स्टोरीलाइन
कहानी इक़्तेदार और ताक़त की अमलदारी को सामने लाती है। कहानी बयान करने वाला शख़्स सुलतान मुज़फ़्फ़र का वाक़िआ नवीस है जिसने उसके सहराई मुहिम के वाक़ेआत कलमबंद किए हैं जोकि उसने देखे नहीं बल्कि सुने हैं और फिर उसी वाक़ेआ को एक इतिहास-कार ने भी लिखा जिसे सुलतान के हुक्म से मरना पड़ा। सहराई मुहिम के बाद वाक़िआ-नवीस एकांत-वास में चला जाता है लेकिन फिर कुछ ही अरसे बाद सुलतानी गुमाश्ता आता है कि सुलतान ने मक़बरे का वाक़िआ कलमबंद करने के लिए तलब किया है। जबकि उसने मक़बरा तामीर होते देखा नहीं है, कहानी में ये बात अस्पष्ट है कि यह मक़बरा सुलतान का है भी या नहीं।
(1)
अब जबकि सुल्तान मुज़फ़्फ़र के मक़बरे को उसकी ज़िंदगी ही में इतनी शुहरत हासिल हो गई है कि दूर-दूर से लोग उसे देखने आते हैं, मुझको हुक्म हुआ है कि उसकी ता’मीर का वाक़िआ’ लिखूँ। इस हुक्म के साथ मेरी ख़ाना-नशीनी का ज़माना ख़त्म होता है।
ये बात कि सुल्तान का मक़बरा ता’मीर हो गया है, मुझे सुल्तान ही से मा’लूम हुई और जब सुल्तान ने मुझको ये बता दिया कि उसका मक़बरा उस वादी में नहीं बनाया गया है जहाँ उसके अज्दाद के मक़बरे हैं तो मैं समझ गया कि मक़बरा सहरा में होगा। इसलिए कि मैं उसकी सहराई मुहिम का वाक़िआ’-नवीस था और जब उसने ये बताया कि मक़बरा एक अनोखी इ’मारत है तो मैंने समझ लिया कि ये इ’मारत बग़ैर छत की होगी, ये भी इसलिए कि मैं सुल्तान की सहराई मुहिम का वाक़िआ’-नवीस था। वो मेरी आख़िरी वाक़िआ’-नवीसी थी। इसी के बा’द मेरी ख़ाना-नशीनी का ज़माना शुरू’ हुआ था।
उस ज़माने की बहुत सी बातें मैं भूल चुका हूँ लेकिन अपनी ख़ाना-नशीनी का पहला दिन मुझे इतनी अच्छी तरह याद है कि उसका हाल मैं एक मुस्तनद वाक़िआ’-नवीस की तरह लिख सकता हूँ।
उस दिन सुब्ह की सैर में मुझे मक़बरों वाली वादी के किनारे छोटे छोटे पौदे पड़े नज़र आए थे जिन्हें शायद थोड़ी ही देर पहले ज़मीन से उखाड़ कर फेंका गया था। ये छतरी की शक्ल के उन बड़े दरख़्तों के पौदे थे जिनकी क़तारों ने वादी को घेरे में ले रखा था। मुझे उन दरख़्तों का नाम नहीं मा’लूम था लेकिन मैंने कभी-कभी उनके नीचे आराम किया था। उनके तने सफ़ेदी माइल और शाख़ें घनी थीं और उनके साये में नींद आती थी। मैंने ज़मीन पर पड़े हुए पौदों को ग़ौर से देखा। उनमें से दो की जड़ें सलामत थीं। उन्हें एहतियात से उठा कर मैंने उनकी जड़ों पर बड़े दरख़्तों के नीचे की मर्तूब मिट्टी चढ़ा दी और अपने घर का रुख़ किया। घर पहुँचते-पहुँचते मैं फ़ैसला कर चुका था कि उन्हें अपने बाग़ में कहाँ पर लगाऊँगा। मैं रास्ते में रुका नहीं, अलबत्ता एक छोटी झील के किनारे से गुज़रते हुए मैंने झुक कर थोड़ा पानी चु्ल्लू में लिया और पौदों की पत्तियों पर छिड़क दिया। मेरा अंदाज़ा है कि ठीक उसी वक़्त सुल्तान का गुमाश्ता मेरे घर की तरफ़ रवाना हुआ होगा।
मैं अपने बाग़ में दोनों पौदों को बिठा चुका था और उन्हें धूप से बचाने की तदबीरें कर रहा था। उनमें से एक के गिर्द मेरे घर के बच्चों ने घेरा डाल रखा था। वो अपने खेलने की छोटी-छोटी चीज़ों से बारी-बारी उस पर साया कर रहे थे और इस नए खेल से इस क़दर ख़ुश थे कि अपनी-अपनी बारी के लिए झगड़ रहे थे। मैं दूसरे पौदे की पत्तियों पर पानी के छींटे मार रहा था कि उस पर सुल्तान के गुमाश्ते की परछाईं पड़ी। मैंने परछाईं को पहले, गमाशते के बा’द में देखा। बच्चों ने पौदे को छोड़कर गुमाश्ते के गिर्द घेरा डाल दिया लेकिन कुछ देर तक उसके लिबास को ग़ौर से देखने के बा’द वो उससे डर गए और भाग कर घर के अंदर जा छपे।
मैंने उसके लिबास को ग़ौर से देखा इसलिए कि सुल्तानी गुमाश्तों के पास उनके लिबास के सिवा कोई ज़बानी या तहरीरी पैग़ाम नहीं होता। उनकी आमद का मक़सद उनके मुक़र्ररा लिबास से मा’लूम होता है। इस गुमाश्ते की आमद का मक़सद ये बताना होता था कि सुल्तान को मुझसे कोई ख़िदमत लेना है और मुझे घर पर रह कर उसके हुक्म का इंतिज़ार करना है। ये गुमाश्ता, या इस लिबास वाला गुमाश्ता मेरे यहाँ पहले भी आता रहता था, लेकिन इस वक़्त उसे देखकर मुझको थोड़ा तअ’ज्जुब हुआ।
इसलिए कि सुल्तान की सहराई मुहिम को सर हुए ज़ियादा दिन नहीं गुज़रे थे और ब-ज़ाहिर एक मुद्दत तक इस बात की तवक़्क़ो’ नहीं थी कि उसे फिर कोई ऐसी मुहिम दरपेश हो जिसके लिए वाक़िआ’-नवीस की ज़रूरत पड़े, लेकिन सुल्तान का तवक़्क़ो’ के ख़िलाफ़ काम करना कोई ऐसी बात नहीं थी जिस पर देर तक तअ’ज्जुब किया जाता, इसलिए मेरे नज़दीक उस दिन की सबसे ख़ास बात ये थी कि मेरे लगाए हुए दो पौदों में से एक सुल्तानी गुमाश्ते के पैरों के नीचे आकर कुचल गया था, लेकिन दूसरा पौदा महफ़ूज़ था और उसके बड़े हो जाने के बा’द मैं उसके नीचे आराम कर सकता था।
(2)
मैं उसके नीचे आराम कर रहा था कि मुझे एक परछाईं हरकत करती नज़र आई और सुल्तान का एक गुमाश्ता मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। गुमाश्तों को पहचानना मुश्किल नहीं होता अगरचे उनके लिबास मुख़्तलिफ़ होते हैं। मैंने कई बार ऊपर से नीचे तक उसके लिबास की हर चीज़ को, सिलाई के धागों तक को, ग़ौर से देखा और बार-बार अपने ज़हन पर ज़ोर दिया। गुमाश्ता मेरे इस मुआ’इने को ख़ामोशी से देख रहा था और उसकी आँखों में दबी-दबी हैरत नज़र आ रही थी। आख़िर मैं उससे बात करने पर मजबूर हुआ।
