ताँगे वाला
स्टोरीलाइन
एक ताँगे वाले की कहानी, जो अपनी बीवी को गोटे का दुपट्टा तो नहीं दिला सका। मगर ईद के दिन उसने अपनी पसंद का एक घोड़ा ख़रीद लिया। उसकी बीवी मर गई और वह रंडुवा अपने घोड़े के साथ रहने लगा। वह उससे बहुत मोहब्बत करता था और उसके खान-पान का पूरा ख़्याल रखता था। जैसे-जैसे वक़्त बीता उसे तंगदस्ती का सामना करना पड़ा। तंगी के दिनों में वह अपना सारा दुख दर्द अपने घोड़े को ही सुना देता। घोड़ा भी अपने भाव-भंगिमा से ज़ाहिर कर देता कि वह अपने मालिक के दर्द को समझ रहा है। फिर एक वक़्त ऐसा भी आया जब उसे साईं के क़र्ज की क़िस्त देने के लिए घोड़े के साथ-साथ खु़द भी फ़ाक़ा करना पड़ा।
शाह मुहम्मद के तकिए का एक हिस्सा काट कर अस्तबल बना लिया गया था। ये सब कुछ जबरन हुआ। आख़िर रमज़ान की छाती भी तो चौड़ी थी और इस देव-हैकल जवान को देखकर सबके हौसले जवाब दे जाते थे। फिर जबर का ये क़िस्सा और भी तवील हो गया। कबूतरों के दड़बे से लेकर मज़ार तक लीद बिखरी रहती थी। लीद बिखेरे रमज़ान का घोड़ा और उठाए मुसल्ली। जिस किसी की नाक में बदबू आती वो लीद उठा देता। रमज़ान को तो घोड़े से सरोकार था। अलबत्ता घोड़े के थान को वो शीशे की तरह चमका कर रखता था।
कमेटी में शायद किसी की शुनवाई न हो सकती थी। रमज़ान अपने ताँगे पर दारोगा को दरिया की सैर मुफ़्त करा लाता था। दारोगा कहता, हमारे राज में रमज़ान को सब छुट्टी है।” रमज़ान समझता, दारोगा का राज अटल है। उसकी आँखों में अस्तबल फिर जाता। तसव्वुर में घोड़े का थान और भी चमक उठता। मुहब्बत के एक नए अंदाज़ से वो घोड़े की तरफ़ देखता और सोचता कि दारोगा को शायद ये हरकत अच्छी न लगे। वर्ना वो ताँगे से उतर कर घोड़े की आँखों में झाँकता और उसका सर अपने सीने से लगा लेता।
घोड़े का नाम था ईदू। आदमी के खलनडरे बच्चे की तरह उसे कुलेलें करते देखकर रमज़ान को यक़ीन हो गया था कि बड़ा हो कर ये इबलक़ बछेरा एक ख़ूबसूरत और होशयार घोड़ा निकलेगा और जब वो ईद के दिन उसे ख़रीद लाया था तो देर तक वो उसके दाँतों का मुलाहिज़ा करता रहा था। आख़िर वो चार पुश्त से कोचवान था और घोड़ों के मुता’ल्लिक़ उसकी वाकफ़ियत गोया मुसल्लिमा थी। ईदू को नहलाते वक़्त रमज़ान के हाथ उसकी काली मख़मली पुशत पर फिसलते चले जाते। उसके सफ़ेद हाथ पैर वो मल-मल कर धोता और फिर उसका मुँह खोल कर देखता कि दूध के दाँत अभी कितने बाक़ी हैं और ईदू अपनी थूथनी रमज़ान के सीने पर थपथपाने लगता। जैसे कह रहा हो, “अभी से मुझे ताँगे में जोतने की बात मत सोचो! रमज़ान मियां। अभी तो खेलने मचलने के दिन हैं मेरे। पाँच साल की उ’म्र से पहले मुझे अपने ताँगे में न जोतना। फिर देखना, मेरे फेफड़े कितने मज़बूत होजाते हैं और मैं कितना भागता हूँ।” रमज़ान कहता, “अब नहाओगे भी आराम से या यूँही मुफ़्त की शरारत किए जाओगे ईदू बेटा?” मगर ईदू न मानता और रमज़ान अपनी मुश्की दुल्हन को पुकारकर कहता, “अरी अब इधर आ देख, समझा दे इसे ज़रा। पर तूने ही तो इसे सर चढ़ा रखा है, इस की पीठ पर हाथ फेर फेर कर।”
