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शहर-ए-अफ़्सोस

इन्तिज़ार हुसैन

शहर-ए-अफ़्सोस

इन्तिज़ार हुसैन

MORE BYइन्तिज़ार हुसैन

    स्टोरीलाइन

    यह एक मनोवैज्ञानिक कहानी है। तीन शख़्स, जो मरकर भी ज़िन्दा हैं और ज़िन्दा होने के बाद भी मरे हुए हैं। ये तीनों एक-दूसरे से अपने साथ गुज़रे हादिसों को बयान करते हैं और बताते हैं कि वे मरने के बाद ज़िन्दा क्यों हैं। और अगर ज़िन्दा हैं तो उनका शुमार मुर्दों में क्यों है? इसके साथ ही सवाल उठता है कि आख़िर ये लोग कौन हैं और कहाँ के रहने वाले हैं? ये शहर-ए-अफ़सोस के बाशिंदे हैं। अपनी ज़मीन से उखाड़े गए हैं और उखड़े हुए लोगों के लिए कहीं पनाह नहीं होती।

    पहला आदमी उस पर यह बोला कि मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं है मैं मर चुका हूँ।

    तीसरा आदमी ये सुनकर चौंका और किसी क़दर ख़ौफ़ और हैरत से उसे देखने लगा मगर दूसरे आदमी ने किसी किस्म के रद्द-ए-अ’मल का इज़हार नहीं किया। हरारत से ख़ाली सपाट आवाज़ में पूछा, “तू कैसे मर गया?”

    पहले आदमी ने अपनी बे-रूह आवाज़ में जवाब दिया, “वो इक साँवली रंगत वाली लड़की थी माथे पर लाल बिंदी, ज़ुल्फ़ें कमर कमर- एक साँवला नौजवान उसके साथ था। मैंने नौजवान से पूछा, ये तेरी कौन है। बोला कि ये मेरी बहन है। मैंने कहा कि तो उसे बरह्ना कर। ये सुना तो लड़की पे दहश्त तारी हुई। बदन मिस्ल बेद के लरज़ने लगा नौजवान ने फ़र्याद की कि ऐसा मत कह कि ये मेरी बहन है। मुझपे भी वहशत सवार थी मैंने नेयाम से तलवार निकाल ली और चलाया तो उसे बरह्ना कर। बरह्ना तलवार को देखकर नौजवान ख़ौफ़ से थर्राया। फिर एक ताम्मुल के साथ उसके लरज़ते हाथ बहन की साड़ी की तरफ़ बढ़े और उस साँवली लड़की ने एक ख़ौफ़ भरी चीख़ मारी और दोनों हाथों से मुँह ढाँप लिया... और उन लरज़ते हाथों ने मेरे सामने...”

    “तेरे सामने...? हैं... अच्छा?” तीसरे आदमी ने हैरत से उसे देखा।

    दूसरे आदमी ने तीसरे आदमी की हैरत को यकसर फ़रामोश किया और अपने उसी अपने जज़्बे से मुअ’र्रा लहजे में पूछा, “फिर तू मर गया?”

    “नहीं मैं ज़िंदा रहा।” उसने बेरंग आवाज़ में कहा।

    “ज़िन्दा रहा...? अच्छा...?” तीसरा आदमी मज़ीद हैरान हुआ।

    “हाँ , मैंने ये कहा, मैंने ये देखा, और मैं ज़िंदा रहा। मैं ये देखने के लिए ज़िंदा रहा कि उस नौजवान ने वही किया जो मैंने किया था। दहश्त में भागती हुई एक बुर्क़ापोश को उसने दबोच रखा था। एक बूढ़े आदमी ने ज़ारी की और चिल्लाया कि जवान हमारी आबरू पर रहम कर। साँवले नौजवान ने लाल पीली नज़रों से उसे देखा और पूछा, ये तेरी कौन है, वो बूढ़ा बोला कि बेटे ये मेरी बहू है। इस पर साँवले नौजवान ने दाँत किचकिचाए और चिल्लाया कि बूढ़े तो उसे बरह्ना कर। ये सुनाए था कि वो लरज़ता काँपता बूढ़ा आदमी एक दम से सुन हो गया और दहश्त में उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं। तब नौजवान गुस्से से दीवाना हुआ और बूढ़े की गर्दन पकड़ के चिल्लाया कि बूढ़े अपनी बहू को बरह्ना कर... उसने ये कहा और में...”

    “और तू मर गया?” तीसरे आदमी ने जल्दी से बेचैन हो कर कहा।

    “नहीं मैं ज़िंदा रहा।”

    “ज़िन्दा रहा...? अच्छा...?”

    “हाँ मैं ज़िंदा रहा। मैंने ये सुना, मैंने ये देखा और मैं ज़िंदा रहा। इस ख़ौफ़ से कि वो साँवला नौजवान मुझे पहचान जाये। मैंने वहां से राह-ए-फ़रार इख़तियार की। मगर मैं आगे पहुंच कर नर्ग़े में गया। मैं तलवार फेंकने लगा था कि एक परेशान हाल शख़्स मज्मा’ चीर कर मेरे रूबरू आया और मेरी आँखों में आँखें डाल कर कहा कि तलवार मत फेंक। ये आईन-ए-जवाँमर्दी के ख़िलाफ़ है। मैं ठिठक गया। मैं उसे तकने लगा और वो मेरी आँखों में आँखें डाल कर देखे जा रहा था। फिर मेरी निगाहें झुक गयीं। मैंने हार कर कहा कि ज़िंदा रहने की अब इसके सिवा कोई सूरत नहीं है। इस कलाम से उसकी आँखों से शो’ले बरसने लगे। उसने हिक़ारत से मेरे मुँह पे थूका और वापस हो गया। ऐ’न उसी वक़्त एक तलवार उसके सर पे चमकी और वो तेवरा कर ज़मीन पे गिरा। मैंने उसे अपने गर्म लहू में लत-पत देखा और अपने चेहरे से उसका गर्म लुआ’ब पोंछा और...”

