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संदूक़

MORE BYमोहम्मद हुमायूँ

    आजिज़ थकन से चूर, बदन रंजूर, फ़ाक़ों से बदहाल और प्यास से निढाल था फिर भी सफ़र में तवक़्क़ुफ़ को क़रीन-ए-मस्लहत ना जाना और चलता चला गया। बारे एक दिन की मुसाफ़त पर दूर से एक शहर के आसार नज़र आए तो आँखों में कुछ रमक़ पैदा हुई। हर्ज-मर्ज खींचता उस के फ़सील के पास जा पहुँचा और उम्मीदों पर ओस पड़ गई जब उस का दरवाज़ा मुक़फ़्फ़ल पाया। रात इतनी बीत चुकी थी कि आधी इधर और आधी उधर थी। महनीम माहपूरी आब-ओ-ताब से चमकता था और सितारे आसमान में ना-पैद थे।

    कुछ मिन्नत समाजत, कुछ ख़ुशामद मैंने फ़सील पर मामूर दरबान-ए-निगाह बानों कि की और उनसे अपना हाल-ओ-अहवाल मुफ़स्सिल बयान किया लेकिन उनके कान पर जूँ तक ना रेंगी और वो आपस में ज़ोर-ज़ोर से बातें करते क़हक़हे लगाते रहे। लाख उनसे कहा कि मियाँ मुसाफ़िर हूँ, बे-ख़ानुमाँ, तुम्हारे शहर के वाली के औसाफ़-ए-हमीदा और अख़लाक़ पसंदीदा सुनकर मंज़िल बा-मंज़िल चलता इधर को आया हूँ, मेरे ऊपर कुछ रहम कीजो, कुछ करम कीजो और दरवाज़ा वास्ते मेरे वा-कीजो मगर उल्टा वो बेअक़ल मुझसे ठट्ठा करने लगे कि काहे को रात का सफ़र करते हो, अब भुगतो।

    जब कोई चारा नज़र ना आया और हर हीला नाकाम हो गया तो नाचार घोड़े से उतर कर दीवार के साथ टेक लगा कर खड़ा हो गया और इंतिज़ार करने लगा कि कब रात कटे, फ़सील के पट खुलें तो अपने वास्ते बंद-ओ-बस्त-ए-क़ियाम-ओ-तआम का इस शहर ना पुरसाँ में करूँ।

    दफ़अ'तन देखा कि एक संदूक़, काला स्याह, काठ का बना, बटी रस्सियों से बंधा, झूलता हुआ आहिस्ता-आहिस्ता फ़सील से नीचे चला आता है। मैं इस माजरे से खटके में गया, असमा-ए रद्द-ए-सहर पढ़, अंगुश्त बद-निदाँ हैरान और परेशां, सुस्त-रवी से नीचे आते संदूक़ पर निगाह जमा कर इस पुर-असरार नज़ारे के तहय्युर में गुम हो गया।

    बैत

    वुसअत-ए-तिलसम ख़ाना-ए-आलम की क्या कहूँ।।। थक-थक गई निगाह-ए-तमाशे ना कम हुए।

    सोचा कि या इलाही ये क्या माजरा है, ख्व़ाब देखता हूँ या उस संदूक़ में वाक़ई कोई तिलिस्म पिनहां है? क्या ग़ैब से कोई ख़ज़ाना लाल-ए-बदख़शानी और अक़ीक़ ईमानी का दुनिया के मालिक की बरकत-ओ-इनायत से इस आजिज़ को अता हुआ या ये किसी मुसाफ़िर का गुम-शुदा माल-ओ-मताअ है जो बेश-बहा है और मुझ फ़क़ीर को इत्तिफ़ाक़ से मिला है या फिर अनजाने मे ख़ुद को किसी सहर के कारख़ाने में फंसा बैठा हूँ।

    इधर संदूक़ की हक़ीक़त पाने में सरगर्दां मेरे तफ़क्कुर के तीर दाएं बाएं और सू-ए-आसमाँ चलते रहे और उधर वो संदूक़, जो किसी आहनी चरखे से फ़िंजाँ में अवेजां था नीचे की तरफ़ रवां था। अंजाम-कार होते-होते संदूक़ ज़मीन से आन लगा और रस्सियाँ साँपों की तरह ताव दर ताव बलखातीं उस पर गिर पड़ी। फ़िंजाँ में यक-दम सुकूत छा गया।।। हर चीज़ को साँप सूंघ गया।

    मैंने जी बहुत कड़ा किया, हमा हिम्मत मुजतमाअ की, आगे बढ़ा और धड़कते दिल, मुज़्तरिब हवास, लरज़ते हाथों के साथ डरते-डरते उस चोबी संदूक़ के क़रीब गया। कुछ देर तवक़्क़ुफ़ किया और जब संदूक़ में कोई हरकत ना देखी और ना ही कोई और अम्र-ए-सह्र का मेरे सामने हुवैदा हुआ तो आजिज़ पर से ख़ौफ़ का ग़लबा बा-तदरीज माअदूम हुआ। क़ाअदा है कि जब ख़ौफ़ जाता है तो लालच आदमी पर छा जाता है। यूँ मैंने भी गराँमाया-ए-गंजीने का ख़याल-ए-दिल में जमा, तबस्सुम-ए-बर-लब और ललचाते हाथों से इस मुस्ततील को टटोला।

    देवदार से बना ये संदूक़ लंबाई में पंद्रह बालिश्त और चौड़ाई में दस बालिश्त था। इस को आहनी मेख़ों से बंद किया गया था और ये हैयत से खुर्दुरा महसूस होता था। बरसों पुराने इस संदूक़ की हालत-ए-ज़ार ना-गुफ़्ता बह थी और यूँ गुमान होता था कि गोया उसे बार-बार खोला और बंद किया गया हो। कसरत-ए-इस्तिमाल से इस पर जा बह जा ख़राशें पड़ गईं थीं और इस के कोनों पर आहिनी तकुन नुमा पत्रियां थीं जो ज़ंग-आलूद थीं। मैंने संदूक़ को हिलाया जिलाया तो वो जसामत में भारी था।

    यकायक मेरे कान खड़े हो गए।

    संदूक़ से किसी नौजवान ख़ातून के गुनगुनाने की आवाज़ सुनाई दी। मैं ने ग़ौर से सुना तो वो गुज़रते बहार और आते ख़िज़ाँ का गीत इस तरन्नुम से गा रही थी कि उस आवाज़ पर सद-जान से फ़िदा हो गया। जी में ख़्याल किया कि मुक़र्रर इस में कोई मह-जबीं, मुजस्सम

    फरहीन, होंट ला'लीं, बदन सीमीं, चेहरा हसीन जो ज़ुल्फ़ों की तारीकी में मानिंद-ए-माह दमकता होगा, लिबास रंगीन पहने मोजिब-ए-तसकीन होगी। फिर चश्म-ए-तसव्वुर से देखा कि वो नाज़नीं ज़ोहरा-जबीं, दुबली पतली, परीज़ाद, ग़ैरत-ए-सर्व, गुल-ए-इज़ार, अम्बर-बू, आलम-ए-बे-हिजाबी में जवानी की नींद से चूर आराम से लेटी है और उस के लाला-रंग होंटों पर मुस्कुराहट सजी है। इस तसव्वुर से दिल बाग़ बाग़ हुआ।

    इसी अस्ना में बुर्ज में मौजूद पहरेदारों से सुना,

    ’’अच्छा हुआ उस से शहर की जान छूटी, अजी ख़ल्क़ का कोई क्या करे जब ख़ुल्क़ ही ना हो।“

    ना-गहाँ नज़र की और देखा कि कुछ क़तरे ताज़ा ख़ून के उस संदूक़ से टपकते हैं। इस से ये ख़्याल बाँधा कि मुम्किन है इस में कोई बदनसीब, चेहरा मस्तूर, अंग-अंग ज़ख़मों से चूर, मस्त-ए-ख़्वाब, आँखें बंद, बदन रंजूर लहू में नहाई मारे दर्द के कराहती मिले।