मुश्की दुल्हन क़रीब आ कर कहती, “तुम हट जाओ, मैं ख़ुद नहलाऊँगी। अपने बेटे को, तुम्हें तो मज़ा आता है इस बेचारे की शिकायतें करने में।”
और रमज़ान कहता, “ले सँभाल अपने बेटे को।”
अपने मुख़्तलिफ़ बेढंगे तरीक़ों से ईदू अपनी मुहब्बत का इज़हार करने की अहलियत रखता था। पछाड़ी को वो अ’जीब अंदाज़ से उछालता था और रमज़ान को देखकर हिनहिनाने लगता था और रमज़ान कहता, “बस ठहर जा बेटा! अभी आया। तेरे लिए बहुत अच्छा मसाला मंगवाया है। खायेगा तो ख़ुश हो जायेगा।” लेकिन ईदू इतनी आसानी से मानने वाला न था, लगातार हिनहिनाये जाता। जैसे कह रहा हो, “दूर मत जाओ, रमज़ान मियां। मसाला तो फिर भी आ सकता है। बस मैं तुम्हें देखता रहूं, तुम्हारी बातें सुनता रहूं।” रमज़ान कहता, “अरे बेटा! बेसब्र नहीं हुआ करते। ज़रा सी देर में लौट आऊँगा बस।” ईदू हिनहिनाना छोड़ देता। मगर आज़ुर्दा सा होजाता और फिर यूं मा’लूम होता कि वो अभी चटख़ कर कह देगा, “अच्छा हो आओ बाहर देर मत लगाना।” और ईदू की ख़ूबसूरत थूथनी ज़मीन की तरफ़ झुक जाती।
गुज़श्ता साल से रमज़ान रंडवे की ज़िंदगी गुज़ार रहा था। बीवी बेचारी गोटे के दुपट्टे तक के लिए तरसती रही थी। ज़माने के गर्म-ओ-सर्द ने रमज़ान को बहुत सताया था। साईं जी का उधार अलग बढ़ गया था। कहाँ से ले देता गोटे का दुपट्टा अपनी मुश्की दुल्हन को? ले देकर अब वो ईदू ही से जी बहला लेता था। इस समझदार, हमदर्द ईदू की बजाय उसके पास वही पहला मरियल घोड़ा होता तो उसकी ज़िंदगी एक ख़ामोश गर्म दोपहर बनी रहती।
अस्तबल में बैठे-बैठे अक्सर रमज़ान की आँखें मिच जातीं, जैसे वो कोई ख़्वाब देख रहा हो। उस वक़्त उसे महसूस होता कि ईदू की आँखें भी मिच गई हैं और वो दोनों बैकववक़्त मुश्की दुल्हन को देख रहे हैं। ईदू के गले में बाहें डाल कर वो पूछता, “सच्च सच्च बताओ ईदू बेटा तुम्हें मुश्की दुल्हन तो याद आती होगी, जो हर रोज़ सुबह तुम्हें निहारी खिलाया करती थी।”
सात साल के लंबे अ’र्से में मुश्की दुल्हन के कोई बच्चा न हुआ। बाँझ ही वो ज़मीन के नीचे क़ब्र में जा सोई। किसी-किसी रात रमज़ान को यूं महसूस होता कि उसकी गर्दन पर किसी बच्चे की ग़ैर मरई उंगलियां रेंग रही हैं, जैसे क़ब्र में मुश्की दुल्हन की कोख हरी हो गई हो और अल्लाह की रहमत से उसका बच्चा अपने बाप के अस्तबल में आन पहुंचा हो और वो सोचता कि ये सब ईदू की दुआ’ओं का नतीजा है। आगे बढ़कर उसके ख़्वाब में और भी दिलचस्प मंज़र पेश-ए-नज़र होता। वो देखता कि उसका बच्चा अकेला नहीं है। शहर भर के बच्चे किल बिल करते उसकी तरफ़ देख-देखकर मुस्कुरा रहे हैं और ईदू हिनहिना रहा है, जैसे कह रहा हो, “रमज़ान मियां देखो तो ये नज़ारा और बताओ कि इन सब में ख़ूबसूरत बछेरा कौन सा है?”