    “और तू मर गया”, तीसरे आदमी ने अपनी दानिस्त में उसका फ़िक़रा मुकम्मल किया।

    “नहीं, मैं ज़िंदा रहा। मैंने अपनी तलवार नाचार रख दी और मैं ज़िन्दा रहा मगर जाने किस तरफ़ से वह साँवला नौजवान फिर नमूदार हो गया। मुझे देखकर ठिठका। क़रीब आकर मुझे घूरने लगा। फिर गुर्रा कर पूछा कि क्या तू वही नहीं है। मैंने ब-सद ताम्मुल ए’तेराफ़ किया कि हाँ मैं वही हूँ। ये सुनकर वो तेज़ी से रुख़्सत हुआ और मैं खड़ा का खड़ा रह गया। मगर थोड़ी ही देर बाद वो वापस आया। इस रंग से कि एक लड़की को खींचता हुआ मेरे सामने लाया। इस ख़ाक में अटी भरे बालों में छुपी सूरत को मैंने गौर से देखा तो सन्नाटे में गया। उधर उसने मुझे देखा तो इस दर्द से रोई कि मेरा जिगर कट गया। साँवले नौजवान ने ज़हर भरी आवाज़ में मुझसे पूछा, ये तेरी कौन है। मैंने ताम्मुल किया। आख़िर बताया कि ये मेरी बेटी है। साँवले नौजवान ने शक़ी-उल-क़ल्ब बन कर कहा, फिर तो उसे बरह्ना कर। ये सुनकर ख़ौफ़ से उस मा’सूम की घिग्घी बंध गई और उधर मैं ढय् गया किया और...”

    “और मर गया?” तीसरा आदमी बे-ताब हो कर बोला।

    “नहीं...” वो रुका फिर आहिस्ते से बोला, “मैं ज़िंदा रहा।”

    “ज़िंदा रहा...? उसके बाद भी... अच्छा...?” तीसरा आदमी सकते में गया

    “हाँ उसके बाद भी। मैंने कहा, मैं ने सुना, मैंने देखा, मैंने किया, और मैं ज़िंदा रहा। मैं वहां से मुँह छुपा कर भागा छुपता छुपाता, ख़राब ख़स्ता हो कर आख़िर उस कूचे में पहुंचा जहां मेरा घर था। उस कूचे में ख़ौफ़ का डेरा था। अब दोनों वक़्त मिल रहे थे और ये कूचा कि शाम पड़े यहां ख़ूब चहल पहल होती थी भायं-भायं कर रहा था। मेरी गली का कुत्ता बीच गली में मुँह उठाए और सामने नज़रें गाड़े बैठा था। मुझे देख कर गुर्राया। कितनी अ’जीब बात थी। आगे जब मैं गली में दाख़िल होता था वो एक मानूस अदा के साथ दुम हिलाता था। आज मुझे देखकर अ’जब तौर से चौकन्ना हुआ। बाल सारे जिस्म के खड़े हो गए। आहिस्ता-आहिस्ता गुर्राया और इ’नाद भरी नज़रों से मुझे घूरने लगा, ख़ौफ़ की एक लहर मेरे बदन में तैरती चली गई। मैं उससे ज़रा बच कर किसी क़दर चौकन्नेपन के साथ गुज़रा चला गया और अपने दरवाज़े पहुंचा। दरवाज़ा अंदर से बंद था। मैंने आहिस्ता से दस्तक दी। कोई जवाब नहीं आया। लगता था कि घर में कोई है ही नहीं। मैंने ता’ज्जुब किया और किसी क़दर ज़ोर से दस्तक दी। फिर वही ख़ामोशी। एक बिल्ली बराबर के मकान की पस्त मुंडेर पर गुज़रते-गुज़रते ठिठकी, अजनबी दुश्मनी भरी नज़रों से मुझे देखा और

    एक दम से सटक गई। मैंने इस मर्तबा दस्तक देने के साथ आहिस्ता से आवाज़ भी दी “खोलो।” अंदर से सहमी सी निस्वानी आवाज़ आई, “कौन?” ये मेरी मन्कूहा की आवाज़ थी। और मुझे ता’ज्जुब हुआ कि आज उसने मेरी आवाज़ को नहीं पहचाना। मैंने ए’तिमाद के साथ कहा कि मैं हूँ। उसने डरते-डरते दरवाज़ा खोला। मुझे देखकर सहमी आवाज़ में बोली, “तुम?” मैंने ढई हुई आवाज़ में कहा कि “हाँ,मैं।” मैं अंदर आया। घर हू हक़ कर रहा था। अंदर बाहर अंधेरा था। बरामदे में एक मद्धम लौ वाला दीया टिमटिमा रहा था। वहां मुसल्ले बिछा था। इंद्र बाहर अंधेरा था। बरामदे में एक मद्धम लू वाला दया टिमटिमा रहा था। वहां मुसल्ला बिछा था और मेरा बाप ख़ामोशी से तस्बीह फेर रहा था। मेरी मन्कूहा आहिस्ता से बोली, “मैं समझी थी कि शायद मेरी बेटी वापस आगई हो।” मैंने घबरा कर उसे देखा कि क्या उसे ख़बर हो गई है। वो मुझे तके जा रही थी और मुझे तकते-तकते जैसे उसकी पुतलियां ठहर गई हों। मैं उससे आँख बचा कर बरामदे में बाप के पास पहुंचा और मुसल्ले के बराबर ज़मीन पे दो ज़ानू हो बैठा। बाप ने दीया हाथ में उठा कर मुझे ग़ौर से देखा, “तू...?” “हाँ मैं।” उसने मुझे सर से पैर तक हैरत से देखा, “तू ज़िंदा है...?” “हाँ

