टॉम जेफ़र्सेन के पिंजरे
नौजवान लड़का तोते को गाली सिखा रहा था।
“बोल मिट्ठू... साला...!”
साला... साला... साला...
तोता ख़ुश-दिली से दोहराने लगा... बुड्ढे टॉम ने गर्दन मोड़ कर लड़के को देखा।
“क्या करते हो...? मेरे बच्चों को ख़राब कर रहे हो...?”
नौजवान, टॉम की बात नज़र-अंदाज कर के और उसकी तरफ़ शोख़ी से देखकर फिर तोते को सिखाने लगा।
“बोल मिट्ठू हरामी... हरामी…”
तोता जैसे लड़के को ख़ुश करने पर आमादा था। ज़ोर से चीख़ा, “हरामी...!”
बुड्ढे टॉम ने छड़ी उठाई…
“तुम भागोगे कि नहीं? मैं अभी तुम्हारे बाप के पास जाता हूँ।”
उसके छड़ी उठाने पर बड़े पिंजरे में बंद, बंदरों के परिवार का मुखिया खौखियाया। बुड्ढे टॉम ने उसको डांटा।
“हरामी की औलाद, तुम क्यों दाँत निकोस रहे हो। मैं तो इस लड़के को पीटने जा रहा हूँ, जिसने मेरे बच्चों की आ’दतें ख़राब कर दी हैं।”
लड़का बरामदे में तोते के पास खड़ा था। बुड्ढे टॉम को छड़ी लेकर आता देखकर भाग खड़ा हुआ और भागते हुए बोला, “अंकल तुम्हारे बच्चे मेरे दोस्त हैं। वो तुमसे ज़ियादा मेरी बात मानते हैं।”
एक बंदर और एक बंदरिया थी और उसके दो बच्चे। आठ ख़रगोश थे, सफ़ेद बुराक़ रेशम जैसे। उनकी लाल-लाल ख़ूबसूरत आँखों में ख़ौफ़ हमेशा झाँका करता। वो ज़रा सी आवाज़ पर चौंक पड़ते। एक लम्हे के लिए पलट कर देखते, फिर भाग जाते। पिंजरे उनके भी थे मगर वो ज़ियादा-तर खुले रहते। लड़के दौड़ाते तो भागने की बजाए झट ज़मीन पकड़ कर बैठ जाते। इससे लड़कों को उन्हें पकड़ने में आसानी होती। फिर वो उन्हें अपनी गिर्द में लिए फिरते, पकड़ते, फिर छोड़ देते। कभी-कभी बैठ कर अपनी जांघों पर रखकर उनकी पुश्त सहलाते तो वो अपनी सुर्ख़ ख़ूबसूरत आँखों को बंद करके आनंद की किसी दूसरी दुनिया में खो जाते।
औ’रतों को ज़ियादा दिलचस्पी बंदरों से थी। वो जब एक दूसरे की जुएँ निकाल-निकाल कर खाते, औ’रतें बहुत हँसतीं। कभी-कभी कोई ज़ियादा जुरअत-मंद औ’रत अपना सर उनके हवाले कर देती तो निहायत मुस्तैदी से उसकी जुएँ निकालना शुरू’ कर देते। वो औ’रत देने को तो अपना सर दे देती मगर बे-इंतिहा ख़ाइफ़ रहती। क्योंकि एक-बार एक औ’रत ने सर देने के बा’द फ़ौरन डर से सर हटाना चाहा था तो बंदर ने एक थप्पड़ जड़ दिया था। दूसरी औ’रतें बंदर के ग़ुस्से होने और बंदरिया के ख़ौफ़ खाने से काफ़ी महज़ूज़ हुईं। उनका एक ख़ानदान में मिलकर रहना भी अच्छा लगता था। बंदर के दोनों बच्चों की छोटी-छोटी शरारतें, बाप का बार-बार खौखियाना और माँ की ममता। ये सब कुछ मिला कर एक दम घरेलू सा माहौल हो जाता। औ’रतें इन बंदरों के लिए मूंगफलियाँ और फल भी लातीं। दिन का बच्चा-खुचा खाना और बासी सूखी हुई रोटियाँ भी बूढ़े टॉम के इन बे-ज़बान बच्चों के लिए भेज दी जातीं। फ़स्लों के मौक़े’ पर अनाज बांध दिया गया था। मर्द कभी-कभी बूढ़े टॉम की पैसों से मदद कर दिया करते थे।
