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शब-नुमा

MORE BYदेवेन्द्र सत्यार्थी

    बत्तियाँ जल चुकी हैं। चकले में रात ज़रा पहले ही उतर आती है। शबनुमा एक चालीस बयालीस बरस की औरत अपने गाल रंग कर, होंट रंग कर कुर्सी पर बैठी है। धीरे-धीरे उसके होंट हिलते हैं, कुछ कुछ गुनगुना रही होगी। ब्याह में क्या धरा था? यहाँ तो रोज़ ब्याह होता है नए आदमी से, घड़ी-घड़ी। वो एक अच्छी औरत है, नए लट्ठे की शलवार पहन कर तो वो ज़रूर अच्छी नज़र आती है। अच्छी ही नहीं, जवान भी और नहीं तो। जवानी अभी गई थोड़ी ही है। चालीस बयालीस बरस की उम्र भी कुछ उम्र होती है...?

    उसकी आँखों में एक मुस्कुराहट लहरा जाती है। गली से गुज़रने वालों पर उसकी तन्क़ीदी निगाहें बराबर उठती रहती हैं।

    अच्छा-ख़ासा कमरा है। बेचारी दीवारें बहुत बोसीदा होरही हैं। सामने की दिवार की नंगी, काली कलूटी ईंटें एक सदी पहले की याद दिला रही हैं। जाने किस भट्टे पर तैयार हुई होंगी, जाने किस निर्ख़ पर ख़रीदी गई होंगी। शबनुमा शायद ऐसी किसी बात का जवाब दे सके। ताक़ में दीया रौशन है। दीए की लौ थरथरा रही है। दीए की क़ीमत बहुत ज़्यादा तो होगी और शबनुमा की क़ीमत... ये तो ज़ाहिर है... इधर बहुत कम होगई है। मगर दीए से तो कहीं ज़्यादा होगी अब भी।

    हर चीज़ की अपनी क़ीमत होती है। इस मकान ही को लीजिए। ये चकले में होता तो इसका कराया बहुत ही कम होता।

    ये काँगड़ी, जिसमें कोयले दहक रहे हैं, किसी कश्मीरन सहेली से मिली हुई चीज़ है। ज़ानुओं पर रखी हुई काँगड़ी के क़रीब मुँह ले जाकर जब वो फूँक मारती है तो उसके गाल गर्म होजाते हैं, होंट और भी गर्म होजाते हैं। उसकी आँखों में फिर एक मुस्कुराहट लहरा जाती है। उसके होंट हिलते हैं धीरे-धीरे, जैसे वो गुनगुना रही हो। जाड़े में काँगड़ी की क़िस्मत चमक उठती है। काँगड़ी ही की क्यों, औरत की भी। अच्छा रिवाज है कश्मीर का... वो कश्मीरन होने का धोका तो नहीं दे रही।

    धोका दे भी तो नहीं सकती। गाल रंग सकती है, होंट रंग सकती है मगर कश्मीरी आँखें किससे लेगी माँगे की?

    सामने वाली हमसाई तो बग़ैर काँगड़ी के बैठी है। बे पनाह जाड़े से ठिठुरती ओढ़नी को अपने जिस्म के गिर्द कसती, वो जाने क्या सोच रही है, शबनुमा उसकी तरफ़ देखती है तो उसे वो दिन याद आजाते हैं जब वो भी चकले में नई-नई दाख़िल हुई थी। जवानी ख़ुद गर्म होती है, ख़ुद एक काँगड़ी। यूँ जवानी चली तो नहीं गई अभी। ज़रूरत पड़ने पर वो भी काँगड़ी के बग़ैर रह सकती है।

    अब के जाड़ा पिछड़ के आया है। आते ही पूस की याद दिला दी। जाड़ा तो चकले का पुराना दोस्त है। दूसरे मौसमों में भी यहाँ रात को मेला लगता है। मगर इस मेले पर पूरा जोबन जाड़े ही में आता है।

    जाड़ा तो अभी पड़ेगा और।

    हाँ, हाँ, जाड़ा तो अभी पड़ेगा और।

    चाँद भी सहमा जाता है... ज़र्द, ख़ामोश चाँद!

    और कितना चमकेगा जाड़े का चाँद?

    सच है और कितना चमकेगा जाड़े का चाँद? ज़्यादा रौशनी यहाँ चाहिए भी तो नहीं। यहाँ बीवियों के ख़ावंद चले आते हैं। होनेवाली बीवियों के होने वाले ख़ावंद भी, उसी तरह कितने ही फ़रिश्ते और शैतान भी, जिन्हें बीवियाँ नसीब होने की कोई उम्मीद नहीं रही और तो और मुफ़लिस और बीमार आदमी भी, जेबों में अपनी कमज़ोर कमाई डाले, इधर निकलते हैं। पेट की भूक भी होगी, मगर इस जिंसी भूक से उसका मुक़ाबला ही क्या...? और ये रात की दुल्हनें हैं कि अपनी रज़ामंदी का मोल लगाती हैं। दाम खरे करें तो खाएं कहाँ से? अजीब मज़दूरी है ये भी।

    शबनुमा अपने कमरे की बोसीदा छत की तरफ़ देखती है और सोचती है कि उसका जिस्म भी बोसीदा होचला है। बार-बार उसका हाथ पेशानी पर आटिकता है, जहाँ झुर्रियों का जाल बुना जारहा है धीरे-धीरे। किस मकड़ी की कारस्तानी है यह? वो बहुत टटोलती है, मकड़ी कहीं हाथ नहीं लगती। फिर उसका हाथ गालों पर आटिकता है, जहाँ हड्डियाँ उभर रही हैं... ऊँट का कोहान सा बनता जारहा है दोनों तरफ़! नहीं-नहीं, अभी तो वो काफ़ी जवान है। चालीस बयालीस बरस की उम्र भी कुछ उम्र होती है। उसकी आँखें तो सदा जवान रहेंगी। इतने बरसों से वो इनमें ममीरे का सुरमा डालती आई है। अलबत्ता भूकी ज़रूर है वो! भूक को झुठलाना तो आसान नहीं।

    उसकी हमसाई ने चाय मंगवाई है अभी-अभी। गर्म चाय जिस्म को गर्म रखती है जाड़े में। ठीक तो है।

    थोड़ी तुम भी पी लो, शबनुमा!