    मैं ज़िंदा हूँ।” वो उस चिराग़ की मद्धम रोशनी में मुझे टकटकी बाँधे देखता रहा। फिर बे-ए’तिबारी के लहजे में बोला, “नहीं...” “हाँ, मेरे बाप, मैं ज़िंदा हूँ।” उसने ताम्मुल किया, आँखें बंद कीं। फिर बोला, “अगर तू ज़िंदा है तो फिर मैं मर गया।” उस बुज़ुर्ग ने एक लंबा सा ठंडा सांस लिया और मर गया। तब मेरी मन्कूहा मेरे क़रीब आई। ज़हर भरे लहजे में बोली, “ऐ अपने मुए बाप के बेटे और मेरी आबरू लुटी बेटी के बाप तू मर चुका है...। तब मैंने जाना कि मैं मर गया हूँ।”

    दूसरे आदमी ने ये कुछ सुनने के बाद पहले आदमी को घूर कर देखा और देखे गया, उसके एहसास से आ’री चेहरे को, उसकी चमक से महरूम आँखों को। फिर रूखे लहजे में ऐ’लान किया कि “बयान सही है। ये आदमी मर चुका है।”

    तीसरा आदमी कि पहले ही से हैरत-ज़दा था मज़ीद हैरत-ज़दा हुआ। पहले आदमी को हैरत और ख़ौफ़ से देखा किया। फिर अचानक सवाल किया, “तेरे बाप की लाश कहाँ है?”

    “बाप की लाश?” पहले आदमी के लिए ये सवाल शायद ग़ैर मुतवक़्क़े’ था। वो झिजका, फिर बोला, “वो तो वहीं रह गई।”

    “लाया क्यों नहीं?”

    “दो लाशें कैसे लेकर आता। मत पूछ कि अपनी लाश किस ख़राबी से लेकर आया हूँ।”

    दूसरा आदमी जिसने अब तक सब कुछ बे-हिसी से कहा और सुना था ये बात सुनकर चौंका, “अरे हाँ, मैं ये भूल ही गया था। मेरी लाश तो वहीं रह गई है।”

    “तेरी लाश?” तीसरे आदमी की हैरत-ज़दा नज़रें पहले आदमी के चेहरे से हट कर दूसरे आदमी के चेहरे पे मर्कूज़ हो गईं।

    “हाँ मेरी लाश। फिर वो बड़बड़ाने लगा जैसे अपने आपसे कह रहा हो, “लाश लेकर आना चाहिए था। जाने वो उस से क्या सुलूक करें?”

    “तो क्या तू भी मर चुका है?” तीसरे आदमी ने पूछा।

    “हाँ।”

    “अच्छा?” तीसरे आदमी ने ता’ज्जुब से उसे देखा। “मगर तू कैसे मरा?”

    “जो मर गया है वो कैसे बताए कि वो क्यों मरा और कैसे मरा। बस मैं मर गया।” दूसरा आदमी चुप हो गया। फिर ख़ुद ही अपनी बे लहजा आवाज़ में शुरू हो गया, “उस शहर ख़राबी में आख़िर वो साअ’त आगई जो सरों पे मंडला रही थी। मैं छुपता फिरता था और सोचता था कि क्या अब हमारे साथ वो कुछ होगा जो उनके साथ हो चुका है। एक बाज़ार से गुज़रते-गुज़रते ठिठका... क्या देखा कि एक साँवली लड़की है, साड़ी लीर-लीर ऐसी कि सारा पिंडा खुला हुआ, बाल परेशान ख़ाक आलूद, माथे की बिंदी मसली हुई। दुबली पतली मगर पेट फूला हुआ। वहशत से इधर-उधर देखती, दौड़ने लगती, फिर ठहर जाती, मेरे क़रीब से गुज़री तो मैं ठिठक गया। वो भी मुझे देखकर ठिठकी। अरे ये तो वही लड़की है जिसे मैंने... और मैं इतना ही सोच पाया था कि उसने हाथों से चेहरा ढाँपते हुए चीख़ मारी “नहीं, नहीं, नहीं।” और ख़ौफ़ज़दा हो कर भाग पड़ी। मेरे अंदर ख़ून जमने लगा, ये लड़की मुझे पकड़वाएगी। मैं मुँह छुपा कर भागा। बहुत भागता फिरा, कभी इस कूचे में कभी उस गली में। मगर हर गली अंधी गली थी और हर कूचा बंद कूचा था। शहर ख़राबी से निकलने का कोई रस्ता नज़र ना आता था।

