जहाँ मोटी, गोरी, मंझोली शीला में और कमज़ोरियाँ थीं वहाँ उसकी ख़ुश-मिज़ाजी भी शामिल थी। “हाँ” के सिवा दूसरा लफ़्ज़ तो वो जानती ही नहीं थी और “नहीं” का इस्ते’माल उसने शायद कभी किया हो। किसी के हाँ डिनर पर अगर कोई मेहमान आख़िरी वक़्त पर इन्कार कर दे तो जगह भरने को शीला को घसीट बुलाओ। जब कहीं बुड्ढे एक मेज़ पर जम्अ’ हो जाएँ तो शीला उनके ख़ुश करने को बिठाई जाए। जवान जम्अ’ हो जाएँ तो उनकी दिल्लगी का आला शीला बने। आ’शिक़ अपना रोना उसके सामने रोते। जवान लड़कियाँ जब नई-नई मोहब्बत का शिकार होतीं और उन्हें राज़-दार की तलाश होती तो वो भी शीला के पास पहुँचतीं। बीवियाँ बे-ख़तर अपने-अपने शौहरों को शीला के पास छोड़ देतीं। शीला एक ऐसी उ’म्र से गुज़र रही थी कि बुड्ढे मर्द उसको जवान समझ कर तरस खाते और जवान उसको बुढ्ढा समझ कर हँसते। वो इक्तालीस साल की ग़ैर शादी-शुदा औ’रत थी।
जिस महल्ले में वो रहती थी वहाँ वो बहुत हर-दिल-अज़ीज़ थी। उसकी नेक-िनयती और चाल-चलन पर कोई उँगली न उठा सकता था। बाल-बच्चों वाली औ’रतें, कुँवारी शीला पर बुढ़ापा आता देख कर तरस खातीं, लेकिन शीला बहुत ख़ुश थी। वो ख़ुद उल्टा उन औ’रतों पर तरस खाया करती थी। ये औ’रतें क्या जानती थीं। जानवरों की सी ज़िन्दगी बसर करती थीं और शीला के दिल में तो ला-ज़वाल और पाक मोहब्बत की एक कान थी, जिसकी रौशनी में वो मगन रहती थी। पास ही वकील गोपाल चंद्र की माँ रहती थी। पुराने ज़माने की जाहिल औ’रत थी। जो बात दिल में आई मुँह पर धर दी। “हाह! कैसी जवानी बर्बाद की है, पढ़ कर यही तो होता है कि कोई समझ में नहीं आता... अब देखो, कुछ न होतीं तो आठ-दस बच्चों की माँ होतीं।” शीला हँस कर बात टाल देती।
मोहब्बत उसने भी की थी। कभी वो मोहब्बत एक बे-पनाह तूफ़ान की सूरत में उसको दीवाना रखती थी। उस पर भी बहुत लोग फ़िदा हो चुके थे लेकिन शीला के दिल में सिर्फ़ एक ही की चाह थी और वो मर्द बीवी-बच्चों वाला था। एक अरसा हुआ जब दोनों मिले थे शीला अठारह-उन्नीस साल की जवान लड़की थी, हरीशचंद्र पर वो फ़िदा हो गई। जब दोनों ख़ानदानों का मिलना बढ़ता गया तो ये दोनों एक दूसरे की तरफ़ ज़ियादा रुजू’ होने लगे। लेकिन कभी कोई ना-जाइज़ या बद-तहज़ीबी की हरकत हरीशचंद्र ने न की। बह्सें होतीं, किताबों पर तन्क़ीदें होतीं, मोहब्बत और इ’श्क़ भी ज़ेर-ए-बह्स आता और शीला हरीशचंद्र की पाक और बेलौस मोहब्बत के फ़लसफ़े पर यक़ीन करती जाती। रफ़्ता-रफ़्ता दोनों उसी पाक और रुहानी मोहब्बत का मज़ा उठाने लगे जो हरीशचंद्र के ख़याल में मोहब्बत का बेहतरीन रुख़ था। उनके दिल-ओ-दिमाग़ पर रुहानी मोहब्बत का ग़लबा छा गया। ऐसी मोहब्बत का जो दुनिया की गन्दगियों और हिस्सियात से पाक थी और जिन का ख़याल करना भी गुनाह था।
