शिकस्ता परों की उड़ान
स्टोरीलाइन
यह एक ऐसी अधेड़ उम्र विधवा की कहानी है जो अपनी जवान बेटी के साथ रहती है लेकिन उसकी नारी सुलभ इच्छाएं और कामनाएं अब भी जवान हैं। इस उम्र में उसे बेटी की शादी की चिंता होनी चाहिए थी, लेकिन वह अपनी शादी के बारे में सोच रही थी। उसकी इस इच्छा को तब और पंख लग गए जब एक ख़ूबसूरत नौजवान उनके पड़ोस में आकर रहने लगा। उस महिला ने नौजवान से अपने संपर्क बढ़ाए और देखते ही देखते उसके सपने रंगीन होने लगे। मगर ये रंग स्थायी सिद्ध नहीं हुए जब उसे पता चला कि वह नौजवान उससे नहीं, बल्कि उसकी बेटी से शादी करना चाहता है।
किस लफ़ँगे के चक्कर में पड़ी हो। ख़ुदा-ख़ुदा करो। लड़की जवान हो रही है। दुल्हन चची ने फिर वही बात कही जिससे नासिरा बेगम को पतंगे लगते थे। मारों घटना फूटे आँख। भला यहाँ लड़की के जवान होने का क्या ज़िक्र है और ख़ुदा-ख़ुदा करने को तो अभी उम्र बाक़ी है। मियाँ भरी जवानी में दाग़ दे गए तो इसका मतलब ये कैसे हो गया कि बे-चारी बेवा मस्जिद में तब्दील हो जाए। नासिरा बेगम का चेहरा सुर्ख़ हो गया।
तुम क्यों जलती हो जी। सारी उम्र मुसल्ले पर बैठी रहीं। क्या नतीजा मिला? सुना है तुम्हारे मियाँ आज-कल फिर उसी कल-चिड़ी के साथ देखे जा रहे हैं। उन्होंने दुल्हन चची की दुखती रग पर हाथ रखा। दुल्हन चची रूमाल पर फूल काढ़ते अचानक रुक गईं। दुश्मनों ने उड़ाई होगी। ऑफ़िस में साथ काम करती है, उनकी मा-तहत है। कहीं रास्ता चलते मिल गई और दो बातें करीं तो लोगों ने बात का बतंगड़ बना दिया।
अजी हाँ... नासिरा बेगम दुपट्टे में मुँह छिपा कर हँसीं। तुम्हारे मियाँ ऐसी ही मशहूर हस्ती हैं कि लोग उनकी ज़ाती ज़िंदगी की टोह में लगे रहीं। और कोई काम नहीं लोगों को? खुले आम मुँह मारते देखते हैं जब ही कहते हैं कुछ।
बला से... दुल्हन चची की उंगलियाँ चाबुक-दस्ती से नक़्श-ओ-निगार बनाती रहीं। मर्द लुटेरे। मगर बँधे तो उसी खूँट से हैं। उन्होंने दुपट्टे के पल्लो की तरफ़ इशारा किया। शाम ढ़ले आ जाते हैं। दिन का हिसाब लेने में नहीं जाती। मगर बीवी तुम तो औरत हो फिर उम्र ख़ासी हो गई। अब तो बेटी ब्याहने की फ़िकर करो।
नासिरा बेगम को ऐसा लगा कि जैसे उनका पाँव जलते तवे पर पड़ गया है। वो ख़ुद दुल्हन बनने की फ़िकर में थीं और ये काली ज़बान वाली दुल्हन चची उन्हें सास बनाने पर मुसिर थीं। अभी सियाह बालों में ढूँढने से भी चाँदनी का तार न मिलता। सितार के तारों जैसा कसा कसाया बदन और चिकनी शफ़्फ़ाफ़ जिल्द। औरत की उम्र बस इतनी ही होती है जितनी देखने वाले को लगे। न एक दिन कम