाया जाएगा तो चराग़ जलाने वाले की दिली आरज़ू पूरी हो जाएगी।

    चराग़ जलाया जाता था मगर अभी उसे मज़ार पर रखा ही नहीं जाता था कि शुमाली पहाड़ों की तरफ़ से आने वाली सर्द हवाएं उसे बुझा देती थीं। गांव में शायद ही कोई ऐसा फ़र्द होगा जिसे इसका इल्म नहीं था और जिसके दिल में ये यक़ीन जागुज़ीं नहीं था कि सातवीं जुमेरात को चराग़ जलाने वाले की आरज़ू ज़रूर पूरी हो जाती है। लेकिन मुश्किल ये थी कि इस आज़माईश पर पूरा उतरना क़रीब क़रीब नामुमकिन था। होता ये था कि अव्वल तो पहली जुमेरात ही को चराग़ की लौ शुमाली हवाओं के हमले से स्याह पोश हो जाती थी और अगर पहले दो तीन चराग़ सही सलामत मज़ार तक पहुंच भी जाते थे तो उनके बाद जो चराग़ जलाया जाता था वो ज़रूर बुझ जाता था। आम यक़ीन ये था कि अब तक जो कोई शख़्स भी यके बाद दीगरे सात चराग़ जलाने में कामयाब नहीं हो सका तो इसकी वजह बाबा साब की जलाली तबीयत की कारफ़रमाई है। वर्ना शुमाली पहाड़ों की बुलंदियों से आने वाली सर्द हवाओं का ये कहाँ हौसला कि वो ऐन उस लम्हे दीवार के रौज़नों से अंदर आएं, जब मज़ार के क़रीब चराग़ जलाया जाता हो। यूं सातवाँ चराग़ जलाने की कभी नौबत ही नहीं आई थी, अलबत्ता बा'ज़ लोगों की ज़बानी ये बात सुनी जाती थी कि काफ़ी मुद्दत हुई एक-बार एक धोबिन ने मज़ार पर सातवाँ चराग़ भी जला दिया था और उसकी मुराद भी पूरी हो गई थी। उसका बेटा जो क़त्ल के मुक़द्दमे में माख़ूज़ था, फांसी की कोठड़ी से बाहर निकल आया था।

    इस हक़ीक़त की तस्दीक़ इस वजह से नहीं हो सकती थी कि ये माँ और बेटा दोनों दुनिया से रुख़्सत हो गए थे।

    अगर कोई शख़्स मक़बरे के अंदर जाने की बजाय उसके इर्दगिर्द घूमता तो उसे बेशुमार टूटे हुए मिट्टी के चराग़ नज़र जाते। ये वो चराग़ थे जो मज़ार पर दो-दो, तीन-तीन या ज़्यादा से ज़्यादा चार-चार की तादाद में जले थे और चूँकि ये चराग़ जलाने वाले वो शर्त पूरी नहीं कर सके थे यानी सात जुमेरात तक सात चराग़ नहीं जला सके थे इसलिए उनके चराग़ मज़ार से उठा कर बाहर फेंक दिये गए थे ताकि नये मुरादें मांगने वालों को भी क़िस्मत आज़माई का मौक़ा मिलता रहे।

    ये चराग़ बाहर कौन फेंक देता था, इस सवाल के मुख़्तलिफ़ जवाब दिए जाते थे। कुछ लोग कहते थे कि बाबा साब के वाहिद मुरीद जीजी मियां जो एक रोज़ चुप-चाप अपनी झोंपड़ी छोड़कर इस तरह ग़ायब हो गया था कि फिर कभी दिखाई नहीं दिया था। वही आधी रात को बाक़ायदा यहां आता है और चराग़ बाहर फेंक देता है। कुछ लोगों का ख़याल था कि शुमाल से आने वाली सर्द हवाएं ही इन चराग़ों को धकेलती हुई दरवाज़े से बाहर ले जाती हैं और ये चराग़ इस अमल के दौरान टूट-फूट जाते हैं।