टॉम का घर क़स्बे का चिड़ियाघर था। क़स्बे के भोले-भाले मा’सूम लोग आ’म तौर पर शाम को बीवी बच्चों के साथ घूमने बुड्ढे के घर आ जाते। बुड्ढा हर आदमी का इस्तिक़बाल टोपी सर से उठा के करता, जिसको वो पता नहीं कब से पहनता आ रहा था। घर तो छोटा सा था मगर सामने खुली हुई काफ़ी ज़मीन थी जिसके गिर्द मेहंदी की बाढ़ खड़ी कर के अहाता बना दिया गया था। इस खुली जगह में बैठने के लिए बेंच वग़ैरह नहीं थे। मगर फ़र्श पर हमेशा मुलाइम दूब का क़ालीन बिछा रहता, जिस पर मर्द और औ’रतें बिला-तकल्लुफ़ बैठ जाते। लड़के दौड़ें लगाते, घास पर लुढ़कते और इधर-उधर भाग रहे ख़रगोशों को पकड़ते।
टॉम उन्हें ख़ुश-ख़ुर्रम हँसता-बोलता देखकर एक दम आसूदा हो जाता। जैसे इससे आगे ज़िंदगी में और कुछ न हो।
टॉम की ज़िंदगी में तो वाक़ई’ इससे आगे कुछ नहीं था। चवालीस साल पहले जंग की हौलनाकियों से झूझता बारूद के धुएँ में खाँसता दुश्मनों के लहू में शराबोर वो यहाँ पहुँचा था। बर्मा के महाज़ पर ट्रीगर पर उँगलियाँ रखे-रखे और बंदूक़ का घोड़ा दबाते-दबाते उसकी उँगलियाँ ज़ख़्मी हो गई थीं। इन्हीं उँगलियों के इ’लाज के लिए उसे इस्टर्न कमांड के हैड ऑफ़िस रांची के मुज़ाफ़ात में एक आर्मी हस्पताल में लाया गया था।
लोग कहते हैं हिन्दोस्तान की हवाएँ बड़ी साहिर हैं। आदमी की मत मार देती हैं। सब्ज़े से ढकी हुई वादी का जादू। बेहद पुर-सुकून नर्म-रौ ज़िंदगी का जादू, भोले-भाले मा’सूम बेरिया आदमी दासियों की चाहतों का जादू, वो कितने जादुओं से अपने आपको आज़ाद करता, सो वो बेबस हो गया। मोह में आ गया।
जंग ख़त्म हो गई। अपनी दो उँगलियाँ कटवा कर वो इंग्लैंड चला गया। ज़माना बीत गया। उस वक़्त के बच्चे जवान हो गए। कि अचानक एक दिन वो अपना बोसीदा जंगी थैला पीठ पर लटकाए उसी वादी में लौट आया था। जंग उसने जीत ली थी मगर दिल हार गया। एक छोटी सी पहाड़ी पर खड़े हो कर उसने जंगलों से ढकी हुई बे-पनाह हसीन वादी को देखा। हवाओं की आग़ोश में मचलती सब्ज़े की ख़ुशबू को अपने अंदर उतर जाने दिया और तब उसने जाना कि धुएँ और बारूद की शामा को मजरूह कर देने वाली बू के इ’लावा भी कोई ख़ुशबू है। जो सिर्फ़ फेफड़ों तक महदूद नहीं रहती बल्कि रग-ओ-पै में उतर जाती है, सरशार कर देती है और बताती है कि ज़िंदा रहने के लिए पुर-शोर, तेज़-रफ़्तार और आसाइशों से पुर ज़िंदगी ज़रूरी नहीं है। अगर महात्मा बुध को यहीं कहीं निरवान मिला था तो उसे भी यहीं पहली बार ज़िंदगी गुज़ारने का मतलब समझ में आया।
कुछ लोगों का ये भी दा’वा है कि टॉम जेफ़र्सन के माईग्रेशन के पीछे दर-अस्ल एक काली लड़की थी। जिन दिनों वो आर्मी हस्पताल में ज़ेर-ए-इ’लाज था, उसकी मुलाक़ात एक आदीबासी लड़की से हुई थी। वो अस्पताल की स्वीपर थी और बहुत चुपके से मशरिक़ ने मग़रिब के दिल का दरवाज़ा खटखटाया था और जब मग़रिब ने दरवाज़ा खोला तो अपने मशरिक़ के बे-पनाह हुस्न को देखकर मबहूत रह गया। ए ब्लैक रोज़, ए पीस आफ़ ब्लैक ज्वेल...
