स्टोरीलाइन
कहानी के मुख्यपात्र की आवाज़ में हकलाहट है इसलिए उसका मुँह बोला बाप न चाहते हुए भी ख़ुद से अलग किसी नई जगह उसे भेज देना चाहता है क्योंकि उसकी नई बीवी आने वाली है जो उसकी हकलाहट बर्दाश्त नहीं कर सकेगी। लोगों से बताता है कि उसके दोस्त जहाज़ ने उसे मांग लिया है। जहाज़ एक ग़ैर-आबाद तटीय क्षेत्र में रहता है जिसे शीशा घाट कहते हैं। उसकी मालकिन बीबी नाम की डरावनी औरत है। यहाँ पहुँच कर उसे बहुत घबराहट होती है लेकिन एक दिन लड़की उसे झील के पानी पर चलती नज़र आती है, उसे देखकर ये ख़ुश हो जाता है, फिर उसी के आने की उम्मीद और देखने के शौक़ में उसका वक़्त ख़ुशगवार गुज़रने लगता है लेकिन एक रोज़ वो पानी पर चलते चलते डूब जाती है और उसके रहस्यमयी मौत का इल्ज़ाम उस प्रथम वाचक पर न आए इसलिए जहाज़ उसे वहाँ से भगा देता है।
(1)
आठ बरस तक बड़ी मोहब्बत के साथ मुझे अपने यहाँ रखने के बाद आख़िर मेरा मुँह-बोला बाप मजबूर हुआ कि मेरे लिए कोई और ठिकाना ढूँढे। ज़ियादती उसकी नहीं थी, मेरी भी नहीं थी। उसे यक़ीन था, और मुझे भी कुछ दिन उसके साथ आराम से रहने के बाद मेरा हकलाना ख़त्म हो जाएगा। लेकिन उसको उम्मीद नहीं थी, न मुझे कि घर के बाहर मेरा तमाशा बना लेंगे, जिस तरह किसी पागल का तमाशा बना लिया जाता है। बाज़ारों में मेरी बात सबसे ज़ियादा दिलचस्पी और तवज्जो से सुनी जाती थी और वो बात हँसी की हो या न हो, लोग उस पर हँसते ज़रूर थे। कुछ दिन में मेरी ये हालत हो गई कि बाज़ार तो बाज़ार, घर के अन्दर भी अगर कभी कुछ कहने की कोशिश करता तो बोल मेरे होंटों से और मेरे दाँतों से और मेरे तालू से टकरा-टकरा कर वापस चले जाते, जैसे पानी की लहरें किनारे को छू कर पलटती हैं।
आख़िर मेरी ज़बान में गिरहें सी पड़ जातीं, गर्दन की रगें फूलने लगतीं, गले और सीने पर इतना ज़ोर पड़ता कि दम घुटने लगता और ऐसा मालूम होता कि साँस उखड़ जाएगी। नाचार बात अधूरी छोड़कर हाँपने लगता और साँस ठहरने के बाद नए सिरे से बात शुरू करता। इस पर मुँह बोला बाप मुझे डाँटता, जहाँ तक कह चुके हो, मैंने सुन लिया। अब आगे बढ़ो।
वो अगर कभी मुझे डाँटता तो इसी बात पर डाँटता था। लेकिन मेरी मजबूरी ये थी कि मैं बीच से बात शुरू नहीं कर सकता था। वो कभी तो सब्र से मेरी बात सुनता और कभी हाथ उठाकर कहता, अच्छा बस करो। लेकिन मेरी मजबूरी ये थी कि मैं बात अधूरी नहीं छोड़ सकता था। बड़ी बेचैनी होने लगती थी। आख़िर वो मुझे हकलाता छोड़कर चला जाता और मैं अकेला बोलता रह जाता। उस वक़्त कोई मुझे देखता तो ज़ाहिर है पागल समझता।
मुझे बाज़ारों में घूमने फिरने और लोगों में उठने बैठने का भी शौक़ था। मैं ख़ुद अपनी बात तो ठीक से नहीं कह पाता था लेकिन ये कमी दूसरों की बातें ग़ौर से सुनकर और दिल ही दिल में उन्हें दोहरा कर पूरी करता था। कभी-कभी मेरी तबीअत उलझने ज़रूर लगती थी लेकिन मैं वहाँ ख़ुश भी था इसलिए कि वहाँ के लोग मुझे पसन्द नहीं करते थे, और सब से बढ़कर इसलिए कि मेरा मुँह बोला बाप मुझे बहुत चाहता और मेरी हर ज़रूरत का ख़याल रखता था।
लेकिन कुछ दिन से वो परेशान परेशान नज़र आ रहा था। एक नई बात ये हुई थी कि वो देर-देर तक मुझसे बातें करने लगा था। ढूँढ-ढूँढ कर ऐसे सवाल करता था जिनके जवाब में मुझे देर तक बोलना पड़े, और बीच में टोके बग़ैर बड़ी तवज्जो से मेरी बात सुनता रहता था। मैं थक कर हाँपने लगता तब भी वो मेरी बात पूरी होने का इन्तिज़ार करता और जब मैं नए सिरे से बोलना शुरू करता तब भी वो उतनी ही तवज्जो से सुनता रहता। मैं सोचता था कि अब वो मुझे डाँटने ही वाला है और मेरी ज़बान में गिरह पड़ने लगती लेकिन वो कुछ बोले बग़ैर मेरी तरफ़ देखे जाता था।
तीन ही दिन में मुझको अपनी ज़बान कुछ-कुछ खुलती मालूम होने लगी। सीने पर ज़ोर पड़ना भी कम हो गया और मैं उस दिन का ख़्वाब देखने लगा जब मैं भी दूसरों की तरह आसानी और सफ़ाई से बोलने लगूँगा। मैं ने दिल ही दिल में वो बातें भी जमा करना शुरू कर दीं जो दूसरों से करना चाहता था लेकिन चौथे दिन बाप ने मुझे पास बुला कर बिठाया। देर तक इधर उधर की बातें करता रहा, फिर चुप हो गया। मैं इन्तिज़ार कर रहा था कि अब वो मुझसे कोई सवाल करेगा, लेकिन अचानक उसने कहा, परसों तुम्हारी नई माँ आ रही है।
उसने मुझे ख़ुश होते देखा, कुछ परेशान हुआ, फिर आहिस्ता से बोला, तुम्हें बोलते देखेगी तो पागल हो के मर जाएगी।
दूसरे दिन सुब्ह मेरा सामान बँधा हुआ था। इससे पहले कि मैं कुछ पूछता, बाप ने मेरा हाथ पकड़ा और कहा, चलो।
सफ़र में वो मुझसे कुछ नहीं बोला। लेकिन रास्ते में मिलने वाले एक आदमी के पूछने पर उसने बताया, उसे जहाज़ ने माँग लिया है।
फिर वो दोनों जहाज़ की बातें करने लगे। मुझे भी जहाज़ याद था। जब मैं शुरू-शुरू में बाप के पास आया था तो जहाज़ मेलों और बाज़ारों में मसख़रेपन की नक़्लें कर के रोज़ी पैदा करता था। वो अपनी पीठ पर छोटा सा गुलाबी रंग का बादबान बाँधे रहता था। शायद इसी लिए उसका नाम जहाज़ पड़ गया था, शायद जहाज़ नाम होने की वज्ह से वो पीठ पर बादबान बाँधने लगा हो। हवा तेज़ चलती तो गुलाबी बादबान फूल जाता और जहाज़ कुछ ऐसा मालूम होता कि उसी बादबान के सहारे आगे बढ़ रहा है। वो तूफ़ान में घिरे हुए जहाज़ की नक़्ल बहुत अच्छी उतारता था। बिल्कुल ऐसा मालूम होता था कि ग़ुस्सैली हवाएँ, बिफरी हुई मौजें और तेज़ घूमते हुए भँवर किसी जहाज़ को डुबोने पर तुल गए हैं।
नक़्क़ाल के मुँह से हवा की ग़ुर्राहट, मौजों के थपेड़ों, भँवर के सन्नाटे, बल्कि बादबानों के फड़फड़ाने और तख़्तों के चुरचुराने तक की आवाज़ें साफ़ निकलतीं और आख़िर वो डूब ही जाता। ये नक़्ल बच्चों और लड़कों को बहुत पसन्द थी लेकिन ये सिर्फ़ उस वक़्त दिखाई जाती थी जब हवा तेज़ चल रही हो। अगर हवा रुक जाती तो ये छोटे तमाशाई और भी ख़ुश होते और शोर लगाते, तम्बाकू, तम्बाकू!