    इसी तरह भागते-भागते एक निराले नगर में जा निकला। लाशें दूर दूर तक नज़र आरही थीं। जीता आदमी आस-पास कहीं नज़र आया। मैं हैरान-ओ-परेशान एक कूचे से दूसरे कूचे में, और एक गली से निकल कर दूसरी गली में गया। बाज़ार बंद, रस्ते सुनसान, गलियाँ वीरान। किसी किसी मकान के बालाई दरीचे के पट इतने खुलते कि दो सहमी-सहमी आँखें नज़र आतीं और फिर जल्दी से पट बंद हो जाते। अ’क़्ल हैरान थी कि कैसा नगर है। लोग हैं मगर घरों में मुक़य्यद बैठे हैं। आख़िर एक मैदान आया जहां देखा कि एक खिलक़त डेरा डाले पड़ी है। बच्चे भूक से बिलकते हैं। बड़ों के होंटों पर पपड़ियाँ जमी हैं। माओं की छातियां सूख गई हैं। शादाब चेहरे मुर्झा गए हैं। गोरी औरतें सँवला गई हैं। मैं वहां पहुंचा कि लोगो कुछ बताओ कि ये कैसी बस्ती है और इस पे क्या आफ़त टूटी है कि घर क़ैदख़ाने बने हैं और गली कूचों में ख़ाक उड़ती है। जवाब मिला कि कम नसीब, तू शह्र-ए- अफ़सोस में है और हम सियह-बख़्त यहां दम साधे मौत का इंतिज़ार करते हैं। मैंने ये सुनकर एक-एक के चेहरे पे नज़र की। हर चेहरे पर मौत की परछाईं पड़ रही थी और हर पेशानी पर सियह बख़्ती लिखी थी। मुझे उन्हें देखकर तजस्सुस हुआ। पूछा कि लोगो सच्च बताओ, तुम वही नहीं हो जो इस बस्ती को दार-उल-अमान जान कर दूर से चल कर आए और यहां पसर गए। उन्होंने कहा कि शख़्स तू ने ख़ूब पहचाना। हम उन्हीं ख़ाना बर्बादों के क़बीले से हैं। मैंने पूछा कि ख़ाना बरबादो, तुमने दार-उल-अमान को कैसा पाया। बोले कि ख़ुदा की क़सम, हमने अपनों के ज़ुल्म में सुबह की। ये सुनकर मैं हंसा। वो मेरे हँसने पे हैरान हुए। मैं और ज़ोर से हंसा। वो और हैरान हुए। मैं हँसता चला गया और वो हैरान होते चले गए। फिर ये ख़बर सारे शहर में फैल गई कि शह्र-ए-अफ़सोस में एक शख़्स वारिद हुआ है जो हँसता है।

    “आज के दिन भी?”

    “हाँ आज के दिन भी।”

    लोग हैरान हुए और ख़ौफ़-ज़दा हुए। ये मुतहय्यर और ख़ौफ़-ज़दा लोग मेरे इर्द-गिर्द इकट्ठे होने लगे। पहले इन्होंने दूर से एक ख़ौफ़ के साथ मुझे हंसते हुए देखा। फिर वो हिम्मत कर के क़रीब आए, आपस में सरगोशियाँ कीं कि ये शख़्स तो वाक़ई हंस रहा है।

    “ये सनकी कौन है...? कहाँ से आया है?”

    “अल्लाह बेहतर जानता है।”।

    “कहीं उनका जासूस तो नहीं है?”

    “हो सकता है।” एक ने दूसरे को दूसरे ने तीसरे को आँखों आँखों में देखा।

    तब मैंने कहा कि, “ए लोगो, में उनमें से नहीं हूँ।”

    “फिर तू किन में से है?”

    मैं किन में से हूँ, मैं सोच में पड़ गया। इस आन एक बूढ़ा ममज्मे’ में से निकल कर आया और गोया हुआ, “अगर तू उनमें से नहीं तो ज़ारी कर।”

    “किस के हाल पर?” मैंने पूछा।

    “बनी इसराईल के हाल पर।”

    “किस लिए?”

    “इसलिए कि जो हो चुका था वो फिर हुआ और जो हो चुका है वो फिर होगा।”

    ये सुनकर हंसी मेरी जाती रही। मैंने अफ़सोस किया और कहा कि “ऐ बुज़ुर्ग क्या तू ने देखा कि जो लोग अपनी ज़मीन से बिछड़ जाते हैं फिर कोई ज़मीन उन्हें क़बूल नहीं करती।”

    “मैंने ये देखा और ये जाना कि हर ज़मीन ज़ालिम है।”

    “जो ज़मीन जन्म देती है वो भी?”

    “हाँ जो ज़मीन जन्म देती है वो भी और जो ज़मीन दार-उल-अमान बनती है वो भी। मैंने गया नाम के नगर में जन्म लिया और गया के उस भिक्षू ने ये जाना कि दुनिया में दुख ही दुख है और निरवान किसी सूरत नहीं है और हर ज़मीन ज़ालिम है।”

    “और आसमान?”

    “आसमान तले हर चीज़ बातिल है।”

    मैंने ताम्मुल किया और कहा कि, “ये सोचने की बात है।”

    “सोच भी बातिल है।”

    “बुज़ुर्ग सोच ही तो इन्सानियत की असल मताअ’ है।”

    वो दो टूक बोला, “इन्सानियत भी बातिल है।”

    “फिर हक़ क्या है?” मैंने ज़च हो कर पूछा।

    “हक़? वो क्या चीज़ होती है?”

    “हक़।” मैंने पूरे ज़ोर और ए’तिमाद के साथ कहा।

    और उसने सादगी से कहा कि, “जिसे हक़ कहते हैं वो भी बातिल है।”

    मैंने ये सुना और सोचा कि ये बूढ़ा शख़्स मौत के असर में है और ये बस्ती फ़ना के रस्ते में है। तू इन लोगों को इनके हाल पर छोड़ और यहां से निकल चल कि तुझे ज़िंदा रहना है। सो मैंने इस क़बीले की तरफ़ से मुँह फेरा और अपनी जान बचा कर भागा। मगर मैं एक अ’जीब मैदान में जा निकला जहां खिलक़त उमंडी हुई थी और फ़तह का नक़्क़ारा बजता था। मैंने पूछा कि लोगो ये कौन सी घड़ी है और ये क्या मुक़ाम है। एक शख़्स ने क़रीब आकर कान में कहा कि ये ज़वाल की घड़ी है और ये मुक़ाम-ए-इ’बरत है।

    “और ये कौन शख़्स है जिसके मुँह पर थूका गया है।”

    उस शख़्स ने मुझे ज़हर भरी नज़रों से देखा और कहा, “तू इसे नहीं पहचानता?”