अगर टॉम जेफ़र्सन से इस सिलसिले में कोई बात करता है तो वो हँसता है और एक अलग कहानी सुनाता है।
“मैं रोबोटों के बीच नहीं रहना चाहता था। मैं इंसान था, इंसानों के बीच रहना चाहता था। ज़िंदा और गर्म इंसानों के बीच। वहाँ हर इंसानी आवाज़ मशीनों में खो गई है। आदमी का हँसना, आदमी का रोना, आदमी का बोलना, आदमी का चीख़ना, सब मशीनों के शोर में ग़ायब हो गया है, सारे इंसानी रिश्ते टूट कर बिखर गए हैं। सर्द बे-हिस मशीनों की तरह जिस्म लम्स की लज़्ज़त से महरूम हो गए हैं। आदमी सिर्फ़ अपनी पहचान ही नहीं खो रहा है अपना वजूद खो रहा है और एक रोबोट की तरह जी रहा है।
इस क़स्बे में उसकी बात समझने वाला कोई नहीं है। इसलिए लोग उसको झक्की समझते हैं। ठीक बात है, अगर वो झक्की नहीं है तो अपना इतना बड़ा ख़ूबसूरत देश छोड़कर इस जंगल में क्यों आ बसा है? जानवरों के बीच उसका ये पागलपन बस्ती वालों के लिए बहुत अहम है। इसलिए वो इसको अपने से बहुत ऊंचा कोई माफ़ौक़-उल-फ़ितरत शख़्स मानते हैं। इसीलिए वो उसकी इ’ज़्ज़त भी करते हैं।
मगर तोता उसकी एक नहीं सुनता। वो एक दम शोख़ हो गया है। जब टॉम को उसकी ख़ुराक देने में देर हो जाती है तब वो गाली बिकना शुरू’ कर देता है।
बेटा, बेटा, बेटा...
हरामी, हरामी...
साला...
उसको ये गालियाँ माल्कम कजोर के बेटे जोखीम कजोर ने सिखाई हैं। जोखीम बस्ती का सबसे बदमाश लड़का है मगर सबसे तेज़ भी है। रांची के किसी मिशन स्कूल में पढ़ता है। उसके बाप ने उसको एक साईकल ख़रीद दी है। इसी साईकल पर वो रोज़ाना स्कूल जाता है और रोज़ाना स्कूल जाते हुए और स्कूल से वापिस आते हुए साईकल की घंटी ज़ोर-ज़ोर से बजाता है। तोता घंटी की हर आवाज़ पर एक गाली उछालता है और टॉम अपनी छड़ी लहरा कर तोते को धमकाता है। तोता उससे नहीं डरता जैसे जोखीम नहीं डरता।
जिस दिन स्कूल में छुट्टी होती है उस दिन जोखीम सारा दिन टॉम का भेजा चाटता है।
“आपको अकेले डर नहीं लगता...?”
“मैं अकेला कब रहता हूँ, ये जो मेरे साथ रहते हैं...!”, वो जानवरों की तरफ़ इशारा करता।
“ये आदमी हैं...?”, वो तअ’ज्जुब से पूछता
“ये आदमियों से अच्छे हैं।”
“मगर आदमी को आदमियों के साथ रहना चाहिए।”, लड़का अ’क़्ल-मंदी का इज़हार करता।
“आदमी जब रोबोट हो जाएँ तो ये जानवर ही भले...!”
