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तौबा शिकन

बानो कुदसिया

तौबा शिकन

बानो कुदसिया

MORE BYबानो कुदसिया

    स्टोरीलाइन

    यह एक पढ़ी-लिखी लड़की की कहानी है। उसकी ज़िंदगी में एक साथ दो मर्द आते हैं, एक यूनिवर्सिटी का प्रोफ़ेसर और दूसरा होटल का मैनेजर। वह होटल के मैनेजर का रिश्ता ठुकरा कर प्रोफ़ेसर से शादी कर लेती है और यही उसकी ज़िंदगी का ग़लत फ़ैसला साबित होता है।

    बीबी रो-रो कर हल्कान हो रही थी। आँसू बे-रोक-टोक गालों पर निकल खड़े हुए थे।

    “मुझे कोई ख़ुशी रास नहीं आती। मेरा नसीब ही ऐसा है। जो ख़ुशी मिलती है, ऐसी मिलती है कि गोया कोका-कोला की बोतल में रेत मिला दी हो किसी ने।”

    बीबी की आँखें सुर्ख़ साटन की तरह चमक रही थीं और साँसों में दमे के उखड़ेपन की सी कैफ़ियत थी। पास ही पप्पू बैठा खाँस रहा था। काली खांसी ना-मुराद का हमला जब भी होता बे-चारे का मुँह खाँस-खाँस कर बैंगन सा हो जाता। मुँह से राल बहने लगता और हाथ पाँव ऐंठ से जाते। अम्मी सामने चुपचाप खिड़की में बैठी उन दिनों को याद कर रही थीं जब वो एक डी.सी. की बीवी थीं और ज़िला’ के तमाम अफ़सरों की बीवियाँ उनकी ख़ुशामद करती थी। वो बड़ी-बड़ी तक़रीबों में मेहमान-ए-ख़ुसूसी हुआ करतीं और लोग उन से दरख़्त लगवाते, रिबन कटवाते, इनआ’मात तक़्सीम करवाते।

    प्रोफ़ेसर साहब हर तीसरे मिनट मद्धम सी आवाज़ में पूछते, “लेकिन आख़िर बात क्या है? बीबी हुआ क्या है?”

    वो प्रोफ़ेसर साहब को क्या बताती कि दूसरों के उसूल अपनाने से अपने उसूल बदल नहीं जाते, सिर्फ़ उन पर ग़िलाफ़ बदल जाता है। सितार का ग़िलाफ़, मशीन का ग़िलाफ़, तकिए का ग़िलाफ़। दरख़्त को हमेशा जड़ों की ज़रूरत होती है! अगर उसे क्रिस्मस ट्री की तरह यूँ ही दाब-दाब कर मिट्टी में खड़ा कर देंगे तो कितने दिन खड़ा रहेगा। बिल-आख़िर तो गिरेगा ही।

    वो अपने प्रोफ़ेसर मियाँ को क्या बताती कि उस घर से रस्सा तुड़वा कर जब वो बानो बाज़ार पहुँची थी और जिस वक़्त वो रबड़ की हवाई चप्पलों का भाव चार आने कम करवा रही थी, तो क्या हुआ था?

    उसके बेवाई फटे पाँव टूटी चप्पलों में थे। हाथों के नाख़ुनों में बर्तन माँझ-माँझ कर कीच जमी हुई थी। साँस में प्याज़ के बासी लच्छों की बू थी। क़मीज़ के बटन टूटे हुए और दुपट्टे की लैस उधड़ी हुई थी। इस मांदे हाल में जब वो बानो बाज़ार के नाके पर खड़ी थी तो क्या हुआ था? यूँ तो दिन चढ़ते ही रोज़ कुछ कुछ होता ही रहता था पर आज का दिन भी ख़ूब रहा। इधर पिछली बात भूलती थी उधर नया थप्पड़ लगता था। इधर थप्पड़ की टीस कम होती थी उधर कोई चुटकी काट लेता था। जो कुछ बानो बाज़ार में हुआ वो तो फ़क़त फ़ुल स्टॉप के तौर पर था।

    सुब्ह सवेरे ही संतो जमादारनी ने बरामदे में घुसते ही काम करने से इंकार कर दिया। रांड से इतना ही तो कहा था कि नालियाँ साफ़ नहीं होतीं। ज़रा ध्यान से काम किया कर। बस झाड़ू वहीं पटख़ कर बोली,

    “मेरा हिसाब कर दें जी।”

    कितनी ख़िदमतें की थीं बदबख़्त की। सुब्ह सवेरे तामचीनी के मग में एक रस के साथ चाय। रात के जूठे चावल और बासी सालन रोज़ का बँधा हुआ था। छः महीने की नौकरी में तीन नायलान जाली के दुपट्टे। अम्मी के पुराने स्लीपर और प्रोफ़ेसर साहब की क़मीज़ ले गई थी। किसी को जुरअत थी कि उसे जमादारनी कह कर बुला लेता। सबका संतो-संतो कहते मुँह सूखता था। पर वो तो तोते की सगी फूफी थी। ऐसी सफ़ेद चश्म वाक़े’ हुई कि फ़ौरन हिसाब कर। झाड़ू बग़ल में दाब, सर पर सिलफ़ची धर ये जा वो जा।

    बीबी का ख़याल था कि थोड़ी देर में कर पाँव पकड़ेगी। मुआ’फ़ी माँगेगी और सारी उ’म्र की ग़ुलामी का अ’हद करेगी। भला ऐसा घर उसे कहाँ मिलेगा। पर वो तो ऐसी दफ़ान हुई कि दोपहर का खाना पक कर तैयार हो गया पर संतो महारानी लौटी।

    सारे घर की सफ़ाइयों के इ’लावा ग़ुस्लख़ाने भी धोने पड़े और कमरों में टॉकी भी फेरनी पड़ी। अभी कमर सीधी करने को लेटी ही थी कि एक मेहमान बीबी गईं। मुन्ने की आँख मुश्किल से लगी थी। मेहमान बीबी हुस्न-ए-इत्तिफ़ाक़ से ज़रा ऊँचा बोलती थीं। मुन्ना उठ बैठा और उठते ही खाँसने लगा। काली खांसी का भी हर इ’लाज कर देखा था पर तो होम्योपैथी से आराम आया डाक्टरी इ’लाज से। हकीमों के कुश्ते और मा’जून भी रायगाँ गए। बस एक इ’लाज रह गया था और ये इ’लाज संतो जमादारनी बताया करती थी। बीबी! किसी काले घोड़े वाले से पूछो कि मुन्ने को क्या खिलाएँ। जो कहे सो खिला। दिनों में आराम जाएगा।

    लेकिन बात तो मेहमान बीबी की हो रही थी। उनके आने से सारे घर वाले अपने-अपने कमरों से निकल आए और गर्मियों की दोपहर में ख़ुर्शीद को एक बोतल लेने के लिए भगा दिया। साथ ही इतना सारा सौदा और भी याद गया कि पूरे पाँच रुपये देने पड़े।

    ख़ुर्शीद पूरे तीन साल से उस घर में मुलाज़िम थी। जब आई थी तो बगै़र दुपट्टे के खोखे तक चली जाती थी और अब वो बालों में प्लास्टिक के क्लिप लगाने लगी थी। चोरी-चोरी पैरों को क्युटेक्स और मुन्ने को पाउडर लगाने के बा’द अपने चेहरे पर बेबी पाउडर इस्ति’माल करने लगी थी। जब ख़ुर्शीद मोटी मलमल का दुपट्टा ओढ़ कर हाथ में ख़ाली स्क्वाश की बोतल लेकर सिराज के खोखे पर पहुँची तो सड़कें बे-आबाद सी हो रही थीं, पाँच रुपये का नोट जो उसके हाथ में बत्ती सी बन गया था, नक़्दी वाले टीन की ट्रे में धरती हुई ख़ुर्शीद बोली,

    “एक बोतल मिट्टी का तेल ला दो, सात सौ सात के साबुन, तीन पान सादा, चार मीठे, एक नलकी सफ़ेद धागे के दो लॉलीपाप और एक बोतल ठंडी-ठार सेवन-अप की।”

