उलझा बाल
मैं दफ़्तर से काफ़ी लेट आया और सीधा बेडरूम जा कर जल्दी जल्दी लिबास दब्दिल किया। जब अलमारी में शर्ट लटकाने लगा तो मेरे पैरों तले से ज़मीन निकल गई।।। मेरे शर्ट पर सामने की जानिब, जेब से ज़रा ऊपर, एक लंबा बाल चिपका हुआ था जो पेच दर पेच तक़रीबन आठ का हिंदसा लग रहा था। मैं ने इधर उधर देखा और उसे फौरन उचक कर अपने जेब में उड़स लिया। ऐन उसी वक़्त शाज़ीया अंदर आ गई। मैं बाल-बाल बच्चा।
’’क्या बात है आप कुछ परेशान लग रहे हैं, दफ़्तर में ख़ैरीयत तो थी?”
’’ना ही पूछो तो बेहतर है।।। कुछ काम ज़्यादा था और फिर आते हुए रास्ते में एयरफ़ोर्स म्यूज़ीयम के क़रीब गाड़ियां फंस गईं।।। कोफ़त ही कोफ़त।।। बस क्या बताऊँ?”
मैं ने फ़ौरन एक कहानी बना कर उसके सामने बयान की,
’’कोई हादिसा हुआ था? ख़बरों में तो ऐसी कोई बात नहीं थी, कोई और बात तो नहीं?”
शाज़ीया ने होंट सकीड़े और भंवें तना कर अपनी तेज़ आँखों से मेरी तरफ़ देखा।
मुझे ऐसा लगा जैसे मेरा झूट पकड़ा गया है और शाज़ीया को सब पता लग चुका है,
’’नहीं नहीं एक्तोसीडेंट नहीं हुआ लेकिन शाह-राह फ़ैसल है।।। तुम्हें तो पता ही है।।। ख़ैर खाना लग गया? ज़ोरों की भूक लगी है मेरी जान।“
मैं पासपोर्ट ऑफ़िस में मुलाज़िम हूँ और शाज़ीया से मेरी शादी चार साल क़बल हुई। उसको हर वक़त ये धड़का लगा रहता है कि मैं कहीं दूसरी शादी ना कर लूँ। अगरचे उसके अंदर, आम बीवीयों के बरअक्स बेजा तजस्सुस का उन्सुर तक़रीबन ना-पैद है लेकिन इसके बा-वजूद मुहतात रहना पड़ता है, आख़िर को बीवी है। मैं बे-इंतिहा कोशिश करता हूँ कि उस को ज़रा भी शक ना हो। ये अच्छा हुआ मै उसे मिले बग़ैर सीधा कमरे में गया वर्ना कहीं अगर इस बाल पर उसकी नज़र पड़ जाती तो यक़ीन करें यही बाल मेरे गले का फंदा बन जाता।
खाने के दौरान शाज़ीया बार-बार मेरी तरफ़ देखती रही लेकिन उसने कुछ कहा नहीं। इस से मेरी तशवीश और बढ़ी लेकिन चेहरे पर कोई तास्सुर लाए बग़ैर मैं ने ख़िलाफ़-ए-आदत जल्दी जल्दी खाना खाया और फिर टीवी देखने लगा।
’’शाज़ीया लूज़ टॉक आज है?”
