तकमील
अलताफ़...छोटी छोटी और मुड़ी तुड़ी पर्चियों की बंद मुट्ठीयाँ खोल कर उनमें सिमटी हुई सामने फैले हुए सादा काग़ज़ को हथेली पर जमा करता जा रहा था। ये हिसाब-किताब करते अचानक उसे याद आगया कि कितने साल और कितने महीने बीत गए हैं जो वो अपने दोस्तों से नहीं मिला है। खासतौर से वो दोस्त जो बहुत क़रीब थे मगर उसी की बेमुरव्वती के सबब दूर हो गए हैं। दोस्तों का ध्यान आते ही उसका बेइख़्तियार जी चाहने लगा कि वो उनको मिले। उनके दरमियान बैठ कर मामूल के मुताबिक़ फ़ुज़ूल क़िस्म की बातें करे ताकि...हुई, एक मुद्दत से अपने ही माहौल में बंद रहने से ताल्लुक़ात पर काई की तरह बेगानगी छा गई है, उसमें शिगाफ़ पड़े और जिस अकेलेपन् ने अंधे कुँवें में रहने वाले जिन्न की सूरत इख़तियार कर ली है उसी वजह से दोस्त तो अलग रहे उसके रिश्तेदार भी उसको मग़रूर या सनकी समझ कर अलग अलग ही रहे हैं। वो अपने बारे में मशहूर होती हुई इस बदगुमानी को दूर कर दे। सबसे मेल-मुलाक़ात करे और बता दे कि कुछ मजबूरियाँ थीं जिनकी बिना पर वो अपनी ही ज़ात से बेगाना हो के रह गया था।
दिनों बाद अलताफ़ को महसूस हुआ कि ज़हन पर हमा वक़्त छाई रहने वाली धुंद छट रही है। इस बोझल सी कैफ़ियत से नजात पाने के ख़्याल ही से ख़ुद को हल्का-फुलका महसूस करने लगा था।
दोस्तों से मुलाक़ात में इतने तवील वक़फ़े की वजह उसकी मस्रूफ़ियत थी और इसका सबब उसकी बीवी।
अलताफ़ ने वालिदा की मन्नत के साथ डाँट-डपट और फिर धमकियों के सामने सर झुका कर निकाह पढ़वा लिया था और शादी की पहली ही रात साफ़ साफ़ लफ़्ज़ों में बीवी के सामने अपनी माली हालत बयान कर दी थी और बीवी को बता दिया था कि अगर उसे दुनिया में किसी बात से शदीद नफ़रत है तो वो क़र्ज़ है। वो भूका रह सकता है और रहा भी है मगर क़र्ज़ मांगने के लिए उसने कभी किसी के सामने दस्त-ए-सवाल दराज़ नहीं किया। क़र्ज़ से नफ़रत का सबब भी बयान कर दिया था। क़र्ज़ मुहब्बत की कतर ब्योंत नहीं करता बल्कि क़र्ज़ख़्वाह के चेहरे पर ऐसी मिक़राज़ बन कर बैठ जाता है जिसको देख देखकर उधार लेने वाले का दिल खटकता रहता है। उसके वालिद ने क़र्ज़ लेकर कारोबार शुरू किया, क़र्ज़ लेकर मकान बनाया और जब ज़िंदगी का क़र्ज़ अदा कर के वो पर्दापोश हो गए तब...