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शोकेस वाला गुड्डा

कुंवर सेन

शोकेस वाला गुड्डा

कुंवर सेन

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    स्टोरीलाइन

    यह एक ऐसी लड़की की कहानी है, जो शादी हो जाने के बाद भी अपने पहले आशिक़ को भूल नहीं पाती। शादी के बाद का कुछ अर्सा अच्छी तरह से गुज़र गया था। फिर एका-एक रंजीत उसके सामने आ खड़ा हुआ। उसकी एक झलक ने अतीत की तमाम वाक़िआत को उसके सामने लाकर खड़ा कर दिया और उसे यूँ लगा कि जैसे अभी भी वह स्कूल के बाहर सड़क पर खड़ा उसका इंतिज़ार कर रहा है।

    कल रात तक वो सोच भी सकती थी कि इतनी सी बात उसके मन के मौसम को इस तरह तितर-बितर कर देगी। कल रात उसे बचपन की घटना याद आई। बम्बू के साथ खेलते हुए उसका गुड्डा टूट गया, बम्बू उदास हो गई। रंजना तुम्हारा गुड्डा!

    उसने बम्बू को जुमला पूरा नहीं करने दिया। उसे बाज़ू से पकड़ कर घसीटती हुई बाज़ार ले गई। बिसाती की दुकान पर शो केस में पड़े गुड्डे की तरफ़ इशारा करते हुए बोली, शाम को माँ से पैसे लेकर उसे ख़रीद लूँगी।

    लेकिन वो गुड्डा तो तुम्हारी जान था। बम्बू इसकी बे-नियाज़ी पर हैरान रह गई।

    अब वो है कहाँ? वो तो मर गया। वो हँसने लगी और बम्बू की परेशानी पर और भी ज़ोर से हँस पड़ी।

    बड़ी हो कर भी उसे गुड्डे वाला वाक़िआ नहीं भूला। कोई भी बात बड़ी होने पर भी इतनी बड़ी नहीं होती। वो सोचती... गुड्डे गुड़ियाएँ टूटती रहती हैं। ज़िंदगी फिर भी चलती रहती है। बिसाती का शोकेस कभी ख़ाली नहीं होता। कुम्हार मरता है खिलौने ख़त्म होते हैं... मन और ख़्वाब का रिश्ता अटूट है। लोग ख़्वाह-मख़ाह अपने को कोसते रहते हैं। वो नहीं जानते कि जो है उसे पूरे मन से अपनाने और जो नहीं रहा उसे भूल जाने का नाम ही ज़िंदगी है। ऐसा करने से वक़्त को हमसे शिकायत रहती है हमको वक़्त से गिला। सच्चाई यही है बाक़ी सब स्वाँग...

    टूटे हुए गुड्डे और शोकेस के सहारे ही उसने इतना बड़ा हादसा बर्दाश्त किया। अपनी शादी की रात लगन मंडप के धूँ-धूँ करते हवन कुंड में अपने वुजूद के एक हिस्से की आहूती डाल कर वो माज़ी से मुक्त हो गई। बचे-खुचे को समेट कर उसने ख़ुद को नवीन के साथ जोड़ दिया।

    कल रात से ये क्या होने लगा? शोकेस ख़ाली और सूना क्यों लगने लगा? उसमें पड़े साबित गुड्डे की जगह खेल में टूटा खिलौना कहाँ से गया। लोकेश को बीते मुद्दत हो गई। फिर वो बिसाती की दुकान में कैसे दाख़िल हुआ? उसने तो उसे गली की नूक्कड़ वाले कूड़े के ढेर पर फेंक दिया था और माँ को कह कर नया गुड्डा ख़रीद लिया था।

    लोकेश से मुक्त हो कर ही उसने नए मौसम को पहना। जाती हुई रुत का मातम करते रहना उसकी फ़ितरत थी। वो तो अपने वजूद और मुकम्मल ख़ुद सुपुर्दगी को मानती थी। अधूरी चीज़ से लगाव भी अधूरा होता है। उसी तरंग में वो लोकेश के साथ बहती चली गई। उसे क्या पता था सिर्फ़ मिट्टी का खिलौना ही नहीं हाड़-मांस का पुतला भी टूट जाता है।

    यात्रा में एक पड़ाव पर अचानक ही लोकेश अटल सच्चाई का रूप धारण करके उसे समझाने बैठ गया, रंजना अब हम दोनों के लिए कुछ भी बाक़ी नहीं बचा। इंतिज़ार बेकार है जो तै हो गया है उसे ही नाटक का अंत समझो। तुम कहा करती हो। हाथ से सरकती डोरी को पकड़े रखने के बजाए...