    जीजी गांव का सबसे मुतमव्विल आदमी नासिर ख़ां था जिसकी ज़रई अराज़ी बीस मुरब्बों पर मुश्तमिल थी और जिसकी हवेली के दालान में सौ के क़रीब चारपाइयाँ बिछाई जा सकती थीं। नासिर खां उन आबादकारों में से था जो सबसे पहले यहां आए थे। आदमी तजुर्बेकार और मुआमला फ़हम था। उसने हाल के आईने में मुस्तक़बिल के वाज़िह ख़द्द-ओ-ख़ाल देख लिए थे वो किश्तियाँ जला कर यहां आया था यानी उसने अपनी थोड़ी सी शहरी जायदाद फ़रोख़्त कर दी थी और हमेशा के लिए इस उजाड़ मुक़ाम पर रिहाइश पज़ीर हो गया था। उसने वक़्त से फ़ायदा उठा कर ज़्यादा से ज़्यादा अराज़ी पर अपनी मिल्कियत जमा ली थी। पैसा पास था ग़रीब लोगों को अपना मुज़ारे बना लिया और इस तरह उसकी दौलत और ज़ाती वजाहत में दिन रात इज़ाफ़ा होने लगा।

    गांव के लोगों की तो बेश्तर आबादी इस नतीजे पर पहुंच चुकी थी कि बाबा साब के मज़ार पर जा कर चराग़ जलाने की शर्त पूरी करना बहुत मुश्किल है इसलिए वो लोग इधर का रुख़ ही नहीं करते थे। कभी कभी किसी के दिल में बे-इख़्तियार ख़्वाहिश पैदा हो जाती थी तो वो अपने कठिन सफ़र पर रवाना हो जाता था। लेकिन चौथे पाँचवें चराग़ के बुझ जाने पर उसकी अपनी तबीयत इस तरह बुझ जाती थी कि वो फिर ज़िंदगी भर इधर का रुख नहीं करता था। अलबत्ता शहर से कोई कोई आता ही रहता था और जो भी आता था वो सीधा नासिर ख़ां की तरफ़ जाता था और नासिर ख़ां उस वक़्त उसके रहने सहने का बंदोबस्त अपनी हवेली में कर देता था और पहले दिन के बाद उससे यकसर बेनियाज़ हो जाता था क्यों कि उसे मालूम था कि ये मेहमान दो तीन जुमेरातें ही यहां बसर करेगा और जाते हुए मिलेगा भी नहीं।

    महीने में एक दो क़िस्मत आज़मा ज़रूर जाते थे। कोई मर्द तो शाज़ ही आता था। आम तौर पर औरतें और वो भी उम्र रसीदा आती रहती थीं मगर इस मर्तबा ऐसा हुआ कि तीन महीने गुज़र गए और नासिर खां की हवेली के बड़े फाटक पर किसी ने भी दस्तक दी। जाने गांव वालों को उससे अपनी इज्तिमाई ज़िंदगी में एक ख़ला क्यों महसूस होने लगा था। चौपाल में जब भी कुछ लोग बैठते थे तो हीर-राँझा या ज़ैतून नामा सुनने से पहले इस कमी का तज़किरा ज़रूर करते थे और नासिर ख़ां के मुंशी मंज़ूरे को तो यक़ीन हो गया था कि अब यहां कोई नहीं आएगा। चुनांचे उसने हवेली के चौकीदार से कह दिया था,

    चाचा, रात को आराम से सो जाया कर। बाबा साब के मज़ार पर कोई नहीं आएगा।

    और चौकीदार चाचा मिर्ज़ा ने ये बात पल्ले बांध ली थी। वो इस अमर से बेनियाज़ हो गया था कि जुमेरात को कोई शख़्स मिट्टी का चराग़ और माचिस ले कर हवेली से निकलेगा और आध रात से पहले पहले लौट आएगा। वो फाटक के पहलू में रखे हुए बेंच के ऊपर बैठे-बैठे ऊँघने लगता था और फिर ऊँघते ऊँघते सो जाता था।

    चौथे महीने का पहला हफ़्ता शुरू हो गया था। शाम गहरी होती जा रही थी कि जागीरदार नासिर खां अपनी सफ़ेद घोड़ी से नीचे उतरा और उसे मिर्ज़ा के हवाले कर के फाटक की तरफ़ जा रहा था कि एक बुढ़िया ने जिसका लिबास मैला कुचैला था और जिसने हाथ में एक थैला उठा रखा था, फाटक के पास हाथ के इशारे से उसे रोक दिया।

    नासिर ख़ां बारहा ऐसे लोगों से फाटक के सामने मिल चुका था इसलिए ये अंदाज़ा लगाने में उसे कोई दिक़्क़त हुई कि ये औरत किस मक़सद के साथ आई है और उससे क्या तवक़्क़ो रखती है।