    मैं आगे बढ़ा और संदूक़ खोलने का इरादा मुसम्मम दिल में बाँधा लेकिन जब पहरेदारों की खुसर फुसर सुनी तो इस इरादे से बाज़ आया। अपने तईं अलबत्ता मुक़र्रर ये किया कि जब सुब्ह हो तो ही कुछ तदबीर ऐसी करूँ कि उसे खोलूं और मुराद दिल की पाँव। यूँ शब-ए-बे-मेहर काटने लगा और मेहर-ए- सुब्ह का मुंतज़िर हुआ।

    वो थोड़ी सी रात ऐसी पहाड़ हो गई कि कटने में ना आए और इस

    अमर से जी बहुत घबराया। नाचार फ़िक्र-ओ-अंदेशे में ग़लतां टहलने लगा। बेचैनी में कभू इधर देखता, कभू उधर, कभू चलते चलते रुक जाता था, कभू चल पड़ता था और कभू धड़कते दिल को लज़रते हाथों से थाम लेता था। तरह तरह के शकूक-ओ-इबहाम ने आन घेरा। सोचा ज़रूर उस संदूक़ में कोई ऐसी बला है जिसने शहर में आफ़त का बाज़ार गर्म कर रखा था सो इसी बाइस उसे शहर-बदर किया गया और अब ये मेरे गले आन पड़ी है और लाज़िम तो ये है कि इस से ख़ुद को दूर करूँ कि बेजा की आफ़त में पड़ना कहाँ का क़रीन-ए-अक़्ल है। यूँ जब-जब मेरे ऊपर ख़ौफ़ छाया तो बसा बार जी में आया किस बाइस ख़ुद को मुसीबत में फँसाउं और क्यों ना इस बलाए दीन-ओ-ईमान से जान छुड़ाऊँ कि ख़िरद का तक़ाज़ा तो ये है कि रास्ते में आई झाड़ीयों से ख़ुद को दूर करूँ।

    लेकिन फिर जब जब लालच का ग़लबा हुआ तो सोचा लाज़िम है कि ख़ुद को ज़्यादा हलकान ना करूँ कि ये भी ख़िलाफ़-ए-दानिश है कि हाथ आए गंज गराँ-माया को यूँ हाथ से जाने दूँ। आख़िर में मुक़र्रर ये हुआ कि जब रात टले और इस संदूक़ वाली की हक़ीक़त का इल्म मुझ पर खुले तो फिर कुछ फ़ैसला करूँ। अल-ग़र्ज़ सारी रात बेदार रहा और तज़बज़ुब में गिरफ़्तार रहा। कभू कुछ कभू कुछ सोचता रहा। हर लम्हा जैसे पूरा साल लेकिन बा एन हमा एक घड़ी भी इस संदूक़ की हिफ़ाज़त से ग़ाफ़िल ना रहा।

    बारे ख़ुदा ख़ुदा करके सुबह हुई, मुर्ग़-ए-सहरी बोला, और ब-हुक्म-ए-यज़्दाँ क़ासिद-ए-नूरानी ने तारीकी का पर्दा चाक किया। दफ़'अतन उफ़ुक़ शर्क़ी से जारूब-कुश-ए-मश्रीक़ ने सर उभारा और ज़र्रीं तारों से बने छाबे से सतह गिर्दों की धूल को आनन-फ़ानन पाक किया।

    दरबार-ए-अफ़्लाक से बादा-गुलरंग में डूबी सुनहरी डली को हुक्म दिया गया कि जहाँ बे-मेहर बे-मुरव्वत को नूर से मुनव्वर करे।

    बे-चून-ओ-चुरा हुक्म की तामील की गई, पर्दा नूर में मस्तूर महर-ए- दरख़्शंदा का हमा-जिहत ज़हूर हुआ और हमा आलम-ए-बक़ा नूर हुआ। अज़ीज़ो इस अमर से उफ़ुक़ के रुख़्सार पर सुर्ख़ी मादूम हुई और आहिस्ता-आहिस्ता नीलगूं नज़ारे ने फ़रोग़ पाया। क़िस्सा मुख़्तसर उस दिन भी हसब दस्तूर तारीकी का सह्र दूर हुआ, हर गली हर कूचा मिस्ल-ए-जलवा-ए-तूर हुआ और हाकिम-ए-क़ज़ा-ओ-क़दर, मबद-ए-शाम-ओ-तालए सह्र के फ़रमान पर पूरे जहान को चश्म-ए-ज़दन में रोशनी में नहला दिया गया। आग़ाज़ सुबह हो गया।

    अबयात

    सुब्ह-ए-दम दरवाज़-ए-ख़ावर खुला।।। महर आलम-ए-ताब का मनज़र खुला

    ख़ुसरो अंजुम के आया सिर्फ में।।। शब को था गंजीना गौहर खुला

    ला के साक़ी ने सुबूही के लिए।।। रख दिया है एक जाम ज़र खुला

    हैं कवाकिब कुछ नज़र आते हैं कुछ।।। देते हैं धोका ये बाज़ीगर खुला

    थी नज़रबंदी किया जब रद्द-ए-सेहर।।। बादा-ए-गुल रंग का साग़र खुला

    सुब्ह आया जानिब-ए-मश्रीक़ नज़र।।। इक निगार-ए-आतशीं रुख़-ए-सर खुला

    पस जो मस्तूर था वो अयाँ हुआ और जिस-जिस बात पर उस ज़ात-ए-आली-सिफ़ात ने पर्दा डालना चाहा ढकी रह गई। एक तरफ़ कोई गुनहगार, मग़रूर, ना-फ़रमान-ओ-सर शोर, किसी मुजस्सम हूर, मह-वश पुर-ग़ुरूर के पहलू में लेटा, अजनबी, मख़मूर रह गया और दूसरी तरफ़ कोई अल्लाह के इशक़ से मजबूर उस ज़ात की गु़लामी में मसरूर, हस्ब-ए-दसतूर बा-वज़ू हो कर उसके सामने सज्दा-रेज़ हुआ, मशकूर रह गया।।। मुनाजात सहरी पढ़े और फिर उस की हमद में मशग़ूल हुआ।

    वो ज़ात जिसके हमद की ताब ना क़लम में है ना ज़बान में है, ना जानदार में ना बे-जान में है, ना बूढ़े में ना जवान में है।

    हमद

    या रब मकुन अज़ लुतफ़ परेशान मारा।।। हर चंद कि हसित जुर्म-ओ-इस्यान मारा

    ज़ात तो ग़नी बुदा-ओ-मा महत्ताजीम।।। मुहताज बग़ैर ख़ुद मगर दान मारा!

    तो सिर्फ़ वही ज़ात सज़ावार हमद-ओ-सना है जो ख़ालिक़-ए-अर्ज़-ओ-समा है, जो नूर-उल-समवात है ख़ालिक़-ए-हयात है, बदी जमादात-ओ-हैवानात-ओ-जिन्नात है, रोज़-ए-हश्र जाम-ए-अल-मख़लूकात है, ज़ात-ए- दीदा-ओ-नादीदा कमालात है, राज़िक़ बाग़ात-ओ-सौग़ात है, दाफ़े ख़तरात-ओ-आफ़ात-ओ- मुश्किलात है, राफ़े अल-दर्जात है, ग़र्ज़ लायक़-ए-हमा सताइश-ओ-इबादात और हर ऐब से पाक है, जो करीम है

    और जिसने गुलशन-ए-दुनिया के फूलों को बहार और मह-रुख़ों, ज़ेबा रुख़्सारों को नक़्श-ओ-निगार और दिल-फ़िगार आशिक़ों को सब्र बेशुमार बख़्शा।

    फ़रमान रवा-ए-जहान हाजात के करम का सुनकर अंबोह के अंबोह उमड आते हैं, झोलियाँ फैलाते हैं, नीस्ती का रोना रोते हैं और सबसे नाउम्मीद हो कर उस की तरफ़ उम्मीद की नज़र करते हैं।