जहाज़ का सा तम्बाकू पीने वाला मैंने कोई नहीं देखा। तम्बाकू की जितनी क़िस्में और तम्बाकू पीने के जितने तरीक़े हो सकते थे शायद वो उसके इस्तेमाल में थे और रुकी हुई हवा में वो मुँह से धुएँ के बादल छोड़-छोड़ कर उनसे ऐसे-ऐसे खेल दिखाता था कि तमाशाइयों को अपनी आँखों पर यक़ीन नहीं आता था। कभी-कभी वो धुएँ के बहुत से मर्ग़ूले निकाल कर कई क़दम पीछे हट जाता, फिर हाथों और कलाइयों को इस तरह घुमाता और मोड़ता था जैसे नर्म गुँधी हुई मिट्टी से कोई मूरत बना रहा हो। और वाक़ई मर्ग़ूले किसी मूरत की सूरत बन कर कुछ देर तक हवा में टिके रहते। कुछ नक़्लें वो ऐसी भी करता था जिन का देखना-सुनना लड़कों को सख़्त मना था। इन मौक़ों पर वो बाज़ारियों के तंग होते हुए दुहरे-तिहरे दायरों में छिप जाता और दूर वालों को सिर्फ़ झोंके खाते हुए बादबान और तमाशाइयों के क़हक़हों से पता चलता कि जहाज़ नक़्लें कर रहा है।
मुँह बोले बाप के पास मेरे आने के पहले ही साल जहाज़ की आवाज़ ख़राब हो गई थी और वो बुरी तरह खाँसने लगा था। नक़्लें दिखाने में वो बहुत तरह से बोला करता था लेकिन अब कुछ बोलना शुरू करता तो खाँसी बार-बार उसका गला बन्द कर देती और बाज़-वक़्त उसे भी अपनी बात पूरी करने में क़रीब-क़रीब उतनी ही देर लगती जितनी मुझे लगती थी। उसने नक़्लें करना बल्कि हमारी तरफ़ आना भी छोड़ दिया और पहले साल के बाद से मैंने उसे नहीं देखा था।
हमारे रास्ते में बड़ी झील के किनारों की कई बस्तियाँ और घाट आए। हर जगह मेरे बाप के जानने वाले मौजूद थे और सबको वो यही बताता था कि जहाज़ ने मुझे माँग लिया है। इसका मतलब मेरी समझ में नहीं आता था मगर मैंने बाप से कुछ पूछा नहीं। मैं दिल ही दिल में इससे नाराज़ भी था इस लिए कि उसके पास न रहने के ख़याल से मैं बिल्कुल ख़ुश नहीं था। लेकिन ख़ुश मेरा बाप भी नज़र नहीं आ रहा था। कम-से-कम ऐसा आदमी तो वो बिल्कुल नहीं मालूम होता था जो दूसरे दिन नई बीवी लाने वाला हो।
आख़िर हम एक मैली-कुचैली बस्ती में पहुँचे। यहाँ के लोग शीशे का काम करते थे। थोड़े से घर थे लेकिन हर घर में शीशा पिघलाने की भट्टियाँ थीं जिनकी भद्दी चिमनियाँ छतों और छप्परों से कुछ ऊपर निकली हुई धुआँ छोड़ रही थीं। दीवारों पर, गलियारों में, बल्कि वहाँ के दरख़्तों पर भी कलौंस की तहें थीं। आदमियों के कपड़े और आवारा कुत्तों, बिल्लियों के बदन भी धुएँ से काले हो रहे थे। मेरे बाप के जानने वाले यहाँ भी मौजूद थे। उनमें से एक ने हमको कुछ खाने-पीने के लिए बिठा लिया। मुझे वहाँ की हर चीज़ से वहशत हो रही थी। मेरे बाप ने कुछ देर ग़ौर से मेरे चेहरे को देखा, फिर उस सफ़र में पहली बार मुझसे बात की।
यहाँ लोग बूढ़े नहीं होते।
मेरी समझ में उसकी बात नहीं आई। मैंने वहाँ चलते फिरते लोगों को देखा। वाक़ई उनमें कोई बूढ़ा नज़र नहीं आ रहा था। मुझे बाप की आवाज़ सुनाई दी, धुआँ उन्हें खा जाता है।
फिर वो यहाँ क्यों रहते हैं?, मैंने पूछना चाहा लेकिन ये सवाल मुझे बे-फ़ाइदा सा महसूस हुआ और मैं बाप की तरफ़ देखने लगा।
जहाज़ भी शीशे का काम जानता है, कुछ देर के बाद उसने कहा, उसका घर यहीं है।
मैं एक झटका खा कर उठ खड़ा हुआ। मेरी ज़बान में एक साथ बहुत सी गिरहें पड़ गईं, लेकिन अब मैं चुप नहीं रह सकता था। क्या इस बस्ती में, जहाँ की हर चीज़ पर सियाह वहशत बरसती मालूम होती है, मुझको जहाज़ के धुआँ उगलते हुए बाज़ारी मसख़रे के साथ रहना पड़ेगा? ये बात पूछे बग़ैर मैं नहीं रह सकता था चाहे इसमें जितनी भी देर लगती। लेकिन बाप ने मुझे बैठने का इशारा करते हुए इत्मीनान दिलाने वाले अन्दाज़ में कहा, लेकिन वो यहाँ का रहना कब का छोड़ चुका है।
मुझे वाक़ई कुछ इत्मीनान हुआ। अगर जहाज़ यहाँ, इस बस्ती में नहीं रहता है, मैंने ख़ुद से कहा, तो मैं उसके साथ कहीं भी रह सकता हूँ। उसी वक़्त मेरे बाप ने कहा, अब वो घाट पर रहता है, उसने एक तरफ़ इशारा किया, शीशा घाट पर।
इस नाम पर एक बार फिर मुझे वहशत होने लगी। यक़ीनन मेरे बाप को नहीं मालूम था कि मैं उसी के घर में कुछ लोगों से शीशा घाट का ज़िक्र सुन चुका हूँ। मुझे मालूम था कि ये बड़ी झील का सबसे मशहूर और सबसे उजाड़ घाट है और बीबी नाम की एक डरावनी औरत उसकी तन्हा मालिक है, वो एक मशहूर डाकू, या शायद बाग़ी की महबूबा थी, फिर उसकी बीवी हो गई। वो बीबी ही से मिलने आया था कि मुख़्बिरी हो गई और इसी घाट पर वो सरकारी आदमियों के हाथ मारा गया, लेकिन इसके बाद कुछ ऐसी उलट-पलट हुई कि पूरा शीशा घाट बीबी के हवाले कर दिया गया जहाँ उसकी बहुत बड़ी नाव झील में पड़ी रहती है और बीबी ने इसी नाव में अपने रहने का ठिकाना बना लिया है। वो कुछ कारोबार भी करती है जिसकी वज्ह से कभी-कभी कोई आदमी घाट पर आने दिया जाता है। बाक़ी किसी को उधर का रुख़ करने की इजाज़त नहीं। किसी की हिम्मत भी नहीं है। बीबी से सब डरते हैं।