    रोड़ी कूटने वाला इंजन भी जा चुका था और कोल-तार के दो तीन ख़ाली ड्रम ताज़ा कुटी हुई सड़क पर औंधे पड़े थे। सड़क पर से हिद्दत की वज्ह से भाप सी उठती नज़र आती थी।

    दाई की लड़की ख़ुर्शीद को देख कर सिराज को अपना गाँव याद गया। धुले में उसी वज़्अ’-क़त्अ’, उसी चाल की सिंदूरी से रंग की नौ-बालिग़ लड़की हकीम साहब की हुआ करती थी। टांसे का बुर्क़ा पहनती थी। अंग्रेज़ी साबुन से मुँह धोती थी और शायद ख़मीरा-ए-गावज़बान और कुश्ता-ए-मर्वारीद बमअ-शर्बत-ए-संदल के इतनी मिक़्दार में पी चुकी थी कि जहाँ से गुज़र जाती सेब के मुरब्बे की ख़ुश्बू आने लगती। गाँव में किसी के घर कोई बीमार पड़ जाता तो सिराज इस ख़याल से उसकी बीमार-पुर्सी करने ज़रूर जाता कि शायद वो उसे हकीम साहब के पास दवा लेने के लिए भेज दे।

    जब कभी माँ के पेट में दर्द उठता तो सिराज को बहुत ख़ुशी होती। हकीम साहब हमेशा उस नफ़्ख़ की मरीज़ा के लिए दो पुड़ियाँ दिया करते थे। एक ख़ाली पुड़िया गुलाब के अर्क़ के साथ पीना होती थी और दूसरी सफ़ेद पुड़िया सौंफ के अर्क़ के साथ। हकीम साहब की बेटी उ’मूमन उसे अपने ख़त पोस्ट करने को दिया करती। वो उन ख़तों को लाल डिब्बे में डालने से पहले कितनी देर सूँघता रहता था। उन लिफ़ाफ़ों से भी सेब के मुरब्बे की ख़ुश्बू आया करती थी।

    उस वक़्त दाई कर्मो की बेटी गर्म दोपहर में उसके सामने खड़ी थी। ओसारे में सेब का मुरब्बा फैला हुआ था।

    पाँच रुपये का नोट नक़्दी वाले ट्रे में से उठा कर सिराज ने चपची नज़रों से ख़ुर्शीद की तरफ़ देखा और खँखार कर बोला, “एक ही साँस में इतना कुछ कह गई। आहिस्ता-आहिस्ता कहो ना। क्या-क्या ख़रीदना है?”

    एक बोतल मिट्टी का तेल, दो सात सौ सात साबुन, तीन पान सादा, चार मीठे। एक नल्की बटरफ्लाई वाली सफ़ेद रंग की। एक बोतल सेवन-अप की जल्दी कर, घर में मेंहमान आए हुए हैं।”

    सब से पहले तो सिराज ने खटाक से सब्ज़ बोतल का ढकना खोला और बोतल को ख़ुर्शीद की जानिब बढ़ा कर बोला, “ये तो हो गई बोल और...”

    “बोतल क्यूँ खोली तूने अब बीबी जी नाराज़ होंगी।”

    “मैं समझा कि खोल कर देनी है।”

    “मैंने कोई कहा था तुझे खोलने के लिए।”

    “अच्छा-अच्छा बाबा। मेरी ग़लती थी। ये बोतल तू पी ले। मैं ढकने वाली और दे देता हूँ तुझे।”

    जिस वक़्त ख़ुर्शीद बोतल पी रही थी, उस वक़्त बीबी का छोटा भाई अज़हर उधर से गुज़रा। उसे स्ट्रॉ से बोतल पीते देख कर वो मेन बाज़ार जाने की बजाए उल्टा चौधरी कॉलोनी की तरफ़ लौट गया और एन टाइप के क्वार्टर में पहुँच कर बरामदे ही से बोला, “बीबी! आप यहाँ बोतल का इंतिज़ार कर रही हैं और वो लाडली वहाँ खोखे पर ख़ुद बोतल पी रही है स्ट्रॉ लगा कर।”

    भाई तो अख़बार वाले के फ़राइज़ सर-अंजाम दे कर साइकिल पर चला गया लेकिन जब दो रुपये तेरह आने की रेज़गारी मुट्ठी में दबाए, दूसरे हाथ में मिट्टी के तेल की बोतल और बुक्कल में सात सौ सात साबुन के साथ सेवन-अप की बोतल लिए ख़ुर्शीद आई तो संतो जमादारनी के हिस्से का ग़ुस्सा भी ख़ुर्शीद पर ही उतरा।

    “इतनी देर लग जाती है तुझे खोखे पर।”

    “बड़ी भीड़ थी जी।”

    “सिराज के खोखे पर इस वक़्त?”

    “बहुत लोगों के मेहमान आए हुए हैं जी, समनाबाद में वैसे ही मेहमान बहुत आते हैं। सब नौकर बोतलें ले जा रहे थे।”

    “झूट बोल कम्बख़्त! मैं सब जानती हूँ।”

    ख़ुर्शीद का रंग फ़क़ हो गया।

    “क्या जानती हैं जी आप?”

    “अभी खोखे पर खड़ी तू बोतल नहीं पी रही थी।”

    ख़ुर्शीद की जान में जान आई। फिर वो बिफर कर बोली,

    “वो मेरे पैसों की थी जी, आप हिसाब कर दें जी मेरा मुझसे ऐसी नौकरी नहीं होती।”

    बीबी तो हैरान रह गई। संतो का जाना गोया ख़ुर्शीद के जाने की तम्हीद थी। लम्हों में बात यूँ बढ़ी कि मेहमान बीबी समेत सब बरामदे में जमा’ हो गए और कतरन भर लड़की ने वो ज़बान दराज़ की कि जिन मेहमान बीबी पर बोतल पिला कर रोब गाँठना था वो उल्टा उस घर को देख कर क़ाएल हो गईं कि बद-नज़्मी, बे-तर्तीबी और बद-तमीज़ी में ये घर हर्फ़-ए-आख़िर है।

    आनन-फ़ानन मकान नौकरानी के बगै़र सूना-सूना हो गया। उधर जमादारनी और ख़ुर्शीद का रंज तो था ही, ऊपर से पप्पू की खांसी दम लेने देती थी...।

    जब तक ख़ुर्शीद का दम था कम-अज़-कम उसे उठाने पुचकारने वाला तो कोई मौजूद था। अब कफ़गीर तो छोड़-छाड़ के बच्चे को उठाना पड़ता। उसे भी काली खांसी का दौरा पड़ता तो रंगत बैंगन की सी हो जाती। आँखें सुर्ख़ा-सुर्ख़ निकल आतीं और साँस यूँ चलता जैसे कटी हुई पानी की ट्यूब से पानी रिस-रिस के निकलता है।

    सारा दिन वो यही सोचती रही कि आख़िर उसने कौन सा गुनाह किया है जिसकी पादाश में उसकी ज़िंदगी इतनी कठिन है। उसके साथ कॉलेज में पढ़ने वालियाँ तो ऐसी थीं गोया रेशम पर चलने से पाँव में छाले पड़ जाएँ और यहाँ वो कपड़े धोने वाले थापे की तरह करख़्त हो चुकी थी। रात को पलंग पर लेटती तो जिस्म से अंगारे झड़ने लगते। बदबख़्त ख़ुर्शीद के दिल में तरस जाता तो दो चार मिनट दुखती कमर में मुक्कियाँ मार देती वर्ना उई-उई करते नींद जाती और सुब्ह फिर वही सफ़ेद-पोश ग़रीबों की सी ज़िंदगी और तंदूर में लगी हुई रोटियों की सी सेंक!