ये सब ख़्वाब उसके सोए हुए सागर की लहरों को जगा देते थे। लोग समझते थे कि रमज़ान पहलवान है और कुछ झूट भी न था। मगर ये भी तो सच था कि बीवी की मौत के बाद उसकी रूह ने एक थरथर कंपकंपी का रूप धार लिया था जिस तरह ये परिंदा जंगल में बैठा यूँही काँपता रहता है। इस की रूह भी मुश्की दुल्हन की याद में लरज़ती रहती थी।
“आठ सेर तो गेहूँ का आटा है, ईदू बेटा!” रमज़ान अपनी तंगदस्ती की कहानी छेड़ देता, जैसे हैवान का बेटा इन्सान के ग़म को ठीक-ठीक समझने की सलाहियत रखता हो। एक दिन तो साढे़ पाँच सेर तक हो गया था आटा, ईदू बेटा! ये तो सरकार को रहम आगया कि आठ सेर रुपये का भाव ठहरा दिया और ईदू अपनी ख़ूबसूरत थूथनी ऊपर उठाकर रमज़ान की तरफ़ देखता, जैसे कह रहा हो, “घबराओ मत, रमज़ान मियां, आटा फिर आजाएगा अपने पहले भाव पर रुपये का पंद्रह सेर।” लेकिन रमज़ान सर झुकाकर बैठ जाता। उसे यूं महसूस होता कि कोई मकड़ी उसके दिमाग़ में अपना जाला तन रही है। ईदू हिनहिनाता, जैसे कह रहा हो, “वाह! रमज़ान मियां ख़ूब पहलवान हो तुम भी। अरे मियां हौसला रखो, ये तकलीफ़ें हमेशा तो नहीं रहतीं।” रमज़ान का सर ऊपर उठ जाता। ईदू अपनी पछाड़ी उछालता और रमज़ान की तरफ़ देखने लगता। जैसे कह रहा हो, “मुझे नहारी भी तो नहीं मिलती रही रमज़ान मियां, लेकिन कुछ परवा नहीं। मैं तुम्हारे लिए सौ-सौ मील भागुंगा, ख़ून पसीना एक कर दूंगा।”और ईदू बहुत भागता और ख़ून पसीना एक कर देता। लेकिन रमज़ान की आमदनी जिसे वो हवाई रिज़्क़ समझता आया था, इन दिनों बहुत गिर गई थी। ताँगे का साज़ बहुत पुराना था। नए रबर टायरों की अब कोई उम्मीद न थी। उनकी क़ीमत बहुत बढ़ गई थी। ज़माना बदल गया था, जैसे रात ही रात में मौसम बदल जाये और साईं जी की क़िस्तों की फ़िक्र उस के दिमाग़ को छलनी किये देती थी।
ईदू का कुमलाया हुआ चेहरा देखकर रमज़ान अपने को मुजरिम गर्दानने लगता। कहाँ वो उसे रोज़ाना डेढ़ मन हरा चारा और चार सेर दाना खिलाया करता था। लेकिन अब तो उनकी क़ीमतें बहुत बढ़ गई थीं। पंद्रह आने का हरा चारा आता था और आठ आने का दाना और रमज़ान उसे पूरी ख़ुराक तो दूर रही आधी ख़ुराक भी न दे पाता था। उसे अपने आपसे नफ़रत होने लगी और अब उसे यूं महसूस होता कि उसके दिमाग़ में ईदू की आख़िरी लीद दाख़िल हो रही है और उसके पेशाब की धार भी ज़रूर उसी के दिमाग़ पर गिरेगी। बेग़ैरतआदमी। भूके घोड़े से काम लिये जाता है, जिसे वो अपना ज़रख़रीद ग़ुलाम समझता है।
भूक बहुत सताती, तो रमज़ान को अपने पेट में एक आतशगीर लावा पैदा होता महसूस होता और वो सोचता कि ईदू के पेट में भी लावा भड़क उठेगा, वो ताँगे को रोक लेता, लेकिन ये कोई ईलाज थोड़ी था और ग़ज़ब ख़ुदा का, फ़ाक़ाज़दा लोगों की तरफ़ देखते हुए भी उसे ये महसूस होता कि ये लोग उसे घूर रहे हैं और कह रहे हैं, “कम्बख़्त! ख़ुद तो मरेगा ही भूक से पुर ग़रीब घोड़े को भी क्यों मारता है अपने साथ। इसे बेच क्यों नहीं देता?”