जहाज़ शीशा घाट पर किस तरह रहने लगा? क्या मुझे बीबी से मिलना हुआ करेगा? वो मुझसे बातें तो नहीं करेगी? मुझे उसकी बातों का जवाब ज़रूर देना पड़ेगा? वो मेरे बोलने पर ग़ुस्से से पागल तो नहीं हो जाएगी? मैं इन सवालों और उनके ख़याली जवाबों में ऐसा खो गया था कि मुझे शीशे वालों की बस्ती से उठकर चलने का पता भी नहीं चला। मैं उस वक़्त चौंका जब मेरे कान में बाप की आवाज़ आई, पहुँच गए।
(2)
बड़ी झील का शायद यही सबसे उजाड़ हिस्सा था। एक बंजर मैदान के ख़ात्मे पर मटियाले पानी का फैलाव शुरू हुआ था जिसका दूसरा किनारा नज़र नहीं आता था। हमारे बाईं हाथ पर थोड़ा पानी छोड़कर एक बहुत बड़ी नाव झील के कुछ हिस्से को छुपाए हुए थी। इस पर शायद कभी लकड़ी के लट्ठे लादे जाते होंगे। अब इसमें लट्ठों ही से कई छोटी बड़ी कोठरियाँ सी बना ली गई थीं। नाव के सारे तख़्ते ढीले हो गए थे और उन से हल्की चरचराहट की आवाज़ निकल रही थी जैसे कोई बहुत बड़ी चीज़ धीरे-धीरे टूट रही हो। झील के किनारे एक लम्बी सी मुण्डेर ज़मीन पर लेटी हुई थी। आस-पास चार-पाँच चबूतरे थे जिनमें बड़े-बड़े शिगाफ़ पड़ गए थे। उनके क़रीब एक लम्बा गला हुआ बाँस था जिस को मिट्टी ने क़रीब-क़रीब छिपा लिया था।
इतनी कम चीज़ें थीं फिर भी मुझे यक़ीन हो रहा था कि जब ये सब कुछ टूटा-फूटा हुआ नहीं होगा तो इस जगह चहल-पहल रहती होगी। अब घाट के नाम पर एक लम्बा सा साएबान रह गया था जिसका अगला हिस्सा दाहिनी तरफ़ के नशेब में झील के थोड़े से पानी को ढाँके हुए था। साएबान के पीछे ज़रा बुलन्दी पर एक बेडौल इमारत थी जिसमें लट्ठों और चिकनी मिट्टी का इस्तेमाल कुछ इस तरह हुआ था जैसे बनाने वाला फ़ैसला न कर पा रहा हो कि उसे लकड़ी से बनाए या मिट्टी से, और इसी उधेड़-बुन में इमारत बन कर तय्यार भी हो गई हो। छत अलबत्ता पूरी लकड़ी की थी। इसके बीचों-बीच वाले उभार पे लगा हुआ गुलाबी रंग का एक छोटा सा बादबान हवा से बार-बार फूल रहा था।
मेरा मुँह बोला बाप ज़रूर पहले भी यहाँ आया होगा। मेरा हाथ पकड़ कर वो तेज़ी के साथ सीधा नशेब में उतरा और साएबान के नीचे से शुरू होने वाले मिट्टी के पाँच ज़ीने चढ़ कर इमारत के दरवाज़े पर जा खड़ा हुआ। जहाज़ सामने ही ज़मीन पर बैठा तम्बाकू पी रहा था। हम दोनों भी अन्दर जाकर ज़मीन पर बैठ गए।
आ गया?, उसने बाप से पूछा और खाँसने लगा।
आठ बरस में वो बहुत बूढ़ा हो गया था। आँखों की ज़र्दी और होंटों की सियाही इतनी बढ़ गई थी कि शुब्हा होता था उन्हें अलग से रंगा गया है। कुछ-कुछ देर बाद उसकी गर्दन इस तरह हिल जाती थी जैसे किसी बात का इक़रार कर रहा हो। और इसी तरह गर्दन हिलाते हुए उसने ज़र्द आँखों से मुझे देखा फिर बोला, बड़ा हो गया।
आठ बरस बाद देख रहे हो।, मेरे बाप ने उसे बताया।
हम बहुत देर ख़ामोश बैठे रहे। मुझे शुब्हा हुआ कि वो दोनों इशारों में बातें कर रहे हैं। लेकिन वो एक दूसरे की तरफ़ देख भी नहीं रहे थे। अचानक मेरा बाप उठ खड़ा हुआ। मैं भी उसके साथ उठा। जहाज़ ने सर उठा कर उसे देखा और पूछा, कुछ रुकोगे नहीं?
काम बहुत है, मेरा बाप बोला, अभी कुछ भी नहीं किया है। जहाज़ की गर्दन फिर उसी तरह हिली और मेरा बाप दरवाज़े से बाहर निकल गया। मिट्टी के ज़ीने उतरते उतरते वो रुक कर मुड़ा। वापस आया और मुझे चिमटाकर देर तक चुप-चाप खड़ा रहा, फिर बोला, दिल न लगे तो जहाज़ को बता देना, मैं आकर ले जाऊँगा। जहाज़ की गर्दन फिर उसी तरह हिली और मेरा बाप ज़ीनों से नीचे उतर गया।
मुझे जहाज़ के खाँसने की आवाज़ सुनाई दी और मैं उसकी तरफ़ मुड़ गया। उसने जल्दी-जल्दी तम्बाकू के बहुत से कश खींचे। देर तक अपनी घुरघुराती हुई साँस को हमवार करता रहा, फिर उठा और मेरा हाथ पकड़ कर साएबान के नीचे आ गया। वहीं खड़े-खड़े वो झील पर नज़रें दौड़ाता रहा। फिर मिट्टी के ज़ीनों की तरफ़ वापस हुआ लेकिन पहले ज़ीने पर पैर रखते-रखते रुक गया।
नहीं, उसने कहा, सबसे पहले बीबी।
झील के किनारे-किनारे चलते हुए हम बड़ी नाव के क़रीब पहुँचे। दो लम्बे लट्ठों को मिला कर किनारे से नाव तक पहुँचने का रास्ता बनाया गया था। लट्ठों पर सँभल-सँभल कर पैर रखते हुए हम दूसरे सिरे की छोटी सीढ़ी तक और सीढ़ी चढ़ कर नाव पर पहुँचे। सामने की एक कोठरी के दरवाज़े पर तिर्पाल का पर्दा पड़ा हुआ था। पर्दे के आगे एक दोरंगी बिल्ली बैठी ऊँघ रही थी। उसने अध-खुली आँखों से हम को देखा। जहाज़ पर्दे के क़रीब पहुँच कर रुक गया। मैं उससे कई क़दम पीछे खड़ा हुआ था। जहाज़ ने फिर खाँसना शुरू किया था कि पर्दा हटा कर बीबी सामने आ गई। उसे देख कर मुझे डर लगा, लेकिन इससे भी ज़ियादा ये सोच कर हैरत हुई कि ये बे-हंगम औरत कभी किसी की महबूबा थी। उसने जहाज़ को देखा फिर मुझको।
बेटा आ गया?, उसने जहाज़ से पूछा।
अभी पहुँचा है।, जहाज़ ने बताया।
बीबी ने मुझे सर से पैर तक कई बार देखा, फिर बोली, दुखिया मालूम होता है। जहाज़ कुछ नहीं बोला। मैं भी कुछ नहीं बोला। देर तक ख़ामोशी रही। मैंने बीबी की तरफ़ देखा और उसी वक़्त उसने पूछा, पैराकी जानते हो?