    उस रोज़ दिन में कई मर्तबा बीबी ने दिल में कहा,

    “हम से अच्छा घराना नहीं मिलेगा तो देखेंगे। अभी कल बरामदे में आई बैठी होंगी। दोनों काले मुँह वालियाँ”, पर उसे अच्छी तरह मा’लूम था कि उससे अच्छा घर मिले मिले वो दोनों अब लौट कर आएँगी। सारे घर में नज़र दौड़ाती तो छत के जालों से लेकर रुकी हुई नाली तक और टूटी हुई सीढ़ियों से लेकर अंदर टप-टप बरसने वाले नलके तक अ’जीब कस्म-पुर्सी का आ’लम था, हर जगह एक आँच की कसर थी। तीन कमरों का मकान जिसके दरवाज़ों के आगे ढीली डोरों में धारी-दार पर्दे पड़े थे, अ’जीब सी ज़िंदगी का सुराग़ देता था। तो ये दौलत थी और ही ये ग़रीबी थी। रद्दी के अख़बार की तरह उसका तशख़्ख़ुस ख़त्म हो चुका था।

    जब तक अब्बा जी ज़िंदा थे और बात थी। कभी-कभार मायका जा कर खुली हवा का एहसास पैदा हो जाता। अब तो अब्बा जी की वफ़ात के बा’द अम्मी, अज़हर और मुन्नी भी उसके पास गए थे। अम्मी ज़ियादा वक़्त पिछली पोज़ीशन याद कर के रोने में बसर करतीं। जब रोने से फ़राग़त होती तो वो अड़ोस-पड़ोस में ये बताने के लिए निकल जातीं कि वो एक डिप्टी कमिश्नर की बेगम थीं और हालात ने उन्हें यहाँ समनाबाद में रहने पर मजबूर कर दिया है। मुन्नी को मिट्टी खाने का आ’रिज़ा था। दीवारें ख़ुरच-ख़ुरच कर खोखली कर दी थीं। ना-मुराद सीमेंट का पक्का फ़र्श अपनी नर्म-नर्म उंगलियों से कुरेद कर धर देती। बहुत मिर्चें खिलाईं। कुनैन मिली मिट्टी से ज़ियाफ़त की। होंटों पर दहकता हुआ कोयला रखने की धमकी दी पर वो शेर की बच्ची मिट्टी को देख कर बुरी तरह रेशा-ख़त्मी होती।

    अज़हर जिस कॉलेज में दाख़िला लेना चाहता था, जब उस कॉलेज के प्रिंसिपल ने थर्ड डिवीज़न के बाइस इंकार कर दिया तो दिन रात माँ-बेटा मरहूम डी.सी. साहब को याद कर के रोते रहे। उनके एक फ़ोन से वो बात बन जाती जो प्रोफ़ेसर फ़ख़्र के कई फेरों से बनी। अम्मी तो दबी ज़बान में कई बार यहाँ तक कह चुकी थीं कि ऐसा दामाद किस काम का जिसकी सिफ़ारिश ही शहर में चले। नतीजे के तौर पर अज़हर ने पढ़ाई का सिलसिला मुनक़ते’ कर लिया। प्रोफ़ेसर साहब ने बहुत समझाया पर उसके पास तो बाप की निशानी एक मोटर-साइकल था। चंद एक दोस्त थे जो सिविल लाइन्ज़ में रहते थे, वो भला क्या कॉलेज-वालेज जाता।

    इस सारे माहौल में प्रोफ़ेसर फ़ख़्र कीचड़ का कँवल थे। लंबे क़द के दुबले-पतले प्रोफ़ेसर सियाह आँखें जिनमें तजस्सुस और शफ़क़त का मिला-जुला रंग था। उन्हें देख कर ख़ुदा जाने क्यों रेगिस्तान के गल्लाबान याद जाते। वो उन लोगों की तरह थे जिन के आदर्श वक़्त के साथ धुँदले नहीं पड़ जाते जो इसलिए महकमा-ए-ता’लीम में नहीं जाते कि उनसे सी.एस.पी. का इम्तिहान पास नहीं हो सकता। वो दौलत कमाने के कोई बेहतर गुर नहीं जानते। उन्होंने तो ता’लीम-ओ-तदरीस का पेशा इसलिए चुना था कि उन्हें नौजवानों की पुर-तजस्सुस आँखें पसंद थीं।

    उन्हें फस्ट ईयर के वो लड़के बहुत अच्छे लगते थे जो गाँव से आते थे और आहिस्ता-आहिस्ता शहर के रंग में रंगे जाते थे। उनके चेहरों से जो ज़हानत टपकती थी, धरती के क़रीब रहने की वज्ह से उनमें जो दो और दो चार क़िस्म की अ’क़्ल थी। प्रोफ़ेसर फ़ख़्र उन्हें सैक़ल करने में बड़ा लुत्फ़ हासिल करते थे। वो ता’लीम को मीलाद-उन-नबी का फंक्शन समझते। जब घर-घर दिये जलते हैं और रौशनी से ख़ुशी की ख़ुश्बू आने लगती है। उनके साथी प्रोफ़ेसर जब स्टाफ़ रुम में बैठ कर ख़ालिस Have-Nots के अंदाज़ में नौ-दौलती सोसाइटी पर तब्सिरा करते तो वो ख़ामोश रहते क्योंकि उनका मस्लक लोई पॉस्चर का मस्लक था। कोलंबस का मस्लक था।

    उनके दोस्त जब फस्ट क्लास, सैकण्ड क्लास और स्लैक्शन ग्रेड की बातें करते तो प्रोफ़ेसर फ़ख़्र मुँह बंद किए अपने हाथों पर निगाहें जमा लेते। वो तो उस ज़माने की निशानियों में से रह गए थे जब शागिर्द अपने उस्ताद के बराबर बैठ सकता था। जब उस्ताद के आशीर्वाद के बगै़र शांति का तसव्वुर भी गुनाह था। जब उस्ताद ख़ुद कभी हुसूल-ए-दौलत के लिए नहीं निकलता था लेकिन ताजदार उसके सामने दो ज़ानू कर बैठा करते थे। जब वो शाह जहाँगीर के दरबार में मियाँ मीर साहब की तरह कहता कि, “ऐ शाह! आज तो बुला लिया है पर अब शर्त-ए-इ’नायत यही है कि फिर कभी बुलाना।”

    जब उस्ताद कहता, “ऐ हाकिम-ए-वक़्त! सूरज की रौशनी छोड़कर खड़ा हो जा।”

    जब बीबी ने पहली बार प्रोफ़ेसर फ़ख़्र को देखा था तो फ़ख़्र की नज़रों का मजज़ूबाना हुस्न शहद की मक्खियों जैसा जज़्बा-ए-ख़िदमत और सूफ़िया-ए-कराम जैसा अंदाज़-ए-गुफ़्तगू उसे ले डूबा। बीबी उन लड़कियों में से थी जो दरख़्त से मुशाबह होती हैं। दरख़्त चाहे कैसा ही आसमान छूने लगे, बिल-आख़िर मिट्टी के ख़ज़ानों को निचोड़ता ही रहता है। वो चाहे कितने ही छतनार क्यों हो, बिल-आख़िर उसकी जड़ों में नीचे उतरते रहने की हवस बाक़ी रहती है और फिर प्रोफ़ेसर का आदर्श कोई मांगे का कपड़ा तो था नहीं कि मुस्तआ’र लिया जाता लेकिन बीबी तो हवा में झूलने वाली डालियों की तरह यही सोचती रही कि उसका धरती के साथ कोई तअ’ल्लुक़ नहीं। वो हवा में ज़िंदा रह सकती है। मुहब्बत उनके लिए काफ़ी है।

    तब अब्बा जी ज़िंदा थे और उनके पास शीशों वाली कार थी जिस रोज़ वो बी.ए. की डिग्री लेकर यूनीवर्सिटी से निकली तो उसके अब्बा जी साथ थे। उनकी कार रश की वज्ह से अ’जाइब घर की तरफ़ खड़ी थी। मॉल को क्रास कर के जब वो दूसरी जानिब पहुँचे तो फ़ुटपाथ पर उसने प्रोफ़ेसर को देखा। वो झुके हुए अपनी साइकल का पैंडल ठीक कर रहे थे।

    “सर, सलाम-अ’लैकुम!”

    फ़ख़्र ने सर उठाया और ज़हीन आँखों में मुस्कुराहट गई।

    “वालैकुम-अस्सलाम। मुबारक हो आप को।”

    सियाह गाउन में वो अपने आप को बहुत मुअ’ज़्ज़ज़ महसूस कर रही थी।

    “सर, मैं ले चलूँ आप को?”