    बैत

    मीर बंदों से काम कब निकला।।। माँगना है जो कुछ ख़ुदा से मांग

    अब इस ग़नी बादशाह की तरफ़ टुक नज़र कीजिए, वो तो किसू की मुश्किल अटकी नहीं रखता, नज़र-ओ-करम रखता है, सब का भरम रखता है। जब लोग हाथ उठा-उठा कर मांगते हैं तो उस की रहमत जोश खाती है, मलाइक को हुक्म दिया जाता है कि सब देखे अन-देखे ख़ज़ानों के मुँह फ़ील-फ़ौर खोल दिए जाएँ, हर मांगने वाले को उस की तलब से बढ़कर दिया जाएँ, जो ना भी मांगे उस की भी झोली भर दी जावें, बारे तमाम हाजात पूरे कर दिए जावें और देखियो आज एक मर्तबा फिर ज़ूलजलाल-ओ-अलकराम के दर से कोई ख़ाली हाथ ना लौटे।

    बिला चूँ-ओ-चरां हुक्म की तामील होती है और इस फ़य्याज़ शाहंशाह के दर से कोई ख़ाली हाथ लेकर नहीं जाता, मुस्तज़ाद इस पर उस तमाम जूद-ओं-सख़ा के अलर्रग़्म उस के ख़ज़ानों में कोई अंदेशा कमी का नहीं होता और वो जूँ के तूँ लबा-लब भरे रहते हैं, सुब्हान-अल्लाह।

    बैत

    झोलियाँ सबकी भर्ती जाती हैं।।। देने वाला नज़र नहीं आता

    दफ़'अतन देखा कि फ़सील के गिर्द और लोग भी उमड आए और यूँ मैंने तमाशा किया तो देखा ख़ल्क़-ए-ख़ुदा का मर्ग़ज़ार क्या नादार किया मालदार सब के सब शहर में दाख़िल होने के तलबगार। उनमें कहीं हकीम फ़न-ए-हिक्मत में होशियार, मैदान तिब्ब के शहसवार, हवास बेदार, और कहीं मरीज़ कराहते जान ब-लब, बदन फ़िगार, किसी दम के मेहमान गोया हालत एहतिज़ार। मैंने संदूक़ की तरफ़ देखकर दाएँ देखा।

    वहाँ एक तरफ़ अवाम झ़ोलीदा-मू, चश्म-ए-अश्क-बार, सूरत-ए-बेज़ार, ग़म-ए-ज़ीस्त में सरता पा गिरफ़्तार और दूसरी जानिब फ़िक्र-ए-जहाँ से आज़ाद लड़खड़ाते मय- ख़्वार नीम-ख़्वाबीदा नीम बेदार। इसी अंबोह में पुर-तकब्बुर उमरा-ए-शहर का नज़ारा भी किया, कि फ़लक-नुमा रंग-बिरंगी छतरीयों के साय में मुश्क-ओ-अंबर में नहलाए, सर पर कुलाह-ए-कज, कामिल सज-धज से ज़रक़-बरक़ की पोशाकें ज़ेब-ए-तन किए ब-सद रऊनत चले आते हैं, लोगों को कराहत की नज़र से देखते हैं, नाक भों चढ़ाते हैं और अपने माल-ओ-मन्सब पर इतराते हैं। उनके दाएँ बाएँ और आगे पीछे कई सवार, पहने लिबास नामदार, बाँधे चार हथियार, गूना-गूँ और सलाह बू-क़लमूँ से आरास्ता, ''अदब' और ''मुलाहिज़ा' और''क़रीने' और ''निगाह-ए-रूबरू की सदाएँ लगाते हैं और ''हटो बचोगे' का ग़ुल मचाते हैं।

    देखा कि बीच इस अंबोह-ए-कसीर में बग़ल में दाबे किताबों के अंबार दरयाए इल्म में गुम उल्मा बुर्दबार।।। हर कोई सर झुकाए, कुछ इज्ज़ से आँखें ज़मीन में गड़े, कुछ ख़ामोश अपनी किताबों में गुम पैर घसीटते चले आते हैं ना खाने की सिद्ध ना पीने की बुध सिर्फ़ इल्म के समुंद्र से अपनी भूक मिटाते और प्यास बुझाते हैं। कोई उर्फ़ी के शेअर पढ़ कर दाद देते नहीं थकता तो कोई फ़ीसा ग़ौरस के मसाइल में गुम सर धुनता है, वाह-वाह करता है, दुनिया की ऊंच नीच समझता है पर आक़िल है तो ज़बान बंद रखता है, हर-सू नज़र रखता है।

    इन्ही में नज़र आए, ख़ाल-ख़ाल फ़क़ीर रह नशीन गुरसहना जबीं, कि लोगों से लिपट कर, गिड़गिड़ा कर सवाल करते हैं और अपनी नादारी, बेचारगी, ग़ुर्बत, नातवानी, इज्जज़, ज़ोफ़, इज़्मेहलाल-ओ-ना-ताक़ती का रोना रोते हैं।, क़फ़ीफ़ हैं, माज़ूर हैं, लिबास इनके तार-तार हैं और बदन फ़िगार हाथ फैलाए महिज़ दो तंगों के तलबगार हैं। वहीं मुशाहिदा किया कि फ़र्ज़ से सरशार, जान-निसार सिपाही मा-तलवार-ओ-रहवार बाद-रफ़्तार, सांस लिए बग़ैर बिला जुंबिश ऐसे खड़े हैं कि एक लम्हे के लिए भी ग़फ़लत का शिकार ना हों और अपनी तेज़ और उक़ाबी नज़रों से लोगों को देखते हैं, परखते हैं। मैंने संदूक़ की तरफ़ देखकर बाएँ देखा।

    देखा एक कोने में माओं के सीनों से चिमटे शेर-ख़्वार बच्चे कि बिलक-बिलक कर रोते हैं और दूसरे कोने में नाज़नीन-ए-क़र्या हसीन, अपनी अदाओं से रहज़न दीन, परी-सूरत बुलंद सीने जैसे दरख़्त हाय समर बार।।। हूर वश आफ़त-ए-रोज़गार।।। जिनके हुस्न के सामने चाँद भी मांद, बदन मुश्क-बार और हाथ पर हिना के मौहूम नक़्श-ओ-निगार। मुतरन्निम क़हक़हों, अपने बनावटी लगाव और झूटे प्यार से पूरे माहौल को गुलशन-ए-बहार बनाते हैं। आशिक़ ये सब देखकर सर धुनते हैं, आहें भरते हैं, आफ़रीं-आफ़रीं कहते हैं।

    बैत

    चमन में सैर-ए-गुल को जब कभी वो मह-जबीं निकले।।। मिरी तार रग-ए-जाँ से सदाए आफ़रीं निकले

    फ़क़ीर ने भी एक आह भरी और संदूक़ ख़ूरजी में कसा और जी में कहा मुक़र्रर इस संदूक़ में मुक़य्यद नाज़नीन गुलदस्ता-ए-जमाल परी तिमसाल, जहाँ में यकता और बे-मिसाल होगी कि मलाहत में बे-हमता होगी, शहरा आफ़ाक़ और तमाम उमूर में ताक़ होगी। मुस्तज़ाद इस पर रानाई और ज़ेबाई में निहायत दिल जूँ और दिलरुबाई में ब-ग़ाएत ख़ूबरू होगी और यूँ मेरे दिन फिर जावेंगे। मैं तो किसी घड़ी उस को अपने आपसे जुदा ना करूँ और अगर मक़दूर में इस के साथ अक़द हो तो उसे कलेजे में डाल रखूँ, यक-जान दो क़ालिब बनूँ ता-अबद उस के पहलू में रहूँ और मुल्क-उल-मौत को भी पास फटकने ना दूँ, उस के हुस्न में गुम रहूँ।

