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कोट पतलून

सआदत हसन मंटो

कोट पतलून

सआदत हसन मंटो

MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    आर्थिक तंगी से जूझ रहे एक ऐसे आदमी की कहानी जिसे 'नैतिक' और 'अनैतिक' की दुविधा खुल खेलने का मौक़ा नहीं देती। नाज़िम एक ऐसी बिल्डिंग में रहता है जहाँ एक औरत की पसंदीदगी का स्तर 'कोट-पतलून' है। क़र्ज़ बढ़ने की वजह से उसे अपना कोट-पतलून बेचना पड़ता है और बिल्डिंग ख़ाली करनी पड़ती है। नाज़िम जिस दिन मकान छोड़कर जा रहा होता है तो वह देखता है कि ज़ुबैदा की निगाहों का मर्कज़ एक और नौजवान है जो कोट-पतलून पहने हुए है।

    नाज़िम जब बांद्रा में मुंतक़िल हुआ तो उसे ख़ुशक़िस्मती से किराए वाली बिल्डिंग में तीन कमरे मिल गए। इस बिल्डिंग में जो बंबई की ज़बान में चाली कहलाती है, निचले दर्जे के लोग रहते थे। छोटी छोटी (बंबई की ज़बान में) खोलियाँ यानी कोठड़ियां थीं जिनमें ये लोग अपनी ज़िंदगी जूं-तूं बसर कर रहे थे।

    नाज़िम को एक फ़िल्म कंपनी में बहैसियत मुंशी यानी मुकालमा निगार मुलाज़मत मिल गई थी। चूँकि कंपनी नई क़ायम हुई थी इसलिए उसे छः-सात महीनों तक ढाई सौ रुपये माहवार तनख़्वाह मिलने का पूरा तयक़्क़ुन था, चुनांचे उसने इस यक़ीन की बिना पर ये अय्याशी की डोंगरी की ग़लीज़ खोली से उठ कर बांद्रा की किराए वाली बिल्डिंग में तीन कमरे ले लिए।

    ये तीन कमरे ज़्यादा बड़े नहीं थे, लेकिन इस बिल्डिंग के रहने वालों के ख़याल के मुताबिक़ बड़े थे, कि उन्हें कोई सेठ ही ले सकता था। वैसे नाज़िम का पहनावा भी अब अच्छा था क्योंकि फ़िल्म कंपनी में माक़ूल मुशाहरे पर मुलाज़मत मिलते ही उसने कुर्ता-पायजामा तर्क कर के कोट-पतलून पहनना शुरू करदी थी।

    नाज़िम बहुत ख़ुश था। तीन कमरे उसके और उसकी नई ब्याहता बीवी के लिए काफ़ी थे। मगर जब उसे पता चला कि गुसलखाना सारी बिल्डिंग में सिर्फ़ एक है तो उसे बहुत कोफ़्त हुई, डोंगरी में तो इससे ज़्यादा दिक़्क़त थी कि वहां के वाहिद गुसलखाना में नहाने वाले कम-अज़-कम पाँच सौ आदमी थे और उसको चूँकि वो सुबह ज़रा देर से उठने का आदी था, नहाने का मौक़ा ही नहीं मिलता था। यहां शायद इसलिए कि लोग नहाने से घबराते थे या रात पाली (नाइट ड्यूटी)करने के बाद दिन भर सोए रहते इसलिए उसे ग़ुसल के सिलसिले में ज़्यादा तकलीफ़ नहीं होती थी।

    गुसलख़ाना उसके दरवाज़े के साथ बाएं तरफ़ था। उसके सामने एक खोली थी जिसमें कोई... मालूम नहीं कौन रहता था। एक दिन नाज़िम जब ग़ुसलख़ाने के अंदर गया तो उसने दरवाज़ा बंद करते हुए देखा कि उसमें सूराख़ है, गौर से देखने से मालूम हुआ कि ये कोई क़ुदरती दर्ज़ नहीं बल्कि ख़ुद हाथ से किसी तेज़ आले की मदद से बनाया गया है।

