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शुक्र-गुज़ार आँखें

हयातुल्लाह अंसारी

शुक्र-गुज़ार आँखें

हयातुल्लाह अंसारी

MORE BYहयातुल्लाह अंसारी

    स्टोरीलाइन

    यह एक ऐसे शख़्स की कहानी है, जो दंगाइयों के एक ऐसे गिरोह में शामिल होता है, जो एक ट्रेन को घेर कर रोक लेता है। गिरोह ट्रेन में बैठे मुसलमानों को उतार लेता है। उनमें एक नवदंपत्ति भी होता है। वह शख़्स नवदंपत्ति के दूल्हे को मार देता है और फिर दुल्हन की इल्तिजा पर उसे भी मौत के घाट उतार देता है। मरते वक़्त दुल्हन की आँखों में कुछ ऐसा भाव था जिसे वह सारी ज़िंदगी कभी भुला नहीं पाया।

    (1)

    अक्तूबर 47 से पहले मेरे सीने में टपकते हुए सात सात छाले थे और सातों ने मिलकर दिल को फोड़ा बना दिया था। माँ-बाप के क़त्ल का छाला। जवान बेटे के क़त्ल का छाला। दूध पीती बेटी के क़त्ल का छाला और जीवन संघी घर की लक्ष्मी के क़त्ल का छाला। अल्लाहु-अकबर के नारों। पाक दाढ़ियों और नमाज़ी पेशानियों ने उनके मज़्लूम जिस्मों के अंदर से किस-किस बेदर्दी से रूह निकाली है और मेरी बीवी के साथ कैसी कैसी शर्मनाक हरकतें और मासूम बच्चों का माँ की आँखों के सामने क़ीमा बनाया जाना। ओफ़्फ़ो... मैं ख़ुद कैसे बचा और बच कर कैसे शरनार्थी कैंप तक आया ये भी एक अलमिया दास्तान है और पिछली दास्तानों की तरह ज़ख़्मों और आँसूओं की लंबी लड़ी... पहले तो उन दास्तानों के बयान करने की मुझमें हिम्मत ही थी। अब हिम्मत तो है पर क़ुदरत नहीं, क्योंकि जितने अलफ़ाज़ इज़हार-ए-दर्द के मेरे पास हैं दिल उन सबको निकम्मा क़रार देता है।

    गुज़श्ता मंगल यानी मेरे पुत्र जन्म से पहले ये तमाम हौलनाक मंज़र दिन में सैंकड़ों बार मेरे दिल में आकर घूम जाते थे। जाते वक़्त मुझे खौलते कढ़ाओं में झोंक जाते थे, जिसमें जलते-जलते, झुलसते-झुलसते, मैं मुजस्सम शोला बन जाता था और फिर एटम बम बन कर सारी इस्लामी दुनिया पर गिरता था। उसे भस्म कर डालता था और ख़ुद भी भस्म हो जाता था। गुज़श्ता मंगल को मैं आधी रात तक करवटें बदलता रहा। पर पलक से पलक लगी। घंघोर घटा बरस कर निकल चुकी थी। शरनार्थी कैंप के गिर्द जुगनू जगमगा रहे थे और ज़ख़्मों को महकाने वाली हवा चल रही थी इतने में बावले पपीहे ने सदा दी। पी कहाँ! पी कहाँ! ये सदा दिल में बंदूक़ की गोली की तरह उतर गई और मुझे मेरी जन्मभूमि में उड़ा ले गई।