    उन्हीं ख़यालों में गुम अंबोह कसीर के बीच में चलता-चलता बिल-आखिर उस फ़सील में दाख़िल हुआ। गाहे ख़्याल आता था कि किसी हजाम से जो जिरह कारी में निपट पक्का हो तलब कुछ ऐसा करूँ कि इस नाज़नीन के ज़ख़मों को बग़ैर सूज़न के सिए और अर्क़-ए-गुलाब आब-ए-हयात में मिला कर उसे ग़ुस्ल-ए-शिफ़ा-याब दे कि मुझे उसे तकलीफ़ देना हरगिज़ मंज़ूर ना था। गाहे ख़्याल आता था कि पहले संदूक़ को तो खोलूँ, उस का नज़ारा करूँ, हक़ीक़त और तख़य्युल का तक़ाबुल करूँ और इस ख़ंदा-जबीन से उस की मर्ज़ी पूछूँ तो ही कुछ आगे का ख़्याल करूँ।

    फिर यकायक ये ख़्याल भी आया कि बे-पर्दगी इस नाज़नीन की मतलूब नहीं कि ना-महर्रम के सामने वो भला क्यों सर खोले आए। ये सोचा तो जी में इरादा बाँधा कि सबसे पहले कुछ तदबीर ऐसी करूँगा कि हिजाब उस का क़ायम रहे और वो किसी के सामने बे-पर्दा ना आए। फिर सोचा ना-महर्रम तो वो मेरे वास्ते भी है सो लाज़िम है कि निकाह मुक़द्दम रहे और मुलाक़ात मुअख़्ख़र और इस बाइस ये इरादा महकम बाँधा कि अशद ज़रूरी है कि पहले उस को घर-वाली बनाऐं तो फिर मुझे इख़तियार हो कि तबियत के लगाव से हुज्रा-ए-उरूसी में जाऊँ और जो मुआमला

    शरीयत में मुबाह हो सो करूँ।

    उन्हीं ख़यालों में ग़लताँ शहर में दाख़िल हुआ तो एक घर के ढ़ूढ़ने की सई की जहाँ इस संदूक़ को बा-हिफ़ाज़त रख पहले किसी निकाह ख्वान और फिर जर्राह का इंतिज़ाम बा-मौजिब दस्तूर करूँ और जब मेरी बीवी अल्लाह के करम से शिफ़ा पाए और ग़ुस्ल-ए-सेहत से फ़राग़त मिले और तुहर में हो तो उस के साथ ज़िंदगी के मज़े लूटूँ कि बे-शक हलाल औरतों में हलावत रखी गई है।

    इन्हीं ख़्वाबों में गुम ये आजिज़ एक बाज़ार से गुज़रा जिसे बाज़ार-ए-हिलाल कहते थे कि बिना मैं मानिंद-ए-हिलाल था और इस में भांत-भांत की दुकानें थीं। बाज़ार किया था पूरा जहाँ था, वहाँ मता हर दियार का फ़िरावाँ था। भीड़ में शाने से शाना छिले, कोई चले तो सीधा रास्ता ना मिले। तमाम साकिनान-ए-शहर बा-वज़’ क़ता’दार, बातचीत मर्दों वाली रोबदार। नफ़ीस-ओ-ख़ुश-सलीक़ा इतने कि आप जनाब करके बात करते थे।

    वहीं दुकान एक मिठाई की देखी, लबा-लब भरी ; बर्फ़ी और उस के ऊपर नुक़रई वर्क़, इमरती शहद से ज़्यादा मीठी, शकर-पारे शीरीं सारे, रसगुल्ले लब-ए-महबूब से लज़ीज़, जलेबी ख़्याल से ज़्यादा पेचदारऔर मज़े-दार, पेड़ा मर्ग़ूब दिल-ख़ुश मज़ा, पेठा चाशनी भरा, बालूशाही रूह अफ़्ज़ा, कलाकंद मज़े-दार, हल्की आँच पर बनी खुशबू-दार, लड्डू हलावत भरे बा लज़्ज़त, खीर पिसते वाली हर दिल अज़ीज़ पुर-लुत्फ़, चमचम दूध में घुला बा-ज़ायक़ा, डिब्बों में बंद, मुजस्सम क़ंद, हलवा गाजर का दिल मोह लेने वाला, क़ुलफ़ी ताज़ा जमी और इस पर पड़ा बारीक क़तरा पिस्ता, पतीसा ख़ूब पिसा तह दर तह ग़र्ज़ हर शिरनी वाफ़र देखी, आँखें मिठास से भर गईं।

    आगे गया तो एक दुकान को देखा कि वहाँ चहल पहल ज़्यादा है। अजनास की ख़रीदो फ़रोख़त है रेल-पेल पैसे की है और लोग सानियों में दीनारों का अंबार लुटाते हैं सो इस तरफ़ जाने का क़सद किया।

    वहाँ गद्दी पर एक नौजवान, रश्क-ए-मह पीर-ए-कनआँ, शकील-ओ-ख़ुश-लिबास, हसीन-ओ-वसीम को देखा। देखने में गोया इबन-ए-हूर, नशा शबाब से चकना-चूर था। क्या जवानी थी कि बहर-ए-हुस्न-ओ-ख़ूबी का दर यकता था, मसें भीगी और सफ़ैद कुलाह उस के सर पर कज, शहरयारी की सज-धज के साथ मुतमक्किन था।।। शक्ल से ख़ूब-रू, नेक-ख़ू, रोशन आँखें चेहरे पर मुस्कुराहट सजाये, साहब-ए-मुरव्वत नज़र आता था। शीरीन ज़बान ऐसा कि सबसे मतानत से कलाम करता है।।। सुनता ज़्यादा बोलता कम है।।। पेशानी उस की चौड़ी और दानाई उस के क़याफ़े से अयाँ थी।

    कुछ हिम्मत बाँधी तो उस के पास पहुँच कर ब-सद इकराम सलाम किया और अजनास ख़ूरो नोश की वास्ते अपने तलब कीं, हाल अहवाल मौसम का दरयाफ़त किया। मेरी बातचीत इस शहर के बाशिंदों जैसी ना थी सो उसने मुझे इस देर में अजनबी जान कर बहुत ही मुहब्बत से पास बिठाया और निपट शर्बत ज़ाफ़रानी तकल्लुफ़ से बना कर, लेमूँ का रस मिला कर बर्फ़ लगा कर ला पेश किया जो फ़क़ीर ने रग़बत से एक साँस में नोश जान किया, महीनों की प्यास बुझ गई, जान में जान आई और बातों का समां बंधा।

    कुछ देर बातें दीन-ओ-दुनिया की होती रहीं। मैंने महसूस किया कि वो सवाल पर सवाल किए जा रहा है और इस अमर से मुझे बहुत बेचैनी हुई। उल-ग़र्ज़ जब हंगामा सोहबत बह एन नौबत पहुँचा कि मुझे धड़का ये लगा कि मैं बयान अपने दिल के इज़तिराब का और उस नाज़नीन के शबाब का इस से मख़फ़ी नहीं रख सकूँ और उसे कुछ बता बैठूँगा तो जाने का इरादा बाँधा और उस की इजाज़त तलब करने के लिए मुँह खोलना ही चाहा कि उसने मेरा अहवाल मेरी पेशानी पर लिखा देखा।

    बैत

    वो मेरी चैन जबीन से ग़म-ए-पिन्हां समझा।।। राज़-ए-मक्तूब बह बे रबती आंवां समझा

    मैंने आँखें चुरानी चाहीं तो उसने मुहब्बत से मग़्लूब मेरा हाथ थाम के अहवाल मुझसे मेरा ब-सद इश्तियाक़-ओ-रग़बत दरयाफ़त किया।