    थोड़ी देर तक उसकी तरफ़ देखते रहने के बाद वो बोला, आख़िरी फ़ैसला करना मेरे हाथ में था। ये बात मैंने तुमसे कभी नहीं छुपाई... मैं जानता हूँ कामना ज़ालिम है और अच्छा अक्सर कर्ब-नाक नदामत का रूप धारण करके हमारे मन को कचोकती है। फिर भी हमें अपने में लौट जाना चाहिए और तुम्हें भी...

    इससे आगे उसे कुछ सुनाई दिया। वो सन्नाटे में गई। बम्बू की उदास आवाज़ उसके वजूद में गूँजने लगी लेकिन वो उसे बाज़ार ले जाने से पहले लोकेश के होंटों को नोचने पर तुल गई... क्या अपनाईयत की इस सीमा पर पहुँच कर फ़ैसला, आख़िरी फ़ैसला, जैसे शब्दों का सहारा लेकर उपदेश देने जैसा पाप कोई दूसरा हो सकता है? लेकिन उसी वक़्त पास बैठी सरला दीदी ने उसकी तरफ़ ममता भरी नज़रों से देखते हुए कहना शुरू कर दिया,मैं तेरे दुख को समझती हूँ, रंजना। तेरा मन भी मुझसे छुपा नहीं। चार साल कालेज में इकट्ठे रहने के बाद भी क्या मैं तुझे नहीं जान सकी? लेकिन ये मामला खिलौने तोड़ने और ख़रीदने का नहीं। आज भी लोकेश अपने घर वालों के साथ खड़ा होने की हिम्मत करे तो मैं तेरे रास्ते से हट जाऊँगी।

    दीदी ने लोकेश की तरफ़ इशारा किया और बोलती चली गई, मैं तुम्हें माज़ी को भूल कर नई ज़िंदगी शुरू करने को नहीं कह सकती। अब भी तुम दोनों...

    दीदी के जुमला पूरा करने से पहले ही वो अपने में लौट आई और धरती पर बिखरे पड़े गुड्डे को बे-नियाज़ी से देखते हुए कह उठी, मेरा इतना ही दोष है कि मैं लोकेश के जीवन में उसके माँ-बाप की राह से हो कर नहीं आई। दूसरे ही पल वो बिसाती की दुकान के आगे खड़ी बम्बू को शो केस वाला गुड्डा दिखाने लगी।

    उसे अपने में डूबा देख कर सरला दीदी ने उसका चेहरा अपने हाथों में ले लिया, जो भी हो, मैं अपना जी छोटा नहीं होने दूँगी। तुमने मेरी उम्र की हो कर भी मुझे दीदी माना है। इस रिश्ते को अंत तक निभाना... रंजना तुम तो जानती हो औरत के लगाव के रूप अनेक हैं। ये तो मर्द है जो...

    दीदी की बात सुन कर वो और भी परेशान हो गई। उन्हें इस हालत में भी मुक्त मन से मुस्कुराते और बे लौस लहजे में बातें करते देख कर वो ठगी सी रह गई। फिर उसी मासूम मुस्कान के सहारे वो अपने को बटोरने लगी और उसने नवीन वाला गुड्डा ख़रीद कर ख़ुद को इसमें समो दिया। अपने को वसूल कर लिया।

    लेकिन ये तो कल शाम तक ही था। कल शाम तक मौसम ठहरा हुआ था। कोई उलझन थी कोई समस्या। वो ख़ुश थी कि उसने ख़ुद को वक़्त पर संभाल लिया। बचपन की चट्टान का सहारा लेकर खड़ी हो गई और पूरी श्रद्धा से ख़ुद को नवीन को अर्पित कर दिया। किट्टू और आशु ने उसकी राह बिल्कुल हमवार कर दी। उसे पता था कि अपने ख़ून का मोह इतना ज़्यादा होता है। बच्चों को देखती हुई वो नवीन को भी भूल सी गई। फिर हमवार लगन में ये गड़ बड़ कैसे हो गई? छोटी सी बात को लेकर वो पीछे को देखती हुई दूर तक उड़ती धूल में क्या ढूँढने लगी?