न एक दिन ज़ियादा। उनका जी चाहा दुल्हन चची के हाथ से सूई लेकर उनका मुँह सी दें। ज़बान से आग झड़ती है। क्या मज़े से बारूद में फ़लीता लगाकर इत्मीनान से काम करती रहती हैं। मगर नासिरा भी हार-फिर कर अपनी दास्तान सुनाने दुल्हन चची के पास ही आती हैं। वो उनकी वाहिद सहेली थीं। रिश्ते के चचा को ब्याह गईं इसलिए दुल्हन चची कहलाईं। ज़बान कतरनी की तरह चलती थी मगर दिल की साफ़ और खरी और दोस्ती निबाहने वाली थीं।
जिस दिन असद से मुलाक़ात होती, नासिरा बेगम के चेहरे पर गुलाब खिल जाते। दिल में पँख लग जाते, जी चाहता घर की छत पर चढ़ जाएँ और सारी दुनिया से पुकार-पुकार कर कहें, आज उसने फिर प्यार से देखा। मगर उनकी सारी दुनिया दुल्हन चची की ज़ात में सिमट जाती थी जो थीं तो औरत मगर पेट की हल्की नहीं थीं। उनकी ज़बान तेज़ाब की बौछार करती थी। फिर भी नासिरा बेगम उनके सामने जी का बोझ हल्का किए बग़ैर न रहतीं।
असद पड़ोस में रहने वाली मिसेज़ ख़ान के भाई थे। अभी तक तो जाने दुनिया के किस निहाँ-ख़ाने में पोशीदा थे लेकिन पिछले छ: माह से उन्होंने बहन के यहाँ मुस्तक़िल पड़ाव डाल दिया था। मिसेज़ ख़ान ला-वलद थीं। बड़े से जंगले में बस दो मियाँ-बीवी। इसलिए अक्सर रिश्तेदार आते-जाते रहते थे, ख़ूब ख़ातिरें होतीं। असद ने तालीम ख़त्म करके पहले सरकारी नौकरी की फिर न जाने क्या सूझी कि नौकरी छोड़ कर प्राइवेट प्रैक्टिस की धन में मिसेज़ ख़ान के यहाँ आ बसे।
नासिरा बेगम जान-ए-महफ़िल थीं। बेवगी ने उनके मिज़ाज़ पर कोई असर नहीं डाला था। मियाँ शुरू से ही बीमार रहते थे। मनहनी, धान-पान, अब मरे कि जब मरे, उस पर चिड़चिड़े, बद-मिज़ाज। बीवी जिस क़दर ख़ुश-मिज़ाजी दिखातीं, उन्हें उसी क़दर पतंगे लगते। नासिरा बेगम की ही-ही ठी-ठी पर अलबत्ता कोई असर न पड़ता। मज़े से भर-भर हाथ चूड़ियाँ पहनतीं, गोरी-गोरी हथेलियों में मेहंदी रचातीं। लांबे झुमके उनके बैज़वी चेहरे पर बहुत खिलते मगर मियाँ के मुँह का मज़ा दुआओं ने कुछ ऐसा कड़वा कर दिया था कि उन्हें कुछ भी मीठा न लगता। हर वक़्त तेवरियाँ चढ़ी रहतीं। न जाने कैसे पन्द्रह बरस घसीट गए। उनकी मौत के बाद नासिरा बेगम चंद दिन तो दुपट्टे से नाक रगड़ती रहीं, यासमीन को चिमटा कर एक-आध मर्तबा चीख़ीं-चिल्लाईं भी मगर फिर वही बाग़-ओ-बहार हँसी उन्हें हर वक़्त शराबोर रखती और दूसरों को भी भिगो-भिगो जाती। कहीं शादी हो तो ढ़ोलक बजाने और गीत गाने को तैयार, दावत हो तो बिरयानी और शुर्ब-रीख़ पकाने को तैयार। हर तक़रीब, हर रस्म में शरीक। बेवा होने पर भी कोई उनसे वहम नहीं करता था। कुछ ऐसी दिलचस्प और बाग़-ओ-बहार शख़्सियत थी उनकी।