जोखीम दसवीं क्लास का तालिब-ए-इ’ल्म है। वो रोबोट के मअ’नी जानता है मगर ये नहीं जानता कि आदमी कब रोबोट बन जाता है। इसलिए वो टॉम को अगर पूरा नहीं तो आधा पागल ज़रूर समझता है। फिर वो अपनी बात पलटता है।
“तुम्हें तुम्हारा घर नहीं याद आता...? और तुम्हारे बच्चे...?”
टॉम को क्या याद आता है क्या याद नहीं आता, ये कोई नहीं जानता। वो किसी को बताता भी नहीं। उससे बार-हा ये सवाल किया गया। बार-हा लोगों ने वो वज्ह जानने की कोशिश की है जिसकी वज्ह से उसने अपना मुल्क छोड़ा। लोग ये भी जानना चाहते हैं कि क्या वो यहाँ ख़ुश है... वो सारे सवालों के जवाब दे सकता है मगर देता नहीं। क्योंकि वो जानता है कि अगर वो इस सिलसिले में कुछ बोलेगा तो लोग उसको और पागल समझेंगे। मगर जोखीम को वो बहुत ख़ुश-दिली से बताता है।
“मेरा घर यहीं है। मैं पिछले जनम में यहीं पैदा हुआ था...?”
“आपको कैसे मा’लूम हुआ कि आप पिछले जनम में यहीं पैदा हुए थे?”
“मुझे मा’लूम है, यहाँ हमारा घर था एक, छोटा सा मिट्टी का और उसमें तुम्हारी आंटी रहती थी...!”
“आंटी...?”, जोखीम तअ’ज्जुब से पूछता, “आंटी भी क्या आप ही की तरह गोरी थी?”
वो ख़ूब हँसता। फिर बताता, “नहीं काली थी, एक दम काली, जैसे तुम लोग हो। ए ब्लैक ज्वेल...”
“फिर...?”, वो आगे जानने के लिए बेचैन हो जाता।
“फिर आगे मुझे कुछ याद नहीं आता...!”
जोखीम पूछ-पूछ कर मायूस हो जाता तो तोते के पास चला जाता।
“बोल मिट्ठू, आंटी काली थी...!”
टॉम बहुत प्यार से तोते को और फिर उसी प्यार से जोखीम को देखता है। कहीं अंदर तारीक गोशों से रोशनी की फुहार सी गिरने लगती है।
रांची शहर के मुज़ाफ़ात में बसा हुआ ये एक आदीबासी क़स्बा इतना पुर-सुकून है कि लगता है इस दौर की तहज़ीब के मक्कार हाथों ने उसे अभी छुआ तक नहीं है। हालाँकि शहर से उसका फ़ासला ज़ियादा नहीं है। बहुत से मर्द शहर में काम करते हैं। बहुत सी औ’रतें भी अपनी रोज़ी रोटी इसी शहर से हासिल करती हैं। कितने ही बच्चे शहर के स्कूलों में पढ़ते हैं। आना-जाना लगा रहता है। कभी-कभी कैथोलिक चर्च के पादरी भी वअ’ज़ देने आ जाते हैं, मगर जैसे हर मौज चढ़ती है और उतर जाती है, न कुछ दे जाती है न कुछ ले जाती है, सब कुछ वैसे का वैसा ही रहता है। तहवारों में लोग चावल से कशीद की जाने वाली शराब ‘रासी’ पीते हैं। औ’रतें एक दूसरे की कमर में हाथ डाल कर नाच नाचती हैं। ढोल और मृदंग बजते हैं और आ’म तौर पर ये सब कुछ टॉम साहब के अहाते में होता है। इस दिन टॉम साहब अपना इकलौता सूट निकाल कर पहनता है। जो धुलाई और प्रैस न होने की वज्ह से एक दम बद-रंग और बद-वज़्अ’ हो गया है। इस दिन वो चावल से कशीद की जाने वाली शराब भी पीता है और नाच के दौरान और लोगों के साथ-साथ ताली भी पीटता है। ज़िंदगी यहाँ एक नदी की तरह पुर-शोर नहीं बल्कि एक झील की तरह पुर-सुकून है। पुर-सुकून, गहरी और ना-क़ाबिल-ए-तब्दील।