    कपड़े उतार के नहाने लगा तो उसको ख़याल आया कि ज़ोन में से झांक कर तो देखे... मालूम नहीं उसे ये ख़्वाहिश क्यों पैदा हुई। बहरहाल उसने उठकर आँख उस सूराख़ पर जमाई... सामने वाली खोली का दरवाज़ा खुला था... और एक जवान औरत जिसकी उम्र पच्चीस-छब्बीस बरस की होगी सिर्फ़ बनियान और पेटीकोट पहने यूं अंगड़ाइयाँ ले रही थी जैसे वो अनदेखे मर्दों को दावत दे रही है कि वो उसे अपने बाज़ूओं में भींच लें और उसकी अंगड़ाइयों का ईलाज करदें।

    नाज़िम ने जब ये नज़ारा देखा तो उसका पानी से अध् भीगा जिस्म थरथरा गया। देर तक वो उसी औरत की तरफ़ देखता रहा, जो अपने मस्तूर लेकिन इसके बावजूद उरियां बदन को ऐसी नज़रों से देख रही थी जिससे साफ़ पता चलता था कि वो उसका मसरफ़ ढूँडना चाहती है।

    नाज़िम बड़ा डरपोक आदमी था। नई नई शादी की थी, इसलिए बीवी से बहुत डरता था। इसके इलावा उसकी सरिश्त में बदकारी नहीं थी। लेकिन ग़ुसलख़ाने के इस सूराख़ ने उसके किरदार में कई सूराख़ कर दिए। उसमें से हर रोज़ सुबह को वो उस औरत को देखता और अपने गीले या ख़ुश्क बदन में अजीब क़िस्म की हरारत महसूस करता।

    चंद रोज़ बाद उसे महसूस हुआ कि वो औरत जिसका नाम ज़ुबैदा था उसको इस बात का इल्म है कि वो ग़ुसलख़ाने के दरवाज़े के सूराख़ से उसको देखता है और किन नज़रों से देखता है ज़ाहिर है कि जो मर्द ग़ुसलख़ाने में जाकर दरवाज़े की दर्ज़ में से किसी हमसाई को झांकेगा तो उसकी नीयत कभी साफ़ नहीं हो सकती।

    नाज़िम की नीयत क़तअन नेक नहीं थी। उसकी तबीयत को उस औरत ने जो सिर्फ़ बनियान और पेटीकोट पहनती और उस वक़्त जब कि नाज़िम नहाने में मसरूफ़ होता इस क़िस्म की अंगड़ाइयाँ लेती थी कि देखने वाले मर्द की हड्डियां चटख़्ने लगें, उसने उसे उकसा दिया था मगर वो डरपोक था। उसकी शरीफ़ फ़ितरत उसको मजबूर करती कि वो इससे ज़्यादा आगे बढ़े। वर्ना उसे यक़ीन था कि उस औरत को हासिल करना कोई बड़ी बात नहीं।

    एक दिन नाज़िम ने ग़ुसलख़ाने में से देखा कि ज़ुबैदा मुस्कुरा रही है, उसको मालूम था कि नाज़िम उसको देख रहा है। उस दिन उसने अपने सेहतमंद होंटों पर लिपिस्टिक लगाई हुई थी। गालों पर ग़ाज़ा और सुर्ख़ी भी थी।

    बनियान खिलाफ़-ए-मामूल छोटी और अंगिया पहले से ज़्यादा चुस्त। नाज़िम ने ख़ुद को उस फ़िल्म का हीरो महसूस किया जिसके वो मकालमे लिख रहा था। लेकिन जूंही अपनी बीवी का ख़याल आया जो उसके दौलतमंद भाई के घर वर्ली गई हुई थी वो उसी फ़िल्म का एक्स्ट्रा बन गया और सोचने लगा कि उसे ऐसी अय्याशी से बाज़ रहना चाहिए।

    बहुत दिनों के बाद नाज़िम को मालूम हुआ कि ज़ुबैदा का ख़ाविंद किसी मिल में मुलाज़िम है। चूँकि उसकी औलाद नहीं होती इसलिए पीरों-फ़क़ीरों के पीछे फिरता रहता है। कई हकीमों से ईलाज भी करा चुका था। बहुत कम ज़बान, और दाढ़ी-मूंछों से बे-नियाज़। पंजाबी ज़बान में ऐसे मर्दों को खोदा कहते हैं, मालूम नहीं किस रिआयत से, लेकिन इस रिआयत से ज़ुबैदा का ख़ाविंद खोदा था कि वो ज़मीन का हर टुकड़ा खोदता कि उससे उसका कोई बच्चा निकल आए।