क़र्ज़-ख़्वाहों ने जो रवैय्या इख़तियार क्या उस रवैय्ये ने इन्सान का एक ऐसा रूप दिखाया कि वो डर गया। फिर उसने तमाम कारोबार को ख़त्म किया। एक चश्म फ़रोश कंपनी में मुलाज़मत की। मकान बेचा। फिर भी क़र्ज़ की थोड़ी बहुत सूरत बा,ज़ लोगों के चेहरों से ऐसे झाँकती रही कि उसकी नींदें हराम हो गईं। तब उसने रतजगे किए, फ़ाक़े काटे। अपनी तालीम छोड़ी, किताबें तक बेचीं। अब वो इन्सान को सिर्फ़ अपने अज़ीज़ों और दोस्तों की शक्ल में देखना चाहता है, इसीलिए अलताफ़ ने शादी के पहले ही रोज़ अपनी बीवी से मुहब्बत का और वफ़ादारी का वा'दा लेने की बजाय इस बात का अह्द लिया कि वो कभी किसी से भी क़र्ज़ नहीं लेगी।
शादी हुए तेरह बरस गुज़र गए। तीन बच्चे भी हो गए। बीवी के साथ मुख़्तलिफ़ मुआमलात पर तल्ख़ व तुर्श बातें भी हुईं। दो-चार दिन बोल-चाल भी बंद रही। मगर अलताफ़ को ये शिकायत कभी न हुई कि बीवी ने आमदनी कम होने की शिकायत करते हुए कहीं से क़र्ज़ लेकर अपनी कोई ज़रूरत पूरी की हो। इस तेरह बरस के अर्से में अलताफ़ की तनख़्वाह तीन गुना बल्कि चार गुना बढ़ गई थी मगर वो इस हक़ीक़त से भी वाक़िफ़ था कि तनख़्वाह के साथ महंगाई का फ़ासिला भी वही रहा है जो अब से तेरह बरस पहले था बल्कि तनख़्वाह को पीछे छोड़कर महंगाई दस बीस क़दम आगे ही रही है।
क़र्ज़ न लेने की वजह से और लगी बंधी आमदनी में सुघड़पन से गुज़ारा करने के बाइस अलताफ़ को अपनी बीवी सारी तुनक-मिज़ाजी और कम अक़ली के बावजूद बहुत अज़ीज़ थी, लेकिन एक दिन सारा भरम खुल गया।
अलताफ़ की बीवी ऐसे भाईयों की बहन है जिनका वसीअ कारोबार है। मुतमव्विल लोगों में शुमार होते हैं और जिन्होंने जहेज़ के नाम पर अपनी इकलौती बहन को मकान तक दिया है। ...तक़रीबात या तहवारों पर अब भी उसके बीवी-बच्चों को अच्छी ख़ासी रक़म दे दी थी। अलताफ़ को इस कभी-कभार के लेन-देन पर कोई एतराज़ भी नहीं था। हाँ, शादी के शुरू के दिनों में उन लोगों ने कोशिश की कि वो उनके साथ ही रहे। तब अलताफ़ ने इनकार किया था फिर उन्होंने कई बार इस ख़्वाहिश का भी इज़हार किया था कि अलताफ़ अपनी मौजूदा मुलाज़मत छोड़ दे और उनके साथ कारोबार में शरीक हो जाये। लेकिन वो जानता था कि क़र्ज़दार की और एहसानमंद की आँखों में ज़्यादा फ़र्क़ नहीं होता । वो गर्दन झुकाने का क़ाइल न था तो ऐसा ठिकाना कैसे पसंद कर लेता। चुनांचे इस पेशकश को भी उसने क़बूल नहीं किया।
चंद रोज़ पहले बेटे ने ज़िद की कि वो साईकल लेगा। अलताफ़ को उसकी किफ़ायत-शिआरी ने बच्चों को बहलाना भी सिखा दिया था, सो उसने चंद मीठी-मीठी बातें कर के बेटे को मीठी गोली खिला दी। मगर दूसरे ही दिन घर में साईकल की घंटी बज रही थी।
अब्बू मेरी साईकल आगई। बेटे के लहजे से ख़ुशी छलक रही थी।
कहाँ से... मामूं ने दिलवाई है?
नहीं...अम्मी लाई हैं।
तुम्हारी माँ!
जी...