    हाय वो भरा पुरा घर! वो चहल पहल, हाय वो हंसी और चुहलें! हाय वो नित-नए अरमान! उन यादों से कैंप जेल ख़ाना बन गया। ज़िंदगी अँधेरी हो गई और मैं बे-इख़्तियार कैंप से निकल कर दीवाना-वार वीराने की तरफ़ चल खड़ा हुआ, मैं बहुत तेज़ी से एक सिम्त चला जा रहा था। भागा जा रहा था, भागा जा रहा था। गोया लपक कर में गुज़रे हुए दिनों को पकड़ रहा हूँ। जाने कितनी देर तक मैं चला और कितनी दूर निकल आया। एक-बार होश जो आया तो देखता क्या हूँ कि एक खन्डर ने मुझे चारों तरफ़ से घेर लिया है। वो अपने साथ बहुत सी पामाल क़ब्रें भी लाया है। बीच में एक टूटा फूटा गुंबद है जो आख़िरी तारीखों के चांद की रोशनी में अपनी इकलौती उंगली से फटे हुए बादलों की तरफ़ इशारा कर रहा है। मुर्दा मुसलमानों का स्थान! मेरे दिल में एक साथ सुकून-ओ-जलन के जज़्बात पैदा हुए। दफ़्अतन मेरी निगाह एक जा रुक गई। क़ब्रों के बीच में एक क़ब्र अंगड़ाई लेकर उठी और उठकर मेरी तरफ़ बढ़ी। मुसलमान! मैं ठट्ठा और ख़ौफ़ और इंतिक़ाम के मुख़्तलिफ़ जज़्बात की वजह से अपनी जगह मुज़बज़ब हो कर खड़ा रह गया। जब देखा कि मरने वाला बढ़ता ही चला रहा है तो कड़क कर पूछा, हिंदू हो कि मुसलमान? वो शख़्स बिल्कुल मेरे पास गया और सुकून से बोला, वो तो हिंदू है।

    वो कौन?

    यही।

    क्या यहां कोई शख़्स और भी है?

    उसने इधर उधर घूम कर देखा और फिर कहने लगा,

    नहीं तो।

    मैं तुमसे पूछता हूँ, तुम कौन हो। हिंदू हो कि मुसलमान?

    मैं? मैं? मैंने इस पर अभी तक ग़ौर नहीं किया।

    तुम झूटे हो। यक़ीनन मुसलमान हो। लेकिन डर के मारे छुपा रहे हो।

    डर किस का? क्या कोई मुझे डरा रहा है?

    ये कह कर वो शख़्स बहुत इत्मिनान से पास की क़ब्र पर मेरी तरफ़ मुँह कर के बैठ गया। उसका चेहरा उलझे बालों, ख़ाक और तिनकों का एक झुण्ड था। जिसने महीनों से पानी, कंघी या क़ैंची से मुलाक़ात नहीं की थी। ख़ुद-रौ झाड़ियों की तरह उसकी मूँछें और डाढ़ी थीं जिन्हों ने होंटों और नाक के नथनों को ढक लिया था। सर के बालों की लटें इस तरह गालों और पेशानी पर झूल रही थीं जैसे गडरिये फ़क़ीर की अलगनी पर चीथड़े। महीनों के मरीज़ की तरह उसके चेहरे पर ख़ून की छींट तक थी। लेकिन इस तमाम आख़ूर के अंदर उसकी आँखें इस तरह चमक रही थीं जैसे गहरे कुवें के नीचे मोती सा आब शीरीं। जिसमें समुंद्रों को उलट-पलट कर देने वाली आंधियां तक हल्की सी जुंबिश भी नहीं पैदा कर सकती हैं। अपनी आँखों के सुकून और एतिमाद की वजह से वो शख़्स इस फ़साद-ओ-ख़ून वाली दुनिया की मख़लूक़ ही नहीं मालूम होता था। मैं इस सुकून को देखकर घबरा सा गया। लेकिन फिर मेरा मुज़्तरिब दिल मचलने लगा कि मैं तो उसकी नज़रों के काफ़ुरी फाए अपने ज़ख़्मों पर लगाऊँगा। मैं बैठ गया और उसकी नज़रों में डूबने सा लगा। दफ़्तन उस की आँखों ने पलकों के अंदर ग़ोता मारा और कुछ इस कल से तड़प कर निकलीं कि मुझे ख़ौफ़ महसूस होने लगा। उन आँखों में सुकून और एतिमाद के इलावा कुछ और भी था कोई डरावनी और घिनौनी सी शय। उसे महसूस कर के मैंने अपने को उन आँखों के हिपनाटिज़्मी असर से आज़ाद किया और चलने के लिए उठ खड़ा हुआ। मुझे उठते हुए देखकर वो शख़्स बोला,

    तुम मुझसे क्यों नफ़रत करते हो? मैं वो तो हूँ नहीं।

    वो कौन। मुसलमान?