    मैं लूँगी अभी ख़ुर्शीद, बस पियो शौक़ से।

    अच्छा तो एक समोसा ही क़बूल करलो।

    ज़रूरत होती तो ख़ुद मांग लेती। बस खाओ शौक़ से।

    शबनुमा अपनी उदासी को छुपाने की कोशिश करती है। इंसाफ़, आज़ादी और इंसानियत बहुत बड़ी बातें हैं। इमदाद बाहमी का दर्जा भी कुछ कम नहीं... मगर कमाई होनी चाहिए अपनी। अपना पेट, अपनी चाय... रोटी, सब कुछ... ख़ुद्दारी तो तभी क़ाइम रहती है। कब बुझती है ज़िंदगी की बत्ती, ख़ुद्दारी की बत्ती...? जब सपनों की तकमील में ज़रा यक़ीन रहे... सपनों को भी छोड़िए... भूक का इलाज तो होता रहे। दो और दो...? मालूम नहीं किसने किसी भूके से पूछा। चार रोटियाँ, उसने जवाब दिया। भूका आदमी और किसी पहलू से सोच ही नहीं सकता।

    उसे अपने रंगे हुए गालों पर ग़ुस्सा आने लगता है। रंगे हुए होंटों को चूस कर वो उनका रंग थूक देना चाहती है। किसी को इन गालों की ज़रूरत नहीं। इन होंटों की। बेकार ही पाउडर मलती रही, सुर्ख़ी मलती रही। आज ही नहीं, कल भी और परसों भी। तीन दिन से कोई शरीफ़ आदमी अंदर नहीं आया, शरीफ़, बदमाश।

    क्या से क्या हाल होगया दुनिया का। देखने वाले सौ आते हैं, दस छोड़, बीस छोड़, पचास फेरे लगाते हैं। कोई दाम पूछ कर ही झट से परे हट जाते हैं। समझ में नहीं आता कि...?

    समझ में क्या आए ख़ाक? बुरा हाल है। परसों तीन आए... तीन सवारियाँ...! कल सिर्फ़ एक और आज एक की भी आस ख़त्म होरही है। हालांकि सब देखते हैं नया माल है, गदराई हुई जवानी।

    भूक हमेशा ज़िंदगी की हतक करती आई है। कई सदियों से, अनगिनत नस्लों से ऐसा ही होता आया है। कितनी सिकुड़ जाती है दुनिया जब भूके पेट के अंदर रोटी का एक भी टुकड़ा नहीं जा पाता।

    शबनुमा, दीए की थरथराती लौ की तरफ़ निगाह उठाती है। तेल है तो दीया है। रोटी के बग़ैर कैसा हुस्न, कहाँ की जवानी, मगर नहीं, अभी तो वो काफ़ी जवान है। चालीस बयालीस बरस की उम्र की भी कुछ उम्र होती है?

    उधर से एक क़वी हैकल, लम्बा तड़ंगा आदमी निकलता है लाओ किराया! वो बुलंद आवाज़ से कहता है। आज तो तैयार नहीं।

    तैयार नहीं? नया महीना तो शुरू भी होगया।

    देने से तो इनकार नहीं... आज ही चाहिए तो रूपये ले जा।

    और एक रूपया गिरह से डालूँ?

    सात तो नहीं मेरे पास... और सुन... लोग मुझे दो रूपये देते हैं। आठ दस रात भर के लिए...

    तो आज रात यहीं रह ले... किराया वराया क्या माँगता है...?

    अरी वाह री बूढ़ी घोड़ी। अच्छा ला छः तो निकाल। एक कल मिल जाए ज़रूर। मालिक भी सच्चा है। जिसकी खोली में बैठ के रूप के हाट लगा रखी है वो भाड़ा तो माँगेगा ही वक़्त पर।

    शबनुमा रूपये निकाल कर उसकी हथेली पर रख देती है और वो क़वी हैकल, लम्बा तड़ंगा आदमी मूंछों पर ताव देता हुआ और शबनुमा की सामने वाली हमसाई की तरफ़ घूरता हुआ दूर निकल जाता है। अभी तक उसकी ऊँची आवाज़ शबनुमा के कान में गूँज रही है। मअन ये सोच कर कि क़सूर तो अस्ल में उस दाई का है जिसने उसके हलक़ में उंगली डाल कर उसे अपने ही हिसाब के मुताबिक़ चौड़ा करदिया था, वो उसकी ज़बान दराज़ी को माफ़ करदेती है।

    ऐसे लोगों से ख़ुदा ही बचाए शबनुमा...! और ये जवान तो पूरा लठैत है कोई।

    हाँ लठैत।

    वो तो तुम्हारी तरफ़ इस तरह लपक कर आया था जैसे तुम कोई औरत नहीं हो बल्कि एक कबूतरी हो और उसके छतनारे से उड़कर इधर आबैठी हो। मुझे तो बहुत ग़ुस्सा आता है ऐसे लोगों पर।

    ग़ुस्सा तो आएगा ही।

    कोई नहीं देता दाम रूप जवानी के। तेल हो तो दीया जलता है। रोटी है तो जिस्म है। शबनुमा की आँतें मिनमिना रही हैं। हमसाई से चाय पी ली होती। एक आधा समोसा खा लिया होता। अब वो चाय पिलाए, समोसा खिलाए, मुट्ठी भर मूंगफली ही मँगवा दे। मूंगफली नहीं तो पैसे की मक्की ही ले दे।

    कुर्सी से उठ कर वो चबूतरे पर आगई है। काश कोई सवारी आजाए। कौन ऐसा शरीफ़ आदमी होगा जो कुछ-कुछ आँखें मीच कर उसकी तरफ़ देखे और वो उसकी निगाह में जच जाए। कोई आए तो सही। वो उसके साथ कोई दाम चुकाएगी, घड़ी की घड़ी वो उसकी बीवी की तरह ही लाज भर आँखों से उसे देखेगी... क्या होगया मुझे आज? कोई क्यों नहीं जाता, कोई शरीफ़ आदमी, कोई बदमाश? दोनों में जौन सा भी हो... वो चाहे तो पास की दुकान पर जासकती है।