“अब मेरी निगाह ठीक काम नहीं करती।”, मैंने उससे कहा।
“ज़ाहिर है।”, वो मेरे बिल्कुल क़रीब आकर बोला, “इसलिए कि मुझे देखने के बा’द भी तुम जहाँ थे वहीं हो।”
और मुझे याद आ गया।
“तलबी।”, मैंने कहा।
“फ़ौरन।”
गुमाश्ता तेज़ी से मुड़ गया। दरख़्त की एक उभरी हुई जड़ से उसे ठोकर लगी और शायद चोट भी आ गई। जब वो वापिस हो रहा था तो उसके पाँव में हल्का सा लंग था। शायद इसीलिए मैं उससे पहले घर से बाहर निकला। कुछ दूर चल कर मैं रुका और जब गुमाश्ता मुझसे चंद क़दम आगे हो गया तो मैं उसके पीछे-पीछे चलने लगा।
सुल्तान से हुक्म लेकर वापिस आते हुए मैंने अपनी पुरानी आ’दत के मुताबिक़ बाज़ारों वाला रास्ता इख़्तियार किया। कई छोटे बाज़ारों में रुक-रुक कर वहाँ की ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त को देखता हुआ मैं बड़े बाज़ार में दाख़िल हुआ। बाज़ार क़रीब-क़रीब वैसा ही था जैसा मैंने उसे आख़िरी बार देखा था, अलबत्ता मजमा’ वहाँ पहले से ज़ियादा नज़र आ रहा था। बाज़ार वालों की मुक़र्ररा जगहों में भी कोई तबदीली नहीं हुई थी इसलिए मेरी नज़र सबसे पहले उन बाग़बानों पर पड़ी जो ज़मीन पर फूल पौदे बिछाए बैठे थे लेकिन उनमें वो बूढ़ा बाग़बान दिखाई नहीं दे रहा था जिससे मैं हमेशा और कभी-कभी बिला-ज़रूरत भी पौदे ख़रीदा कराता था।
दूसरे बाग़बानों के बर-ख़िलाफ़ वो अपने माल को इस तरह तरतीब के साथ सजा कर बैठता था कि उसके सामने एक छोटा सा बाग़ लगा हुआ मा’लूम होता था। बाज़ार के दूसरे बाग़बानों की तरह वो भी सुल्तानी बाग़ों में काम करता था और उन फ़ाज़िल पौदों को बाज़ार में ले आता था जो बाग़ों की आराइशी तरतीब में ख़लल पैदा करने की वज्ह से उखाड़ दिए जाते थे।
बाज़ार के उस सर-सब्ज़ हिस्से में उस वक़्त मेरे इ’लावा सिर्फ़ एक गाहक और था। बाग़बानों ने हमें देखते ही पुकार-पुकार कर मुख़्तलिफ़ फूलों और पौदों के नाम गिनाना शुरू’ कर दिए। ये उनका दस्तूर था, लेकिन वो बूढ़ा बाग़बान इन मौक़ों’ पर ख़ामोश रहता था। उस वक़्त भी मैंने देखा कि इन बोलते हुए बाग़बानों के हुजूम में एक आदमी चुप बैठा है। मैं उसके सामने जाकर रुका तो वो ख़ामोशी के साथ अपने सामने लगे हुए पौदों को इधर से उधर करने लगा। मैंने ज़मीन पर बैठ कर यूँही कुछ पौदे उठा के देखे, फिर पूछा,
“यहाँ एक बूढ़ा बैठा करता था, पौदों को सजा कर।”
उसने इस्बात में सर हिला दिया और मैंने देखा कि दूसरा गाहक भी मेरे क़रीब आकर बैठ गया है और एक बड़े ज़र्द फूल की पंखुड़ियों को छेड़ रहा है। मैंने नौजवान बाग़बान को एक नज़र देखकर उसमें बूढ़े बाग़बान से मुशाबहत तलाश की।
“वो तुम्हारा कौन था?”
“दादा।”, उसने कहा।
“तुम भी सुल्तानी बाग़ में काम करते हो?”
उसने फिर इस्बात में सर हिला दिया।
“अपने दादा की जगह पर?”
“बाप की जगह पर।”, उसने कहा।
मैंने पूरे बाज़ार पर नज़र दौड़ाई और फिर महसूस किया कि मजमा’ ज़ियादा हो जाने के सिवा उसमें कोई ख़ास तबदीली नहीं हुई है, अलबत्ता मेरे दाहिनी जानिब जिस बड़े चबूतरे पर तमाशे दिखाए जाते थे वो पहले से कुछ ज़ियादा ऊँचा मा’लूम हो रहा था और उसके किनारे जगह जगह से कट गए थे। चबूतरे पर मजमा’ बाज़ार के दूसरे हिस्सों से ज़ियादा था लेकिन वहाँ पहले भी मजमा’ ज़ियादा रहता था। मैं फिर बाग़बान की तरफ़ मुतवज्जेह हो गया।
“बड़े दरख़्तों के पौदे नहीं हैं?”
उसने कुछ पौदे अलग करके मेरे सामने रख दिए। मैंने पौदों को सरसरी तौर पर उलट-पलट कर देखा। दूसरा गाहक अब भी ज़र्द फूल को छेड़ रहा था और उसकी दो पंखुड़ियाँ नीचे लटक आई थीं, लेकिन वो फूल के बजाए मेरी तरफ़ देख रहा था।
“तुम उसे ख़राब कर रहे हो।”, मैंने उसे बताया।
“ये मैंने ले लिया है।”, उसने बाग़बान को बताया और फूल के पौदे को खींच कर बाहर निकाल लिया।
इसके बा’द भी वो वहीं बैठा रहा। मुझे ख़याल हुआ कि किसी वज्ह से वो मेरे साथ-साथ रहना चाहता है। मैंने एक-बार उसको ग़ौर से देखा लेकिन उसकी सूरत मेरी पहचानी हुई नहीं थी। मैंने अपनी याददाश्त पर ज़ोर देकर उसे देखा लेकिन उसमें मुझे अपने किसी जानने वाले की मुशाबहत भी महसूस नहीं हुई, फिर भी वो बार-बार मेरी तरफ़ देख रहा था इसलिए मुझे उलझन सी हुई और मैं घुटनों पर हाथ रखकर उठने लगा लेकिन उसी वक़्त मेरी नज़र बाग़बान के पहलू में सब्ज़ पौदों के एक छोटे से ढेर पर पड़ी। मैं बैठ गया। फिर उठा और घूम कर बाग़बान के पहलू में आया। मैंने एक पौदे को उठा कर देखा, फिर बाग़बान से कहा
“उनकी जड़ें नहीं हैं।”
“ये लगाने के लिए नहीं हैं।”
“फिर?”, दूसरे गाहक ने पूछा
“ये लोग ले जाते हैं।” बाग़बान ने कहा, “इन्हें खिलाने के लिए” और उसने तमाशों वाले चबूतरे की तरफ़ इशारा किया। दूसरा गाहक अब मेरे पहलू में खड़ा था। उसने झुक कर उनमें से दो तीन पौदे उठाए और बाग़बान से पूछा, “इनमें क्या ख़ास बात है?”
“ज़हर।”
और मैं समझ गया कि चबूतरे पर कौन लोग तमाशा देख रहे हैं। मैंने बाग़बान से, या शायद अपने आपसे पूछा “ये लोग फिर आने लगे हैं?”