अब उसने बीवी से तस्दीक़ चाही तो उसने लहज़ा भर के लिए आँखें झुका लीं। हाँ, मैंने घर के ख़र्च में से कुछ पैसे बचाए थे।
अलताफ़ बीवी के झिजकते अंदाज़ से समझ गया कि आज पहली बार उससे कोई बात छुपाई जा रही है, तब उसने बीवी को क़रीब बिठा के सच्च बात कहने की हिम्मत दिलाई।
बीवी रोने लगी। फिर तेरह बरस की सारी शिकायतें एक एक कर के उसकी ज़बान पर आगईं। बीवी ने एतराफ़ कर लिया कि एक मर्तबा अपने भाईयों से अलताफ़ की कम तनख़्वाह का गिला किया था तब से हर महीने वो इतनी रक़म दे जाते हैं कि उसका हाथ कभी तंग नहीं होता।
अलताफ़ के लिए ये इत्तिला तकलीफ़दह हद तक चौंका देने वाली थी। वो जिस बीवी के तवक्कुल पर मान करता था और अपने दफ़्तरी साथीयों के दरमियान बैठ कर फ़ख़्रिया अंदाज़ में जिसकी तारीफ़ करता रहता था वो अपने ही भाईयों के सामने हाथ फैला कर उसकी तज़लील का बाइस बनेगी। इस बात का तो अलताफ़ को गुमान भी नहीं था। बीवी के शिकवे को उसने अपनी हतक जाना। तक़रीबात के बहाने जो तोहफ़े तहाइफ़ दिये जाते थे वो उनके हक़ में भी नहीं था। इस खुली ज़्यादती को कैसे क़बूल कर लेता। अलताफ़ का सर घूमने लगा, उसको अपना उसूल ही नहीं बल्कि अपना वजूद भी तड़ख़ता हुआ महसूस हुआ। वो कमरा बंद करके बैठ गया। इस माहाना इमदाद को वो क्या समझे भीक या क़र्ज़। भीक समझ कर वो ख़ुद अपनी तहक़ीर करनी नहीं चाहता था। जितना सोचता उसे अपनी बीवी पर उतना ही ग़ुस्सा आता। इस शदीद जज़्बाती हैजान के आलम में भी उसने दो रास्तों के मुताल्लिक़ सोचा। एक ये कि बीवी को उसके भाईयों के पास चलता कर दे फिर ज़िंदगी-भर उस की सूरत न देखे। दूसरा ये कि इस इमदाद को क़र्ज़ तसव्वुर कर ले और जितनी जल्दी भी मुम्किन हो सके वो ये क़र्ज़ अदा कर दे। महज़ बच्चों का ख़्याल करते हुए उसने दूसरा रास्ता इख़तियार किया।
उसने बीवी से कहा,
मैं बहुत सब्र और ज़ब्त का आदमी हूँ। मेरे साथ इतने अर्से रह कर तुमने भी अंदाज़ा लगा लिया होगा। मुझे ये भी एहसास है कि मेरी इस ख़ूबी को मेरे बा'ज़ दोस्त या रिश्तेदार ज़ेह्नी बीमारी समझते हैं। लेकिन मुझे बहुत ज़्यादा दुख इस बात से हुआ है कि तुमने भी मेरे बारे में ऐसी ही राय क़ायम करके मेरे उसूलों को तोड़ने की कोशिश की। हालाँकि मैं अपने बच्चों को अपने उसूलों की हद में रखकर इस जेह्नी अज़ीयत से बचाना चाहता हूँ जिससे मैं ख़ुद गुज़रा हूँ। जो होना था वो हो गया, अब तुमसे सिर्फ़ यही चाहता हूँ कि तुमने अब तक जितनी रक़म मेरे इल्म में लाए बग़ैर अपने भाईयों से मांगी है मुझे उसका हिसाब दे दो। जब उसका शुमार किया गया तो वो लाखों तक पहुंची। मौजूदा आमदनी में से उसकी अदायगी मुम्किन ही नहीं। उसने अपने बच्चों को भी बुला कर सामने बिठा लिया।