नहीं।, मैंने गर्दन के इशारे से उसे बताया।
पानी से डरते हो?
डरता हूँ।, मैंने फिर इशारे से उसे बताया।
बहुत?
हाँ बहुत।, मैंने बता दिया।
डरना चाहिए।, उसने यूँ कहा जैसे मैंने उसके दिल की बात कह दी हो।
मैंने झील के फैलाव को देखा। रुकी हुई हवा में मटियाला पानी बिल्कुल ठहरा हुआ था और झील पर किसी बंजर मैदान का शुब्हा होता था। मैंने बीबी की तरफ़ देखा। वो अभी तक मुझे देख रही थी। फिर वो जहाज़ की तरफ़ मुड़ गई जो उसकी तरफ़ तम्बाकू पीने का सामान बढ़ा रहा था। देर तक वो दोनों तम्बाकू पीते और बातें करते रहे। कुछ हिसाब किताब क़िस्म की कारोबारी बातें थीं। इस बीच में भूरे रंग का एक कुत्ता किसी तरफ़ से निकल कर आया और मुझे सूँघ कर चला गया। ऊँघती हुई बिल्ली ने कुत्ते को देख कर दुम फुलाई और पीठ ऊँची कर ली, फिर पर्दे के पीछे चली गई। मैं थोड़ी-थोड़ी देर बाद बीबी को देख लेता था। मज़बूत बनी हुई औरत थी और अपनी बड़ी नाव से भी कुछ बड़ी मालूम होती थी, लेकिन ऐसा मालूम होता था कि वो भी अपनी नाव की तरह धीरे-धीरे टूट रही है। कम-से-कम उसके चेहरे से ऐसा ही ज़ाहिर होता था। और उसकी बातों से भी जो मुझे साफ़ सुनाई नहीं दे रही थीं। बातें करते करते, रुक कर एक बार उसने गर्दन उठाई और ज़ोर से आवाज़ दी प्रिया!
दूर किसी लड़की के हँसने की आवाज़ पानी पर तयरती हुई हमारी तरफ़ आई और जहाज़ मेरा हाथ पकड़ कर लट्ठों वाले रास्ते की तरफ़ बढ़ने लगा। सीढ़ी के पास पहुँच कर मैंने अपनी पुश्त पर बीबी की आवाज़ सुनी। उसे अच्छी तरह रखना, जहाज़। और फिर वही, दुखिया मालूम होता है। ये उसने कुछ इस तरह कहा कि मैं ख़ुद को वाक़ई दुखिया समझने लगा
(3)
लेकिन कोई वज्ह नहीं थी कि मैं ख़ुद को दुखिया समझता। बीबी के यहाँ से आकर जहाज़ ने मुझको मेरे रहने का ठिकाना दिखा दिया तो मुझे यक़ीन नहीं आया कि ये एक उजाड़ घाट पर बने हुए उसी बेडौल मकान का हिस्सा है जिसके सामने मटियाले पानी की झील और पुश्त पर बंजर मैदान है। वहाँ मेरे आराम का अच्छे से अच्छा सामान मौजूद था। सजावट भी बहुत थी जिसमें शीशे की चीज़ों से ज़ियादा काम लिया गया था। दरवाज़ों और रौशन दानों में भी शीशे इस्तेमाल हुए थे। मुझ को तअज्जुब हुआ कि जहाज़ किसी जगह को इतने सलीक़े से सजा सकता है। फिर ख़याल हुआ कि उसने इसमें किसी औरत की मदद ली है, या फिर सजावट का काम बाक़ायदा सीखा है। वहाँ कई चीज़ें आज ही की लाई हुई मालूम होती थीं। लेकिन मुझे शुब्हा हुआ कि वहाँ से कई चीज़ें हटाई भी गई हैं और ये शुब्हा भी हुआ कि इस जगह मुझसे पहले, शायद बहुत पहले, कोई और था।
अपने ठिकाने को देख लेने के बाद मैं सोच रहा था कि पहले ही दिन मैंने शीशा घाट का सब कुछ देख लिया है। लेकिन प्रिया को मैंने दूसरे दिन देखा।
मुझे आज तक हैरत है कि मेरे मुँह-बोले बाप के यहाँ जो लोग शीशा घाट की बातें कर रहे थे उनमें किसी ने बीबी की बेटी का नाम भी नहीं लिया था। मैं ने पहली बार उसका नाम शीशा घाट पहुँचने के पहले दिन सुना था जब बीबी ने नाव पर से उसे पुकारा था। उस दिन की घबराहट में मुझे ये सोचने का ख़याल भी नहीं आया था कि प्रिया कौन है, लेकिन दूसरे दिन सुब्ह मैं ने घाट के सामने झील पर से हँसी की आवाज़ सुनी। फिर किसी ने कहा, जहाज़ तुम्हारे बेटे को देखेंगे। जहाज़ ने लपक कर मेरा हाथ पकड़ लिया।
बीबी की बेटी।, उसने बताया और मुझे साएबान के नीचे ला खड़ा किया।
कोई पचास क़दम के फ़ासले पर झील में धीरे-धीरे हिलती हुई पतली सी कश्ती के पिछले सिरे पर मैं ने देखा कि प्रिया बिल्कुल सीधी खड़ी हुई है। फिर उसने अपने बदन को हल्का सा झकोला दिया और कश्ती साएबान की तरफ़ बढ़ी। प्रिया के बदन ने एक और झकोला खाया। कश्ती और आगे बढ़ी। इसी तरह रुकती बढ़ती हुई वो साएबान के बहुत क़रीब आ गई।
यही है?, उसने जहाज़ की तरफ़ देख कर पूछा।
मुझे हैरत हो रही थी कि ये लड़की बीबी की बेटी है। जिस तरह इस पर हैरत हुई थी कि बीबी किसी की महबूबा रह चुकी है। मैंने उसे ज़रा ग़ौर से देखना चाहा लेकिन अब वो मुझे सर से पैर तक देख रही थी।
दुखिया तो नहीं मालूम होता।, उसने जहाज़ से कहा, फिर मुझसे बोली, दुखिया तो नहीं मालूम होते।
मैंने कब कहा था कि मैं दुखिया मालूम होता हूँ।, मैंने ज़रा झुंझलाकर कहना चाहा लेकिन सिर्फ़ हकला कर रह गया। प्रिया हँस पड़ी और बोली, जहाज़, ये सच-मुच। फिर उसने ज़ोर-ज़ोर से हँसना शुरू कर दिया। यहाँ तक कि नाव पर से बीबी की पाटदार आवाज़ आई, प्रिया, उसे न सताओ।
क्यों?, प्रिया ने पुकार कर पूछा, दुखिया जो है?
प्रिया।, जहाज़ ने उसे समझाया, इससे तुम्हारा जी बहलेगा।
हमारा जी घबराता ही नहीं।, उसने कहा और फिर हँसने लगी।
मैं ख़ुद को किसी मुसीबत में फँसा हुआ महसूस कर रहा था लेकिन उसी वक़्त उसने मुझसे पूछा, तुमने अपनी नई माँ को देखा है?
नहीं देखा।, मैंने सर के इशारे से उसे बताया।
देखने को जी नहीं चाहता?