    “नहीं।”

    “ऐ बदशक्ल आदमी, ये तू है।”

    “मैं?” मैं सन्नाटे में आगया।

    “हाँ तू।”

    मैंने उसे ग़ौर से देखा और मेरी पुतलियां फैलती चली गईं। वो तो सच-मुच मैं था... मैंने अपने आपको पहचाना और मैं मर गया।

    तीसरा आदमी कहने लगा, “अपने आपको पहचानने के बाद ज़िंदा रहना कितना मुश्किल होता है।”

    पहले आदमी ने उसे ग़ौर से देखा और पूछा कि अच्छा, “तो वो तू था जिसके मुँह पर थूका गया था।”

    “हाँ, वो मैं था।”

    “मैं समझ रहा था कि वो मैं था।” पहला आदमी बोला।

    “तो?”

    “हाँ मेरा गुमान यही था। बहर-हाल अब पता चल गया कि वो महज़ मेरा गुमान था। जिसके मुँह पर थूका गया था वो मैं नहीं तू था। ये कह कर पहला आदमी मुतमइन हो गया मगर फिर रफ़्ता-रफ़्ता उसे बेकली होने लगी। एक अज़ीयत के साथ वो लम्हा उसे याद आया जब उसके मुँह पर थूका गया था। और अब जब वो बोला तो उसकी आवाज़ इतनी सपाट नहीं रही थी जितनी पहले थी। उसने दूसरे आदमी को मुख़ातिब किया। मैंने ग़लत कहा और तूने ग़लत समझा। वो मैं ही था जिसके मुँह पर थूका गया था।

    दूसरे आदमी ने अपनी उसी लहजे से आ’री आवाज़ में कहा, “मैंने उस शक्ल को जिस पर थूका गया था बहुत ग़ौर से देखा था वो बिल्कुल मेरी शक्ल थी।”

    पहले आदमी ने दूसरे आदमी को सर से पैर तक ग़ौर से देखा। यकायक एक लहर उसके दिमाग़ में उठी और उसने रुकते-रुकते कहा, “कहीं तू मैं तो नहीं है?”

    “मैं तू...? नहीं, हरगिज़ नहीं। मैंने अपने आपको पहचान लिया है मैं इस क़िस्म के किसी मुग़ालते का शिकार नहीं हो सकता।”

    “तूने अपने आपको क्या पहचाना?” पहले आदमी ने सवाल किया।

    दूसरे आदमी ने जवाब दिया, “मैं वो हूँ जिसके मुँह पर थूका गया है।”

    “ये पहचान तो मेरी भी है।” पहला आदमी बोला, “और इससे मुझे ये शक पड़ा कि शायद तू मैं हो।”

    “मगर क्या ज़रूर है।” दूसरे आदमी ने कहा कि “हर वो चेहरा जिस पर थूका गया है मेरा ही चेहरा हो।”

    “ठीक है मगर ये तो हो सकता है कि तेरा चेहरा तेरा हो मेरा हो।”

    इस पर दूसरा आदमी वाक़ई वस्वसे में पड़ गया। उसने शक भरी नज़रों से पहले आदमी को देखा। दोनों ने देर तक एक दूसरे को शक भरी नज़रों से देखा और तरह तरह के वस्वसे किए। आख़िर को दूसरा आदमी हार कर बोला कि “हम मर चुके हैं। हम एक दूसरे को क्यूँ-कर पहचान सकते हैं।”

    पहला आदमी बोला, “क्या जब हम मरे नहीं थे तब एक दूसरे को पहचानते थे?”

    इस पर दूसरा आदमी ला-जवाब हो गया। मगर उसी वक़्त तीसरे आदमी को एक ला-जवाब तजवीज़ सूझी। उसने पूछा कि तुम में से अपनी लाश कौन लेकर आया है। पहला आदमी बोला कि मैं लेकर आया हूँ। उसने कहा, “फिर हवा में क्यों तीर चलाते हो। लाश को देख लो। अभी दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।”

    ये तजवीज़ दोनों फ़रीक़ों ने क़बूल कर ली और फिर तीनों लाश के पास गए। तीसरा आदमी लाश को देखकर ख़ौफ़-ज़दा हुआ। फिर बोला, “इस का तो चेहरा ही मस्ख़ हो चुका है अब क्या शनाख़्त हो सकती है।”

    दूसरा आदमी बोला, “चेहरा मस्ख़ हो गया है तो फिर तो ये तय है कि ये मेरी लाश है इसलिए कि जब मेरे मुँह पर थूका गया था तो मेरा चेहरा मस्ख़ हो गया था।”

    “चेहरा तो मेरा भी मस्ख़ हो गया था।” पहला आदमी बोला।

    “तेरा चेहरा कब मस्ख़ हुआ था?”