लेकिन ईदू को बेचने का ख़्याल रमज़ान को सिरे से नामंज़ूर था। वो बहुत उदास रहता। ग़ुस्ल तो ग़ुस्ल कई कई दिन वो मुँह तक न धोता। हत्ता कि उसे महसूस होने लगा कि उसके मैले जिस्म की निचली तहों में भी दुनिया भर की ग़लाज़त भरती जाती है। उसकी ख़ाकी क़मीस और साफे पर कीचड़ का रंग चढ़ गया था शायद उसकी रूह पर भी।
भूक और ग़लाज़त में खोए हुए से रमज़ान ने महसूस किया कि जंग की ख़बरें एक मक़नातीसी क़ुव्वत रखती हैं, जिसके सामने उसके रग-ओ-रेशे लौह-ए-चून के ज़र्रों की तरह खड़े होजाते हैं।
“जानते हो जर्मन वाला क्या कहता है ईदू?” उसने पूछा।
ईदू ख़ामोश रहा और रमज़ान बोला, “जर्मन वाला कहता है कि रूस वाला उसका सिक्का माने।”
थोड़ी देर बाद ईदू ने सर हिलाया और थूथनी घुमा कर रमज़ान की आँखों में तकने लगा। जैसे कह रहा हो, “ये कोई नई ख़बर नहीं है रमज़ान मियां, शहर के चौथे दरवाज़े के बाहर रेडियो के हलक़ से मैं भी जंग की गर्मा-गरम ख़बरें सुन लेता हूँ।”
जंग की तबाह कारियों की ख़बरें सुनते हुए रमज़ान को अपनी तकलीफ़ें बे-हक़ीक़त और हेच नज़र आने लगतीं। अस्तबल में बैठ कर हुक्के का कश लगाते हुए वो सोचता कि जर्मनी एक बहुत बड़ा ताँगा है जिस पर सवार हो कर हिटलर रूस में से गुज़रना चाहता है। लेकिन जब एक दिन किसी सवारी की ज़बानी उसे पता चला कि रूसी किसान, मज़दूर, दो हज़ार मील लंबी दीवार बनाकर हिटलर का रास्ता रोके खड़े हैं और हिटलर सारा ज़ोर लगाकर भी अब इस इन्सानी दीवार को तोड़ कर आगे नहीं बढ़ सकता तो उसे बहुत ख़ुशी हुई और अस्तबल में पहुंच कर वो हुंकार उठा! “रूस की सड़क पर हिटलर के ताँगे के नए रबर टायर भी काम न देंगे” और ईदू हिनहिनाया, जैसे कह रहा हो, “मेरे लिए तुम्हारी कोई भी ख़बर नई नहीं हो सकती रमज़ान मियां!”
रमज़ान सोचता कि हिटलर की हार हो जाएगी तो ये जंग ख़त्म हो जाएगी। ये राय उसने सवारीयों की बातें सुन-सुन कर बनाई थी। जंग ने हर चीज़ के दाम चढ़ा दिये थे। सैंकड़ों हज़ारों मील दूर लड़ी जाने वाली जंग के भयानक पंजे अभी से ग़रीबों के मुँह से रोटी छीन रहे थे। उसे ईदू की धुंदली-धुंदली आँखों में ग़म और ख़ौफ़ गले मिलते दिखाई देते, जैसे वो जंग में मरने वालों की चीख़ पुकार सुन रहा हो...एक लहज़ा ब लहज़ा बढ़ती हुई पुकार, जैसे एक अ’जीब लेकिन शदीद डर उसकी रूह को अपनी आहनी मुट्ठी में दबा रहा हो।
ख़ारपुश्त के कांटों की तरह लटकते हुए सर के लंबे बालों में शायद रमज़ान ने कभी उंगलियों से भी कंघी न की थी। उसकी छाती का माप भी अब घट चला था। लेकिन मुसल्ली को ये हस्ब-ए-मा’मूल इंच ब इंच पूरी नज़र आती थी पूरी चालीस इंच। रमज़ान अब उसे कभी-कभार दरिया की तरफ़ मुफ्त घुमा लाता और कबूतरों के दड़बे के क़रीब से लीद उठाते वक़्त मुसल्ली के अंदाज़ में रक़्स की सी कैफ़ियत दिखाई दे जाती और कभी मुसल्ली ईदू की पीठ पर हाथ फेर देता तो वो उसकी तरफ़ थूथनी घुमा कर हिनहिनाता, जैसे कह रहा हो, “मैं तुम्हें जानता हूँ, मुसल्ले।”
एक दिन रमज़ान रात को ग्यारह बजे अस्तबल में वापस आया। मुसल्ली ने बताया कि ईदू के लिए हरी घास का कठ्ठा लेने की कोशिश करता रहा, पर कोई घसियारन उधार पर रज़ामंद न हुई। ईदू ने दो-चार मर्तबा अपने मालिक के दाएं बाज़ू पर थूथनी थपथपाई, जैसे कह रहा हो, “कुछ परवा नहीं रमज़ान मियां! में बग़ैर कुछ खाए ही रात काट लूँगा।”
रमज़ान पसीना-पसीना हो रहा था। तकिए के क़रीब ही वो एक दुकान के सामने ताँगा रोक कर तीन तंवरी रोटियाँ ख़रीद कर ताँगे पर बैठा-बैठा निगल गया था। लेकिन ईदू जो भूके पेट नई आबादी तक सालिम सवारी लेकर गया था और भूके पेट ही वहां से लौटा था, अब रात-भर भूका रहेगा। रात बहुत जा चुकी थी। इस वक़्त तो दाना भी न मिल सकता था।
रमज़ान सोचने लगा कि आधी रात के बाद फ़रिश्ता आएगा और पूछेगा, “तुम्हें कोई शिकायत तो नहीं है, ज़मीन पर चलने वालो, अपने मालिक से?”
और ईदू कह देगा, “आसमान पर रहने वालो, हमें शिकायत क्यों होती?”