    कुछ कुछ तो मिल ही सकता है माँगने पर। उधार तो उधार, भूका पेट तो चोरी तक की सलाह दे देता है! नहीं-नहीं उसे किसी सवारी का इंतज़ार है, सवारी ज़रूर आएगी।

    वो फिर अपनी कुर्सी पर जा बैठती है। गली से गुज़रने वालों की तरफ़ देखते हुए उसे यूँ महसूस होता है जैसे सागर तट पर बैठी कोई अप्सरा लहरें गिन रही है। लेकिन कोई अप्सरा शायद कभी यूँ भूकी रही होगी। कोई कोई लहर तो उसके पाँव को छू ही सकती है। लेकिन उसके पाँव तो सूखे हैं। उसके पतले और ख़ुश्क होंट बराबर काँप रहे हैं। दीया टिमटिमा रहा है। इतनी रौशनी कुछ कम तो नहीं। काँगड़ी ठंडी होगई है। इसी तरह एक दिन ये दिल भी ठंडा हो जाएगा। फिर भूक होगी उसे मिटाने की चिंता। दीया भी फिर जले जले... लेकिन नहीं, वो ज़िंदा रहेगी। उसका हुस्न ज़िंदा है अब तक। दीया भी जलता है अब तक। काँगड़ी में फिर दहकेंगे कोयले, पेट भी पालेगा अपना ईंधन। सवारी ज़रूर आएगी। ये इंतज़ार ही क्या कम वजह है जीने की... कोई आए तो सही। ख़ुदा भी मर गया है आज... शैतान भी मर गया। मेरे लिए हर कोई मर गया। मुझे भी मर जाना चाहिए, क़ब्र की मिट्टी तले दब जाना चाहिए। एक भूकी औरत कब तक ज़िंदा रह सकती है...?

    जज़्बात की रौ में उसकी आँखें नमनाक हो गई हैं। होंट यख़ होरहे हैं। होने दो। परवा नहीं। किसी को पसंद ही नहीं आया रंग इनका और गाल... रंगे हुए गाल भी यख़ हो रहे हैं। किसी ने आकर इनपर अपने-अपने गर्म-गर्म होंट नहीं रखे। नहीं, नहीं, ये बात नहीं। पेट का दोज़ख़ी तंवर ठंडा होगया है वही तो सारे जिस्म को गर्म रखता है।

    आईना उठा कर वो अपनी शक्ल देखती है। हुलिया बिगड़ रहा है। एक मरम्मत तलब घड़ी की तरह। उसे यूँ मालूम होता है जैसे दिल की हल्की टिक-टिक भी ख़त्म हो रही है। काश कोई घड़ी साज़ जाए। नहीं-नहीं, मुझे किसी घड़ी साज़ की ज़रूरत नहीं। ख़मीरी रोटी के चंद टुकड़े काफ़ी होंगे बस। साथ में अचार हो तो सही। पर सूखी रोटी कैसे निगलूँगी...?

    हवा एक दम ठंडी हो गई है। ये बस एक ही ख़बर सुनारही है कि कहीं दूर ओले पड़े हैं। वरना हवा इतनी ठंडी कैसे हो सकती थी? उसे यूँ महसूस होरहा है जैसे सात माह का हमल गिर गया हो...

    हमल! हा-हा हा... हंसा भी तो नहीं जाता... भूकी औरत को कैसी-कैसी बातें सूझती हैं... सीने के अंदर हाथ डाल कर वो अपने पिस्तानों को सहलाती है। किस क़दर लचक रहे हैं ये दोनों कबूतर।

    ठंडसे मरे ही तो जाते हैं। नहीं-नहीं। अभी तो वो काफ़ी जवान है। चालीस बयालीस बरस की उम्र भी कुछ उम्र होती है।

    शबनुमा! शबनुमा! ख़ुर्शीद आवाज़ देती है। अरी क्या सोच रही हो आँखें बंद किए?

    कुछ नहीं। भूका आदमी सोच ही क्या सकता है...? ये पेट दोज़ख़...

    सच है पेट से बड़ा दोज़ख़ और कोई नहीं, ऊपर नीचे। इसमें ज़रूर पड़ता रहे कुछ कुछ।

    क्या खाऊँगी?

    कुछ नहीं ख़ुर्शीद! मैंने तो सरसरी बात की थी। मैं भूकी थोड़े ही हूँ।

    ठंड है ज़रा। बस कुछ गर्म-गर्म...

    क्या चीज़?

    समोसे।

    समोसे!

    तुम जानती हो शबनुमा! मुझे समोसे बहुत अच्छे लगते हैं।

    शबनुमा उठ कर ख़ुर्शीद के हाँ चली जाती है। दोनों मिल कर गर्म-गर्म चाय पीती हैं। समोसे खाती हैं। शबनुमा समोसे को यूँ पकड़ती है जैसे ये कोई बाग़ी ममोला है।

    अच्छा है ये ममोला।

    ममोला?

    ममोला नहीं, समोसा। मैं भी एक ही पगली हूँ।

    ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड की आवाज़ आरही है। सितारों के आगे जहाँ और भी हैं। सितारों के आगे या समोसों के आगे? शबनुमा पूछती है।

    हाहाहा। ख़ुर्शीद हँस कर कहती है। इन शायरों की नज़र हमेशा सितारों से शुरू होती है।

    भूक बड़ी ज़हमत है मगर। हमारा हुस्न ज़िंदा है अब तक तो इसीलिए कि हम दुनिया को रोटी के ज़ाविए से देखती हैं, पेट में घुस कर सौदा करती हैं। शरीफ़ आए चाहे बदमाश, हमारे लिए दोनों बराबर हैं। हमें बस अपनी क़ीमत से ग़रज़ है। रोटी तो चाहिए आख़िर।

    और जब रोटी नहीं मिलती तो गोया नेकी भी मर जाती है, बदी भी मर जाती है, ख़ुर्शीद!