गोपाल चन्द्र एक रोज़ उसके पास आया। शीला के दिल में गोपाल की बहुत इ’ज़्ज़त थी। वो उसको शरीफ़ और दयानत-दार जवान समझती थी। कहने लगा, “शीला जी अगर आप इजाज़त दें तो मैं अपनी दोस्त सावित्री से कह दूँ कि जब वो बाहर जाए तो आप का नाम ले दे? वो हॉस्टल में अभी नई नर्स है और मेट्रन उस पर बहुत सख़्ती करती है। जब बाहर जाती है तो बहुत कुरेद-कुरेद कर पूछती है कि कहाँ जा रही हो। अगर वो आप का नाम ले दिया करे तो मेट्रन कुछ न कहेगी।”
शीला गोपाल से ये बातें सुन कर हैरान रह गई। उसके ख़याल में गोपाल की मोहब्बत एक और लड़की से थी और अब उस पुरानी दर्शन को छोड़ा तो छोड़ा लेकिन बेईमानी की क्या ज़रूरत थी। शीला की पाक मोहब्बत को धक्का लगा। क्या लोग इतनी जल्दी बदल जाते हैं। गोपाल की इ’ज़्ज़त उसके दिल में कम हो गई। आख़िर को बोली, “मुझे ये नहीं पसन्द कि मेरा ग़लत नाम लिया जाए। मैं उस लड़की को जानती भी नहीं।”
“अगर आप इजाज़त दें तो कल शाम को मैं उसको यहाँ ले आऊँ?” शीला ने मजबूर हो कर इजाज़त दे दी।
दूसरे दिन वो चाय पर आए। वकील गो ऐ’नक लगाता था लेकिन फिर भी ख़ुश-रू जवान था और उसकी दोस्त को देख कर तो शीला हैरान रह गई। तेईस चौबीस साल की एक औ’रत थी। सूखी, मदक़ूक़ और बरसों की बीमार मा’लूम होती थी। काले रंग के सामने उसके दाँत और भी चमक रहे थे। वकील और वो काफ़ी घुले मिले लगते थे। उसकी आँखों में आग थी जिसके सामने वकील ताब न ला सकता था। चाय पी कर वो दोनों चले गए लेकिन शीला वहीं बुत बनी बैठी रही। उसने पहली बार महसूस किया कि उसने अपनी कितनी बे-क़दरी की है। न कभी अपनी सूरत की ख़बर ली और न ढंग का कपड़ा पहना। एक ऐसे मर्द के पीछे उ’म्र बर्बाद कर दी जो दर-अस्ल बरसों की मुलाक़ात के बा’द भी ग़ैर था।
वो अब भी आता था। दूर बैठ कर लैला-मजनूँ के क़िस्से रोने। उसको वही मज़ा आता था जो लोगों को चिड़ियों को िपंजरों में बन्द कर के पालने में आता है। जान-बूझ कर उसको एक अ’जीब-ओ-ग़रीब मोहब्बत के क़िले में बन्द कर दिया था। शीला उठी और ये कहती हुई दूसरे कमरे में चली गई, “मेरी जो भी राएँ हैं वो सब इन्हीं साहब की बतलाई हुई हैं और मैं तो महज़ एक ग्रामोफ़ोन रिकार्ड की तरह उनको दोहराया करती हूँ।”
उनका मुँह फ़क़ हो गया। जिस तरह पिंजरे का दरवाज़ा खुला देख कर मालिक का दिल सन्न से हो जाता है, उसी तरह ये भी शीला की तरफ़ देखते के देखते रह गए और थोड़ी देर बा’द बोले, “ये क्या मज़ाक़ है?”
वो बेचारे समझ रहे थे कि उनके लिए ये स्वाँग बनाया गया है।
“कौन सा मज़ाक़?”
शीला ने अपने ऊपर निगाह डाल कर कहा, “ये कपड़े! क्यों क्या बुरी लग रही हूँ?”