मैंने कोई जवाब नहीं दिया और दूसरी तरफ़ देखने लगा।
नहीं चाहता?, उसने फिर पूछा।
जवाब में मेरा सर इस तरह हिला कि उसका मतलब हाँ भी हो सकता था, नहीं भी। मुझे ख़याल आ रहा था कि आज नई माँ मेरे पहले घर में आने वाली है,या शायद आ चुकी हो।
बाप ने कहा था वो मुझे बोलते देख कर पागल हो जाएगी। मैं ख़याल ही ख़याल में ख़ुद को बोलते और उसको धीरे-धीरे पागल होते देखने लगा। मैंने सोचने की कोशिश की कि ऐसी औरत के साथ, जो मेरी वज्ह से पागल हो गई हो, मेरा उस घर में रहना कैसा होता। मुझे ये भी ख़याल आया कि कल इस वक़्त तक मैं उस घर में था। और ये मुझे बहुत पुराने ज़माने की बात मालूम हुई। मुझे वहाँ गुज़ारे हुए आठ साल आठ लम्हों की तरह याद आए। फिर मुझे अपना मुँह बोला बाप याद आने लगा जो कल मुझे चिमटा कर जहाज़ के पास छोड़ गया था। पहले भी मुझको यक़ीन था, अब और ज़ियादा यक़ीन हो गया कि वो मुझसे बहुत मोहब्बत करता था।
जहाज़ भी तुमसे, बहुत मोहब्बत करेगा।, प्रिया की आवाज़ ने मुझे चौंका दिया।
मैं उसे भूल गया था लेकिन वो इतनी देर से मेरी ही तरफ़ देख रही थी। फिर वो सँभल-सँभल कर चलती हुई कश्ती के दूसरे सिरे पर आई। उसका बदन आहिस्ता से घूमा और साएबान की तरफ़ उसकी पीठ हो गई। बदन के एक झकोले के साथ उसने कश्ती को आगे बढ़ाया और धीरे-धीरे हमसे दूर होती गई। मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मैंने कोई अजूबा देखा है।
अगर बीबी ने उसका नाम ले कर न पुकारा होता, मैंने ख़ुद को बताया, तो मैं उसे झील की रूह समझता। वो झील की रूह नहीं तो अजूबा ज़रूर थी। इस लिए कि वो पानी के नीचे पैदा हुई थी और उसके पैरों ने आज तक ज़मीन नहीं छूई थी
बड़ी नाव बीबी को बाप-दादा से मिली थी और मालूम नहीं कब से झील में पड़ी थी, प्रिया के जाने के बाद जहाज़ ने बताया, लेकिन ख़ुद बीबी झील से दूर कहीं और रहती थी जहाँ उसका मियाँ, वही डाकू, या जो कोई भी वो था, छुप कर उससे मिलने आया करता था। जब प्रिया पैदा होने को हुई तो मियाँ ने एक दाई के साथ बीबी को नाव पर पहुँचा दिया। विलादत के वक़्त जहाज़ बीबी के दर्द से चीख़ने की आवाज़ें सुन रहा था। फिर ये आवाज़ें कुछ बदल गईं। सरकारी आदमी पहुँच गए थे और बीबी से उसके मियाँ का पता पूछ रहे थे। बीबी ने कुछ नहीं बताया तो उन्होंने उसको झील में ग़ोते पर ग़ोते देना शुरू किए और ऐसे ही किसी लम्बे ग़ोते में प्रिया पैदा गई।
मैंने साफ़ देखा, जहाज़ ने बताया, कि पानी के नीचे से बीबी की साँसों के बुलबुले उठ रहे हैं और उन्हीं बुलबलों के बीच में एक-बार प्रिया का छोटा सा सर उभरा और उसके रोने की आवाज़ आई। तब उन लोगों ने समझा कि बीबी बन नहीं रही थी। वो चले गए लेकिन घात में रहे और जैसा कि उन्हें यक़ीन था, एक दिन प्रिया का बाप घाट पर आया। इसी नाव पर इसको घेरा गया। उसने बच कर निकल जाना चाहा लेकिन ज़ख़्मी हो कर झील में गिरा और झील ही में डूब गया।
उस दिन से बीबी ने बड़ी नाव को अपना और प्रिया का ठिकाना बना लिया है। ख़ुद बीबी कभी-कभी दूसरी बस्तियों की तरफ़ निकल जाती है लेकिन प्रिया को उसने आज तक ज़मीन पर नहीं आने दिया है। वो अपनी कश्ती पर झील में घूमती रहती है, या फिर बड़ी नाव पर माँ के पास आ जाती है। ये क्यों हो रहा है? बीबी ने कोई क़सम खाई है? कोई मन्नत मआनी है? किसी को नहीं मालूम। इसलिए कोई नहीं जानता कि प्रिया कब तक झील में चक्कर लगाती रहेगी और उसके पैर कभी मिट्टी को छुएँगे या नहीं।
(4)
शीशा घाट पर मैं ने एक साल गुज़ारा और एक साल में झील पर से सब मौसमों को गुज़रते और हर मौसम में प्रिया की कश्ती को पानी पर घूमते देखा। इसके सिवा वहाँ मेरे लिए दिल बहलाने का ज़ियादा सामान नहीं था। मेरे ठिकाने का बाहरी दरवाज़ा बंजर मैदान में खुलता था जिसके नज़दीकी किनारों पर शीशे वालों की धुआँ देती हुई बस्ती को छोड़ कर सिर्फ़ मछेरों की आबादियाँ थीं। सूखती हुई मछलियों की वज्ह से मैं उन आबादियों से दूर-दूर रहता था। मछेरे हर वक़्त किसी न किसी काम में भी लगे रहते थे, और मेरे किसी काम के नहीं थे, जिस तरह मैं उनके किसी काम का न था।
मैदान के दूसरे किनारों पर बहुत घाट थे, मल्लाहों की बड़ी-बड़ी आबादियाँ भी थीं। किसी-किसी घाट पर बहुत चहल-पहल रहती थी, लेकिन एक दो बार जब मैं किसी घाट पर पहुँचा तो पता चला कि वहाँ जहाज़ के मुँह बोले बेटे की ख़बर पहुँच चुकी है और लोग मुझे पहचानने ही वाले हैं। इसलिए ख़ाली मैदान में घूमने और वहाँ की कुछ चीज़ों को ख़्वाह-मख़ाह अपनी दिलचस्पी का सामान बना लेने के सिवा ज़ियादा-तर मैं साएबान के नीचे बैठा रहता था। बूढ़ा जहाज़ भी अपने कामों और इधर-उधर की गश्तों से फ़ुर्सत पा कर तम्बाकू पीने के सामान के साथ वहीं आ बैठता और तरह तरह के क़िस्से सुनाता था जो याद रखने के क़ाबिल थे मगर मैं उन्हें भूल गया हूँ। अलबत्ता ये मुझको अब तक याद है कि जब उसका कोई क़िस्सा मेरा ध्यान अपनी तरफ़ खींच पाता तो वो जोश में आकर, बल्कि कुछ वहशत-ज़दा हो कर, उसे अपने पुराने नक़्क़ालों वाले अन्दाज़ में बयान करने की कोशिश करता था। इसमें उस पर खाँसी का दौरा पड़ जाता और उसके क़िस्से की रही सही दिलचस्पी भी ख़त्म हो जाती।