    नहीं। वो मुसलमान नहीं है। बल्कि उसने तो कई मुसलमानों को क़त्ल किया है और मुसलमान औरतों से मज़े लूटे हैं।

    आख़िर वो है कौन?

    वही वही। तुम उसे नहीं जानते। अच्छा तो बैठो में बताता हूँ कि वो कौन है।

    (2)

    एक ट्रेन के कम्पार्टमेंट में चालीस-पच्चास मुसलमान मर्द औरतें और बच्चे भरे हुए थे। ये सब के सब पनाहगज़ीं थे। कोई ज़ख़्मी था, कोई बीमार था। कोई फ़ाक़ों से मर रहा था। कोई घर-बार की बर्बादी पर वावेला मचा रहा था। कोई अपनों के क़त्ल पर आँसू बहा रहा था सब हौलनाक हक़ीक़त से उम्मीद मौहूम की तरफ़ जा रहे थे।

    क्योंकि ठहरने की कोई सूरत थी। क़ाफ़िले के साज़ो सामान की ये हालत थी कि अगर किसी के एक पांव में जूता है तो दूसरे में नदारद। एक जवान औरत के कपड़े इस तरह तार-तार थे कि सतरपोशी नामुमकिन थी। एक मर्द को कहीं से एक शिकस्ता लहंगा मिल गया था जिसे उसने कमर से लपेट कर तहमद बना लिया था। लेकिन किसी को इन बातों की तरफ़ तवज्जो देने की फ़ुर्सत ही थी और सकत भी थी। सब अपनी अपनी आग में ग़ोता मारे ग़ायब थे। बड़े से बड़े दुखी की पुकार। बड़े से बड़े बुज़ुर्ग की सदा उनके कानों के अंदर नहीं जा सकती थी। लेकिन एक कोने में इन्सानियत की कुछ महक भी थी। एक नई-नवेली दुल्हन अपने ज़ख़्मी दूल्हा को बड़ी बहादुरी और चालाकी से ख़ूँख़ार क़ातिलों के नर्ग़े में से निकाल लाई थी। दूल्हे के बाज़ू पर तलवार का गहरा ज़ख़्म था और वो बेहोश पड़ा था। मुसाफ़िरों में एक डाक्टर भी था। जिसने ज़ख़्म देखकर कहा था कि अगर कहीं से गर्म पानी और साफ़ कपड़ा मिल जाता तो मैं ज़ख़्म धो कर बांध देता। फिर कोई ख़तरा रहता लेकिन इस दुनिया में गर्म पानी कैसा, पीने के लिए पानी मिलना मुहाल था। दुल्हन के अफ़्शां भरे आँचल के टुकड़े से ज़ख़्म बांध दिया गया था और दुल्हन ज़ख़्मी बाज़ू को गोद में लिये बैठी थी और मेहंदी लगे हाथ दूल्हा के सर पर इस तरह फेर रही थी जैसे उससे ज़ख़्मों को भरने में मदद मिलेगी। नई-नवेली दुल्हन रो रही थी और अपना दुखड़ा सुनाने के लिए बेचैन थी। हाँ जब इस से कोई ख़ासतौर से पूछता था तो वो मुख़्तसर अलफ़ाज़ में बता देती थी कि किस तरह उस के घर पर हमला हुआ किस तरह उस का सरताज ज़ख़्मी हुआ और किस तरह वो मौक़ा पा कर अपने माँ-बाप, भाई-बहनों को ख़ुदा को सौंप कर दूल्हा को बचा कर ले भागी और पीठ पर लाद कर एक मील चल कर रेल तक आई।