    “मेरे रफ़ीक़ तुम कौन हो कहाँ से आए हो जो एक ही लम्हे मै तेरी मुहब्बत का गरवीदा हो गया हूँ। अजनबी बतला दीजो किस बाइस अपनी ये सूरत परेशान बनाई है? ख़ातिरजमा रख ख़ुदा की नेअमत।।। मेरे पास अल्लाह का दिया सब कुछ है। जो भी माल अस्बाब फ़राहम हो सका हत्तलमक़दूर कोशिश करूँगा कि अल्लाह ने इन्सान को इन्सान के काम के लिए पैदा किया है। ख़ुदारा अपना हाल मुझ पर ज़ाहिर कीजो जो दिल में है, कम है या ज़्यादा बिला ख़ौफ़-ओ-उज़्र मज़कूर कीजो मै हमा-तन गोश हूँ और वास्ते तेरी ख़िदमत के हल्क़ा-ब-गोश हूँ।“

    मेरे तईं यूँ पहली मुलाक़ात में अपनी सरगुज़श्त ज़ाहिर करना मंज़ूर ना थी कि बहरहाल एक दिन की आश्नाई पर एतबार क़रीन-ए-मस्लहत नहीं और यूँ हर एरे ग़ैरे को अपनी दास्तान सुनाना दानिशमंदी नहीं सो वहाँ से निपट रुख़स्त होने का बहाना मुकर्रर किया।

    बैत

    दामन अश्कों से तर करें क्यूँ-कर।।। राज़ को मुश्तहिर करें क्यूँ-कर

    मैंने जो वहाँ से जाने में शिताबी दिखाई तो उस ने मज़ीद ख़फ़गी दिखाई और कहा

    “’ए साहब इतनी जल्दी काहे को? मुझे तो नज़र ये आता है कि तेरा रवैय्या मुहब्बत से पुर और दोस्ती पर माइल है और गुमान ग़ालिब है तेरे नज़दीक किसी की दिल-शिकनी भी मक़सूद नहीं लेकिन दिल का हाल तो बहर-ए-हाल अल्लाह को मालूम है। बतला दीजो इस पहलू-तही से किया मुराद? अगर उतनी ही नाआशनाई का इरादा था तो काहे को इतनी गर्म-जोशी से मेल-मुलाक़ात की? अब इस तुर्श-रूई से किया मतलूब? मेरी सुनो ग़म बांटने से कम होता है, अगर कोई अमर माने’ ना हो तो ख़ुदारा अपना माजरा कामिल बयान कीजो कि तेरी कफ़ीयत अपने तईं दरयाफ़त करनी बहर-ए-हाल मक़सूद है।“

    ये कलाम उसने इतनी मुहब्बत और तकरार से किया कि दिल को बहुत भाया और बजुज़ ज़िक्र कोई और मुफ़िर नज़र ना आया। सोचा अब तो कोई क़िस्सा शरीन ज़बान कुछ ऐसे दर्द से बयान करूँ कि उसे भी क़रार आए और कुछ अपना भी फ़ायदा हो। वैसे भी अब यूँ बे-रुख़ी बरतना बर-ख़िलाफ़ मुरव्वत जाना। मैंने जी में ख़्याल किया कि अगर उसे कुछ झूट-मूट का कुछ ना सुनाया तो बेजा अज़रदा होगा जो मुझे बहर-ए-हाल मतलूब ना था।

    बैत

    दो हर्फ़-ए-तसल्ली के जिसने भी कहे उस को।।। अफ्स़ाना सुना डाला तस्वीर दिखा डाली

    उसने मुझे अपनी सरगुज़श्त सुनाने पर माइल पाया तो निपट दुकान अपने एक लौंडे के हवाले कर कर मेरे साथ वहीं एक कुंज में बैठ गया और मुझसे हवादिस के मुत'अल्लिक़ इस्तिफ़सार बह तफ़सील किया। मुझे अंदेशा हुआ कि अगर उस नाज़नीन का बयान सच सच गोश गुज़ार किया तो अंदेशा है कि वो उस पर आशिक़ हो जाए और मैं हाथ मलता रह जाऊं।

    बैत

    ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयाँ अपना।।। बन गया रक़ीब आख़िर था जो ज़ोरदां अपना

    दुनिया-दारी में ये क़ाईदा है कि हर गुफ़तार-ओ-अमल में अपना फ़ायदा ज़रूर देखना चाहीए। मैंने सोचा कोई ऐसा झूठा क़िस्सा उसे सुनाऊं कि उसे यक़ीन जाए कि बहर-ए-हाल मेरे नज़्दीक उसे सब सच बताना ख़तरे से ख़ाली ना था।

    “’माजरा मेरा ये है कि ताजिर ज़ादा हूँ, नाज़-ओ- नो'म में पला और सफ़र-ए-तिजारत के बाइस सदा का मुसाफ़त दीदा और मुसाफ़िरत कशीदा हूँ। आज कल हालत मेरी ये है कि बे-सर-ओ-पा हूँ गिरफ़्तार-ए-अलम-ओ-बला हूँ, मुब्तला-ए-ग़म और हमा-तन यास बाख़्ता हवास हूँ। इस शहर में यगाना बे-यार-ओ-मददगार ना कोई आश्ना, ना दोस्त ना ग़मखार।“

    बैत

    चह गोयम अज़ सर-ओं-सामान ख़ुद उमरीस चूँ काकुल।।। सय बख़्तम, परेशां राज़ ग्राम, ख़ाना-ए-बुरद-ए-शम

    क़िस्सा मुख़्तसर तीन माह क़बल अपने मुल्क रोम से क़सद तिजारत का कर कर निकला था। इस बार-ए-सफ़र में अपनी जवान और गुल रुख़ बीवी को भी साथ लिया कि बस साहब इस पर बह शिद्दत फ़रेफ़्ता हूँ और वो इस बाइस कि उसे हूर कहूँ तो बजा है परी बोलूँ तो रवा है ख़ुलासा ये मै उस का आशिक़-ए-बा-वफ़ा और वो मेरी माशूक़ पुर हया

    रास्ते में रात गई तो एक जगह ख़ेमा ईस्तादा किया वास्ते आराम के और वहाँ बैठ कर ख़लवत में इधर उधर की बातें करने लगे। बीवी तुहर में थी और महीने के बीच में। उसने क़दरे बेबाकी से बातें इस तौर कीं इस अरूस-ए-गुल-बहार के चेहरे के नक़्श निगार पर सुर्ख़ी बार बार आई और गई। फिर जब उसने एक ज़ोहद शिकन अंगड़ाई ली, होंट काटे तो मै जो पहले से उस के इश्क़ में दिल-फ़िगार था, यक-बारगी आतिश-ए-शौक़ मेरी कुछ ऐसे भड़क उठी कि आजिज़ ने इरादा किया कि अपनी फ़रेफ़्ता जमाल-ए-हुस्न तिमसाल बीवी का बोसा ले और इस के लिए उस की तरफ़ मुजस्सम शहवत बढ़ा।

    “मैं अभी उसे छाती से लगाया ही चाहता था कि दफ़'अतन डाकुओं ने हमला किया। नाहंजारों ने ख़ेमा फाड़ा और जो माल-ओ-अस्बाब पाया वो तो लुटा ही लुटा, गहने के लालच में बीवी को भी घायल किया।“

    ये कह कर मैंने झूट-मूट के आँसू बहाए

    “अब अगर मेरी हालत-ए-ज़ार को नज़र इलतिफ़ात से देखते हो तो ये समझो कि इस जान-ए-बल्ब मजरूह जान को साथ लिए फिरता हूँ, ख़ुद भूका रहता हूँ उसे खिलाता हूँ। बस यूँ जान लीजो मै तीन महीने से किसी घर का मुतलाशी हूँ कि वहाँ कुछ दिन रहूँ और किसी मसीहा सिफ़त और बू-अली तबियत हकीम को फ़ील-फ़ौर बुलाऐं कि मेरी बीवी की ख़बर-गीरी करे जो इस संदूक़ में मजरूह बंद है लेकिन इस से पहले एक मसला और भी मुक़द्दम है।“