मगर ये टॉम साहिब का भरम था कि यहाँ कुछ भी तब्दील नहीं हो सकता। बहुत आहिस्ता-आहिस्ता, बहुत ज़ेरीं सत्ह पर एक तबदीली रू-नुमा हो रही थी। लोगों की बातचीत में, अल्फ़ाज़ में, गानों के बोल में, लिबास में और ख़यालों में भी। टॉम जेफ़र्सन जो अपने अहाते से कभी बाहर नहीं निकलता था, उसको क्या मा’लूम कि सारा आदिवासी इ’लाक़ा आहिस्ता-आहिस्ता करवट ले रहा है। जागा नहीं है मगर नींद टूटने की वो कैफ़ियत, जब रफ़्ता-रफ़्ता हवास मुजतमा’ होना शुरू’ होते हैं और धीरे-धीरे इदराक पैदा होने लगता है, तक़रीबन साफ़ दिखाई दे रही है।
इस बात का एहसास टॉम जेफ़र्सन को उस दिन हुआ जिस दिन क़स्बे से शहर का काम करने गई तीन लड़कियों को अग़ुवा कर लिया गया। जब अँधेरा होने के बा’द भी लड़कियाँ वापिस नहीं आईं तो गाँव में बेचैनी फैल गई। लोग, जो अँधेरा गहराने के फ़ौरन बा’द अपने घरों में बंद हो जाने के आ’दी थे, बाहर जगह-जगह दो-दो चार-चार की टोलियों में जमा’ हो कर बातें करने लगे। फिर नौजवानों की एक टोली शहर पता लगाने के लिए भेजी गई। सारी रात बस्ती में कोई नहीं सोया।
सुब्ह को मा’लूम हुआ कि तीन लड़कियों में से एक का क़त्ल हो गया है। दो लड़कियाँ बेहोश पाई गईं। डाकटरी जांच के मुताबिक़ उन तीनों के साथ कई आदमियों ने रेप किया था। रेप करने वाले कौन थे, उसका भी एक हद तक पता चल गया। ये शहर के कुछ ऐसे बा-असर लोग थे जिन पर हाथ डालने में पुलिस आना-कानी कर रही थी। ऐसी कोशिश की जा रही थी कि मुआ’मले को रफ़ा’-दफ़ा’ कर दिया जाए। कॉलेज के आदी-बासी लड़कों ने थाने का घेराव कर लिया और मुश्तइ’ल हो कर पत्थर बरसाने लगे। जवाब में पुलिस ने लाठी चार्ज किया। जिसमें कई लड़कों को चोटें आईं।
ये सारी ख़बरें बस्ती वालों के लिए इंतिहाई हैरत-अंगेज़ थीं। पहले तो किसी की समझ में न आया कि क्या हुआ। फिर जैसे धीरे-धीरे आग सुलगने लगी। धुआँ उठने लगा, गर्मी बढ़ने लगी। लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ दहकने लगे। साईकलें क़स्बे से शहर और शहर से क़स्बे दौड़ने लगीं। दूसरे दिन सारा रांची शहर बंद हो गया। बंद का ऐ’लान झारखंड स्टूडैंट फ़ैडरेशन ने किया था। तय हुआ कि उसी दिन क़स्बे से एक जलूस निकाल कर रांची डिप्टी कमिशनर के इजलास में एहतिजाज के लिए जाया जाए। सुब्ह से आस-पास के देहातों से, बल्कि दूर दराज़ की बस्तियों से पैदल और रेल-गाड़ियों में लोग आना शुरू’ हुए। जंगल के इंतिहाई अंदरूनी इ’लाक़ों से भी लोग पहुँचे थे। शानों पर कमान सजाए, पीछे पुश्त पर टँगे बाँस के तरकश में तीरों का गुच्छा लिए ढोल बजाते नक़्क़ारे पीटते। दोपहर से पहले-पहले सारी बस्ती अजनबी लोगों की भीड़ से भर गई थी। कहीं ज़रा सी जगह नहीं बची थी। टॉम जेफ़र्सन का अहाता खचा-खच भर गया। फिर जीपों और किराए की टैक्सियों पर लीडरों की आमद शुरू’ हुई। ना’रों की गरज से जैसे सारा अर्ज़-ओ-समा भर गया।
झारखंड राज... ज़िंदाबाद, ज़िंदाबाद
ख़ून का बदला... ख़ून से लेंगे
हत्यारों को...। फांसी दो, फांसी दो!