“क्या ये लोग पहले भी आते थे?” उसने मुझसे पूछा
वो पहले भी आते थे। सहरा उनका मस्कन था और हर साल तमाशों के मौसम में एक बार शहर की तरफ़ उनका फेरा होता था। वो दोपहर से लेकर सूरज ढलने तक अपना तमाशा दिखाते थे। और जब तक वो चबूतरे पर मौजूद रहते दूसरे तमाशा-गर्दों की तरफ़ कोई रुख़ न करता था। इसलिए कभी-कभी दूसरों से उनका झगड़ा भी हो जाता जिसे तमाशाई ख़त्म कराते थे।
और उन का तमाशा ये था कि वो सब कुछ खा लेते थे। तमाशाई उनके लिए ढूँढ-ढूँढ कर ऐसी चीज़ें लाते जिन्हें उनके ख़याल में कोई इंसान बल्कि कोई जानवर भी नहीं खा सकता था। लेकिन ये सहरा के रहने वाले हर चीज़ खा लेते और इसके बदले में तमाशाइयों से इनआ’म पाते थे। लोग उनका तमाशा देखकर कभी हँसते-हँसते ज़मीन पर बैठ जाते, कभी ख़ौफ़-ज़दा हो कर पीछे हटने लगते और कभी कराहत से मुँह फेर लेते। इस तमाशे से किसी-किसी तमाशाई की तबीअ’त बिगड़ जाती और उसके साथी उसे अलग हटा ले जाते, लेकिन चबूतरे पर लगा हुआ मजमा’ दोपहर से लेकर सूरज ढलने तक किसी भी वक़्त कम न होता था।
सुल्तान की सहराई मुहिम शुरू’ होने से कई मौसम पहले ही उन लोगों ने शहर में आना छोड़ दिया था। सहराई मुहिम ख़त्म होने के बा’द भी ये लोग नहीं आए। मुझे यक़ीन था कि शहर में अब उनका तमाशा कभी देखने में नहीं आएगा, लेकिन उस वक़्त वो तमाशा दिखा रहे थे और बड़े बाज़ार के चबूतरे पर मजमा’ हमेशा से ज़ियादा था। उस मजमे’ में से दो-तीन तमाशाई चबूतरे पर से नीचे कूदे और आपस में हँसी मज़ाक़ करते हुए हमारी तरफ़ आए।
“लाओ”, उनमें से एक ने हाथ बढ़ा कर बाग़बान से कहा।
दूसरे गाहक ने अपने हाथ के पौदे ज़मीन पर डाल दिए और तमाशाइयों ने दूसरे पौदों के साथ उन्हें भी समेट लिया। तमाशाइयों के वापिस जाने के बा’द मैं मुड़ा। मुझे बाग़बान की आवाज़ सुनाई दी।
“इनके ज़हर का कोई तोड़ नहीं है।”, वो कह रहा था, “इन्हें शहर के अंदर नहीं लगाया जाता।”
मैं तमाशों वाले चबूतरे की तरफ़ बढ़ गया।
(3)
सूरज ढलने में अभी देर थी। चबूतरे के क़रीब पहुँच कर मैं रुका। दूसरा गाहक मेरे बराबर से होता हुआ चबूतरे पर चढ़ गया। मैंने उसे तमाशाइयों की भीड़ में गुम होते देखा। लेकिन जब मैं बाज़ार से आगे बढ़कर सहरा के रास्ते पर मुड़ा तो वो कुछ फ़ासले पर मेरे पीछे पीछे चल रहा था। मैं ख़ामोशी के साथ आगे बढ़ता रहा। यहाँ तक कि शहर की हद ख़त्म होने के क़रीब पहुँची दूर पर सहरा का हाशिया नज़र आने लगा। मैं रुका और सुस्ताने के लिए एक पत्थर पर बैठ गया। कुछ देर बा’द वो मेरे सामने खड़ा था। मैंने सर उठा कर उसे देखा। वो भी ख़ामोशी से मुझे देख रहा था। आख़िर मैंने उससे पूछा,
“क्या मुझे पहचानते हो?”
उसने मेरे क़रीब के पत्थर पर बैठ कर अंगड़ाई सी ली।
“पहचानते हो?”, मैंने फिर पूछा।
“सुल्तान मुज़फ़्फ़र का वाक़िआ’-नवीस।”, उसने ऐ’लान करने के से अंदाज़ में कहा, “उस मक़बरे के बनने का हाल लिखने जा रहा है जिसे उसने बनते नहीं देखा।”
इसके बा’द वो यूँ चुप हो गया जैसे उसने कुछ कहा ही न हो।
“सुल्तान का कारिंदा।”, मैंने सोचा और उससे पूछा “क्या तुम मुझे अज़िय्यत देने के लिए मुक़र्रर हुए हो?”
लेकिन वो ख़ुद किसी अज़िय्यत में मुब्तला मा’लूम होता था। मुझे उसके साथ मुबहम सी हम-दर्दी महसूस हुई।
“मैं तुम्हें मक़बरे को देखते हुए देखने पर मामूर हुआ हूँ।”, उसने कहा।
“सिर्फ़ देखने पर?”
“और इस पर कि जब तुम उसकी ता’मीर का वाक़िआ’ लिख लो तो मैं उसकी तारीख़ लिखूँ।”
मुझे हैरत हुई, इसलिए कि उसकी उ’म्र ज़ियादा नहीं मा’लूम होती थी।
“सुल्तानी मुअर्रिख़?”, मैंने पूछा, “और वो जो तुमसे पहले था?”
“मुझसे पहले कई थे।”
“वो जो सहराई मुहिम के ज़माने में था।”
“उसे मरना पड़ा।”
उसी वक़्त सहरा की तरफ़ से आते हुए लोगों का एक जत्था हमारे क़रीब से गुज़रा। ये दूसरे शहरों के रहने वाले मा’लूम होते थे। फिर कुछ और जत्थे गुज़रे। सहरा की तरफ़ जाता हुआ मुझे कोई नज़र नहीं आया। कुछ देर तक हमारे आस-पास सन्नाटा रहा, फिर रास्तों पर आ’रिज़ी दुकानें लगाने वाले अपने-अपने माल के साथ तेज़ क़दमों से हमारी तरफ़ आते दिखाई दिए। हमारे क़रीब पहुँच कर उनमें से एक दो ज़रा सा रुके, लेकिन हमारा ध्यान किसी भी तरफ़ न देखकर आगे बढ़ गए। फिर मुझे अपनी जगह बैठे-बैठे महसूस होने लगा कि अब सहरा में सन्नाटा है। उसी वक़्त मेरा साथी उठ खड़ा हुआ।
“वक़्त हो गया।”, उसने कहा और सहरा की तरफ़ चल दिया।
मैंने सूरज को ढलते हुए देखा और उठकर उसके बराबर चलने लगा। हम ख़ामोशी के साथ रास्ता तय करते हुए सहरा के हाशिए तक आ गए। मुझे दूर पर एक इ’मारत का हयूला नज़र आया। उस तक पहुँचने के लिए एक लंबी सीधी सड़क बना दी गई थी। सड़क पर पत्थर की छोटी-छोटी सिलों का फ़र्श था जिसके दोनों किनारों पर पत्थर ही की नीची-नीची से ख़ानों दार दीवारें उठाई गई थीं। सड़क दोनों किनारों पर इतनी ढलवाँ थी कि उस पर जम्अ’ होने वाली रेत दीवारों के निचले ख़ानों से मुसलसल बाहर गिर रही थी जैसे शहर की बरसात में नालियों से पानी निकलता है। हम उस सड़क को भी ख़ामोशी के साथ तय करते रहे। मक़बरा अब नज़र नहीं आ रहा था और सड़क रफ़्ता-रफ़्ता बुलंद होती जा रही थी यहाँ तक कि उसका ख़ात्मा एक ऊँचे चबूतरे की सीढ़ीयों पर हुआ।
हम सीढ़ियाँ चढ़ कर चबूतरे पर पहुँचे। चबूतरे के दूसरी जानिब वैसी ही एक सड़क नशेब की तरफ़ जा रही थी। उस सीधी सड़क पर बहुत आगे जहाँ उसकी दोनों दीवारें क़रीब- क़रीब मिली हुई नज़र आ रही थीं, मक़बरा उसके रास्ते में हाइल था और ऐसा मा’लूम होता था कि सड़क एक नोक की तरह उसे चीरती हुई दूसरी तरफ़ सहरा के क़ल्ब तक पहुँच गई है।
मैं फिर थक गया था। सहरा की हवा के गर्म थपेड़े मेरी थकन को बढ़ा रहे थे। लेकिन उनमें क़रीब आती हुई शाम की ख़ुनकी भी शामिल होने लगी थी इसलिए मैंने कुछ देर चबूतरे पर सुस्ताने का फ़ैसला किया। चबूतरे का सफ़ेद-संगी फ़र्श गर्म था, फिर भी मैं उस पर बैठ सकता था। मैं बैठ गया। इतने फ़ासले से मक़बरे की इ’मारत में मुझे कोई अनोखापन महसूस नहीं हुआ। उसकी कटाव-दार मुदव्वर छत पर ढलते हुए सूरज की रौशनी पड़ रही थी। मैंने कहा,
“इसकी छत...”