    मेरी इस झूठी कहानी से उस की आँखों में आँसू गए और उसने मेरा हाथ थाम लिया और मुझे साथ अपने चलने को कहा।

    “मेरे रफ़ीक़ यहाँ सब हाल अहवाल दिल का यूँ कहना दरुस्त नहीं कि बे-शक सरगोशी में भी कहियो, फिर भी दीवारों के कान होते हैं और बात उन तक पहूँच जाती है जिन से मख़फ़ी रखना बहर-ए-कैफ़ मक़सूद होता है।।। अपने राज़ छुपा कर ही बंदा मुराद पाता है। मेरी सलाह है कि मेरी हवेली पर चलते हैं और पूरी बात सुनते हैं और जो जो इख़तियार में इस आजिज़ के है तेरे लिए हाज़िर किए देते हैं।“

    बैत

    हर सदा पर लगे हैं कान यहाँ।।। दिल सँभाले रहो ज़बां की तरह

    जब मैंने देखा कि वो शीशे में उतर चुका है तो उस के पीछे चल पड़ा और यूँ वो मुझे दुकान से कुछ क़दम दूर एक शानदार हवेली में ले गया। दरवाज़ा खोल कर मुलाज़िमों को पुकारा, एक सदाए रोबदार में उनकी सरज़निश की और उनसे संदूक़ एक कमरे में खाने पीने के सामान समेत रखवा दिया और खादिमों को इस के हिफ़ाज़त की तंबीह की और फिर कुंजी मेरे हाथ में थमाई और वो यूँ गोया हुआ।

    “मेरे रफ़ीक़ अब यही जगह तेरी बूद-ओ-बाश मुक़र्रर हो, तुम मालिक-ओ-मुख़तार हो और जो जी में आए कीजो कि तेरी दास्तान सुनकर मुझे अपना फ़र्ज़-ए-आदम याद आया। क्या ज़माना है कि लोग जान-ओ-माल की क़दर नहीं करते और मामूली रक़म की ख़ातिर ख़ून बहाने से दरेग़ नहीं करते और मस्तूरात पर भी वार करने से नहीं हिचकिचाते। अगरचे कहा मलाइक ने कि बहाएगा आदम-ए-ख़ून लेकिन मशीयत एज़दी है कि अलर्रग़्म उस के आदम को तख़लीक़ किया और बे-शक इस से ज़्यादा इन्सानों का भला जानने वाला भला कौन है अगरचे इन्सान उस की मार्फ़त से बे-बहरा।“

    फिर उसने चौंक कर कहा,

    “ए दल के क़रीब रफ़ीक़-ए-ज़रा ये तो बता कि तेरा दूसरा मसला किया है कि दिल का भेद दोस्तों से छिपाना किसू मज़हब में दरुस्त नहीं और बे-शक मक़बूल तो ये है कि जब दोस्त, वकील और दाई से गुफ़्तगु कीजिए तो सब का सब कह दीजिए और कुछ भी मस्तूर ना रखीए।“

    उसे अपनी मदद पर यूँ माइल देखा तो मैंने झट अपनी तरफ़ से आगे ये घड़ा,

    “ए मरे हर दिल अज़ीज़ रफ़ीक़ जिस घड़ी डाकुओं ने मुझसे सब कुछ लूट किया तो मुझसे पूछा कि और किया है तेरे पास?। मैंने झूट से कह दिया कि मेरे पास कुछ भी ना रहा तो उनके सरदार ने शमशीर शह-रग पर रखकर कहा कि क़सम खा कि अगर तेरे पास कुछ हो तो तीन बार बोल कि तेरे ऊपर तेरी बीवी तलाक़ हुए और मैंने कसम खा कर कहा कि हाँ ऐसा ही हो और यूँही वो बला टली,

    अब जब वो चले गए तो अब जी में कढ़ता हूँ कि मेरे पास तीन यमनी लाल थे जो दस्तार में छिपा रखे थे तो यूँ झूठ बोल कर तंसीख़-ए-निकाह का मूजिब टहरा। अब कराहत है कि बीवी को देखूँ भी या नहीं कि ना-महरम पर फ़क़त पहली निगाह के बाद दूसरी नज़र बहरहाल अज़ रोय शरीयत जायज़ नहीं। बस इसी तौर से उसे संदूक़ में बंद रखे मारा मारा फिरता हूँ।“

    जब ये अमर मुफ़स्सिल उस के गोश गुज़ार हुआ तो मुझे यूँ नज़र आया कि वो इस पेचीदा मसले का बयान सुनकर और परेशान हुआ लेकिन जब मैंने उस को इस का हल ये बयान किया कि पहले निकाह और बाद में हकीम तो वो भी मान गया और यूँ मुत्तफ़िक़ गर्दीद राय बू-अली बाराए मन।

    उसने कुछ लहजे तवक़्क़ुफ़ किया और फिर नाख़ुन काटते, जबीं पर शिकन पस्त आवाज़ में मुझ से यूँ कलाम किया,

    “ये राज़ अलबत्ता बहुत नाज़ुक है ज़िंहार किसी से भी मत कहियो कि जो तश्त अज़ बाम हुए और कोई भनक उस की दारोगा के कानों में पड़े तो तेरे ज़वाल का बाइस हो और तेरे ऊपर मुश्किलात का पहाड़ टूटे।“

    मैंने ब-सद हैरानगी वजह दरयाफ़त की तो बोला,

    “’इस शहर में दस्तूर कुछ ऐसा है कि ज़ना सहल और निकाह का मुआमला अज़ हद पेचीदा है कि बिला दरख़्वास्त के निकाह नामुमकिन है और वाली-ए-शहर ने एक दफ़्तर शहर में मुक़र्रर ऐसा किया है जिसमें इंदिराज हर निकाह का होता है और अगर कोई इस से इन्हिराफ़ करे तो ज़िंदान का मुस्तहिक़ क़रार पाता है सो अगर बात पिनहां रहे तो बेहतर लेकिन अगर तशहीर पाए तो मोजिब -ए-क़बाहत है।'

    कुछ देर रुक कर अपने होंट काटे और कहा,

    “सो अब अगर तो ये बयान करेगा जो तू ने मुझे सुनाया है और निकाह की तजदीद की दर्ख्वास्त करे गा तो लाज़िमन्न इस कहानी को, जो बिल-फ़ेल पेचीदा है, काबिल-ए-एतिबार नहीं, कि कौन मजरूह तीन महीने से संदूक़ में बंद जिए? और यूँ उसे दारोग़-गोई पर मामूर किया जावे और तू खू पाबंद-ए-सलासिल ज़िंदान में जावे और बीवी भी हाथ से जाती रहे।“

    फिर कुछ देर तफ़क्कुर किया

    “हाँ एक तरीक़ा और है कि तंसीख़-ए-निकाह का मसला ही बीच में ना लाया जावे और अपनी बीवी को बाकिरा बतला कर इस से ईजाब-ओ-क़बूल किया जावे लेकिन इस में भी एक क़बाहत है।“

    मैं जो इस मसले की पेचीदगी से लर्ज़ा बर-इनदाम और कुछ शर्मसार और कुछ घबराया हुआ था बे-साख़ता बोला,

    “ए मेरे रफ़ीक़, भला वो क़बाहत किया है।“

    “इस शहर में बाकिरा से निकाह के वास्ते अलबत्ता वली की रजामंदी ज़रूरी है कि बिना हुसूल-ए-इजाज़त वली निकाह में एहतिमाल ज़रर का मौजूद है। हाँ मगर मर्द दीदा औरत पर ये शर्त वाजिब नहीं। सलाह मेरी ये है कि हम उसे किसी आदमी के पास उस की बेटी बना कर, पहले ईलाज मुकम्मल करवा कर उसे वली मुक़र्रर कर कर निकाह बह तरीक़-ए-सुन्नत करें। ये दुनिया को भी मक़बूल और दीन में भी जायज़ क़रार पाए।“