    “मेरा चेहरा तो उसी घड़ी मस्ख़ हो गया था जिस घड़ी मैंने लंबे बालों, लाल बिंदिया वाली साँवली लड़की को उसके भाई के हाथों बरह्ना कराया था।”

    दोनों उसकी सूरत तकने लगे। फिर बैक ज़बान कहा, “और तू इस मस्ख़ चेहरे के साथ इतने दिनों लोगों के दरमियान चलता फिरता रहा।”

    “हाँ में अपने मस्ख़ चेहरे के साथ लोगों के दरमियान चलता फिरता रहा हत्ता कि मेरे बाप ने मुझे देखा और आँख बंद कर ली और फिर मैं मर गया।”

    पहले आदमी ने अपने बाप का ज़िक्र किया तो दूसरे आदमी को भी अपना बाप याद आगया, “मेरा बाप भी कुछ इसी सादगी से मरा था। मैंने उसके पास जा कर उसकी शफ़क़त-ए-पिदरी को उकसाने की कोशिश की और रिक़्क़त के साथ कहा कि मेरे बाप तेरा बेटा आज मर गया। बाप मेरी मस्ख़ सूरत को तकने लगा। फिर बोला कि अच्छा हुआ कि तो मेरे पास आने से पहले मर गया। ये सब कुछ करने और देखने के बाद भी तू ज़िंदा आता तो मैं तुझे क़ियामत तक ज़िंदगी का बोझ उठाने की बददुआ’ देता... ये मेरे बाप का आख़िरी फ़िक़रा था। इसके बाद वो हमेशा के लिए चुप हो गया।”

    पहला आदमी अपनी ख़ुश्क आवाज़ में बोला, “हमारे बूढ़े बाप अपने जवान बेटों से ज़्यादा ग़ैरत मंद थे। और हम ने उनके सामने क्या-किया। मैं अपने मस्ख़ चेहरे वाली लाश लेकर यहां आगया और अपने बाप की लाश वहीं छोड़ आया।

    तीसरा आदमी एक तल्ख़ी से हंसा। कहने लगा, “आगे जब हम निकले थे तो अपने अज्दाद की क़ब्रें छोड़ आए थे। अब के निकले हैं तो अपनी लाशें छोड़ आये हैं। ये कहते-कहते उसकी हंसी मा’दूम हो गई और एक अफ़्सुर्दगी ने उसे लिया। उसे अपना पहला निकलना याद आगया। माज़ी के धुँदलके में उसे बहुत सी सूरतों नज़र आईं। रोशन चेहरों की एक नदी थी कि उसके तसव्वुर में उमँड आई थी। चेहरे जो ऐसे ओझल हुए कि फिर देखाई नहीं दिये। और अब ये दूसरा निकलना और अब फिर... उसने किसी क़दर बे-यक़ीनी के साथ दिल ही दिल में कहा कि ये तो मुझे पता नहीं कि मैं निकल आया हूँ या नहीं निकल आया। मगर बहुत से रोशन चेहरे फिर आँखों से ओझल हो गए हैं। कितने रोशन चेहरे तब नज़रों से ओझल हुए। कितने रोशन चेहरे अब नज़रों से ओझल हो गए। और उसे ये तसव्वुर कर के ता’ज्जुब हुआ कि रोशन चेहरों पर जो उदासी उसने इस बार देखी थी वही उदासी फिर इस बार देखी। उसने अफ़्सुर्दा लहजे में पहले आदमी और दूसरे आदमी को मुख़ातिब किया, मैंने ग़लत कहा था दोनों बार एक ही वाक़िया’ गुज़रा। ये कि हम अपने मस्ख़ चेहरों के साथ यहां आगए और रोशन चेहरों को पीछे छोड़ आये।”

    दूसरा आदमी ख़ला में तकता रहा। फिर उठ खड़ा हुआ। चलने लगा था कि दोनों ने पूछा, “कहाँ जा रहा है तू?”

    बोला, “वहां से मुझे कम अज़ कम अपने बाप की लाश ले आनी चाहिए।”

    “अब वहां से कोई लाश नहीं आसकती।”

    “क्यों?”

    “सब रस्ते बंद हैं।”

    “अच्छा...? तो गोया मेरे बाप की लाश वहीं पड़ी रहेगी।”

    पहले आदमी ने कहा, “अपने बाप की लाश ला कर यहां तो क्या करता। मुझे देख कि मैं अपनी लाश ले आया हूँ और उसे अपने कांधे पे लिये-लिये फिर रहा हूँ।”

    “उसे दफ़न क्यों नहीं करता?” तीसरा आदमी बोला।

    “कहाँ दफ़न करूँ। यहां जगह है दफ़न करने के लिए?”

    “तो अब हमें यहां दफ़न होने के लिए भी जगह नहीं मिलेगी।” दूसरा आदमी कहने लगा।

    “नहीं। दफ़न होने के लिए ये जगह ख़ूब है मगर क़ब्रें यहां पहले ही बहुत बन चुकी हैं। अब मज़ीद क़ब्रों के लिए गुंजाइश नहीं निकल सकती।”

    “ये सुनकर तीसरे आदमी ने गिर्या किया। दोनों ने उसे बे-तअ’ल्लुक़ी से देखा और पूछा, “तूने क्या सोच कर गिर्या किया?”

    “मैंने ये सोच कर गिर्या किया कि मुझे तो अभी मरना है। और यहां नई क़ब्रों के लिए जगह नहीं है। फिर मैं कहाँ जाऊँगा?”

    “तू मरा नहीं है?” दोनों ने उसे ग़ौर से देखा।

    “नहीं। मैं अभी ज़िंदा हूँ।”

    दोनों उसे तकने गले, “तू अपने तईं ज़िंदा जानता है?”

    “हाँ मैं ज़िंदा हूँ मगर...”

    “मगर?” दोनों ने उसे सवालिया नज़रों से देखा।

    “मगर मैं लापता हूँ।”

    “लापता?”