“नहीं है”, मेरा साथी बोला, “सिर्फ़ दूर से नज़र आती है।”
निगराँ के इंतिज़ार में मुझको संगी फ़र्श पर कुछ देर और बैठना पड़ा। मेरा ख़याल था कि वो उसी सड़क से आएगा जिससे हम आए थे, लेकिन वो मक़बरे के पीछे से घूम कर आता दिखाई दिया। तेज़ी से चलता हुआ वो चबूतरे पर चढ़ा, रस्मी अंदाज़ में हमारे सामने झुका और आहिस्ता से पीछे मुड़ कर हमारे आगे-आगे चलने लगा। चबूतरे से मक़बरे का फ़ासिला मेरे अंदाज़े से कम था। थोड़ी ही देर में हम उसके फाटक के सामने खड़े थे। यहाँ पहुँच कर निगराँ ने बोलना शुरू’ किया। ज़मीन की पैमाइश से ले कर पत्थर की आख़िरी सिल के रखे जाने तक का हाल उसने इस तरह बयान किया जैसे मुझको मक़बरा बनते दिखा रहा हो, कहीं-कहीं तो मुझे ऐसा महसूस होने लगा कि मैं उसका कहा हुआ सन नहीं रहा हूँ बल्कि अपना लिखा हुआ पढ़ हूँ।
बयान ख़त्म करने के बा’द निगराँ चबूतरे की सिम्त बढ़ा था कि मैंने उसके सीने पर हाथ रख दिया।
“तुमने सब कुछ बता दिया है।”, मैंने कहा, “लेकिन मैं इसे देखना भी चाहता हूँ।”
फिर मैं फाटक के अंदर दाख़िल हो गया। मुझे हर तरफ़ दीवारें ही दीवारें नज़र आईं। आगे पीछे बनी हुई ऊँची ऊँची दीवारें, मुख़्तलिफ़ ज़ावियों से एक दूसरे के क़रीब आतीं, फिर दूर हो जातीं। सबसे ऊँची दीवारें सबसे पीछे थीं। ये नीम-दाएरे की शक्ल में उठाई गई थीं और यही दूर से छत का फ़रेब देती थीं। दीवारों की कसरत से और कुछ इस वज्ह से कि सूरज नीचा हो चुका था, मक़बरे के अंदर अँधेरा-अँधेरा सा था और उस पर छत का न होना महसूस नहीं होता था। दीवारों ने इधर-उधर घूमती हुई राह-दारियों की भूल-भुलय्या सी बना दी थी जिसके वस्त का पता लगाना मुम्किन न था। और जब मैंने बाहर निकलना चाहा तो मुझे रास्ता नहीं मिला। शायद इसी लिए लोग दूर-दूर से मक़बरे को देखने आते थे। मैं देर तक इन राह-दारियों में भटकता फिरा यहाँ तक कि निगराँ मुझे ढूँढता हुआ पहुँचा।
कुछ देर बा’द हम फिर उसी चबूतरे पर थे। मैंने निगराँ से कहा,
“मुझे कुछ और भी मा’लूम करना है।”
वो कुछ परेशान सा नज़र आने लगा।
“मैंने शुरू’ से आख़िर तक सब बता दिया है।”, वो आहिस्ता से बोला।
“तुमने इसे शुरू’ से आख़िर तक बनते देखा है?”
वो चुप रहा।
“इसे बनाने में सिर्फ़ शहर के लोगों से काम लिया गया था?”, मैंने पूछा।
“बा’द में सहरा वालों से भी।”
“उनका निगराँ कौन था?”
“मैं था।”
“क्या उन्हें मा’लूम था कि वो मक़बरा बना रहे हैं?”
“मा’लूम था। उन्हें पहले ही बता दिया गया था।”
“कि वो सुल्तान का मक़बरा बना रहे हैं?”
वो फिर चुप रहा और पहले से ज़ियादा परेशान नज़र आने लगा।
“मक़बरे के लिए जगह किस ने मुक़र्रर की थी?”
“सुल्तान ने। ”
“पत्थर कहाँ से आया?”
“बता चुका हूँ। मक़बरों वाली वादी के पार पहाड़ों का जो सिलसिला है...”
“वहाँ से लाया गया था, मगर किस इ’मारत के लिए?”
“वो मक़बरे में लगाया गया है।”
“मक़बरा ठीक उस जगह पर है जहाँ सहराई मुहिम वाला क़िला’ था। क़िले’ में कौन सा पत्थर इस्ति’माल हुआ था?”
उसने क़दरे हैरत से मेरी तरफ़ देखा और बोला “मुझे मक़बरे का हाल बताने का हुक्म हुआ है, क़िला’ मैंने नहीं देखा।”
“उसे गिरा दिया गया था।”, मैंने उसको बताया।
निगराँ ख़ामोश खड़ा रहा। मैंने मक़बरे की तरफ़ जाती हुई सड़क को देखा, फिर सहरा में आती हुई सड़क को। दोनों सड़कें एक सी थीं, बल्कि अगर चबूतरा न होता तो वो एक ही सड़क थी
“ये चबूतरा…”, मैंने चबूतरे के ख़ूबसूरत तर्शे हुए सफ़ेद पत्थरों पर झुक कर पूछा, “...ये चबूतरा क्यों बनाया गया है?”
“आराम करने के लिए।”, उसने जवाब दिया।
“इसके ऊपर?”
“ज़ाहिर है।”
“इसके नीचे क्या है?”
“रेत।”
“इसकी जगह भी सुल्तान ने मुक़र्रर की थी?”
“नहीं, सुल्तानी कारिंदों में से किसी ने।”, वो बोला, “मगर सुल्तान ही के हुक्म से।”
“ज़ाहिर है।”, मैंने भी कहा।
वो बार-बार सूरज की तरफ़ देख रहा था इसलिए मैंने उससे आख़िरी सवाल किया।
“मुझे ये बताना क्यों ज़रूरी नहीं था कि मक़बरे में क़िले का पत्थर इस्ति’माल हुआ है?”
“मैंने वो सब बता दिया है जो बताने का मुझे हुक्म था।”, उसने कहा, और मुझे उसके लहजे में झल्लाहट के साथ हल्के से ख़ौफ़ की आमेज़िश महसूस हुई, “इसके सिवा तुम जो कुछ लिखोगे वो मेरा बताया हुआ नहीं होगा।”
फिर वो मेरे साथी की तरफ़ मुड़ा और बोला, “और इसकी गवाही तुम्हें देना होगी।”
वो चबूतरे से शहर की तरफ़ वाली सड़क पर उतरा और उसके बाएँ पहलू की दीवार पर हाथ टेकता हुआ आगे बढ़ता गया। सड़क के ढलवाँ किनारे पर जम्अ’ होने वाली रेत उसके पैरों से मुंतशिर हो कर दीवार के निचले ख़ानों से और भी तेज़ी के साथ बाहर गिरने लगी और डूबते-डूबते सूरज की रौशनी उसके बहुत से ज़र्रे मुझे चिंगारियों की तरह चमकते नज़र आए। निगराँ के आख़िरी जुमले ने मुझे अपने साथी का वजूद याद दिला दिया था। मैंने उसकी तरफ़ देखा। उसकी उ’म्र वाक़ई’ कम थी। मैंने उससे पूछा, “तुम्हें तारीख़ लिखना किसने सिखाया?”
“किसी ने नहीं।”, वो बोला, “मैंने सिर्फ़ पढ़ा है।”
“कितना पढ़ा है?”
उसने कई इ’ल्मों के नाम गिना दिए।
“और तारीख़?”