    कुछ देर तफ़क्कुर किया और यूँ गुफ़तार किया,

    “मै एक नेक ख़सलत आदमी को जानता हूँ, मुअम्मर, दीन-दारी में हद दर्जा सरगर्म और दुनियावी मुआमलात और ख्वातीन में रग़बत कम रखता है बल्कि किसी बीमारी के बाइस यकसर नामर्द है, क़फ़ीफ़ है और चलने फिरने से तक़रीबन क़ासिर है। इसी सबब जुमला ज़नान-ए-शहर को अपनी बेटियाँ पोतियाँ गर्दानता है और किसी की तरफ़ निगाह नहीं करता। मैं इस की क़सम खाता हूँ कि अगर एक जवान और शहवत पर माइल बीवी भी उस के साथ एक बिस्तर पर बंद कमरे में सारी रात रहे। एक तरफ़ वो आहें भरे, करहे और उसे अपनी तरफ़ बुलाए, दूसरी तरफ़ ये मर्द इशा और फ़ज्र एक वुज़ू से पढ़े और बीच में मुनाजात-ए-रब। अब सलाह मेरी ये है कि उस के घर जाया जावे और उस से दरख़ास्त की जावे कि।।।“

    मुझे उस की ये तजवीज़ ना भाई और तरर्दूद से कहा,

    ’’मैं अपनी मनकूहा को किसी के पास ना रहने दूँ क्या ख़बर वो क्या करे कि आख़िर जब एक मर्द और एक औरत अकेले हों, दोनों ना-महरम हों तो उनके बीच तीसरा शैतान होता है। सच् पूछो तो इस मुआमले में मुझे किसी का एतबार नहीं। दूसरा उस का इज़ारबंद ज़रूर बंद रहे लेकिन लोगों के मुँह अलबत्ता खूले रहें। नहीं, नहीं मेरे रफ़ीक़ कोई और मख़रज हो इस क़ूज़ीए से तो बतलाव।“

    उसने बहुत देर सोचा और फिर तबस्सुम कर कर कहा,

    “एक तरीक़ा और है अगर इन यमनी लालों में से एक दारोगा और एक किसी निकाह ख्वान को रिश्वत के तौर पर दे दें तो मुम्किन है वो राज़ी हो जाएँ।“

    यमनी ला’ल यूँ हाथ से जाते देखे तो कोफ़त तो हुई लेकिन उस बीवी के जमाल में कुछ यूँ गुम था कि ये बात ब-सद कराहत पसंद की और दारोगा और निकाह ख्वान का मुआमला उस पर छोड़ दिया। हम वापिस घर चले आए ताकि कुछ ख़ुर्द-ओ-नोश से इन्साफ़ करें।

    शाम हुई और हवेली में फानूसों में जा बा जा काफ़ूरी शमएँ रोशन हुईं। दालान में बिठा कर उसने गर्म पानी मंगवाया, एक ख़ुश शक्ल कनीज़ से हाथ पावों धुलवाए और मेरे रूबरू एक तवारे का तवारा चून दिया; रोग़नी नान और मुर्ग़ के कबाब साथ रोग़न जोश और नर्गिसी कोफ़तों और कोरमा पुलाव और मुतंजन के दस्तर-ख़्वान पर चुन दिए। फ़क़ीर की भूक चमक उठी और आजिज़ ने ख़ूब सैर हो कर ऐसा खाया कि संदूक़ में बंद नाज़नीन के बारे में यकसर भूल गया।

    उस मर्द की शराफ़त दीदनी थी कि ये सब कर कर भी कहा कि अगर ख़िदमतगारी में किसू तौर कमी रह गई हो और इस बाइस मिज़ाज-ए-रफ़ीक़ का मुकद्दर हुआ हो तो इस की माफ़ी का ख़्वास्तगार हूँ। दिल में ख़्याल आया कि उसे सब कुछ सच सच बता दूँ लेकिन फिर किसी सबब इस से इजतिनाब बरता। जब इन तमाम उमूरसे फ़ारिग़ हुए तो निकाह ख़वान की तलाश में निकल पड़े।

    तारीक और तावदार गलीयों से गुज़र कर रात को एक बोसीदा घर के सामने जा पहुँचे और मेरे रफ़ीक़ ने दरवाज़े पर दस्तक दी। कुछ देर बाद एक कनीज़, कम-बहा, आँखें मांद और उनके गिर्द हलक़े स्याह, होंट स्याही माइल, चेहरा ज़र्दी माइल बे-रौनक, दाँत कुछ शिकस्ता कुछ पीले, बाल खुले और तर्तीब से आरी, नीम मोई नहीफ़-ओ-नज़ार गोया सिल की मारी, गर्दन की रगें फूली, टिमटिमाता चिराग़ पकड़े दरवाज़े पर आई और और थेके लहजे में ब-सद हक़ारत ज़यारत की वजह दरयाफ़त की।

    हम ने इल्तिजा की कि निकाह ख़वान से मुलाक़ात का इरादा है, कोई अमर ऐसा ज़रूरी है तो ही इस घड़ी ज़यारत का शरफ़ हासिल करने चले आए हैं।

    “है है होश में तो हो? कोई मौक़ा हंगाम देखते हो या जहाँ अपनी ज़रूरत देखते हो मुलाक़ात का इरादा बाँधे जब जी भाया चले आते हो? अरे ये कोई वक़्त है किसी के घर आने का? सलीक़े का तो ज़माना तो रहा नहीं। अरे मै तो मालिक से हरगिज़ कुछ ना कहूँ कि ये उनके आराम का दौरानिया है और इस घड़ी तख़लिए में मुदाख़िलत उनको किसी सूरत मर्ग़ूब नहीं। तुम दोनों अब सूबह ही आना।“

    वो पट बंद करने लगी कि मेरे रफ़ीक़ ने अपना पावं उनके बीच रख दिया। हम दोनों ने मिन्नत समाजत की, गिड़गिड़ाए लेकिन उस पर कुछ असर ना हुआ। फिर कुछ सोच कर कुछ दीनार उस के हाथ में थमाए तो उसने ब-सद इश्तियाक़ एक एक दीनार गिन कर मालिक को ख़बर कर दी।

    पैर घसीटता कमर-ख़मीदा सन रसीदा निकाह ख़वाँ, कि मारे ज़ोफ़ के खड़े होने की ताक़त इस में ना थी, नीम ख़ुफ़तगी की हालत में एक हाथ में चोबी असा थामे और दूसरे हाथ में दफ़्तर-ए-निकाह का लिए नमूदार हुआ। मेरे रफ़ीक़ ने जो कैफ़ियात मुझसे सुनी थी कुछ ज़रूरी तग़य्युर के साथ उस के गोश गुज़ार की तो उस ने कुछ हैल-ओ-हुज्जत के बाद मदद की हामी बा-एवज़ एक यमनी लाल के भर ली।

    सब मुआमला अपनी तरफ़ दरुस्त और मुस्तक़ीम देखा तो निकाह ख़वान और रफ़ीक़ को साथ लिया और हम सब दारोगा-ए-शहर के घर जा पहुँचें। उस के भी तफ़सील गोश गुज़ार की। उसने भी एक यमनी लाल के एवज़ ये काम कर गुज़रने से इनकार ना किया। अब मुक़र्रर ये हुआ कि एक निकाह ख़वान और दो गवाहों की मौजूदगी में इस नाज़नीन से निकाह करके फिर हकीम से रुजू करूँ और यूँ वस्ल के मज़े लूँ।

    सब मुआमलात तर्तीब में आए तो अल्लाह का शुक्र अदा किया और सारा रस्ता इस जवाँ-साल बीवी के ख़्याल में गुम शब-ए-उरूसी के बारे में गौर-ओ-फ़िक्र में ग़लताँ रहा।

    बैत

    आरज़ू वस्ल की रखती है परेशां क्या- क्या।।। क्या बताऊँ कि मेरे दिल में है अरमाँ क्या- क्या