देखो भई। ज़रा ग़ौर से मेरी बात सुनना। अगर तुमको अपनी ख़्वाहिशें ज़्यादा अज़ीज़ हैं तो फिर मैं तुम्हारे दरमियान से हट जाता हूँ और अगर तुम्हें अपना बाप अज़ीज़ है तो फिर उसके कहने के मुताबिक़ चलो। याद रखो ख़्वाहिशें पूरी होने के बाद अपनी कशिश खो बैठती हैं और बाप मुफ़लिस होने के बावजूद, मरने के बाद भी बहुत याद आता है। तुम्हारी माँ ने जो क़र्ज़ लिया है वो में उतारना चाहता हूँ और इसके लिए तुम्हारा तआवुन चाहिए।
किसी की समझ में कुछ बात आई, कुछ नहीं आई। लेकिन वो बाप की मौत बहरहाल नहीं चाहते थे, इसलिए मुत्तफ़िक़ हो गए कि वो उसके कहने पर चलेंगे।
अलताफ़ ने फिर कहा,
तुम्हारे पास जो कुछ है मैं वो छीनना नहीं चाहता। सिर्फ़ इतना चाहता हूँ कि जब तक मैं क़र्ज़ अदा न कर दूं...मुझसे ऐसी फ़र्माइश न करना जो मैं पूरी न कर सकूँ।
उसके बाद अलताफ़ ने ख़ुद को मेहनत के लिए वक़्फ़ कर दिया। दफ़्तर में ओवर टाइम, अख़बार में कालम, फिर दो-चार ट्युशन... अब वो सूरज निकलने से पहले काम में मस्रूफ़ होता और रात गए लौटता। उसे खाने-पीने का होश नहीं रहा। सोने-जागने में फ़र्क़ आगया। उसने सोचा कि ज़िंदगी के चंद साल इस मेहनत में बेशक खप जाएं लेकिन बक़िया उम्र क़र्ज़ के एहसास तले दब कर न गुज़रे। अलताफ़ को इतनी मेहनत करते देखकर उसकी बीवी मुज़्तरिब भी होती और पशेमान भी। कई बार उसने कहा,
आप ज़ेवर बेच दीजिए। ये मकान फ़रोख़्त कर दीजिए, मगर ख़ुदा के वास्ते अपनी सेहत का ख़्याल रखिए।
ज़ेवर और मकान...सब कुछ तुम्हारा है। मैं तो सिर्फ़ क़र्ज़ को अपना समझता हूँ। जब तक न उतार दूं, मुझे अपनी ज़िंदगी बोझ मालूम होती रहेगी।
जब उसकी बीवी के भाईयों को ये बात मालूम हुई तो वो सर पकड़ कर बैठ गए। अलताफ़ को वो झक्की और सनकी तो समझते ही थे मगर अब उन्होंने उसके पागल होने का भी ऐलान कर दिया। उन्होंने अपनी बहन को दो टूक फ़ैसला करने का भी मश्वरा दिया।
एक पागल के साथ ज़िंदगी गुज़ारना अज़ाब से कम नहीं होता। हमने उसे शरीफ़, ईमानदार और ग़रीब समझ कर तुमसे मंसूब किया था। बेहतर यही है कि अब तुम हमारे साथ चल कर रहो। बच्चों को वो तुमसे किसी क़ीमत पर अलैहदा नहीं कर सकता इस बात की ज़मानत हम देते हैं।
मगर अलताफ़ की बीवी ने अपने भाईयों के मश्वरे पर कान नहीं धरे।
मैं कहीं नहीं जाऊँगी। अब तो मरना-जीना उनके साथ है।
तो फिर उससे कहो कि हम लिख कर देने के लिए तैयार हैं कि हमने कुछ नहीं दिया है या हमें सब कुछ मिल गया है या हमें कुछ नहीं चाहिए।
वो मेरी ग़लती का ख़मियाज़ा भुगते बग़ैर कोई बात नहीं सुनेंगे।
पागल है बिल्कुल पागल।
वो अपनी बहन को उसके हाल पर छोड़कर चले तो गए लेकिन कोई न कोई हल ढ़ूढ़ने से ग़ाफ़िल भी नहीं रहे, आख़िर उन्होंने ये तरकीब निकाली कि अपनी ही फ़र्म के एक मुलाज़िम को इस बात का हुक्म दिया कि वो अपने बच्चों के लिए अलताफ़ की ट्युशन लगाए और ज़्यादा से ज़्यादा फ़ीस तय करले। उनका ये हीला कारगर हुआ। लेकिन ट्युशन मिलने के बाद भी अलताफ़ ने ओवरटाइम बंद किया न कालम नवीसी छोड़ी और न ही दूसरे बच्चों को पढ़ाना ख़त्म किया। उस पर तो एक ही धुन सवार थी कि जितनी जल्दी मुम्किन हो सके ये उधार चुका दे।