    ये तो सच है। फिर दिन,दिन लगता है, रात, रात।

    फेफड़ों में भी तभी तक साँस चलता है, ख़ुर्शीद, जब तक आदमी को रोटी मिलती रहती है।

    सो सीढ़ियों की एक ही सीढ़ी है रोटी, शबनुमा! चार दिन की भूक ही से एक-एक रग डावांडोल होजाती है।

    कोई आसमानी बादशाहत, कोई जन्नत की दुनिया, कोई निजात मुमकिन नहीं जब तक भूक नहीं मिटती।

    शबनुमा फिर अपनी कुर्सी पर आबैठी है। वो सोचती है कि रोटी सबसे बड़ी ऐब पोश है। ये और बात है कि कई ऐब ख़ुद इसी के लिए किए जाते हैं... जाड़ा भी बड़े मज़े का मौसम है। दिन छोटे रह जाते हैं, काफ़ी छोटे। रातें बड़ी होती जाती हैं। अब भी अगर चकले की आमदनी में इज़ाफ़ा तो बेचारे जाड़े का क्या क़सूर है। जाड़ा आया। हमारे लिए क्या कुछ लाया...? नए-नए गाहक लेता आया... काश कि हुस्न के बाज़ार का हर राहरु हुस्न का गाहक बन कर ही इधर क़दम उठाया करे।

    कुछ अजीब-अजीब चेहरे भी नज़र जाते हैं। गाल देखो तो सिरे से सूखे, सिकुड़े, पिचके, जैसे भरता किए हुए बैगन, आँखें अंदर ही अंदर धँसी जा रही हैं। मगर हमें तो पैसा चाहिए।

    शबनुमा काँगड़ी में कोयले दहका रही है। दीए में भी उसने तेल डाल दिया है, बत्ती उकसा दी है। मुँह धोकर उसने फिर से गालों पर पाउडर की तह जमाई है, सुर्ख़ी मली है, होंट भी रंग डाले हैं।

    बालों में फिर से कंघी की है और बाएं तरफ़ की ज़ुल्फ़ पर एक पुरानी शीशी से मेंहदी के इत्र की आख़िरी दो बूँदें निकाल कर लगा ली हैं। वो भी रात की किसी दूसरी दुल्हन से कम नहीं।

    अभी तो वो काफ़ी जवान है। चालीस बयालीस बरस की उम्र भी कुछ उम्र होती है। अभी तो बहुत से लोग आजारहे हैं गली में। पुराने पापी तो बल्कि आते ही ज़रा देर से हैं। दूसरे कामों से पूरी तरह फ़ारिग़ होकर।

    उसे अपने गालों पर किसी के ग़ैरमरई होंटों का लम्स महसूस होरहा है। ख़ुदा की दुनिया में आशिक़ों की क्या कमी है? सारे शहर से अलग ये चकला कितना गर्म है...?

    आदम के बेटे इन रात की दुल्हनों को लताड़कर दूर निकल जाते हैं। इन औरतों के पास रह जाता है कुछ-कुछ दुःख-दर्द या थकान... या फिर चाँदी की गर्मी।

    दीया टिमटिमाता है। शबनुमा का ध्यान जाने किधर चला गया है। वो गोया यक लख़्त उफ़ुक़ के पार देखने लगती है जहाँ उसे बादलों के नीचे कीकर और शीशम में घिरे हुए घर नज़र आते हैं।

    जिस रोज़ वो अपने गाँव से भाग खड़ी हुई थी, ये दरख़्त फल से लद रहा था और जब वो भागने से पहले रोज़ शहतूत खा रही थी उसे बार-बार ये ख़्याल आया था कि घर से भाग जाना आसान नहीं।

    उसकी क़लम उसने अपने हाथ से लगाई थी। तीन साल के अरसे में वो ख़ुद भी कितनी बदल गई थी। बारहवीं साल से तेरहवीं साल में पैर रखने के रोज़ उसका भाई ख़ैर गुल जाने कहाँ से इतने मीठे शहतूत की क़लम लेता आया था। उसे पानी दे-दे कर वो रोज़ उसके नए-नए पत्ते निकलने का नज़ारा किया करती। इसका भाई बहुत चाहता कि कभी-कभी वो भी इस नन्हे पेड़ को पानी पिलाए। मगर शबनुमा की इजाज़त के बग़ैर वो शायद कभी उसपर अपना प्यार ज़ाहिर कर सका। बड़ा अच्छा भाई था, बहन की चीज़ बहन की रहने दी।

    इतने बरसों के बाद भी शबनुमा को अपना शहतूत भूला नहीं। अब तो ये शहतूत बहुत बूढ़ा होगया होगा, गिर तो गया होगा। बड़ी गहरी क़लम लगाई थी उसने। आँखें बंद करते ही उसके सामने ये शहतूत गाँव के किसी हस्सास दाना की तरह नमूदार होजाता है।

    जब वो ये क़लम लगा रही थी उसकी माँ ने दुआ की थी कि दो आलम के ख़ालिक़! इस शहतूत का ख़ास ख़्याल रखियो, इसकी उम्र दराज़ कीजियो। उसका बाप खिलखिलाकर हँस पड़ा, अरी पगली दुआ ही करनी है तो शबनुमा के लिए कर। कह दो आलम के ख़ालिक़! मेरी बेटी को गाँव की सब लड़कियों में मुमताज़ बनादे। अपने बाप के मुँह से ये अल्फ़ाज़ सुन कर शबनुमा को बेहद ख़ुशी हुई थी। ये कोई मज़ाक़ तो था। बल्कि उसका तो ये ख़्याल था कि उसका बाप, ज़बान पर ये अल्फ़ाज़ लाने से पेश्तर ही, ख़ुदा के हुज़ूर में ख़ुद ये दुआ कर चुका था।

    माँ भी शबनुमा को बहुत चाहती थी। कभी-कभी उसे शबनुमा के चेहरे के ख़ुतूत देख कर अपने गुज़श्ता ख़ावंद की याद जाती। वो ज़िंदा रहता तो अपनी बेटी को देख कर, अपने ख़ैर गुल को देख कर मेरी अस्ल क़ीमत पहचान लेता। ख़ैर गुल का चेहरा उसके अपने साँचे में ढला हुआ था मगर शबनुमा के चेहरे पर उसे ज़रा भी अपना अक्स नज़र आता था। कई बार छुप छुप कर वो आईने में अपना चेहरा देखती और फिर उससे शबनुमा के पतले से चेहरे का मुक़ाबला करती।