    ठीक है। नासिर खां ने रटा रटाया जुमला बुढ़िया की तरफ़ फेंक दिया।

    नासिर खां जब ये जुमला ज़बान से निकालता था तो उसे कुछ और कहने सुनने की ज़रूरत नहीं होती थी। चौकीदार मेहमान को साथ लेकर उसे हवेली के एक कमरे में पहुंचा देता था और उस वक़्त उसके क़याम तक खाने-पीने का भी बंदोबस्त कर देता था।

    नासिर ख़ां फाटक के अंदर चला गया था। मामूल के मुताबिक़ बुढ़िया को चौकीदार के साथ उसके पीछे पीछे क़दम उठाना चाहिए था मगर वो वहीं खड़ी रही। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था तो अब क्यों हो रहा था। नासिर खां चंद क़दम चल कर रुक गया।

    मिर्ज़ा। उसने चौकीदार को पुकारा।

    चौकीदार ने बुढ़िया को चलने का इशारा किया और वो चलने लगी।

    नासिर खां ने फाटक के ऊपर जलते हुए सौ पावर के बल्ब की रौशनी में बुढ़िया को देखा। उस चेहरे में उसे एक अजीब कैफ़ियत का एहसास हुआ। उसे याद गया कि ऐसी कैफ़ियत उसने उस धोबन के चेहरे पर भी देखी थी जो मज़ार पर सातवाँ चराग़ जला कर मुराद पा चुकी थी।

    तू कौन है? जागीरदार के लहजे में करख़्तगी थी।

    मैं...मैं... बुढ़िया बस यही लफ़्ज़ कह सकी।

    वो घूरघूर कर उसे देख रहा था।

    अम्मां! तू करती क्या है?

    पुत्तर मैं तो बन...

    नासिर उसके क़रीब गया।

    तू भी?

    बुढ़िया उसका मतलब समझ सकी।

    अम्मां तू भी सातवाँ चराग़ जलालेगी।

    बुढ़िया के चेहरा जो पहले तज़बज़ुब का तास्सुर लिए हुए था उस पर एक ऐसा नूर झिलमिलाने लगा जो तुलू-ए-आफ़्ताब के वक़्त मशरिक़ी उफ़ुक़ पर थोड़ी देर के लिए बरक़रार रहता है और फिर ग़ायब हो जाता है।

    नासिर ख़ां चंद लम्हे वहां ठहर कर चला गया।

    बुढ़िया कमरे में दाख़िल हुई तो उसकी नज़र सबसे पहले मिट्टी के उन चंद चराग़ों पर पड़ी जो एक तरफ़ एक छोटी सी मेज़ के ऊपर पड़े थे। चराग़ों के पास कुछ रुई भी नज़र रही थी।

    मेज़ के अलावा कमरे के अंदर एक चारपाई भी थी। टीन का एक लोटा, एक देगची और इस क़िस्म की घरेलू इस्तेमाल की कुछ और चीज़ें भी मौजूद थीं।

    चौकीदार बिजली का बल्ब रौशन कर के कमरे से बाहर निकल गया। बुढ़िया दरवाज़े के क़रीब रुक कर कमरे का जायज़ा लेती रही। उसके दिल में एक हैजान सा बरपा हो गया। उसने अपना थैला मेज़ के ऊपर रख दिया और उसकी उंगलियां उन चराग़ों को छूने लगीं जिनमें तेल की एक बूँद भी नहीं पड़ती थी। उसे यकायक ख़याल आया कि जो भी ये चराग़ लाया होगा वो कितनी आस के साथ आया होगा और फिर मायूस हो कर चला गया होगा।

    उसे अपना ख़याल गया। वो एक ऐसे कपड़े की तरह थी जिसको धो कर पूरी तरह उसका पानी निचोड़ा गया हो और इस हालत में सब्ज़ घास पर बिखेर दिया गया हो।

    धूप की शिद्दत कपड़े के इस बाक़ी पानी को भी चूस लेगी।

    उसका सर घूमने लगा और वो चारपाई पर गिरने ही वाली थी कि जागीरदार के अलफ़ाज़ उसके कानों में गूँजने लगे, वहां तू भी सातवाँ चराग़ जलालेगी और उसके बातिन में फिर एक इज़्तिराब पैदा हो गया।