मुझे अच्छी तरह इल्म था कि ना तो ये लूज़ टॉक के नशरीए का टाइम है और ना ही दिन लेकिन सिर्फ बात बदलने के लिए कि मैं किसी तरीक़े से उस की तवज्जोह बटाओं ताकि किसी हलीए बहाने से इस बाल से नजात हासिल करूँ जो मेरी पतलून की जेब में बिजली के गर्म तार की तरह पड़ा मेरी रान दाग़ रहा था।
’’नहीं आज तो नहीं लेकिन आप को क्या हो गया है? आप का हाफ़िज़ा तो काफ़ी तेज़ है। ऐसे सवाल तो आप नहीं करते होते। कोई बात हुई है आज? खाने के दौरान भी आप ने कोई बात नहीं की, ख़ैर तो है।“
आप में से जो लोग शादी-शुदा हैं, उनको अक्सर इस क़िस्म के बेतुके सवालात का सामना करना पड़ता है जिनका ना सर होता है ना पैर लेकिन अंदाज़ एक ही होता है, बाल की खाल उतारना,
’’नहीं कुछ भी तो नहीं। बताया तो था कुछ काम और कुछ ट्रैफ़िक।।। बस यही कुछ।।। ख़ैर कॉफी मिल सकती है, थकन दूर हो जाएगी।
’’नौ बजने वाले हैं। आप कॉफी पिएँगे तो सारी रात करवटें बदलते रहेंगे, क्या ख़्याल है? बनाने को मै बना देती हूँ वैसे।'
’’मेरा ख़्याल है रहने ही दें।'
मेरा मक़सद हल हो गया। हम दोनों के दरमयान एक रवाँ क़िस्म की गुफ़्तगु चल पड़ी और इस से कुछ मेरा तनाव भी कम हो गया। मैं बेडरूम में चला आया और बाथरूम का दरवाज़ा बंद करके बाल अपनी जेब में ढ़ूढ़ने लगा। कुछ दिक्कत से, लेकिन बिल-आख़िर वो बाल सालिम हालत में अपनी जेब से निकालने में कामयाब हो गया। मैं ने बाल अंगूठे और शहादत की उंगली में पकड़ कर उस का ब-ग़ौर मुशाहिदा किया।
बाल लंबा था और अगरचे अब सीधा नज़र आ रहा था लेकिन इस की हैयत में कुछ ऐसी कजि थी कि ताव दर ताव बल-खाता दिखाई दे रहा था। रंगत शायद स्याह रही होगी लेकिन अब इस में बे-इंतिहा किस्म की सुनहरी चमक थी।।। शायद हाईड्रोजन पर ओक्साइड का असर था। मैं ने ग़ौर से देखा तो इस का एक सिरा कुछ जेली नुमा और भरा हुआ लग रहा था और ये यक़ीनन वो सिरा था जो सर के चमड़े में पैवस्त रहा होगा और वहाँ इस बाल का कुछ नौ-ख़ेज़ हिस्सा बिल्कुल स्याह था। मद्धम रोशनी में बस में इतना ही देख सका।
मैं ने उसे सूँघा और इस से ऐसी ख़ुशबू आ रही थी जिसे मैं शैंपू समझा लेकिन मुझे यक़ीन है ये मेरी ज़हनी इख़तिरा थी और हक़ीक़तन इस बाल में ख़ुशबू ना-पैद थी। वो एक लंबा ज़नाना बाल था जो मेरे लिए एक मसला था और बस।
अब मैंने सोचना शुरू किया कि इस से निजात कैसे हासिल करूँ। इस को फ्लश करूँ तो हो सकता है ये फ्लश ना हो पाए और फिर शाज़ीया को वहाँ हाईड्रोजन पर ओक्साइड लगे बाल की क्या तवज्जीया दूँगा। जला भी नहीं सकता था कि जलते बाल की अजीब सी बदबू होती है और इस की भी शाज़ीया को काबिल-ए-क़बूल क़िस्म की वज़ाहत सर-ए-दस्त मेरे ज़ावीया-ए-निगाह में नहीं थी। बाल को सालिम हालत बाथरूम के डस्टबिन में फेंकना तो और भी ख़तरनाक बात थी।।। ना पाए रफ़्तन ना जाये माँदन।
फिर मुझे यकायक एक ख़्याल सूझा और मैं ने बारीकबीनी से इस बाल को क़ैंची से बे-इंतिहा छोटे टुकड़ों में काट कर डस्टबिन के सदा खुले मुँह में डाल दिया और डस्टबिन को टिशू पेपर के छोटे छोटे मरगोलों से ढक दिया।
बाहर आया तो मेरे सामने शाज़ीया खड़ी थी। मैं अंदर-अंदर घबराया और हवास-बाख़ता भी हुआ। उसकी नज़रें मेरे अंदर गड़ी रहीं। मैं ने नज़रें चरानी चाहीं तो उसने एक लंबी सांस भरी,
’’आपने दुबारा फ्लश नहीं किया ना?”