“बुरी लग रही हो! मैंने तो तुमको पहचाना ही नहीं। तुम वो शीला ही नहीं जिससे मिलने मैं आया था।” ये कह कर हरीशचंद्र बैठ गए।
शीला भी हँस कर बैठ गई, “तो क्या मुज़ाइक़ा है अब नई शीला से मिल लीजिए।”
अब उन्होंने दोनों हाथों से सर पकड़ लिया और थोड़ी देर बा’द बोले, “क्या तुम्हारी शादी भगवान दास से होने वाली है?”
“आप से किस ने कहा?”
“एक दिन भगवान दास ने ख़ुद ज़िक्र किया था। फिर औरों से भी सुना।”
“भगवान दास ने आप से ज़िक्र किया था और आपने क्या कहा?”
“उसने मेरी बीवी से कहा था कि वो आप को राज़ी करें। लेकिन मैंने उसको वहीं ख़ामोश कर दिया।”
“किस तरह?”
“किस तरह! मैंने कह दिया कि मुझे अच्छी तरह मा’लूम है कि तुम्हारा इरादा शादी करने का नहीं है।”
“ये आप को कैसे मा’लूम हुआ?” शीला ने हँस कर कहा।
“शीला! ये मैं क्या सुन रहा हूँ? बजाए ख़ुशामद के अब उनकी आवाज़ में ज़रा सी ख़फ़गी थी। इतने सालों में वो शीला को अपनी मिल्कियत ही समझने लगे थे।
“सुन क्या रहे हैं... आख़िर जब आपने शादी कर ली है तो मैं क्यों न कर लूँ?”
“तुम अच्छी तरह जानती हो, मेरी शादी तुमसे मिलने से पहले हो गई थी जब मैं बच्चा था। उसका ज़िक्र ही क्या। मेरी और तुम्हारी मोहब्बत बिल्कुल दूसरी चीज़ है। वो आलूदगियों से पाक और दुनियावी ख़्वाहिशों से आज़ाद है। हमारी मोहब्बत रुहानी है। ईश्वर के लिए बताओ क्या सचमुच तुम भगवान दास को वा’दा दे चुकीं? ऐ मालिक मैंने इस मन्दिर की पूजा इतने बरस इसी लिए की थी...”
“जिस मन्दिर की पूजा तुमने इतने बरसों अपनी बीवी के साथ बड़े आराम से रह कर की है वो मैंने यहाँ अकेले तड़प-तड़प कर की है। और मेरी समझ में नहीं आता कि आख़िर क्यों मैं भी इस मन्दिर की पूजा उसी तरह न करूँ जिस तरह कि तुम अब तक करते रहे हो।”
“औ’रत मर्द में बड़ा फ़र्क़ होता है। शीला! औ’रत गन्दी हो जाती है। उसका दिल और जिस्म कभी अलग-अलग नहीं रह सकता। वो बस एक ही की होती है, एक ही के ख़याल में मर जाती है। वर्ना उसमें और तवाइफ़ों में फ़र्क़ क्या
है।”
“और मर्द?”
“मर्द एक बादल होता है जो आँधी की तरह उठता है और मेंह की तरह बरस जाता है। वो चाहे कहीं उठे, कहीं बरसे उसमें फ़र्क़ नहीं आता।”
“और उस बादल का दिल? उसका क्या होता है?”