    ख़ुदा का कारख़ाना बंदूक़ों की दुकान से कितना अलग क़ायदा रखता है, वो सोचती, एक ही फ़ैशन की बंदूक़ें चाहे कितनी बनवा लो, ख़रीद लो, मगर ख़ुदा शायद हर बार साँचा बदलता है। एक से एक सूरत नहीं मिलती और फिर ये तो और भी ग़ज़ब है कि शबनुमा बाप का चेहरा पाकर पैदा हो जबकि उससे अढ़ाई तीन साल पहले ख़ैर गुल मेरा अपना रंग रूप लेकर आया था।

    दस-ग्यारह साल की बेटी माँ को ये राय तो दे सकती थी कि वो उसके मरहूम बाप की याद के पाकीज़ा चेहरे को नोच कर उसे मकरूह बना दे। हक़ तो ये है कि जब पहले रोज़ माँ ने नए बाप से शबनुमा का तआरुफ़ कराया, उसे कभी भूल कर भी ये ख़्याल आया था कि उसकी माँ फिर से जवान होकर, गुज़श्ता याद को किसी ग़ैरमरई संदूक़ में बंद करके, उसके नए बाप ही को अपना सब कुछ सौंप देगी। नए बाप ने शबनुमा को देखते ही सीने से लगा लिया। माँ बहुत ख़ुश हुई।

    मेरी औलाद को चाहता है तो मुझे तो कभी नहीं ठुकराएगा ख़ान, इसी ख़्याल ने उसकी निगाह को रंग दिया। शबनुमा को भी ख़ान के हाथों में हमदर्दी और पिदाराना शफ़क़त की गर्मी महसूस करके बड़ी तसल्ली हुई। ख़ैर गुल बिल्कुल चुप रहा। एक कुरता फट कर चिथड़े-चिथड़े होकर गिरगया, नया कुरता पहन लिया गया। इसमें क्या बुराई है? माँ तो बहुत समझदार है... शबनुमा ने भाई का ख़्याल झट भाँप लिया।

    दिन दिन वो शहतूत बड़ा हो रहा था। उसके नए पत्तों और नई टहनियों को देख कर शबनुमा को ये ध्यान आता कि वो ख़ुद भी ज़मीन से रस खींचना सीख गई है और उसकी रगों में सिर्फ़ लहू ही नहीं दौड़ता, बल्कि शहतूत के रग-ओ-रेशे की तरह उसका बदन भी ज़मीन की सौंधी-सौंधी ख़ुशबू को क़बूल कररहा है, उसके दिल में भी खेतों की धड़कन पैदा हो जाती है।

    ख़ान की निगाह ख़्वाहमख़ाह शबनुमा की तरफ़ उठ जाती। वो शायद उसे उसी ख़ुलूस से देखता जिससे वो अपने हाथ से लगाए हुए शहतूत को देखती। ठीक तो था। शबनुमा शहतूत की कोंपलों को छूकर देख सकती थी और आज़ाद इलाक़े का पठान अपनी नई बीवी की शरीफ़ बेटी को जो दर-अस्ल उसकी अपनी औलाद थी, पंजाबियों की तरह पछोत्री कह कर हक़ारत की निगाह से तो देख सकता था। बल्कि वो उसपर हाथ फेरना ज़रूरी समझता। जैसे वो उसकी अपनी बेटी हो। अपनी ही तो थी। फ़र्क़ तो तब पड़ता है जब दिल में कुफ़्र भर जाए। शबनुमा की माँ... मेरी बीवी... शबनुमा... मेरी बेटी।

    शहतूत का तना मोटा होरहा था। टहनियाँ भी गदराई हुई सी नज़र आती थीं। तने को छूते हुए शबनुमा सोचती कि इस नए घर में आए पहला साल बीत गया, दूसरा बीत गया और तीसरा भी पूरा होने को है। ख़ुदा का कितना बड़ा फ़ज़ल है, कितना मीठा फल पैदा किया है उसने।

    माँ समझाती। शबनुमा बेटी! इतने शहतूत खाया कर।

    ख़ान कहता। हर्ज ही क्या है? ये तो ख़ुदा का फल है।

    ख़ैर गुल चुप रहता।

    शबनुमा, ख़ैर गुल के लिए बहुत से शहतूत जमा कर रखती। वो एक छोड़ता। भाई हो तो ऐसा।

    जो बोले चाहे कम मगर बहन की मामूली से मामूली पेशकश को भी क़बूल कर ले।

    ख़ान कहता। शबनुमा! मुझे भी मिलना चाहिए मेरा हिस्सा!

    माँ कहती। टिक के बैठ बेटी। ख़ान नहीं खाएगा शहतूत।

    शबनुमा ये समझ सकती कि जब भी ख़ान शहतूत की मांग पेश करता है, उसकी माँ झट उसकी ज़बान क्यों बंद कर देती है।

    इस अस्ना में शबनुमा दो नए भाई खो बैठी थी। वो ज़िंदा रहते तो शायद उसका प्यार बंट जाता।

    अब ख़ैर गुल के लिए उसका दिल और भी फ़राख़ हो गया। भाई हो तो ऐसा। ख़ैर गुल कितना प्यारा भाई है। होंगे और लड़कियों के भी भाई, ख़ैर गुल से मुक़ाबला ही क्या किसी का? वो बंदूक़ जो उसे मरहूम बाप ने लाकर दी थी, अब तक उसने सँभाल कर रख छोड़ी है...