    बड़ी सादगी से फ़ख़्र ने सवाल किया, “आप साइकिल चलाना जानती हैं?”

    “साइकिल पर नहीं जी मेरा मतलब है कार खड़ी है, जी मेरी।”

    फ़ख़्र सीधा खड़ा हो गया और बीबी उसके कंधे के बराबर नज़र आने लगी।

    देखिए मिस उस्तादों के लिए कारों की ज़रूरत नहीं होती। उनके शागिर्द कारों में बैठ कर दुनिया का निज़ाम चलाते हैं। उस्तादों को देख कर कार रोकते हैं लेकिन उस्ताद शागिर्दों की कार में कभी नहीं बैठता क्योंकि शागिर्द से उसका रिश्ता दुनियावी नहीं होता। उस्ताद का आसाइश से कोई तअ’ल्लुक़ नहीं होता। वो मृग-छाला पर सोता है। बड़ के दरख़्त तले बैठता और जौ की रोटी खाता है।

    बीबी को तो जैसे होंटों पर भड़ डस गई। अभी चंद सानिए पहले वो हाथों में डिग्री लेकर फ़ुल साइज़ फ़ोटो खिंचवाने का प्रोग्राम बना रही थी और अब ये गाउन, ये ऊँचा जोड़ा, ये डिग्री, सब कुछ नफ़रत-अंगेज़ बन गया। जब माल रोड पर एक फ़ोटोग्राफ़र की दुकान के आगे कार रोक कर अब्बा जी ने कहा,

    “एक तो फ़ाएज़ साइज़ तस्वीर खिंचवा लो और एक पोर्टरेट।”

    “अभी नहीं अब्बा जी! मैं परसों अपनी दोस्तों के साथ मिल कर तस्वीर खिंचवाऊँगी।”

    “सुब्ह की बात पर नाराज़ हो अभी तक?”, अब्बा जी ने सवाल किया।

    “नहीं जी वो बात नहीं है।”

    सुब्ह जब वो यूनीवर्सिटी जाने के लिए तैयार हो रही थी तो अब्बा जी ने दबी ज़बान में कहा था कि वो कन्वोकेशन के बा’द उसे फ़ोटोग्राफ़र के पास ले जा सकेंगे क्योंकि उन्हें कमिश्नर से मिलना था। इस बात पर बीबी ने मुँह थोथा लिया था और जब तक अब्बा जी ने वा’दा नहीं कर लिया तब तक वो कार में सवार हुई थी।

    अब कार फ़ोटोग्राफ़र की दुकान के आगे खड़ी थी। अब्बा जी उसकी तरफ़ का दरवाज़ा खोले खड़े थे लेकिन तस्वीर खिंचवाने की तमन्ना आपी-आप मर गई।

    बी.ए. करने के बा’द कॉलेज का माहौल दूर रह गया। ये मुलाक़ात भी गर्द-आलूद हो गई और ग़ालिबन ताक़-ए-निस्याँ पर भी धरी रह जाती अगर अचानक किताबों की दुकान पर एक दिन उसे प्रोफ़ेसर फ़ख़्र नज़र जाते। वो हस्ब-ए-मा’मूल सफ़ेद क़मीज़ ख़ाकी पतलून में मलबूस थे। रोमन नोज़ पर ऐ’नक

    टिकी हुई थी और वो किसी किताब का ग़ौर से मुताला’ कर रहे थे। बीबी अपनी दो तीन सहेलियों के साथ दुकान में दाख़िल हुई उसे वीमन ऐंड होम क़िस्म के रिसाले दरकार थे। ई’द कार्ड और स्टिच क्रा़फ्ट के पम्फ़लैट ख़रीदने थे। लो कैलरी डाइट क़िस्म की ऐसी किताबों की तलाश थी जो सालों में बढ़ाया हुआ वज़्न हफ़्तों में घटा देने के मशवरे जानती हैं लेकिन अंदर घुसते ही गोया आईने का लश्कारा पड़ा।

    “सलाम-अ’लैकुम सर।”

    “वअ’लैकुम-अस्सलाम”, मठ के भिक्षू ने जवाब दिया।

    “आपने मुझे शायद पहचाना नहीं सर, मैं आप की स्टूडेंट हूँ जी। क़मर ज़ुबैरी”, उसने दोस्तों की तरफ़ ख़िफ़्फ़त से देख कर कहा।

    “मैंने तुम्हें पहचान लिया है क़मर बीबी क्या कर रही हैं आप इन दिनों?”

    “मैं, जी कुछ नहीं जी सर!”

    एक सहेली ने आगे चलने का इशारा किया। दूसरी ने कमर में चुटकी काटी लेकिन वो तो इस तरह खड़ी थी गोया किसी फ़िल्म स्टार के आगे आटोग्राफ़ लेने खड़ी हो।

    “आप एम.ए. नहीं कर रही हैं पॉलीटिकल साइंस में?”

    “इसकी तो शादी हो रही है सर।”

    खी-खी कर के सारी कबूतर-ज़ादियाँ हँस दीं।

    बीबी ने क़ातिलाना नज़रों से सबको देखा और बोली, “झूट बोलती हैं जी, मैं तो जी एम.ए. करूँगी।”

    अब प्रोफ़ेसर मुकम्मल प्रोफ़ेसर बन गया। जवान चेहरे पर बुढ़ापे की मतानत गई।

    “देखिए। पढ़ी-लिखी लड़कियों का वो रोल नहीं है जो आजकल की लड़कियाँ अदा कर रही हैं। आपको शादी के बा’द याद रखना चाहिए कि ता’लीम सोने का ज़ेवर नहीं है जिसे बैंक के लॉकर्ज़ में बंद कर दिया जाता है बल्कि ये तो जादू की वो अँगूठी है जिसे जिस क़दर रगड़ते चले जाओ उसी क़दर ख़ुशियों के दरवाज़े खुलते जाते हैं। आप को इस ता’लीम की ज़कात देना होगी। इसे दूसरों के साथ Share करना होगा।”

    बात बहुत मा’मूली और सादा थी। इस नौइ’यत की बातें उ’मूमन औ’रतों के रिसालों में छपती रहती हैं लेकिन फ़ख़्र की आँखों में, उसकी बातों में वो हुस्न था जो हमेशा सच्चाई से पैदा होता है। जब वो पम्फ़लैट और वज़्न घटाने की तीन किताबें ख़रीद कर कार में बैठी तो उसकी नज़रों में वही चेहरा था, वो भीगी-भीगी आवाज़ थी।

    प्रोफ़ेसर फ़ख़्र को देखने की कोई सूरत बाक़ी थी लेकिन उसकी आवाज़ की लहरें उसे हर लहज़ा ज़ेर-ए-आब किए देती थीं। उठते बैठते, जागते-सोते, वही शिकारी कुत्ते जैसा सुता हुआ चेहरा, अंदर को धँसी हुई चमकदार आँखें और ख़ुश्क होंट नज़रों के आगे घूमने लगे। फिर ये चेहरा भुलाए भूलता और वो अंदर ही अंदर बल खाई रस्सी की तरह मरोड़ी जाती।

    उन्ही दिनों उसने फ़ैसला किया कि वो पॉलीटिकल साइंस में एम.ए. करेगी। हालाँकि उसके घर वाले एक अच्छे बर की तलाश में थे। हाथी मरा हुआ भी सवा लाख का होता है। डिप्टी कमिश्नर रिटायर हो कर भी ऊँची नशिस्त वाली कुर्सी से मुशाबेह होता है। अब्बा जी के माल-ओ-मता’ को गो अंदर से घुन लग चुका था लेकिन हैसियत-ए-उ’र्फ़ी बहुत थी। नौकर चाकर कम हो गए थे। सोशल लाईफ़ भी पहले सी रही थी। फंक्शनों के कार्ड भी कम ही आते लेकिन रिश्ते डी.सी. साहब की बेटी के चले रहे थे और आ’ला से आ’ला रहे थे। उसकी अम्मी गो पढ़ी लिखी औ’रत थी लेकिन बा-असर बा-रसूख़ ख़वातीन की सोहबत ने उसे ख़ूब सैक़ल कर दिया था। उसमें एक ऐसी ख़ुश-ए’तिमादी और पुरकारी पैदा हो गई थी कि कॉलेजों की प्रोफ़ेसरें उसके होते हुए अपने आप को कमतर करतीं।