    मगर ज़ुबैदा को बच्चे की कोई फ़िक्र थी। वो ग़ालिबन ये चाहती थी कि कोई उसकी जवानी की फ़िक्र करे। जिसके बारे में शायद उसका शौहर ग़ाफ़िल था।

    नाज़िम के इलावा उस बिल्डिंग में एक और नौजवान था। कुँवारा... कुंवारे तो यूं वहां कई थे, मगर उसमें ख़ुसूसियत ये थी कि वो भी कोट-पतलून पहनता था। नाज़िम को मालूम हुआ कि वो भी ग़ुसलख़ाने में से ज़ुबैदा को झांकता है और वो उसी तरह सूराख़ के उस तरफ़ अपने मस्तूर लेकिन ग़ैर मस्तूर जिस्म की नुमाइश करती है।

    नाज़िम पहले पहल बहुत जला। रश्क और हसद का जज़्बा ऐसे मुआमलात में आम तौर पर पैदा हो जाया करता है। लाज़िमन नाज़िम के दिल में भी पैदा हुआ। लेकिन ये कोट पतलून पहनने वाला नौजवान एक महीने के बाद रुख़सत होगया। इसलिए कि उसे अहमदाबाद में अच्छी मुलाज़मत मिल गई थी। नाज़िम के सीने का बोझ हल्का होगया था।

    लेकिन उसमें इतनी जुर्रत थी कि ज़ुबैदा से बातचीत कर सकता। गुसलख़ाना के दरवाज़े के सूराख़ में से वो हर रोज़ उसी अंदाज़ में देखता और हर रोज़ उसके दिमाग़ में हरारत बढ़ती जाती। लेकिन हर रोज़ सोचता कि अगर किसी को पता चल गया तो उसकी शराफ़त मिट्टी में मिल जाएगी। इसीलिए वो कोई तेज़ क़दम आगे बढ़ा सका।

    उसकी बीवी वर्ली से आगई थी। वहां सिर्फ़ एक हफ़्ता रही। उसके बाद उसने ग़ुसलख़ाने में से ज़ुबैदा को देखना छोड़ दिया। इसलिए कि उसके ज़मीर ने मलामत की थी। उसने अपनी बीवी से और ज़्यादा मुहब्बत करना शुरू करदी। शुरू शुरू में उसे किसी क़दर हैरत हुई मगर बाद में उसे बड़ी मसर्रत महसूस हुई कि उसका ख़ाविंद उसकी तरफ़ पहले से कहीं ज़्यादा तवज्जा दे रहा है।

    लेकिन नाज़िम ने फिर ग़ुसलख़ाने में से ताक-झांक शुरू करदी। असल में उसके दिल-ओ-दिमाग़ में ज़ुबैदा का मस्तूर मगर ग़ैर मस्तूर बदन समा गया था। वो चाहता था कि उसकी अंगड़ाइयों के साथ खेले और कुछ इस तरह खेले के ख़ुद भी एक टूटने वाली अंगड़ाई बन जाये।

    फ़िल्म कंपनी से तनख़्वाह बराबर वक़्त पर मिल रही थी। नाज़िम ने एक नया सूट बनवा लिया था। उसमें जब ज़ुबैदा ने उसे अपनी खोली के खुले हुए दरवाज़े में से देखा तो नाज़िम ने महसूस किया कि वो उसे ज़्यादा पसंदीदा नज़रों से देख रही है। उसने चाहा कि दस क़दम आगे बढ़ कर अपने होंटों पर अपनी तमाम ज़िंदगी की तमाम मुस्कुराहटें बिखेर कर कहे, “जनाब सलाम अर्ज़ करता हूँ।”

    नाज़िम यूं तो मुकालमा निगार था। ऐसे फिल्मों के डायलॉग लिखता जो इश्क़-ओ-मुहब्बत से भरपूर होते थे। मगर उस वक़्त उसके ज़ेहन में तआरुफ़ी मुकालमा यही आया कि वो उससे कहे, “जनाब! सलाम करता हूँ।”

    उसने दो क़दम आगे बढ़ाए। ज़ुबैदा कली की तरह खिली मगर वो मुरझा गया। उसको अपनी बीवी के ख़ौफ़ और शराफ़त के ज़ाइल होने के एहसास ने ये बढ़ाए हुए क़दम पीछे हटाने पर मजबूर कर दिया। और अपने घर जाकर अपनी बीवी से कुछ ऐसी मुहब्बत से पेश आया कि ग़रीब शर्मा गई।