“सिर्फ़ एक। सहराई मुहिम की तारीख़।”
मुझको सहराई मुहिम के ज़माने वाला मुअर्रिख़ याद आया। वो मेरा वाहिद दुश्मन था। मुझे उसकी आवाज़ याद आई और ये भी कि जब वो हँसता था तो उसकी आँखें अपने आप बंद हो थीं।
“तुमने कहा था उसे मरना पड़ा?”, मैंने पूछा।
“हाँ। सहराई मुहिम की तारीख़ सुल्तान को पसंद नहीं आई थी।”
“लेकिन वो बहुत अच्छा मुअर्रिख़ था।”
“उसने तारीख़ में वो सब लिख दिया था जो सहराई मुहिम के वाक़िआ’-नवीस ने लिखा था।”, वो बोला, कुछ रुका। फिर बोला, “ये बात उसने अपनी सफ़ाई में भी कही थी।”
“सफ़ाई में?”, मैंने पूछा, “और उस पर इल्ज़ाम क्या था?”
“यही। उसने तारीख़ में वो सब लिख दिया था जो वाक़िआ’-नवीस ने लिखा था।”
“उसे किस तरह मरना पड़ा?”
“किसी दरख़्त के ज़हरीले फल खा कर।”
“सुल्तान के हुक्म से?”
“उसने कोई जवाब नहीं दिया।”
मैंने फिर पूछा, “सुल्तान के हुक्म से?”
“सुल्तान के हुक्म से वो तारीख़ अब मैं लिख रहा हूँ।”
“वो अब तुम्हारे पास है?”
उसने इस्बात में सर हिला दिया।
“और वाक़िआ’-नवीस का बयान भी?”
“वाक़िआ’-नवीस का बयान भी।”
“उसे ज़ाए’ नहीं किया गया?”
“किया जाएगा, जब मैं तारीख़ लिख कर सुल्तान को पेश करूँगा, मुझे यक़ीन दिलाया गया है।”
“कहाँ तक लिख चुके हो?”
“सहरा में सुल्तान का पहुँचना...”
“और क़िले में...”
मैंने हैरत से उसकी तरफ़ देखा, और उसने एक एक लफ़्ज़ पर ज़ोर देकर कहा “कोई क़िला नहीं था, और क़िले में कोई औ’रत नहीं थी।”
मैंने और ज़ियादा हैरत से उसकी तरफ़ देखा।
“तुमने लिखा है।”, वो तेज़ आवाज़ में बोला, “मैं नहीं लिखूँगा। मुझे उसका हक़ दिया गया है।”
“इसलिए ये तुम्हारा फ़र्ज़ है।”, मैंने धीमी आवाज़ में कहा।
“मगर हम उसकी, मुहिम की बात क्यूँ-कर रहे हैं।”, उसने कहा।
फिर मुझे चबूतरा के संगी फ़र्श पर बैठते देखकर मेरी तरफ़ बढ़ा और बोला, “कुछ देर में यहाँ अँधेरा हो जाएगा।”
“मैं अभी यहीं रहूँगा।”, मैंने कहा, “शायद यहाँ मुझे सुब्ह हो जाए।”
“आज ही से लिखना शुरू’ कर दोगे?”
“नहीं। काग़ज़ मुझे कल मिलेंगे।”, मैंने कहा, फिर उसे बताया, “वाक़िआ’-नवीसी सुल्तानी काग़ज़ों पर होती है। काग़ज़ तुम्हें भी मिलेंगे लेकिन उन पर सुल्तान की मुहर नहीं होगी और वो गिन कर नहीं दिए जाएँगे।”
उसे ये बताते वक़्त मुझे ख़याल नहीं रहा कि उसके पास एक वाक़िआ’-नवीस का बयान मौजूद है और वो ख़ुद तारीख़ लिखना शुरू’ कर चुका है। उसने मेरी बात को बे-तवज्जोही से सुना, अलबत्ता अभी तक वो मुझसे ख़फ़ा-ख़फ़ा सा था लेकिन अब उसने मेरे बराबर ज़मीन पर बैठ कर मेरे कंधे पर हाथ रखा और राज़-दाराना लहजे में बोला “इस मक़बरे का बनना... क्या ऐसा नहीं हो सकता है हम दोनों इसके बनने का हाल साथ-साथ लिखें?”
“फिर तुम्हें भी अपनी सफ़ाई में कहना पड़ेगा कि तुमने वही सब लिख दिया है जो मक़बरे की ता’मीर के वाक़िआ’-नवीस ने लिखा था।”
वो कुछ देर गुम-सुम बैठा रहा। फिर मेरे कंधे पर ज़ोर देकर उठ खड़ा हुआ और बोला,
“मुझे देर हो रही है।
“तुम्हारा काम मेरे बा’द शुरू’ होगा।”, मैंने कहा, “अभी आराम करो।”
“और तुम यहीं रहोगे?”, उसने कद़्रे-तशवीश के साथ कहा, “यहाँ रात को ठंडक ज़ियादा हो जाती है।”
“मैं बर्दाश्त कर लूँगा।”, मैंने कहा, ”नहीं मक़बरे के अंदर पनाह लूँगा
उस वक़्त न मुझे ख़याल आया और न शायद उसे कि मक़बरे में सिर्फ़ दीवारें हैं
उसके जाते ही सहरा में अँधेरा फैलना शुरू’ हुआ और मेरे सामने मक़बरे की इ’मारत धुँदला गई। मैं कई बार पहलू बदल कर ज़रा आराम से बैठ गया। अब सिर्फ़ इतना मा’लूम होता था कि सामने कोई इ’मारत है और उस इ’मारत की वज्ह से मुझको ये एहसास नहीं हो रहा था कि मैं सहरा में हूँ। कुछ देर बा’द ये इ’मारत एक बहुत बड़े धब्बे की तरह रह गई और देखने वाले का तसव्वुर उसे कोई भी शक्ल दे सकता था। मेरे तसव्वुर ने उसे क़िले’ की शक्ल दी और देखते देखते मुझे उसका बुर्ज और फ़सील नज़र आने लगी। शहर की झीलों पर से वापिस होते हुए सहराई परिंदों के परों की सनसनाहट मेरे क़रीब से होती हुई दूर निकल गई और मुझे सुल्तान की सहराई मुहिम याद आने लगी। मैंने उसे भुलाना चाहा, लेकिन ये बे-सूद था।
(4)
मुझे क़िले’ के मशरिक़ी बुर्ज में बिठाया गया था, गिने हुए सुल्तानी काग़ज़ों का पुलिंदा मेरे सामने था। सफ़ेद पत्थर का एक ख़ूबसूरत मोहरा उसे दबाए हुए था ताकि हवा, जो बुर्जों पर हमेशा तेज़ रहती है, काग़ज़ों को उड़ा न ले जाए। हर काग़ज़ की पेशानी पर सुल्तान की सुनहरी मुहर... एक ताज, दो तलवारें और उन पर साया किए हुए एक छतरी... निकलते हुए सूरज की रौशनी में चमक रही थी। मुझे बुर्ज में उस वक़्त बिठा दिया गया था जब सूरज निकलने में देर थी, इसलिए मैं उन लोगों को देख नहीं सका जो मुझे बुर्ज तक लाकर ख़ामोशी से नीचे उतर गए थे। मैं सफ़ेद मुहरे पर एक हाथ रखे सूरज निकलने का इंतिज़ार कर रहा था ताकि उसकी रौशनी को हर तरफ़ फैली हुई रेत की लहरों पर दौड़ते देखूँ और इसके बा’द मेरी आँखें जो कुछ देखें मेरा क़लम उसको काग़ज़ पर ले आए।
ये मेरे लिए आसान था इसलिए कि मैं जो कुछ देखता और लिखता था उसको समझने-समझाने की ज़िम्मेदारी मुझ पर नहीं होती थी। और सहराई मुहिम के बारे में तो मुझे कुछ बताया भी नहीं गया था। मैं शहर के बाज़ारों में सिर्फ़ ये सुनता था कि मुहिम शुरू’ हो चुकी है और सुल्तान ख़ुद भी सहरा में है। फिर आधी रात के वक़्त मेरी फ़ौरन तलबी हुई और अँधेरे ही में मुझे सुल्तानी काग़ज़ों के पुलिंदे के साथ मशरिक़ी बुर्ज में बिठा दिया गया। उस वक़्त मुझे ये भी पता नहीं था कि मैं किसी क़िले के बुर्ज में हूँ या मेरे बैठने के लिए बुलंदी पर कोई आ’रिज़ी चौकी बनाई गई है ताकि सहरा में दूर-दूर तक जो कुछ हो वो मुझे साफ़ दिखाई दे। इसलिए मेरा दिमाग़ बिल्कुल ख़ाली था और मैं रौशनी का इंतिज़ार कर रहा था।