    जिस वक़्त बीबी ने पॉलीटिकल साइंस करने पर ज़िद की तो अम्मी ने ज़बरदस्त मुख़ालिफ़त की। अब्बा जी ने क़दम-क़दम पर अड़चन पैदा की कि जो लड़की हमेशा पॉलीटिकल साइंस में कमज़ोर रही है वो इस मज़मून में एम.ए. क्योंकर करेगी। कई घंटों की बहस के बा’द अब्बा जी इस बात पर रज़ा-मंद हो गए कि वो प्रोफ़ेसर से ट्यूशन ले सकती है।

    जिस रोज़ रिटायर्ड डी.सी. साहब की कार समनाबाद गई तो प्रोफ़ेसर फ़ख़्र घर पर मौजूद थे। दूसरी मर्तबा जब बीबी की अम्मी गईं तो प्रोफ़ेसर साहब किसी सेमीनार में तशरीफ़ ले जा चुके थे। मुलाक़ात फिर हुई। तीसरी बार जब बीबी और अब्बा जी ट्यूशन का तय करने गए तो प्रोफ़ेसर साहब मोंढे पर बैठे हुए मुताले’ में मसरूफ़ थे। बाहर के नलके के साथ नीले रंग की प्लास्टिक की ट्यूब लगी हुई थी। ट्यूबवेल का पानी सामने के तंग अहाते में इकट्ठा हो रहा था लेकिन प्रोफ़ेसर साहब इससे ग़ाफ़िल मिटती शफ़क़ में हुरूफ़ टटोल-टटोल कर पढ़ रहे थे।

    पहले अब्बा जी ने हॉर्न बजाया। फिर ख़ानसामाँ-ख़ानसामाँ कह कर आवाज़ें दीं। तो अंदर से कोई बावर्ची क़िस्म का आदमी निकला और ही प्रोफ़ेसर साहब ने सर उठा कर देखा। बिल-आख़िर अब्बा जी ने ख़िफ़्फ़त के बा-वजूद दरवाज़ा खोला और बीबी को साथ लेकर बरामदे के तरफ़ चले। ट्यूब ग़ालिबन देर से लगी हुई थी और मिट्टी कीचड़ में बदल चुकी थी। बड़ी एहतियात से क़दम धरते हुए सीढ़ियों तक पहुँचे और फिर खंकार कर प्रोफ़ेसर साहब को मुतवज्जेह किया।

    पौन घंटा बैठे रहने के बा-वजूद तो अंदर से कोका कोला आया चाय के बर्तनों का शोर सुनाई दिया। इस बे-ए’तिनाई के बा-वजूद दोनों बाप-बेटी सहमे से बैठे थे। शाम गहरी हो चली थी और समनाबादिए घरों के आगे छिड़काव करने में मशग़ूल थे। क़तार-सूरत घरों से हर साइज़ और हर उ’म्र का बच्चा निकल कर इस छिड़काव को बतौर होली इस्ति’माल कर रहा था। औ’रतें नायलौन जाली के दोपट्टे ओढ़े आ-जा रही थीं। एक ऐसे तबक़े की ज़िंदगी जारी थी। जो अमीर था और ही गरीब। दोनों के दरमियान कहीं मुर्ग़-ए-बिस्मिल की तरह लटक रहा था। जब बात पढ़ाने तक जा पहुँची तो प्रोफ़ेसर फ़ख़्र बोले, “जी हाँ। मैं इन्हें पढ़ा दूँगा। ब-खु़शी”

    अब पहलू बदल कर रिटायर्ड डी.सी. साहब ने कहा, “मुआ’फ़ कीजिए प्रोफ़ेसर साहब! लेकिन बात पहले ही वाज़ेह हो जानी चाहिए या’नी आप मेरा मतलब है आप की Remuneration क्या होगी?”

    ट्यूशन की फ़ीस को ख़ूबसूरत से अंग्रेज़ी लफ़्ज़ में ढाल कर गोया डी.सी. साहब ने उसमें से ज़िल्लत की फांस निकाल दी।

    लेकिन प्रोफ़ेसर साहब का रंग मुतग़य्यर हो गया और वो मोंढे की पुश्त को दीवार से लगा कर बोले,

    “मैं… मुझे… दर-अस्ल मुझे गर्वनमेंट पढ़ाने का इ’वज़ाना देती है सर। इसके इ’लावा मैं ट्यूशन नहीं करता, ता’लीम देता हूँ। जो चाहे जब चाहे मुझ से पढ़ सकता है...”

    “देखिए जनाब मैं इसलिए पढ़ाता हूँ कि मुझे पढ़ाने का शौक़ है। अगर मैं तहसीलदार होता तो भी पढ़ाता। अगर ज़िले का डी.सी. होता तो भी पढ़ाता। कुछ लोग पैदाइशी मेरी तरह होते हैं। उनके माथे पर मोहर होती है पढ़ाने की उनके हाथों पर लकीर होती है पढ़ाने की।”

    बीबी के हल्क़ में नमकीन आँसू गए। दो ग़ैरतों का मुक़ाबला था। एक तरफ़ डी.सी. साहब की वो ग़ैरत थी जिसे हर ज़िला’ के अफ़सरों ने कलफ़ लगाई थी। दूसरी जानिब एक Idealistic आदमी की ग़ैरत थी जो घोंगे की तरह अपना सारा घर अपने ही जिस्म पर लाद कर चला करता है और ज़रा सी आहट पा कर उस घोंगे में गोशा-नशीन हो जाता है।

    प्रोफ़ेसर साहब बड़ी भली सी बातें किए जा रहे थे और उसके अब्बा जी मोंढे में यूँ बैठे थे जैसे भाग जाने की तदबीरें सोच रहे हों।

    “फाइन आर्ट्स का दौलत की ज़ख़ीरा-अंदोजी से कोई तअ’ल्लुक़ नहीं है। मैं समझता हूँ मेरा प्रोफ़ेशन फाइन आर्ट्स का एक शो’बा है। इंसान में कल्चर का शऊ’र पैदा करने की सई’ इंसान में तहसील-ए-इ’ल्म की ख़्वाहिश बेदार करना आ’म सत्ह से उठ कर सोचना और सोचते रहना एक सही उस्ताद इन ने’मतों को बेदार करता है। एक तस्वीर, एक गीत, एक ख़ूबसूरत बुत भी यही कुछ कर पाते हैं। साज़ बजाने वाले को अगर आप लाख रुपया दें और उस पर पाबंदी लगाएँ कि वो साज़ को हाथ लगाए तो वो ग़ालिबन वो अगर वो Genuine है तो आपकी पेशकश ठुकरा देगा, मैं टीचर हूँ। Genuine टीचर। मैं Fake नहीं हूँ ज़ुबैरी साहब!”

    डी.सी. साहब अपनी बेटी के सामने हार मानने वाले नहीं थे।

    “और जो पेट में कुछ हो तो ग़ालिबन साज़िंदा मान जाएगा।”

    “फिर वो साज़िंदा Fake होगा। Passion का उसकी ज़िंदगी से कोई तअ’ल्लुक़ होगा बल्कि ग़ालिबन वो अपने आर्ट को एक तमग़ा, एक पासपोर्ट, एक इश्तिहार की तरह इस्ति’माल करता होगा।”

    “अच्छा जी आप पैसे लें लेकिन बीबी को पढ़ा तो दिया करें।”

    “जी हाँ। मैं ब-खु़शी पढ़ा दूँगा।”

    “तो कब आया करेंगे आप? मैं कार भेजवा दिया करूँगा।”

    प्रोफ़ेसर फ़ख़्र की आँखें तंग हो गईं और वो हिचकिचा कर बोले, “मैं तो कहीं नहीं जाता शाम के वक़्त।”

    “तो मेरा तो मेरा मतलब है कि आप उसे पढ़ाएँगे कैसे?”