आख़िर वो दिन आही गया जब उसने इतनी रक़म पस-अंदाज़ कर ली कि अपनी गर्दन में डाला हुआ क़र्ज़ का जुआ उतार फेंके। दफ़्तर में बैठे-बैठे उसने वो दिन शुमार किए जो दोस्तों के साथ गुज़ारने के बजाय दफ़्तर की मोटी-मोटी फ़ाइलों में सर खपाते हुए गुज़ारे थे। रोज़-ओ-शब उन लम्हों को गिना जो बीवी बच्चों के दरमियान नहीं बीते थे बल्कि कुंद ज़हन बच्चों को उनकी किताबें रटाते सर्फ़ किए थे...सारा हिसाब लगाने के बाद उसने सोचा कि अपनी ज़िंदगी के कई साल ख़र्च करके ये रक़म जमा की है और ये सब कुछ मैं अपनी बीवी के भाईयों को यकमुश्त दे देना चाहता हूँ कि वो इतनी बड़ी रक़म छोटे-छोटे टुकड़ों में हर माह बहन के अख़राजात पूरे करने के लिए देते रहे थे। क्या ये क़र्ज़ है? जिसको अदा न करने पर उन लोगों की शक्लें बिगड़ सकती हैं। उनके रवैय्ये में फ़र्क़ आ सकता है...उनका तो मुतालिबा ही नहीं है। उन लोगों ने जो कुछ दिया वो एहसान करने के ख़्याल से दिया और न क़र्ज़ की नीयत से। ये तो मैंने अपनी दानिस्त में क़र्ज़ समझ लिया है और मेरे पास इतनी रक़म है कि अगर वो मांगें तो उनके मुँह पर दे मारूं ...तो...तो अब उसी वक़्त दूँगा जब वो तलब करेंगे। वर्ना पड़ी है बैंक में।
इस ख़्याल से मुतमइन हो कर ये सोचा कि इस मुसलसल और अनथक मेहनत का बदला चुकाने के बाद कुछ अर्से आराम भी किया जाये। आराम के ताल्लुक़ से घर और घर के हवाले से बीवी आए। इस अर्से में अगर उसने मेहनत की है तो बीवी-बच्चों ने भी अपना दिल मार कर उसका साथ दिया है। ठीक है अब वो ओवर टाइम नहीं करेगा मगर ज़्यादा फ़ीस देने वाले बच्चों की ट्युशन नहीं छोड़ेगा। अलस्सबाह उठकर कालम लिखा जा सकता है। ये सिलसिला भी बंद नहीं करेगा, दो एक ट्युशन जहां फ़ीस कम है उनको छोड़ देगा। यूं ज़रा दम लेने का मौक़ा मिल जाएगा और घर भर की ज़रूरतें भी पूरी होती रहेंगी। नहीं अभी कोई ट्युशन ख़त्म नहीं होगी और मेहनत कर ली जाये कि अभी जिस्म के साथ हौसला बूढ़ा नहीं हुआ है। घर में उजाला फैलेगा तो शायद बच्चे इस फ़र्क़ को महसूस कर सकें जो मेहनत की कमाई और साहूकार की दी हुई मुराआत में होता है। अलताफ़ को इन ख़यालों के दरमियान अचानक अपने दोस्तों का ख़्याल आया।
उसने बैठे बेटे अंगड़ाई ली तो ये एहसास भी हुआ कि कई साल की मेहनत अब उसके बदन में थकान बन कर उतरने लगी है। उस थकन से नजात का एक ही तरीक़ा सूझा कि वो कुछ देर के लिए सही, अपने रोज़ के मामूल से थोड़ा हट जाये। फिर दोस्तों का ध्यान...