फिर सारी भीड़ क़स्बे से निकलने वाले रास्ते पर यूँ बहने लगी जैसे पानी किसी झील का किनारा तोड़ कर बह निकला हो।
जब जलूस दौर चला गया और सारा क़स्बा तक़रीबन ख़ाली हो गया , तब टॉम जेफ़र्सन ने बंद दरवाज़े से झांक कर, एक दम वीरान अहाते को देखा। सुनसान क़स्बे पर नज़र डाली और पहली बार गाली दी।
“हरामी...!”
तोता ज़ोर-ज़ोर से चीख़ने लगा।
“हरामी, हरामी, हरामी...”
बंदर तेज़ आवाज़ में खौखियाए। उनके बच्चों ने भी दाँत निकोसे। टॉम को साल-हा-साल के बा’द पहली बार ग़ुस्सा आया। उसने छड़ी उठाई और सच-मुच बंदरों पर बरसाने लगा। बंदर, जो इस फ़न के माहिर होते हैं, हर वार बचा जाते। जब वो थक कर पसीने-पसीने हो गया तो उसने छड़ी फेंक दी
“साले, हराम-ज़ादे!”
तोता चिल्लाने लगा, “साले... साले... साले...”
टॉम उसकी तरफ़ लपका...
“आज मैं तुम्हारी गर्दन मरोड़ दूँगा...”
तोता सहम कर पिंजरे के आख़िरी सिरे में सिमट गया।
वो बरामदे से नीचे उतरा। अहाते में बहुत सी ग़ैर-ज़रूरी चीज़ें पड़ी थीं। पकौड़ियाँ खा कर फेंके गए पत्ते, पाव रोटी का रंगीं रैपर, सिगरेट का एक आधा ख़ाली पैकेट, ईंटें और छोटे पत्थर थे, जिनको लोगों ने बैठने के लिए इस्ति’माल किया था। रौंदी हुई घास और एक ख़ामोश पुर-असरार सन्नाटा। वो लुटा-लुटा सा खड़ा रहा।
बरसों बीत गए इसी तरह के हंगामों में। क़स्बे की आहिस्ता-ख़िराम ज़िंदगी अचानक इतनी तेज़ हो गई कि रफ़्तार की रौ में आस-पास की चीज़ें दिखाई भी न देतीं। ऐसी ही क़रीब की चीज़ों में टॉम जेफ़र्सन का अहाता भी था। अब इस अहाते में महफ़िलें नहीं जमती थीं। औ’रतों और बच्चों की टोलियाँ अब इतवार के दिन भी उसके जानवरों के साथ चुहलें करने न आतीं। औ’रतों ने बचे हुए खाने और मर्दों ने वक़्तन-फ़वक़्तन की जाने वाली माली मदद भी बंद कर दी थी। अब उन्हें पार्टी के लिए तरह-तरह के चंदे देने पड़ते थे।
जोखीम कजोर को एक दिन अचानक ख़याल आया कि उसको टॉम जेफ़र्सन के पास चलना चाहिए। उसको शहर में एक लाठी चार्ज में चोट लगी थी। पाँव की हड्डी टूटी तो नहीं थी मगर चोट ने उसको हफ़्तों के लिए बेकार कर दिया था। इन्ही बेकारी के दिनों में एक दिन वो छड़ी टेकता हुआ टॉम के अहाते में जा पहुँचा।
उसको ये देखकर अफ़सोस सा हुआ कि अहाते की रौनक़ ही ख़त्म हो गई है। उसने सबसे पहले तोते का पिंजरा हिलाया।
“बोल मिट्ठू, हरामी...”
तोता कुछ बोलने की बजाए एक तरफ़ को सिमट गया और ख़ाइफ़ नज़रों से उसकी तरफ़ देखने लगा। उसको बड़ी हैरत हुई। फिर उसने बंदरों और ख़रगोशों के पिंजरों पर नज़र की तो चौंक गया । बंदर के दोनों बच्चे ग़ायब थे और ख़रगोशों में सिर्फ़ चार ख़रगोश बाक़ी थे। वो भी पिंजरे में बंद, जबकि हमेशा खुले रहते थे।”
“बंदर क्या हुए अंकल...?”, उसने टॉम से पूछा, जो उसको देखकर अंदर से बाहर निकल रहा था।
“बेच दिए...!”