फ़रिश्ता ईदू के क़रीब आकर कहेगा, “तुम्हारे मालिक के लिए अब मैं दुआ’ करता हूँ। तुम भी दुआ’ में शामिल हो जाओ मेरे साथ।”
और ईदू मेरे लिए दुआ’ में शामिल हो जायेगा। क्योंकि सिर्फ फ़रिश्ते की दुआ’ ख़ुदा की बारगाह में क़बूल नहीं होती। हर रात को फ़रिश्ता आता है और घोड़े से यही सवाल करता है। मालिक की मा’मूली बदसुलूकियों की तो कोई भी घोड़ा शिकायत नहीं करता। लेकिन ईदू कितना नेक घोड़ा है कि भूके पेट चौदह मील का सफ़र करने के बाद भी उसे खाने को कुछ नहीं मिला और फ़रिश्ते के सामने मेरे ख़िलाफ़ एक भी लफ़्ज़ मुँह पर ना लाएगा। हालाँकि वो कह सकता है कि वो भूका खड़ा है और उसके मालिक ने उसके देखते-देखते तीन तंवरी रोटियाँ खालीं।
रमज़ान को नींद न आती थी। दिन भर के मुशाहिदे और तजुर्बे अलग-अलग शक्लें धार कर उसके सामने फिरने लगे। अँधियारे में ईदू का मुँह साफ़-साफ़ नज़र न आसकता था, खाट से उठ कर वो उस के क़रीब गया। वो बदस्तूर खड़ा था। उसकी थूथनी पर हाथ फेरते हुए वो बोला, “अब सो भी जाओ ईदू बेटा! फ़रिश्ता आये तो ये मत कह देना कि तुम भूके हो।”
ईदू ने थूथनी न हिलाई, न वो हिनहिनाया ही। ईदू ऊँघ रहा है, ये सोच कर रमज़ान फिर अपनी खाट पर आगया। वो ख़ुशपोश नौजवान, जो दस आने से शुरू करके बड़ी मुश्किल से बारह आने में सालिम ताँगा लेकर नई आबादी गया था, रमज़ान की आँखों में फिरने लगा। वो उससे बहुत जल्द मानूस हो गया था। रमज़ान ने उसे बताया था कि वो एक रंडुवा है। फिर उसने मुश्की दुल्हन के लिए गोटे का दुपट्टा न ले सकने, ईदू की ईद के दिन ख़रीदने और दारोगा की बेगार काटने का सब हाल उसे तफ्सील से कह सुनाया था और ख़ुशपोश नौजवान ने हमदर्दी जताते हुए कहा था, “काश, तुम रूस में पैदा हुए होते, कोचवान।” ये सुन कर कि रूस में सब ताँगे सोवियत सरकार के हैं, ताँगे ही क्यों, रेलें और मोटरें भी, उसे बहुत ख़ुशी हुई थी। नौजवान ने सर हिलाते हुए कहा था, “सब चीज़ें रूस में लोगों के लिए हैं। सब मिल कर अपने-अपने हिस्से का काम, खेत में हो या कारख़ाने में सरअंजाम देते हैं। सबको भूक लगती है, कोई भूका नहीं रहता। सबको सोवियत के होटलों से खाने को मिल जाता है।” और रमज़ान ने सोचा, रूस में सच-मुच बहुत मज़ा होता होगा। फिर उसकी पलकें बोझल होने लगीं, दिमाग़ की बत्तियां टिमटिमाने लगीं। वो नींद के धारे में बह गया, बहता गया...
उसने देखा कि आसमान से रोटियाँ बरस रही हैं। वो बहुत ख़ुश हुआ। सदियां गुज़रीं कि हज़रत मूसा की क़ौम के लिए मन-ओ-सल्वा उतरा करता था आसमान से। अब ये रोटियाँ बरस रही हैं। ये नए ज़माने का मन-ओ-सल्वा है। सब ग़रीबों के लिए अच्छी ख़ैरात है ख़ुदा की, अब कोई भूका तो नहीं रहेगा। वो रोटियों की तरफ़ लपका।
पता चला कि ये रोटियाँ नहीं हैं बल्कि गोल-गोल चौड़ी-चौड़ी पाथियाँ हैं रोटियों की शक्ल के उपले! तौबा, तौबा , अल्लाह मियां भी ख़ूब मज़ाक़ करने लगे हैं ज़मीन वालों के साथ...