जायदाद काफ़ी थी और औलाद सिर्फ़ सत्रह बरस की कच्ची कली सी यासमीन जो बेटी कम और बहन ज़ियादा नज़र आती। मियाँ अपनी ज़िंदगी में भी मद्द-ए-फ़ाज़िल थे। थे तो भी ठीक था, चले गए तो भी ठीक। ज़िंदगी सुकून के साथ रवाँ-दवाँ थी कि कहीं से असद नाज़िल हो गए। एक बड़ा सा पत्थर फेंका छपाक! और नासिरा बेगम की नाव हिचकोले खाने लगी कभी इधर कभी उधर। मगर गले-गले डूब कर वो बहुत ख़ुश थीं।
भला मीठी-मीठी नज़रों की इब्तिदा किसी को याद होती है कि कब किसने कहाँ क्यों कर देखा? वो इब्तिदा तो कहीं से सरसराते रेशम की तरह फिसल आती है और ज़मान-ओ-मकान का इहाता कर जाती है। नासिरा बेगम को भी इब्तिदा का पता न था।
एक बार उन्होंने बेले की क्लियों के बहुत से गुच्छे ढ़ेर कर दिए थे। कुछ मिसेज़ ख़ान की तरफ़, कुछ नासिरा बेगम की तरफ़। फिर हँस कर बोले थे, आपा, आप क्या कीजियेगा, अपने हिस्से के भी उन्हीं को दे दीजिये। लांबी चोटी पर फूल बहुत ज़ेब देते हैं। मिसेज़ ख़ान के बाल बहुत छोटे तराशे हुए थे। वो ख़ुश-मिज़ाजी से हँसने लगीं। उन्हें भी नासिरा बेगम के घने और लांबे बाल बहुत पसंद थे।
एक बार सब लोग इकट्ठे पिकनिक के लिए गए हुए थे। असद ने सहारा दे कर नासिरा बेगम को गाड़ी से उतारा था और उतारते हुए शायद जान-बूझ कर देर लगाई थी और इस बार तो कमाल ही हो गया। उन्होंने नासिरा बेगम की झूलती हुई बालियाँ छोली थीं। बाज़ चेहरे ऐसे होते हैं जिन पर सब कुछ ज़ेब देता है, लांबे झुमके हों या गोल बालियाँ। उन्होंने अपनी ठहरी हुई आवाज़ में कहा था और नासिरा बेगम की आँखों में यहाँ से वहाँ तक जुगनू से चिम-चिम करते चले गए थे।
बाज़ चेहरे ऐसे होते हैं जिन पर सब कुछ ज़ेब देता है, बाज़ चेहरे ऐसे होते हैं जिन पर सब कुछ ज़ेब देता है। बाज़ चेहरे... किसी ने ये जुमला रिकॉर्ड करके टेप उनके दिल में फ़िट कर दिया और वो उसे दुल्हन चची के आँगन में बजाने चली आईं। दुल्हन चची को इस उम्र में उनकी इश्क़-बाज़ी एक आँख नहीं भाती थी। बार-बार उनकी आँखों में जवान होती हुई यासमीन का सरापा घूम जाता और वो मज़ीद चिड़ जातीं। नासिरा बेगम ने ये बालियाँ छूने वाली बात बताई तो वो हत्थे से उखड़ गईं।