“शीला आज तुम कैसी बातें करती हो। तुम मा’सूम हो। मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ।”
“इक्तालीस साल की मा’सूम शीला। हा हा हा, बुढ़िया शीला, हा हा हा।” वो ज़ोर से हँस पड़ी। हरीशचंद्र अब शीला की तरफ़ इल्तिजा से देख रहे थे चाहते थे कि वो फिर आँसुओं का तार बाँध दे। उनके पाँव अपने आँसुओं से भिगो दे और कहे कि नहीं मेरे देवता तो तुम्हीं हो।”
शीला खड़ी हो गई और ज़ब्त से कहने लगी, “तुम मर्द ज़रूर हो। शायद सारी दुनिया के मर्द ऐसे ही होते हों, लेकिन तुम तो बहुत ज़ालिम हो। उन्नीस साल की उ’म्र में मेरी तुमसे मुलाक़ात हुई। मैं तुमको देख कर और तुम्हारी तक़रीर के जाल में फँस कर तुम्हारी परस्तिश करने लगी। तुम मुझसे बड़े थे। दो बच्चों के बाप थे। तुमने जान कर मेरी कमज़ोरी से फ़ाइदा उठाया। तुम जहाँ मिलते थे मुझसे जान-जान कर बातें करते, मेरी ता’रीफ़ करते। एक-आध जुम्ला कान में भी कह देते। तुमने अपनी ताक़त मुझ पर महसूस कर ली थी और मुझे अपने पाँव तले रौंदना चाहते थे। आख़िर एक दिन तुम मुझसे कहलवा लिया कि मैं तुम पर मरती हूँ। और फिर तुम किस क़दर अन्जान बन गए। रफ़्ता-रफ़्ता तुमने मुझे ये यक़ीन दिला दिया कि औ’रत बस एक ही से मोहब्बत कर सकती है। एक की हो सकती है। मोहब्बत सिर्फ़ दिल की होती है। पाक मोहब्बत इन्सानी ख़्वाहिशों से बेनियाज़ होती है। मुझमें जो कुछ जोश-ओ-ख़रोश था मैंने उसका गला घोंट दिया। अपनी ये हालत बना ली और ये समझ बैठी कि बस तुम ही मेरी दुनिया हो। तुम कभी-कभार आते हो, देवता की तरह बैठ जाते हो और अपनी पूजा करवा के चले जाते हो। मैं फिर अकेली इस दुनिया में रह जाती हूँ जो सिर्फ़ मेरे ख़यालों में बस्ती है। हाँ! अब असली दुनिया में आना चाहती हूँ। गो ये भी जानती हूँ कि वक़्त बहुत निकल गया है।”
थोड़ी देर ठहर कर, “हरीशचंद्र! आज वो मन्दिर जिसकी बुनियादें हवा में थीं, टूट गया। अब पुजारन ही नहीं रही तो देवता की भी ज़रूरत नहीं है।”
हरीशचंद्र ने अ’जीब लहजे में कहा, “तुम्हें क्या हो गया है शीला... लोग तुम पर हँसेंगे कि बुढ़ापे में सींग कटा कर बछड़ों में दाख़िल हुई हो।”
वो तन कर खड़ी हो गई, “तुम सिर्फ़ ख़ुद-ग़रज़ ही नहीं हो बल्कि ज़ालिम भी हो। अब तुम ही मेरे बुढ़ापे का मज़ाक़ उड़ाने लगे। जाओ ईश्वर के नाम पर यहाँ से जाओ। कहीं मैं तुम्हें मार ही न डालूँ।” वो कुर्सी पर गिर गई और रोने लगी।
हरीशचंद्र अब उम्मीद से हाथ बढ़ा कर उसकी तरफ़ आए। वो फिर खड़ी हो गई और चीख़ी, “जाओ! मैं कहती हूँ चले जाओ!”
और फिर वो कमरे से भाग गई। उस दिन शीला अपने में एक अ’जीब बेचैनी महसूस करती रही। हरीशचंद्र की याद में उसने बरसों और बे-गिनती आँसूँ बहाए थे, लेकिन ये आँसू दूसरे थे। ये एक दूसरी ख़्वाहिश थी जो उसको रुला रही थी। वो बे-इख़्तियार फूट-फूट कर रो रही थी।
हरीशचंद्र के ये लफ़्ज़ कि ‘‘सब हँसेंगे कि, सींग कटा कर बछड़ों में दाख़िल हो गईं।” उसको किसी तरह न भूलते थे। रात को ख़्वाब में भी यही देखती थी कि दुनिया उस पर हँस रही है। उसने अपना तर्ज़-ए-रवय्या आहिस्ता-आहिस्ता बदलना शुरू’ किया। ये ख़याल कि लोग उस पर हँसेंगे हर वक़्त ग़ालिब रहता था और वो हर क़दम सँभल कर उठाती। खद्दर छोड़ कर स्वदेशी पहनने लगी। कुरते छोड़ कर सदरियाँ शुरू’ कीं। चप्पलें छोड़ कर हिन्दुस्तानी कामदार जूती ख़रीदी। लोग शीला की इस तब्दीली के आदी तो हो रहे थे लेकिन औ’रतें उसको इतना बे-ज़रर नहीं ख़याल करती थीं। जवान लड़कियाँ तक उससे ख़ौफ़ खाने लगी थीं।