    जुमेरात आने में दो दिन बाक़ी थे। दूसरे दिन सुब्ह-सवेरे उसने थैले में से सारी चीज़ें मेज़ पर उंडेल दीं। उनमें कड़वे तेल की एक बड़ी बोतल थी। दस बारह मिट्टी के चराग़ और रुई का एक बंडल।

    जिस वक़्त वो थोड़ी थोड़ी रुई ले कर बत्तियां बना रही थी तो एक दम उसे एहसास हुआ कि वो किसी अजनबी जगह पर नहीं, मोची दरवाज़े के अंदर अपने छोटे से जद्दी मकान में है और हांडी चूल्हे पर रखकर पुराने मोंढे पर बैठी दरवाज़े की तरफ़ टकटकी बांध कर देख रही है जहां वो चेहरा नज़र नहीं आता जो नौ साल पहले ग़ायब हो गया था।

    शौहर की वफ़ात के बाद उसका बेटा चराग़ दीन ही उसका वाहिद सहारा था। बारह साल तक वो बड़ा ज़िम्मेदार बेटा बना रहा।

    माँ को कभी उससे किसी क़िस्म की शिकायत हुई। मुहल्ले के बीसियों घरों तक जाना, वहां से मैले कपड़े लाना, हर हफ़्ते उन सब कपड़ों की लादियाँ बना कर दरिया पर ले जाना। दूसरों के साथ मिलकर उन्हें धोना और फैली हुई रेत पर सुखाने के लिए फैला देना, शाम के बाद उन्हें अपने बैल पर लाद कर घर ले आना और रात को ग्यारह बारह बजे तक उन पर इस्त्री फेरकर अलग अलग ग्राहकों के कपड़े तह करके रख देना और दूसरे रोज़ सुबह से लेकर तीसरे पहर तक घर-घर कपड़े पहुंचा कर उजरत वसूल करना, ये सब काम वो बड़ी बाक़ायदगी के साथ करता रहता। इन सब कामों में उसकी माँ भी बराबर उसकी मदद करती रहती थी मगर वो चाहता नहीं था कि माँ की बूढ़ी हड्डियों को तकलीफ़ दे।

    तेरहवां साल शुरू हुआ तो जाने किस तरह उसे जुए की लत पड़ गई। कई दिन और कई रातें हवालात में भी गुज़ार दीं। लेकिन ये लत दूर हो सकी बल्कि बढ़ती चली गई। एक रात वो बड़ी देर से घर में आया। सुब्ह उसे एक हमसाये ने बताया कि उसे गिरफ़्तार करने के लिए पुलिस रही है। उसने अभी कुलचे का एक ही लुक़मा दही में लिथड़ा कर हलक़ से उतारा होगा कि जल्दी से पांव में जूते डाल कर सीढ़ियों से उतरने लगा। माँ पीछे आवाज़ें ही देती रह गई।

    उसके बाद उसकी माँ उसकी सूरत देख सकी।

    उसकी ज़िंदगी के सबसे ख़ुशगवार और मसर्रत बख़्श वो लम्हे होते थे जब वो दरवाज़े पर खड़ी हो कर अपने बेटे के बैल की घंटियों की आवाज़ सुना करती थी। ये बैल शाम के बाद वापस गली में दाख़िल होता था और गली में दाख़िल होते ही उसकी घंटियाँ बजने लगती थीं। घंटियों की आवाज़ सुन कर वह तेज़ी से दरवाज़े पर खड़ी होती और जब तक एक एक कर के सारी लादियाँ अंदर रखवा नहीं लेती थी उसे चैन नहीं पड़ता था।

    वो सारे काम मज़े ले-ले कर करती थी। इस्त्री में से बची खुची राख बाहर निकालती थी, लंबे-चौड़े तख़्ते पर जिसके ऊपर एक एक कपड़ा बिछा कर इस्त्री की जाती थी, उसकी चादर बदल देती थी, कोयलों के ढेर पर एक नज़र डाल कर ये अंदाज़ा कर लेती थी कि उनसे काम चल सकता है या नहीं, नीम सोख़्ता कोयले रखकर बाक़ी राख मिले बाहर फेंक देती थी।

    चराग़ अभी घर से दूर ही होता था कि वो सदक़े जावां, वारी जावां कह कर उससे जा कर लिपट जाती थी।