उस हँसती मुस्कुराती महफ़िल का ख़्याल जो यकायक उसकी मस्रूफ़ियत की धुंद में छिप गई थी। अलताफ़ जानता था कि उसके अचानक मस्रूफ़ हो जाने को दोस्तों ने ज़ेह्नी रौ बहक जाने से ताबीर किया था और जब उसने उन लोगों के मुसलसल राबिता रखने के बावजूद उनसे मिलने में अपनी मस्रूफ़ियत को हाइल पाया तो फिर उन दोस्तों ने हरीस और दौलत कमाने का धनी समझ कर उसको बिल्कुल नज़रअंदाज कर दिया। मगर वो अपने साथीयों की फ़ित्रत से वाक़िफ़ था। एक शाम भी उनके साथ गुज़ारने के लिए जा बैठे तो वो उसे सुबह का भूला समझ कर माफ़ कर देंगे... उन दोस्तों की महफ़िल में बैठ कर सिर्फ़ एक शाम गपशप में गुज़ार दी जाये तो इस तमाम थकन का एहसास ही रफूचक्कर हो जाएगा। वो फिर ताज़ा-दम हो जाएगा। नए सिरे से तवानाई हासिल करने के लिए एक शाम की मस्रूफ़ियत तर्क कर देना कोई महंगा सौदा नहीं है। अलताफ़ ने ये तय करते ही अपने सामने फैली हुई फाइलें समेटीं और दफ़्तर से निकल आया।
वो अपनी रोज़-ओ-शब की लगन में ऐसा मगन हुआ था कि अपनी ज़ाहिरी हईयत से भी बेनयाज़ हो गया था जो मिल गया और जैसा मिल गया खा लिया। कपड़े मैले हो गए तो बदलने का होश नहीं। शेव बढ़ गया तो कोई परवाह नहीं। क़र्ज़ा उतारने की धुन शुरू होते ही पहले सस्ते ब्रांड की सिगरेट शुरू की। फिर वो भी छोड़ दी। आज दफ़्तर से बाहर आते ही उसने थकन का तनाव कम करने के लिए पहले एक अंगड़ाई ली। फिर बढ़े हुए शेव को खुजाया फिर बदन ढीला छोड़कर लम्हा भर के लिए सड़क के किनारे खड़ा रहा। कोई शख़्स क़रीब से सिगरेट का कश लेते हुए गुज़रा तो उसके अंदर भी सिगरेट की तलब चीख़ने लगी। पहले तो उसने सोचा कि जब छोड़ ही दी है तो अब मुँह लगाने से क्या फ़ायदा। फिर ये ख़्याल करके कि आज मुद्दत के बाद बिछड़े दोस्तों में बैठने का प्रोग्राम है तो दो-चार सिगरेट पी लेने में कोई नुक़्सान भी नहीं। उसने जेब में हाथ डाल कर पूरी रेज़गारी निकाल ली। एक रुपया, दो रुपया और पाँच रुपये के सिक्के। पान वाले की दुकान पर कई लोग मौजूद थे और पनवाड़ी बहुत तेज़ी के साथ पान लगा लगा कर ख़रीदारों को दे रहा था। अलताफ़ को फ़राग़त के ये लम्हे बहुत अर्से बाद नसीब हुए थे इसलिए वो वहीं खड़े हो कर उन लोगों की ख़रीदारी मुकम्मल होने का इंतिज़ार करने लगा। इसी इंतिज़ार की...ख़ाली ख़ाली नज़रों से सड़क पर आते-जाते लोगों और भागते हुए ट्रैफ़िक को देखते हुए ग़ैर इरादी तौर पर एक हाथ में दबाई हुई रेज़गारी को दूसरे हाथ में ऐसे मुंतक़िल करता कि एक हथेली अपने ही सामने फैल जाती और दूसरे हाथ की मुट्ठी में से एक एक...टपकते हुए क़तरों की सूरत...खुली हथेली में गिरने लगता। इस मश्ग़ले में एक के ऊपर एक गिरते हुए सिक्कों की आवाज़ भी उसे भली लगने लगी।
सिगरेट फ़रोश की दुकान से एक साहिब फ़ारिग़ हुए। दुकान से ज़रा हट कर उसने पनवाड़ी से लिए हुए बक़िया पैसों में से नोट अपनी क़मीज़ की जेब में डाले। सिगरेट के पैकेट और माचिस की डिबिया को जेबों में ठूँसा। फिर उनकी नज़र अलताफ़ की तरफ़ उठी जो दुकान पर जमा लोगों को देखते हुए अपनी रेज़गारी से खेल रहा था। उन साहिब ने पुड़यों से भरे लिफ़ाफ़े को चुटकी से थामा और अपने हाथ में पड़े हुए चंद सिक्के उसकी फैली हुई हथेली पर रखे और आगे बढ़ गए।
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