    इसी दौरान एक और कोट-पतलून वाला किराएदार बिल्डिंग में आया। उसने भी ग़ुसलख़ाने के सूराख़ में से झांक कर देखना शुरू कर दिया।

    नाज़िम के लिए ये दूसरा रक़ीब था मगर थोड़े ही अर्सा के बाद बर्क़ी ट्रेन से उतरते वक़्त उसका पांव फिसला और हलाक हो गया। नाज़िम को उसकी मौत पर अफ़सोस हुआ, मगर मशियत-ए-एज़दी के सामने क्या चारा है, उसने सोचा शायद ख़ुदा को यही मंज़ूर था कि उसके रास्ते से ये रोड़ा हट जाये। चुनांचे उसने फिर ग़ुसलख़ाने के दरवाज़े के सूराख़ से और अपने तीन कमरों में आते-जाते वक़्त ज़ुबैदा को उन्हीं नज़रों से देखना शुरू कर दिया।

    इत्तिफ़ाक़ ऐसा हुआ कि लाहौर में नाज़िम की बीवी के किसी क़रीबी रिश्तेदार की शादी थी। इस तक़रीब में उसकी शमूलियत ज़रूरी थी। नाज़िम के जी में आई कि वो उससे कह दे कि ये तकल्लुफ़ उससे बर्दाश्त नहीं हो सकता। लेकिन फ़ौरन उसे ज़ुबैदा का ख़याल आया और उसने अपनी बीवी को लाहौर जाने की इजाज़त दे दी। मगर वो फ़िक्रमंद था कि उसे सुबह चाय बना कर कौन देगा।

    ये वाक़ई बहुत अहम चीज़ थी। इसलिए कि नाज़िम चाय का रसिया था। सुबह-सवेरे अगर उसे चाय की दो प्यालियां मिलें तो वो समझता था कि दिन शुरू ही नहीं हुआ। बंबई में रह कर वो इस शय का हद से ज़्यादा आदी होगया था। उसकी बीवी ने थोड़ी देर सोचा और कहा, “आप कुछ फ़िक्र कीजिए... मैं ज़ुबैदा से कहे देती हूँ कि वो आपको सुबह की चाय भेजने का इंतिज़ाम कर देगी।”

    चुनांचे उसने फ़ौरन ज़ुबैदा को बुलवाया और उसको मुनासिब मोजूं अल्फ़ाज़ में ताकीद करदी कि वो उसके ख़ाविंद के लिए चाय की दो प्यालियों का हर सुबह जब तक वो आए इंतिज़ाम कर दिया करे।

    उस वक़्त ज़ुबैदा पूरे लिबास में थी और दूपट्टे के पल्लू से अपने चेहरे का एक हिस्सा ढाँपे कनखियों से नाज़िम की तरफ़ देख रही थी... वो बहुत ख़ुश हुआ। मगर कोई ऐसी हरकत की जिससे किसी क़िस्म का शुबहा होता।

    चंद मिनटों की रस्मी गुफ़्तगु में ये तय होगया कि ज़ुबैदा चाय का बंदोबस्त कर देगी। नाज़िम की बीवी ने उसे दस रुपये का नोट पेशगी के तौर पर देना चाहा मगर उसने इनकार कर दिया और बड़े ख़ुलूस से कहा, “बहन इस तकल्लुफ़ की क्या ज़रूरत है। आपके मियां को कोई तकलीफ़ नहीं होगी। सुबह जिस वक़्त चाहें, चाय मिल जाया करेगी।”

    नाज़िम का दिल बाग़-बाग़ होगया। उसने दिल ही दिल में कहा, चाय मिले मिले... लेकिन ज़ुबैदा तुम मिल जाया करे। लेकिन फ़ौरन उसे अपनी बीवी का ख़याल आया और उसके जज़्बात सर्द होगए।

    नाज़िम की बीवी लाहौर चली गई... दूसरे रोज़ सुबह-सवेरे जब कि वो सो रहा था दरवाज़े पर दस्तक हुई। वो समझा शायद उसकी बीवी बावर्चीख़ाने में पत्थर के कोयले तोड़ रही है। चुनांचे करवट बदल कर उसने फिर आँखें बंद करलीं। लेकिन चंद लम्हात के बाद फिर ठक-ठक हुई और साथ ही महीन निस्वानी आवाज़ आई, “नाज़िम साहब, नाज़िम साहब।”