शुरू-शुरू में मेरा ख़याल था कि शीशा घाट दुनिया से अलग-थलग कोई जगह और झील का ये हिस्सा हमेशा वीरान पड़ा रहता होगा। ऐसा नहीं था, अलबत्ता वहाँ बीबी की इजाज़त के बग़ैर कोई नहीं आ सकता था। यही मैंने बाप के घर पर उन लोगों से सुना था और फ़र्ज़ कर लिया था कि बीबी कभी किसी को इधर नहीं आने देती। लेकिन जहाज़ के यहाँ आने के बाद मैंने देखा कि कुछ ख़ास-ख़ास दिनों में मछेरे अपनी कश्तियाँ और जाल लेकर यहाँ आते हैं। किसी-किसी दिन तो उनकी तादाद इतनी बढ़ जाती थी कि मालूम होता था पानी पर कोई छोटा सा मेला लगा हुआ है। मैं अपने ठिकाने पर, कभी साएबान के नीचे बैठा हुआ मछेरों की आवाज़ें सुनता था कि एक दूसरे को पुकार रहे हैं और कुछ हिदायतें दे रहे हैं। उनकी आवाज़ों के बीच में कभी-कभी प्रिया के हँसने की आवाज़ भी सुनाई देती थी। कभी उनकी आवाज़ों से मालूम होता था कि वो प्रिया को किसी बात से रोक रहे हैं। कभी किसी बूढ़े मछेरे की आवाज़ सुनाई देती कि प्रिया को डाँट रहा है और ज़ोर-ज़ोर से हँसता भी जा रहा है। उस वक़्त नाव पर बीबी की आवाज़ आती,
प्रिया, उन्हें काम करने दो।
जवाब में प्रिया की हँसी सुनाई देती और बूढ़ा मछेरा बीबी को मना करता कि प्रिया को कुछ न कहे।
उन दिनों मैं भी और दूसरे दिनों में भी प्रिया सवेरे-सवेरे घाट पर ज़रूर आती थी। साएबान के सामने अपनी कश्ती पर खड़े-खड़े वो कुछ देर तक जहाज़ से बातें करती, कभी मुझ को भी साएबान के नीचे बुलवा लेती और अगर जहाज़ उठकर चला जाता तो मुझसे बातें करने लगती। कुछ बचकानी सी बातें करती थी। अपने कुत्ते बिल्ली के क़िस्से ज़ियादा सुनाती, या ये बताती थी कि कल बीबी ने उसे किस-किस बात पर डाँटा था। कभी वो मुझसे कोई बात इस तरह अचानक पूछ बैठती कि मुझको गर्दन के इशारे की जगह ज़बान से जवाब देने की कोशिश करना पड़ती। इस पर वो ख़ूब हँसती और बीबी की डाँट खाती, फिर झील के दूर उफ़्तादा हिस्सों की तरफ़ निकल जाती थी। दोपहर को बीबी उसे ज़ोर से पुकारती और उसकी कश्ती नाव की तरफ़ बढ़ती नज़र आती। इसके बाद से नाव पर से बार-बार उसके हँसने और बीबी के बिगड़ने की आवाज़ें आतीं। तीसरे पहर को वो फिर निकलती और घाट के सामने ठहरती। अगर उस वक़्त जहाज़ मौजूद न होता तो वो मुझसे उसकी बातें करती थी। उसे जहाज़ की हर बात में हँसी का सामान नज़र आता था चाहे वो उसका तम्बाकू पीना हो, या उसका बेढंगा लिबास हो, या उसके मकान पर लगा बादबान।
एक दिन जब वो मुझे जहाज़ का कोई क़िस्सा सुना रही थी, मुझे शुब्हा हुआ, फिर यक़ीन हो गया कि उसे बिल्कुल नहीं मालूम कि आठ बरस पहले तक जहाज़ बाज़ारों में मस्ख़रापन किया करता था और उस दिन पहली बार मैंने ज़रा इत्मीनान के साथ बोलने और उसे जहाज़ को नक़्क़ालियों के बारे में बताने की कोशिश की। देर तक कोशिश करता रहा। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। फिर भी वो हँसे बग़ैर बड़ी तवज्जो से मेरी बात सुन रही थी। जिस तरह आख़िर में मेरा बाप मेरी बात सुनने लगा था। उसी वक़्त जहाज़ तम्बाकू पीता हुआ साएबान के नीचे आ गया। उसने मेरी मुश्किल आसान की और प्रिया को बता दिया कि मैं क्या कहना चाह रहा हूँ। फिर उसने दो-तीन छोटी-छोटी नक़्लें करके दिखा भी दीं। मुझको वो उसकी पुरानी नक़्लों की भोंडी नक़्लें मालूम हुईं लेकिन प्रिया को इतनी हँसी आई कि कश्ती डगमगाने लगी। वो कुछ और नक़्लें देखना चाहती थी लेकिन जहाज़ उतनी ही देर में खाँसी से हलकान हो गया था। प्रिया उसकी खाँसी के रुकने का इन्तिज़ार कर रही थी, लेकिन जहाज़ ने हाथ से उसे इशारा किया कि वहाँ से चली जाए। प्रिया ने हँसते हुए अपनी कश्ती मोड़ी और जाते-जाते बोली, जहाज़, जहाज़, तुम बीबी को भी हँसा दोगे।
दूसरी सुब्ह वो रोज़ से कुछ पहले साएबान के सामने आ गई। लेकिन उस दिन जहाज़ कहीं निकल गया था। उसने मुझसे जहाज़ की बातें शुरू कर दीं और कल की नक़्लों का हाल इस तरह बताया जैसे मैंने कल, बल्कि उससे पहले भी कभी जहाज़ को नक़्लें करते न देखा हो, बल्कि मुझे यही पता न हो कि जहाज़ कभी नक़्लें भी करता था। मैं सुनता रहा, फिर उसे बताने की कोशिश करने लगा कि जहाज़ पीठ पर बादबान बाँध कर बाज़ारों में घूमता था और जहाज़ों के डूबने की भी नकलें करता था। नहीं बता सका, न ज़बान से न इशारों से। आख़िर चुप हो गया।
कल।, मैं ने दिल में कहा, जैसे भी हो, तुम को ज़रूर बताऊँगा।
मैंने उसे वापस जाते देखा।
कल।, मैंने फिर दिल में कहा, जैसे भी हो।
उसी शाम मेरा मुँह बोला बाप शीशा घाट पर आया। इस एक साल में वो इतना बूढ़ा हो गया था जितना आठ साल में जहाज़ नहीं हुआ था। उसकी चाल में लड़खड़ाहट आ गई थी और जहाज़ उसको सहारा देकर ला रहा था। आते ही उसने मुझ को चिमटा लिया। आख़िर जहाज़ ने उसको मुझसे अलग किया, ठीक से बिठाया, फिर मेरी तरफ़ मुड़ा,
तुम्हारी नई माँ मर गई।, उसने मुझे बताया और खाँसने लगा।
(5)