    और दो बेटों को खो कर ख़ान ने समझ लिया कि ख़ैर गुल ही अब उसका बेटा है। शबनुमा का भी वो बहुत ख़्याल रखता। पिशावर से वो उसके लिए जापानी सिल्क की क़मीस सलवार के तीन-चार जोड़े सिला लाया था। कानों के लिए रोल्ड गोल्ड के आवेज़े लेता आया था। आज सब्ज़ क़मीस सलवार पहन ले शबनुमा! आज नीले रंग की पहनना। आज सुर्ख़ रंग की। शबनुमा को बहुत घबराहट होती। कपड़े क्या लाए अब्बा जान, तूफ़ान खड़ा कर दिया। आज ये पहनो, आज वो।

    बेहतर होता कि लाए ही होते। मगर वो ख़ान का दिल रखना भी ज़रूरी समझती। आवेज़े तो वो कभी उतारती ही थी। ये उसे ख़ुद भी पसंद थे। माँ लाख रोकती कि रोज़ कपड़े बदलने की ज़रूरत नहीं। मगर शबनुमा हर बात में माँ के हुक्म ही को तरजीह दे सकती। लेकिन ख़ान की इन फ़रमाइशों को वो भी हैरत से देखती।

    शबनुमा कुछ ही दिनों में बहुत लम्बी होगई थी। जैसे रात ही रात में सरसों का डंठल ऊँचा उठ जाए। बाल तो कमर को छू रहे थे। ये कैसे बढ़ते रहते हैं, क़ुदरत की कोई ताक़त चरख़ा कातती रहती है। इस ग़ैरमरई चरख़े का फ़नकार शबनुमा पर बहुत ख़ुश नज़र आता था, गाल भर गए थे।

    होंट भी गुदगुदे होते जा रहे थे। सीना भी भर चुका था। सपाट जगह पर उभार आगया था।

    पहले कभी उसने आईने में सूरत देख कर इतनी ख़ुशी महसूस की थी। ख़ान उसके लिए रोल्ड गोल्ड के आवेज़े ले आया होता तो शायद उसे इसका ख़्याल ही आता। ये आवेज़े यूँ हिलते थे जैसे टहनियों पर शहतूत झूम रहे हों। आईना देखते-देखते वो मुस्कुराती, शर्मा सी जाती।

    मरहूम बाप की याद शबनुमा को अब उतनी आती। बाप होना चाहिए, पुराना हो या नया।

    ख़ान को उसने अपने हक़ीक़ी बाप की जगह दे दी। लेकिन जब ख़ान उसकी पीठ पर हाथ फेरता और मेरी शबनुमा, मेरी अपनी शबनुमा की रट लगाना शुरू करदेता, वो घबरा सी जाती। वो उसे अपने सीने से लगा लेता। वो उसका नया बाप था। मगर उसकी माँ को ख़ान की ये हरकत पसंद थी। कई बार उसने उसे रोका भी। मगर वो कोई पेश जाने देता। शबनुमा किसी और माँ की बेटी तो नहीं। शबनुमा की माँ... मेरी बीवी। शबनुमा मेरी बेटी। वो हार मान लेती। ख़ान एक-बार फिर शबनुमा की पीठ पर हाथ फेरता अजब ख़ुलूस से उसे सहलाता।

    एक दिन शबनुमा की माँ चार सद्दे के क़रीब एक गाँव में गई, जहाँ उसकी बड़ी बहन रहती थी।

    शबनुमा घर में अकेली थी। ख़ान बाहर से आया तो वो चुप सा दिखाई दे रहा था। फिर उसकी आँखों में एक अजब वहशत सी आती गई। शबनुमा सहम गई। वो एक शिक्रे की मानिंद नज़र आता था जो किसी ठूँड पर बैठा किसी भूली भटकी चिड़िया की बेख़बरी का इंतज़ार कर रहा हो। शबनुमा अपना काम करती रही।

    जल्दी से आना, शबनुमा! कोठे के अंदर से ख़ान की आवाज़ आई।

    शबनुमा, ख़ान के क़रीब जा खड़ी हुई तो वो बोला। आज वो सदरी कहाँ गई...? वो सितारों वाली, सौ बटनों वाली सदरी जो तेरे सीने... सीने के सुलीमानों की अज़मत बढ़ाती है... वो सदरी...

    शबनुमा क्या जवाब देती? वह घबरा गई। जैसे किसी ने फ़ाख़्ता के सीने पर घूँसा दे मारा हो।

    उसके बदन का सारा लहू मुँह को आने लगा। ख़ान ने हस्ब-ए-मामूल उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए उसकी तरफ़ मुस्कुराकर देखा, शबनुमा, मेरी शबनुमा! उन आँखों में ये मैली सी मुस्कुराहट देख कर शबनुमा का दिल ज़ोर-ज़ोर से धक-धक करने लगा। आँखों में धुआँ सा पैदा हुआ, पेशानी पर गोया च्यूंटीयाँ रेंगने लगीं। पहले उसका ख़ून कभी इतना गर्म हुआ था।

    ख़ान उसे अपने सीने से लगा चुका था और यूँही उसका हाथ बेबाक होकर आगे बढ़ा। जैसे कोई शरीर बच्चा कहीं कोई ख़ूबसूरत खिलौना देख कर ललचा उठे, वो उचक कर परे जा खड़ी हुई।

    बोली, हाँ तो आप उस सदरी के लिए कह रहे थे। मैं अभी पहन आती हूँ। और ख़ान जो सालन में सुर्ख़ मिर्च को हमेशा पसंद करता था, बोला, हाँ जाओ, पहन आओ।

    शबनुमा उचक कर चली गई और फिर वो पीछे से दिवार फाँद कर पड़ोसियों के ज़नानख़ाने में जा पहुँची।

    शाम के क़रीब माँ वापस गई। ख़ैर गुल उसके साथ था। ख़ाला के हाँ से वो बहुत-सी चीज़ें लाया था। ख़ालू ने उस दिन किसी तक़रीब में चार बकरे हलाल किए थे, एक सालम बकरे का गोश्त ख़ैर गुल को दे दिया गया था। जिसे उसने सर पर उठा रखा था। शबनुमा उनकी ख़बर पाकर सहमी हुई घर गई। ख़ान का नशा अब तक हिरन होचुका था। अजब मुजरिमाना निगाहों से वो शबनुमा की तरफ़ देखता। ख़ान की दस्त दराज़ी अम्माँ को कैसे बताए, शबनुमा को यही उलझन थी। ख़ैर गुल के ग़ुस्से से वो वाक़िफ़ थी, उसे भी बता सकी, उसे तो ज़रा सा इशारा ही काफ़ी था। इंतक़ाम लेकर छोड़ता और क्या ख़बर ख़ान के अलावा वो माँ को भी मार डालता जो ऐसे आदमी की बीवी बन गई थी।