    नाज़िम का दिल धक-धक करने लगा... उसने ज़ुबैदा की आवाज़ को पहचान लिया था। उसकी समझ में आया कि क्या करे। एक दम चौंक कर उठा। दरवाज़ा खोला, ज़ुबैदा दोनों हाथों में ट्रे लिए खड़ी थी। उसने नाज़िम को सलाम किया और कहा, “चाय हाज़िर है।”

    एक लहज़े के लिए नाज़िम का दिमाग़ ग़ैर हाज़िर होगया। लेकिन फ़ौरन सँभल कर उसने ज़ुबैदा से कहा, “आपने बहुत तकलीफ़ की... लाईए ये ट्रे मुझे दे दीजिए।”

    ज़ुबैदा मुस्कुराई, “मैं ख़ुद अन्दर रख देती हूँ... तकलीफ़ की बात ही क्या है।”

    नाज़िम शब ख़्वाबी का लिबास पहने था। धारीदार पापलीन का कुरता और पाएजामा। ये अय्याशी उसने ज़िंदगी में पहली बार की थी। ज़ुबैदा शलवार-क़मीस में थी। उन दोनों लिबासों के कपड़े बहुत मामूली और सस्ते थे मगर वो उस पर सज रहे थे।

    चाय की ट्रे उठाए वो अंदर आई। उसको तिपाई पर रखा और नाज़िम के चिड़िया ऐसे दिल को कह कर धड़काया, “मुझे अफ़सोस है कि चाय बनाने में देर हो गई। दरअसल मैं ज़्यादा सोने की आदी हूँ।”

    नाज़िम कुर्सी पर बैठ चुका था जब ज़ुबैदा ने ये कहा तो उसके जी में आई कि ज़रा शायरी करे और उससे कहे, “आओ... सो जाएं... सोना ही सबसे बड़ी नेअमत है।”... लेकिन उसमें इतनी जुर्रत नहीं थी, चुनांचे वो ख़ामोश रहा।

    ज़ुबैदा ने बड़े प्यार से नाज़िम को चाय बना करदी... वो चाय के साथ ज़ुबैदा को भी पीता रहा। लेकिन उसकी क़ुव्वत-ए-हाज़िमा कमज़ोर थी। इसलिए उसने फ़ौरन उससे कहा, “ज़ुबैदा जी, आप और तकलीफ़ करें... मैं बर्तन साफ़ कराके आपको भिजवा दूँगा।”

    नाज़िम को इस बात का एहसास था कि उसके दिल में जितने बर्तन हैं, ज़ुबैदा की मौजूदगी में साफ़ कर दिए हैं।

    बर्तन उठा कर जब वो चली गई तो नाज़िम को ऐसा महसूस हुआ कि वो थोथा चना बन गया है जो घना बज रहा है।

    ज़ुबैदा हर रोज़ सुबह-सवेरे आती। उसे चाय पिलाती। वो उसको और चाय दोनों को पीता। और अपनी बीवी को याद करके डरके मारे रात को सो जाता। दस बारह रोज़ ये सिलसिला जारी रहा। ज़ुबैदा ने नाज़िम को हर मौक़ा दिया कि वो उसकी टूटने वाली अंगड़ाइयों को तोड़ दे। लेकिन नाज़िम ख़ुद एक ग़ैर मुख़्ततिम अंगड़ाई बन के रह गया था।

    उसके पास दो सूट थे मगर उसने चरनी रोड की उस दुकान से जहां उस फ़िल्म कंपनी का सेठ कॉस्ट्यूम बनवाया करता था एक और सूट सिलवाया और उससे वाअदा किया कि रक़म बहुत जल्द अदा करदेगा।

    गबर्डीन का ये सूट पहन कर वो ज़ुबैदा की खोली के सामने से गुज़रा। हस्ब-ए-मामूल वो बनियान और पेटीकोट पहने थी। उसे देख वो दरवाज़े के पास आई। महीन सी मुस्कुराहट उसके सुर्ख़ी लगे होंटों पर नुमूदार हुई और उसने बड़े प्यार से कहा, “नाज़िम साहब, आज तो आप शहज़ादे लगते हैं।”