    “हाँ लापता। तुम्हें मा’लूम है कि इस क़ियामत में बहुत से लोग लापता हो गए हैं।”

    “और क्या तुझे ये पता है कि...” पहला आदमी बोला, जो लापता हुए हैं उनमें से बहुत से क़त्ल हो चुके हैं।”

    “मुझे ये पता है मगर मैं मक़्तूलों में नहीं हूँ।”

    “बहुत से इस तौर मरे जैसे हम मरे हैं।”

    “मैं तुम्हारी तरह मरने वालों में नहीं हूँ।”

    “तुझे जबकि तू लापता है ये कैसे मा’लूम हुआ?”

    “बात ये है कि शह्र ख़राबी में ज़िंदा का पता नहीं चल रहा मगर मरने वालों की लाशें रोज़ बरामद हो रही हैं। पस अगर मैं मरा होता तो किसी रंग से भी मरा होता मेरी लाश अब तक बरामद हो चुकी होती।”

    “अगर तू मरा नहीं है तो तुझे असीरों में होना चाहिए। और अगर तू असीरों में है तो समझ ले कि चक्कर पूरा हो गया।”

    तीसरा आदमी चकराया, “चक्कर पूरा हो गया इसका क्या मतलब?”

    “मतलब ये है,” दूसरा आदमी बोला, “कि तू फिर हिर-फिर कर इस शहर में पहुंच गया है जिस शहर से कभी निकला था। एक रफ़ीक़ के साथ ये वाक़िया’ गुज़र चुका है। वो असीर हो कर वहीं पहुंच गया जहां पैदा हुआ था। जब वो वहां से भाग निकलने का जतन कर रहा था तो साथी ने कहा, रफ़ीक़ यहां से क्यों भागता है। ये मिट्टी तुझसे क्या कहती है। वो रोया और बोला कि जब मैं रौज़न-ए-ज़िंदाँ से झाँकता हूँ तो सामने सरसों का खेत लहलहाता दिखाई देता है। सरसों अब फूलने लगी है कि बसंत क़रीब है जन्मभूमि और असीरी ने इकट्ठे हो कर क़ियामत ढाई। बसंत भी आगई तो फिर क्या होगा। बसंत, जन्मभूमि और असीरी... नहीं। इन तीन को इकट्ठा नहीं होना चाहिए। इस में बहुत अज़ीयत है, और वो ज़िंदाँ से एक रात सच-मुच निकल भागा और लापता हो गया।”

    “लापता हो गया।” तीसरा आदमी चौंका, “कहीं वो मैं तो नहीं था... शायद... कि सरसों मेरे शहर में भी ऐसी फूलती थी कि क़ियामत ढाती थी।”

    “नहीं, वो तू नहीं था।”

    “बसंत, जन्मभूमि और असीरी।” तीसरा आदमी बड़बड़ाया और सोच में पड़ गया फिर बोला, “नहीं वो मैं नहीं हो सकता। मैं असीरों में शामिल नहीं था।”

    पहला आदमी कहने लगा, “असीरी के बहाने जन्मभूमि वापस पहुंचना कितनी अ’जीब सी बात है।”

    दूसरा आदमी बोला, “गया वाला आदमी असीरों में शामिल होता तो आज वो गया की धरती पे होता।”

    तीसरे आदमी ने झुरझुरी ली, “हाँ वाक़ई’ कितनी अ’जीब बात है। मेरी दादी ग़दर के क़िस्से सुनाया करती थी। बताया करती थी कि कितने लोग उन दिनों रुपोश हुए थे। अपने-अपने शहरों से ऐसे गये कि फिर कभी वापस नहीं आए। और इक औरत थी जो फ़िरंगी से बहुत लड़ी। फिर घर उजाड़ कर अपने ख़ुशबू शहर से निकली और नेपाल के जंगलों में निकल गई। जंगल जंगल मिस्ल बू-ए-आवारा के फिरी और खो गई।” ये कहते-कहते उसने ठंडा सांस भरा फिर बोला, आफ़त ज़दा शहर में लापता होने से ये बेहतर है कि आदमी घने, मुहीबजंगलों में खो जाये।” वो चुप हुआ और ख़यालों में खो गया। उसे अपना-पहला निकलना फिर याद गया था। देर तक ख़यालों में खोया रहा फिर एक पछतावे के साथ कहने लगा, काश मैंने नेपाल के जंगलों में हिज्रत की होती।”

    पहला, दूसरा, तीसरा, अब तीनों आदमी चुप थे। चुप और बे-हिस-ओ-हरकत। जैसे बोलने और हरकत करने की ख़्वाहिश से मुकम्मल नजात हासिल कर चुके हों, साअ’तें गुज़रती चली गईं और वो उसी तरह ग़म-सुम बैठे थे। आख़िर को रफ़्ता-रफ़्ता तीसरे आदमी ने बेकली महसूस की। उसने पहले आदमी को देखा, दूसरे आदमी को देखा। वो दोनों जामिद बैठे और अपनी बे हरकत पुतलियों के साथ ख़ला में तके जा रहे थे। उसे अंदेशा हुआ कि कहीं वो भी जामिद तो नहीं हो गया है। ये इत्मिनान करने के लिए कि वो जामिद नहीं हुआ है उसने कोशिश कर के जुंबिश की। लंबी सी जमाही ली और दिल दिल में एक इत्मिनान के साथ कहा कि मैं हूँ। फिर उसने पहले और दूसरे को मुख़ातिब कर के कहा, “यहां से अब चलें।” वो अपने होने का ए’लान करना चाहता था।

    दोनों ने किसी क़दर ताम्मुल के बाद अपनी बे-नूर निगाहें ख़ला से हटा कर उस पर मर्कूज़ कीं। रूखी आवाज़ में कहा, “कहाँ चलें। हमें अब कहाँ जाना है। हम तो मर चुके हैं।”