’’शाज़ी मै सिर्फ़ हाथ धो रहा था, यक़ीन करें।“
उसने एक पुलिस वाले की तरह मेरे हाथ पकड़े और उसे सूँघा।
’’हाथ ख़ुशक हैं।।। गुड।।। लेकिन आप साबुन कब इस्तिमाल करेंगे?। मैं जितना भी कहूं मेरी नहीं सुननी आप ने लेकिन एक बात मेरी भी सन लें। ख़बरदार अगर ये हाथ मेरे क़रीब लाए।“
शाज़ीया बहुत नफ़ासतपसंद है और इस का बस चले तो मैं दिन में पाँच बार ग़ुसल करूँ। मैं झट से बाथरूम गया और साबुन से हाथ धो कर उस की तरफ़ बढ़ाए। उसने अपने ऊपर मस्नूई किस्म का ग़ुस्सा तारी किया और नाक भों चढ़ा कर मेरे हाथ सूँघे बग़ैर कमरे से निकल गई। मेरी जान मे जान आई, बाल से निजात तो मिली लेकिन अब ये सोचा कि ये आया कहाँ से था।
लाउंज में आकर टीवी ऑन किया और दिखावे का ख़बर-नामा देखने लगा। सुप्रीमकोर्ट का फ़ैसला आज ही आया और सदर साहिब की कोऊ। देता को, जिसे अब उनका इस्तिहक़ाक़ ही समझना चाहीए, क़ानूनी तहफ़्फ़ुज़ हासिल हो गया लेकिन मेरा ज़हन कहीं और था।।। मिलों दूर। बाल कहाँ से आया।
ये सवाल मुश्किल था लेकिन बड़ी मुश्किलों से बचने के लिए उसका जवाब जानना अशद ज़रूरी था क्योंकि जैसा कि मैंने पहले बताया मुझे, शाज़ीया, जो बिल-फेल एक इंतिहाइ हस्सास किस्म की शक्की मिज़ाज ख़ातून थी से हर वक़त धड़का सा लगा रहता था। मुझे यक़ीन था कि किसी दिन वो मुझे किसी ऐसे मुआमले में रंगे हाथों पकड़ लेगी जिसमें मेरा क़सूर भी ना होगा और यूं ये ना-कर्दा गुनाह मेरे किसी करदा गुनाह कफ़्फ़ारा बन जाएगा।।। नहीं नहीं।।। मुझे बहुत मुहतात रहना होगा
मेरे दफ़्तर में तीन ख़वातीन थीं। एक तो ज़ात से शायद पठान या कश्मीरी लड़की थी, बहुत ही ख़ूबसूरत थी। उसका जितना रंग साफ़ था उतनी ही उस की उर्दू भी साफ़ थी।।। शायद कराची ही में पली बढ़ी थी। ये उस का बाल हरगिज़ नहीं था क्योंकि उस के सारे बाल क़ुदरती तौर पर सुनहरे और चमकदार थे और इस की आँखें गहिरी नीली थीं। वो मुझसे तो अच्छी तरह से मिलती थी लेकिन किसी और के क़रीब भी नहीं खड़ी होती थी, दूर ही दूर से फाईल पकड़ा दी और इस का लहजा हमेशा स्पाट और तास्सुरात से आरी होता था। मुझे लगता था शायद उसे मुझसे इशक़ है लेकिन बता नहीं सकती। मैंने सोचा अगर मैं शादीशुदा ना होता तो ये बाल यक़ीनन उस का होता।
दूसरी लड़की जो क़दरे खुलते गंदुमी रंग की थी, क़बूल-ए-सूरत थी और बहुत ही अरबों वाला हिजाब पहनती थी। मा-सिवाए उसके भवों के, इसके बालों की झलक तक ना-पैद थी। भवों के रंग से ये ताअस्सुर मिलता था कि इसके बाल स्याह होंगें, वर्ना सवाल ही नहीं पैदा होता था कि उसके हिजाब के क़िले से कोई बाल बाहर आए। इसका बाक़ी लिबास क़दरे चुस्त था, जिस्म से चिपका हुआ। नहीं ये उसका बाल हरगिज़ नहीं था। मुझे इंतिहाई शर्मिंदगी से ये भी कहना पड़ रहा है कि मुझे हमेशा ये ख़ाहिश रही कि पता करूँ कि उसके बाल कैसे, किस रंग के हैं, पेचदार हैं, सीधे हैं। हिजाब वाली ख़वातीन ख्वाह कितनी भी मासूम और मुक़द्दस नज़र आएं, उनकी तरफ़ निगाहें ज़रूर उठती हैं और दिल में खलबली सी मच जाती है।।। ख़ैर ये ज़िमनी बात हो गई और में अब तीसरी ख़ातून की तरफ़ आता हूँ।