    नाज़िम एक दम कोह-ए-क़ाफ़ चला गया... या शायद उन किताबों की दुनिया में जो शहज़ादों और शहज़ादियों के अज़कार से भरी पड़ी हैं। लेकिन फ़ौरन वो अपने बर्क़ रफ़्तार घोड़े पर से गिर कर ज़मीन पर औंधे मुँह रहा और अपनी बीवी से जो लाहौर में थी कहने लगा सख़्त चोट लगी है।

    इश्क़ की चोट यूं भी बड़ी सख़्त होती है, लेकिन जिस क़िस्म का इश्क़ नाज़िम का था। उसकी चोट बहुत शदीद थी। इसलिए कि शराफ़त और उसकी बीवी उसके आड़े आती थी।

    एक और चोट नाज़िम को ये लगी कि उसकी फ़िल्म कंपनी का दीवालिया पिट गया। मालूम नहीं क्या हुआ, बस एक दिन जब वो कंपनी गया तो उसको मालूम हुआ कि वो ख़त्म होगई... उससे पाँच रोज़ पहले वो सौ रुपये अपनी बीवी को लाहौर भेज चुका था... सौ रुपये चरनी रोड के बज़ाज़ के देने थे कुछ और भी क़र्ज़ थे।

    नाज़िम के दिमाग़ से इश्क़ फिर भी निकला... ज़ुबैदा हर रोज़ चाय लेकर आती थी। लेकिन अब वो सख़्त शर्मिंदा था कि इतने दिनों के पैसे वो कैसे अदा करेगा। उसने एक तरकीब सोची कि अपने तीनों सूट जिनमें नया गबर्डीन का भी शामिल था गिरवी रख कर सिर्फ़ पच्चास रुपये वसूल किए। दस-दस के पाँच नोट जेब में डाल कर नाज़िम ने सोचा कि इनमें दो-चार ज़ुबैदा को दे देगा, और उससे ज़रा खुली बात करेगा लेकिन दादर स्टेशन पर किसी जेब कतरे ने उसकी जेब साफ़ कर दी।

    उसने चाहा कि ख़ुदकुशी करले, ट्रेनें जा रही थीं प्लेटफार्म से ज़रा सा फिसल जाना काफ़ी था। यूं चुटकियों में उसका काम तमाम हो जाता। मगर उसको अपनी बीवी का ख़याल आगया जो लाहौर में थी और उम्मीद से।

    नाज़िम की हालत बहुत ख़स्ता होगई। ज़ुबैदा आती थी लेकिन उसकी निगाहों में अब वो बात नाज़िम को नज़र नहीं आती थी। चाय की पत्ती ठीक नहीं होती थी। दूध से तो उसे कोई रग़बत नहीं थी लेकिन पानी ऐसा पतला होता था, इसके इलावा अब वो ज़्यादा सजी बनी होती थी।

    ग़ुसलख़ाने में जाता और उसे दरवाज़े के सूराख़ में से झांकता वो नज़र आती... लेकिन नाज़िम ख़ुद बहुत मुतफ़क्किर था। इसलिए कि उसे दो महीनों का किराया अदा करना था। चरनी रोड के बज़ाज़ के और दूसरे लोगों के क़र्ज़ की अदायगी भी उसके ज़िम्मे थी।

    चंद रोज़ में नाज़िम को ऐसा महसूस हुआ कि उसका जो बहुत बड़ा बैंक था फ़ेल होगया है। उसकी टांच आने वाली थी, मगर इससे पहले ही उसने किराए वाली बिल्डिंग से नक़्ल-ए-मकानी का इरादा करलिया। एक शख़्स से उसने तय किया कि वो उसका क़र्ज़ अदा कर दे तो वो उसको अपने तीन कमरे दे देगा। उसने उसके तीनों सूट वापस दिलवा दिए। छोटे मोटे क़र्ज़ भी अदा कर दिए।

    जब नाज़िम ग़मनाक आँखों से किराए वाली बिल्डिंग से अपना मुख़्तसर सामान उठवा रहा था तो उसने देखा ज़ुबैदा नए मकीन को जो शार्क स्किन के कोट-पतलून में मलबूस था ऐसी नज़रों से देख रही है, जिनसे वो कुछ अर्सा पहले उसे देखा करती थी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : باقیات منٹو

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