    बात सरला दीदी के हाँ शुरू हुई। लेकिन बात इतनी असाधारण थी। ऐसी बातें उसके और लोकेश के बीच अक्सर होती रहतीं। माज़ी अपना फन उठाता रहता लेकिन उसे उनको डसने का हौसला होता। कभी-कभार तो नवीन भी उसे छेड़ कर हंसने लगता। लेकिन माहौल के डाँवाडोल हो जाने की नौबत आती। तूफ़ान का तो सवाल ही क्या हवा का हल्का सा रेला भी उनको छू कर गुज़रता। सब कुछ मज़ाक़, दिल की विशालता और सहन शक्ति के दरिया में बह जाता।

    कल की बात अलग, सवाल तो आज की आँधी का था। शांत झील में चट्टान कहाँ से गिरी? वो बैठे-बैठे बिखरने क्यों लगी? गुम फोड़े का उसे कभी एहसास तक हुआ। मन बरसों से बंद पड़े कमरे के किवाड़ों पर जानी पहचानी दस्तक और उसकी बालकोनी में क़दमों की बहुत पहले सुनी चाप क्यों गूँजने लगी। अन चाहा कर्ब क्यों डसने लगा। कल शाम वो सरला दीदी के हाँ से लौटी थी तो भी उसे इस सबका पता था। बस में बैठी वो नवीन और बच्चों का सोचती रही। घर पहुँच कर उसने किट्टू और आशू से प्यार किया और नवीन से चाय को पूछ कर रसोई बनाने में जुट गई।

    लेकिन काम से निपट कर जब वो बिस्तर पर लेटी तो अपने मन पर उसके अधिकार का पोल खुलने लगा। वो अपने से उलझने लगी। सरला दीदी के घर पर हुई एक-एक बात उसे घेरने लगी। लोकेश के साथ हुई मुख़्तसर सी गुफ़्तगू उसके दिल-ओ-दिमाग़ में कनखजूरे की तरह चिपक गई। दीदी के घर से चलने से थोड़ी देर पहले वो बेडरूम में बैठी लोकेश से हंसी-मज़ाक़ में लगी थी। अचानक लोकेश गंभीर हो गया।

    आज कल तुम कौन से स्कूल जाती हो?

    वही सरोजनी नगर वाले।

    कल मैं तुम्हारे स्कूल आऊँगा।

    ज़रूर आना।

    तुम मेरे पहुँचते ही स्कूल से छुट्टी कर लेना।

    किस लिए? वो चौंकी।

    मेरे साथ आवारा-गर्दी करने के लिए।

    नहीं! चाहते हुए भी वो ग़ुस्से में गई।

    नहीं?

    हरगिज़ नहीं! उसका चेहरा लाल हो गया।

    इतने में दीदी चाय लेकर गईं। लोकेश हँसता हुआ उन्हें उसके ग़ुस्से में आजाने का कारण बताने लगा। वो सँभल सी गई। जैसे जिस बात का उसे इंतिज़ार था वो होने ही वाली हो। उसे लगा आज दीदी का मूड बिगड़ जाएगा। उनका चेहरा तमतमा उठेगा। जो बात ख़ुद उससे बर्दाश्त नहीं हुई उसे दीदी कैसे सहन कर लेंगी? लेकिन कुछ भी तो नहीं हुआ। दीदी शांत रहीं। उनकी आँखें बुझीं चेहरा ही सियाह पड़ा। चाय मेज़ पर रख कर वो हमेशा की तरह मुक्त मन से मुस्कुराने लगीं और अपने मासूम अंदाज़ में बोलीं, माज़ी भी ज़िंदगी का रंग है। उसे बहला देना भी कोई बात है भला... कुछ तो...

    दीदी की तरफ़ बौखलाई नज़रों से देखती हुई वो अंदर ही अंदर कसक उठी जैसे आज भी उसी की हार हुई हो। दीदी कोई दूसरी बात करने लगीं और देखते ही देखते सब साफ़ हो गया। लोकेश हँसने लगा। वो भी मुस्कुराने लगी। उन दोनों से विदा होते वक़्त उसे कुछ भी याद नहीं रहा। अगली बार बच्चों को साथ लाने का वादा करके वो कोठी से बाहर आगई। ये सब तो उसके अकेला होने तक था। रात की ख़ामोशी में इसके अंदर का सन्नाटा गूँजने लगा। उस गूँज में लहराती लोकेश की आवाज़ उसे बे हाल करने लगी। वो समय औरा स्थान को खोजती हुई बुद्ध पार्क, ओखला, क़ुतुब मीनार और मजनूँ के टीले की सैर पर निकल पड़ी। उन जगहों पर उसे ले जाने के लिए लोकेश अक्सर उसके स्कूल जाता। ये सुझाव लोकेश को उसी ने दिया था। जिस दिन लोकेश को आना होता वो बार-बार गेट पर जा कर बाहर की सड़क को दूर तक निहारती रहती।