इसकी उम्र तक़रीबन पच्चास पचपन के लग भग थी, दुबली पतली, साँवले रंग की। उसकी निगाह में बला का एतिमाद था और काम में नफ़ासत थी। उसके बालों में चांदी आ चुकी थी और आँखों के कोनों में त्रिशूल नुमा झुर्रियाँ गुज़रते उम्र की चुगु़ली खा रही थीं। अगरचे वो आम औरतों की तरह शलवार क़मीस ही पहनती थी और सर पर बारीक दुपट्टा भी लेती थी और।।। माफ़ फ़रमईएगा।।। उसके अंदर कशिश नाम को नहीं थी। बाक़ी दो ख़वातीन का तो मुझे और शायद हर किसी को नाम भी पता था लेकिन इन मुहतरमा को हम सब उनकी ग़ैरमौजूदगी में आपा कहते थे और लहजों में एहतिराम नुमायां रहता था।
मैंने किसी को भी उसके मुताल्लिक़ जिन्सी अंदाज़ से बात करते नहीं देखा, हाँ अगर बात करते देखा है तो उसके काम की तारीफ़ में, सताइश में क्योंकि उसका काम हमेशा ठीक होता था। सुना था उसकी अपने मियां से तलाक़ हो गई थी और मआशी हालात से तंग आकर उसने जॉब शुरू की थी। ये भी सुना था कि दो बड़ी बेटीयों के साथ बहादुर-आबाद में रहती थी जिनकी शादी नहीं हो रही थी। उसके हालात सख़्त होंगें लेकिन मुझे उस की फ़िक्र नहीं थी। मुझे बाल की फ़िक्र खाए जा रही थी
जैसे ही ख़बर-नामा ख़त्म हो गया मेरे सोच की ट्रेन भी रुक गई।।। बिला नतीजा।।। मैं ने महसूस किया कि मै इस ज़हनी मशक़्क़त से बहुत थक गया हूँ। हम उस दिन मसरूफ़ ज़रूर रहे लेकिन इन तीन ख़वातीन में कोई भी मेरे इतने क़रीब नहीं आई कि उनमें किसी का बाल मेरे शर्ट से चिपक जाये। ये मुअम्मा समझ से बाहर था। मैं उठकर कमरे में आ गया। शब-ख़ाबी का लिबास पहना और बिस्तर पर लेट गया।
कुछ लम्हे ख़लवत में गुज़ारे और फिर शाज़ीया अंदर आ गई। हमने थोड़ी देर बातें कीं। उसका सारा दिन हसब-ए-मामूल मशक़्क़त में गुज़रा। सुबह दूध वाले से खटपट हुई क्योंकि दूध से गोबर की बदबू आ रही थी। बिल जमा करने गई तो हसब-ए-मामूल लोग उसे घूर घूर कर देखते रहे। एक ख़बीस ने तो यहां तक जुरात की कि उसके सामने गुज़रते हुए झूट-मूट की लड़खड़ाहट बना कर, गिरते हुए, ग़ैर इरादतन उसे छूना भी चाहा और ईस से उसे बहुत कोफ़त हुई। सुपर मार्कीट में दबीज़ शीशों वाली ऐनक पहने अधेड़ उम्र आदमी ने उसे रेज़गारी वापिस करते हुए मिस भी करना चाहा। उसने रोते हुए मुझ से पूछा कि हम नौकर क्यों नहीं रखते।