लेकिन जब रौशनी फैली तो मुझे अपने सामने क़िले की फ़सील नज़र आई। उसके पीछे ख़ामोश आसमान के सिवा कुछ न था। मेरे बुर्ज और फ़सील के दरमियान एक छत थी और उस छत पर मैंने सुल्तान को कपड़ों के एक ढेर पर झुके हुए देखा। वो उसी तरह झुका रहा यहाँ तक कि सूरज की पहली किरनें आ पहुँचीं। तब वो उठा और आहिस्ता-आहिस्ता चलता हुआ फ़सील तक गया। फ़सील उसके क़द से कुछ कम थी। उसने पंजों पर खड़े हो कर फ़सील के बाहर झाँका, फिर वो छत की तरफ़ बढ़कर खड़ा हो गया। कमर से ऊपर वो पूरा जंगी लिबास पहने हुए था जिसके फ़ौलादी हिस्सों पर सूरज की किरनें पड़ने से सितारे से चमकते थे।
“हर तरफ़ सहरा ही सहरा है।”, उसने कहा।
उसकी भारी बुलंद आवाज़ यहाँ खुली फ़िज़ा में कुछ खोखली सी मा’लूम हुई और मुझको ब-मुश्किल सुनाई दी।
“सहरा ही सहरा।”
उसने फिर कहा और मुझे गुमान हुआ कि वो मुझसे मुख़ातिब है। लेकिन उसी वक़्त मुझे छत पर कपड़ों के ढेर में हरकत नज़र आई और मैंने वहाँ पर एक औ’रत को खड़े होते देखा। उसका चेहरा उसके बालों से छिपा हुआ था इसलिए मैं उसकी सूरत नहीं देख सका लेकिन जब वो सुल्तान की तरफ़ बढ़ी तो उसकी चाल से मुझे अंदाज़ा हुआ कि वो शहर की औ’रत नहीं है। तह-दर-तह लिबास ने उसके बदन के ज़ियादा हिस्से को ढाँप रखा था फिर भी मुझको उसकी गर्दन और हाथों के कुछ ज़ेवरों की चमक नज़र आई।
“मैं देखूँ।”, उसने सुल्तान के क़रीब पहुँच कर कहा और दोनों हाथ फ़सील के ऊपर रखकर इस तरह ज़ोर लगाया जैसे वो फ़सील के ऊपर जाना नहीं बल्कि फ़सील को अपनी तरफ़ खींचना चाहती हो। सुल्तान कुछ देर तक उसकी कोशिश को देखता रहा। फिर उसने औ’रत के दोनों शाने पकड़ कर उसे ऊपर उठाया और औ’रत के चीख़ने की आवाज़ एक तरफ़ मेरे बुर्ज से टकराई और दूसरी तरफ़ दूर कहीं सहरा से आती सुनाई दी। सुल्तान ने उसे ज़मीन पर टिका दिया। औ’रत के बाल उसके जंगी लिबास के बा’ज़ नोकीले हिस्सों में उलझ गए थे और वो तकलीफ़ में थी। सुल्तान ने मुश्किल से और आहिस्ता आहिस्ता उसके बाल छुड़ाए और उसके शाने फिर पकड़ लिए।
“देखो।”, उसने औ’रत को ऊपर उठाने की कोशिश करते हुए कहा लेकिन वो तड़प कर उसकी गिरफ़्त से निकल गई।
“मुझे नहीं देखना।”, वो नफ़रत से बोली और छत पर कपड़ों के पास आकर बैठ गई। कुछ देर बा’द सुल्तान भी आकर उसके क़रीब बैठ गया और देर तक बैठा रहा। इस अजनबी मंज़र को देखकर मुझे ये भी याद नहीं रहा कि मैं बुर्ज में वाक़िआ’-नवीसी के लिए बैठा हूँ। इसलिए मैं चुप-चाप सामने देखता रहा यहाँ तक कि धूप तेज़ हुई और सुल्तान का चेहरा कुछ और सुर्ख़ हो गया।
“धूप फिर बढ़ रही है।”, उसने औ’रत से कहा, बुर्ज के पहलू की तरफ़ इशारा किया और अब शाहाना लहजे में बोला, “उधर चलो, छत के नीचे।”
“छत के नीचे नहीं।”, औ’रत ने सपाट लहजे में जवाब दिया, “वहाँ मैं मर जाऊँगी।”
और ऐसा मा’लूम होता था कि सुल्तान ये जवाब कई मर्तबा सुन चुका है, इसलिए कि वो कुछ कहे बग़ैर उठा, फ़सील तक गया और बाहर झाँक कर फिर औ’रत के पास आ गया।
“मुझे वापिस जाना होगा।”, उसने कहा, “और तुम्हें मेरे साथ चलना होगा।”
“शहर में नहीं।”, औ’रत ने फिर उसी लहजे में जवाब दिया, “वहाँ छतें होंगी।”
धूप और बढ़ी और बुर्ज पर की तेज़ हवा में गर्मी आ गई। सुल्तान ने फिर जा कर फ़सील से बाहर झाँका और बुर्ज के दूसरे पहलू की तरफ़ आकर किसी को आवाज़ दी।
“अब क्या हो रहा है?”, उसने पूछा, “बाहर कुछ ठीक दिखाई नहीं देता।”
जवाब में किसी सुल्तानी कारिंदे की आवाज़ सुनाई दी जिसमें हल्की सी गूँज थी। लेकिन मेरी समझ में नहीं आया कि उसने क्या कहा, अलबत्ता उस आवाज़ ने मुझे याद दिला दिया कि मैं सुल्तान की सहराई मुहिम का वाक़िआ’-नवीस हूँ।
“उन्हें घेरा बना लेने दो।”, सुल्तान ने कहा।
कारिंदे ने कुछ और कहा। सुल्तान बोला, “नहीं, वो साथ जाएगी”
कारिंदे के किसी और सवाल के जवाब में उसने कहा, “यादगार भी।”
उसने मुड़कर औ’रत की तरफ़ देखा, “और सबूत भी।”
इसके बा’द उसकी तवज्जोह औ’रत की तरफ़ से क़रीब-क़रीब हट गई और वो ज़ियादा-तर उसी कारिंदे से सवाल-जवाब करता रहा। कारिंदे की बात मुझे कभी सुनाई देती, कभी न सुनाई देती, कभी समझ में आती, कभी न आती, फिर भी इस तरह मुझको सहराई मुहिम की कुछ ऐसी तफसीलें मा’लूम हो गईं जिनकी वाक़िआ’-नवीसी मैं आँखों देखे मंज़रों की तरह कर सकता था। मैंने अपने ज़हन में इन मंज़रों को तरतीब देना भी शुरू’ कर दिया था कि मुझे परों की सनसनाहट सुनाई दी और छत पर साये से गुज़रते नज़र आए। इन सायों के साथ लंबी-लंबी लकीरें जुड़ी हुई थीं। साये फ़सील से आगे निकल गए तो मैंने देखा कि ये सहराई परिंदों की छोटी छोटी टुकड़ियाँ थीं, और उन टुकड़ियों का हर परिंदा तीर से छिदा हुआ था। सुल्तान ने उनकी उड़ान को हैरत से देखा। मुझे भी हैरत हुई। इसलिए कि ये परिंदे अपने लंबे परों को पूरा फैलाए हुए इत्मीनान के साथ हवा में तैर रहे थे। सुल्तान ने ब-ज़ाहिर अपने आपसे कहा, “ऐसा मा’लूम होता है ये तीरों की क़ुव्वत से उड़ रहे हैं।”