उसकी आँख खुल गई। अल्लाह की ला’नत इन रोटी नुमा पाथियों पर। वो फ़ौरन उठ कर बैठ गया। ईदू उसका मुँह ग़ौर से तक रहा था। जैसे कह रहा हो, “मुझे रात-भर नींद नहीं आई रमज़ान मियां, तुमने भी रतजगा किया होता तो एक अ’जब तमाशा देखा होता। मैं तो हैरान रह गया। आसमान से रोटियाँ बरसने लगीं। यहां वहां रोटियाँ ही रोटियाँ नज़र आती थीं। मगर पेशतर इसके कि तुम जाग उठते और मुझे खोल देने पर रज़ामंद होजाते, रोटियाँ जाने किधर गुम हो गईं।” रमज़ान ने सोचा कि शायद इन्सान की तरह हैवान को भी ख़्वाब आते हैं।
मुसल्ली कुछ हरी घास और दाना ले आया तो ईदू हिनहिनाने लगा। सूरज की किरनें छन-छन कर उस के स्याह मख़्मली बुत पर पड़ रही थीं। मुसल्ली ने क़रीब आकर दाने वाला बठ्ठ्ल ईदू की खोली में रख दिया। ईदू फिर हिनहिनाया, जैसे कह रहा हो, “जब भी कोई ख़मीरी गुलगुला कह कर तुम्हारा मज़ाक़ करता है, मैं चाहता हूँ उसे काट खाऊं, मुसल्ली और वो शख़्स रमज़ान ही क्यों न हो... सवा गज़ छाती वाला छः फुट ऊँचा देव-हैकल रमज़ान, मुसल्ली बोला, “जीता रह ईदू! अल्लाह रसूल की अमान।”
अपनी जेब में हाथ डालते हुए रमज़ान ने मुसल्ली को अपने पास बुलाया। रमज़ान बहुत मुतमइन नज़र आता था...
एक दिन, दो दिन, पाँच दिन, बड़ी मुश्किल से रमज़ान ने आठ रुपये बारह आने जोड़े थे कि दस रुपये की क़िस्त की अदायगी का वक़्त आन पहुंचा। साईं जी आ धमके और इधर-उधर की गुफ़्तगु की मंज़िलें तय करने के बाद असली तान दस रुपये पर टूटी। पहले तो रमज़ान के जी में आया, कि साईं जी से कह दे कि उसके पास सिर्फ पाँच रुपये हैं जो वो बखु़शी दे सकता है। बाक़ी के पाँच रुपये चंद रोज़ ठहर कर अदा करेगा और हत्त-उल-वुसा कोशिश करने पर भी अदा न कर सका तो अगली क़िस्त दस की बजाय पंद्रह की हो जायेगी। लेकिन पेशतर इसके कि वो ऐसी कोई बात शुरू करता साईं जी कह उठे, “तुम्हारी क़िस्तों का तो कुछ झगड़ा नहीं है, रमज़ान मियां, लेकिन तुम तो सेयाने हो। वक़्त पर हर क़िस्त अदा कर दी जाये तो ज़्यादा आसानी देने वाले ही को रहती है।”
रमज़ान ने ईदू की तरफ़ देखा, जैसे उसकी राय मांग रहा हो। बेज़बान ईदू की आँखों में रमज़ान ने उस के जज़्बात पढ़ लेने की विद्या सीख ली थी। उसकी सिफ़ारिश यही मा’लूम होती थी कि जेब की सब नक़दी, पैसा-पैसा साईं जी के सामने ढेरी कर दी जाये और रमज़ान ने यही किया।
साईं जी ने रक़म गिन डाली। उनके चेहरे पर एक वहशियाना हंसी फूट निकली।
“बात कैसे बनेगी, रमज़ान मियां, दस रुपये की ज़रूरत है और सवा रुपये की कमी रह गई है।”
रमज़ान का दिमाग़ सोचने से रुक गया था। वो चौंक पड़ा। “सवा रुपये की कमी रह गई है। पैसा-पैसा तो ढेरी कर दिया साईं जी। अब क्या कहते हो?”
“यही कि सवा रुपये की कमी रह गई है।”
रमज़ान को ऐसा मा’लूम हुआ जैसे कोई उसके दिमाग़ में दाख़िल हो कर उसकी सबसे अहम बाल कमानी से नोच रहा हो, जैसे उसके दिल में सुराख़ किया जा रहा हो, ताकि उसका सब ख़ून निकाल लिया जाये। उसने ईदू की तरफ़ देखा। उसकी सिफ़ारिश यही मालूम होती थी कि कल शाम का वा’दा कर लिया जाये और उसने यही वा’दा कर लिया।
साईं जी के चेहरे पर ज़िंदगी की लहर दौड़ गई और वो कबूतरों के दड़बे के क़रीब पड़ी हुई लीद की तरफ़ देखते हुए बाहर निकल गये।
ईदू हिनहिना रहा था। उसकी हिनहिनाहट में उसकी सारी ख़ुद्दारी की चमक मौजूद थी। वो रमज़ान की तंग-दस्ती से वाक़िफ़ था। लेकिन शायद वो हमेशा एक ख़ुद्दार कोचवान के ताँगे में जुतने की ख़्वाहिश रखता था। रमज़ान का सर झुक गया था, जैसे सदियों की घनी ढेर क़िस्तों ने अपना सारा बोझ उसकी गर्दन पर डाल दिया हो।
नमनाक आँखों से रमज़ान ने ईदू की तरफ़ देखा। ईदू ने अपनी थूथनी रमज़ान के कंधे पर रख दी और फिर धीरे-धीरे उसे सहलाने लगा जैसे कह रहा हो, “सवा रुपया भी कुछ चीज़ होती है रमज़ान मियां? क्यों घबराते हो?” और रमज़ान ने सर उठाकर ईदू की आँखों में उसके जज़्बात पढ़ लिये। “अच्छा ये सवा रुपया अब तुम्हारे ज़िम्मे रहा, ईदू बेटा!”