मुझे उन सवालों का जवाब देने की फ़ुर्सत नहीं थी। नौकर के लिए जो पैसे दरकार थे वो मेरी तनख़्वाह में पूरे नहीं हो सकते थे। मैंने उसे तसल्ली दी और उसे जी भर कर अपनी मुहब्बत का यक़ीन दिलाया।।। हम एक दूसरे से लिपट गए।।। मैंने उसे अपने क़रीब किया लेकिन दिन-भर की थकन इतनी थी कि मुझे कुछ याद नहीं रहा और जब शाज़ीया सुबह नमाज़ के लिए उठी तो तब अँख खुली।
मैं बाथरूम में दाख़िल हुआ तो कन-अँखियों से डस्टबिन की तरफ़ देखा जो टिशू पेपर के मरगोलों से पुर था।।। मैं ने उसे सताइश से देखा।।। फिर अज़-राह-ए-तजस्सुस टिशू पेपर उठाए।।। मेरी जान निकल गई। बाल वहां सही सालिम मौजूद था, बईनी जैसे मुझे शर्ट के ऊपर चिपका नज़र आया था।।। तुड़ा मुड़ा, उलझा हुआ, दुहरे आठ की शक्ल में।।। एक सिरा उभरा हुआ, दूसरा सलीक़े से कटा हुआ, कुछ हाइडरोजन पर एक्साइड ज़दा कुछ क़ुदरती स्याह।।। अब मेरा ख़ौफ़ गुमान के दर्जे से यक़ीन के दर्जे में आ गया।
’’मैं ने तो उसे काटा था ये यहां कैसे सालिम हालत में मौजूद है?”
मैं ने ख़ुद-कलामी के अंदाज़ में कहा। फिर मैंने सोचा हो सकता है, शायद मैंने उसे तख़य्युल में काटा है।।। ये वक़्त सोचने का नहीं था और ज़ाहिर है इस बाल को मैं, भले से तख़य्युल में एक-बार कुतर कुतर कर काट चुका था लेकिन दुबारा काटना और यहां काटना हमाक़त थी। वो इस लिए कि बिलफ़र्ज़ में दुबारा वही अमल दोहरा भी दूं,।।। पूरे होश हवास में।।। फिर भी ये एहतिमाल था कि शाज़ीया को डस्टबिन ख़ाली करते हुए ये बाल सालिम मिल जाये।।। क़ियामत आ जाए साहब। मैंने अल्लाह का शुक्र अदा किया कि बाल मुझे ही सालिम मिला वर्ना शाज़ीया।।। मैंने माथे से पसीना पोंछा।
अगले लम्हे मैंने बाल एहतियात से मूचने से उठाया और उसे अपनी पतलून की जेब में उड़िस लिया। चूँकि मुम्किना ख़लिश का मुहर्रिक अब मेरे क़बज़े में था तो मुझे इतमीनान हुआ कि चलें बाल किसी वजह से तलफ़ तो नहीं हो सकता लेकिन मुआमला तो क़ाबू में है और मैं शाम तक ईसका कोई ना कोई हल निकाल ही लूँगा। नाशतादान करके और एक अल-विदाई बोसे के साथ मै घर से निकल आया।।। जान में जान आई।
दफ़्तर पहुंचा तो मैं ने देखा कि एक बहुत ही गर्म किस्म की सयासी बहस जारी थी। एक बड़ा झता सुप्रीमकोर्ट और सदर साहब के हक़ में था और दूसरा दबी दबी आवाज़ में मुख़ालिफ़। मैं जो उमूमन इस किस्म की बहसों में हमेशा हिस्सा लेता रहता हूँ उस दिन किसी बहाने इस सयासी मजलिस में नहीं बैठा बल्कि अपने कमरे में आ गया। मेज़ पर बहुत सारा काम करने को पड़ा हुआ था लेकिन मेरा ख़्याल इस बाल में उलझा हुआ था जिसका एक सिरा कुंद और दूसरा बिच्छू के डंक की तरह तेज़ था।