एक जवान फ़ौजी अफ़्सर उस पर बहुत रीझा हुआ था। शुरू’-शुरू’ में ग़ालिबन शीला की मादराना मोहब्बत ने उसको अपनी तरफ़ माइल किया था लेकिन अब रफ़्ता-रफ़्ता क़ुदरत ने उसको बच्चे से बदल कर मर्द कर दिया था। गो शीला लापरवाही ज़ाहिर करती थी लेकिन दर-अस्ल उसके दिल में इस लड़के से मोहब्बत हो चली थी। उसके साथ किसी क़िस्म का ख़याल करना ही हिमाक़त था। वो इतना छोटा था कि आसानी से उसका अपना लड़का हो सकता था।
इधर भगवान दास उससे शादी पर मुसिर थे। अपने छोटे बच्चों का वास्ता दिला रहे थे। लेकिन शीला का दिल तो उस जवान लड़के में फँस रहा था। उसकी हर अदा शीला को एक ऐसा मौसम-ए-बहार मा’लूम होती थी जिसकी कलियाँ अभी खिलने ही वाली हों और भगवान दास उसके मुक़ाबले में बिल्कुल पतझड़ थे।
वो सोचती थी कि उसे क्या हो गया है। सारी मंतिक़ जो उसने बचपन से सीखी थी और जिसको हरीशचंद्र के ये अल्फ़ाज़ कि सींग कटा कर बछड़ों में दाख़िल हो गईं, बस उसके क़दम रोक देते थे।
वकील और उसकी दोस्त अक्सर एक साथ नज़र आ जाते थे, लेकिन शीला के घर पर वो नहीं आए। एक दिन वो लड़की अकेली आई और एक अटैची केस उसे दे कर बोली, “थोड़े दिन के लिए छुट्टी पर जा रही हूँ। आप की बहुत मेह्रबानी होगी अगर आप इसको अमानत रख लें।”
पन्द्रह रोज़ के बा’द शीला बाज़ार को गई तो सावित्री उसको एक दुकान में मिली। वो ज़र्क़-बर्क़ कपड़े पहने और गहनों से लदी बहुत ही बदनुमा मा’लूम हो रही थी। उसको देख कर बे-साख़्ता शीला के मुँह से निकला, “क्या आप की शादी हो गई?”
उसने शर्मा कर “जी हाँ” कहा। शीला ने सोचा कि वकील ने छुप कर ही शादी की होगी वर्ना उसकी माँ मुझको ज़रूर बुलाती। फिर शीला को अपने इन ख़यालों को सोच कर जो उसने वकील की तरफ़ से कर लिए थे बहुत रंज हुआ और वकील की इ’ज़्ज़त फिर उसके दिल में हो गई।
शीला ने उसे मुबारक-बाद दी। और ख़ुशी ज़ाहिर की। वो कुछ बेचैन सी हो गई। और उसी पुरानी अफ़्सुर्दा सी आवाज़ में बोली, “मेरे शौहर उज्जैन की रियासत में नौकर हैं।”
उसके कहने से शीला समझ गई कि वो नहीं चाहती कि वकील का नाम सब के सामने लिया जाए, लिहाज़ा वो चुप हो गई।
लड़की बहुत उदास नज़र आती थी। एक मिनट शीला को उससे अलग बात करने को मिल गया। और उसने पूछा, “क्या वकील ने आप से शादी नहीं की?”
वो बोली, “नहीं वो तो करना चाहता था।”
शीला को और तअ’ज्जुब हुआ, और उसने फिर पूछा, “तो क्या आप के वालिद ने?”
इतने में लोग आ गए। उसने सर हिलाया और शीला चली आई। सारे रास्ते वो उसे बुरा-भला कहती रही कैसी गाय है कि बाप के कहने से इतने अच्छे लड़के को छोड़ दिया।
शीला के बाप ने भी कोशिश की थी कि वो शादी करे। एक से एक अच्छे पैग़ाम मौजूद थे। लेकिन शीला ने बाप की एक न मानी और बीवी-बच्चों वाले हरीशचंद्र की मोहब्बत में ये दिन गुज़ार दिए और इस बदसूरत लड़की को एक चाहने वाला मिला भी तो इसने ये बे-क़द्री की।
शाम को वो अपना अटैची केस लेने आई और बैठ गई। शीला ने फिर वही बातें शुरू’ करीं, “आपने वालिद का कहना क्यों सुना जब आप दोनों को मोहब्बत थी तो फिर और क्या चाहिए था?”