    उन दिनों उसे और कुछ सूझता। लोकेश और अपनी चाहत के एक हो जाने ने उसे पागल कर दिया था। पागलपन साधना का रूप धारण कर बैठा। साधना के अडिग विश्वास में तब्दील होते ही उसका तन-मन आनंद से भर गया।

    ज़रूर मेरी साधना में जाने अनजाने कोई कमी रह गई। वो अपने मन को बिलोने लगी,वरना मैं इस हार का मुँह देखती! वो लोकेश के परेशान भोलेपन को याद करने लगी। उसी के कारण वो उसकी जानिब खिंची और उसमें डूब जाने के लिए बे-क़रार हो उठी। उसके मन ने कहा। लँगड़ी मोहब्बत तो बस श्राप होती है। अपने पर भरोसे के कारण ही उसे लोकेश के मन में कभी-कभार पैदा होने वाला शक बे मानी लगता। वो यूँही डर जाता है। उसके माँ-बाप ने मुझे उसके साथ मिलने से पहले ख़ुद नहीं देखा तो इसमें कौन सी बड़ी बात है। उसी खाई को पाटने के लिए वो अक्सर लोकेश के साथ उसके घर जाने लगी। लोकेश की माँ ने कोई एतराज़ नहीं किया लेकिन उसके बाप की आँखें उसे देख कर ज़रूर गहरी हो जातीं।

    इस नाटक का दुखांत उस शाम हुआ जब वो लोकेश के कमरे में बैठी उसके पाँव से जूते उतारते हुए उन्हें बार-बार चूम रही थी। उसी वक़्त लोकेश का बाप अनजाने ही अंदर चला आया। उन दोनों को इस हालत में देख थोड़ी देर बुत बना खड़ा रहने के बाद बोला, रंजना! मैं शादी से पहले की मोहब्बत को महज़ वासना मानता हूँ। ये आदमी के किरदार की लताफ़त का नाश कर देती है।

    ये आपका विचार है। अपनी साधना में उसके विश्वास ने ही उसे ये कहने का साहस दिया था। मैं ऐसा नहीं मानती। मेरे विचार में... वो लोकेश की तरफ़ देखती हुई उसके बोलने का इंतिज़ार करने लगी लेकिन उसने मुँह खोला। अपने बाप की आवाज़ में छुपी ज़िद को ललकारने का हौसला उसमें नहीं था। रंजना को अपनी जानिब पुकारती नज़रों से देखता पा कर उसने आँखें नीची कर लीं। उसके बाप को अपनी हालत पर रहम भरी निगाहें डालते देख कर वो लहू रोते दिल के साथ वहाँ से चली आई।

    उसके बाद लोकेश उसके पास सरला दीदी के साथ ही आया। दीदी उसकी हम उम्र और हम जमाअत थी लेकिन उस दिन उसे लगा वो उससे कहीं बड़ी हैं। उनके साथ बात करते ही वो सब कुछ भूल कर उनकी ख़ुलूस भरी मुस्कान में खो गई। अपने मन में सरसराते ज़हर का उस मुस्कान से मुक़ाबला करती हुई वो अंदर तक काँप उठी।

    क्या मैं उसे जीत सकती हूँ?

    माज़ी को अपने गर्दन में फँदा कसते देख कर वो बिस्तर से उठ खड़ी हुई। जब इतना कुछ हो चुका फिर ये सिटपिटाहट, तिलमिलाहट और माज़ी के अजगर की जकड़न कैसी! वो दूर नज़दीक का सोचने लगी। क्या मैं इस नई साधना का गला घोंट दूँ! अपना सर्वनाश करलूँ! जब कोई पाप नहीं किया तब कुछ प्राप्त नहीं हुआ। अब ये सब कुछ सोचने का पाप और उसका दंड...! वो अपने को समेटती हुई मन की सलवट निकालने लगी। लेकिन गुत्थी सुलझी सलवट निकली। रात भर स्कूल और लोकेश, लोकेश और दीदी, दीदी और ख़ुद को एक दूसरे से जोड़ती तोड़ती, हँसती खेलती, सिसकती सुबकती हुई वो पहलू बदलती रही। माज़ी को माज़ी से काटने में लगी आख़िर वो दीदी की ममता भरी मुस्कान का आंचल थामे बैठी रह गई तो उसका दिल उसकी अपनी ही समझ में आने वाली नदामत से भरने लगा। शो केस में कभी साबित सालिम गुड्डा कभी टूटे हुए खिलौने के टुकड़े।