    इस वाक़िए के बाद ख़ान की आँखें खुल जाएंगी। ये सोच कर शबनुमा ने कुछ-कुछ तसल्ली पा ली। लेकिन ख़ान की ज़बान आदत से बाज़ आई। शबनुमा, मेरी अपनी शबनुमा। वो कह उठता। उसके हाथ इसकी पीठ पर टिकते। वो उसे सहलाने लगता।

    शबनुमा का लहू बार-बार गर्म होजाता और मुँह की तरफ़ ज़ोर मारता। वो घबराकर बैठ जाती।

    ज़बान पर जैसे किसी ने टाँका लगा दिया था। आख़िर उसने छोटी ख़ाला के हाँ जो पिशावर में थी, भाग जाने का फ़ैसला कर लिया। उस शहतूत के नीचे खड़े होकर उसने मन ही मन में सात बार ये अल्फ़ाज़ दुहराए... अब और रहूँगी इस घर में... और वहीं खड़े-खड़े उसने अपने कानों से वो रोल्ड गोल्ड के आवेज़े उतार कर शहतूत की जड़ के क़रीब दफ़न कर दिए। माँ तो आही सकेगी पिशावर और ख़ैर गुल भी... अब और रहूँगी इस घर में...

    उसकी ख़ाला मकान तब्दील कर चुकी थी। नए मकान का पता चल सका। वो उसी जगह, जहाँ पहले उसकी ख़ाला रहा करती थी, ठहर गई। ये कोई मेहरबान औरत थी। शबनुमा की कहानी सुन कर उसका दिल पसीज गया। काम धनदा करदिया करे तो रोटी मिलती रहा करेगी उसे। ऐसे ही सही। शबनुमा काम में लग गई। मगर जिस आग से भाग कर वो इतनी दूर पिशावर में आई थी, वो तो कहीं भी, किसी भी दिल में सुलग सकती थी। यही हुआ भी। मकान वालों का बड़ा लड़का उसे दिक़ करने लगा...

    इसके बाद वो जहाँ भी गई उसे यही मुसीबत पेश आई। दो आलम के वाली! अब मैं किधर जाऊँ...?

    बार-बार ये सवाल उसके होंटों पर आया। ख़ुदा हर बार चुप रहा। आसमान पर बादलों के टुकड़ों पर, भटक-भटक कर उसकी निगाहें फिर ज़मीन को टटोलने लगतीं। ज़मीन का कुछ एतबार था। जगह-जगह भयानक, ज़हरी नाग फुँकार उठते थे। किस-किस बाबुनी से बच सकती है एक कच्ची, कुंवारी लड़की और ज़मीन और आसमान के अब्दी बादशाह...!

    आख़िर एक औरत ने उसकी ढारस बँधाई। उसने माँ से भी ज़्यादा प्यार ज़ाहिर किया। शबनुमा उसी के साथ रहने लगी। चंद रोज़ बाद उसने उसे उस शहर की एक बुढ़िया के हाथ बेच दिया और बाद में पता चला कि उसने पाँच सौ रूपये खरे कर लिये थे।

    उसके बाद उसने कई बार घर भाग जाना चाहा। लेकिन दबाव कुछ बेतरह पड़ा था। यहाँ तक कि वो बुढ़िया भी एक दिन मोटर तले दब कर मर गई। लेकिन एक दफ़ा ठिकाने से भागी हुई औरत आज तक सही माअनों में वापस नहीं लौट सकी...

    शबनुमा के दिल में अब तक ख़ैर गुल का ख़्याल बाक़ी है। भाई हो तो ऐसा। शहतूत को देख कर तो उसे भी मेरा ख़्याल आजाता होगा। शहतूत तो अब भी पकते होंगे। अब भी झूलते होंगे शहतूत टहनियों पर, जैसे मेरे कानों में रोल्ड गोल्ड के आवेज़े हिलते रहते थे। वो आवेज़े जो बदस्तूर शहतूत की जड़ के क़रीब दफ़न होंगे और जिन्हें अब तक ज़मीन ने क़बूल किया होगा, उन्हें अपनी सूरत दी होगी...! लेकिन वो घर से क्यों भाग निकली थी? ख़ान उसे खा थोड़ी ही जाता? ख़ैर गुल जो था... माँ जाया, एक ही बाप का बेटा। भाई-बहन और बल्कि माँ भी कहीं और ठिकाना बना लेते या शायद ये नौबत ही आती। तीनों मिल कर ख़ान को कान से पकड़ कर सीधा कर देते। ख़ैर गुल उसका बाल बेका होने देता और अगर मुनासिब होता तो झट कहीं कोई अच्छा सा दूल्हा तलाश कर देता। बरात आती, बाजे बजते और आज ये हाल होता। आज वो माँ होती और एक अच्छी बीवी भी। किसी पर उसका ज़ोर होता, ज़मीन के किसी टुकड़े पर उसका हक़ होता!

    ख़ुर्शीद पूछती है। चुप क्यों होगई शबनुमा? मैं तो कभी इतनी सुस्त नहीं हुई समोसे खाने के बाद।

    सुस्ती वुस्ती कुछ नहीं। यूँही दिल ही तो है, भटकने लगता है इधर से उधर, उधर से इधर।

    किराया के ख़्याल से शबनुमा का तन-बदन फुँक रहा है। बड़ी मुश्किल से रूपये जोड़े थे।

    अब एक और चाहिए, ज़रूर चाहिए, वरना वो पुरबिया लठैत जाने क्या कर गुज़रे। बज़ाहिर वो ख़ुर्शीद से बोल लेती है कभी-कभी और ख़ैर गुल के मुतअल्लिक़ सोचने लगती है।

    एक अधेड़ उम्र का सरदार, ग्लूबंद से ख़ुद ही फाँसी लगाए, ख़ुर्शीद के दरवाज़े पर आता है। रोज़मर्रा की तरह इशारों में बातें होती हैं, सौदा चुकता है और ख़ुर्शीद उसे साथ लिये अंदर चली जाती है।