ओई बीवी! तो नोबत हाथा पाई तक पहुँच रही है। जलबला कर बोलीं और नासिरा बेगम के पूरे वुजूद में शोले रंग गए। उससे बड़ी गाली उन्हें कभी किसी ने नहीं दी थी। कहाँ वो नन्हा सा, नर्म सा, रोमान-परवर लम्स जो सोने की बालियों से गुज़रता हुआ उन तक पहुँचा था और कहाँ हाथा पाई जैसा मकरूह लफ़्ज़। उन्हें ऐसा लगा जैसे बचपन की दोस्ती की बुनियादें ढ़ह रही हैं। पहली बार उन्हें दुल्हन चची पर इतना ग़ुस्सा आया कि जी चाहा खीरे की तरह उन्हें चबाकर रख दें कचर-कचर। वो कमर पर हाथ रख कर उठ खड़ी हुईं और शोला-बार निगाहों से उन्हें देखती हुई बोलीं, ज़रा ज़बान सँभाल कर बोला करो। तुम्हें राज़-दार सहेली समझ कर दिल की बात कर लेती हूँ तो तुम्हें गालियाँ देने का हक़ मिल गया? आइन्दा इस तरह की बात की तो ख़ुदा की क़सम कभी सूरत नहीं देखूँगी।
दुल्हन चची उसी दिल जलाने वाले ठंडे पुर-सुकून चेहरे के साथ मियाँ की बुश-शर्ट पर स्त्री फेरती रहीं। फिर चंद लम्हों बाद शफ़्फ़ाफ़ निगाहें उठाकर बोलीं, तो उस लफ़ँगे की ख़ातिर तुम बरसों के ताल्लुक़ात ख़त्म करोगी? वो चढ़ता सूरज है। जवान, कुँवारा, आला तालीम-याफ़्ता और तुम? मुनासिब तश्बीह हाथ न आने पर वो लम्हा भर को ख़ामोश रह गईं। मेरी बात गिरह में बाँध लो बनो। कोई मर्द अपने से बड़ी और जवान बेटी की माँ के बारे में संजीदा नहीं हो सकता। तफ़रीह कर रहा है। ख़ुदा से लौ लगाव नासिरा। क्यों बर्बाद होने पर तुली हुई हो।
नासिरा बेगम सुर्ख़ होकर फुट पड़ने वाले मक़ाम पर पहुँच कर दफ़्अतन सियाह पड़ गईं। वो जवान बेटी की माँ बहर-हाल थीं। उसकी जवानी से वो कब तक आँखें चुराती रहेंगी? दो बरस? चार बरस? फिर उनकी अपनी जवानी कितने दिन और साथ देगी? दो बरस? चार बरस? ये हुस्न कब तक बरक़रार रहेगा? ये जिल्द कब तक तनी रहेगी? उन्हें साँप सूँघ गया। भड़कते शोलों पर जैसे किसी ने बाल्टी भर ठंडा पानी डाल दिया था।
वो जवान, कुंवारा, आला तालीम-याफ़्ता है और तुम? दुल्हन चची क्या कहते-कहते रुक गई थीं ढ़लती धूप? मज़े से उतरा हुआ फल? मुरझाया हुआ फूल? कौन सी तश्बीह उनके होंटों पर आकर मुंजमिद हो गई? काँपती टाँगों से नासिरा बेगम बैठ गईं। ख़ामोशी से दुल्हन चची के हाथ का बनाया हुआ लज़ीज़ नाश्ता ज़हर मार क्या। इंतिहाई ख़ुश मज़ा चाय गले से पार की और दिल-बर्दाश्ता सी घर चली आईं। अपने घर के छोटे से लॉन को पार करते हुए, वो फिर असद से टकराईं। आप?
वो हकलाए, मैं आपसे मिलने आया था। सज्जादी बुआ ने बताया कि आप अपनी चची के यहाँ गई हुई हैं तो मैं वापस होने लगा। वो कुछ बौखलाए हुए से लग रहे थे। नासिरा बेगम खिल उठीं। दुल्हन चची का जगाया हुआ दर्द लम्हे भर में बरसात की धूप की तरह उड़ गया। बे-इख़्तियार जी चाहा कि उस ऊँचे, चौड़े, मज़बूत मर्द के बाज़ुओं में ख़ुद को गुम कर दें। दिल सड़क कूटने वाले इंजन की रफ़्तार से धड़क रहा था। बड़ी मुश्किल से वो बोलीं, क्यों ख़ैरियत तो है? मेरा ख़्याल कैसे आया?