    मगर पिछले नौ साल से उसके घर में और उसके दिल में तारीकियां ही तारीकियां छा चुकी थीं।

    अपने बेटे को पाने की ख़ातिर उसने क्या कुछ नहीं किया था। सयानों ने जो कुछ कहा था वो कर चुकी थी मगर अब वो थक चुकी थी। बिल्कुल मायूस हो चुकी थी कि उसने बाबा साब की करामत का हाल सुना और वो उसे आख़िरी सहारा समझ कर जागीरदार के यहां गई।

    उसकी आँखें दरवाज़े पर जमी थीं और उसकी उंगलियाँ मुतवातिर हरकत कर रही थीं। उसके सामने बत्तियों का एक ढेर लग गया था।

    इतनी सारी बत्तियां। अचार डालना है?

    ये अलफ़ाज़ जागीरदार नासिर खां ने कहे थे जो शायद जब से हवेली बनी थी तीसरी मर्तबा इस कमरे में दाख़िल हुआ था।

    बुढ़िया ने एक नज़र बत्तियों पर डाली और फिर नासिर खां को देखने लगी जिसकी मूंछों के बाल झुक कर ठोढ़ी को छूने की कोशिश कर रहे थे।

    मैंने सुना है तुम्हारा बेटा नौ साल से ग़ायब है।

    बुढ़िया ने इस्बात में सर हिला दिया।

    नासिर खां चारपाई पर बैठ गया।

    तुम्हारा नाम क्या है? उसने बुढ़िया से पूछा।

    फ़ातिमा।

    फ़ातिमा, नासिर ख़ां ने चंद सेकंड बुढ़िया को घूरकर देखा और फिर यूं सर हिलाने लगा जैसे उसके दिल में किसी बात की तसदीक़ हो गई है।

    कोई तकलीफ़?

    बुढ़िया ने नफ़ी में सर हिला दिया।

    कमरे से बाहर नासिर खां का मुंशी हाथ में हिसाब-किताब के लंबे-लंबे रजिस्टर लिये अपने मालिक के फ़ारिग़ होने का इंतिज़ार कर रहा था। नासिर खां की उस पर नज़र पड़ी तो दरवाज़े की तरफ़ जाने लगा।

    जुमेरात की शाम को झक्कड़ चलना शुरू हो गया था। बुढ़िया ने चराग़ में बाती और तेल डाला दूसरे हाथ में माचिस पकड़ी बिस्मिल्लाह कह कर तन्हा मज़ार की तरफ़ रवाना हो गई।

    किसान खेतों से लौट रहे थे और उनके बैलों की घंटियाँ बज रही थीं। बुढ़िया के क़दमों में तेज़ी गई। सुनसान रास्तों से गुज़रती हुई वो मक़बरे के अंदर दाख़िल हो गई। अंदर दाख़िल होते वक़्त भी उसके कानों में बैलों की घंटियों की आवाज़ गूंज रही थी और वो इन सरमा की हवाओं से बेनियाज़ थी जिसके झोंके मक़बरे की दीवारों से टकरा कर मुसलसल शोर बरपा कर रहे थे।

    उसने तीली को माचिस के किनारे पर रगड़ा, आहिस्ते से उसे बत्ती की लौ की तरफ़ बढ़ाया। एक हल्की सी रौशनी फूट पड़ी। जलता हुआ चराग़ उसे मज़ार के एक तरफ़ रख दिया। दुआ के लिए हाथ उठाए और चंद लम्हों बाद उंगलियों से रुख़्सारों पर बहते हुए आँसुओं को ख़ुश्क करके जलते हुए चिराग़ पर आख़िरी नज़र डाल कर बाहर निकल गई।

    वो क़दम उठा रही थी मगर उसे एहसास नहीं था कि वो कहाँ है, कहाँ जा रही है। यकायक हवेली के चौकीदार ने करख़्त लहजे में पूछा,

    क्या हुआ माई साब?