    “ये चार पाँच के दरमियान किसी वक़्त जाया करें। मैं पढ़ा दिया करूँगा।”

    बीबी के पैरों तले से यूँ ज़मीन निकली कि उस वक़्त तक वापस लौटी जब तक वो अपने पलंग पर लेट कर कई घंटे तक आँसुओं से अश्नान करती रही।

    औ’रत के लिए उ’मूमन मर्द की कशिश के तीन पहलू होते हैं। बे-नियाज़ी, ज़हानत और फ़साहत। ये तीनों औसाफ़ प्रोफ़ेसरों में ब-क़द्र-ए-ज़रूरत मिलते हैं। इसीलिए ऐसे कॉलेजों में जहाँ मख़लूत ता’लीम हो लड़कियाँ उ’मूमन अपने प्रोफ़ेसरों की मुहब्बत में मुब्तिला हो जाती हैं। इस मुहब्बत का चाहे कुछ नतीजा निकले लेकिन हीरोशिप की तरह इसका असर उनके ज़हनों में अबदी होता है जिस तरह मिल्कियत ज़ाहिर करने के लिए पुराने ज़माने में घोड़ों को दाग़ दिया जाता था, उसी तरह उस रात बीबी के दिल पर मुहर-ए-फ़ख़्र लग गई।

    अब्बा जी हर आने जाने वाले से प्रोफ़ेसर फ़ख़्र के अहमक़पन की दास्तान यूँ सुनाने बैठ जाते जैसे ये भी कोई वियतनाम का मसअला हो। उनके मिलने वाले प्रोफ़ेसर फ़ख़्र की बातों पर ख़ूब हँसते। बीबी को शुबह हो

    चला था कि उन्होंने बेटी को ट्यूशन की इजाज़त दी थी फिर भी अंदर ही अंदर अब्बा जी फ़ख़्र की शख़्सियत से मरऊ’ब हो चुके थे।

    एक दिन जब बीबी अपनी सहेली से मिलने समनाबाद गई और सामने वाली लाईन में उसे प्रोफ़ेसर फ़ख़्र का मकान दिखाई दिया तो अचानक उसके दिल में एक ज़बरदस्त ख़्वाहिश उठी। वो ख़ूब जानती थी कि उस वक़्त प्रोफ़ेसर साहब कॉलेज जा चुके होंगे। फिर भी वो घर के अंदर चली गई। सारे कमरे खुले पड़े थे। लंबे कमरे में एक चारपाई बिछी थी जिसका एक पाया ग़ाइब था और उसकी जगह ईंटों की थट्टी लगी हुई थी। तीनों कमरों में किताबें ही किताबें थीं। हर साइज़, हर पेपर और हर तरह की प्रिंटिंग वाली किताबें। इन किताबों को दुरूस्तगी के साथ आरास्ता करने की ख़्वाहिश बड़ी शिद्दत के साथ बीबी के दिल में उठी। जस्ती ट्रंक पर पड़े हुए कपड़े, ज़र्द-रू छिपकलियाँ जो बड़ी आज़ादी से छत से झाँक रही थीं और कोनों में लगे हुए जाले। इन चीज़ों का बीबी पर बहुत गहरा असर हुआ। बावर्चीख़ाने से कुछ जलने की ख़ुश्बू रही थी लेकिन पकाने वाला देगची स्टोव पर रख कर कहीं गया हुआ था। बीबी ने थोड़ा सा पानी देगची में डाला और सहेली से मिले बगै़र गई।

    जिस रोज़ बीबी ने प्रोफ़ेसर फ़ख़्र से शादी करने का फ़ैसला किया उसी रोज़ जमाली मलिक का रिश्ता भी गया।

    जमाली मलिक लाहौर के एक नामी-गिरामी होटल में मैनेजर थे। बड़ी प्रेस की हुई शख़्सियत थी। अपनी पतलून की क्रीज़ की तरह। अपने चमकदार बूटों की तरह जगमगाती हुई शख़्सियतों किसी टूथपेस्ट का इश्तिहार नज़र आते थे। साफ़-सुथरे दाँतों की चमक हमेशा चेहरे पर रहती। जमाली मलिक अपने होटल की तंज़ीम, सफ़ाई और सर्विस का सिंबल थे। एयर कंडीशंड लॉबी में फिरते हुए, मद्धम बत्तियों वाली बार में सरप्राइज़ विज़िट करते हुए लिफ़्ट के बटन दबाते हुए। डाइनिंग हाल में वी.आई.पीज़ के साथ पुर-तकल्लुफ़ गुफ़्तगू करते हुए, उनका वजूद कट-ग्लास के फ़ानूस की तरह ख़ूबसूरत और चमकदार था।

    जिस रोज़ उस बड़े होटल के बड़े मैनेजर ने बीबी के ख़ानदान को खाने की दा’वत दी उसी रोज़ ड्राई क्लीनर से वापसी पर बीबी की मुडभेड़ प्रोफ़ेसर फ़ख़्र के साथ हो गई। वो फ़ुटपाथ पर पुरानी किताबों वाली दुकानों के सामने खड़े थे और एक पुराना सा मुसव्वदा देख रहे थे। उनसे पाँच क़दम छः क़दम दूर “हर माल मिले आठ आने” वाला चीख़-चीख़ कर सब को बुला रहा था। ज़रा सा हट कर वो दुकान थी जिसमें सुर्ख़ चोंचों वाले हरियल तोते, अफ़्रीक़ा की सुर्ख़ चिड़ियाँ और ख़ूबसूरत लक़्क़े कबूतर ग़ुटर-गूँ ग़ुटर-गूँ कर रहे थे। प्रोफ़ेसर साहब पर सारे बाज़ार का कोई असर हो रहा था और वो बड़े इन्हिमाक से पढ़ने में मश्ग़ूल थे।

    कार पार्क करने की कोई जगह थी। बिल आख़िर महकमा-ए-ता’लीम के दफ़्तर में जा कर पार्क करवाई और पैदल चलती हुई प्रोफ़ेसर फ़ख़्र तक जा पहुँची। पुरानी किताबें बेचने वाले दूर-दूर तक फैले हुए थे। किर्म-ख़ुर्दा किताबों के ढेर थे। ऐसी किताबें और रिसाले भी थे जिन्हें अमरीकन वतन लौटने से पहले सेरों के हिसाब से बेच गए थे और जिनके सफ़्हे भी अभी खुले थे।

    “सलाम-अ’लैकुम सर!”

    चौंक कर सर ने पीछे देखा तो बीबी शर्मिंदा हो गई।

    अल्लाह! इस प्रोफ़ेसर की आँख में कभी तो पहचान की किरन जागेगी? हर बार नए सिरे से अपना तआ’रुफ़ तो करवाना पड़ेगा।

    “आप इतनी धूप में खड़े हैं सर।”

    प्रोफ़ेसर ने जेब से एक बोसीदा और गंदा रूमाल निकाल कर माथा साफ़ किया और आहिस्ता से बोले, “इन किताबों के पास कर गर्मी का एहसास बाक़ी नहीं रहता।”

    बीबी को अ’जीब शर्मिंदगी सी महसूस हुई क्योंकि जब कभी वो पढ़ने बैठती तो हमेशा गर्दन पर पसीने की नमी सी जाती और उसे पढ़ने से उलझन होने लगती।

    “आप को कहीं जाना हो तो जी मैं छोड़ आऊँ आप को।”

    “नहीं मेरा साइकल है साथ। शुक्रिया!”