जी ख़ैरियत ही ख़ैरियत है। वो मुस्कुराए। आपके लिए कुछ मैगज़ीन लाया था। आप कह रही थीं ना कि जी नहीं लगता। एक नॉवेल भी है।
ख़ाक पड़े दुल्हन चची पर। कैसा दहलाती हैं। मेरी और उसकी उम्र में मुश्किल से तीन-चार बरस का फ़र्क़ होगा। ख़ानदान में ही कितनी शादियाँ ऐसी हुई हैं जिनमें दुल्हन-दूल्हा से बड़ी थी। यूरोप में तो आए दिन ये होता रहता है। 'नैन्सी खेसी' जैसा मुहावरा शायद दुनिया की किसी और ज़बान में राइज नहीं है।
अल्लाह-अल्लाह करो... अजी उम्र पड़ी है अल्लाह-अल्लाह करने को। और बुढ़ापे में बैठ कर करना ही क्या है। बस बहू बेटियों पर हुक्म चलाना और तस्बीह घुमाना। महबूब के सामने होने के बावजूद वो दिल ही दिल में दुल्हन चची पर ग़ुस्सा उतारने लगीं। फिर अचानक उन्हें असद की मौजूदगी का एहसास हुआ जो किसी घने साया-दार दरख़्त की तरह सामने खड़े थे।
आईए अब चाय पी कर जाइएगा। उनकी आवाज़ की तह में ख़ुशी की एक पतली सी धार बह रही थी तरल रुल, तरल रुल... जैसे ऊपर से सख़्त धरती के अंदर मीठे पानी का झरना बहता है।
असद किसी फ़रमाँ-बरदार पालतू जानवर की तरह पीछे हो लिए। नासिरा बेगम ने ड्राइंग रूम की बत्ती जलाई। किचन में सज्जादी बुआ खटर-पटर कर रही थीं। आँगन में मौलसिरी के दरख़्त के पास टेबल बिछाए यासमीन होम-वर्क में मसरूफ़ थी, उसका दुपट्टा कुर्सी की पुश्त पर पड़ा हुआ था। उसने सर उठाया, एक नज़र माँ पर डाली, दूसरी असद पर और फिर सर झुका कर अकबर और बाबर के रिश्तों की वज़ाहत में मशग़ूल हो गई। कल उसका हिस्ट्री का इम्तिहान था।
नासिरा बेगम ने सज्जादी बुआ को बुलाकर कहा कि वो बाढ़ फलाँग कर मिसेज़ ख़ान को भी बुला लाएँ और चाय का पानी स्टोव पर रख दें। फिर वो मेहदी हसन के कुछ नए रिकॉर्ड निकाल कर असद को दिखाने लगीं जो वो परसों ही ख़रीद कर लाई थीं। असद रिकॉर्ड लेने को झुके तो नासिरा बेगम का मुलाइम और मुअत्तर दुपट्टा उनके सर से टकराया। उन्होंने एक लंबी साँस ली। आपका ज़ौक़ बहुत पाकीज़ा है। क्या मौसीक़ी और क्या सजावट और लिबास। अफ़सोस कि कोई क़द्र-दान नहीं है। एक ज़ाती बात कहूँ आप से?
शायद वो लम्हा क़रीब आ गया है... बहुत क़रीब। इतना क़रीब कि अब वो उन्हें छू लेगा। नासिरा बेगम ने डूबती उभरती साँसों के साथ सोचा। असद शायद आसमान की ला-मुतनाही और बे-कराँ वुसअतों के उस पार से बोल रहे थे।
आपको शादी कर लेनी चाहिये। अभी आपकी उम्र ही क्या है? लम्हा नासिरा बेगम को छू चुका था। वो पसीने में नहा गईं। बौखलाहट में रिकॉर्ड उनके हाथ से छूट पड़े।
मैंने कोई ग़लत बात तो नहीं कही। असद की आँखें इंतिहाई मेहरबान और शफ़ीक़ थीं। नासिरा बेगम बेहोश होने वाली थीं कि मिसेज़ ख़ान अचानक धड़धड़ाती हुई अंदर दाख़िल हुईं।
क्या ग़लत-सही हो रहा है भई?