लेकिन मैं देख रहा था कि फ़सील से आगे निकल जाने के बा’द ये परिंदे पर फड़फड़ाते और हवा में लौटते हुए नीचे गिर जाते। कोई-कोई परिंदा इतनी तेज़ी से लौटता कि उसके बदन में चुभे हुए तीर से आसमान में दायरा सा बन जाता था। ये मंज़र मैं सुल्तान की शिकारगाहों में भी बारहा देख चुका था। कई और टुकड़ियाँ छत के ऊपर से गुज़रीं। सुल्तान फ़सील से पीठ लगाए उन्हें ग़ौर से देख रहा था, जैसे परिंदों का शुमार कर रहा हो। अचानक उसने कमर से ख़ंजर खींच लिया और कई क़दम आगे आया।
“इनमें एक बहुत नीचे आ रहा है।”, उसने वहीं से अपने कारिंदे को बताया, “और उसके तीर नहीं लगा है।”
उसी वक़्त मैंने देखा कि औ’रत लपकती हुई सुल्तान के क़रीब आई, सुल्तान ने उसे खींच कर अपने पीछे कर लिया और ख़ुद भी पीछे की तरफ़ ख़म हो कर ख़ंजर ताना। परों की फड़फड़ाहट सुनाई दी, एक परिंदा सुल्तान और औ’रत पर झुका, मुझे यक़ीन था कि वो फ़सील से टकरा कर वहीं पर गिर जाएगा, लेकिन उसने परों को ज़ोर से फड़फड़ाया और ऊपर उठा। फ़सील से आगे निकल कर उसने अपने पर पूरे फैला दिए और हवा में तैरता हुआ ग़ाइब हो गया। ये सब एक साथ हुआ और इसी के साथ मैंने औ’रत की चीख़ सुनी। सुल्तान का ख़ंजर उसके बालों में फँस गया था और वो फिर तकलीफ़ में थी। सुल्तान ने झटके दे देकर अपने ख़ंजर को आज़ाद किया। इसमें बालों के कई लच्छे कट कर फ़र्श पर गिरे और शायद पत्थर की हिद्दत से कुछ देर तक वहीं पर पड़े बल खाते रहे।
सुल्तान ख़ंजर ताने हुए उस परिंदे को आसमान में तलाश कर रहा था कि फ़सील से बहुत दूर पर रेत का एक बादल सा उठा और आहिस्ता-आहिस्ता सरकता हुआ फ़सील के क़रीब आने लगा और इस बार कारिंदे की आवाज़ मैंने बिल्कुल साफ़ सुनी।
“कुछ होने वाला है।”, वो कह रहा था, “अब खुली जगह पर ठहरना ठीक नहीं।”
“में भी यहाँ रहूँगा”, सुल्तान ने जवाब दिया, “उन्हें घेरा बना लेने दो।”
“कम से कम वो अंदर भेज दी जाए।”
“वो भी यहीं रहेगी।”
“शायद वो उसे मार देना चाहें।”
“नहीं चाहेंगे।”, सुल्तान ने बड़े एतिमाद के साथ कहा।
जवाब में कारिंदे ने कुछ कहना शुरू’ किया था कि उसकी आवाज़ हवा के शोर में दब गई। गर्म थपेड़ों ने मेरा अपनी जगह पर बैठे रहना दुशवार कर दिया लेकिन मैंने सुल्तानी काग़ज़ों को दोनों हाथों से दबा कर ख़ुद को पत्थर के मुहरे की तरह फ़र्श पर जम्अ’ लिया। मुझे इसकी अच्छी मश्क़ थी, लेकिन उड़ती हुई रेत से ये मेरा पहला साबिक़ा था। किरकिराते हुए ज़र्रे मुझे अपने बालों और गर्दन से हो कर पीठ तक उतरते मा’लूम हुए।
धूप जगह-जगह से धुँदला गई थी और रेत का बादल जो दूर पर उठा था, फ़सील से क़रीब-क़रीब मिल गया था। हवा का असर उस पर भी था। वो कभी दबता, कभी उभरता, कभी इधर झुकता, कभी उधर और कभी अपनी जगह पर एक बहुत बड़े बगूले की तरह घूमने लगता था। फिर उसके पीछे से कई तीर आए और सुल्तान के पैरों के पास गिर गए। सुल्तान ने उसी सुकून के साथ जो ख़तरनाक मारकों में हमेशा उसके चेहरे पर नज़र आने लगता था, झुक कर एक तीर उठाया और कुछ देर तक उसके फल को उलट-पलट के देखता रहा। उसने बाक़ी तीरों को अपनी जगह पर खड़े-खड़े एक नज़र देखा और हाथ वाला तीर कारिंदे की आवाज़ की तरफ़ फेंक कर बोला,
“इस पर ख़ून कैसा है?”
कुछ देर बा’द कारिंदे की आवाज़ आई, “ये हमारा तीर है और ख़ून शायद...”
लेकिन अचानक उसकी आवाज़ में कई और इंसानी आवाज़ें शामिल हो गईं और उसी वक़्त मुझे फ़सील पर सहराई परिंदों का झुरमुट सा नज़र आया। कारिंदे की आवाज़ की तरफ़ से तीरों की सनसनाहट सुनाई दी और परिंदों के कई गुच्छे थोड़े बुलंद हो कर फ़सील के पीछे उलट गए, लेकिन इतनी ही देर में मुझे उनके नीचे आदमियों के चेहरे नज़र आ गए थे। फिर सुल्तान की आवाज़ हुई, “उनकी कलग़ियाँ किन परों की हैं?”
उसे कोई जवाब नहीं मिला और उसकी आवाज़ फिर बुलंद हुई, “ये किन के पर हैं?”
जवाब में कमानों की तरंग और तीरों की सनसनाहट सुनाई दी और फ़सील के पीछे परों की कलग़ियाँ जल्दी-जल्दी उभरने और ग़ाइब होने लगीं।
“अब क्या हाल है?”, सुल्तान ने पुकार कर पूछा लेकिन वो शायद ऐसे मौक़ों’ पर जवाब न पाने का आ’दी था। वो आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता हुआ ज़मीन पर पड़ी हुई औ’रत के सिरहाने पहुँचा, कुछ देर तक उसे ग़ौर से देखता रहा, फिर झुका और औ’रत को एक हाथ में क़रीब क़रीब लटकाए हुए उठा।
“सब तेरे लिए।”, उसने गुर्राती हुई सरगोशी में कहा, “सब तेरे लिए।”
उसकी सरगोशी मुझको हवा के शोर के बा-वजूद सुनाई दी और इस क़त मेरी नज़र पहली बार औ’रत के पूरे खुले हुए चेहरों पर पड़ी। शायद बंद आँखों की वज्ह से वो मुझे मरी हुई सी मा’लूम हुई। सुल्तान उसको लिए हुए उस तरफ़ घूमा जिधर से कारिंदे की आवाज़ आती थी।
“इसे छत के नीचे खींच लो”, उसने पूरी आवाज़ से कहा।
औ’रत का बदन हल्के से थरथराया और उसने आँखें खोल दीं। कुछ देर तक वो बे-तअ’ल्लुक़ी के अंदाज़ में सुल्तान के चेहरे की तरफ़ देखती रही। सुल्तान की घूरती हुई आँखों में अचानक पैदा हो जाने वाली सफ़्फ़ाकी ने ब-ज़ाहिर उस पर कोई असर नहीं किया। उसने आहिस्तगी लेकिन मज़बूती के साथ ख़ुद को सुल्तान की गिरफ़्त से छुड़ाया और हल्के क़दमों से कारिंदे की आवाज़ की सिम्त चली, लेकिन सुल्तान ने बढ़कर उतनी ही आहिस्तगी और मज़बूती के साथ उसे पकड़ लिया और फिर पूरी आवाज़ कहा, “रस्सियाँ फेंको।”