मैंने बाल अपनी पतलून की जेब से निकाला और इस सफ़ैद ए-फ़ौर काग़ज़ पर फैलाया लेकिन जब देखा कि वो एक काग़ज़ के दामन में सिमटने में नहीं आ रहा तो उसके साथ बहुत एहतियात से एक और काग़ज़ का कंधा मिलाया और अब जो मापा तो बाल डेढ़ काग़ज़ लंबा था, तक़रीबन।
मैं ने दराज़ से एक महद्दब अदसा निकाला और इसका तफ़सीली मुआइना किया।।। बिल्कुल तफ़शीशी अंदाज़ में जैसे मैं पासपोर्ट के दस्तख़त को देखता हूँ।।। महद्दब अदसे के बावजूद मै उन ख़द्द-ओ-ख़ाल में ज़्यादा इज़ाफ़ा ना कर सका जो मैंने मद्धम रोशनी में देखे थे। हाँ मैं ने ये ज़रूरू देखा कि इस का कटा हुआ सिरा, दूसरा था। मैं बाल को घुमा फिर कर दो दायरों की शक्ल दे दी क्योंकि में नहीं चाहता था कि कोई उसको देखे और मेरे बारे में ख़ुदा जाने क्या तसव्वुर कर बैठे।।। मुझे बार-बार ख़्याल आया कि यहीं दफ़्तर में उसे ब-यानि इस अंदाज़ से कतर कतर कर काटूँ, ध्यान से और फिर एक काग़ज़ पर लिखूँ कि मैंने उसे यानी बाल को तलफ़ कर दिया है। इस से मै अपने आप ये बावर तो करा सकता हूँ कि ये माफ़ौक़-उल-फ़ित्रत बाल नहीं और बा-होशो-हवास काटा जा सकता है।
फिर मैं ने सोचा कि मैं ज़्यादा यक़ीन के लिए ''उसे' की बजाय ''बाल' भी लिख सकता था लेकिन हिफ़्ज़ ता-क़दम के तौर पर कि इस से राज़ अफ़शा ना हो जाए मैं ने ''उसे' लिखने पर इकतिफ़ा की। इस से मक़सद ये था कि एक तहरीरी सबूत की मौजूदगी में भूल चूक का उन्स्र ज़ाइल हो जाता और मैं वसूक़ से कह सकता था कि मैं बाल काट चुका हूँ।
इसमें अलबत्ता एक क़बाहत भी थी और वो ये कि ''उसे' जो एक बिल-फेल एक उमूमी लफ़्ज़ है, से कुछ भी मुराद लिया जा सकता है और ये इमकान था कि मेरे दिल में ये शक दुबारा जड़ पकड़ ले कि आया ये ''उसे' बाल ही था या कुछ और। मैं ने बाल काटने का इरादा तर्क कर दिया और लिखा रुक्का तरवर मरोड़ के डस्टबिन में फेंक दिया। फिर कुछ सोच के उसे निकाला और उसे कतर-कतर के काटा और दुबारा डस्टबिन में डाल दिया।
एक बाल बैठे बिठाए मेरे लिए वबाल-ए-जान बन गया और जब कुछ अमली तरकीब समझ में ना आई तो सोचा ज़ुबैर से मिल लूं और उसे पूरी बात बताउं। मैं दफ़्तर से पहले निकल आया। मैं ने सोचा ये सारा मसला ज़ुबैर से एक मर्तबा बयान करूँ देखिए तो वो क्या मशवरा देता है। मै ने बाल दो काग़ज़ों में तह करके और ज़ुबैर के पास जाने की ठानी।
ज़ुबैर मेरा पुराना दोस्त था और बैंगलोर टाउन में फ़र्नीचर के बिज़नस का मालिक था। ख़ासा जहांदीदा आदमी था और मुझे तो मुझसे ज़्यादा समझता था। जब मैंने उसे ये सारी बात बताई तो उसने पहले तो मुझे ख़ासा कुरेदा,
’’कहीं भी, कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम।।। मेरा मतलब है।“
’’यार में बहुत एहतियात करता हूँ, हर चीज़ में, तुम तो शाज़ीया को जानते ही हो मैं भला ऐसा क्यों करने लगा कि किसी भी तरफ़ से उसे शक हो जाएगी।'