मुँह-बोले बाप से मेरी कोई बात नहीं हुई थी। जहाज़ उसके आने के थोड़ी ही देर बाद उसे लेकर कहीं चला गया था। जहाज़ भी कुछ देर तक तम्बाकू पीने के बाद शायद सो गया। मैं सोचता रहा कि मेरा मुँह बोला बाप इतनी जल्दी बूढ़ा किस तरह हो गया। फिर मुझे अपनी माँ का ख़याल आया जो मुझे बोलते देखे बग़ैर मर गई थी और शायद पागल भी नहीं हुई थी। फिर मुझे शीशा घाट पर गुज़ारा हुआ अपना एक साल याद आने लगा। मैं वहाँ फैली हुई और बहुत कम टूटने वाली ख़ामोशी से कभी-कभी उकता जाता था लेकिन अब मुझे एहसास हो रहा था कि वो जगह हमेशा आवाज़ों से भरी रहती थी। शीशे और मछेरों और दूसरे घाटों की सम्त से मद्धम पुकारें आती थीं और झील पर आबी परिन्दे बोलते थे। लेकिन मैं ध्यान नहीं देता था। उस वक़्त भी मैंने ज़रा सा कानों पर ज़ोर दिया तो साएबान की तरफ़ से किनारे को छू कर पलटी हुई लहरों की रुकी-रुकी आवाज़ें आईं और बीबी की नाव के तख़्तों की हल्की चरचराहट सुनाई दी।
मैंने फ़ैसला कर लिया कि शीशा घाट को मेरे ही रहने के लिए और मुझ को शीशा घाट ही पर रहने के लिए बनाया गया है।
कल सुब्ह मैं जहाज़ को बता दूँगा मैंने ख़ुद से कहा और सो गया। सुब्ह को मेरी आँख रोज़ की तरह जहाज़ के खाँसने की आवाज़ से खुली। फिर मुझे प्रिया की आवाज़ भी सुनाई दी। दोनों रोज़ की तरह बातें कर रहे थे। लेकिन जहाज़ जहाँ बैठा था वहाँ से प्रिया की कश्ती दिखाई नहीं देती थी। इसलिए जहाज़ को ज़ोर-ज़ोर से बोलना और बार-बार खाँसना पड़ रहा था।
मैं उठकर साएबान के नीचे आ गया। प्रिया सामने ही अपनी कश्ती के बीच में खड़ी थी। उसने जहाज़ से एक दो बातें और कीं। बीबी का कुछ ज़िक्र था। फिर वो उल्टे क़दमों चलती हुई कश्ती के दूसरे सिरे पर पहुँच गई। उसके पैरों की हल्की सी जुम्बिश से कश्ती ने धीरे-धीरे घूम कर आधा चक्कर खाया। अब प्रिया की पीठ साएबान की तरफ़ थी। मैंने पहली बार बीबी की इस बेटी को सर से पैर तक ग़ौर से देखा और ये सोच कर पहले से भी ज़ियादा हैरान हुआ कि बीबी की सी औरत उसकी माँ है। उसी वक़्त उसके बदन ने झकोला खाया और कश्ती साएबान से दूर होने लगी। फिर आहिस्ता से डगमगाई और रुक गई। प्रिया ने अपने दाहिने-बाईं और सामने फैली हुई झील को देखा। कश्ती फिर आहिस्ता से डगमगाई लेकिन प्रिया ने अपने बदन को साध कर उसका तवाज़ुन दुरुस्त कर लिया। उसके पैरों को फिर हल्की सी जुम्बिश हुई। कश्ती ने एक-बार फिर बहुत धीरे-धीरे घूम कर आधा चक्कर खाया और मैंने सामने से भी प्रिया को सर से पैर तक देखा।
मुझे अन्देशा हुआ कि उसको मेरा इस तरह देखना बुरा न लगे, लेकिन उसकी नज़रें मेरी तरफ़ नहीं थीं। वो घाट के ठहरे हुए पानी को बहुत ग़ौर से, जैसे ज़िन्दगी में पहली बार देख रही थी। फिर वो रुक-रुक कर चलती हुई कश्ती के साएबान वाले सिरे पर आ गई। थोड़ा झुक कर उसने एक बार फिर पानी को ग़ौर से देखा, सीधी खड़ी हुई, अपने पूरे बदन को साधा और बहुत इत्मीनान से झील की सत्ह पर पैर रख दिया जैसे कोई सूखी ज़मीन पर क़दम रखता है। फिर उसके दूसरे पैर ने कश्ती को छोड़ा। उसने एक क़दम आगे बढ़ाया, फिर दूसरा क़दम।
पानी पर चल रही है!, मैं ने कुछ हैरत और कुछ ख़ौफ़ के साथ ख़ुद को बताया, ज़रा दूर पर तम्बाकू पीते हुए जहाज़ की तरफ़ गर्दन मोड़ी, फिर झील की तरफ़ देखा। प्रिया की ख़ाली कश्ती और साएबान के दरमियान सिर्फ़ पानी था जिस पर मोटी लहरों के दुहरे-तिहरे दायरे फैल रहे थे। चन्द लम्हों के बाद इन दायरों के बीच से प्रिया का सर उभरा। उसने पानी पर कई बार हथेलियाँ मारीं जैसे झील की सत्ह को पकड़ना चाह रही हो। पानी की आवाज़ के साथ बहुत से छींटे उड़े और मुझे जहाज़ की आवाज़ सुनाई दी।
प्रिया, पानी का खेल न करो।
फिर उसके गले में धुएँ का फन्दा पड़ा और वो खाँसते दोहरा हो गया। दम-भर के लिए मेरी निगाह उसकी तरफ़ मुड़ी। उस पर दौरा सा पड़ा हुआ था और वो किसी की मदद का मोहताज मालूम हो रहा था। मैंने फिर झील की तरफ़ देखा। मुझे सपाट पानी पर लहरों के नए दायरे फैलते दिखाई दिए। वो फिर उभरी और फिर नीचे बैठने लगी। मेरी नज़र उसकी आँखों पर पड़ी और मैं एक झटके के साथ उठकर खड़ा हो गया।
जहाज़!, मैंने ज़ोर से पुकारा, फिर मेरी ज़बान में गिरहें पड़ गईं। मैं जहाज़ की तरफ़ लपका। उसकी खाँसी रुक गई थी लेकिन साँस घुरघुरा रही थी। वो एक हाथ से अपना सीना और दूसरे से आँखें मल रहा था। मैंने ज़ीने पर चढ़ कर उसके दोनों हाथ पकड़े और उसे ज़ोर से हिलाया।
प्रिया, मेरे मुँह से निकला।
अपनी ज़र्द आँखों से कुछ देर वो मेरी आँखों में देखता रहा, फिर उसकी आँखों में बिजली सी कौंदी और मुझे ऐसा मालूम हुआ कि मेरे हाथ से कोई शिकारी परिन्दा छूट गया है। साएबान में उतरने वाले कच्चे ज़ीनों पर धूल उड़ रही थी और जहाज़ पानी के किनारे था। प्रिया की कश्ती अब पूरा चक्कर काट चुकी थी। जहाज़ ने कश्ती को देखा, फिर पानी को। फिर उसने किसी अजनबी सी बोली में पूरी ताक़त से एक आवाज़ लगाई। मैंने सुना कि नाव पर से बीबी ने भी उतनी ही ताक़त से इस आवाज़ को दुहराया। फिर दूर दूर तक कई तरफ़ से यही आवाज़ आई। मुझे फिर बीबी की आवाज़ सुनाई दी,
दुखिया?