अगले रोज़ रमज़ान शाम को अस्तबल में पहुंचा, तो उसकी जेब में सिर्फ़ एक रुपया था। उसकी हालत कम-ओ-बेश एक हारे हुए जुवारी की सी थी जिसकी तक़दीर को साँप सूंघ गया हो।
ताँगे से खोल कर ईदू को उसके थान पर बाँधा गया तो वो पछाड़ी उछाल उछाल कर थान की ज़मीन सूँघने लगा, जैसे वो मिट्टी खाने पर तैयार हो गया हो। एक पिटे हुए गधे की तरह उसके जिस्म का बंद बंद दुख रहा था। वो चाहता था कि रमज़ान उसके जिस्म पर मालिश करके उसकी तकान दूर कर दे। लेकिन रमज़ान की अपनी तकान भी तो आज कुछ कम न थी। वो नमनाक आँखों से रमज़ान को तकने लगा, जैसे कह रहा हो, “तैयार होजाओ, रमज़ान मियां, साईं जी आते ही होंगे।”
रमज़ान ने फ़ैसला किया कि साईं जी को कुछ न दे। यूँही टाल मटोल कर दे। वो खाट डाल कर बैठ गया और मुसल्ली हुक्का ताज़ा करके छोड़ गया था।
ईदू बहुत उदास था उसकी बेकार रहने वाली, ज़ंगआलूद आँतें बाहर आया चाहती थीं। इबलक़ के बेटे को इन्सान से कई गुना ज़्यादा भूक लगती है। बेचारा ईदू। उस की थूथनी पर पसीने की बूँदें फूट आईं। धीरे-धीरे उसने अपने पेट को अंदर पिचकाना शुरू किया। भूक तो बढ़ रही थी, बढ़ती आरही थी और उसकी आंत आंत में बर्मा घुमाकर छेद कर रही थी।
रमज़ान भी उदास था। साईं जी लाख बुलाया करें, वो उनसे बोलेगा ही नहीं आज, घुन्नी साध लेना कुछ मुश्किल थोड़ी है। मत मारी गई है साईं जी की। बहुत दिक़ करते हैं। कोई किसी के रुपये रख तो नहीं लेता। कुछ भी तो सब्र नहीं है, उसने अपने ज़ेह्न में झांक कर देखा, वहां धुंदली सपेदियाँ पैदा हो रही थीं ज़हर की सपेदियाँ। आज साईं जी बच कर न जायेंगे। ज़रा सी बस उनकी ज़बान दराज़ी की देर होगी और ये पहलवानों का सरदार कोचवान उन्हें ठीक कर देगा। आज वो अपने ईदू के सामने अपनी जवाँमर्दी का सबूत देगा।
और साईं जी आगये। वो चुप-चुप से नज़र आते थे। वो रमज़ान की खाट पर बैठ गये। रमज़ान के ज़ेह्न की ज़हरीली सपेदियाँ जाने किधर दबी रहीं। उसने सोचा कि कोई नर्म सी बात कह कर टाल मटोल कर दे लेकिन उसके होंट न हिले, जैसे गोल कुनडली मारे यूं ख़ामोश बैठा रहेगा हमेशा हमेशा।
“क़िस्तों का मतलब यही होता है रमज़ान।” साईं जी बोले कि “रक़म आसानी से उतर जाये।”
रमज़ान ने बेदिली से सर हिलाकर कहा, “हाँ, साईं जी।”
“या’नी एक क़िस्त का थोड़ा सा बक़ाया भी दूसरी क़िस्त में शामिल न होना चाहिए और साफ़ बात तो ये है कि इसमें ज़्यादा फ़ायदा मक़रूज़ ही का मंज़ूर होता है।”
“हाँ साईं जी!” रमज़ान ने ईदू की तरफ़ आँख घुमाते हुए जवाब दिया और ईदू हिनहिनाया जैसे वो अपने मालिक के साथ किसी तरह की नाइंसाफ़ी पसंद न करता हो और इस बात से जल रहा हो कि रमज़ान ने आख़िर शराफ़त का पल्लू क्यों पकड़ रखा है इतनी मज़बूती से? क्यों नहीं धत्ता बता देता, इस कम्बख़्त साईं जी को?