    तीसरे आदमी ने एक ख़ौफ़ के साथ उन दोनों के मस्ख़ चेहरों और बे हरकत बे-नूर आँखों को देखा। मुझे यहां से उठ चलना चाहिए मबादा मैं भी जामिद हो जाऊं। वो सोचता रहा, सोचता रहा। फिर हिम्मत कर के उठ खड़ा हुआ। दोनों ने उसे उठते देखा और किसी तरह के लहजे और जज़्बे से ख़ाली आवाज़ में पूछा, “तू कहाँ जा रहा है।”

    वो बोला, “मुझे चल कर देखना चाहिए कि मैं कहाँ हूँ।” वो रुका, फिर सोच कर बोला, “कहीं वाक़ई’ मैं असीरों में तो नहीं हूँ और वहीं पहुंच गया हूँ।”

    “कहाँ?” पहले आदमी ने पूछा।

    उसने पहले आदमी की बात जैसे सुनी ही नहीं। बस दूसरे आदमी के चेहरे पे नज़रें गाड़ दीं और पूछा, “क्या तुझे यक़ीन है कि वो ज़िंदाँ से निकल भागा था।”

    “हाँ, उसने फूलती सरसों को देखा और अपने शहर के ज़िंदाँ से निकल भागा।”

    “और क्या तुझे यक़ीन है कि वो मैं नहीं था?”

    “नहीं दूसरे आदमी ने कहा और ये कहते-कहते तीसरे आदमी को ग़ौर से देखा। ये पहला मौक़ा था कि दूसरे आदमी ने तीसरे आदमी को इतने ग़ौर से देखा। चौंक कर बोला, “क्या तू शह्र-ए-अफ़सोस में नहीं था?”

    “तूने ठीक पहचाना। मैं शह्र-ए-अफ़सोस ही में था।”

    “मैंने तुझे मुश्किल से पहचाना कि तेरा चेहरा बिगड़ चुका है मगर जब तू शह्र-ए-अफ़सोस में था और मौत का इंतिज़ार करने वालों का हमनशीं था तब तो चेहरा दुरुस्त था। तेरा चेहरा कब और कैसे बिगड़ा।”

    तीसरा आदमी ये सुनकर मह्जूब हुआ। हिचकिचाते हुआ बोला, “बस ये समझो कि जब मैंने उन लोगों से मुँह मोड़ा तब ही से मेरा चेहरा बिगड़ता चला गया।”

    “ता’ज्जुब है कि तू वहां से निकल आया। शह्र-ए-अफ़सोस के तो सारे रस्ते मस्दूद थे। तू पकड़ा नहीं गया?”

    “पकड़ा कैसे जाता। पहचाना जाता तब पकड़ा जाता। मगर मेरा तो चेहरा ही बिगड़ के बदल गया था।”

    “इसका मतलब ये है,” पहला आदमी बोला, “तेरा मस्ख़ चेहरा तेरा नजात दिहंदा है।”

    दूसरा आदमी बोला, “अभी से इतना ख़ुश-फ़हम नहीं होना चाहिए। अभी तो यही पता नहीं है कि ये आदमी है कहाँ। अगर वहीं कहीं छुपा हुआ है तो आज नहीं तो कल और कल नहीं तो परसों पहचाना जाएगा और पकड़ा जाएगा।”

    “यही तो मुझे धड़का लगा हुआ है। इसलिए मैं चाहता हूँ कि जा कर देखूं कि मैं हूँ कहाँ।”

    “तुझे ये पता चल भी गया कि तू कहाँ है तो फ़र्क़ क्या पड़ेगा।” दूसरा आदमी बोला।

    “वहां से निकलने की कोई सबील पैदा करूँगा।”

    “निकलने की सबील?” दूसरे आदमी ने उसे ग़ौर से देखा, “ऐ लापता आदमी, क्या तुझे पता नहीं है कि सब रस्ते बंद हैं।”

    “ये तो ठीक है। मगर आख़िर कब तक लापता रहूं। मुझे अपना अता-पता लेना चाहिए। और क्या ख़बर है कि निकलने की कोई सबील पैदा हो ही जाये।”

    “ऐ सादा-दिल आदमी, तू निकल के कहाँ जाएगा?” दूसरा आदमी बोला।

    “कहाँ जाता। यहीं जाऊँगा। आख़िर पहले भी तो आने वाले यहीं आये थे।”

    पहले आदमी ने उसे घूर कर देखा, “यहां...? यहां अब तू कहाँ आएगा। मैंने तुझे बताया नहीं कि मेरी लाश बेगौर पड़ी है।”

    तीसरा आदमी शश-ओ-पंज में पड़ गया, “ये तो बड़ी मुश्किल है। फिर मैं कहाँ जाऊँगा।”

    दूसरा आदमी दोनों को देखकर यूं गोया हुआ, “ऐ बद शक्लो, क्या मैंने तुम्हें गया के आदमी की बात नहीं बताई थी। हर ज़मीन ज़ालिम है, और आसमान तले हर चीज़ बातिल है, और उखड़े हुओं के लिए कहीं अमां नहीं है।”

    “फिर?” तीसरे आदमी ने मायूसाना पूछा।

    दूसरा आदमी देर तक उसे टकटकी बाँधे देखता रहा जब कि तीसरे को लगा कि वो जामिद होता जा रहा है। फिर बोला, “फिर ये कि लापता आदमी बैठ जा, और मत पूछ कि तू कहाँ है, और जान ले कि तू मर गया है।”

    (मज्मुआ: शह्र-ए-अफ़्सोस अज़ इंतिज़ार हुसैन, स-249)

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