    बुढ़िया ने अपनी शहादत की उंगली ऊपर उठाई और फाटक में से निकल गई।

    कमरे में जा कर उसने माचिस मेज़ के ऊपर रख दी, चारपाई पर जा बैठी। उसने देखा कि कमरे के अंदर आते वक़्त उसने दरवाज़ा बंद कर दिया था। बंद दरवाज़ा देख कर उसके ज़हन में जाने क्या ख़याल आया कि उस वक़्त वहां जा कर उसके दोनों पट खोल दिये और टकटकी बांध कर इधर देखने लगी।

    दूसरी, तीसरी और फिर चौथी जुमेरात भी गुज़र गई और बाद-ए-शिमाल के सर्द झोंके उसके जलाए हुए चराग़ों की लवों का कुछ नहीं बिगाड़ सके थे।

    पांचवें जुमेरात को जब उसने चराग़ जला कर मज़ार के पहलू में रखा और मद्धम रौशनी में दुआ के लिए हाथ फैलाए तो उसे यकदम एहसास हुआ कि एक साया उसके क़रीब हरकत कर रहा है। इस एहसास के बावजूद उसके नम आलूद होंट लरज़ते रहे।

    दोनों हाथ मुँह पर फेर कर वो मुड़ी और उसने देखा कि एक जलता हुआ चराग़ मज़ार के दूसरे पहलू की तरफ़ झुका जा रहा है और दूसरे ही लम्हे में उसे एक धुँदला सा चेहरा दिखाई देने लगा जिसके गिर्द दुपट्टा लिपटा हुआ था।

    दो तीन लम्हों के लिए दोनों ने एक दूसरे को देखा। दोनों के होंट लरज़ते रहे और फिर दोनों की नज़रें झुक गईं।

    हवा तुंद तेज़ थी। ऊपर किसी उड़ते हुए परिंदे की चीख़ फ़िज़ा में तहलील हो गई। वो जब हवेली के फाटक पर पहुंची तो इस मर्तबा चौकीदार मिर्ज़ा ने कोई सवाल किया और फाटक का एक पट खोल दिया।

    ये कौन है? उसने चारपाई पर लेट कर ख़ुद से सवाल किया।

    कोई होगी, मेरी तरह बदनसीब, दुखिया री।

    छटी जुमेरात को वो बाबा साहब के मज़ार के पास पहुंची तो उसे मज़ार के पहलू में एक जलता हुआ चराग़ नज़र आया। उस चराग़ के साथ पाँच और चराग़ थे जो बुझ चुके थे मगर लगता था इस छटे चराग़ की लौ से जो मद्धम सी रौशनी फूट रही है वो एक रौशन लकीर की तरह उनके ऊपर फैल गई है।

    उसने अपना चराग़ जलाया और चराग़ों के पहलू में रख दिया और जब दोनों हाथ फैला कर सैंकड़ों बार दोहराए हुए अलफ़ाज़ अपने होंटों से निकालने लगी तो उसकी आँखों से आँसुओं की क़तारें निकलने लगीं। उसने दोनों हाथ नीचे कर के अपनी झोली के किनारों को पकड़ लिया और आँसू टप टप उसकी झोली में गिरने लगे। उसने आँसू भरी आँखों से सामने देखा उसका चराग़ जल रहा था और दूसरी तरफ़ दूसरा चराग़ भी जल रहा था। उसने यकायक महसूस किया कि दोनों चराग़ों की लवें उसके आँसूओं में से गुज़रती हुई आँखों के अंदर चली जा रही हैं।

    वो देर तक झोली फैलाए खड़ी रही।

    उस रात वो बड़ी देर तक वहां बैठी रही और जब आसार-ए-सहर नुमूदार होने लगे तो मक़बरे से बाहर निकल आई।

    बाहर निकलते वक़्त उसने एक लम्हे के लिए पलट कर देखा। ज़रा फ़ासले पर दोनों चराग़ रौशन थे।

    आख़िर सातवीं जुमेरात गई।

    दूर इशा की नमाज़ की अज़ान बुलंद हुई तो उसने चराग़ बत्ती और माचिस संभाली और बिस्मिल्लाह कह कर चलने लगी।

    ऊपर सितारे चमक रहे थे और हवा ख़ासी तेज़ थी। वो ख़ामोश, वीरान राह पर क़दम उठाए मक़बरे की तरफ़ जा रही थी।

    किसी क़रीबी इलाक़े में शदीद बारिश हुई थी जिसका पानी बहता हुआ नशीबी हिस्सों में कर जाबजा ठहर गया था। कहीं कहीं ये पानी ज़्यादा गहरा था और उसे बड़ी मुश्किल से आगे बढ़ना पड़ता था।