“पिता जी राज़ी नहीं हुए। उसके पास रुपए कम है और वकीलों की आज कल चलती भी नहीं है।”
“लेकिन रुपए तो ख़ुशी के लिए ज़रूरी नहीं है, और ये दूसरा शख़्स बहुत अमीर है?”
“जी हाँ जायदाद वाला है और पाँच सौ का नौकर है।”
शीला ने उसकी सूरत को देखा। यक़ीन नहीं आया “आप के बाप ने भी आप को रुपए दिया होगा”
“दस हज़ार दिया है।”
दस हज़ार की हक़ीक़त ही क्या है कि एक अमीर जवान ऐसी बद-सूरत औ’रत से शादी कर ले। शीला ने फिर पूछा, “ग़ालिबन आपकी शादी पुराने ढंग पर हुई होगी। आपने उसे देखा न होगा।”
वो उसी मुर्दा आवाज़ में बोली, “नहीं दो दफ़्अ’ मिल चुकी थी।”
शीला के पास अब कोई सवाल न था और हैरानी हद को पहुँच चुकी थी। वो बोली, “मैंने वकील साहब को आपके हाँ बुलाया है। अगर आप बुरा न मानें तो मैं उनसे मिल लूँ?”
शीला ने इजाज़त तो दे दी लेकिन उसे दुनिया-दारों की तरह नसीहत भी करनी शुरू’ कर दी कि अब जो हो गया सो हो गया। हिंदू धरम की भी बहुत सी बातें समझाईं। दुनिया की राह भी दिखाई। वो हँसने लगी। पहली दफ़्अ’ शीला ने उसे हँसते देखा वो बोली “मैंने अपनी मर्ज़ी से शादी की है।” हँसी उसकी और भी बुरी थी।
“नहीं जी आप मुझे क्या समझाएँगी। मैं वकील से बिल्कुल मोहब्बत नहीं करती।”
“मोहब्बत नहीं करती...”
वो फिर हँसी... “मोहब्बत मुझे है और बे-हद है। मैं दीवानी हूँ, लेकिन एक ऐसे मर्द पर जिससे मेरी कभी शादी नहीं हो सकती, एक मुसलमान लड़के पर।”
“मुसलमान लड़के पर।”
“हाँ बहन जी! मेरे पिता जी एक बहुत धार्मिक हिंदू हैं। मैंने ये नौकरी भी इसीलिए की थी कि उसके क़रीब रह सकूँ। हर हफ़्ता इतवार मैं उसके साथ गुज़ारती थी। बा’ज़ दफ़्अ’ रोज़ यहाँ से दो घंटे का सफ़र कर के जाती थी। किसी को ख़बर न थी। मेरे रिश्तेदारों को बिल्कुल मा’लूम नहीं। अब वो आगे पढ़ने के लिए विलायत चला गया है। मैं उसके बग़ैर ज़िन्दा नहीं रह सकती। अब मैं अपने शौहर के साथ दो माह बा’द विलायत जा रही हूँ।” ये सब कुछ उसने ठहर-ठहर कर कहा। क्या शीला ख़्वाब देख रही थी?
“और वकील?”
“वकील को सब मा’लूम हो गया है। वो बहुत ही सीधा और नेक इन्सान है। मैंने उससे कहा था कि मैं उससे इस शर्त पर शादी कर लूँगी कि वो मेरे और मेरे महबूब के तअ’ल्लुक़ात के दर्मियान दख़्ल-अन्दाज़ी न करे।”
“और वो राज़ी हो गया?”
“वो राज़ी न हुआ तो मैंने दूसरी जगह शादी कर ली।”
“और वो राज़ी हो गया?”