    बात कुछ भी थी। फ़ुटपाथ पर पुरानी किताबों की दुकान के सामने एक बे-नियाज़ छः फ़ुटे प्रोफ़ेसर के साथ, जिसके कालर पर मैल का निशान था, एक सरसरी मुलाक़ात थी चंद सानिए भर की। लेकिन इस मुलाक़ात का बीबी पर तो अ’जीब असर हुआ। सारा वजूद तहलील हो कर हवा में मिल गया। कंधों पर सर रहा और पाँव में हिलने की सकत रही थी। हालाँकि प्रोफ़ेसर फ़ख़्र ने उससे एक बात भी ऐसी की जो ब-ज़ाहिर तवज्जोह-तलब होती। पर बीबी के तो माथे पर जैसे उन्होंने अपने हाथ से चंदन का टीका लगा दिया। खोई-खोई सी घर आई और ग़ाइब सी बड़े होटल पहुँच गई। जब वो शमऊज़ की साड़ी पहने आईना-ख़ाने से लॉबी में पहुँची तो दर-अस्ल वो ऑक्सीजन की तरह एक ऐसी चीज़ बन चुकी थी जिसे सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है। जमाली मलिक साहब शार्क स्किन के सूट में मलबूस, कालर में कारनेशन का फूल लगाए घुटनों पर कलफ़-शुदा सर्वेट रखे इतने ठोस नज़र रहे थे कि सामने मेज़ पर कोहनियाँ टिकाए झींगे का पुलाव और चौप सूटी खाने वाली लड़की पर उन्हें शुबह तक हो सका और वो जान ही सके कि मुसलसल बातें करने वाली लड़की दर-अस्ल होटल में मौजूद ही नहीं है। अगर बीबी की शादी जमाली मलिक से हो जाती तो कहानी आइसिंग लगे केक की तरह दिल-आवेज़ होती। लिफ़्ट की तरह ऊपर की मंज़िलों को चढ़ने वाली। स्विमिंगपूल के उस तख़्ते की तरह जिस पर चढ़ कर हर तैरने वाला समरसौल्ट करने से पहले कई फ़ुट ऊपर चला जाया करता है। लेकिन शादी तो बीबी की प्रोफ़ेसर फ़ख़्र से हो गई।

    डी.सी. साहब की बेटी का ब्याह उसकी पसंद का हुआ और इस शादी की दा’वत होटल में दी गई जिसके मैनेजर जमाली साहब थे। दुल्हन के घर वालों ने चार डीलक्स क़िस्म के कमरे दो दिन पहले से बुक कर रखे थे और बड़े हाल में जहाँ रात का ऑर्केस्ट्रा बजा करता है, वहीं दूल्हा-दुल्हन के ए’ज़ाज़ में बहुत बड़ी दा’वत रही। निकाह भी होटल में ही हुआ और रुख़्सती भी होटल ही से हुई। सारी शादी का हंगामा मफ़क़ूद था। एक ठंड का, एक ख़ामोशी का एहसास मेहमानों पर तारी था। ठंडे-ठंडे हाल में यख़बस्ता कोल्ड ड्रिंक्स पीते हुए सर्द महर से मेहमानों से मिल कर बीबी अपने मियाँ के साथ समनाबाद चली गई।

    लेकिन इस रुख़्सती से पहले एक और भी छोटा सा वाक़िआ’ हुआ। निकाह से पहले जब दुल्हन तैयार की जा रही थी और उसे ज़ेवर पहनाया जा रहा था, उस वक़्त बिजली अचानक फ्यूज़ हो गई। पहले बत्तियाँ गईं फिर एयर कंडीशनर की आवाज़ बंद हो गई। चंद सानिए तो कानों को सुकून सा महसूस हुआ लेकिन फिर लड़कियों का गिरोह कुछ तो गर्मी के मारे और कुछ मोम बत्तियों की तलाश में बाहर चला गया। अंधेरे कमरे में एक आरास्ता दुल्हन रह गई। इर्द-गिर्द ख़ुश्बू का एहसास बाक़ी रहा और बाक़ी सब कुछ ग़ाइब हो गया।

    बत्तियाँ पूरे आधे घंटे बा’द आईं। अब ख़ुदा जाने ये जमाली मलिक की स्कीम थी या वापडा वालों की साज़िश थी। बिजली चले जाने के कोई दस मिनट बा’द बीबी के दरवाज़े पर दस्तक हुई। डरी हुई आवाज़ में बीबी ने जवाब दिया, “कम इन।”

    हाथ में शम्अ’-दान लिए जमाली मलिक दाख़िल हुआ। उसने आधी रात जैसा गहरा नीला सूट पहन रखा था। कालर में कार्नेशन का फूल था और उसके आते ही तंबाकू मिली कोई तेज़ सी ख़ुश्बू कमरे में फैल गई। बीबी का दिल ज़ोर-ज़ोर से बजने लगा।

    “मैं ये बताने आया था कि हमारा जनरेटर ख़राब हो गया है। थोड़ी देर में बिजली जाएगी किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं आप को?”

    वो ख़ामोश रही।

    “मैं ये कैंडल स्टैंड आप के पास रख दूँ?”

    इस्बात में बीबी ने सर हिला दिया।

    जमाली मलिक ने शम्अ’-दान ड्रेसिंग टेबल पर रख दिया। जब पाँच मोम बत्तियों का अ’क्स बीबी के चेहरे पर पड़ा और कनखियों से उसने आइने की तरह देखा तो लम्हा भर को तो अपनी सूरत देख कर वो ख़ुद हैरान सी रह गई।

    “आप की सहेलियाँ किधर गईं?”

    “वो नीचे चली गई हैं शायद।”

    “अगर आप को कोई ए’तिराज़ हो तो मैं यहाँ बैठ जाऊँ चंद मिनट।”

    बीबी ने इस्बात में सर हिला दिया।

    वो अपालो की तरह वजीहा था। जब उसने एक घुटने पर दूसरा घुटना रख कर सर को सोफ़े की पुश्त से लगाया तो बीबी को अ’जीब क़िस्म की कशिश महसूस हुई। जमाली मलिक के हाथ में सारे होटल की मास्टर चाबियाँ थीं और उसकी बड़ी सी अँगूठी नीम रौशनी में चमक रही थी। इस ख़ामोश ख़ूबसूरत आदमी को बीबी ने अपने निकाह से आध घंटा पहले पहली बार देखा और उसकी एक नज़र ने उसे अपने अंदर इस तरह जज़्ब कर लिया जैसे स्याही-चूस स्याही को जज़्ब करता है।

    “मैं आपको मुबारकबाद पेश कर सकता हूँ?”, उसने मुज़्तरिब नज़रों से बीबी को देख कर पूछा।

    वो बिल्कुल चुप रही।

    “लड़कियाँ, ख़ास कर आप जैसी लड़कियों को एक बड़ा ज़ो’म होता है और इसी एक ज़ो’म के हाथों वो एक बहुत बड़ी ग़लती कर बैठती हैं।”

    नक़ली पलकों वाले बोझल पपोटे उठा कर बीबी ने पूछा, “कैसी ग़लती?”

    “कुछ लड़कियाँ महज़ ऋषि-साधुओं की तपस्या तोड़ने को ख़ुशी की मे’राज समझती हैं। वो समझती हैं कि किसी की बे-नियाज़ी की ढाल में सूराख़ कर के वो सुकून-ए-मे’राज को पा लेंगी। किसी के तक़वा को बर्बाद करना ख़ुशी के मुतरादिफ़ नहीं है। किसी के ज़ोहद को इ’ज्ज़-ओ-इंकिसारी में बदल देना कुछ अपनी राहत का बाइस नहीं हाँ दूसरों के लिए एहसास-ए-शिकस्त का बाइस हो सकती है ये बात...“

    चाबियाँ हाथ में घूम फिर रही थीं। ज़हानत और फ़साहत का दरिया रवाँ था।

    “ये ज़ो’म औ’रतों में, लड़कियों में कब ख़त्म होगा? मेरा ख़याल था आप ज़हीन हैं लेकिन आप भी वही ग़लती कर बैठी हैं जो आ’म लड़की करती है। आप भी तौबा-शिकन बनना चाहती हैं।”

    “मुझे मुझे प्रोफ़ेसर फ़ख़्र से मुहब्बत है।”

    “मुहब्बत? आप प्रोफ़ेसर फ़ख़्र को ये बताना चाहती हैं कि अंदर से वो भी गोश्त-पोस्त के बने हुए हैं। अपने तमाम आइडियल्ज़ के बा-वजूद वो भी खाना खाते हैं। सोते हैं और मुहब्बत करते हैं। उनका कोट आफ़ आर्मर इतना सख़्त नहीं जिस क़दर वो समझते हैं।”

    वो चाहती थी कि जमाली मलिक से कहे कि तुम कौन होते हो मुझे प्रोफ़ेसर फ़ख़्र के मुतअ’ल्लिक़ कुछ कहने वाले! तुम्हें क्या हक़ पहुँचता है कि यहाँ लेदर के सोफ़े से पुश्त लगा कर सारे होटल के मास्टर चाबियाँ हाथ में लेकर इतने बड़े आदमी पर तब्सिरा करो लेकिन वो बेबस सुने जा रही थी और कुछ कह नहीं सकती थी।

    “मैं प्रोफ़ेसर साहब से वाक़िफ़ नहीं हूँ लेकिन जो कुछ सुना है उससे यही अंदाज़ा लगाया है कि वो अगर मुजर्रिद रहते तो बेहतर होता। औ’रत तो ख़्वाह-मख़्वाह तवक़्क़ोआ’त से वाबस्ता कर लेने वाली शय है। वह भला इस सिन्फ़ को क्या समझ पाएँगे?”