    चलते चलते हम सब घर वापिस गए और मुलाज़िमों से संदूक़ दीवानख़ाने में ला रखवा दिया। सबने सुना कि संदूक़ में कोई करवट बदलने और कराहने की आवाज़ निस्वानी आती है लेकिन लब बंद रखे। यकायक देखा कि दारोग़ा ने निकाह ख्वान के कान में खुसर-फुसर की और सर हिला कर किसी बात पर इत्तिफ़ाक़ किया। मैं अभी तक उस माशूक़ के ख़्याल में ग़लतां था सो चंदाँ ताज्जुब ना किया और ख़िदमत गारों की तरफ़ देखा कि उन्होंने संदूक़ कमाल-ए-एहतियात से रखा और उस पर फूलों की पत्तियाँ निछावर कीं और कमरे से निकल गए। मैंने लिबास फ़ाखिरा ज़ेब-ए-तन किया और निकाह ख़्वान को इशारत की कि वो निकाह का ख़ुतबा पढ़े

    संदूक़ से गुनगुनाने की आवाज़ आने लगी

    बैत

    जब से छुटा है गुलसिताँ हमसे।।। रोज़ सुनते हैं बहार आई है

    इसी लम्हे नागहां दारोग़ा ने आँखों ही आँखों में निकाह ख़्वान को कुछ इशारत की और ये देखकर उसने किताब बंद की, अपने होंट काटे और यूँ कलाम किया,

    “मियाँ तलाक़ में शरई रुकावट ये है कि जब तीन तलाक़ हो जाएँ तो फिर तो एक ही सूरत में दुबारा निकाह की सूरत बन सकती है कि ख़ातून का निकाह किसी आक़िल बालिग़ मर्द से बग़ैर किसी ज़ोर ज़बरदस्ती के करवाया जाये। जब ये अमर अंजाम को पहुँचें और जब वो दोनों बाहम हो जाएँ,रोज़गार-ए-ज़ीस्त से फ़ारिग़ हों और उनके दरमयान मुआमला उस हंगाम को पहुंचे कि ताल्लुक़ ज़न-ओ-शौहर हक़्क़-उल-यक़ीन के दर्जे में अंजाम को पहुँचें और फिर वही आदमी उसे बग़ैर किसी जब्र के अपनी मर्ज़ी से तलाक़ दे तो ही तीन तलाक़ देने वाला इस से दुबारा अक़द कर सके। जब तक ये तक़ाज़ा पूरा ना हो निकाह नहीं हो सकता।“

    मेरे आँखों के सामने मेरी दुनिया अंधेर हो गई लेकिन जो उसने मज़ीद कहा मेरे पैरों तले ज़मीन निकल गई,

    “मेरी सलाह है कि दारोग़ा-ए-शहर इस ख़ातून से बाहम रजामंदी से निकाह करे, उसे बग़ैर जब्र के तलाक़ दे तो ही इद्दत के बाद तेरा रास्ता साफ़ हो। अगर ये ना हो तो निकाह ना-मुमकिन है।“

    मैंने क़दरे शक के साथ कहा

    “मुम्किन है मैंने ग़लत सुना हो और रहज़नों के सरदार ने लफ़्ज़ तलाक़ ना कहा हो, में अपनी बीवी को कैसे ग़ैर मर्द के साथ रहने दूँ।।। मुम्किन है दारोग़ा तलाक़ में पस-ओ-पेश करे।।।“

    दारोग़ा जिसका दिल इस नाज़नीन की आवाज़ सुनकर बहुत ललचाया इस बात से बद-दिमाग़ हुआ,

    “मियाँ तुम कैसे गर्मा गर्म, तुंद मिज़ाज हो जो यूँ बे सोचे समझे कड़े फ़िक़रे ज़बान पर लाते हो?। लो अपना यमनी लाल अपने पास रखियो मुझे अपने शहर में ज़ना को फ़रोग़ देने का कोई शौक़ नहीं। मैं तुम्हें बद्दयानती, दारोग़-गोई, जवान बीवी को घायल करने और उस को महबूस रखने और यमनी लाल के सरक़े के इल्ज़ाम में गिरफ़्तार करता हूँ और क़ाज़ी से दस्त बरीदगी।।।“

    मेरा रफ़ीक़ बीच में कूद पड़ा, कुछ हियल-ओ-हुज्जत हुई और सलाह ये ठहरी कि दारोग़ा दस यमनी लालों के बदले इस माह-लक़ा से अक़द करे, कुछ साअतें ख़लवत में गुज़ारे, सिर्फ़ बोस-ओ-कनार करे और फिर अगर वो उसे बीमार दिखाई दे तो कराहत का इज़हार करे और तुरंत तलाक़ दे। फिर उस औरत का ईलाज हो और मेरे साथ निकाह हुए।

    इस पर धड़कते दिल से इत्तिफ़ाक़ हुआ और मैंने पोशीदा जेब में सिले नौ और लाल उस को दिए और उस से एक काग़ज़ पर तलाक़ लिखवाई जिसे मेरे दोस्त ने अपनी जेब में उड़स लिया।

    अब जब निकाह ख़्वान ने तमाम शरई इल्लतें दूर देखीं तो किताब खोल कर निकाह के आग़ाज़ से पहले उस औरत से इस की मर्ज़ी पूछी

    यकायक संदूक़ ज़ोर से हिलने लगा और निकाह ख़्वान लर्ज़ा बर इंदाम किताब हाथ में पकड़े पीछे हटा। संदूक़ की मिख़ें उस के हिलने के बाइस उखड़ने लगीं और हम पर ख़ौफ़ ने ग़लबा उतना पाया कि तलवारें सौंत दूर कोने में खड़े हो गए।

    संदूक़ का हिलना बंद ना हुआ और यकायक एक सदाए मुहीब से उस का ऊपरी हिस्सा हटा।

    जो अपने तईं ख़्याल किया था, उस के बरअक्स ज़हूर में आया।

    एक ख़ोजा, ज़नाना लिबास-ए-उरूसी में मलबूस अपने ला’लें होंट काटते वहाँ से यक-ब-यक नमूरदार हुआ। निकाह ख़्वान और ताजिर के चेहरे पर तबस्सुम और दारोग़ा के चेहरे पर ग़ैज़ ने फ़रोग़ पाया और तलवारें नयामों के अंदर चली गईं। मैं गू-मगू के आलम चेहरे पर अर्क़ नदामत लिए कफ़-ए-अफ़्सोस मलता रह गया।

    दफ़-अतन उस हिजड़े के तेवर में तग़य्युर आया और उस के मुँह में कफ़ भर आया। यकायक कमर लगी पिनहां नंगी तलवार सौंत, मानिंद-ए-बर्क़ हम पर छ्पट पड़ा। एक ही वार में निकाह ख़्वान और ताजिर को दो-नीम कर दिया। दरोग़ा ने ये माजरा देखा तो ये जा वो जा वहाँ से भाग गया। मैं बेद की तरह काँपने लगा, पूरा बदन काठ हो गया कि कोई मेरा बदन काटे एक बूँद लहू की ना पावें। शोला-बार आँखें, बे-तरतीब साँसें लिए लरज़ते होंटों के साथ बढ़कर ख़्वाजा-सरा ने मेरी तरफ़ नज़र की और डोलता हुआ मेरी तरफ़ झुका।

    मेरे शाने पर एक ज़र्ब ऐसी पड़ी कि उस संदूक़ में गिर गया और कुछ होश ना रहा।

    जब होश आया तो कुछ ऐसा लगा जैसे मैं बुलंदी से नीचे उतर रहा हूँ। कुछ कान लगा कर ध्यान दिया तो किसी घोड़े के चलने की सदा सुनाई दी और साथ ही ऊपर से किसी की आवाज़ ऐसे सुनी,

    ’’अच्छा हुआ इस से शहर की जान छूटी, अजी ख़ल्क़ का कोई क्या करे जब ख़ुलक ही ना हो।“

    ગુજરાતી ભાષા-સાહિત્યનો મંચ : રેખ્તા ગુજરાતી

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