’’अच्छा ये बताओ तुम्हारे दफ़्तर की इन तीन लड़कीयों के इलावा।।।'
’’मैं फार्मेसी की एक लड़की को जानता हूँ लेकिन वो सिर्फ़ सलाम दुआ की हद तक।।। है वो ख़ासी ख़ूबसूरत, गोल गोल आँखें।।। दुबली पतली।।। हर लिहाज़ से आईडईल औरत है, मुझे बड़े लगाव से देखती है।।। अगर मेरी शाज़ीया से शादी ना हुई होती तो।।। ख़ैर मैं शाज़ीया के साथ ख़ुश हूँ।'
’’यार बुरा ना मनाना, हर आदमी का बाल बाल गुनाहगार है।।। कहीं नेपर रोड।।।“
मैं ने उसके सवाल से पहले उसका सवाल भाँप लिया,
’’ज़ुबैर कभी भी नहीं।।। नहीं।।। मैं दफ़्तर घर दफ़्तर किस्म का उदमी हूँ, तुम जानते हो ये। मैं क्यों भला अपने घर बीमारीयां लाता फिरूँ और ये मेरी क्लास भी नहीं।।। रक़म भी ख़ासी लगती है इन मुआमलात में।।। तुम समझ रहे हो।'
’’यार में समझूं या नहीं।।। तुम मुआमले की नज़ाकत नहीं समझ रहे हो।।। ख़ैर मुझे बाल दिखाइ।'
मैंने पतलून की जेब में हाथ डाला और एहतियात से तह शूदा दोनों काग़ज़ खोल के उसे दिखाए लेकिन बाल नदारद। मैंने दुबारा टटोल कर देखा और आख़िर में कंधे अचकए। उसने भी कंधे उचकाए और मुझे ऐसे लगा कि जैसे उसे अब तक के क़िस्से पर शक सा हो गया। मैंने उसे क़सम खाकर यक़ीन दिलाया कि बाल यहीं ही था
’’चलो जहां भी था तुम्हारा मसला तो हल हो गया। कोट उतारो रेलकस हूजाव। चाईनेज़मंगवाते हैं।'
मैंने कोट उतार दिया तो बाल मेरी जेब के साथ चिपका हुआ था और मैंने ज़ुबैर से कहा
’’लीजिए साहिब, पेश-ए-ख़िदमत है वो जिसकी आपको तलब थी।।। यार में कह रहा था कि मैं सच्च बोल रहा हूँ और आप।।।'
’’ठीक है, ठीक है ज़रा दिखाइ।'
उसने बारीकबीनी से इसी बाल का मुशाहिदा किया और तक़रीबन वही नताएज अख़ज़ किए जो में इस को बता चुका था। मुझे ये समझ नहीं आया कि बाल काग़ज़ों कि तह से जेब तक का फ़ासिला कैसे फलाँग गया? अब मुझे याद नहीं लेकिन मैंने फोरा ये एक तरह से घड़ लिया कि कि शायद वो दोनों तह शूदा काग़ज़ात मैंने पहले अपने ऊपर की जेब में डाले थे सो इस वजह से वो इस से फिसल गया हुआ और वैसे भी बाल और शर्ट के कपड़े में एक तरह की बर्क़ी कशिश तो होती ही है।।। ये तौज़ीह मुझे काबिल-ए-क़बूल ज़रूर लगी लेकिन इस पर हतमी ईमान मेरा अब भी नहीं था और मुझे ऐसा लगा कि कोई सह्र या तावीज़ किस्म का मुआमला है और इस से मेरे ऊपर ख़ौफ़ सा तारी हुआ
मैंने ज़ुबैर को बार-बार बताया लेकिन उसने फिर भी मुझे एक तवील लैक्चर दिया कि बीवी से बाहर के मुआमलात को कैसे छुपाते हैं, कैसे कालर पर लगी लिप्स स्टिक को मिटाते हैं और ज़नाना ख़ुशबू को कैसे मद्धम करते हैं। मेरे लिए उस की कोई एहमीयत नहीं थी क्योंकि में इस मुआमले में शाज़ीया के साथ बहुत वफ़ादार था हाँ ये था कि मेरी निगाहें मुश्किल में थीं