“बेच दिए... क्यों...?”
“क्या करता, कहाँ से खिलाता उन्हें? लोगों ने यहाँ आना बंद कर दिया। कोई पैसों की मदद भी नहीं करता। लोगों को उनसे कोई दिलचस्पी नहीं रह गई। अब वो लीडरी करते हैं। ना’रे लगाते हैं। बंदोहों का आह्वान और चक्का जाम, मुज़ाहिरे और एहतिजाज। वो छोटा नागपुर की आज़ादी लेंगे। झारखंड...”
टॉम जेफ़र्सन के अल्फ़ाज़ में नहीं, लहजे में कुछ था। हिक़ारत, या कोई ऐसी चीज़ जिसने जोखीम को बर-फ़रोख़्ता कर दिया। शायद वो उलझ पड़ता। मगर अब वो बड़ा हो गया था। कॉलेज में पढ़ता था। तारीख़ की किताबों ने उसकी उ’म्र हज़ारों साल लंबी कर दी थी। चुनाँचे वो ख़ुश-दिली से बोला, “आज़ादी...? ये लफ़्ज़ तो हमने छोटा नागपुर के जंगली दरख़्तों के एक-एक पते पर लिख दिया है।”
टॉम जेफ़र्सन की नीली आँखें एक दम छोटी हो गईं। होंट खिंच गए। उसने ऐसे पूछा जैसे इंग्लैंड, हिन्दोस्तान से पूछ रहा हो, “तुम आज़ादी का मतलब जानते हो?”
जोखीम ने मुस्कुरा कर जवाब दिया, “हम आज़ादी का मतलब जानते हों या न जानते हों, मगर गु़लामी का मतलब ज़रूर जानते हैं। इनकी तरह...!”, उसने पिंजरों के जानवरों की तरफ़ इशारा किया।
“ये ग़ुलाम हैं...? मैं बरसों से मुख़्तलिफ़ ख़तरात से बचाते हुए इनकी परवरिश कर रहा हूँ। ये तो मेरे बच्चे हैं...!”
जोखीम हँस दिया।
“इस तरह के जुमले तारीख़ में बार-बार दोहराए गए हैं। मेरी प्रजा... मेरी रिआ’या... मेरी औलाद... मगर इन सबके पीछे हमेशा एक जज़्बा-ए-हुक्मरानी पोशीदा रहा या फिर ख़ौफ़। सब कुछ त्याग कर जंगल में आ बसने वाला संत भी इस जज़्बे को ज़हनों से निकाल न सका...!”
“तुम्हारा मतलब है...?”
“हाँ वही मतलब है मेरा...”
थोड़ी देर के लिए एक दिल-आज़ार ख़ामोशी छा गई। जोखीम उठा, जाने की इजाज़त चाही। फिर जाते-जाते पलट कर बोला, “जब तोते बोलना छोड़ दें, बंदर खौखियाना बंद कर दें और ख़रगोश भागना, तो समझना चाहिए कि...”
उसने अपना जुमला अधूरा छोड़ दिया और छड़ी के सहारे लंगड़ाता हुआ क़दम-क़दम चल कर अहाते के बाहर हो गया।
चार दिनों के बा’द ये ख़बर जंगल की आग की तरह फैल गई कि टॉम जेफ़र्सन मर गया है। जोखीम वहाँ लंगड़ाता हुआ पहुँचा तो उससे पहले बहुत से लोग वहाँ पहुँच चुके थे। टॉम जेफ़र्सन की लाश को फ़र्श से उठा कर उसकी टीम खाट पर लिटा दिया गया था। उसकी आँखें फटी हुई थीं और मुँह खुला हुआ था। जोखीम को ये देखकर हैरत हुई कि टॉम जेफ़र्सन के पिंजरों के सारे पट खुले थे और सारे जानवर ग़ायब...
अब ये कहना मुश्किल है कि टॉम जेफ़र्सन ने उन पिंजरों के पट खोल दिए थे या ख़ुद जानवर ही निकल भागे थे।
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