    रेल चली जा रही थी और सब अपनी अपनी हालत में खोए हुए थे कि एक ज़बरदस्त धमाका हुआ और फिर रेल रुक गई। उसके रुकते ही दस-पंद्रह मुसाफ़िर जो कम्पार्टमेंट में इधर-उधर मुँह डाले पड़े हुए थे बिफरे शेरों की तरह खड़े हो गए किसी ने थैले के अंदर से और किसी ने बिस्तर के अंदर से किरपानें, तलवारें और ख़ंजर निकाल लिये और बिजली की तरह चमक कर मुसाफ़िरों पर टूट पड़े। बात की बात में दस बारह मुसाफ़िरों को ख़ून आलूद जांकनी से हमआग़ोश कर दिया। मरने वाले चीख़ने लगे और जो बच रहे थे उनकी घिग्घी बंध गई और वो सीटों के नीचे छुपने की नाकाम कोशिश करने लगे। भागने की कोई राह थी क्योंकि रेल के नीचे भी दोनों तरफ़ मुसल्लह जान लेवा सूरमा खड़े हुए कह रहे थे,

    हिंदू मत ऊंचा हो!

    महात्मा गांधी की जय!

    मुसलमानों का नाश हो!

    एक औरत भागने के लिए खिड़की से कूदी। नीचे जो सूरमा खड़े थे उन्होंने फ़ौरन उसे पकड़ लिया और जिस तरह कोई केला छीलता है उस तरह आनन फ़ानन में सूरमाओं के तजुर्बेकार हाथों ने उसे मादरज़ाद नंगा कर दिया। फिर वो मुश्ताक़ टाइपिस्ट की तरह अपनी हवस की जलन ठंडी करने लगे। एक तरफ़ लूट मार हो रही थी तो एक तरफ़ ब्रहना औरतें इकट्ठा की जा रही थीं। ताकि उनका जलूस निकाला जाये और फिर उनको शर्मनाक से शर्मनाक मौत से हम-आग़ोश किया जाये। ये सब कुछ इस तेज़ी से हो रहा था जैसे कोई ज़हीन बच्चा रटे हुए पहाड़े फ़रफ़र सुना दे। नई-नवेली दुल्हन जो ऐसे हादिसों को अपनी आँखों से एक बार पहले ख़ुद देख चुकी थी और दर्जनों बार ऐसी औरतों से सुन चुकी थी जो उनका शिकार हुई थीं। दुल्हन जानती थी कि इन बातों की इब्तिदा क्या होती है और इंतिहा क्या। वो एक नज़र में भाँप गई कि सूरत-ए-हाल क्या है और फ़ैसला कर लिया कि क्या करना चाहिए। उसने अपना दुपट्टा लपेट कर तकिया बना कर दूल्हा के ज़ख़्मी बाज़ू के नीचे रख दिया और उठकर अंदर और बाहर के सूरमाओं पर एक नज़र डाली फिर बेधड़क एक सूरमा के पास जा कर कहने लगी,

    महाशय जी, मेरी एक बिनती है।

    बिनती? हूँ। हम तो तुमको चौराहे की कुतिया बना कर छोड़ेंगे आख़िर हम अपनी माँ-बहनों का इंतिक़ाम कैसे लें? हाए-री मुसलमंटी, ये उभार... जानी!

    सूरमा ने अपने ख़ंजर की नोक दुल्हन की एक छाती में ज़रा सी चुभो दी जिससे कुर्ते पर ख़ून झलक आया। उसके मुँह से हल्की सी चीख़ निकल गई पर वो भागी नहीं। उसने इधर-उधर देखा, वो खड़ा हुआ था। दुल्हन उसकी तरफ़ मुड़ी और बोली,

    महाशय, आप ही एक औरत की प्रार्थना सुन लीजिए।

    वो कड़े तेवरों से बोला,

    तुम्हारे मुसलमान भाईयों ने भी किसी दुखी हिंदू औरत की प्रार्थना सुनी है।

    दुल्हन ने हाथ जोड़ कर लजाजत से कहा,

    मेरी प्रार्थना सिर्फ़ इतनी है कि आप मुझे उन (दूल्हा की तरफ़ इशारा कर के) के सामने अभी मार डालिए। बस मैं बहुत एहसान मानूँगी। ख़ुदा के लिए, ईश्वर के लिए।