“उसे ख़बर भी नहीं।”
शीला को यक़ीन नहीं आया कि एक हिंदू मर्द शादी करता है और उसे मा’लूम नहीं कि बीवी दूसरे के साथ रह चुकी है।
लड़की ने कहा, “दो हफ़्ते मैं उसके पास रही, वो मेरे लिए पागल हो रहा है।” हँस कर, “बेचारा बद-क़िस्मत इन्सान!”
“तो आपने उस मुसलमान से शादी क्यों न कर ली?”
“मेरे वालिद, उसके वालिद। बस क्या कहूँ इतने बुरे आदमी हैं... वो कभी राज़ी न होते। मुझे हज़ार पढ़वाया-लिखवाया है लेकिन मैं तो हिंदू और वो भी एक पोज़ीशन रखने वाले। ज़ह्र खा कर मर जाते। ये किस तरह मुमकिन था... दूसरे बदनामी से मैं ख़ुद दूर भागती हूँ। बदनाम औ’रत से मैं भी सख़्त नफ़रत करती हूँ।”
शीला की सीधी समझ में ये मुअ’म्मा न आ सका। वो एक मुसलमान से शादी कर के माँ-बाप सबको नाराज़ कर सकती थी लेकिन ये न कर सकती थी कि एक तरफ़ तो किसी हिंदू से शादी कर लेती और फिर उसी को धोका देती और बदनामी के डर से हर काम टेढ़ा करती। इतनी जुरअत उसमें न थी और न इतनी चालाकी। शीला के दूसरे सवाल का जवाब सावित्री ने इस तरह दिया।
“नहीं मेरे शौहर को ख़बर न होगी, उन्हें बताएगा कौन?”
“वकील।”
“मैंने पहले ही आपसे कहा कि वो निहायत ही शरीफ़ और सीधा है। वो मेरा अस्ल जाँ-निसार है। हर्गिज़ ऐसा नहीं करेगा।”
“आपका मुसलमान आ’शिक़ ही बता दे तो?”
“नहीं वो कैसे बताएगा?”
“लेकिन वो आप के इस तरह शादी करने पर क्या कहेगा।”
“बहुत सख़्त नाराज़ होगा, लेकिन मैं समझा लूँगी और कोई रास्ता नहीं। अच्छा, मुआ’फ़ कीजिए। आपका बहुत वक़्त लिया।”
“वकील साहब आए भी नहीं। अगर आएँ तो कह दीजिएगा कल इसी वक़्त यहीं पर मिलूँगी।”
थोड़ी देर ठहर कर... “नहीं जी! हर इन्सान अपनी बात आप समझता है। मुझे आप इतना बुरा ख़याल न कीजिए मोहब्बत दीवानी होती है। अगर आप ही किसी पर ऐसी ही पागल होतीं तो ज़रूर उससे मिलने की कोई तरकीब निकाल लेतीं। और सूखी मोहब्बत मेरी समझ में नहीं आती।”
‘‘ख़ुदा-हाफ़िज़’’ कह कर अपना अटैची केस उठाया और रुख़्सत हुई। उसने ये कहना भी ज़रूरी न समझा कि किसी से न कहिएगा। क्या वो इन्सानी फ़ित्रत समझने में ऐसी तेज़ थी कि उसने महसूस कर लिया कि उसका राज़ बिल्कुल महफ़ूज़ है। हाँ शीला को इतना याद रहा कि जब वो बातें करती थी तो उसकी आँखें जोश से इस तरह चमकती थीं कि उसकी बद-सूरती ग़ाइब हो जाती थी। और आँख उसके चेहरे पर से न हटती थी। शीला उसी हालत में बैठी रही। एक औ’रत जिसको वो गाय, बद-सूरत और अहमक़ के लक़ब से याद करती रही थी इस बाईस साल की उ’म्र में शीला से ज़ियादा तज्रबाकार थी।
“कोई दूसरे की बात को नहीं समझता।” ठीक कहती है... मेरी मुसीबत कौन समझता है। शादी करने की हिम्मत इसलिए नहीं कि दुनिया हँसेगी और इ’श्क़ में आगे बढ़ने की हिम्मत यूँ नहीं कि, “सींग कटा कर बछड़ों में दाख़िल हो गईं।”
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.