कुछ नहीं आपा मैं कह रहा था कि चाय की बड़ी शदीद तलब हो रही है।
इस राज़दारी ने नासिरा बेगम को निहाल कर दिया। हाँ भला मिसेज़ ख़ान के सामने वो खुल्लम-खुल्ला कह भी क्या सकते हैं बड़ी बहन ठहरें। उन्होंने बुआ से चाय के लिए कहा और फिर रिकॉर्ड प्लेयर ऑन कर दिया।
अक्टूबर के गुलाबी जाड़ों की उस गुलाबी रात को नासिरा बेगम को नींद नहीं आई।
आपको शादी कर लेनी चाहिये। अभी आपकी उम्र ही क्या है। उधर वो सोने की कोशिश करतीं और उधर कोई कान में पुकारता और वो जाग पड़तीं। ज़रा कोई दुल्हन चची से जाकर कहे कि असद ने क्या कहा है। बड़ी आईं उम्र का ताना देने वाली। कल ही जाकर बताऊँगी। क्या दोस्ती निभा रही हैं। ज़रूर जलती होंगी। मेरी हम-उम्र हैं मगर तोंद निकल आई है। आँखों के गिर्द झुर्रियाँ दिखाई देने लगी हैं। रंगत में वो आब नहीं रही। ऊपर तले पाँच बच्चे पैदा करके बहुत ख़ुश हैं। पहली मर्तबा नासिरा बेगम को ख़्याल आया कि अच्छा ही हुआ जवान के मियाँ मरियल चिड़ी-मार थे कहीं आज उनके भी दो-चार बच्चे और होते तो असद पास फटकते भी नहीं। बला से मैं दो-चार बरस बड़ी हों। देखने में तो हर्गिज़ नहीं लगती। जोश में आकर उन्होंने सिरहाने लगा स्विच दबा दिया। खट से रौशनी हुई और रात के दो बजे वो मुसहरी के मुक़ाबिल रखी हुई सिंघार मेज़ के क़द्द-ए-आदम आईने में अपने सरापा का जायज़ा लेने लगीं। उन्होंने ज़रा इतरा कर देखा, वो मशल से तीस की नज़र आती थीं। छरेरा बदन, साफ़ रंगत, बे-ऐब जिल्द, ग़िलाफ़ी आँखें जो नींदासी होकर और ज़ियादा ग़िलाफ़ी हो गई हैं। अचानक उनकी आँखों तले एक साया लहराया।
उनके कमरे की खिड़की मिसेज़ ख़ान और उनके अपने मकान के दरमियानी घास के क़ितए पर खुलती थी। ये वहम नहीं था। घास के उस क़ितए पर उन्होंने क़दमों की सरसराहट बिल्कुल साफ़ सुनी थी। ग़ालिबन यूँ अचानक उनके कमरे की बत्ती जलने पर कोई रौशनी से बच कर दबे पाँव भागा था। उन्होंने टार्च उठाई और सजा दी बुआ के शौहर को पुकारती हुई बाहर निकल आईं। वो दोनों मियाँ-बीवी बावर्ची-ख़ाने से मुल्हक़ कोठरी में सोते थे।
सामने से यासमीन आ रही थीं। बिल्ली की तरह दबे पाँव। बदन समेटे। अक्टूबर के गुलाबी जाड़ों की ख़ुनक रात में पसीने से नहाई हुई।
नासिरा बेगम के पाँव धरती ने पकड़ लिए। बेटा तुम? वो कुछ यूँ बद-हवास हो गईं कि अगर डाकुओं की पूरी फ़ौज भी घर में दाख़िल हो जाती तो भी न होतीं। फिर वो अचानक चीख़ीं, यासमीन कौन था?
चारों तरफ़ से घर जाने पर हमला कर देने वाली बिल्ली की तरह यासमीन तन कर खड़ी हो गई। उसके जिस्म की क़ौसें नुमायाँ हो गईं। और उस शदीद क्राइसिस के लम्हे में भी नासिरा बेगम को सोचना पड़ा कि उनकी बेटी वाक़ई जवान हो गई है। दुल्हन चची सच कहती हैं।
बाहर असद थे अम्मी! मगर ख़ुदा के लिए पहले पूरी बात सुन लीजिए फिर कुछ बोलिएगा। हमारी मोहब्बत पाक है। असद मुझ से शादी करना चाहते हैं। अभी तक उन्होंने आपसे कुछ नहीं कहा है। सिर्फ़ इसलिए कि वो डरते हैं कि शायद आप मुझे ग्रेजूएशन से पहले शादी के बंधन में जकड़ना पसंद न करें। और इसीलिए वो आपकी इतनी लल्लू-चप्पू करते रहते हैं कि हमारे कुंबे में घुल मिल जाएँ... और...
यासमीन ने और क्या-क्या कहा, नासिरा बेगम सुन नहीं सकीं। कटे हुए पेड़ की तरह धम्म से वो वहीं बरामदे में पड़े तख़्त पर बैठ गईं। माह-ओ-साल की जो धूल बरसाती आँधियाँ उनके क़रीब से कन्नी काट कर गुज़र जाती थीं, अब अचानक कूड़े बरसाने लगीं। पड़ोस की मस्जिद से अज़ान की आवाज़ बुलंद हुई तो नासिरा बेगम उठीं और उन्होंने कपड़ों की अलमारी में वो जा-नमाज़ तलाश करना शुरू कर दी जिसे अर्सा पहले वो कहीं रख कर भूल चुकी थीं।
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