    दुल्हन की बाशद्री का क़िस्सा वो सुन ही चुका था। शायद इस वजह से या शायद उसके गिड़ गिड़ाने की वजह से बहर-ए-हाल किसी वजह से वो पसिज गया। उसे दुल्हन पर रहम गया। उसने दुल्हन की कलाई पकड़ कर एक झटके में उसे दूल्हा के पास ला कर कहा,

    ले तेरी ख़ुशी सही।

    उसने दुल्हन के ख़ंजर का भरपूर हाथ मार दिया। दुल्हन एक चीख़ मार कर दूल्हे के पास गिर पड़ी। उसकी बुझती हुई ज़िंदगी की आख़िरी भड़क उसकी आँखों में सीता का प्रेम बन कर गई और उसने उन आँखों से शौहर को नज़र भर कर देखा। फिर घूम कर उसने क़ातिल की तरफ़ देखा। जब उसने क़ातिल की तरफ़ देखा है तो उस की प्रेम की लीक सच्ची शुक्रगुज़ारी की महक में तब्दील हो चुकी थी। कितनी शुक्रगुज़ार थीं वो आँखें...

    ओफ़्फ़ो... मानो वो कह रही थीं। तुमने मुझ बे यारो मददगार औरत पर जो एहसान किया है इसके लिए मेरा रोवां रोवां तुम्हारा शुक्रगुज़ार है। पर अफ़सोस मैं ज़बान से शुक्रिया तक नहीं कह सकती। मगर यक़ीन करो कि इसकी प्यारी याद लेकर मर रही हूँ। रुख़्सत।

    दुल्हन ने अपना दम तोड़ता हुआ हाथ दूल्हे के ज़ख़्मी बाज़ू पर रखा। पथराई हुई आँखों से उसकी तरफ़ देखा और एक हिचकी लेकर ख़त्म हो गई।

    बयान करने वाले ने अपना क़िस्सा जारी रखा। कहने लगा, एक पुरानी बात है। फ़साद और ख़ूँरेज़ी से पहले जब कभी वो अपना ख़ंजर साफ़ किया करता था तो उसको उसकी आबदार सतह के नीचे एक अक्स नज़र आता था और जब कभी उससे आँखें चार होती थीं तो वो कहता था, देख, इस आबदार ख़ंजर को, किसी कमज़ोर पर मत चलाना। जवाब में वो कहता था, मेरे मन! ऐसी बुज़दिली मेमैं कभी करूँगा।

    जाने कितनी बार इस अह्द की तस्दीक़ होती।

    जब ख़ंजर दुल्हन के सीने से बाहर आया है तो दुल्हन की शुक्रगुज़ार आँखों से उसकी आँखें भी चार हुई थीं और उसके दिल में समा गई थीं। दिन पर दिन गुज़रते गए, पर वो आँखें उसके मन में उसी तरह बसी रहीं। वो अपने हाथ की हथेलियों को देखता तो वही शुक्रगुज़ार आँखें नज़र आतीं। चांद-तारों को देखता तो वही शुक्रगुज़ार आँखें नज़र आतीं। जिस तरह घंघोर घटा बरस कर निकल जाने के बाद धनक निकल आए, ऐसा धनक जिसका हर रंग निगाहों में चुभा जा रहा हो जैसे जार्जट साड़ी में सुडौल जिस्म उसी धनक की तरह, वो आँखें उसके दिल में खुली हुई रिस्ती थीं। वो एहसानमंद आँखें, वो शुक्रगुज़ार आँखें।

    वो क्या कहती थीं? क्या पयाम देती थीं? ये उसको मालूम था मगर वो देती थीं कोई पयाम। वो आँखें चखने में मिठाई की डलियां थीं मगर ख़ासियत में राइफ़ल की गोलियां। छूने में बर्फ़ की कंकरियां थीं पर हलक़ से उतारने पर ज़हर में बुझी हुई अनियाँ।