    सुबह होते-होते नदामत उसे पूरी तरह निगलने लगी तो आधी अधूरी तैयार हो कर उसने नवीन को जगाया। पहली बार किट्टू और आशू को स्कूल भेजने की ज़िम्मेदारी उसपर डाल कर वो वक़्त से बहुत पहले बस स्टॉप पर गई। स्टॉप पर फैले सूनेपन की गोद में सरकते ही वो तिलमिला उठी, दीदी मुझे इस तन्हाई के एहसास से बचाने के लिए पता नहीं क्या-क्या करती रहती हैं। ख़ाली पन का सोचने तक नहीं देतीं। मुझमें अपने को उँडेलती रहती हैं। वो अनजानी राह पर बढ़ने लगी। आख़िर ये सब करने का उन्हें क्या हक़ है? मुझे अपनी ज़िंदगी क्यों नहीं जीने देतीं सराब की अपनी कशिश है...!

    दीदी से बिगड़ते झगड़ते उसकी बस आगई। बस में बैठते ही वो अपने को बटोरने में जुट गई। मैं कहाँ निकल गई...! वो उल्टे पाँव लौटी, मुझे नवीन को नहीं भूलना चाहिए। वो होता तो मैं भी होती।

    स्कूल पहुँच कर सबसे पहले उसने अपना टाइम टेबल देखा। ये देख कर डर सी गई कि वो ख़ाली है। उसे आज किसी क्लास को किताबें बाँटनी हैं किसी से वापस लेनी हैं। सिर्फ़ रजिस्टर पूरा करना है। ये भी कोई मामूली काम नहीं। उसने ख़ुद को तसल्ली दी। इसके लिए भी तवज्जो और वक़्त दरकार है। लाइब्रेरी का दरवाज़ा बंद करके उसने अंदर से चिटख़नी चढ़ा दी। अपनी सीट पर बैठ कर रजिस्टर खोल लिया। धीरे-धीरे ये एकांत भी उसे अपनी टोह के मार्ग पर ले चला। क़लम उसके हाथ में लटकने लगा। एक-बार फिर उसके मन में रंगों और आवाज़ों के फूल खिलने लगे। वो माज़ी के रोमांस में बहकने लगी। मंज़िल के बाद मंज़िल पार करने लगी। एक पड़ाव पर पहुँचते ही उसके पाँव में काँटा चुभ गया। वो वहीं बैठ गई। उसी दम सरला दीदी अपनी मीठी मुस्कान के साथ सामने आकर उसे दिलासा देने लगीं।

    दीदी को देख कर वो तड़प उठी। उनकी तरफ़ देखती हुई वो हारे हुए जीव की तरह बे-बसी के एहसास से भरने लगी। उनकी मुस्कान का ज़हर उसके अंग-अंग में फैलने लगा। उनके कल शाम कहे शब्द उसके कानों में गूँजने लगे। उसी पल सामने की खिड़की को अपनी आप खुलते देख कर वो झुँझला उठी और उसे बंद करने को सोच कर उठ खड़ी हुई। लेकिन पहला क़दम उठाते ही एक कसक उसके दिल को चीरने लगी। वो मुड़ी और कमरे का दरवाज़ा खोल कर तेज़-तेज़ चलती हुई स्कूल के गेट पर आगई। गेट को पार करके वो बाहर दूर तक फैली सुनसान सड़क को निहारने लगी।

    स्रोत :
    ગુજરાતી ભાષા-સાહિત્યનો મંચ : રેખ્તા ગુજરાતી

    ગુજરાતી ભાષા-સાહિત્યનો મંચ : રેખ્તા ગુજરાતી

    મધ્યકાલથી લઈ સાંપ્રત સમય સુધીની ચૂંટેલી કવિતાનો ખજાનો હવે છે માત્ર એક ક્લિક પર. સાથે સાથે સાહિત્યિક વીડિયો અને શબ્દકોશની સગવડ પણ છે. સંતસાહિત્ય, ડાયસ્પોરા સાહિત્ય, પ્રતિબદ્ધ સાહિત્ય અને ગુજરાતના અનેક ઐતિહાસિક પુસ્તકાલયોના દુર્લભ પુસ્તકો પણ તમે રેખ્તા ગુજરાતી પર વાંચી શકશો

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