चाएंज़ खाने के बाद मैंने शाज़ीया को फ़ोन क्या वो शाम का खाना ना बनाए। हम बहुत देर तक बैठे मुख़्तलिफ़ मौज़ूआत पर बातें करते रहे। मौज़ूआत ख़ैर क्या थीं कुछ ग़ैर सयासी और कुछ सयासी बातें और लड़कीयां। उसने दो गिलास निकाल कर साफ़ किए और साफ़्ट ड्रिंक से पर किए
बातों बातों में ज़ुबैर ने लाइटर निकाला और हाथों के इशारे से मुझसे बाल मांग कर, उसे ग़ौर से देखा और फिर जला दिया।।। बाल आग की हिद्दत से ताव खाने लगा और एक एहितजाजी शोर से ख़ाकसतर हो गया। इस के जलने की अजीब सी बदबू थी।।। मुझे अब पूरा इतमीनान हो गया कि मुआमला दफ़न हो गया है
इस के बाद हम दोनों देर तक क़हक़हे लगा कर हंसते रहे, दीवानों की मानिंद। हंसते हंसते यकायक मैंने देखा कि ज़ुबैर के गिलास में भी बाल था, लब-ए-जाम से तह-ए-जाम तक। मैंने कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था कि मुझे एहसास हुआ कि कहीं ऐसा ना हो वो उसे बदतमीज़ी समझे सौ चुप रहा
मैं घर काफ़ी लेट आया और इस दिन शाहराह फ़ैसल पर वाक़ई बहुत भीड़ थी। मेरे दिमाग़ पर अब तक वही बाल सवार था जो अब जल कर ख़ाकसतर हो चुका था लेकिन ज़ाहिर है मैं बावजूद कोशिश के उसे अपने दिमाग़ से झटक ना सका और ना ही मेरे पास इस बाल की मेरे जेब या कोट पर मौजूदगी की की कोई काबिल-ए-क़बूल वजह थी। ख़ैर बाल जहां से भी आया था, मुआमला ख़त्म हो चुका था
घर में दाख़िल हुआ तो दरवाज़े के साथ शाज़ीया खड़ी मुस्कुरा रही थी। मैंने एक मस्नूई मुस्कुराहट चेहरे पर सजा ली और उसे कुछ फाइलें पकड़ाएं। मैं जल्दी से बेडरूम जाकर लिबास बदलना चाहता था
’’आपने कुछ नोट ही नहीं किया?'
मैंने उस की तरफ़ दुबारा देखा
’’किया?'
उसने अपने बालों की तरफ़ इशारा किया। मैंने देखा कि उसने अपने बाल हाईड्रोजन पर ओक्साइड से रंगे हुए थे सुनहरे, चमकदार। उसने इंतिहाई चुस्त किस्म का लिबास पहन रखा था जिसमें उस का अंग अंग नुमायां था। उसे देखकर मेरे दिल की धड़कन ख़ासी तेज़ हुई। मैंने दिल से इस की सताइश की और इस की तारीफ़ में दो एक शेअर भी कहे। वो इतनी ख़ुश हुई कि इस की आँखों में आँसू आगए और मेरे क़रीब आकर मेरे कंधे पर सर रख दिया औराई लू यू और आई मस यू सौ मच बार बार कहती रही
जब शाज़ीया ने अपना सर उठाया तो मैंने उस की आँखों में टिमटिमाते आँसू झिलमिल करते देख लिए। मैंने उसे तसल्ली दी और इस के गाल चूम कर ख़जालत भरा चेहरा लिए कमरे में आया। मैंने लिबास तबदील किया और शर्ट की तरफ़ देखा तो वो वहां अब भी एक बाल था, उलझा हुआ नहीं, बिलकुल सीधा, और पूरा का पूरा हाइड्रोजन पर ओक्साइड में रंगा
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