    सुंसान रात जिसका आख़िरी गाहक साथ के कमरे में जा चुका है, शबनुमा को निगलती दिखाई देती है। कितनी ख़ुशक़िस्मत है ये ख़ुर्शीद, पाँच नहीं तो अढ़ाई तो ले ही मरेगी। काश वो एक रूपया मुझे दे-दे उधार। कम अज़ कम पूरबिए लठैत से तो जान छूटे और कुछ कुछ रोटी के लिए भी तो चाहिए। असली बरकत तो अपनी कमाई से होती है। मगर एक रूपया तो मैं ज़रूर मांग देखूँगी ये बुख़ार तो नहीं सहा जाता और...! रात अपने बेशुमार तारों की आँखें झपकती हुई घूरती जाती है।

    चाँद का चेहरा जाने क्यों फीका पड़ गया है, उदास होगया है? शबनुमा का कोई भी ख़रीदार पैदा नहीं होता। क्या सिर्फ़ औरतें ही बूढ़ी होती हैं दुनिया में? मर्द बूढ़े नहीं होते? लेकिन बूढ़े मर्दों को भी जवान औरतों ही की तलाश क्यों रहती है? इस पूरबिए के सामने रूपया पैदा कर सकी तो बुरा हाल होगा और यही हालत रही तो किराया सर पर चढ़ता चला जाएगा और मुझे यहाँ से उठा दिया जाएगा। मेरे अल्लाह! तू क्यों नहीं देखता मेरी ग़रीबी, मेरी ये भूक? कैसे दिन आने वाले हैं, मेरे अल्लाह? इस वक़्त चाहे तू कुछ जवाब दे, कुछ ख़बर ले, तू ज़रूर मेरे हाल पर मेहरबान होगा।

    आख़िर तु अल्लाह जो हुआ। मगर तू चुप क्यों है, मेरे अल्लाह? कहीं बहरा तो नहीं होगया, गूँगा तो नहीं होगया, मेरे अल्लाह? ज़रूरत तो सर पर आन पहुँची है कल ही तो पूरा रूपया, पौने सोलह आने भी नहीं पैदा करना होगा... अगर मुझे यहाँ से उठा दिया जाए तो मुझे कहाँ ठिकाना मिल सकता है? भीक माँगती फिरूँगी क्या? वहाँ सड़क पर, जहाँ दरबार के सामने उर्स लगा करता है, चक्कर काटा करूँगी क्या? वहाँ जहाँ एक औरत पड़ी रहती है... बदबूदार भुनभुनाती मक्खियों के दरमियान! शायद वो किसी खोली से ही मेरी तरह मजबूर होकर उठ गई होगी। क्या इस जगह बुढ़ापे का यही अंजाम होता है।

    दीए की लौ थरथरा रही है। शबनुमा उठ कर दीए में थोड़ा तेल और डाल देती है बत्ती को भी उकसा देती है। लौ नए अमीर की तरह भड़कती है। परछाइयाँ थिरकने लगती हैं... बेकार लालच की तरह हवा का झोंका आता है, दीया बुझते-बुझते बच जाता है।

    शबनुमा को पता चलता है कि वही सरदार रात का आख़िरी दूल्हा नहीं था। दूर गली में एक कोने से एक लड़खड़ाता हुआ आदमी नमूदार होता है। शबनुमा का दिल धड़कने लगता है। दाएं तरफ़ बाएं तरफ़ सब दरवाज़े बंद हैं। शम्एं गुल की जाचुकी हैं, उम्मीद के दीए की तरह सिर्फ़ उसका अपना ही दीया टिमटिमा रहा है।

    वो मर्द शराब से लड़खड़ाता हुआ आता है। पगड़ी खुल कर उसके गले में पड़ी है। नशे ने उसे अंधा कर रखा है। बूढ़ी औरत और जवान औरत में वो कोई तमीज़ नहीं करसकता, भाड़ा चुकाने के लिए आगे आता है।

    शबनुमा चौंक पड़ती है, पीछे हट जाती है। परे ताक़ में दीए की लौ भड़कती है, थिरकती है। शबनुमा की आँखों में धुवां सा पैदा होजाता है। उसका बस चले तो कहीं भाग जाए, छुप जाए।

    कमरे का फ़र्श ही फट जाए और हो सके तो वो उसमें समा जाए।

    शबनुमा बड़े ग़ौर से उस शराबी की तरफ़ देखती है। एक दफ़ा भी उसके दिमाग़ में ख़ैर गुल की वजीह शक्ल पैदा होजाती है। ख़ैर गुल और इस नौजवान में बाल भर का भी फ़र्क़ नहीं। उस दिन जब वो ख़ालू के हाँ से सालिम बकरे का गोश्त लेकर आया था उसके चेहरे पर ऐसी ही कुछ मस्ती सी छाई हुई थी। वही छोटी-छोटी मूंछें, घनी पलकें, गहरी आँखें और गोश्त से भरे हुए गाल... वही पेशानी तक आया हुआ बालों का गुफा।

    शबनुमा सोचती है कि माँ ने उसका नाम किस क़दर सोच कर रखा था... शबनुमा...! शबनम सुबह के वक़्त ही ज़मीं पर नमूदार होती है और फिर सुबह के वक़्त ही सूरज की किरनें उसे पी जाती हैं।

    लेकिन शायद माँ के ख़्याल में यही था कि मेरी शबनुमा सुबह की शबनम ही रहेगी। काश वो आकर देखती कि इसकी शबनुमा रात के वक़्त नमूदार होती है और रात ख़त्म होने से पहले-पहले रात की अथाह तारीकियाँ उसे अपने हलक़ में उंडेल लेती हैं।

    फिर एक नज़र वो बंद दरवाज़ों की तरफ़ देखती है और नौजवान को बाहर धकेलते हुए झट से दरवाज़ा बंद करलेती है। वो भुनभुनाती हुई मक्खियों वाली बुढ़िया का तसव्वुर दिल में लिए शिकस्ता हाल अपनी खाट पर गिर पड़ती है।

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