“तुम्हारी ईमानदारी, तुम्हारी दानाई और सबसे बड़ी बात है तुम्हारी शराफ़त।” साईं जी ने पैंतरा बदल कर कहा। “उनमें तो मुझे कभी कोई शक नहीं गुज़रा?”
“आप मालिक जो हुए।” रमज़ान ने नर्म हो कर कहा।
“लेकिन क़िस्त की अदायगी तो ज़रूरी है वक़्त पर , रमज़ान मियां!” साईं जी ने रमज़ान के कंधों पर हाथ टेक कर कहा। “और ये बात मैं अपनी ही ग़रज़ से थोड़ी कहता हूँ। जल्दी इस बोझ से छुटकारा पाने का बस यही एक तरीक़ा हो सकता है।”
“आज तक तो किसी ने मुझ पर ठीकरा नहीं फोड़ा, साईं जी!”
“यही तो मेरा भी ख़्याल है।” साईं जी ने उसकी आँखों में तकते हुए कहा और उसकी खाट से उठ खड़े हो गये।
जेब से रुपया निकाल कर रमज़ान ने साईं जी के सामने फेंक दिया।
“और चवन्नी।” साईं जी ने रुपया उठा कर कहा।
रमज़ान ने ईदू की तरफ़ देखा। वो थूथनी हिला रहा था, जैसे कह रहा हो। रुपया तो तुम दे ही बैठे रमज़ान मियां, अब कल चवन्नी भी मारना साईं जी के माथे से और रमज़ान ने कल का वा’दा कर लिया।
साईं जी जा चुके थे, रमज़ान ने महसूस किया कि उसे चारों तरफ़ से नाउम्मीदी ने घेर रखा है। सदियों की बेशुमार क़िस्तों में आख़िर एक रुपये की अदायगी से कितना फ़र्क़ पड़ सकता है? वो बहुत उदास था, जैसे उसका दिल बुझ जाएगा... टिमटिमा कर अस्तबल के चिराग़की तरह।
ईदू अपने थान पर भूका बंधा था। रमज़ान उसके सामने शर्मिंदा नहीं होना चाहता था। बग़ैर बिस्तर बिछाए ही वो खाट पर गिर पड़ा। उसने करवट भी न बदली। पीठ तो तख़्ता हो गई थी। कोई और वक़्त होता तो वो ईदू ही की तरह हिनहिनाने लगता। वो थका-हारा निढाल पड़ा रहा। वो चाहता था कि सो जाये। तने हुए पेट पर तो नींद दौड़ी चली आती है। जाने आज वो किधर ग़ायब हो गई थी।
फिर मुसल्ली आन पहुंचा। कहीं से वो दो रोटियां और अचार की फांक ले आया था।
“रमज़ान, ओ मियां रमज़ान!” दिल में गुदगुदी सी महसूस करते हुए वो बोला, “देख तेरे लिए रोटियाँ लाया हूँ। तो भूका क्यों रहे आख़िर। तेरे क़रीब ही मैं सो जाऊं एक पेट से ज़्यादा खाकर। ना बाबा ये तो न होगा मुझसे, आख़िर मैं इस क़ुतुब आज़म के मज़ार का मुजाविर हूँ और मैं अल्लाह और उसके क़ुतुब से डरता हूँ।”
रमज़ान का ख़्याल फ़ौरन मन-ओ-सल्वा की तरफ़ दौड़ गया। मुसल्ली रोटियां रखकर चला गया था। रमज़ान ने सोचा, आख़िर भेज ही दिया न मेरे अल्लाह ने और मुझे किसी का दरवाज़ा खटखटाने की नौबत नहीं आई। उस वक़्त ईदू के हिनहिनाने की आवाज़ रमज़ान के कानों में आई। आज ईदू किस तरह रमज़ान की आख़िरी चवन्नी के लिए दरिया तक चला गया था। इस वक़्त रमज़ान ने मन-ओ-सल्वा का एक टुकड़ा मुँह में डाल लिया था। लेकिन झट से उसने लुक़्मे को हथेली पर उगाल कर दूर कुँवें की मुंडेर पर फेंक दिया और बोला, “जब तक तेरे लिए दाना, तेरे लिए मन-ओ-सल्वा नाज़िल नहीं होता, में खाना नहीं खाऊंगा, ईदू बेटा!” और रमज़ान ने काग़ज़ को लपेट कर एक तरफ़ रख दिया और ज़बरदस्ती अपनी पलकों के किवाड़ बंद करने लगा।
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