    जब वो मज़ार के क़रीब खड़ी थी तो उसके दिल में एक हैजान बरपा था उसका हाथ काँप रहा था और सांस जैसे सीने में रुक सा गया था।

    उसने माचिस की तीली जलाई। चराग़ की लौ की तरफ़ बढ़ाई और चराग़ रौशन हो गया।

    ये चराग़ आहिस्ता-आहिस्ता मज़ार की तरफ़ बढ़ने लगा। अचानक उसे एहसास हुआ कि उसके पास कोई खड़ा है। एक आह उसके कान तक जा पहुंची थी।

    उसने सामने देखा। मज़ार से कुछ ऊपर एक बुझा हुआ दिया और उससे ज़रा फ़ासले पर एक ऐसा चेहरा जो इस तरह नज़र रहा था जैसे उस पर सकते का आलम तारी हो। एक गर्म-गर्म लहर उसके सारे जिस्म में सरायत कर गई।

    उसका हाथ मज़ार की तरफ़ हरकत करने की बजाय ऊपर जाने लगा। दूसरे लम्हे में बुझा हुआ चराग़ उसके अपने हाथ में था और उसका जलता हुआ चराग़ उस मायूस औरत के हाथ में जो एक खन्डर की दीवार की तरह झुकी हुई थी।

    तीन चार लम्हों ही में ये सब कुछ हो गया।

    बुझा हुआ चराग़ ले कर वह एक सेकंड भी वहां ठहरी। मक़बरे से बाहर गई और मशरिक़ की तरफ़ चलने लगी।

    हवा के तुंद तेज़ थपेड़े उसके जिस्म से टकरा रहे थे। बार-बार उसके क़दम लड़खड़ा जाते थे। मगर वो बराबर चली जा रही थी। आगे ही आगे किसी मंज़िल का तसव्वुर किए बग़ैर जैसे दूर से किसी ने उसे इशारा कर दिया हो और वह कहीं भी रुकना चाहती हो।

    फिर बारिश होने लगी और बारिश के भारी भारी क़तरे चराग़ के किनारों पर और चराग़ के अंदर गिरने लगे। जब ये क़तरे चराग़ के किनारों से लगते थे तो टन की हल्की सी आवाज़ आने लगती थी।

    उसकी आँखों की पुतलियां फैल गईं। उसके थके हुए ज़ईफ़ पांव में एक नामालूम सी क़ुव्वत गई।

    बारिश के क़तरे गिर रहे थे। आवाज़ बुलंद होती जा रही थी। टन-टन टन-टन टन-टन।

    वो कहीं भी रुकी। तेज़-ओ-तुंद हवाएं बराबर चल रही थीं। बारिश बढ़ती जा रही थी।

    फिर यूं हुआ कि बारिश थम गई मगर हवाओं की तुंदी-व-तेज़ी में कोई फ़र्क़ आया।

    सुबह हो गई थी। किसान अपने अपने बैलों को लिये खेतों की तरफ़ जा रहे थे।

    अचानक उनके क़दम रुक गए। उनकी आँखें फटी की फटी रह गईं। उन्होंने देखा कि एक बुढ़िया चली जा रही है और तूफ़ानी हवाओं में उसके हाथ में थमा हुआ चराग़ जल रहा है।

    बुढ़िया को ख़ुद भी मालूम नहीं था कि उसके साथ क्या हुआ है। उसके इर्द-गिर्द क्या हो रहा है। उसने चराग़ की तरफ़ एक लम्हे के लिए भी नहीं देखा था वो चली जा रही थी और उसके दाएं-बाएं और पीछे हैरान-ओ-सरासीमा लोग क़दम उठा रहे थे।

    ये एक छोटा सा क़स्बा है और इसके वस्ती हिस्से में एक नौ तामीर-शुदा मक़बरे की दीवारें खड़ी हैं।

    क़स्बे के लोगों का एतिक़ाद है कि यहां एक बुज़ुर्ग ख़ातून दफ़न है जिसका चराग़ तूफ़ानी हवाओं में भी जलता रहा था। इसलिए उसे चराग़ बीबी कहते हैं।

    हर-रोज़ अक़ीदतमंद यहां आते हैं और दुआएं मांगते हैं। ख़ासतौर पर वो लोग जिनके बच्चे गुम हो गए हैं।

    मज़ार के सिरहाने एक मिट्टी का चराग़ सारी रात जलता रहता है।

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