    बयान करने वाले की नज़रों से सारा सुकून रुख़्सत हो चुका था और अब उनमें ऐसी वहशत और मज़लूमियत थी कि जी चाहता था उसकी हमदर्दी में सर फोड़ लूं। बयान करने वाला ज़रा देर के लिए ख़ामोश हो गया, फिर आसमान की तरफ़ सर उठा कर बोला,

    वो शुक्रगुज़ार आँखें। मैंने आसमान की तरफ़ देखा तो वो बादलों से घिरा हुआ था। एक तारे का भी पता था। बयान करने वाला ठंडी सांस भर कर बोला, फिर एक अजीब हादिसा पेश आया। एक रात मैंने उस पर अचानक हमला कर दिया। जब वो अपना बचाओ करने लगा तो हम दोनों में सख़्त कुश्ती हुई। आख़िर सुबह होते होते मैंने एक दाव से उसे पछाड़ा और अपने क़ब्ज़े में कर लिया। अब वो चीख़ता है, चिल्लाता, ख़ुशामदें करता है, गिड़गिड़ाता है पर मैं उसे नहीं छोड़ता हूँ। जानते हो मैं उस के साथ क्या करता हूँ?

    ये कह कर बयान करने वाले ने अपने कपड़ों के अंदर से एक ख़ंजर निकाला और मुझे दिखा कर कहने लगा, मैं उस पर बड़ा एहसान करता हूँ वो ये कि इसी ख़ंजर से उसके जिस्म को छेद छेद कर उन प्यारी प्यार शुक्रगुज़ार आँखों को नगीनों की तरह उनमें जड़ता रहता हूँ। बयान करने वाला ये कह कर हल्की सी मुर्दा हंसी हंसा। जो ज़हर ख़ंद से मुशाबेह थी और बोला, बस इतना ही क़िस्सा है।

    क़िस्से का सर-पैर मेरी समझ में आया। फिर कुछ ख़याल कर के मैंने डपट कर कहा,

    बता कि तूने उस सूरमा को कहाँ छुपा रखा है? तू ज़रूर मुसलमान है और एक बहादुर हिंदू को सिस्का सिस्का कर मार रहा है।

    उसने सादगी से मेरी तरफ़ देखा और पूछा, तुम उसे देखोगे? अच्छा ये टार्च लो। जब मैं कहूं जला देना। उस शख़्स ने तले ऊपर, तले ऊपर, जाने कितने कुर्ते पहन रखे थे। उनको आहिस्ता-आहिस्ता उतार कर बोला,

    टार्च रोशन करो।

    मैंने टार्च रोशन की तो देखता हूँ कि उस शख़्स का सीना और बाज़ू ज़ख़्मों से गुँधे हुए हैं। बा'ज़ घाव ताज़े हैं, बा'ज़ पुराने और बा'ज़ बा'ज़ तो इतने पुराने कि पक पक कर सड़ गए हैं और उनमें कीड़े बजबजा रहे हैं। वो शख़्स बोला,

    ये है वो सूरमा और ये देखो वो प्यारी शुक्रगुज़ार आँखें।

    अब जो मैंने ग़ौर से देखा तो वाक़ई उस शख़्स ने ख़ंजर की नोक से गोश्त में सैंकड़ों आँखें खोद ली थीं। वो शख़्स एक रिसते हुए ज़ख़्म को चुटकी से मल मलकर कहने लगा, यही हैं वो प्यारी शुक्रगुज़ार आँखें।

    मलने से ज़ख़्म इस तरह बहने लगा जैसे किसी सिल के मरीज़ का उगालदान उलट गया हो। उसकी आँखों में फिर वही क़ाबिल-ए-रश्क सुकून आगया। सारा क़िस्सा मेरे लिए एक ऐसा मुअम्मा था जिसका बोझ लेना दिल को गवारा था। मैंने पूछा,

    तुम ख़ुद कौन हो?

    मैं... मैं वही ख़ंजर के अंदर नज़र आने वाला अक्स हूँ।

    उस रात मैंने जाना कि बहादुर मज़्लूम लाख दर्जे ख़ुशनसीब होता है बुज़दिल ज़ालिम से।

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