प्रिया!, जहाज़ ने इतने ज़ोर से कहा कि उसके सामने झील का पानी हिल गया। दूर और क़रीब की आवाज़ों ने जहाज़ की आवाज़ को बार-बार दुहराया और मुझे जाल घसीटते हुए और ख़ाली हाथ मछेरे कई तरफ़ से घाट की जानिब दौड़ते दिखाई दिए। साएबान तक पहुँचने से पहले पहले उनमें से कई पानी में उतर गए। जहाज़ उन्हें इशारे से कुछ बता रहा था कि बाईं तरफ़ से पानी के उछलने की आवाज़ आई। मैंने देखा कि बड़ी नाव पर कुत्ता भौंकता हुआ इधर से उधर दौड़ रहा है और दोरंगी बिल्ली पीठ ऊँची किए एक कोठरी की छत पर से उसे देख रही है। फिर मैंने देखा कि बीबी, क़रीब-क़रीब नंगी किसी ख़ारिश-ज़दा आदम-ख़ोर मछली की तरह पानी को काटती चली आ रही है। उसका बदन प्रिया की कश्ती से टकराया और कश्ती अपनी जगह पर फिर्की की तरह घूम गई। बीबी ग़ोता लगाकर कश्ती के दूसरी तरफ़ उभरी। उसने जल्दी-जल्दी मछेरों को कई इशारे किए और फिर ग़ोता लगाया।
दूसरे घाटों से मल्लाहों की कश्तियाँ शीशा घाट की तरफ़ दौड़ती हुई दिखाई दीं। कई मल्लाह रास्ते ही में कूद कर अपनी कश्तियों के आगे-आगे पैर रहे थे। अब प्रिया की कश्ती से साएबान तक और साएबान से कश्ती तक पानी में सर ही सर थे। झील के किनारे किनारे भी मजमा बढ़ रहा था। हर चीज़ हिल रही थी और हर तरफ़ एक शोर था। हर शख़्स कुछ न कुछ कह रहा था लेकिन कुछ समझ में नहीं आता था कि कौन क्या कह रहा है। पानी की उछालों का शोर सबसे ज़ियादा था जिसमें वक़्त गुज़रने का कुछ पता नहीं चल रहा था। आख़िर एक आवाज़ ने बहुत ज़ोर से कुछ कहा। शोर तेज़ हो कर अचानक थम गया और पानी में उतरे हुए सारे बदन बे-आवाज़ पैरते हुए आहिस्ता-आहिस्ता एक जगह जमा होने लगे। सब बिल्कुल ख़ामोश थे, सिर्फ़ नाव पर से कुत्ते के भौंकने की आवाज़ आ रही थी। और उस वक़्त मुझे महसूस हुआ कि मेरा एक हाथ किसी शिकंजे में जकड़ा हुआ है। जहाज़ मेरे पास था।
चलो।, उसने मेरा हाथ हिला कर कहा।
मेरी समझ में नहीं आया कि वो मुझे किधर चलने को कह रहा है। मगर अब वो मुझको मकान के अन्दर लिए जा रहा था। मैंने पीछे घूम कर झील की तरफ़ देखना चाहा लेकिन जहाज़ ने मेरे हाथ को ज़रा सा झटका दिया और मैं उसकी तरफ़ देखने लगा। उसकी नज़रें मुझ पर जमी हुई थीं।
चलो।, उसने फिर कहा।
हम मकान की पुश्त वाले दरवाज़े पर आए। जहाज़ ने दरवाज़ा खोला। सामने बंजर मैदान था।
वो मिल गई है।, उसने मुझे बताया, फिर मैदान के बाईं किनारे की तरफ़ इशारा किया और जल्दी-जल्दी कहने लगा, थोड़ी देर में शीशे वालों के यहाँ पहुँच जाओगे। वहाँ से सवारी मिल जाएगी। न मिले तो किसी को भी मेरा नाम बता देना।
उसने रूमाल में बँधी हुई कुछ रक़म मेरी जेब में डाल दी। मैं उससे बहुत कुछ पूछना चाहता था और वहाँ से जाना नहीं चाहता था लेकिन उसने कहा, उसे सिर्फ़ तुमने डूबते देखा है। सब तुम ही से एक-एक बात पूछेंगे। बीबी सबसे ज़ियादा। बता पाओगे?
मेरी आँखों में वो मंज़र आ गया कि सारे लोग कानों में बाले पहने हुए मछेरे और हाथों में कड़े डाले हुए मल्लाह और घाट-घाट के सैलानी, मेरे गिर्द दुहरे-तिहरे दायरे बनाए हुए हैं और हर तरफ़ से सवाल हो रहे हैं, और बीबी मेरी तरफ़ देख रही है। फिर सब चुप हो जाते हैं और बीबी आगे बढ़कर मेरे क़रीब आ जाती है। जहाज़ ने मेरे कपकपाते हुए बदन को देखा और बोला,
मुझे कुछ बता दो कुछ भी वो पानी में गिर गई थी?
नहीं, मैंने किसी तरह कहा।
फिर?, जहाज़ ने पूछा, ख़ुद झील में कूद गई थी?
नहीं।, मैंने कहा और सर से इशारा भी किया।
जहाज़ ने मुझे झिंझोड़ कर कहा, कुछ बताओ, जल्दी।
मुझे मालूम था कि मैं ज़बान से कुछ न बता पाऊँगा। इसलिए मैंने हाथों के इशारे से उसे बताने की कोशिश की कि वो पानी पर चलना चाह रही थी। लेकिन मेरे हाथ बार-बार रुक जाते थे। मुझे महसूस हुआ कि मेरे इशारे भी हकलाने लगे हैं और उनका कोई मतलब नहीं निकल रहा है। लेकिन जहाज़ ने घुटी-घुटी आवाज़ में पूछा, पानी पर चल रही थी?
हाँ।, मैंने फिर ज़रा मुश्किल से कहा।
उसी में डूब गई?
हाँ।
पानी पर बीबी की तरफ़ जा रही थी?
नहीं।
फिर?, उसने पूछा, हमारी तरफ़ आ रही थी?
हाँ, मैंने गर्दन के इशारे से बता दिया। जहाज़ ने गर्दन झुका ली और मेरे देखते-देखते कुछ और बूढ़ा हो गया।
जिस दिन उसका छोटा सा सर पानी से उभरा था, देर के बाद उसने कहा। उस दिन से मैं हर रोज़ उसे देखता था, उसको खाँसी आते-आते रुकी, मुझे ये भी पता नहीं कि अब वो कितनी बड़ी मालूम होती थी।
मैं चुप-चाप खड़ा उसको बूढ़ा होते देखता रहा।
बस, जाओ, उसने मेरे कन्धे पर हाथ रखा और बोला, मैं उन्हें कुछ बता दूँगा। तुम किसी से कुछ न कहना।
मैं किसी से क्या कहूँगा, मैंने सोचा और मेरा ध्यान जो इतनी देर में घाट की तरफ़ से हट गया था, फिर उधर चला गया। लेकिन जहाज़ ने बहुत आहिस्ता से मुझे घुमा कर मैदान की तरफ़ बढ़ा दिया। मैदान में पहुँच कर मैं उसकी तरफ़ मुड़ा और वो बोला, तुम्हारा बाप कल ही तुम्हें लिए जा रहा था। मैंने कहा था कुछ दिन बाद
फिर उसे हल्की सी खाँसी आई। उसने दरवाज़े के दोनों पट पकड़ लिए और धीरे-धीरे पीछे हटने लगा।
दरवाज़ा बन्द होने से पहले ही मैंने वापसी का सफ़र शुरू कर दिया, लेकिन पंद्रह क़दम चला हूँगा कि उसने मुझे पुकारा। मैंने घूम कर उसे देखा कि कुछ रुक-रुक कर मेरी तरफ़ बढ़ रहा है। उस वक़्त वो तूफ़ान में घिरे हुए किसी ऐसे जहाज़ की नक़्ल उतारता मालूम हो रहा था जिसके बादबान हवाएँ उड़ा ले गई हों। पास आकर उसने मुझे चिमटा लिया। देर तक चिमटाए रहा। फिर मुझे छोड़कर पीछे हट गया।
जहाज़!, घाट की जानिब से बीबी की दहाड़ सुनाई दी। बूढ़े मस्ख़रे की ज़र्द आँखों ने आख़िरी बार मुझे देखा। उसकी गर्दन इक़रार के अन्दाज़ में हिली और मैं मुड़कर आगे बढ़ गया।
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