    “जमाली साहब!”, उसने इल्तिजा की।

    “आप सी लड़कियाँ अपने रफ़ीक़-ए-हयात को इस तरह चुनती हैं जिस तरह मेनू में से कोई अजनबी नाम की डिश आर्डर कर दी जाए महज़ तजुर्बे की ख़ातिर, महज़ तजस्सुस के लिए।”

    वो फिर भी चुप रही।

    “इतने सारे हुस्न का प्रोफ़ेसर साहब को क्या फ़ाएदा होगा भला। मनी प्लांट पानी के बगै़र सूख जाता है। औ’रत का हुस्न परस्तिश और सताइश के बगै़र मुरझा जाता है। किसी ज़हीन मर्द को भला किसी ख़ूबसूरत औ’रत की कब ज़रूरत होती है? उसके लिए तो किताबों का हुस्न बहुत काफ़ी है।”

    शम्अ’-दान अपनी पाँच मोम बत्तियों समेत दम साधे जल रहा था और वो क्यूटेक्स लगे हाथों को ब-ग़ौर देख रही थी।

    “मुझसे बेहतर क़सीदा-गो आप को कभी नहीं मिल सकता क़मर, मुझ सा घर आपको नहीं मिल सकता क्योंकि मेरा घर इस होटल में है और होटल सर्विस से बेहतर कोई सर्विस नहीं होती और मुझे ये भी यक़ीन है कि मेरी बातों पर आप को उस वक़्त यक़ीन आएगा जब आप के चेहरे पर छाइयाँ पड़ जाएँगी। हाथ कीकर की छाल जैसे हो जाएँगे और पेट छागल में बदल जाएगा, मैं तो चाहता था मेरी तो तमन्ना थी कि जब हम इस होटल की लॉबी में इकट्ठे पहुँचते, जब इसकी बार में हम दोनों का गुज़र होता, जब इसकी गैलरियों में हम चलते नज़र आते तो अमरीकन टूरिस्ट से लेकर पाकिस्तानी पेटी बोरज़ुवा तक सब, हमारी ख़ुश-नसीबी पर रश्क करते लेकिन आप आईडियलिस्ट बनने की कोशिश करती हैं। ये हुस्न के लिए गड्ढा है बर्बादी का।”

    सावन की रात जैसा गहरा नीला सूट, कारनेशन का सुर्ख़ फूल और आफ़टर शेव लोशन से बसा हुआ चेहरा बिल-आख़िर दरवाज़े की तरफ़ बढ़ा और बढ़ते हुए बोला,

    “किसी से आइडियल्स मुस्तआ’र लेकर ज़िंदगी बसर नहीं हो सकती मोहतरमा, आदर्श जब तक अपने ज़ाती हों हमेशा मुंतशिर हो जाते हैं। पहाड़ों का पौदा रेगिस्तान में नहीं लगा करता।”

    उसमें तो इतना हौसला भी रहा था कि आख़िरी नज़र जमाली मलिक पर ही डाल लेती। दरवाज़े के मद्दूर हैंडल पर हाथ डाल कर जमाली मलिक ने थोड़ा सा पट खोल दिया। गैलरी से लड़कियों के हँसने की आवाज़ें आने लगीं।

    “मैं भी किस क़दर अहमक़ हूँ। उससे अपना केस plead कर रहा हूँ जो कभी का फ़ैसला कर चुकी है। अच्छा जी मुबारक हो आप को।”

    दरवाज़ा खुला और फिर बंद हो गया। जाते हुए वजीह मैनेजर को एक नज़र बीबी ने देखा और अपने आप पर ला’नत भेजती हुई उसने नज़रें झुका लीं। चंद लम्हों बा’द दरवाज़ा फिर ख़ुला और अधखुले पट से जमाली मलिक ने चेहरा अंदर कर के देखा। उसकी हल्की ब्राउन आँखों में नमी और शराब की मिली-जुली चमक थी जैसे गुलाबी शीशे पर आहों की भाप इकट्ठी हो गई हो।

    “मुझसे बेहतर आदमी तो आपको मिल रहा है लेकिन मुझसे बेहतर घर मिलेगा आपको मग़रिबी पाकिस्तान में।”

    इसी तरह संतो जमादारनी के जाने पर बीबी ने सोचा था। हमसे बेहतर घर कहाँ मिलेगा कलमुही को। इसी तरह ख़ुर्शीद के चले जाने पर वो दिल को समझाती थी कि उस बद-बख़्त को इससे अच्छा घर कहाँ मिलेगा और साथ-साथ बीबी ये भी जानती थी कि उससे बेहतर घर चाहे मिले वो लौट कर आने वालियों में से नहीं थीं। इतने बरस गुज़रने के बा’द एक पुल ता’मीर हो गया। आपी आप माज़ी से जोड़ने वाला। वो दिल बर्दाश्ता अनारकली चली गई। उसका ख़याल था कि वो चार घंटे की ग़ैर-मौजूदगी में सब कुछ ठीक कर देगी। संतू जमादारनी और ख़ुर्शीद तक को आटे दाल का भाव मा’लूम हो जाएगा। लेकिन हुआ यूँ कि जब वो अपने इकलौते दस रुपये के नोट को हाथ में लिए बानो बाज़ार में खड़ी थी और सामने रबड़ की चप्पलों वाले से भाव कर रही थी और चप्पलों वाले पौने तीन से नीचे उतरता था और वो ढाई रुपये से ऊपर चढ़ती थी, ऐ’न उस वक़्त एक सियाह कार उसके पास कर रुकी। अपने ब्वाय फिटे पैरों को नई चप्पल में फँसाते हुए उसने एक नज़र कार वाले पर डाली।

    वो अपालो के बुत की तरह वजीह था।

    कनपटियों के क़रीब पहले चंद सफ़ेद बालों ने उसकी वजाहत पर रौ’ब-ए-हुस्न की मोहर भी लगा दी थी। वक़्त ने उस सेंट का कुछ बिगाड़ा था। वो उसी तरह महफ़ूज़ था जैसे अभी कोल्ड स्टोरेज से निकला हो।

    बीबी ने अपने कीकर के छाल जैसे हाथ देखे। पेट पर नज़र डाली जो छागल में बदल चुका था और उन नज़रों को झुका लिया जिन में अब कतीरा गोंद की बुझी-बुझी सी चमक थी।

    जमाली मलिक उसके पास से गुज़रा लेकिन उसकी नज़रों में पहचान की गर्मी सुलगी। वापसी पर वो प्रोफ़ेसर साहब से आँखें चुरा कर बिस्तर पर लेट गई और आँसुओं का रुका हुआ सैलाब उसकी आँखों से बह निकला।

    प्रोफ़ेसर साहब ने बहुत पूछा लेकिन वो उन्हें क्या बताती कि दरख़्त चाहे कितना ही ऊँचा क्यों हो जाए उसकी जड़ें हमेशा ज़मीन को हवस से कुरेदती रहती हैं। वो उन्हें क्या समझाती कि आइडियल्स कुछ मांगे का कपड़ा नहीं जो पहन लिया जाए। वो उन्हें क्या कहती कि औ’रत कैसे तवक़्क़ोआ’त वाबस्ता करती है,

    और

    ये तवक़्क़ोआ’त का महल क्यों कर टूटता है?

    वो ग़रीब प्रोफ़ेसर साहब को क्या समझाती!

    ऐसी बातें तो ग़ालिबन जमाली मलिक भी भूल चुका था।

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