उसकी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि दो-तीन रस्सियों के सिरे उसके क़दमों में आकर गिरे। उसने औ’रत की कमर और शानों को कस कर बाँध दिया। मुझे ज़ेवरों की हल्की खनक सुनाई दी, फिर मैंने रस्सियों को तनते देखा, लेकिन इसी के साथ मेरी नज़र फ़सील की तरफ़ उठ गई। रेत का बादल फ़सील के ऊपर रखा हुआ मा’लूम हो रहा था। तीरों की आवाज़ हवा की आवाज़ पर ग़ालिब थी और बादल के पीछे उभरते और ग़ाइब होते हुए परों के गुच्छे साफ़ नज़र नहीं आते थे। मैंने फिर छत को देखा। सुल्तान वहाँ तन्हा खड़ा हुआ था। एक हाथ दूसरे शाने पर रखे हुए वो किसी ख़बर का मुंतज़िर मा’लूम होता था।
उस वक़्त मुझे लम्हा भर को वहम सा हुआ कि मैं ख़्वाब देख रहा हूँ, लेकिन उसी लम्हे हवा का एक थपेड़ा मेरे मुँह पर पड़ा और गर्म रेत मेरी खुली हुई आँखों में घुस गई। मैंने सर झुका लिया और अपनी आँखों से पानी बहने दिया यहाँ तक कि उसके साथ रेत के सारे ज़र्रे निकल गए और मैं फिर से देखने के क़ाबिल हुआ। इतनी ही देर में हवा धीमी हो गई थी, रेत का बादल ग़ाइब था और फ़सील के पीछे ख़ामोश आसमान के सिवा कुछ न था। सुल्तान उसी तरह चुप-चाप खड़ा था। आख़िर कारिंदे की आवाज़ आई जिसके साथ कई आवाज़ें शामिल थीं जो सुल्तान को मुहिम के सर होने की मुबारकबाद दे रही थीं। सुल्तान ने एक हाथ ऊपर उठा कर मुबारकबाद क़ुबूल की, मुड़कर फ़सील तक गया, कुछ देर तक बाहर देखता रहा, बोला,
“सहरा ही सहरा।”
और मुझे फिर गुमान हुआ कि वो मुझसे मुख़ातिब है और छत पर सुल्तान के सिवा किसी और को न देखकर मुझे अपना गुमान यक़ीन में बदलता महसूस हुआ, लेकिन वो मेरी जानिब नहीं देख रहा था।
“सब हुक्म के मुंतज़िर हैं।”, कारिंदे की आवाज़ ने कहा।
“वापसी।”, सुल्तान ने जवाब दिया, फिर ज़रा रुक कर बोला, “और उसे बता दो, वो भी साथ जाएगी।”
“वो…”, कारिंदे की दहशत-ज़दा आवाज़ आई, “...वो ख़त्म हो गई।
सुल्तान ने फ़सील से पीठ लगा ली।
“किस तरह?”, उसने पूछा।
“कुचल कर।”
“क्या कोई छत गिर गई?”, सुल्तान ने पूछा और कई क़दम आगे आया।
“छतें अपनी जगह पर हैं।”, आवाज़ आई, “लेकिन वो कुचल कर मरी है। उसके चेहरे से ऐसा ही मा’लूम होता है। उसका चेहरा...”
“...वापसी।”, सुल्तान ने बात काट कर कहा, “रात होने से पहले क़िला’ ख़ाली हो जाए।”
“और वो?”
सुल्तान ने आवाज़ की तरफ़ देखा, मेरे बुर्ज की तरफ़ देखा, गर्दन मोड़ कर फ़सील की तरफ़ देखा, फिर शफ़्फ़ाफ़ आवाज़ बोला, “उसे सहरा में डाल दो। कुछ दिन में वो फिर रेत हो जाएगी।”
(5)
निकलते हुए सूरज की रौशनी मुझे रेत की लहरों पर दौड़ती दिखाई दी। मक़बरा मेरे सामने था। रात-भर ख़ुनकी में चबूतरे पर बैठे-बैठे मेरा जिस्म अकड़ गया था। मैंने धूप के कुछ तेज़ होने का इंतिज़ार किया और जब मेरा बदन ज़रा गर्म हो गया तो मैंने एक-बार फिर मक़बरे को क़रीब से जाकर देखा। वापसी के रास्ते को ध्यान में रखते हुए मैं उसके फाटक में दाख़िल हुआ और नीम-दाएरे में बनी हुई आख़िरी दीवारों तक पहुँच गया।
एक दीवार पर मुझे शुबह हुआ कि उसमें उस बुर्ज के पत्थर इस्ति’माल हुए हैं जिसके फ़र्श पर मुझको सहराई मुहिम की वाक़िआ’-नवीसी के लिए बिठाया गया था और वहाँ मैंने कुछ नहीं लिखा था। सहराई मुहिम की रूदाद मैंने अपने घर के बाग़ में बैठ कर लिखी थी जहाँ उस वक़्त तक कोई भी साया-दार दरख़्त नहीं था। और उस रूदाद में ज़ियादा-तर सुनी हुई बातें थीं जिनको मैंने आँखों देखे मंज़रों की तरह बयान किया था, मगर उसमें वो भी था जो मैंने बुर्ज में बैठे-बैठे अपनी आँखों से देखा था जिसकी वज्ह से एक सुल्तानी मुअर्रिख़ को, जो मेरा वाहिद दुश्मन था, मरना था।
और अब मुझे इस मक़बरे की ता’मीर का वाक़िआ’ लिखना था जिसे मैंने ता’मीर होते नहीं देखा था। उसके बनने का हाल मुझे निगराँ ने बताया लेकिन उसको बना हुआ मैं अपनी आँखों से देख रहा था। मुझे नया सुल्तानी मुअर्रिख़ और इसकी कम-उ’म्री याद आई और मैं आहिस्ता-आहिस्ता चलता हुआ मक़बरे के फाटक से बाहर आ गया। चबूतरे पर से मक़बरे की कटाव-दार छत, जो नहीं थी, ख़ूबसूरत मा’लूम हो रही थी।
मैं दूसरी तरफ़ की सड़क पर उतरा। रास्ते में मुझे लोगों के छोटे-छोटे जत्थे मिले जो दूर-दूर से मक़बरे की सैर को आ रहे थे। मेरे ऊपर सहराई परिंदों के झुंड थे जो शहर की झीलों की तरफ़ जा रहे थे। मैं किसी भी तरफ़ देखे बग़ैर बड़े बाज़ार और छोटे बाज़ारों से होता हुआ अपने घर में दाख़िल हो गया जहाँ सुल्तान का कारिंदा मेरा इंतिज़ार कर रहा था। उसने सुल्तान के मुहरी काग़ज़ों का पुलिंदा मेरे हाथ में थमा दिया। हम दोनों ने एक साथ काग़ज़ों को गिना और कारिंदा वापिस चला गया।
ये सब शुरू’ से आख़िर तक मैंने सुल्तान के मुहरी काग़ज़ों पर लिखा है जो गिन कर मुझको दिए गए हैं और गिन कर मुझसे लिए जाएँगे। वाक़िआ’-नवीस का सुल्तानी काग़ज़ों को अपने मसरफ़ में ले आना एक नया जुर्म है जिसकी सज़ा भी नई होना चाहिए। सुल्तान को सज़ाएँ ईजाद करने का सलीक़ा भी है और मैंने उन सज़ाओं की भी वाक़िआ’-नवीसी की है। लेकिन अब मुझको हुक्म हुआ है कि सुल्तान के मक़बरे की ता’मीर का वाक़िआ’ लिखूँ, और मैं समझता हूँ कि मैंने इस हुक्म की भी ता’मील कर दी है, अगरचे ख़ाना-नशीनी के दौरान की बहुत से बातों के साथ मैं वाक़िआ’-नवीसी के क़ाएदे भी भूल सा गया हूँ। अपनी ख़ाना-नशीनी की मुद्दत भी मैं नहीं बता सकता, लेकिन इस सारी मुद्दत का हासिल छतरी की शक्ल का ये दरख़्त है जिसके नीचे मैंने बहुत आराम किया है। इसकी जड़ से लेकर फूल तक और फल के छिलके से लेकर गुठली के गूदे तक हर चीज़ में ज़हर ही ज़हर है। शायद इसीलिए इसके साये में नींद आती है।
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